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के होतई बिहार के मांझी

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चित्र: गूगल से साभार



 
बिहार के सुशासन को चुनौती देते कुछ तत्व
भवप्रीतानंदकी क़लम से
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पार्टी को अपना नेता चुनने में कोई खास परेशानी नहीं हुई थी। दल की एकता  और गांधी परिवार की आशक्ति ने एकमत से राजीव गांधी को नेता चुन लिया। लालू यादव के लिए भी चारा घोटाला में फंसने के बाद मुख्यमंत्री के पद पर बने रहना असंभव हो गया था, तो पार्टी में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए कोई और नहीं सूझा, पत्नी राबड़ी के अलावा। इससे न सिर्फ वह पार्टी पर कमांड रख सके, बल्कि सत्ता में भी छाया प्रशासक की भूमिका निभाते रहे। नीतीश कुमार के पास शायद ऐसा कोई नहीं था। इसलिए उन्होंने महादलित जीतनराम मांझी को चुना। नीतीश ऊपर के दोनों दोनों उदाहरण से थोड़ा  अलग इसलिए हैं कि उन्होंने सत्ता  लोकसभा में बिहार में मिली करारी हार के कारण छोड़ी थी। कमान जीतनराम मांझी को यह सोचकर दी थी, कि वह उसी कार्य परंपरा को बनाए रखेंगे, जो वह आठ वर्षों से बनाए रखे थे। इससे नीतीश ने जनता के सामने यह साबित करने का प्रयास किया कि हार के बाद उन्होंने सत्ता में बने रहने का आधिकार खो दिया है।
आम आदमी पार्टी फिर से जब दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुई है, तो पार्टियों को दो खेमे में बांटकर देखने का चलन शुरू हुआ है। एक परंपरागत पार्टी का खेमा बना है जो वर्षों से राजनीति कर रहा है और नाम अलग-अलग  होने के बाद भी चारित्रिक रूप से दोनों एक हैं। मतलब दोनों में दागी नेताओं  की कमी नहीं है। दोनों के पास काले धन हैं। सत्ता में जो रहता है, वह इन दागी नेताओं से परहेज नहीं करता है। या फिर सत्ता में रहकर भी जो अलोकतांत्रिक फैसले लेता से उसपर तुरंत कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, जब तक की पानी सिर के ऊपर ने न गुजर जाए।

इन्हीं परंपरागत राजनीतिक  दलों में से कई नेता ऐसे भी हैं जिन्होंने विकास को एक नया आयाम दिया है। ओडिशा, छत्तीसगढ़, एमपी में वर्षों से परंपरागत पार्टी के नेताओं ने लीक से हटकर काम करके दिखाया, तो लोग उन्हें सत्ता में बनाए हुए है। बिहार के नीतीश कुमार भी ऐसे सीएम की केटगरी में देखे जाते हैं जो विकास की राजनीति करते हैं। काम के बल पर वोट मांगते हैं और जातीय गणित के जोड़-तोड़ में लिप्त रहने वाला राज्य भी उन्हें सत्ता में बनाए रखता है।

नीतीश ने भाजपा से नाता तोडऩे के बाद जो राजनीति की है, वह कई शंकाओं को जन्म देती है। लालू यादव से हाथ मिलाकर उन्होंने जातीय गणित को दुरुस्त करने की भले कोशिश की हो, पर जिस दम पर उनकी राजनीतिक  शख्सियत बनी थी, उसपर सवालिया निशान लग गया है। यह चुभने वाली बात है। जदयू और नीतीश नरेंद्र मोदी की अखिल भारतीय स्वीकृति को नहीं आत्मसात कर पाए, यह बात अपने-आप में और अपनी जगह ठीक हो सकती है। पर जदयू-शरद यादव-नीतीश कुमार इसके काट के लिए लालू यादव को गले लगाते हैं, यह बात कुछ हजम नहीं हो रही है।

लोकसभा चुनाव में हार के बाद भी नीतीश बिहार की सत्ता में बने रहते, तो लोगों में कोई बहुत गलत संदेश नहीं जाता। खासकर तब जब कि उन्होंने आठ वर्ष राज कर लिया था और बिहार में विकास की स्थिति को गतिशील बना दिया था। २०१५ अंत में जब वह जनता के सामने रिपोर्ट कार्ड लेकर जाते, तो शायद उनकी स्थिति भाजपा और राजद से बेहतर ही होती। पर जीतनराम मांझी के बेसुरा होने के बाद और लालू यादव को गले लगाने के बाद नीतीश उस रिपोर्ट कार्ड को बहुत अधिकार के साथ प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं हो पाएंगे, जिसे वह सुशासन कहते हैं। जीतनराम मांझी ने नीतीश की छवि सत्ता लोलुप की बना दी है। शायद इसी कारण वह जीतनराम मांझी के चुनाव को  अपनी बड़ी भूल मान रहे हैं। पर अगर बिहार की जनता विकास की राजनीति को मानक मानकर वोटे देती है तो जीतनराम मांझी से अधिक खतरनाक उनका लालू  यादव से गठबंधन वाला दांव रहेगा। लालू यादव ने सत्ता में आने के बाद से वहां बने रहने के लिए उसका जितना गलत इस्तेमाल करना था, किया था। उन्होंने बिहार में चुनाव का मखौल बनाकर रख दिया था। जिस सुशासन को नीतीश अपना गहना मानते हैं, क्या उनके साथी लालू यादव भी उसे इसी रूप में देखते हैं। यह प्रश्न इसलिए लाजिमी है क्योंकि लालू यादव को लठैती की भाषा समझ में आती है। वह चीजों को व्यवस्थित तरीके से देख ही नहीं सकते। बिहार में विकास के ग्रिप में आई जनता लालू यादव को सिरे से नकारती है। क्योंकि उन्होंने अपने कर्मों का कोई प्रायश्चित नहीं किया है। उन्होंने  कुछ ऐसा कर नहीं दिखाया है जिससे कि बिहार की जनता समझे कि चलो अब लालू यादव को सद्बुद्धि आई। ऐसी स्थिति में नीतीश का लालू के गले लगना खतरे से खाली नहीं है। क्योंकि मिलकर अगर उन्हें सत्ता मिलती है तो नीतीश के सुशासन के रथ में पहिए सुरक्षित रह भी पाएंगे-इसमें शक है।
दिल्ली में भाजपा की करारी हार के बाद जीतनराम मांझी नामक वायरस से नीतीश को आने वाले सप्ताह में मुक्ति मिल सकती है। पर मांझी के वायरस ने नीतीश को सताने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। १६ फरवरी को जब हाईकोर्ट ने जीतनराम मांझी के थोक में लिए गए फैसले पर रोक लगाई तो पहली बार उनके चेहरे पर हार का डर दिखने लगा। दिल्ली में भाजपा की करारी हार के बाद से भाजपा भी बहुत उत्सुक होकर माझी के साथ नहीं चल रही है। नीतीश के दूसरी बार विधायक दल के नेता चुने जाने के बाद सत्ता पाने के लिए जो हड़बड़ाहट दिखा रहे हैं वह उनके व्यक्तित्व के इतर है। पर बात सिर्फ फिर से सीएम बन जाने की नहीं है। बात है साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव की है। वह क्या लालू यादव को साथ लेकर चुनाव जीता जा सकता है।
आप ने हर परंपरागत पार्टियों के लिए चुनौती खड़ी कर दी है। उसके सुशासन की परिभाषा नीतीश कुमार से भी अलग है। अगर पूरे देश की जनता ऐसे ही मानक को प्रतिमान मानकर लोगों को चुनती है तो लालू से गठबंधन नीतीश के लिए गले की फांस बन जाएगी। नीतीश जब फिर से सीएम बनेंगे तो उन्हें बहुत संभलकर कदम रखने होंगे। लालू यादव से हुए गठबंधन को अवसरवादी नहीं बताकर उसकी स्पष्टता की व्याख्या जनता के समझ प्रस्तुत करना पड़ेगा। यह चुनौती कई मायनों में अधिक जटिल है। जातीय गणित बिहार की राजनीति में अहम है। बिहार क्या पूरे देश की राजनीति में अहम है। पर लोग अब इससे परे भी देखने लगे हैं। देखने के आदी हो रहे हैं। तो राजनीति को भी उसके अनुसार बदलना होगा। राजनीति करने वाले को भी जातीय गोटी फिट करने से इतर सड़क-बिजली-पानी-शिक्षा आदि विषय-वस्तुओं पर ध्यान देना होगा। लालू यादव क्या राजनीति के इस परिवर्तन को देख-महसूस कर पा रहे हैं? नीतीश से उनका गठबंधन भी तभी सफल होगा जब विकास की राजनीति का मोर्चा उनके लिए भी जुनून का विषय बनेगा।



 









(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )
 
हमज़बान पर पढ़ें  भवप्रीतानंद को


‘मुर्दहिया’ के बहाने लोक-चिंता

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ज़मीन की अतल गहराईयों में धँसी थी जिसकी जड़े






 






सुनील यादव की क़लम से

मुर्दहिया तद्भव में छप रही थी उससे पहले मैं प्रो. तुलसी राम को बहुत कम जानता था, अगर जानता था तो गोरख पाण्डेय पर उनके अविस्मरणीय और जीवंत सस्मरणों  के लिए. अद्भुत यदाश्त थी इस व्यक्ति के पास, बनारस से लेकर जेएनयू तक के गोरख से जुड़े किस्से जब वे सुनाते थे तो एक छवि बनती जाती थी गोरख की और साथ में तुलसी राम जी की भी.  हालांकि बाद में उन्होने अपनी आत्मकथा मणिकर्णिका में उसे लिखा भी । मुर्दहिया को तद्भव में पढ़ने के बाद उसकी फोटो कॉपी के साथ मैं प्रो. तुलसी राम के गाँव धरमपुर पहुंचा.  धरमपुर मेरे गाँव से लगभग 35 किलोमीटर दूर है। वहाँ पहुँचकर यह अहसास हुआ कि कुछ नहीं बदला है, मैं उसी मुर्दहिया में खड़ा हूँ.  यह मुर्दहिया सिर्फ धरमपुर में ही नहीं है यह मुर्दहिया पूर्वी उत्तरप्रदेश के हर गाँव में है। अन्य गांवो की तरह दक्खिन टोला मेरे गाँव में भी है जिसे लोग ‘चमरौटी’ कहते हैं, यह ‘चमरौटी’ उसी तरह नहीं है, जिस तरह अहिराना, कोइराना, साहबाना या कनुवाना है, यह चमरौटी एक पूरवा का नाम नहीं है बल्कि एक घृणा का नाम है, यह एक तरह की गाली है, जो इसमें रहने वालों की आत्मा को हर रोज छलनी करती रहती है । मुर्दहिया इसी दक्खिन टोले का मर्मांतक दास्तावेज है । यह अकारण नहीं है कि तुलसीराम अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ नाम से लिखते हैं.  हिंदू समाज में जो स्थान मणिकर्णिका का है वही स्थान उनके गाँव धरमपुर की दलित बस्ती का मुर्दहिया से है। वे लिखते भी हैं कि “उनमें से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो उसका शीर्षक मुर्दहिया ही होता।”
    
युवा कथाकार और पत्रकार अनिल यादव उनके संदर्भ में बिलकुल सटीक लिखते है कि “वे लंबे समय तक स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में प्रोफेसर रहे। लेकिन कभी उस फर्मे में फ़िट नहीं बैठे जिसमें सगर्व समा जाने के बाद जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के ज़्यादातर अध्यापक चमकीले प्लास्टिक के बने ज्ञानी लगने लगते हैं। उन्हें देखकर हमेशा मुझे उस धातु की महीन झंकार सुनाई देती थी जिसके कारण भुखमरी, जातीय प्रताड़ना का शिकार, सामंती पुरबिया समाज में दुर्भाग्य का प्रतीक वह चेचकरू, डेढ़ आंख वाला दलित लड़का घर से भागकर न जाने कैसे अकादमियों में तराश कर जड़ों से काट दिए गए प्रोफेसरों की दुनिया में चला आया था। अपमान से कुंठित होने के बजाय पानी की तरह चलते जाने का जज़्बा उन्हें बहुतों के दिलों में उतार गया था। तुलसी राम ने दिखाया कि दलित सिर्फ बिसूरते नहीं हैं, उनकी भी आत्मसम्मान की रक्षा के लिए लड़ने की परंपरा है, अपने हथियार हैं।”(कबाड़खाना ब्लॉग पर)
    प्रख्यात दलित चिंतक प्रो. तुलसी राम के चिंतन पर बहुत कुछ लिखा गया है उसे मैं छोड़ रहा हूँ, मैं उनके एक बिलकुल अलग रूप को आपके सामने रखने जा रहा हूँ, वह है उनकी ‘लोक चिंता’। इनकी चर्चित आत्मकथा मुर्दहिया लोक-चेतना से सराबोर है। इस आत्मकथा ने आत्मकथा के लगभग सारे प्रतिमानों के साथ सिद्धांतों को भी ध्वस्त कर दिया । जहाँ परंपरागत आत्मकथाओं में लेखक ‘मैं’ से ‘समाज की ओर जाता है। वही इस आत्मकथा में लेखक अपने समाज की पूरी सांस्कृतिक प्रक्रिया से गुजरते हुए ‘अपने’ तक आता है। इसमें लेखक अपने समाज का जिस तरह समाजशास्त्रीय आख्यान प्रस्तुत करता है,  वह किसी भी समाज के अध्ययन के लिए समाजशास्त्रियों को चुनौती है। अपने समाज के जीवन स्तर के एक-एक तत्व की बेबाक प्रस्तुति है ‘मुर्दहिया’। इसमें लोक की तमाम रीति-रिवाज, परंपराएँ, लुप्त होते संस्कार, गीत तथा जातियों के साथ अपने भाषा के लुप्त होते शब्दों को बचा लेने की जोरदार मुहिम है। इसमें ‘लोक’ और ‘लेखक’ एक-दूसरे के सहचर बनकर चलते हैं। प्रो. तुलसीराम ने लिखा है कि ‘‘मेरे जैसा कोई अदना जब भी पैदा होता है। वह अपने इर्द-गिर्द घूमते लोक-जीवन का हिस्सा बन ही जाता है। यही कारण था कि लोकजीवन हमेशा मेरा पीछा करता रहा।”1

आज जिस तरह बाज़ारीकरण ने गाँवों को अपने चपेट में लिया है। गाँवों की सामूहिकता नष्ट-भ्रष्ट हो गई है। कई लोक-कलाएँ लुप्त होती जा रही हैं और कितनी तो नष्ट हो गई है। इसके बारे में ‘मुर्दहिया’ में प्रो. तुलसीराम लिखते हैं कि ”शादी विवाहों के इन अवसरों पर भांड़-मंडलियों या नौटंकियों का आयोजन दलितों के बीच आम बात थी। इन अत्यंत आकर्षक मंडलियों या नौटंकियों में नाटक से लेकर गायक, तबलची, अभिनेता, स्वांग आदि कोई प्रोफेशनल व्यक्ति नहीं बल्कि वही अधपेटवा गुजारा करने वाले हरवाहे हुआ करते थे।”2 वास्तव में लोक कलाकार बनने के पीछे भूख के अर्थशास्त्र को रेखांकित करना, उसके नष्ट होने के कारणों तक पहुँचने का रास्ता भी दिखाता है। बाज़ारवाद के दबाव के बीच ‘थियेटर’ तक दम तोड़ने लगे हैं तो ये लोक कलाएँ कैसे ठहर पाती। आज लोक कलाकारों की स्थितियाँ आत्महत्या तक पहुँच चुकी है। यह भूख के अर्थशास्त्र से ही समझा जा सकता है।
    “लोक कला मंडलियों में लैला-मजनूँ, शीरी-फरहाद, सुल्ताना डाकू आदि जैसे नाटकों का मंचन भी दलित कलाकार आकर्षक ढंग से करते थे। इन सभी नाटकों का अंत एक विचित्र समापन शैली में होता था।... इस कड़ी में बरात प्रस्थान के समय एक खास किस्म का नृत्य किया जाता था, जिसे ‘दुक्कड़’ कहते थे। यह बहुत शक्तिशाली नृत्य होता था। इसमें सिर्फ दो कलाकार एक दफलावादक तथा दूसरा दुक्कड़ची नर्तक हाता था, दफले की जोरदार लक्कड़ ध्वनि पर नाचने वाला व्यक्ति गोलाकार आवृत्ति में नाचते हुए तरह-तरह की कलाबाजियाँ दिखाता रहता था। इन कलाबाजियों में उसका मुकाबला तबलची स्वयं करता था।.... ऐसे ही एक नाच हुआ करता था ‘हूड़क’ की ध्वनि पर ‘कहंरउवा’। हूड़क डमरू की आकृति वाला उससे काफी बड़ा वाद्य होता था, जिसे कलाकार अपनी बांह के नीचे कांख में दबा लेता था तथा उसे अपनी कुहनी से बजाता था। यह बड़ा गजब का वाद्य होता था, जिससे बहुत सुरीली ‘केहुरवा’ शैली में आवाज निकलती थी। वाद्यक स्वयं जो कुछ गाता था, उसके बीच-बीच में ‘दहि दहि दे-दहि दहि दे’ नामक तकियाकलाम भी ठोंक देता था।... आज के जमाने में तो वे सम्भवतः विलुप्त ही हो गए हैं।... एक रोचक बात यह थी कि इस तरह की सारी लोककलाएँ सिर्फ दलितों के बीच ही केंद्रित थीं। सवर्ण जातियों में किसी तरह की लोककला मौजूद नहीं होती थी। शायद यही कारण था जिसके चलते इन कलाओं के साथ जाति सूचक विशेषण जुड़ गए थे जैसे-चमरउवा नाच, या गाना, धोबियउवा नाच कहैरउवा धुन, गोड़इता नाच (हूड़क के साथ) आदि।”3
इन लोक कलाओं के बाद लोकगीतों पर आते हैं। लोकगीतों की सबसे बड़ी विशेषता संप्रेषीकरण की होती है। लगभग हर प्रकार के उत्सव तथा श्रम के अलग-अलग गीत लोक में प्रचलित थे, जिनका सौंदर्यबोध अभिजात साहित्य के सौंदर्यबोध से एकदम भिन्न होता है। “धान की रोपनी करती हुई दलित मजदूरिनें हमेशा एक लोकगीत की कुछ पंक्तियाँ दिन भर गाती रहतीं थीं, जो इस प्रकार थीं, अरे रामा परि गय, बलुआ रेत, चलब हम कइसे ऐ हरी।’  इसी तरह जब मजदूरिनें पूर तथा घर्रा के दौरान मोट छिनते हुए कुँए से पानी निकालतीं तो दलित मजदूर एक लोकगीत गाते:
ऊँचे-ऊँचे कुअना क नीची बा जगतिया रामा
निहुर के पनिया भरै, हइ रे साँवर गोरिया
पनिया भरत कै हिन कर झुमका हेरैले रामा
रोवत घरवां आवै ले रे सावर गोरिया।
पनिया भरत के हिन कर टीकवा हेरैले रामा
रोवत घरवा आवै ले रे सांवर गोरिया।”4

इस प्रकार औरत के सारे आभूषणों के कुएँ में गुम हो जाने का वर्णन हो जाता था। यह आभूषण औरतों के मन की कल्पना हुआ करते थे और ये गीत के माध्यम से कुछ देर ही सही कल्पना में जी कर खुश हो लिया करती थीं। “इस प्रकार श्रम के अनेक सौंदर्य गीत भुखमरी के शिकार दलित के जीवन के अभिन्न अंग थे, जो किसी कालिदास या जयदेव के बस की बात नहीं थी।”5  “इसी तरह बालविवाह जैसी कुरीतियों पर तीखी टिप्पणियाँ, जो नंगी सच्चाइयों का पर्दाफाश कर देने वाली होती थीं......इस पर विरहा शैली में बड़ा लोकप्रिय गीत गाया जाता था, जिसकी इन पंक्तियों में गूढ़ रहस्य छिपे रहते थे, जैसे- बाबा विदा करौ लं लरिका क मेहरिया रहरिया में बाजै घुंघरू।”6
    “उपरोक्त पंक्तियों में छिपा हुआ रहस्य यह है कि बाल-विवाह से उत्पन्न कुरीति के कारण बालक दूल्हे की जवान पत्नी को उसका ससुर अरहर और सनई की संयुक्त खड़ी फसल के बीच से जाने वाले रास्ते से विदा कराकर ले जा रहा है। अतः सामाजिक रूप से अमान्य व्यवहार के स्पर्श से गहन फसल के बीच सनई के पौधों से घुंघरू की गूंजती आवाजों से सारा रहस्य उजागर हो जाता है। ‘गीत गोविन्दम’ में जयदेव द्वारा वर्णित कृष्ण के शारीरिक स्पर्श से राधा के पैरों में बंधी पायल के खनक जाने से जो रहस्य खुल जाता है, उससे कहीं ज्यादा सौंदर्यशास्त्रीय रहस्य इन लोकगीतों में मिलता है।”7
 
ऐसे ही लोक के तमाम विषयों एवं उत्सवों पर लोकगीतों की भरमार थी, जो आज लुप्त होती जा रही है। पूरे लोक के सांस्कृतिक एवं सामाजिक परंपरा को अपने अंदर समेटे ये लोकगीत आज लोक से बिसर गये हैं। गाँवों में बच्चों को बहलाने के लिए काव्यमय कहानियाँ गाई जाती थीं जैसे,  ‘‘राजा रानी आवैली, पोखरा खनावैली, पोखरा के तीरे-तीरे इमिली लगावैली, इमिली के खोढ़रा में बत्तीस अंडा, रामचंद्र, फटकारै डंडा, डंडा गयल रेत में-मछरी के पेट में, कौआ कहे काँव-काँव, बिलार कहै झपटो-आ लगड़ी क टांग धइके रहरी में पटको रहरी में पटको।”8  इसी तरह एक अन्य लघुकथा गाई जाती थी, जो इस प्रकार है-  “कड़ा-कड़ा कौआ, नेपाल क बेटउवा, नेपाल गइलै डिल्ली, उठाइके लिअउलै पिल्ली, खेलावा हो कौआ, खेलावा हो कौवा।”9
आज न तो ऐसे काव्यमय कहानी गाकर बहलाने वाला बचा है और ना ही कोई इसे सुनने वाला। पर इन काव्यमय कहानियों का बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक पक्ष होता था, जो बच्चों में जिज्ञासु होने की प्रवृत्ति को पैदा करता था।
प्रो. तुलसी राम ने अपने इस आत्मकथा में बच्चों के उन तमाम खेलों का विस्तार से वर्णन करते हैं जो आज क्रिकेट के चकाचैंध में गायब हो गए हैं। ‘अक्का-बक्का’’’10 से लेकर ‘लखनी’ तथा ‘ओल्हवा के पाती’ तक के खेलों का परिचय ‘मुर्दहिया’ में मिलता है। ‘लखनी’ और ‘ओल्हापाती’ खेल में “एक-दो फिट पतली लकड़ी पेड़ के नीचे रख दी जाती, फिर एक लड़का पेड़ से कूदकर उस लकड़ी जिसे ‘लखनी’ कहा जाता था, को उठाकर अपनी एक टांग ऊपर करके उसके नीचे से फेंककर पेड़ पर पुनः चढ़ जाता था। जहाँ लखनी गिरती थी, पेड़ के नीचे खड़ा दूसरा लड़का उसे उठाकर दौड़ता हुआ पुनः पेड़ के नीचे आकर उसी लखनी से पहले वाले को जमीन से ऊपर कूदकर छूने की कोशिश करता, वह भी सिर्फ एक बार में। यदि उसे छू लिया तो पेड़ चढ़े लड़के को मान लिया जाता कि वह अब ‘मर’ चुका है, इसलिए वह खेल से बाहर हो जाता था फिर लखनी से छूने वाला लड़का विजेता हो जाता। इस ‘मरे’ हुए लड़के को पेड़ के नीचे खड़े होना पड़ता तथा विजेता पेड़ पर चढ़ जाता और खेल की वही प्रक्रिया दोहराई जाती।”11
विवाह के दौरान दीवारों पर ‘कोहबर’ कलाकृतियाँ बनाने की परंपरा थी। “दीवार पर गेरू तथा हल्दी से जो पेंटिंग की जाती थी, उसे कोहबर कहा जाता था। ऐसी कलाकृतियों में केले का पेड़, हाथी, घोड़े, औरत, धनुषवाण आदि शामिल होते थे। एक विशेष बात यह थी कि इन कोहबर कलाकृतियों का प्रचलन सवर्ण जातियों में नहीं था। इन परंपराओं से जाहिर होता है कि सदियों से चला आ रहा दलितों का यह बहिष्कृत समुदाय एक अलौकिक कला एवं संगीत का न सिर्फ संरक्षक रहा, बल्कि उसका वाहक भी है। अशिक्षा के कारण लिपि का ज्ञान न होने के कारण दलित लोग संभवतः भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अभिव्यक्ति के लिए कोहबर पेंटिग का सहारा लिया था।”12
बाजारवाद की मार सबसे ज्यादा लोक में उन लोगों पर पड़ी जो गांवों में घूम-घूम कर सामान बेचा करते थे। जैसे “हिंगुहारा’ हिंग बेचने वाला, ‘पटहारा’ जो शीशा, कंघी, सुई-डोरा, टिकुली इत्यादी चीज़ बेचता था, ‘चुड़िहारा’ जो चूड़ियाँ बेचता था। ‘कपड़हारा’ जो कपड़ा बेचता था।”13 यह सब आज लोक से गायब हैं और बाजार लोक में अंदर तक घुस आया है। ऐसे ही ‘डोम’ जो टोकरी चंगेरी, छिट्टा, दउरी इत्यादि बनाते थे, धोबी जो कपड़ा धोते थे, ‘कुम्हार’ जो वर्तन बनाते थे, ‘नाई’ इत्यादि व्यवसायिक जातियाँ आज लोक से विलुप्त हो रही है। मुर्दहिया में इनके चिंता से रूबरू होने का प्रयास दिखता है।
प्रो. तुलसी राम ने अपने दादी के माध्यम से अनेक दवाओं की चर्चा करते हैं, जो लोक में ‘खरबिरिया’ दवाएँ के नाम से जानी जाती हैं, जैसे- “दाल चीनी तथा बांस का सींका पीसकर ललाट पर लगाने से सिरदर्द बंद हो जाता था।”14 पेचिश की बीमारी के लिए “अमरूद या अमलताश की पत्ती पीसकर छानने के बाद उसके रस को पिलाया जाता।”15 खुजली ठीक करने के लिए ‘‘भंगरैया नामक पौधे की पत्तियाँ पीसकर छोपने से खुजली ठीक हो जाती है।”16 फोड़े फुंसी के ऊपर “अकोल्ह के पत्ते पर मदार का दूध पोतकर चिपकाने से वह ठीक हो जाते।”17 इस प्रकार के अनेकों दवाएँ लोक में उपलब्ध थीं, जिनका उपयोग किया जाता था।
‘मुर्दहिया’ के बहाने लोक के पुर्नसृजन का प्रयास प्रो. तुलसी राम करते हैं, उनकी नजर लोक के उन सब चीजों तक जाती है, जो आज विलुप्त हो गये हैं या होने के कगार पर हैं। वे विस्तार से उन चीजों को फिर से संजोते हैं। खेती के उपकरणों से लेकर सिंचाई के साधनों तक जिनका प्रयोग पहले से होता था, का विस्तार से वर्णन यहाँ मिलता है। लोक की तमाम प्रकार की कुरीतियों की समाजशास्त्रीय आधारों की चर्चा भी यहाँ मिलती है, जिसमें एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिखता है।
लोकोक्तियों तथा लोक के उन शब्दों को जिनका प्रयोग आज होना बंद हो गया है, उन्हें वे पुर्नव्याख्यायित करते हैं। लोक का पूरा संस्कार ‘मुर्दहिया’ में जीवित हो उठता है। यही इसकी विशेषता भी है। लेखक लोक से किस तरह संपृक्त है इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है “चरवाही के दौरान हम किसी के खेत से पकी-पकी धान की बालियाँ पांग कर लाते और गमछा बिछाकर उन्हें लाठी के हूरे से मूसल की तरह कूच-कूच कर चावल बना देते। इस थोड़े से चावल को हम आग जलाकर छोटी सी मिट्टी की भरूकी में पकाते तथा वहीं किसी की बकरी को दूहकर पलाश के पत्ते के दोने में दूध निकालते। बकरी के इस कच्चे दूध में सिंघोर की पत्ती के तोड़ने से निकलते द्रव की एक-दो बूँद मिला दिया जाता, जिससे तत्काल दहीं जम जाती थी। भरूकी में ही मटर की दाल पकाई जाती, जिसमें पलाश का पत्ता डाल देने से वह तुरंत गल जाती थी।”18 

तत्काल दही जमाने तथा तुरंत दाल गलाने का उपाय लोक में ही मिल सकता है। यही लोक की ताकत है, जिसका अहसास मुर्दहिया से गुजरते हुए बार-बार होता रहता है।
    अंत में प्रो तुलसी राम के लिए यह कह सकते हैं कि जमीन की अतल गहराईयों में धँसी थी जिसकी जड़े वह बरगद इतनी जल्दी ढह जाएगा ऐसी आशा न थी ।


संदर्भ:
1.    मुर्दहिया (आत्मकथा प्रथम खण्ड) प्रथम संस्करण-2010) - प्रो.
तुलसीराम,     राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ - 5
2.    वही पृष्ठ - 106
3.    वही पृष्ठ - 107-108
4.    वही पृष्ठ - 67
5.    वही पृष्ठ - 67
6.    वही पृष्ठ - 106
7.    वही पृष्ठ - 107
8.    वही पृष्ठ - 28
9.    वही पृष्ठ - 28
10.    वही पृष्ठ - 29
11.    वही पृष्ठ - 43
12.    वही पृष्ठ - 105
13.    वही पृष्ठ - 33
14.    वही पृष्ठ - 49
15.    वही पृष्ठ - 62
16.    वही पृष्ठ - 62
17.    वही पृष्ठ - 62
18.    वही पृष्ठ – 145



(लेखक-परिचय:
जन्म: 29 दिसंबर 1984 को ग्राम- करकपुर , पोस्ट अलावलपुर, गाजीपुर (उ प्र ) में
शिक्षा: आदर्श इंटर कॉलेज गाजीपुर से आरंभिक शिक्षा,  इलाहाबाद विश्वविद्यालय इलाहाबाद से बीए और एमए, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय से पी-एचडी कंप्लीट, उपाधि प्रतिरक्षा रत
सृजन : पहल जैसी अहम पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित.
‘समसामयिक सृजन’ पत्रिका के  लोक विशेषांक का संयोजन
संप्रति:   स्वतंत्र लेखन और शोध कार्य में सक्रिय
संपर्क: sunilrza@gmail.com)

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चित्र: गूगल से साभार

हमारी अतियों से माहौल और बिगड़ेगा ही
 
भवप्रीतानंद की क़लम से
आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने जब हिंदू महिलाओं को कितने बच्चे जन्म दें के मुद्दे पर बीजेपी के कुछ सांसदों को अघोषित रूप से फटकार लगाई थी तो यह भान स्वभाविक था कि चीजों को तार्किक नजरिए से देखने की कोशिश की जा रही है। उसी के आसपास दिल्ली में चर्चों पर हुए हमलों के विरोध में पीएम नरेंद्र मोदी की स्पष्ट टिप्पणी भरोसा जगाने वाली लगी थी। पर पता नहीं क्यों बार-बार कुछ मुद्दों पर, जिसपर बोलने की आवश्यकता नहीं है और जिसका कोई तार्किक आधार हम प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं उसपर कुछ बेतुका बोल दिया जाता है। मदर टेरेसा में मन में लोगों को  ईसाई बनाने की भी मंशा थी, इसे पुष्ट करने के लिए हमारे पास कोई तथ्यात्मक सबूत नहीं है। खुद मोहन भागवत  के पास ऐसा कोई सबूत हो तो वे बताएं, और साबित करें। बाद में जब मीडिया में ऐसे बयान मुद्दे के रूप में व्याख्यायित होते हैं तो सफाई दी जाती है कि बयान को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया। यही सफाई बोलते  वक्त ध्यान में रखी जाए तो ऐसी नौबत ही नहीं आएगी। इससे होता कुछ नहीं है पर ऐसे-ऐसे वक्तव्यों को एक तार में जोड़कर यह साबित करने का  प्रयास किया जाता है कि आरएसएस की सोच इससे आगे बढ़ी ही नहीं है। अगर किसी पार्टी या संगठन में समस्या समाधान करने की सम्यक सोच है तो वह कश्मीर समस्या का समाधान क्यों नहीं कर देते हैं जो सर्वमान्य हो। बार-बार उन चीजों को कुरेद कर जिसका कोई इतिहास हमारे पास उपलब्ध नहीं है, उसपर बयानबाजी से क्या होगा।

जब मुसलामानों और ईसाइयों के लिए घर वापसी वाला बेतुका शोर वातावरण में घुल रहा है तो मोहन भागवत को यह स्पष्ट रूप से कहना चाहिए कि हिंदू धर्म में वह मुसलमान और ईसाई बने हिंदुओं को वापस लाकर ब्रह्मण का दर्जा देंगे। क्योंकि वह भागे ही इसलिए थे कि उन्हें हिंदू धर्म की अतियां जीने नहीं दे रही थीं। लतमारा की श्रेणी में रखे हुई थी। मैला ढुलवाती थी। गांव के अंतिम छोर पर उसके रहने के लिए झुग्गी मुकर्रर थी। उसकी छाया तक ब्रह्मण-राजपूत अपनी जमीन में पडऩे नहीं देता था। कोई भी हिंदुवादी संगठन खुलकर, इतिहास को ठीक से पढ़कर बताए कि किसी देशकाल में बड़ी संख्या में ब्रह्मण और राजपूतों ने धर्म परिवर्तन किए हैं।
सत्ताधारी पार्टी भाजपा के लिए यह सतत प्रक्रिया की तरह हो जााएगा कि कोई संघी जबतब कुछ बोल देगा और केंद्र सरकार यह कहकर किनारा करते रहेगी कि इस वक्तव्य का सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। आप से दिल्ली में करारी हार के बाद प्रधानमंत्री चर्चों के हमले पर बोलने के लिए मजबूर हुए नहीं तो शायद ही उनसे इस तरह की भाषा की अपेक्षा थी।  पता नहीं अपनी इस भाषा पर वह कालांतर में कायम रह भी पाएंगे या नहीं। मीडिया से वह जिस तरह की दूरियां बनाकर रखते हैं, वह चीजों को भड़काउ बनने का वक्त दे देती हैं। गुजरात के गोधरा कांड के बाद जो उन्होंने मीडिया से परहेज किया वह पीएम बनने तक जारी है। यह बहुत खतरनाक इस मायने में  है कि राष्ट्रीय स्तर के संवेदनशील मुद्दों पर प्रधानमंत्री का वक्तव्य ही मायने रखता है, क्योंकि उसे ही पार्टी लाइन कहा जाता है।
गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी बहुत कम लाइम लाइट में दिखते हैं। जरूरी होने पर ही बोलते और दिखते हैं। लेकिन उनका मन भी संघी आग्रह  कहां छोड़ पाता। एक आरोपी बलात्कारी आसाराम बापू को वह पूज्य संत कहने में एक जरा हिचक महसूस नहीं करते हैं तो शक होता है कि सत्ता के इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठे लोग क्या देश की संप्रभुतता से न्याय कर पाएंगे। उसकी विविध सांस्कृतिक विरासत को संजोकर रख पाएंगे। 

अभी तो सत्ता के एक साल भी पूरे नहीं हुए हैं। ऐसी नकारात्मक चीजों से उन तत्वों को बढ़ावा ही मिलेगा जो दंगे करने में या फिर अराजक स्थिति पैदा करने में सहायक होते हैं। कांग्रेस ने भ्रष्टाचार में जिस तरह से अराजकता की स्थिति पैदा कर दी थी, वैसी ही स्थिति भाजपा के शासनकाल में समाज के स्तर पर बलवती होंगी तो इसके कई खतरनाक परिणाम हमें भुगतने पड़ेंगे। आरएसएस की धर्म से जुड़ी बयानबाजी में वह तत्व निराधार रूप से संपुष्ट होते रहते हैं कि मैं इस देश का असली वारिस, बाकी सब बाहरी। बाहरी को अगर रहना है तो मैंने जो तय किया उसके तहत रहो।
किसी को कोई शक नहीं पालना चाहिए, कांग्रेस की दुर्गति का मुख्य कारण है कि वह भ्रष्टाचारी और कालाबाजारी पर मजबूती से काबू नहीं रख पाई। उसने सत्ता को बेजा इस्तेमाल होने दिया। मनमोहन सिंह को कठपुतली की स्थिति में ला दिया। लगातार दस वर्ष तक सत्ता में रहने के बाद अगर भ्रष्टाचारी और कालाबाजारी पर अंकुश लगा लिया गया होता तो देश की प्रगति की रफ्तार दूनी तो निश्चित ही होती। भाजपा के शासन का मूल्यांकन जल्दबाजी होगी, क्योंकि अभी एक वर्ष भी पूरे नहीं हुए हैं, पर एक जिस मोर्चे पर अभी से वह कमजोर दिखाई दे रही है वह है उसका संघ से, उसके विचारों से लाग-लपेट। बार-बार संघ की ओर से और पार्टी की ओर से इस मद्देनजर सफाई दी जाती है कि दोनों एक-दूसरे के कार्यों में दखल नहीं देते हैं। पर जब बिना लगाम की बातें निकलती हैं तो समाज में उसके बहुत अच्छे अर्थ नहीं जाते। और जब कोई एक ही प्रकृति की चीजें बार-बार होती रहती हैं तो वह कई मुश्किलें खड़ी करती हैं। कें्रद के लिए यह स्थिति असमंजसपूर्ण होती है। मेक इन इंडिया को यह सफाई देनी पड़ी है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत की टिप्पणी से उनका कोई लेनादेना नहीं है। कल को गृहमंत्री जी भी सफाई देंगे।

अब जिला स्तर पर, राज्य के स्तर पर होने वाले हिंदू सम्मेलन को अधिक मीडिया कवरेज इसलिए मिलेगा क्योंकि भाजपा सत्ता में है। सम्मेलन करने में कोई गड़बड़ी नहीं है। पर वहां से कोई ऐसी  बात निकलकर समाज के आखिरी छोर तक नहीं पहुंचनी चाहिए जो बेवजह लोगों को उत्तेजित करती है। कोई भी धर्म, मथकर ही दुरुस्त और तार्किक होता है। विशुद्ध आस्था को भी तार्किकता की कसौटी पर कसा होना चाहिए, नहीं तो मुश्किलें पैदा होती हैं। इराक में आईएस की गतिविधियां इस्लाम की व्याख्या नहीं है। इस्लाम के नाम पर वह रोटी इसलिए सेंक पा रहे हैं कि चीजें सामाजिक स्तर पर बहुत विद्रूप रूप में पहुंची और लोगों को उत्तेजित करती गईं। और अब वह काबू से बाहर हो गईं हैं। किसी को जला देना, किसी को काट देना, मौत की सजा देने से पहले यह पूछना कि आपको मौत से पहले कैसा महसूस हो रहा है आदि जघन्यतम स्थितियां कोई एक दिन की उपज नहीं है। विद्रूप चीजों और विचारों के हावी होने और समाज में उसके  व्यवस्थित रूप ले लेने का कारण यह नासूर पैदा हुआ। हमें इससे बचना है किसी भी कीमत पर। फरवरी-मार्च के इस मौसम में अभी फुलवारी में एक साथ कई फूल खिले होंगे,  अपना-अपना स्पेस लेकर। हमें विचारों को स्पेस देना होगा। ऊंचे पद पर बैठे लोगों को न तो लट्ठमार भाषा शोभा देती है और न ही लट्ठमार स्वभाव।

 













(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )

हमज़बान पर पढ़ें  भवप्रीतानंद को

जांनिसार के नाम सफ़िया के ख़त

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पिया पिया पिया मेरा जिया पुकारे













सैयद एस.तौहीद की पेशकश


नए विकल्पों की तलाश में जब जांनिसार अख़्तर  भोपाल से बंबई आए तो पत्नी सफ़िया वहीँ रुक गयी थी. आपके साथ आपके बच्चे सलमान एवं जावेद अख़्तर भी रह थे.  सफ़िया हमीदिया कालेज में दी जा रही सेवाओं को जारी रखना चाहती थी. आप वहां पढाया करती थी. आप जांनिसार से बराबर खतो-किताबत करती रहती थी. कभी-कभार तो हफ्ते में दो खत लिखना हो जाता था. इन ख़तो में जज्बा-ए-मुहब्बत एवं हिम्मत बढ़ाने का दम था. अभी जान साहेब को रवाना हुए एक बरस भी नहीं गुजरा था जब सफ़िया सख्त बीमारी की शिकार हो गई. आपको गठिया एवं कर्क ने घेर रखा था. बीमारी से न घबराते हुए सर पड़ी मुसीबत का डट कर सामना किया. भोपाल में रहते हुए आप पर कई इम्तिहान आए लेकिन हिम्मत नहीं हारी. मुश्किल भरे उन दिनों लेखा-जोखा इन खतों में मिलेगा. उनसे गुजरते हुए लिखने वाले की अदबी जबान का का कायल होना होगा .इसे गमगीन ही कहा जाएगा कि सफ़िया के खतो को सिर्फ निजी ग़मों व परेशानियों का आईना माना गया. सफ़िया सिराजुल हक चालीस दशक की पढ़ी लिखी सेक्युलर महिला थी.प्रगतिशील विचारधारा को लेकर चलने वाली साफिया ने अपनी मर्जी का हमसफर चुना. फिर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आप मजाज की बहन थी. अदब में खत-किताबत को ग़ालिब से शुरू माना जाएगा क्योंकि आपने खतों को रचना की शिद्दत से लिखा.इनमें शायरी एवं गज़ल की गहराई का एहसास होता है. खतों में फिराक एवं वस्ल के पहलू के साथ मुश्किलों का हिम्मत से सामना करने का जज्बा मिलता है. साफिया के उन खतों में से एक ख़त आपके लिए..

भोपाल
फरवरी 1952

बेशकीमत मुहब्बत

आपका ख़त मिला .मेरे बारे में इस कद्र फिक्र ना किया करें. आपने एक हिम्मत वाली ईरादे की पक्की लड़की को हमसफर चुना. तमाम इम्तिहान के बावजूद सफ़िया ने अब भी पुराना जज्बा नहीं खोया. हालांकि कभी कभी जिन परेशानियों से गुजर रही होती उनके बारे में बात निकल जाती है.जानती हूं आप भी परेशान हो जाते होंगे.लेकिन क्या करूं उन बातों को आपसे ने कहूं तो फिर किससे. दिसंबर में सेहत थोड़ी दुरुस्त थी .लेकिन अब तकलीफ फिर वही पहले की तरह आ रही. जितनी देरी तक मुमकिन होगा खुद से इन्हें संभाल कर चलूंगी.लेकिन इस सिलसिले में हमें कोई फैसला जल्द लेना होगा.इलाज की खातिर वक्त बे वक्त बराबर आपको आना होगा. कोई दूसरी सुरत नजर नहीं आती. आप ने कहा कि बम्बई छोड़कर आएंगे तो काफी नुक्सान होगा,रोजगार का सवाल खड़ा हो जाएगा. बेरोजगारी अपने साथ नई मुसीबतें लेकर आती है.उस चीज को लेकर आप जरूरत से ज्यादा फिक्रमंद हो जाते हैं. इन हालात में क्या कहना ? आप ही बताएं! कुल मिलाकर अब यही मालुम हो रहा कि इन हालातों से आपको समझौता करना होगा. मेरे खातिर जिस तरह आपके काम के साथ मुझे करना है. बच्चो की खातिर हमें मिलकर चलना होगा .हमें उनकी परवरिश में कमी नहीं रखनी.मां-बाप के नाते उनकी उम्मीदों साथ नाइंसाफी नही की जाएगी. इस 12 फरवरी तक आप यहां फुर्सत लेकर आएं ताकि हम परिवार के साथ थोडा ज्यादा वक्त गुजारें. दो हफ्ते
मुनासिब होंगे.


मिसदाक़ के आने पर जादू बहन से नोटबुक में एक कहानी लिखवाए बिना उसे रिहा नहीं करता.फिर वो उस लिखे के उपर अपनी बात रखता. कहानी को लेकर जादू की बातें मिसदाक़ को सोचने पर मजबूर कर जाती हैं. भाई की जहीन नवाजी के लिए उसके पास लफ्ज नहीं होते.अब तो जनाब ओवेस भी स्कुल जा रहे. जादू छोटे का खूब ख्याल रखा करता है. कल बीते दिन की बात सुनें कि ओवेस तीन गलतियों में उलझ गया था. एक जिसे समझाय जाना बेहद जरुरी था जिसमे वो स्कूल की घंटी बजने का मायने सिर्फ घर वापसी समझ रहा था. आपकी घर आमद की खबर को लेकर बच्चों में बेइंतेहा खुशी है. ऐसा क्या ख़्वाब दिखा दिया इन्हें कि रातों में नींद नहीं आती. हो सके तो एक खत इनके नाम भी लिख भेजिए. एक मरहले पर आपको इन बच्चों को भी लिखना चाहिए. अख्तर.. बीमारी को लेकर पूरी जनवरी परेशान रही.इंतेखाब की गहमा-गहमी ने अलग चिडचिडा बना दिया. बीमरी रह-रहकर तकलीफ का सबब हो रही. नहीं मालुम आगे क्या पेश आए. उस दिन का हमें मिलकर सामना करना है. इस वक्त कालेज में हूं तालिबों का आना जाना लगे होने से बातें छुट रही हैं. इसलिए सोचती हूं बाक़ी बाद के लिए मुनासिब होगा. घर पर इस तरह की परेशानी नहीं होगी.. बच्चे भी स्कुल में होंगे. सो वहीँ
पर इत्मिनान से आगे लिखूंगी. तब तक के लिए हजारों सलाम . भोपाल आमद की तारीख लिख भेजिए....

आपकी
सफ़िया


(रचनाकार-परिचय:
 जन्म: पटना बिहार
शिक्षा : जामिया मिल्लिया से उच्च शिक्षा
सृजन : सिनेमा पर अनेक लेख . फ़िल्म समीक्षाएं
संप्रति :  सिनेमा व संस्कृति विशेषकर हिंदी फिल्मों पर लेखन।
संपर्क : passion4pearl@gmail.com )

सैयद एस.तौहीद को  हमज़बान पर पढ़ें


चुप होंगे साहित्यकार-कवि

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टिटिहरी गाएगी मृत्युराग













अदनान कफ़ीलकी कविताएं

आताताई

सुनो साथी !
उस दिन की कल्पना करो
जब आएगा आताताई
अपने लश्कर के साथ
इन मक्खन-सी मुलायम
सड़कों को रौंदते हुए
कुचलते हुए हरी दूब को।
उस दिन तुम्हारे चौपाल पर धूल उड़ेगी
कबूतर दुबक जायेंगे
अपने दड़बों में
टिटिहरी गाएगी मृत्युराग
उस दिन सूरज नहीं खिलेगा आकाश में
बल्कि दूर क्षितिज के उस पार
किसी अज्ञात कोने में
सहमा दुबक जायेगा।
रहट ख़ामोश होगी
बेज़ुबान होगी बुलबुल

लेखक चुप होंगे
चुप होंगे साहित्यकार-कवि
जो नहीं होंगे चुप उनके ज़ुबान खेंच लिए जायेंगे
अखबार के पन्ने स्याह होंगे
आतताई के स्वागत गीतों से
उनमें दर्ज होंगी आततायी की जीवनी
उससे सम्बंधित छोटी-छोटी बातें
मसलन उसके मूंछों की लम्बाई-चौड़ाई वगैरह-वगैरह

साथी ! उस दौर में वो कलम घसीट बड़े साहित्यकार-पत्रकार कहलायेंगे
जो बैठे होंगे साहिब की गोद में
उस दौर में बनेंगे बड़े-बड़े पुल, मेट्रो-रेल
बड़ी प्रगति होगी
लेकिन रघुआ फिर भी मैला ही उठाएगा
कल्लन मियाँ चाय ही बेचेंगे।

सड़कें रगड़-रगड़ कर चमकाई जाएँगी
जिसपर चलेगा आततायी अपने लश्कर के साथ
उसकी भावनाहीन आँखें तनी होंगी अभिमान से
उसके चेहरे पर बिखरी होगी
विजयी कुटिल मुस्कान

आततायी होगा उस दौर का अकेला तानाशाह
साथी उस दौर में हमें तय करनी होगी अपनी भूमिका
कि हम कैसे जीना पसंद करेंगे
अँधेरे के अधीन होकर
या फिर
अपने कलम को तलवार
और अपनी हड्डियों को मशाल बना कर. 

झूठों के शिलालेख

वो लिखेंगे झूठ
शिला-खण्डों पर
ताकि सभ्यता के
समाप्त हो जाने के बाद भी
बचा रह जाये
उनका झूठा-सच
लेकिन साथी
हम लिखेंगे सच
चाहे रेत ही क्यूँ न हो अपने पास
साथी हम बोलेंगे सच
तब तक
जबतक कि
हमारी ज़ुबाने नहीं काट ली जातीं।

एक कवि का डर
मैं मौत से ख़ायफ़ नहीं होता
न ही मुझे डर लगता है
किसी भूत-पिशाच-प्रेतात्मा से
लेकिन मैं डरता हूँ
वक़्त के
अंतहीन-संकरे-घुप्प-सुरंग से
डर लगता है मुझे
इतिहास की डरावनी आँखों से
डरता हूँ मैं कभी-कभी अपने ही हाथों से
कभी-कभी मैं अपने आप से
बहुत डरता हूँ साथी...

पिपासा

जब भी तुम्हें
अपनी इन आँखों से देखता हूँ
हर दफ़ा
थोड़ा ही देख पाता हूँ
और तुम्हें
सम्पूर्णता में देखने की तृष्णा
और बढ़ जाती है
मैं इन कंचे-सी अपनी आँखों को
अब और नहीं पहनना चाहता
मैं तुम्हें
एक अंधे की आंख से
देखना चाहता हूँ ...

साथी से

ये चराग़ बुझा दो
मैं तुम्हें अँधेरे में देखना
ज्यादा पसंद करता हूँ
क्यूंकि
अँधेरे में
मेरे अन्दर का आदमी
तुम्हें
एक आदमी की तरह देखता है
एक औरत की तरह नहीं...

देह से परे

तुम्हें हर दफा
एक देह की तरह देखा गया
कभी तुम्हें किसी मूर्ति में जकड़ा गया
तो कभी तुम्हें
किसी पेंटिंग में बंद कर
लटकाया गया
किसी दीवार से
सबने तुम्हारे आरिज़ के रंग और सुडौलता
के क़सीदे पढ़े
लेकिन किसी ने नहीं देखी
तुम्हारी पनीली आँखें
तुम्हें घुटते हुए किसी ने नहीं पाया
लेकिन मैं तुम्हारे अस्तित्व को
समग्रता में देखता हूँ
तुम्हारी कठिनाइयों, संवेदनाओं और
संघर्षों का इकलौता गवाह हूँ मैं
मैं तुम्हें एक देह की तरह नहीं
एक जीते जागते इंसान की तरह देखता हूँ .....

मैं अब सोना चाहता हूँ

मेरा सिर अनिर्वचनीय बोझ से
दुःख रहा है साथी
मेरी जिह्वा में
बहुत ऐठन है
मेरी आँखों का तेल
चूक गया है
लम्बे सफ़र के बाद
अब मैं दो घड़ी
सोना चाहता हूँ साथी ...

सोता हुआ आदमी

सोता हुआ आदमी
झूठ नहीं बोलता
सोता हुआ आदमी
गाली नहीं देता
सोता हुआ आदमी
किसी का क़त्ल नहीं करता
न ही सोते हुए रचता है साज़िशें
सोता हुआ आदमी मुखौटा भी नहीं लगाता
सोते हुए आदमी, आदमी होता है.

मैं लिखूंगा एक कविता मेरी जान

मैं लिखूंगा एक कविता मेरी जान
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए
जिसमें करूँगा ज़िक्र तितलियों का
मधुमक्खियों का, चींटियों का.
गुलाब, चमेली के फूलों और अमलतास के पत्तों का
उसमें करूँगा ज़िक्र तुम्हारी भिन्न-भिन्न मुद्राओं का
मापूंगा तुम्हारी हँसी को अपनी कविता के स्केल से
और खींचूंगा वैसी सैकड़ों हंसी
और बिखरा दूंगा तुम्हारे चारों ओर
चाँद से थोड़ी चांदनी उधार मांग लूँगा
और बुनूँगा उससे एक चमकदार शॉल तुम्हारे लिए
तारों से थोड़ी टिमटिमाहट चुरा लूँगा
और तुम्हारी नाक की लौंग में नग की जगह भर दूंगा

हाँ मेरी जान मैं लिखूंगा एक कविता
एक ऐसी कविता जिसमें दर्ज होगा
तुम्हारा गुनगुना स्पर्श
तुम्हारा मुलायम-गीला-चुम्बन
जिसमें दर्ज होगी तुम्हारे गालों की लालिमा
तुम्हारे गुलाबी होंठ
तुम्हारी रूबी और नीलम सी आँखें

हाँ मेरी जान मैं लिखूंगा एक कविता
ऐसी कविता जिसमें इन सबका ज़िक्र होगा
लेकिन न होगा तो सिर्फ मेरा
क्यूंकि तब मैं 'मैं'नहीं रहूँगा
'तुम'हो जाऊंगा.
तब तुम मुझे ख़ुद में तलाशना.....

शैतान

अब वो काले कपड़े नहीं पहनता
क्यूंकि तांडव का कोई ख़ास रंग नहीं होता
ये काला भी हो सकता है और लाल भी
भगवा भी और हरा भी.

अब वो आँखों में सुरमा भी नहीं लगाता
अब वो हवा में लहराता हुआ भी नहीं आता
ना हीं अब उसकी आँखें सुर्ख और डरावनी दिखतीं हैं
वो अब पहले की तरह चीख़-चीख़कर भी नहीं हँसता
ना हीं उसके लम्बे बिखरे बाल होते हैं अब.

क्यूंकि इस दौर का शैतान
इंसान की खाल में खुलेआम घूमता है
वो रहता है हमारे जैसे घरों में
खाता है हमारे जैसे भोजन
घूमता है टहलता है
ठीक हमारी ही तरह सड़कों पर
और मज़ा तो ये
कि वो अखबार में भी छपता है
टी.वी. में भी आता है.

लेकिन अब उसे कोई शैतान नहीं कहता
क्यूंकि उसके साथ जुड़ी होती हैं जनभावनाएँ
लोग उसे "सेवियर"समझते हैं
और अब अदालतें भी कहाँ
सच और झूठ पर फैसले देतीं हैं साथी ?
अब तो गवाह और सबूत एक तरफ़
और सामूहिक जनभावनाएँ दूसरी तरफ.

अब इस अल्ट्रा मॉडर्न शैतान की शैतानियाँ
नादानियाँ कही जाती हैं
क्रिया-प्रतिक्रिया कही जातीं हैं.

इस दौर का शैतान बेहद ख़तरनाक है
क्यूंकि अब उसकी कोई ख़ास शक्ल नहीं होती
वो पल-पल भेस बदले है साथी
वो तेरे और मेरे अन्दर भी
आकर पनाह लेता है कभी-कभी
अब ज़रूरत इस बात की है
कि हम अपने इंसानी वजूद को बचाने के लिए
छेड़ें इस शैतान के साथ
एक आख़िरी जिहाद
एक आख़िरी जंग
इससे पहले की बहुत देर हो जाए..


(कवि-परिचय:
 जन्म: ज़िला-बलिया, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में जुलाई  30, 1994
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस में स्नातक
संप्रति: दिल्ली रहकर अध्ययन और स्वतंत्र लेखन 
सृजन: बचपन से ही शायरी और कविता, छिटपुट प्रकाशन
संपर्क: thisadnan@gmail.com )

हमज़बान पर अदनान  की और कविताएं



... देर तक दिल ख़राब होते हैं

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सुरेश  स्वप्निल की ग़ज़लें

1.

न  नींद  आए  न  चैन  आए
तो  आशिक़  क्यूं  हुआ  जाए

लिया  तक़दीर  से  लोहा
बहारें  लूट  कर  लाए

हज़ारों  बार  दिल  जीते
हज़ारों  बार  पछताए

ज़ुबां  ख़ामोश  रह  लेगी
नज़र  को  कौन  समझाए

कहां  हम  थे,  कहां  दुनिया
न  आपस  में  निभा  पाए

रहे  रश्क़े-समंदर  हम
हमीं  कमज़र्फ़  कहलाए

चलो  माना,  ख़ुदा  भी  है
कभी  तो  शक्ल  दिखलाए  !

                                                
2.

वो अगर दोस्त कह गया होता
आपका  अज़्म  रह गया होता

ख़ून  होता कहीं  मिरे दिल में
चश्मे-नाज़ुक से बह गया होता

क़ैस    ख़ुद्दार था    मिरी तरहा
और भी  ज़ुल्म  सह गया होता

आप  गर  ख़्वाब में  नहीं आते
दर्द क्या  इस तरह  गया होता

शाह    तक़दीर का    सिकंदर है
वर्न:    आहों से  ढह  गया होता

शाह    दुश्मन  उसे समझ लेता
जो  हमारी  जगह  गया होता

तूर  पर    दीद    हो  गई होती
तू  अगर  हर सुबह गया होता !
                                                     

3.
 
मुफ़लिसों  ने  जहां  बदल  डाला
देख  लो,  आसमां  बदल  डाला

थी  हमें  भी  उमीद  जल्वों  की
'आप'ने  तो  समां  बदल  डाला

बढ़  गए  ज़ुल्म  जब  ग़रीबों  पर
क़ौम  ने  हुक्मरां  बदल  डाला

आहे-मज़्लूम  के  करिश्मे  ने
हर  भरम,  हर  गुमां  बदल  डाला

मंज़िलों  पर  निगाह  थी  जिनकी
वक़्त  पर  कारवां  बदल  डाला

आंधियों  का  कमाल  ही  कहिए
परचमों  का  निशां  बदल  डाला

तोड़  पाए  न  दिल  हमारा  जब
तो  ग़मों  ने  मकां  बदल  डाला !
 
 4.

तुम्हारे  हाथ  में  तलवार  कब  थी
अगर  थी,  तो  बदन  में  धार  कब  थी

बचाना  चाहते  थे  तुम  सफ़ीना
हमारे  सामने  मझधार  कब  थी

गवारा  हो  न  पाया  सर  झुकाना
मुहब्बत  थी,  मगर  लाचार  कब  थी

किए  थे  मुल्क  से  वादे  हज़ारों
अमल  में  शाह  के  रफ़्तार  कब  थी

ख़ुदा  जाने  किसी  ने  क्या  संवारा
हमें  इमदाद  की  दरकार  कब  थी

जिसे  मौक़ा  मिला  लूटा  उसी  ने
वतन  के  वास्ते  सरकार  कब  थी

वुज़ू  थी,  वज्ह  थी,  जामो-सुबू  थे
ख़ुदा  की  राह  में  दीवार  कब  थी  ?

                                                           
 5.

शायर  था,    दीवाना  था
छोड़ो  जी,  अफ़साना  था

तूफ़ानों  से  क्या  शिकवा
फ़ितरत  में  टकराना  था

दानिश्ता    दिल  दे    बैठे
आख़िर  क़र्ज़  चुकाना  था

सोचो,    तो  मजबूरी  थी
समझो,  तो  याराना  था

ख़ूब  लड़े,        जीते-हारे
मक़सद  जी  बहलाना  था

ख़ामोशी  से      टूट  गया
शायद  ख़्वाब  सुहाना  था

रब  से      कैसी      उम्मीदें
क्या  काफ़िर  कहलाना  था  ?!
 
6.

मर्ग  के  बाद    कोई  सितम    तो  न  हो
दिल  जले  तो  जले  रंजो-ग़म  तो  न  हो

क़ब्र  में    हो  सुकूं    अम्न  हो    सब्र  हो
बस  हमें  ज़िंदगी  का  वहम  तो  न  हो

दफ़्न  के  बाद  भी  दिल  धड़कता  रहे
इस  तरह  दोस्तों  का  करम  तो  न  हो

कल  सभी  जाएंगे  मुट्ठियां  खोल  कर
दांव  पर  आज  दीनो-धरम  तो  न  हो

ताजिरों  को    खुली  लूट  की    छूट  है
दुश्मने-आम  पर  यूं  रहम  तो  न  हो

मुल्क  में  मुफ़लिसी  बेबसी  सब  रहे
रिज़्क़  के  नाम  से  आंख  नम  तो  न  हो

है  ख़ुदा    गर  कहीं    तो    तग़ाफुल  करे
मोमिनों  पर  वफ़ा  की  क़सम  तो  न  हो  !

                                                                        
7.
वक़्त  की    ना-कामयाबी    देख  ली
हर  कहीं  दिल  की  ख़राबी  देख  ली

तोड़  डाला    पारसाई  का    गुमां
आईने  ने  बे-हिजाबी    देख  ली

पास    आते  ही    पशेमां    हो  गए
चश्मे-जां  की  इल्तिहाबी  देख  ली

यूं  हमें  रुस्वा  किया  मंहगाई  ने
शाह  ने  ख़ाली  रकाबी  देख  ली

याद  आती  है  किसी  की  रौशनी
तूर  की  रंगत  गुलाबी  देख  ली

रात  भर  बारिश  हुई  इख़लास  की
ख़ूने-दिल  की  इंसिबाबी  देख  ली

इक  अज़ां  पर  सामने  आ  ही  गए
आपकी  भी  इज़्तिराबी  देख  ली  !

                                                         
8.

शहर  के  इरादे  ग़लत  तो  नहीं  हैं  ?
कहीं  इश्क़ज़ादे  ग़लत  तो  नहीं  हैं  ?

बयाज़े-नज़र  में  बयां  कुछ  नहीं  है
ये:  सफ़हात  सादे  ग़लत  तो  नहीं  हैं  ?

यक़ीं  है  हमें  पर  तसल्ली  नहीं  है
ये:  पुरज़ोर  वादे  ग़लत तो  नहीं  हैं  ?

दिए  जा  रहे  हैं  जहां  को  नसीहत
ये:  भगवा  लबादे  ग़लत  तो  नहीं  हैं  ?

जहां  शाह  कह  दे  वहीं  जान  दे  दें
ये:  मजबूर  प्यादे  ग़लत  तो  नहीं  हैं ?

                                                                
 9.

शाह  जब    बे-नक़ाब    होते हैं
देर  तक  दिल  ख़राब  होते हैं

ख़ार  हम    बाज़ वक़्त  होते हैं
यूं    अमूमन    गुलाब    होते हैं

कौन  चाहत  करे  फ़रिश्तों  की
लोग    भी    लाजवाब    होते हैं

आप  आंखें  खुली  रखा  कीजे
ख़्वाब    ख़ाना-ख़राब    होते हैं

दर्दे-दिल  मुफ़्त  में  नहीं  मिलते
मन्नतों    का    जवाब    होते हैं

ताज  सर  पर  नहीं  रहा  करते
ज़ुल्म  जब  बे-हिसाब    होते हैं

कोई  बतलाए,  कब  करें  सज्दा
होश  में  कब    जनाब  होते हैं ?
 
10.

न  दिल  रहेगा, न  जां  रहेगी
रहेगी      तो    दास्तां  रहेगी

है  वक़्त  अब  भी  निबाह  कर  लें
तो  ज़िंदगी  मेह्रबां  रहेगी

तुम्हारे  आमाल  तय  करेंगे
कि  रूह  आख़िर  कहां  रहेगी

थमा  सफ़र  जो  कभी  हमारा
ग़ज़ल  हमारी  रवां  रहेगी

मिरे  मकां  का  तवाफ़  करना
कि  हर  तमन्ना  जवां  रहेगी

ये  दौरे-दहशत  तवील  होगा
जो  चुप  अभी  भी  ज़ुबां  रहेगी

उड़ेगी  जब  ख़ाक  ज़र्रा-ज़र्रा
फ़िज़ा  में  अपनी  अज़ाँ  रहेगी !

                                                       
(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 10 मार्च, 1958, झांसी, उप्र में। पालन-पोषण भोपाल में ।
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी साहित्य), एम.ए.(अर्थशास्त्र), बरकतउल्लाह  विश्वविद्यालय, भोपाल से; भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान (FTII), पुणे से फ़िल्म-निर्देशन में स्नातक।
सृजन : पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं, पहला ग़ज़ल-संग्रह  'सलीब तय है'  दख़ल प्रकाशन से प्रकाशित
ब्लॉग : ग़ज़लों के लिए साझा आसमान, जबकि कविता केंद्रित साझी धरती
संप्रति:  स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य
संपर्क: sureshswapnil50@gmail.com )

क्या आप नक्शब जारचवी को जानते हैं..

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बड़ी  मुश्किल से दिल की बेक़रारी को क़रार आया

गूगल साभार



सैयद एस.तौहीदकी क़लम से


बुलंदशहर का एक छोटा सा कस्बा जारचा. इसी कस्बे के नक्शानवीस हैदर अब्बास के घर गीतकार नक्शब जारचवी का जन्म हुआ था. भाई बहनों में नक्शब जारचवी तीसरे  नंबर पर थे. फिल्मों में किस्मत आजमाने के लिए मायानगरी का रुख़  कर गए. शायरी को लेकर आपकी दीवानगी कालेज के दिनों से पलने लगी थी .नाम के साथ जारचवी तखल्लुस रखकर अलीगढ़ के दिनों से लिख रहे थे. जीनत में ब्रेक मिलने बाद आपने राशिद अत्रे के साथ अनेक प्रोजेक्ट पर काम किया. बंटवारे की तात्कालिक हडबडी में पाकिस्तान तुरंत नहीं पलायन कर गए.  गए जरुर लेकिन एक दशक बाद सन अठावन में. नक्शब जारचवी के ताल्लुक नूरजहां व जोहराबाई अंबालेवाली सरीखे फनकारों से सजी फिल्म जीनत महत्वपूर्ण थी। एक जमाने की मशहूर कव्वली… आहे न भरे शिकवे न किए इसी फिल्म की थी. शौकत  रिजवी की जीनत में नूरजहां ने एक महत्वपूर्ण किरदार भी निभाया था. नक्शब ने लिखे गीत मसलन आंधियां युं चली बाग उजड गए काफी मशहूर हुए.नक्शब के ताल्लुक कमाल अमरोही की मशहूर महल भी याद आती है. हिंदी सिनेमा में अशोक कुमार—मधुबाला की यह फिल्म रूचि—रहस्य कथाओं में रिफरेंस प्वांइट मानी जानी चाहिए. महल के सभी गीत नक्शब जारचवी ने लिखे.

नक्शब का लिखा ‘आएगा आएगा आनेवाला’ बेहद मकबूल हुआ. नवोदित लता मंगेशकर को गायकी की दुनिया में मकबूल करने वाला यह गीत आज भी पुराना नहीं हुआ. खेमचंद प्रकाश का संगीत फिल्म की बडी खासियत थी. यही वो वह सुपर गीत रहा जिसने लता को एक मशहूर बना दिया . इसी फ़िल्म का लता का गाया दूसरा गाना..मुश्किल बहुत मुश्किल, चाहत का भुला देना भी हिट हुआ था. कहना लाजमी होगा कि  लता को परवाज़ नक्शब जारचवी की कलम से मिली थी.
चालीस दशक की देव आनंद व कामिनी कौशल अभिनीत फ़िल्म में मशहूर संगीतकार सी रामचंद्र साथ भी  नक्शब जारचवी ने काम किया. आपके लिखे गीतों को शमशाद बेगम व लता जी ने आवाज दी. शमशाद आपा का..जिया मोरा इसी फ़िल्म से था. पचास दशक में रिलीज ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘अनहोनी’ में संगीत था रोशन का तथा गीतकारों की  फ़ेहरिस्त में नक्शब  भी शामिल थे. अनहोनी राजकपूर व नर्गिस की यादगार फ़िल्म बनी. लता व नवोदित गायिका राजकुमारी द्वारा मिलकर गाया गीत ...जिंदगी बदली काफ़ी चला. पचास दशक की शुरुआत में नक्शब ने फ़िल्म नगरी  में अपना सिक्का जमा लिया था.  इसी दशक में गीत लिखते हुए फ़िल्म मेकिंग में चले आए. फिल्मकार के रूप में अशोक कुमार व नादिरा की नग़मा आपकी पहली फ़िल्म थी. फ़िल्म के गीत आप ने ही लिखे. धुनें मशहूर नौशाद ने  रखी ...बडी मुश्किल से दिल की बेकरारी को करार आया. शमशाद आपा की आवाज़ से सजा यह गाना एक जमाने में जबरदस्त हिट था. इसी फ़िल्म का एक और सुपरहिट नगमा...जादूगर बलमा छोड़ मोरी.. अमीर बाई की आवाज़ व नक्शब के बोल आज भी कानों में गूंज रहे . पचास दशक के आखिर सालों में नक्शाब ने ज़िन्दगी या तूफ़ान का निर्माण किया. एक बार फ़िर धुनें नौशाद साहेब ने सजाई.  प्रदीप कुमार व नूतन अभिनीत इस फ़िल्म का गीत..तुमको करार आए काफी लोकप्रिय हुआ. सन अठावन में आप करांची पलायन कर गए. आपकी शादी बुलंदशहर की ही लड़की से हुयी. एक जानकारी के अनुसार तेरह साल के लम्बे करियर में नक्शब को ज़माने के नामचीन फ़नकारों  साथ काम करने का मौका मिला.
इस जुझारू शख्सियत ने पाकिस्तान जाने का निर्णय किन हालात में किया? इस बारे में जानकारी नहीं मिलती. एक किताब में नक्शब के हवाले से लिखा गया... एक रात में  कोई जनाब आपके घर मुलाकात के लिए आए. अगली सुबह दरअसल वो जनाब विलायत जाने वाले थे. नक्शब आपको तोहफा देना चाहते थे...आधी रात पर भी जानेवाले के लिए वो तोहफा मंगवाया गया. एक किस्से के अनुसार आपका यह मानना.. एक बार नोट किसी के लिए बाहर निकला तो वह उसी का हो गया नक्शब की दरियादिली बताता है...ऐसे बहुत से किस्से ‘मेरा कोई माज़ी नहीं’ में संकलित हैं.



 









(रचनाकार-परिचय:
जन्म : 2 अक्टूबर 1983 को पटना (बिहार) में
शिक्षा : जामिया मिल्लिया इस्लामिया से उच्च शिक्षा
सृजन : सिनेमा पर अनेक लेख . फ़िल्म समीक्षाएं
संप्रति :  सिनेमा व संस्कृति विशेषकर हिंदी फिल्मों पर लेखन।
संपर्क : passion4pearl@gmail.com )

सैयद एस. तौहीद को  हमज़बान पर पढ़ें

कब मिलेगा मुस्लिम औरतों को उनका हक़

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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष













ज़ुलेख़ा जबींकी क़लम से


करीब 50 बरस पहले सारी दुनिया की औरतों ने जुल्म के खिलाफ और अपने हक हासिल करने की लड़ाई लड़ने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन की बुनियाद रखी. खवातीन के इस आंदोलन को ताकत मिली संयुक्त राष्ट्र के 1979 के कन्वेंशन फार एलीमिनेशन आफ डिस्क्रीमिनेशन अगेंस्ट वुमेन से. कंवेंशन में शामिल बहुत सारे मुल्कों ने इसे स्वीकार किया. उनसब की रजामंदी से कंवेंशन के बाद एक कमेटी बनाई गई-कमेटी फार एलीमिनेशन आफ डिस्क्रीमिनेशन अगेंस्ट वुमेन-सीडाॅअ. सीडाॅअ की मीटिंग साल में दो बार होती है यह जायजा लेने के लिए कि जिन मुल्कों ने कंवेंशन को रजामंदी दी है वे सब अपने देश में औरतों पे होने वाली जुल्मो ज़्यादती को रोकने के लिए और उनका,  उनके जाएज़ हक़ दिलवाने के लिए क्या कोशिशें कर रहे हैं. ज़ाहिर है इस अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन का गहरा असर दुनिया के दूसरे मुस्लिम मुल्कों और ख़़ासतौर पर मुस्लिम औरतों पे पड़ना ही था. ऐसे बहुत सारे मुसलमान जो अपने समाज में बदलाव चाहते हैं, जिनका मानना है कि मुस्लिम औरतों को पीछे रखने और उनके हक न देने के नतीजे में मुस्लिम समाज को बड़ा नुक़सान पहुंचा है-बड़ी तादाद में हैं.  ऐसे लोगों का यह भी मानना रहा है कि मुस्लिम औरतों की तरक़़्क़़ी के बग़़ैर पूरे मुस्लिम समाज की तरक़्क़ी नामुमकिन है जो सच भी है. आज ऐसी सोच रखनेवाले उलेमा, इस्लामिक स्कालर और बुद्धिजीवी दुनिया के कोने-कोने में मौजूद हैं.
ग़ौरतलब है कि तरक़्क़ी करते हिंदोस्तानी समाज में सामाजिक ग़़ैर बराबरी की खाई चैड़ी होने के साथ ही, औरतों के साथ की जाने वाली जुल्मो-ज़्यादतियों में भी बढ़ोत्तरी होती जा रही है. आज बड़े पैमाने पर मुस्लिम समाज का पिछड़ापन दिखाई दे रहा है. जहां एक तरफ़ दुनिया लगातार तरक्क़ी की तरफ बढ़ रही है, नित नई टेक्नालाजी सामने आ रही है वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम समाज बेतालीमी, बेरोज़गारी, झुग्गियों व गंदी बस्तियों (घेटोवाइजेशन) में रहने की वजह से गरीबी की ग़लाज़त में जीने को मजबूर हैं. यही नहीं देश और दुनिया में बढ़ रही आतंकी घटनाओं के मद्देनजर न सिर्फ मुसलमानों को मश्कूक निगाहों से देखा जा रहा है बल्कि सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक तौर पे मुस्लिम समाज ग़ैर महफूज़ भी होता जा रहा है. इस ग़ैर महफूज़ और सहमे हुए समाज की औरतों और बच्चियों की हालत जानवरों से भी बदतर दिखाई देती है.

औरतों की बराबरी की बात करने वाले अक्सर ये सवाल उठाते हैं क्या इस्लाम के दायरे में रहते हुए मुस्लिम औरतों को बराबर का हक़ मिलना मुमकिन है? इस बारे में मुसलमानों के बीच 3 तरह की सोच देखने को मिलती है. पहली सोच उन उलेमाओं की है जिनका दावा है कि इस्लाम दुनिया का पहला मज़हब है जिसने औरतों को इंसानी अधिकार दिए हैं. आज अगर इसमें कोई कमी नज़र आ रही है तो उसके लिए इस्लाम नहीं बल्कि मुसलमान ज़िम्मेदार हैं. दूसरी सोच कहती है कि इस्लाम में औरतों को बराबरी का अधिकार मिलना नामुमकिन है. ऐसी सोच रखने वाले मानते हैं कि औरतों को बराबरी का अधिकर सिर्फ सेक्यूलर-डेमोक्रेटिक समाज में ही मिल सकता है. इन सबके बीच एक तीसरी समझवाले भी हैं जिनका मानना है कि इस्लाम के बुनियादी उसूलों और सेक्यूलर-डेमोक्रेसी के बुनियादी उसूलों में कोई आपसी टकराव नहीं है. ऐसी सोच रखने वालों का मानना है कि इस्लाम की बुनियादी तालीम औरतों और मर्दो को बराबरी का हक़ देती है. दिक्क़त इस्लामी मज़हब में नहीं बल्कि मर्दवादी भारतीय सामाजिक व्यवस्था में रचे बसे उन लोगों की समझ में है जिन्होंने देश की भौगोलिक परंपराओं और रुढ़ियों को इस्लाम का लिबास पहना रखा है. तीसरी सोच रखने वाले मुसलमानों का मानना है कि आज ज़रुरत इस बात की है कि मुसलमान इन रवायती, औरत विरोधी ज़हनियत (मानसिकता) को ठुकराकर क़ुरआन और सुन्नत की उस तालीम को अपना लें जो औरतों को बराबरी के हक़ देने की हिमायत करती है.

कुरआन और सही हदीस में औरतों को पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, कानूनी, नागरिक और मज़हबी नेतृत्व के मामलों में जिस तरह बेहतर दर्जा दिया गया है वो दुनिया के किसी और मज़हबी किताब में लिखित तौर पर दिखलाई नहीं पड़ता. मगर अफसोस आज मुस्लिम औरतों को हर तरह के पिछड़ेपन का चैतरफा दबाव झेलने के साथ ही घरेलू, हिंसा, झगड़े, मारपीट, छेडखानी, अपनों के जरिए किए जा रहे बलात्कार, शौहर के एक से ज़्यादा औरतों के साथ रिश्ते, ज़बरदस्ती घर बिठा देने के डर के अलावा हर वक्त 3 तलाक़ की लटकती धारदार तलवार और कई तरह के ज़हनी व जिस्मानी ज़ुल्मों का शिकार होना पड़ रहा है. अत्तलाक़ो मर्रतान ‘‘तलाक सिर्फ 2 मर्तबा है’’ कहकर कुरआन ने एक बार में 3 तलाक़ कहने वाले अरबियों के महिला विरोधी रिवाज को सिरे से खारिज कर दिया है. साथ ही मुसलमान मर्दो के दो बार तलाक कहने में (एक-एक माह के अंतराल पे) सुलह और समझौते (रुजूअ) की राह भी फराहम कर दी गई है. लेकिन एकतरफा 3 तलाक का ग़ैर इस्लामी चलन इस्लाम के नाम पर आज भी भारतीय मुस्लिम समाज में क़ायम रखा गया है. जिसका ख़मियाज़ा ज्यादातर बेक़सूर औरतें और मासूम बच्चे भुगतने को मजबूर हैं. बिना किसी जायज़ वजह के एक से ज़्यादा निकाह (मर्दो द्वारा), मामूली सी बातों पे औरतों को ज़लील करके मायके बिठा देना, मायके वालों को मज़ा चखाने के नाम पे औरतों को तलाक़ न देकर अधर में लटकाए रखना, जरा सी बात पे 3 तलाक़ कहकर घरों से बाहर खदेड़ देना, बुढ़ापे में पहुंचते तक भी बीवी का मेहर अदा न करना, शौहर के जनाज़े पर ज़बरदस्ती मेहर माफ़ करवाना, किसी भी तरह का नान-नफ़्क़ा (भरणपोषण) अदा किए बग़ैर टेलीफोन,एस.एम.एस. और डाक से तलाक़ बोल/लिखकर भेज देना इस जैसी और भी न जाने कितनी ग़ैर इस्लामी, ग़ैर इंसानी रवायतें और रुढियां मुस्लिम मर्दो ने अपना ली है जिसका कुरआन, सही हदीसों और इस्लाम से दूर का वास्ता नहीं है. इनका ख़कतरनाक पहलू तब सामने आता है जब मर्दों की ऐसी ग़ैर कुरआनी, ग़ैर इंसानी करतूतों को कुछ कम इल्म लोग जायज़ ठहराते हैं और कुरआनो दीन के जानकार लोग छोटे-छोटे सियासी मफ़ाद (राजनीतिक स्वार्थ) की ख़ातिर अपनी ज़ुबान बंद रखते हैं.

इस्लाम में औरतों को इंसानी वजूद तस्लीम किया गया है इसीलिए कुरआन में कई जगहों पर उसकी ज़िंदगी के हर-हर पड़ाव में उसके वक़ार (डिग्नटी) का ख़्याल रखा गया है.वलाक़द करमना बिल्लज़ी बनी आदमा ’’हमने आदम की हर औलाद पे बराबर से करम बख़्शी है’’’’कह कर अल्लाह ने हर मुसलमान को दुनियां से बेटी और बेटे का भेद ख़त्म कर, बराबरी से, अच्छी परवरिश और जायदाद में वारिस बनाने का हुक्म दिया है. वलाहुन्ना मिसलुल लज़ी अलैहिन्ना‘‘औरतों का वही हक़ है मर्दो पर जो मर्दो का दस्तूर के मुताबिक अपनी औरतों पर है’’ कहकर शादीशुदा ज़िंदगी के अंदर औरत के बराबरी के हक़ों की हिफ़ाज़त मर्दो के सुपुर्द कर दी गई है. पैदा होते ही बाप की जायदाद में हक़, निकाह के साथ ही शौहर की तरफ से मेहर, पारिवारिक ज़िंदगी में शौहर की तरफ से दिया जाने वाला हाथ खर्च (पाकेट मनी-माहवार एक मुश्त जो सहुलियत हो), उसके नवजात बच्चे को अपना दूध पिलाने पर हस्बे हैसीयत कीमती गिफ्ट देना, तलाक़ हो जाने पर नान-नफ़्क़ा (भरण-पोषण)व हैसियत के मुताबिक़ मताअ ( संपत्ति-पूंजी ) देकर ससम्मान रुख़्सत करना और फिर औरत को दूसरा निकाह (उसकी मर्ज़ी से) करने की आज़ादी देना जैसे हुक्म साफ़ लफ़्ज़ों में कुरआन के अंदर मर्दो को दिए गए हैं.

एक मुसलमान औरत जिसे उसके रब ने 1400 बरस पहले ही तमाम तरह के सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक, राजनैतिक मामलों में बराबरी से नेतृत्वकारी मक़ाम और फ़ैसले लेने का हक़ देकर मर्द के साथ ही अशरफुल मख़लूक़ात (श्रेष्ठ मानुस)का दर्जा दे दिया है. वे ही मुसलमान औरतें आज इस मर्दवादी, गैर इस्लामी समाज की सड़ी-गली रूढ़ियों और परंपराओं की बेड़ियों में जकड़ी, हर लेहाज़ से बेबस, माज़ूर, मजबूर (दीगर कौम की औरतें जो इंसानी हकूक से भी महरुम हैं-से भी) और बदतर नजर आ रही हैं. कुरआन में मौजूदा दौर और हालात के मुताबिक़ ग़ौरोफ़िक्र (विचारमंथन) के लिए काफ़ी गुंजाइश दी गई है. कुरआन की नजर में औरतें अछूत या दोयम दर्जे की वस्तु नहीं हैं- यहां औरतों के इंसानी वजूद को न सिर्फ तस्लीम किया गया
है बल्कि उनकी खुद्दारी, बावक़ार शख़्सियत और मानवीय अधिकारों के हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी उनके रिश्तेदार मर्दो (कुरआन में लिखित तौर पे) के सुपुर्द कर दी गई है. जो रहती दुनिया तक टलने वाली नहीं है.


ज़रुरत इस बात की है कि मुसलमान औरतें अपने घरों में रखी हुई उस किताबे हिदाया (राह दिखाने वाली) कुरआन को समझने और जानने की कोशिश करें कि उसमें लिख दिए गए उसके हक़ कौन और क्यों छीन रहा है? साथ ही कुरआन और सही हदीसों की रौशनी में अपने हक़ हासिल करें क्योंकि कुरआन उनके परिवार के जिम्मेदार मर्दो को साफ तौर पर हुक्म दे रहा है-‘‘जो कुछ उनका है उन्हें खुशी-खुशी दे दिया करो.’’ इसलिए भारतीय मुस्लिम औरतों की जिम्मेदारियां अब बढ़ गई है. उन्हें बहैसियत एक जिम्मेदार भारतीय नागरिक अपने सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, नागरिक, धार्मिक और मानवीय हक़ों को जानना होगा, पहचानना होगा और उन्हें संरक्षित करने के लिए सरकारों और अपने रिश्तेदार मर्दों को जगाना होगा. इसके लिए उन्हें संगठित होकर आगे बढ़ना होगा. महिला दिवस का यही अज़्म भी है और पैग़ाम भी.  क्योंकि-खुद बदल जाएगा सब ये सोचना बेकार है-सबकुछ बदल देने की अब शुरुआत करनी चाहिए....!

(लेखिका-परिचय:
जन्म :9 अगस्त 1977, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में
शिक्षा : अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर तथा पत्रकारिता व जनसंचार में उपाधि
सृजन : मानवाधिकार पर प्रचुर लेखन-प्रकाशन, देशबंधु में कुछ वर्षों नियमित रिपोर्टिंग, कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित
संप्रति :  दिल्ली में रहकर कई प्रमुख महिला संगठनों में सक्रिय और स्वतंत्र लेखन
संपर्क : Jabi.Zulaikha@gmail.com)



लेखिका के और लेख  हमज़बान पर

कांग्रेस : भक्ति नहीं, शक्ति बटोरना जरूरी

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राहुल उर्फ़ शहज़ादे के नाम वाया गांधी कुंबा 


चित्र: गूगल बाबा के सौजन्य से






 

भवप्रीतानंदकी क़लम से
यह कोई पहला मौका नहीं था कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी कहीं गायब हो गए थे। वह कहां गायब हुए, इसका कोई अनुमान पार्टी के लोगों को नहीं था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से किसी के पूछने की हिम्मत नहीं थी। कई कांग्रेसी तो इस पचड़े में पडऩा भी नहीं चाहते होंगे कि  राहुल गांधी कहां हैं और क्या कर रहे हैं। पर चूंकि  पार्टी में वह बहुत ऊंचे पद पर हैं इसलिए उनका न दिखना नोटिस में आता-जाता रहता है। पार्टी में यह रुतबा तब ही होता है जब उनके मौन या मुखर होने से चीजें प्रभावित होती हैं।
राहुल गांधी भविष्य में कांग्रेस के अध्यक्ष बन सकते हैं। क्योंकि पार्टी की गतिविधियां लोकसभा चुनाव के बाद भी गांधी परिवार के गिर्द घूम रही है। हालांकि कुछ कांग्रेसी स्पष्ट रूप से या इशारों से गांधी परिवार के गिर्द रहने की आलोचना करते रहते हैं। लोकसभा चुनाव में हार के बाद से वैसे कांग्रेसी नेता को थोड़ा बल मिला है जो कांग्रेस को गांधी परिवार से इतर भी देखना चाहते हैं। पर यह भी सच है कि ऐसे नेताओं की कोई बहुत बड़ी फौज कांग्रेस में नहीं है जो इतर देखने की दृष्टि को मजबूती प्रदान करे। इसलिए यह पानी के बुलबुले की तरह फूलते हैं, फटते हैं और तिरोहित हो जाते हैं।
क्या राहुल गांधी खुद को अध्यक्ष पद पर रखते हुए कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र को वापस ला सकते हैं। दूसरा, क्या कांग्रसे के वरिष्ठ और सामान्य सदस्य राहुल गांधी को आत्मसात कर पाएंगे। दूसरा प्रश्न इसलिए प्रासंगिक है कि चुनाव में अब कांग्रेस की भी औकात बताने की परंपरा की शुरुआत गत लोकसभा चुनाव से हो चुकी है। मतलब अब लोग कांग्रेस को गांधी परिवार से इतर भी देखना चाहते हैं। यह चीज अगर कांग्रेस को चाहने वाले वोटरों में आई है तो बिल्कुल नई है जिसे गांधी परिवार को समझ लेना चाहिए। पर जैसा कि जाहिर है गांधी परिवार के प्रति भक्ति का पैरामीटर कांग्रेस में कम नहीं है। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सोनिया गांधी मान जाती हैं तो कांग्रेस में एक मत से उन्हें अध्यक्ष मनोनीत कर लिया जाएगा, इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए। यह मतेक्य वह शुरुआत है जहां से पूजन की राजनीति शुरू होती है।
कांग्रेस में अब तक जो ट्रेंड है उसके हिसाब से देखा जाए तो पार्टी में लोकतंत्र की बात गांधी परिवार के बाद शुरू होती है। गांधी परिवार खुद भी यही चाहता है कि लोकतंत्र की बात उनके बाद से शुरू हो। गांधी परिवार एक वीटो की तरह कहीं भी हस्तक्षेप कर लोकतांत्रिक स्थिति को पलट देते हैं और सब चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं- इसे हम ट्रेडमार्क कांग्रेसी ट्रेंड कहते हैं। सत्ता में रहते हुए बीते दस साल में परदे के पीछे से सत्ता चलती रही। कई बार ऐसे आरोप लगे पर कभी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्थितियों को स्पष्ट करना जरूरी नहीं समझा। जब उनसे प्रेशर देकर कोई काम करवाया गया तो एक कांग्रेसी सिपाही, गांधी परिवार के भक्त की तरह वह काम करते रहे। उनका व्यक्तित्व भी उनके आड़े नहीं आया।
इस ट्रेंड से सत्ता में भ्रष्टाचार, कालाबाजारी को इस हद तक प्रश्रय मिला कि वह जब तक पानी सिर के ऊपर से नहीं गुजर गया तक तक उसे सहते रहे और वोटरों में क्रोध वृद्धि करते रहे। कांग्रेस का शीर्ष तंत्र पारदर्शिता रखने में पूरी तरह नाकामयाब रहा। बड़ी संख्या में भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए और पूरा तंत्र उसे बचाने में लगा रहा। यह सब सिर्फ इसलिए हो सका क्योंकि जो ऐसा कर रहे थे वह गांधी परिवार के बहुत नजदीकी थे और उनपर कोई एक्शन नहीं लिया जा सकता था। लालू यादव ने भी राबड़ी देवी को सत्ता में रखकर ऐसे ही शासन किया था।
पर अब २०१४ के चुनाव के बाद से भारतीय लोकतंत्र में वोटरों का ट्रेंड बदल गया है। लोकसभा चुनाव और उसके बाद कई विधानसभा चुनावों में इसे देखा जा सकता है। कांग्रेस को उस ट्रेंड में फिट होना होगा। उनका पारदर्शी होना बहुत जरूरी है। अगर पारदर्शी नहीं होंगे तो दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणामों की तरह नामलेवा भी कोई नहीं रह जाएगा। राहुल गांधी की राजनीति को देखकर यही लगता रहता है कि उसके साथ वोटरों का कोई आंतरिक जुड़ाव नहीं है। अगर वह कांग्रेस के अध्यक्ष बनते हैं तो उन्हें सबसे पहले वोटरों के ट्रेंड को समझना होगा। करीब सालभर पहले लोकसभा चुनाव में वोटर भाजपा को सिर-आंखों पर बिठाती है। फिर सालभर में उपजी ठोस और तरल असहमतियों के कारण दिल्ली  विधानसभा चुनाव में धूल चटा देती है। झारखंड में भी आजसू साथ नहीं होता तो बहुमत के आंकड़े से पांच-छह सीटें कम ही मिलती।
अब वह दिन आ गया है जब हर पार्टी के शीर्ष को अपनी अहंकारी और भक्ति-पूजन की गतिविधियों से निजात पाना होगा। चाहे उसके लिए उन्हें खुद की बलि ही क्यों ने देनी पड़ी। वैसे भी वोटर अब फर्श को अर्श और अर्श को फर्श पर करना जान गए हैं। आपकी पारदर्शिता और संवेदनशीलता ही सत्ता देगी या सत्ता से उतारेगी। राहुल गांधी युवा हैं। वह खुद से इस तरह की शुरुआत कर कांग्रेस की पुरानी और प्रतिष्ठित पार्टी में मिसाल कायम कर सकते हैं। वह इस सोच को भी धराशायी कर सकते हैं कि कांग्रेस में गांधी परिवार के बाद लोकतंत्र शुरू होता है। कांग्रेस के लिए गत हार एक सबक और आत्मावलोकन साबित हो सकता है अगर वह अंधभक्ति और उससे उपजी कई विपरीत परिस्थितियों पर विजय पा ले। भाजपा से अब मात्र उसे सांप्रदायिक पार्टी कहकर लड़ाई नहीं की जा सकती है। यह विषय इसलिए स्थूल हो गया है कि भाजपा शासित राज्यों में वर्षों से ऐसी परिस्थितियां नहीं उपजी जहां उसे सिर्फ सांप्रदायिक सोच वाली पार्टी करार कर वोट लिया जा सके। एमपी, छत्तीसगढ़, गुजरात आदि राज्यों में तो भाजपा ने काम के बल पर वोट मांगे और उन्हें मिला। काम के बल पर वोट मांगने वाली स्थिति किसी भी कांग्रेस शासित राज्यों में कहां दिखी। अगले महीने अखिल  भारतीय कांग्रेस कमेटी का सम्मेलन है। पांच राज्यों में कांग्रेस के नए अध्यक्षों की नियुक्ति की जा चुकी है। माना जा रहा है कि राहुल गांधी की सहमति के बाद ही इन अध्यक्षों की नियुक्ति हुई है। आगामी सम्मेलन में राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने की हवा भी बन रही है। ऐसी स्थिति में अगर आंतरिक लोकतंत्र और उसकी सुचिता पर बात की जाती है तो कांग्रेस को इसके दूरगामी लाभ मिल सकते हैं।
यह सर्वविदित है कि परिवारवाद और हारने के बाद उसकी भक्ति से मुंह नहीं मोडऩे का ट्रेंड सिर्फ कांग्रेस में ही नहीं है। मायावती, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, करुणानिधि, जयललिता, लालू यादव आदि राजनीति में ऐसे नेता हैं जो सिर्फ और सिर्फ अपने पास सत्ता रखना पसंद करते हैं। हारने के बाद भी वह जिम्मेदारी लेकर पार्टी के शीर्ष पद से इस्तीफा नहीं देते हैं। घोटालों में भी फंसते हैं तो अपनी बहू-बेटियों या फिर सबसे नजदीकी भक्त को सत्ता देते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वह शीर्ष पर नहीं रहे तो पार्टी बिखर जाएगी ओर सत्ता के कई कें्रद बन जाएंगे। पर वोटर परिवारवाद की इस परिपाटी की अतियों से बुरी तरह नाराज है। समय रहते अगर पार्टियों ने मुक्ति पाने की ईमानदार कोशिश नहीं की तो कांग्रेस वाला परिणाम उन्हें भी भुगतना पड़ेगा। फिलहाल कांगे्रस के शहजादे राहुल गांधी को भगवान सदबुद्धि दे कि राजनीति को तार्किक नजरिए से देख सकें।







 







(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )

हमज़बान पर पढ़ें  भवप्रीतानंद को


अन्याय के ख़िलाफ़

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शहनाज़ इमरानीकी कविताएं

जंग अधूरी रह जाती है

कितना आसान है आगे बढ़ना
अगर सामने रास्ते है
मगर रास्ते सब के लिये कहाँ होते हैं
बाहर का सन्नाटा और अन्दर की खलबली में
कुछ लोग चुनौती को स्वीकारते है
खेतों, कारखानों में कई करोड़
किसान और मज़दूर
कई करोड़ बेरोज़गार युवा
जिनकी कोशिश जारी है
एक सम्पादक लिखता है
विद्रोह न्यायसंगत है
अन्याय के ख़िलाफ़
एक चित्रकार चित्रित करता है
किसान की खुदकशी
एक कवि लिखता है
धर्म के ठेकेदारों के षड्यंत्रों के विरुद्ध
कुछ लोग ढूँढ़ते हैं मसीहा
विचारहीन सम्मोहित भीड़ चल पड़ती है पीछे-पीछे
यह सिर्फ़ ज़बानी वादों का ज़माना है
ज़बान में बहुत ताक़त
कान तक पहुंची बात
क़लम से ज़्यादा असरदार है
जंग अधूरी रह जाती है
किसी और समय में कोई दूसरे
हथियारों के साथ पूरी होने के लिए।

रोज़ बदलती है तारीखें

कई सवाल हैं
कब ,क्यों , कैसे और किसलिए
सवाल जो कभी ख़त्म नही होते
हर आदमी अपने
सवालों के बोझ से दबा हुआ
रोज़ बदलती है तारीखें
बदलती हैं शताब्दियाँ
नहीं बदलते हैं सवाल
नहीं मिलते है जवाब
इतिहास में क़िस्से है राजाओं के
जंग और जीत के उत्थान और पतन के
कहाँ दर्ज है इतिहास भूख का, ग़रीबी का?
जिन्होंने बनाये क़िले और मक़बरे
मंदिरों और मस्जिदों को
उन हुनरमंद हाथों का, उन उँगलियों का?


मेरा शहर भोपाल

 शहर में भीड़ है
शहर में शोर है
शहर को खूबसूरत बनाया जा रहा है
पूंजीपतियों के सेवा ली जा रही है
ऊँचे वेतन और विशेषाधिकार
रिश्वत ,दलाली और कमीशन की मोटी रक़म
रौशनियों में डूबा शहर
जिसकी रात अब जागती है देर तक
फिर भी इसमें खुले आम लूटा जाता है इंसान
भीड़ में कोई पहचानी आवाज़ नहीं रोकती अब
सब कुछ समतल होता जाता है
मर चुकी संवेदनाओं दे साथ जीने लगा है शहर
अब बहुत तेज़ दौड़ने लगा है मेंरा शहर।

 
आत्महत्या

मुझे मालूम है
आत्महत्या पलायन है
मुझे मालूम है
मेरी चीख़ को तुम
चीखने का अभ्यास समझोगे
तुम्हारे लिए यह आशचर्य पैदा करने वाला तथ्य है
अपनी मुक्ति का भ्रम पालती रही हूँ झूठ ही
इस तरह तो कभी चुप्पी नहीं थी
निस्तब्धता तो ऐसी नहीं थी
काटती हूँ चिकोटी अपने आपको
पता नहीं इस प्रस्ताव पर सहमति हो या नहीं
पर नब्ज़ काट लेने दो मुझे
सरकारी तफ्तीशों में मेरी आत्महत्या
एक नैसर्गिक मौत मान ली जाएगी
कोई भी मृत्यु नैसर्गिक नहीं होती
घटना अगर स्मृति नहीं बनती
तो सिर्फ हादसा बन जाती है।

 इस जंग में

 लहू तपती रेत में जज़्ब हो गया
कुछ जीते जी मर गए
और कुछ को मार डाला गया

हड्डियां पत्थरों में मिलती जाती
धरती का तापमान बदल रहा
जिस्मों से लहू उबल रहा
दुनियां और देश की राजनीति में
हर पल इंसान मर रहा
कत्लगाह-ए-शहर में
आदम-ओ-हव्वा की औलादें
लहू में लथ-पथ

वे जिस्म जिनमें
ज़िन्दगी जीने का लालच था
ज़मींदोज़ हो गये
नफरत और जंग की हवा में
हज़ारों बेक़सूर मारे गए
जो बे-ख़ता वार करते हैं
लोगों को बग़ावत के लिए तैयार करते हैं

फैल रहा वहशत का जंगल
कोई नहीं है आग बुझाने वाला
जब वक़्त का फ़ैसला होगा
ज़ुल्म आखिरकार हद में आएगा
मज़हब और अक़ीदों के फ़लीते में
विस्फोट किया जा सकता है
तो लहू की आखरी बूँद को भी
आत्मा में बदला जा सकता है

हम लाश उठाने वाले लोग
हम कांधा देने वाले लोग
हमें भी तो लाशों के ढ़ेरो पर
एक लफ्ज़ नदामत लिखना है
इंसान के लिए इस ज़मीं पर
बाक़ी है मोहब्बत लिखना है।

 सभी नहीं जानते मौत के बारे में

फूल नहीं जानते मौत के बारे में
कौन ख़ामोश है कौन रो रहा है
वो तो मुस्कुराते रहते हैं
मछलियाँ नहीं जानतीं
समुन्द्र में कितने आँसू शामिल है
वो तैरती हैं बिना किसी वजह के
दरख़्त, परिंदे शायद जानते हों
जानती है हवा
चिताएँ जलती हैं रोज़ न जाने कितनी
जानती है ज़मीन
दफ़नाये जाते हैं हर पल ज़िस्म इसमें 
अब वयवस्था हुई जंगल और क़ानून बन्दूक़
मरने वाले की चीखों से
बहरे हुए हैं कान छिन गई हैं आवाज़ें

उफ़्फ़ के शब्द गले में ही अटके गए
ऐसी ही होती हैं सुबहें ऐसी ही हैं शामें
हम जानते हैं मौत को
जो आ जायेगी कभी भी
बिना बताये ख़ामोशी से।

पुराना डाकख़ाना

चौड़ी सड़कों में दबे
पानी के बाँध में समा गए
शहर की तरह एक दिन तुम भी
तमाम मुर्दा चीज़ों में शुमार हो जाओगे
वक़्त की चाबूक से छिल गई है राब्ते की पीठ
कुछ शब्दों को नकार दिया है
कुछ पुराने पड़ गए शब्दों को
मिट्टी में दबा दिया है
उखड़ी सड़क, झाड़-झंखाड़
और अकेले खड़े तुम
रोज़ अंदर-ही-अंदर का
खालीपन गहरा होता जाता है
पुराने धूल भरे कार्ड
पत्रिकायें, बेनाम चिट्ठियां
जाने कहाँ-कहाँ भटकी हैं
कुछ आँखें धुंधला गयी होंगी इंतज़ार में
कुछ आँखों से बहता होगा काजल
कुछ आँखें को आज भी इंतज़ार है
गुम हुई चिट्ठियों के मिलने का।

बातों के छोटे-छोटे टुकड़ों में

बहुत कुछ है
और बहुत कुछ नहीं है के बीच
बहुत सारी बेवकूफ़ियों के बाद भी
बची रहती है समझदारी
जैसे कुछ चीज़ों में
बचा रह जाता है अपनापन
अलमारी में रखा छोटा सा पर्स
पुरानी डायरी में
कविता की दो चार पंक्तियाँ
बातों के छोटे-छोटे टुकड़ों में
छुपी रहती है एक दुनियां
ज़िन्दगी में फ़ैला दर्द
जो तुम्हारी बातों में खो गया
मेरी सपाट दुनियां में
तुम्हारा होना
दिल से दिमाग़ के रास्ते पर
भटक जाती हूँ कई बार
लिखना चाहती हूँ एक कविता
प्यार, मौसम, बारिश, धूप, चाँद
सब कुछ होते हुए भी
न होने की आवाज़।

एक रात

सर्दी की रात में सहमा-सहमा पानी बरसता है
हवा दरख्तों को हलके से छू कर गुज़रती है
कुछ दैर शोर मचाते है पत्ते
करवट दर करवट वक़्त गुजरता है
रात के चहरे पर
खाली आँखों के दो कटोरे
दीवारों से फिसलते हुए
फर्श पर आ गिरते हैं
नींद बे आवाज़ आ कर कहती है
सोना नहीं है क्या ?


(रचनाकार-परिचय :
जन्म: भोपाल में
शिक्षा:  पुरातत्व  विज्ञानं (अर्कोलॉजी ) में स्नातकोत्तर
सृजन: पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। काव्य-संग्रह जल्द 
संप्रति: भोपाल में अध्यापिका
संपर्क: shahnaz.imrani@gmail.com  )


हमज़बान पर कवयित्री की और कविताएं भी पढ़ें    

 

पहली ड्रीम गर्ल की सुरमई यादें

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भारतीय सिनेमा की अग्रणी  नायिका देविका रानी 

चित्र: गूगल बाबा के सौजन्य से





 









सैयद एस.तौहीदकी क़लम से 

देविका रानी (जन्म: 30 मार्च, 1908 निधन: 8 मार्च, 1994) का शुमार भारतीय सिनेमा की अग्रणी नायिकाओं के तौर पर होता है। बीस के दशक में रिलीज एक द्विभाषी फिल्म  से सिनेमा का रुख़ किया था। उसे उस समय के जाने-माने निर्माता हिमांशु राय ने एक विदेशी कंपनी  के साथ मिलकर बनाई थी। उस समय देविका लंदन में कला की शिक्षा ले रही थी। देविका की हिमांशु से पहली मुलाकात वहीं हुई। देविका का सिनेमा रुझान देखते हुए हिमांशु ने उन्हें काम करने का न्योता दिया। देविका ने उस फिल्म में मंच सज्जा की। किंतु उन्हें नामों की सूचि में नहीं स्थान मिला। इसके बाद दोनों एक साथ जर्मनी में एक तकनीकी प्रशिक्षण लेने गए। उस दौरान देविका ने अभिनय-वेशभूषा-मेक अप आदि को मन लगा कर सीखा। देविका-हिमांशु में बेहतरीन तालमेल हुआ करता था। दोनों ने फिल्म निर्माण को समर्पित एक टीम बनाई। जिसके बाद ‘कर्म’ का निर्माण हुआ।

कर्म से बॉम्बे टॉकीज़ तक 
देविका-हिमांशु ने इसमें लीड भूमिकाएं अदा की थी। फिल्म को समकालीन आलोचकों ने काफी महत्त्व दिया। ब्रिटेन के समाचार पत्रों में उसकी बेहतरीन समीक्षाएं लिखी गयीं। फिल्म की कामयाबी ने दोनों को आपसी रिश्ते मजबूत करने का बेहतरीन अवसर दिया। इस समझ से दोनों का विवाह  बेहतरीन निर्णय रहा। स्वदेश वापसी के उपरांत इस जोडी ने ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की सफल स्थापना की। इस ख्वाब को शायद उन्होंने जर्मनी में देखा होगा। देविका इस फिल्म कंपनी का चेहरा बनी जबकि इसकी संचालन का कार्यभार हिमांशु राय के जिम्मे था। जिस किस्म से देविका की जिंदगी चल रही थी, उस प्रकाश में उनका सिनेमा में आना महज तक़दीर का खेल कहा जा सकता है। ब्रिटेन में कला व संगीत की शिक्षा लेने वाली युवती का फिल्मकार हिमांशु राय से मुलाकात होना संयोग था। हिमांशु को देविका की प्रतिभा को नवाजते हुए फिल्मों में काम करने का आफर दिया। दोनों ने एक साथ फिल्में की। पहली फिल्म ‘कर्म’ रिलीज हो जाने बाद वो स्वदेश चले आए थे।
आप जब भी मुंबई के नाना चौक पर आएं तो बॉम्बे टॉकीज़ का इतिहास झांकता मिलेगा। जहां कभी विशाल स्टुडियो प्रांगण हुआ करता था, वहां गगनचुंबी बहुमंजिला इमारतें खडी हैं। इसके मुहाने पर पुरानी-बेकार गाडियों का अंबार एक गराज की शक्ल अख्तियार कर चुका है। एक नायिका के रूप में देविका रानी का नाम हांलाकि कभी बहुत मशहूर हुआ करता था, फिर भी उस समय के निशान आज नहीं मिलते। जानता हूं कि किसी ने भुलाने  नहीं दिया, लेकिन वो फिर भी यादों के कारवां से बाहर रहीं। एक कडवा घूंट जिसे बीते जमाने के कलाकारों को ना चाहते हुए पीना पडा है। भूले-बिसरे लोगों के नाम किसी पुरस्कारों के माध्यम से मिला करते हैं।  देविका रानी का किस्सा इससे जुदा नहीं था।

‘अछूत कन्या’ का असर जब पड़ा लड़कियों पर 
सिनेमा के बदलते तेवर ने उन्हें इससे अलग होने को बाध्य किया था। भारतीय सिनेमा की प्रथम नायिकाओं में शुमार देविका के संन्यास को पदमश्री व दादासाहेब फाल्के पुरस्कारों ने कुछ समय के लिए जरूर तोडा, लेकिन सिनेमा की दुनिया में महज हवा के झोंके थे। उनके योगदान को मुड़कर देखें तो सिनेमा को एक कला का सम्मान अता करने को भुलाया नहीं जा सकता। फिल्मों को एलिट लोगों में लोकप्रिय बनाने की महान क्षमता भी उनमें थी। भारतीय सिनेमा के पुराने चलन में बदलाव इस मायने में भी आया कि देविका के बाद कथित सम्मानित परिवारों की लड़कियां फिल्मों में आने लगी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की करीबी रिश्तेदार व भारत के प्रथम सर्जन जनरल की बेटी का फिल्मों में आना क्रांतिकारी था । एक तरह से अछूत दुनिया को उन्होंने अपनाया था।  स्टुडियो की पहली फिल्म के बाद  देविका के सह-अभिनेता नजमुल हसन को बाहर होना पड़ा। बॉम्बे टॉकीज़ की अगली महत्वकांक्षी फिल्म ‘अछूत कन्या’ के लिए उपयुक्त अभिनेता की तालाश अशोक कुमार पर जाकर ठहरी।  सामाजिक असमानता-जातिवाद-प्रेम तत्वों को समेटे यह फिल्म भारतीय सिनेमा में गुणवत्ता की मिसाल थी। ऊंचे जाति के युवा का दलित युवती से प्रेम की कहानी थी। उस जमाने में इस किस्म की फिल्में बिल्कुल नहीं बनती थी।  सामाजिक विसंगतियों के ऊपर गंभीर व आवश्यक विमर्श शुरू  हो गया था। कहा जा सकता है कि फ़िल्म अपने समय से आगे थी। सिनेमा के सफर में मील का पत्थर। भारतीय नारी की स्थिति को दर्शाने वाली फिल्मों का सफर देविका ने जारी रखा। इस दरम्यान जीवन प्रभात-निर्मला-दुर्गा का निर्माण हुआ।
 
दलित युवती व  ब्राह्मण युवक का प्रेम कस्तुरी-प्रताप
बॉम्बे टॉकीज़ को शोहरत की बुलंदियों तक लाने के लिए ‘अछूत कन्या’ की सराहना करनी होगी। सामाजिक विसंगतियों पर चोट करनी वाली इस फिल्म बरसों पुरानी होकर भी प्रासंगिक है। फिल्म को सरस्वती देवी के गानों से भी ख्याति मिली। परंपरा के मुताबिक देविका-अशोक कुमार ने गीतों को आवाज दी। दलित युवती की स्मृति में स्थापित मंदिर का यहां साहसी प्रसंग आया था। फ्लैशबेक माध्यम से उस लड़की की कहानी को बताया गया। दलित किशोरी कस्तुरी (देविका रानी) ब्राह्मण किशोर प्रताप (अशोक कुमार) जातिवादी पूर्वाग्रहों
से दूर एक साथ गीत गाते रहते हैं।  शायद इसलिए भी क्योंकि प्रताप व कस्तुरी के पिता आपस में दोस्त थे। कस्तुरी के पिता दुखिया ने कभी मोहन (प्रताप के पिता) की जान बचाई थी। वे दोस्ती के ऊपर जातिगत मानसिकताओं को तिलांजलि  देकर जी रहे थे। कस्तुरी-प्रताप में भी एक दूसरे को लेकर प्रेम का भाव है। लेकिन क्या जातिगत पूर्वाग्रहों से ग्रसित समाज इस ‘पाप’ को स्वीकार करेगा? पूरे समाज में केवल दुखिया तथा मोहन को इन किशोरों की चिंता थी। लेकिन उन्हें समाज का समर्थन नहीं मिलने वाला था। दलित युवती
से बेटे की नजदिकियां मां को स्वीकार नहीं। कस्तुरी के उदार माता-पिता जातिवादी भेदभाव से दुखी होकर भी असहाय हैं। उधर प्रताप का रिश्ता अपनी ही जाति की मीरा से तय हो जाता है। 
प्रताप-कस्तुरी को धर्म के ठेकेदारों ने अलग करने की कसम खा रखी थी। इसी दरम्यान सख्त रूप से बीमार दुखिया को इलाज खातिर अपने घर लाने की गलती मोहन बाबू से हो गयी। क्या ऊंची जाति का कुनबा इसे सहन करेगा? मोहन बाबू को मारपीट कर घर में आग लगा दी जाती है। भलमनसाहत वाले लोग दोनों को किसी तरह वहां से बचा लेते हैं। मामले की जांच के लिए पुलिस गांव पहुंचती है। क्या पुलिस दोषियों को सजा देगी? एक मुश्किल बात थी। प्रताप- मीरा का रिश्ता एक बेमेल परिणाम निकला। दूसरा कस्तुरी में संभावना तलाश रहा था। कस्तुरी का रिश्ता तय हो गया। क्या प्रताप कस्तुरी व खुद को इस भंवर से निकाल सकेगा? वो कस्तुरी को साथ गांव छोड देने का प्रस्ताव देता है। पीडा देखिए कि प्रताप व कस्तुरी जैसे प्रेम कहानियों का आगे सुखद समापन हो…वर्त्तमान कुरबान हो गया। कस्तुरी का त्याग प्रताप में भी अपने वर्त्तमान (मीरा) को अपना लेने का भाव डाल गया। क्या कस्तुरी-प्रताप का त्याग जातिगत विषमताओं को समाप्त कर सका? जवाब हम सबको पता है।

चुंबन, हिमांशु और ग्लोबल सिनेमा
देविका रानी की एक अन्य फिल्म ‘कर्म’ की प्रशंसा में तब के एक नामी अखबार ने लिखा कि फिल्म भारतीय सिनेमा के परंपरा में मील का पत्थर होगी। भारतीय सिनेमा को क्षमताओं को समझने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास। एक चुंबन एवं उससे उपजे चिरकालिक विवाद के अलावा फिल्म में बहुत कुछ था। यह द्विभाषी प्रस्तुति  अंग्रेजी व हिन्दी में रिलीज हुई थी। एक नायिका के तौर पर देविका की पहली फिल्म थी। हिमांशु राय ने कर्म के बाद अभिनय को छोड निर्माण में विशेषता बना ली। हिमांशु राय के सिलसिले में फिल्म को दुर्लभ भी कहा जा सकता है। आज के ग्लोबल सिनेमा में जहां अंतर-सांस्कृतिक एवं अंतराष्ट्रीय पैमाने की फिल्में बन रही, ऐसे वक्त में तीस दशक की ओर मुडकर देखना लाजिमी हो जाता है।  बीता जमाना आज को चुनौती देता दिखाई देता है। शांतिनिकेतन व ब्रिटेन में तालीम हासिल करने वाले हिमांशु हमारे सिनेमा को विश्व स्तर पर ले जाने का नेक मकसद ले कर चल रहे थे। इसकी कामयाबी ‘कर्म’ में फलीभूत हुई। निर्माण के ज्यादतर पहलू तकनीकी रूप से संपन्न विदेशी तकनीशियन देख रहे थे। मेहनत के फल को आप बेहतरीन समीक्षाओं में देख सकते हैं। समकालीन भारतीय परिवेश से प्रेरित होकर भी विश्व स्तर की अपील वाली एक फिल्म बनी थी। महलों व महाराजाओं में भारत की विलासिता झलक रही थी। राज पाठ की भव्यता के बीच एक प्रेम कहानी को आकार दिया गया।
कर्म में आस्था को इसका मर्म रखा गया, एशियाई लोगों के लिए यह आकर्षण का बिंदु बना। हालांकि हिमांशु स्वदेश में फिल्म सफल होगी? को लेकर घबराए हुए थे। बांबे में रिलीज होकर दिल्ली व मद्रास में भी लगी। फिल्म को सकारात्मक अपनत्व मिला। फिर भी ब्रिटेन की तुलना में यह कम था। हमने फिल्म की कहानी को पसंद किया। दो राजसी घरानों के वारिसों के बीच उभरते प्यार की दास्तान यह थी। लंदन व भारत में फिल्मायी गयी इस फिल्म में भारतीय राजाओं व उनके भव्य महलों की छटा देखने को मिली थी। भारतीय रेल व केंद्रीय प्रचार संस्था फिर राजसी  राज्यों व उन पावन मंदिरों के संचालकों को धन्यवाद कहना चाहिए।

जीवन की जीत में विश्वास बनाने वाली दास्तान
समकालीन भारतीय परिवेश से प्रेरित होकर भी विश्व स्तर की अपील वाली एक फिल्म बनी थी। महलों व महाराजओं में भारत की विलासिता झलक रही थी। राज पाठ की भव्यता के बीच एक प्रेम कहानी को आकार दिया गया। कर्म में आस्था को इसका मर्म रखा गया, एशियाई लोगों के लिए यह आकर्षण का बिंदु बना। हालांकि हिमांशु स्वदेश में फिल्म सफल होगी? को लेकर घबराए हुए थे। बांबे में रिलीज होकर दिल्ली व मद्रास में भी लगी। फिल्म को सकारात्मक अपनत्व मिला। फिर भी ब्रिटेन की तुलना में यह कम था। हमने फिल्म की कहानी को पसंद किया। दो राजशी घरानों के वारिसों के बीच उभरते प्यार की दास्तान यह थी। लंदन व भारत में फिल्मायी गयी इस फिल्म में भारतीय राजाओं व उनके भव्य महलों की छटा देखने को मिली थी। भारतीय रेल व केंद्रीय प्रचार संस्था फिर राजशी राज्यों व उन पावन मंदिरों के संचालकों को धन्यवाद कहना
चाहिए। सीतापुर की राजकुमारी ( देविका रानी) व जयनगर के राजकुमार (हिमांशु राय) की प्रेम कहानी में धर्म-आस्था-आखेट का रोचक तत्व शामिल था। सांप-सपेरों की रुचिकर दुनिया को भी कहानी का हिस्सा बनाया गया। सांप के जहर से मृत्यु की रेखा पर पहुंचे राजकुमार को बचाने वाली राजकुमारी की कहानी। प्रेम व आस्था तथा जीवन की जीत में विश्वास बनाने वाली दास्तान।
एक संपन्न बंगाली परिवार से ताल्लुक रखने वाली देविका का आज के विशाखापटनम से गहरा नाता था। वो इसी शहर के एक बंगाली परिवार से थी। देविका का जन्म एमएन चौधरी व लीला जी के परिवार में हुआ थ। स्कूल की पढाई पूरी होने बाद संगीत व रंगमंच की शिक्षा लेने ब्रिटेन के नामी रंगमंच एकेडमी ‘रंगमंच की रायल अकादमी’ एवं ‘संगीत की रायल अकादमी’ में दाखिला लिया। फिर आगे जाकर वास्तुकला व डिजायनिंग की भी तालीम हासिल की। इ्सी दरम्यान उनकी मुलाकात पटकथा लेखक निरंजन पाल से हुई। निरंजन ने देविका के लिए बहुत सी फिल्मों की पटकथाएं लिखीं। बांबे टाकीज के महान स्वपन को निरंजन पाल व फिल्मकार फ्रांज ओस्टेन के योगदानों ने भी पूरा किया। हिमांशु-देविका की इस कंपनी ने हिन्दी सिनेमा को इन दोनों के अतिरिक्त अशोक कुमार-मधुबाला-दिलीप कुमार सरीखा कलाकार दिया। हिमांशु राय के निधन उपरांत बांबे टाकीज के मालिकाना हक़ की लडाई को बडे हिम्मत से लडा। फिर भी फिल्मिस्तान के उदय को रोक नहीं सकी। समय के साथ बांबे टाकीज का नाम इतिहास के पन्नों तक सिमट गया। यही वो वक्त था जब पेंटर स्वेतलाव रोरिक़ उनकी जिंदगी में आए। सिनेमा से दूरी बनने लगी …क्योंकि शायद जीवन की प्राथमिकताएं बदल चुकी थी।  वो बंबई को छोड पति के शहर बेंगलोर आ गयी, बाक़ी जिंदगी वो यहीं रही।


(रचनाकार-परिचय:
जन्म : 2 अक्टूबर 1983 को पटना (बिहार) में
शिक्षा : जामिया मिल्लिया इस्लामिया से उच्च शिक्षा
सृजन : सिनेमा पर अनेक लेख . फ़िल्म समीक्षाएं
संप्रति :  सिनेमा व संस्कृति विशेषकर हिंदी फिल्मों पर लेखन।
संपर्क : passion4pearl@gmail.com )

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कीजिये बर्बरता को सलाम! 








 





वसीम अकरम त्यागीकी क़लम से

नागालैंड  के दीमापुर में जो हुआ है उसे कुछ लोग समुदाय विशेष से जोड़ कर देख रहे हैं.  उसमें हिंदू -मुस्लिम खोजा जा रहा है.  इस खोजबीन के सिलसिले में वे सवाल पीछे छूट रहे हैं जो इस प्रकार की घटना के समय उठने चाहियें। शायद यह एसी पहली घटना है जिसमें भीड़ ने जेल के अंदर से किसी व्यक्ति को निकाला और आठ किलो मीटर तक उसके घसीट – घसीट कर पीटा और फिर मार दिया गया। इस घटना ने कॉलेज की दीवार पर लिखी उस पंक्ति को गलत साबित कर दिया जिसमें लिखा था ‘पाप से डरो, पापी से नहीं’ जाने वो कैसे लोग थे जिन्होंने दीवारों पर इस इबारत को लिखा था और यह कैसे लोग हैं जो उसे पढ़ नहीं पाये, समझ नहीं पाये। हजारों की भीड़ में क्या एक भी शख्स एसा नहीं रहा होगा जिसका सीना इंसानों का हो। एक व्यक्ति को मारना, और जलील करके मारना इसमें बहुत बड़ा फर्क है यह सबकुछ पुलिस की मौजूदगी में हुआ समर अनार्य के शब्दों में कहा जाये तो ‘जाति, धर्म, लिंग, भाषा- किन आधारों पर भीड़ द्वारा दीमापुर में एक बलात्कार आरोपी को जेल, यानी सरकारी अभिरक्षा, से निकाल कर मार दिया जाना कैसे 16 दिसम्बर से कम बर्बर है? कौन है जो एजेंडा सेट करता है कि कौन से अपराध उन्माद पैदा करेंगे, किन अपराधों से उन्माद पैदा करवाया जाएगा और कौन से बस यूं ही अपवाद की तरह भूल दिए जायेंगे’ ?

भीड़ का गुस्सा तो इसको नहीं कहा जा सकता बल्कि यह तो सुनियोजित तरीके से की गई एक हत्या थी जिसमें स्थानीय प्रशासन, जेल प्रशासन और क्षेत्रीय राजनीति की भूमिका सवालों में है। अगर बलात्कार के खिलाफ यह गुस्सा था तो फिर यह गुस्सा उस वक्त क्यों नहीं जब 2012 में अंडमान निकोबार में विदेशी पर्यटकों ने दो रोटी का लालच देकर आदीवासी महिलाओं को नंगा नचाया था ? उनके कपड़े उतरवाकर उनसे डांस करवाया और फिर उसकी वीडियो भी बनाई जिसे यूट्यूब पर शेयर किया गया। उन विदेशी पर्यटकों पर किसी को गुस्सा क्यों नहीं आया ? 

बहरहाल जैसा मंजर दीमापुर का रहा है वह हम सबकी आंखों के सामने है तरह – तरह की प्रतिक्रियाऐं सामने भी आई हैं। कोई व्यक्ति कानून तोड़ता है अपराध करता है उसके लिये सजा आईपीसी तय करेगी या फिर हजारों की वह भीड़ जिसने भारी सुरक्षा के बीच (भारी पुलिस बल) एक व्यक्ति को जेल से निकाला और फिर नंगा करके मारते हुऐ उसे सात – आठ किलो मीटर तक पैदल घसीटा ? जाहिर यह दूरी कोई दस पांच मिनट में तो तय नहीं हो गई होगी इसके लिये कमसे कम दो से तीन घंटे का समय लगा होगा क्या इस अंतराल में भी पुलिस का लापरवाह बने रहना उसके लिये उत्तरदायी नहीं ? अगर सबकुछ भीड़ को ही करना है तो फिर यह अदालतें, कानून की मोटी-मोटी किताबें, जज, वकील, गाऊन किसलिये हैं ? फिर इनकी जरूरत ही क्या है ? जब सब कुछ भीड़ ही करेगी तो फिर उखाड़ कर क्यों नहीं फेंक दिया जाता इन संस्थानों को जिनकी ओर पीड़ितों की आंखें न्याय मिलने की बांट में सूखी जा रही है ? दीमापुर की घटना महज एक घटना ही नहीं बल्कि इसने यह साबित किया है कि संविधान की दुहाई देने वाले राज्यों में कानून के प्रति लोगों की आस्था ही नहीं है, कुछ पुलिस बल का सहारा लेकर कुछ भी किया जा सकता है ?
तुर्रा यह कि सैयद फरीद बंग्लादेशी था यह कैसी अजीब विडंबना है मृतक के प्रति लोगों की सहानूभूति को विदेशी कहकर कम किया जा रहा है। क्या नागा काउंसिल  इस बात का जवाब दे सकती है कि अगर फरीद बंग्लादेशी था तो 1999 में कारगिल युद्ध में शहीद होने वाला उसका भाई सैयद इस्लामुद्दीन भारतीय सेना में कैसे पहुंच गया ? जिस पचास रुपये का तर्क नागा काउंसिल की तरफ से दिया गया है कि पचास रुपये में भारतीय नागरिकता मिल जाती है,  वह कितना भौंडा है! क्या पचास रुपये खर्च करने के बाद ही कोई विदेशी भारतीय सेना में पहुंच जाता है ? फिर पचास रुपये की ‘लाज’ के लिये अपनी जान भी देश के लिये दे देता है ? फरीद के पिता भी वायू सेना में रहे, यानी पिछली दो पीढ़ियों से यह परिवार सेना में रहा उसके बावजूद भी संविधान और राष्ट्र से ऊपर होते दिख रहे नागा काउंसिल को मृतक बंग्लादेशी नजर आया। 

कई बार दिमाग में यह सवाल आता है कि जब झूठा बलात्कार करने की सजा वह थी जो फरीद को मिली,  फिर उन पुलिसकर्मियों को जिनकी आंखों के सामने यह सबकुछ हुआ, बलात्कार का आरोप लगाने वाली युवती, व फरीद की क्रूरतापूर्वक हत्या करने वाले उन लोगों को कौनसी सजा दी जायेगी ? जिन्होंने खुद को देश के संविधान से बड़ा साबित किया है।


(रचनाकार -परिचय:
जन्म :  उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक छोटे से गांव अमीनाबाद उर्फ बड़ा गांव में 12 अक्टूबर 1988 को ।
शिक्षा : माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता व  संचार विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक और स्नताकोत्तर।
सृजन : समसामायिक और दलित मुस्लिम मुद्दों पर ढेरों  रपट और लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
संप्रति :  मुस्लिम टुडे में उपसंपादक/ रिपोर्टर
संपर्क : wasimakram323@gmail.com

हमज़बान पर वसीम अकरम त्यागी के और लेख

चंद्रशेखर के मुनीश्वर भाई, सुषमा के दादा

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मुनीश्वर बाबू अपनी लाडली बिटिया प्रीति (लेखिका) के साथ
 
स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता  मुनीश्वर प्रसाद सिंह  पर उनकी बेटी का संस्मरण
 

प्रीति सिंह की क़लम से



एक बार फिर सामने हूं अपने बाबूजी की कुछ यादें लेकर। वो यादें जो मुझे हर पल आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं । अगर आपको कोई राह दिखाने वाला हो, तो जीवन कितना सुगम बन जाता है. यह वही जान समझ सकता है जिसे जीवन पथ पर किसी अपने का साथ मिला हो। आज जब लोग किसी का काम बिना जान-पहचान के करने को तैयार नहीं होते। वैसी दुनिया में बाबूजीजी ने कितने अंजान लोगों की सहायता की है। उनका कहना था कि हम सिर्फ निमित्त होते हैं, मदद करने वाला तो ईश्वर होता है और जब ईश्वर ने जब हमें किसी को पास सहायता के लिए भेजा है तो फिर हम उसकी मदद नहीं करके ईश्वर का अपमान करेंगे। इसीलिए हर किसी की मदद को वो हर क्षण प्रस्तुत रहते थे।


जब मोटरसाइकिल हुई खराब,  बाबूजी ने दी बेटी-पिता को लिफ़्ट
उम्दा शख्सियत वाले बाबू जी का दिल दूसरों के लिए भी कितनी दया और सहानुभूति से भरा हुआ था, इसे बताने के लिए एक कहानी काफी होगी। एक बार देर रात हाजीपुर से किसी मीटिंग में हिस्सा लेकर बाबूजी घर लौट रहे थे। उनकी पुरानी एम्बेसडर कार को भैया  चला रहा था। साथ में सरकार की ओर से मिला बॉडीगॉर्ड भी था। गांधी सेतु पर उन्होंने एक मोटरसाइकिल चालक को अपनी गाड़ी घसीटते देखा। उनके साथ दो लड़कियां भी थीं। ये देखकर बाबूजी को ये समझते देर नहीं लगी कि मोटरसाइकिल खराब हो गई है। इतनी रात में उन्हें अकेले देखकर उन्होंने  कार रुकवाई और अपने बॉडीगॉर्ड हवलदार कलक्टर सिंह को मोटरसाइकिल वाले को गाड़ी में चलने का आग्रह लेकर भेजा। अंजान लोगों की ओर से मदद की पेशकश देखकर मोटरसाइकिल चालक थोड़ा घबराए । जमाने की हवा ही ऐसी है कि किसी को किसी पर यकीन नहीं आता। आज की इस मतलबी दुनिया में निस्वार्थ मदद भी सामने वाले के मन में संदेह पैदा करती  है। असमजंस में पड़े उस शख्स को देखकर बाबूजी ने उन्हें खुद अपना परिचय दिया और देर रात पैदल दो बेटियों को अपने साथ लेकर जाने से उन्हें मना किया। भैया ने मोटरसाइकिल को कार में टोचन किया। उसको हवलदार साहब लेकर चले। जबकि कार में वो व्यक्ति और उनकी दोनों बेटियां बैठीं।  बाबूजी ने उन्हें गंतव्य पर उतार कर ही राहत की सांस ली। ऐसी कई घटनायें हैं। उन्होंने न जाने कितने लोगों को प्रोफेसर, इंजीनियर और डॉक्टर बनवाया। कितने लोगों की पढ़ाई में मदद की और न जाने कितनों को राजनीति का ककहरा सिखाया। लेकिन समय के साथ लोग आगे बढ़ते चले गए और उन्हें ही भूल बैठे।

आचार्य कृपलानी का घड़ा सुचेता की फ्रिज

बाबूजी की तेज बुद्धि, निर्णय लेने की अद्भुत शक्ति, जबरदस्त उत्साह और सकारात्मक सोच का कुछ भी प्रतिशत मुझमें होता तो मैं खुद को धन्य मानती।  युवावस्था में जब बाबूजी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े हुए थे तब उन्हें पार्टी के कद्दावर नेता जेबी कृपलानी को चुनाव लड़ने के लिए मनाने की जिम्मेवारी दी गई। उस वक्त तक जेबी कृपलानी  ने चुनाव न लड़ने का फैसला किया था और पार्टी के तमाम बड़े नेता उन्हें मना कर थक चुके थे। उनका चुनाव लड़ना जरुरी था। क्योंकि पार्टी को इसकी जरुरत थी। उस वक्त लोग उसूलों के लिए चुनाव लड़ते थे, न कि अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरा करने के लिए। खैर, सब ओर से हारकर हाईकमान ने बाबूजी को ये जिम्मेवारी सौंपी। बता दें कि जेबी कृपलानी देश के कद्दावर समाजवादी नेताओं में से एक थे और उनकी धर्मपत्नी सुचेता कृपलानी कांग्रेस की नेता। सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और देश की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं। लेकिन वैचारिक दृष्टिकोण अलग-अलग होने की वजह से दोनों अलग-अलग पार्टियों में थे। बहरहाल, जब बाबूजी आचार्य कृपलानी को मनाने पहुंचे तो उस वक्त भीषण गर्मी थी। बातचीत के दौरान आचार्य कृपलानी ने  फिर चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। बाबूजी ने उन्हें कई तर्क-वितर्क के द्वारा मनाने की कोशिश की। अचानक बीच में आचार्य कृपलानी ने बाबूजी से पानी पीने के लिए पूछा। चूंकि मौसम गर्मी का था। प्यास बाबूजी को भी लगी थी। उन्होंने पानी के लिए हां कर दिया। इस पर कृपलानी जी ने पूछा कि तुम किसका पानी पीना पसंद करोगे, मेरा या सुचेता का? बाबूजी ने कहा कि आपका। पानी पिलाने के बाद कृपलानी जी ने एक बार फिर बाबूजी से पूछा कि आखिर तुमने मेरा पानी क्यों चुना और इस प्रश्न के पूछने के पीछे मेरा मकसद क्या था? तब बाबूजी ने बहुत शांत लहजे में कहा कि – दरअसल आप इस प्रश्न के द्वारा मेरी बुद्धिमता और मेरे मकसद को जानना चाहते थे। आपने किसका पानी पियोगे ये पूछकर पार्टी के प्रति मेरी प्रतिबद्धता को भी जांचा। चूंकि सुचेता जी कांग्रेस नेता और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं तो जाहिर सी बात है कि उनके पास फ्रिज होगा। जबकि आप सोशलिस्ट नेता हैं तो आपके पास घड़ा है। इसीलिए आपने पूछा कि तुम सुचेता का या मेरा पानी पियोगे? और चूंकि मैं आपके दल का कार्यकर्ता हूं और आपका अनुयायी भी। इसीलिए मैंने  फ्रिज के बजाय घड़े के पानी को पीना स्वीकार किया। कृपलानी जी बाबूजी के इस जवाब से काफी खुश हुए और उन्होंने चुनाव लड़ने की बात को मान लिया। पार्टी की ओर से उन्होंने बांका से चुनाव लड़ा और भारी बहुमत से विजयी हुए। कृपलानी जी ने बाबूजी की जमकर तारीफ की और आलाकमान को भी युवा नेता के तौर पर उनको पार्टी में शामिल करने करने के लिए बधाई दी।


खर्च अपना पैरवी दूसरों की किया करते थे
हालांकि सच और बेबाक बोलने की अपनी आदत की वजह से वो कई बार न होने वाले काम के लिए अपनी असमर्थता भी जता देते थे। आज-कल के नेताओं की तरह झूठे आश्वासन देकर लोगों को अपने पीछे घुमाना उन्होंने नहीं सिखा था। कई बार शुभचिंतकों ने उन्हें लोगों के मुंह पर काम नहीं होने की बात न बोलने की सलाह भी दी। लेकिन उन्होंने हर बार इस बात को सिरे से खारिज कर दिया कि किसी के मन में झूठी उम्मीद को जगाया जाये।  आज जहां राजनेता काम कराने के बदले रुपये लेते हैं। वहीं बाबूजीजी अपने रुपये खर्च कर उनकी पैरवी किया करते थे। बार-बार फोन करने की वजह से टेलीफोन का बिल हजारों रुपये का आता था। और-तो-और वो घरवालों को भी परेशान कर दिया करते थे। कई बार तो उनकी इस परोपकार की प्रवृति से हमलोग चिढ़ जाया करते थे। लेकिन उनका कहना था कि किसी भी सूरत में प्रत्येक इंसान का ये कर्तव्य है कि वो दूसरों की मदद करे और वो भी बिना किसी स्वार्थ के। इसीलिए शायद ये गुण जाने-अंजाने मुझ में भी आ गया। बाबूजी को देश के बड़े-बड़े राजनेताओं का प्रेम और सम्मान मिला। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने हमेशा उन्हें मुनीश्वर भाई कह कर ही संबोधित किया। तो सुषमा स्वराज उन्हें दादा कहकर बुलाती थीं। दक्षिण के वरिष्ठ राजनेता रामकृष्ण हेगड़े उनके प्रगाढ़ मित्रों में से एक थे। इन सबके बावजूद बाबूजी ने अपनी राजनीतिक पहुंच का फायदा कभी भी अपने परिवार या बच्चों के लिए नहीं उठाया। उन्हें अपनी कर्मभूमि महनार से असीम लगाव था। तभी तो पार्टी द्वारा कई बार लोकसभा चुनाव लड़ने की गुजारिश के बाद भी उन्होंने सिर्फ इसलिए महनार विधानसभा नहीं छोड़ा कि वो अपने क्षेत्र से दूर चले जायेंगे, जो कि उन्हें किसी भी सूरत में गवारा न था। लेकिन कहते हैं न कि ज्यादा प्रेम तकलीफ भी लेकर आता है। तभी तो इस क्षेत्र ने उन्हें 1995 के चुनाव में वो दर्द दिया, जो लंबे समय तक उनके जेहन में ताजा रहा। इस चोट ने उन्हें राजनीति का परित्याग करने को मजबूर कर दिया। ओछी राजनीति ने उन्हें गहरी पीड़ा दी और उन्होंने सक्रिय राजनीति से एक दूरी बना ली।

 ऐसी खुशबू कहां से लाऊंगी
बाबूजी धार्मिक रुढ़ियों को नहीं मानते थे। लेकिन अध्यात्म में उनकी गहरी रुचि थी। खाली वक्त में वो रामायण, महाभारत और गीता पढ़ते थे। हमलोगों से भी वो अक्सर कहते थे कि इन पुस्तकों को पढ़ो। धार्मिक पुस्तकें समझ कर नहीं, बल्कि ज्ञान हासिल करने के लिए। उन्हें पढ़ने का बेहद शौक था। वो पुस्तकों का गहन अध्ययन करते थे। मुझे याद है.. जब बाबू जी  विधायक थे तो मुझे विधानसभा के पुस्तकालय से अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाकर पढ़ने के लिए देते थे। चंद्रकांता संतति का संपूर्ण भाग मैंने जब पढ़ा था। उस वक्त मैं सांतवीं कक्षा की छात्रा थी। पटना में पुस्तक मेला से पुस्तकें लाने के लिए भी  उत्साहित करते थे और रुपये देकर पुस्तकें खरीदने भेजा करते थे। अपनी अस्वस्थता के दौर में जब वो पढ़ने-लिखने में असमर्थ हो गए थे। उस वक्त मैं उन्हें अखबार और किताबें पढ़कर सुनाया करती थी। ये दौर बेहद पीड़ादायक था। जब कोई अपना लाचार होकर बिस्तर पर पड़ जाता है तो उसके साथ-साथ पूरे परिवार को उस दर्द को झेलना पड़ता है। हालांकि बाबूजी ने कभी अपनी शारीरिक बेबसी की वजह से घरवालों को कोई तकलीफ नहीं पहुंचाई। लेकिन जो शख्स महीनों तक घर नहीं आते थे। जिनका एक-एक पल कीमती था। वो आज जिस तरह से बिस्तर पर पड़े हुए थे। ये खुद में दुखद था। घड़ी की घंटी को सुनकर वो अपने बगल में रखी हाथ घड़ी को उठाकर देखते थे और समय काटते थे। उन्हें बिस्तर पर पड़े-पड़े यूं समय काटते देख मैं कितनी बार रोई हूं। जब शाम को मैं उनके कंधे पर सिर रखकर उनके बगल में सो जाती थी। तो स्वर्ग का सुख भी उसके सामने फीका नजर आता था। हां, मेरे बाबूजी वो इंसान हैं जिनसे मैंने  जिंदगी में सबसे ज्यादा प्यार किया। वो बेमिसाल थे। हालांकि अब मुझे लगता है कि कई बार मैंने उन्हें उतना समय नहीं दिया, जितना देना चाहिए था। कई बार मैंने उनसे गुस्से में बात की और कई बार बेवजह बहस भी की। लेकिन ये हमें तब कब अहसास होता है जब हम अपनों के साथ होते हैं। उन्हें खोने के बाद ही हम उनका मोल समझते हैं। लेकिन तब पछतावे और आंसू के अलावे कुछ नहीं रह जाता। मां-बाप आपके सिर की वो छत होते हैं जो आपको हर मौसम की मार से बचाते हैं और इसका अहसास तब होता है जब सब कुछ खत्म हो जाता है। मुझे लगता है सात्विक लोगों के शरीरों से अच्छी सुंगध निकलती है। बाबूजी के कपड़ों और उनकी देह से भी ये खुशबू आती थी। उनके शरीर से निकलने वाली इस सुंगध को मैं लाखों-करोड़ों लोगों सुगंध में भी पहचान सकती हूं। वो अपनी तरह की अलग एक ऐसी खुशबू थी जिसे शायद मैं ही पहचानती हूं। ये इस कारण भी शायद संभव था। क्योंकि मैं अतिसंवेदनशील हूं।


. . . और  डायरी का वो पन्ना

बाबूजी  हर दिन की अपनी गतिविधियों और विचारों को  डायरी में लिखते थे। वो हमें भी डायरी लिखने के लिए प्रोत्साहित करते थे। बीमारी में जब वो लिख पाने में असमर्थ थे तो उनकी डायरी मैं लिखती थी। ये नियम था। वो अपनी बातें बताते जाते थे और मैं लिखती जाती थी। आज जब उन डायरियों को पढ़ती हूं तो सारी बातें आंखों के सामने किसी रील की तरह आकर चली जाती है। अगर आत्मा की आत्मा से भेंट होती है तो मैं मौत के बाद अपने बाबूजी की आत्मा से सबसे पहले मिलना चाहूंगी। काश कि ये दुनिया एक बार और वक्त को पलट देता तो मैं अपने बाबूजी के साथ और भी समय बिता पाती। वो सारी गलतियां जो मैंने जाने-अंजाने की। उन सभी को मैं दूर कर देती। लेकिन शायद यही जीवन है। यहां कुछ भी हमेशा नहीं रहता। रह जाती हैं तो बस यादें और वो गलतियां, जो हमें अपने बुरे बर्ताव और अपनी बेवकूफियों की याद हमेशा दिलाती रहती हैं।

(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 20 मई 1980 को पटना बिहार में
शिक्षा: पटना के मगध महिला कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक, नालंदा खुला विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में हिन्दी से स्नाकोत्तर
सृजन: कुछ कवितायें और कहानियां दैनिक अखबारों में छपीं। समसायिक विषयों पर लेख भी
संप्रति: हिंदुस्तान, सन्मार्ग और प्रभात खबर जैसे अखबार से भी जुड़ी, आर्यन न्यूज चैनल में बतौर बुलेटिन प्रोड्यूसर कार्य के बाद फिलहाल एक संस्थान में कंटेंट डेवलपर और  आकाशवाणी में अस्थायी  उद्घोषक
संपर्क: pritisingh592@gmail.com)

हमज़बान पर पहले भी प्रीति सिंह को पढ़ें

क्या आप नक्शब जारचवी को जानते हैं..

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बड़ी  मुश्किल से दिल की बेक़रारी को क़रार आया

गूगल साभार



सैयद एस.तौहीदकी क़लम से


बुलंदशहर का एक छोटा सा कस्बा जारचा. इसी कस्बे के नक्शानवीस हैदर अब्बास के घर गीतकार नक्शब जारचवी का जन्म हुआ था. भाई बहनों में नक्शब जारचवी तीसरे  नंबर पर थे. नक्शब का असल नाम अख्तर अब्बास था. आपका परिवार जारचा छोड़कर मेरठ आबाद हो गया. आपने हाई स्कूल तक वहीं पढाई  की. बचपन से ही शायरी क शौक रहा, शायरी को लेकर आपकी दीवानगी कालेज के दिनों से पलने लगी थी .नाम के साथ जारचवी तखल्लुस रखकर अलीगढ़ के दिनों से लिख रहे थे.  इसी जमाने में मुशायरों मे जाते  भी रहे. यह आगाज अमरोहा से हुआ जो आगे जाकर दिल्ली गया. दिल्ली के  एक मुशायरा जिसकी सदारत कुंवर सिंह बेदी कर रहे थे. नक्शब ने अपनी गज़ल पढी. गज़ल सुनने बाद बेदी साहब ने मशहूर फिल्मकार वी शांताराम के नाम नक्शब के लिए ख़त लिख दिया. ख़त लेकर आप बम्बई चले आए. शांताराम ने नक्शब को एक प्रगतिरत फिल्म के लिए गाने लिखने हेतु साइन कर लिया. इसके बाद आपने  और भी फिल्मों के गाने लिखे . आपके ताल्लुक से फिल्म 'जीनत'की कव्वाली 'आहें ना भरे शिकवे ना किए, कुछ भी न जुबान से काम लिया. हम दिल को पकड़कर बैठ गए, हांथो से कलेजा थाम लिया'काफी मशहूर हुई.  महिलाओं की आवाज़ मे रिकार्ड की जाने वाली  पहली कव्वाली कही जाती है. इसे  नूरजहां एवं साथियों ने आवाज़ दी संगीतकार हफीज खान ने लाजवाब धुन बनाई.

जीनत में ब्रेक मिलने बाद आपने राशिद अत्रे के साथ अनेक प्रोजेक्ट पर काम किया. बंटवारे की तात्कालिक हडबडी में पाकिस्तान तुरंत नहीं पलायन कर गए.  गए जरुर लेकिन एक दशक बाद सन अठावन में. नक्शब जारचवी के ताल्लुक नूरजहां व जोहराबाई अंबालेवाली सरीखे फनकारों से सजी फिल्म जीनत महत्वपूर्ण थी। शौकत  रिजवी की जीनत में नूरजहां ने एक महत्वपूर्ण किरदार भी निभाया था. नक्शब ने लिखे गीत मसलन आंधियां युं चली बाग उजड गए काफी मशहूर हुए.नक्शब के ताल्लुक कमाल अमरोही की मशहूर महल भी याद आती है. हिंदी सिनेमा में अशोक कुमार—मधुबाला की यह फिल्म रूचि—रहस्य कथाओं में रिफरेंस प्वांइट मानी जानी चाहिए. महल के सभी गीत नक्शब जारचवी ने लिखे. इसका  हर गाना अपनी जगह शाहकार बना. यह गाने अपनी खासियत की वजह से आज भी याद किए जाते हैं.

नक्शब का लिखा ‘आएगा आएगा आनेवाला’ बेहद मकबूल हुआ. नवोदित लता मंगेशकर को गायकी की दुनिया में मकबूल करने वाला यह गीत आज भी पुराना नहीं हुआ. खेमचंद प्रकाश का संगीत फिल्म की बडी खासियत थी. यही वो वह सुपर गीत रहा जिसने लता को एक मशहूर बना दिया . इसी फ़िल्म का लता का गाया दूसरा गाना..मुश्किल बहुत मुश्किल, चाहत का भुला देना भी हिट हुआ था. कहना लाजमी होगा कि  लता को परवाज़ नक्शब जारचवी की कलम से मिली थी.


चालीस दशक की देव आनंद व कामिनी कौशल अभिनीत फ़िल्म में मशहूर संगीतकार सी रामचंद्र साथ भी  नक्शब जारचवी ने काम किया. आपके लिखे गीतों को शमशाद बेगम व लता जी ने आवाज दी. शमशाद आपा का..जिया मोरा इसी फ़िल्म से था. पचास दशक में रिलीज ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘अनहोनी’ में संगीत था रोशन का तथा गीतकारों की  फ़ेहरिस्त में नक्शब  भी शामिल थे. अनहोनी राजकपूर व नर्गिस की यादगार फ़िल्म बनी. लता व नवोदित गायिका राजकुमारी द्वारा मिलकर गाया गीत ...जिंदगी बदली काफ़ी चला. 


पचास दशक की शुरुआत में नक्शब ने फ़िल्म नगरी  में अपना सिक्का जमा लिया था.  इसी दशक में गीत लिखते हुए फ़िल्म मेकिंग में चले आए. फिल्मकार के रूप में अशोक कुमार व नादिरा की नग़मा आपकी पहली फ़िल्म थी. फ़िल्म के गीत आप ने ही लिखे. धुनें मशहूर नौशाद ने  रखी ...बडी मुश्किल से दिल की बेकरारी को करार आया. शमशाद आपा की आवाज़ से सजा यह गाना एक जमाने में जबरदस्त हिट था. इसी फ़िल्म का एक और सुपरहिट नगमा...जादूगर बलमा छोड़ मोरी.. अमीर बाई की आवाज़ व नक्शब के बोल आज भी कानों में गूंज रहे . पचास दशक के आखिर सालों में नक्शाब ने ज़िन्दगी या तूफ़ान का निर्माण किया. एक बार फ़िर धुनें नौशाद साहेब ने सजाई.  प्रदीप कुमार व नूतन अभिनीत इस फ़िल्म का गीत..तुमको करार आए काफी लोकप्रिय हुआ. सन अठावन में आप करांची पलायन कर गए. आपकी शादी बुलंदशहर की ही लड़की से हुयी. एक जानकारी के अनुसार तेरह साल के लम्बे करियर में नक्शब को ज़माने के नामचीन फ़नकारों  साथ काम करने का मौका मिला.
 नक्शब को शायर से ज्यादा फिल्मकार कहलाना भाता था. इस ताल्लुक से आपने बताया कि हमारे हल्के में किसी का शायर हो जाना आम बात..घर घर से शायर निकला करते हैं. इसलिए मुझे वो खास नही मालूम देता. हालांकि आपका काम ऐसा नही कहता कि आप फिल्मकार बेहतर थे! आपने केरियर में शायरी एवम गीत बहुत लिखे ,फिल्में कम बनाई. शायर शख्सियत पर नज़र डाले तो यही सच्ची पहचान मालूम पड़ती है.नहीँ भूलें कि कव्वाली आहें ना भरा...फ़िर महल का थीम गाना एवम नवबहार का 'भटके हुए मुसाफिर मंजिल को 'से नक्शब को जोड़कर आज तक देखा जाता है. संगीतकार खेमचंद प्रकाश की नायाब धुनों से सजा यह गीत आज भी आकर्षित करता है. सिर्फ यही नहीँ आपके लिखी ज़्यादातर गाने सराहनीय रहे. इस तरह आपको शायर ही कहना चाहिए.
इस जुझारू शख्सियत ने पाकिस्तान जाने का निर्णय किन हालात में किया? इस बारे में जानकारी नहीं मिलती. एक किताब में नक्शब के हवाले से लिखा गया... एक रात में  कोई जनाब आपके घर मुलाकात के लिए आए. अगली सुबह दरअसल वो जनाब विलायत जाने वाले थे. नक्शब आपको तोहफा देना चाहते थे...आधी रात पर भी जानेवाले के लिए वो तोहफा मंगवाया गया. एक किस्से के अनुसार आपका यह मानना.. एक बार नोट किसी के लिए बाहर निकला तो वह उसी का हो गया नक्शब की दरियादिली बताता है...ऐसे बहुत से किस्से ‘मेरा कोई माज़ी नहीं’ में संकलित हैं.

बम्बई के मुश्किल दिनो का जिक्र करते हुए लिखा
 'उन दिनों जीनत के लिए गाने लिख रहा था. काम ख़त्म हुआ तो  दिल्ली चला आया. यहां रहते हुए मुझे ना जाने शहर से बहुत लगाव हो गया. सब्जी मंडी इलाके मे मामूली सा कमरा लेकर रहने लगा. दिल्ली मे एक मुकम्मल ठिकाना बनाने की ज़िद  में ज़मीन लेकर मकान की तामीर मे लग गया.मुशायरों एवम फिल्म से आई आमदनी से वो बन रहा था.बनकर पूरा ही हुआ था कि बंटवारे ने क़यामत कर दी. मकान से फ़ायदा उठाना मुझे नसीब नहीँ हुआ. इन हालात ने कड़े इम्तिहान में डाल दिया. खुदा के करम से उधर जीनत जबरदस्त हिट हो गयी'

आपकी लिखी कव्वाली ने जिंदगी को मझधार से पार लगा दिया. नक्शब कि जिंदगी का यही वो  मोड़ था जहां से आपके दिन तेजी से बदलने लगे. लिखे गानों के जरिए आमदनी में भारी इजाफा हुआ.लिखने वास्ते अपनी मर्जी कि फीस मिलने से यह मुम्क़िन हो सका.आपने फिल्मी गीतकारों कि कदर व क़ीमत बढ़ा दी. अापने लिखने के लिए फीस मुकर्रर कर रखी थी. आपसे पहले गीतकारों को मामूली फीस मिला करती थी.लेखन को प्रोफेशनल कारीगरी मे उसका हक मुनासिब दर्जा मिला.मुश्किल भरे दिन बीते ज़माने कि बात हो चली.













(रचनाकार-परिचय:
जन्म : 2 अक्टूबर 1983 को पटना (बिहार) में
शिक्षा : जामिया मिल्लिया इस्लामिया से उच्च शिक्षा
सृजन : सिनेमा पर अनेक लेख . फ़िल्म समीक्षाएं
संप्रति :  सिनेमा व संस्कृति विशेषकर हिंदी फिल्मों पर लेखन।
संपर्क : passion4pearl@gmail.com )

सैयद एस. तौहीद को  हमज़बान पर पढ़ें

गाँव भर में चर्चा है वो भाग गयी

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नई पौध के तहत आठ कविताएं










वर्षा गोरछिया  'सत्या'की क़लम से


कार्बन पेपर
 
सुनो न
कहीं से कोई
कार्बन पेपर ले आओ
खूबसूरत इस वक़्त की
कुछ नकलें निकालें

कितनी पर्चियों में
जीते हैं हम
लम्हों की बेशकीमती
रसीदें  भी तो हैं
कुछ तो हिसाब
रक्खें इनका

किस्मत
पक्की पर्ची तो
रख लेगी ज़िंदगी की
कुछ कच्ची पर्चियां
हमारे पास भी तो होनी चाहिए

कुछ नकलें
कुछ रसीदें
लिखाइयां कुछ
मुट्ठियों में हो
तो तसल्ली रहेगी

सुनो न
कहीं से कोई
कार्बन पेपर ले आओ
 
चादरें वक़्त की

आओ दोनों मिलकर
जला दें
वक़्त की वो चादरें
बीच है जो हमारे
और
जो आने वाली है
गवारा नहीं मुझे ये
बेतुकी दलीलें वक़्त की
तुम भी कहाँ उस के
हक़ में फैसला चाहते हो
तो क्यों न मिलकर
एक साज़िश रचें
वक़्त के खिलाफ
दिलों की दियासलाई से
कुछ मोहब्बत की तिल्लियाँ निकालें
जज्बातों की परतों से
एक चिंगारी निकालें
और सुलगा दें
ये काली चादर

आओ न दोनों मिलकर
जला दें
वक़्त की चादरें

चूड़ियाँ

जानते हो तुम?
मुझे चूड़ियाँ पसंद हैं
लाल ,नीली ,हरी ,पीली
हर रंग की चूड़ियाँ
जहाँ भी देखती हूँ
चूड़ियों से भरी रेड़ी
जी चाहता है
तुम सारी खरीद दो मुझे
मगर तुम नही होते
ना मेरे साथ
 ना मेरे पास
खुद ही खरीद लेती हूँ नाम से तुम्हारे
पहनती हूँ छनकाती हूँ उन्हें
बहुत अच्छी लगती है हाथो में मेरे
कहते रहते हो तुम
कानो में मेरे चुपके से
जानते हो तुम ? 

मोहब्बत का घर

याद रहे
चाहतों का ये शहर
ख़्वाबों का मोहल्ला
इश्क़ की गली
और कच्चा मकां मोहब्बत का
जो हमारा है
खुशबुओं की दीवारें हैं जहाँ
एहसासों की छतें
हंसी और आंसूओं से
लीपा-पुता आँगन
हरा-भरा
गहरी छाँव वाला
प्यार का एक पेड़ है जहां

किस्सों के चौके में
बातों के कुछ बर्तन
औंधे हैं शर्मीले से
तो कुछ सीधे मुस्कुराते हुए

कुछ बर्तन काले भी हैं
शिकायतों के धुंए से
वो हमारा मुँह ताकते हैं
कि क्यों नहीं हमने
रगड़कर उन्हें साफ़ किया

भीतर एक ट्रंक भी है
लम्हों से भरा
रेशमी चादरों में
यादों की सलवटें हैं
आले में जलता चिराग़
वो खूंटियों पर लटकते
दो जिस्म
जंगलों और खिड़कियों से
झांकते चाहतें हमारी
दरवाज़े की चौखट से
टपकती हुई
बरसातों की पागल बूँदें कुछ
हवा के कुछ झोंके

और न जाने क्या क्या
सब बिक जाएगा इक दिन
समाज के हाथों
रिवाज़ें बोलियाँ लगाएंगी
ज़ात भाव बढ़ाएगी अपना
और खरीद लेंगे
जनम के जमींदार
वो मकां हमारा

रात गुजर गई

रात गुजर रही है
कमरे की बिखरी चीजें उठाते हुए 
सब कुछ बिखरा है 
तुम्हारे जाने के बाद 
तुम्हारी चहल कदमी
घूमती रहती है आँगन में 
सांसे कुछ फुसफुसा जाती है
कानो में मेरे 
बिस्तर की सलवटें अकेली हैं 
नाराज है तुमसे 
बातों के ढेर लगे है एक एक को लपेटती जाती हूँ 
और रखती जाती हूँ अलमारी में 
गठरियाँ हैं कुछ 
मुस्कुराहटो की 
अलमारी के ऊपर रख दी है 
कमरे का फर्स ठंठा है 
गीला है मेरे आंशुओ से 
उफ़ ! बालकनी में चाँद भी तो है 
कितना कुछ बिखरा है 
थककर चूर हूँ 
कितनी यादे बगल में लेटी हैं 
नींदे माथे को चूम रही हैं 
रात गुजर गई 
कमरे की बिखरी चीजे उठाते हुए


संकरी सी उस गली में

संकरी सी उस गली में
दोनों तरफ हजारों जज्बातों की
खिड़कियां खुलती है
जुगनू टिमटिमाते है
रूई के फ़ाहों से
लम्हे तैरते हैं
शाम रंग सपने झिलमिलाते हैं
तितिलियों के पंखो का
संगीत घुलता है
रेशमी लफ्जो की खुशबू महकती है
संकरी सी उस गली में
तेरी आँखों से
मेरे दिल तक जो पहुचती है ..
 
सौदा

चलो हम ये दुनिया बेच दें
खरीद ले बदले में
वो चांदनी की रात
बुने रेशम की एक चादर
लगाए किस्मत की छत पर
सफेद बिछौना
ज़ख्मों का एक तकिया भरें
तकिया वो मेरे सिरहाने रहे
तुम मेरे सीने पे
सर रख कर सो जाओ
तो ज़ख्मों की चुभन कहाँ होगी
तेरे मेरे दर्द का
एक चकोर खाने वाला
कम्बल बुनें
एक टुकड़ा दर्द तेरा
एक टुकड़ा मेरा
चकोर खानों में दर्द भरें
एक खाना तेरा
एक खाना मेरा
ओढ़कर सो जाएं दोनों
आ मर्ज़ी का सौदा करें
ये दुनिया आज बेच दें
 
हरियाणा

गाँव भर में
चर्चा है
वो भाग गयी
बदचलन थी
कई दिनों से लक्षण ठीक नहीं थे
मटक मटक कर चलती
ओढ़नी कभी सर पे नहीं रखती
कुल को डुबो गयी

आकर देखे कोई अब
तीन हफ़्तों से
मिट्टी-तले सो रही है
कहाँ गयी
यहीं तो है
   
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(रचनाकार-परिचय :
जन्म : 14 फ़रवरी 1989 को फ़तेहाबाद (हरियाणा) में
शिक्षा : स्नातक (Bachelor in tourism management)
सृजन : पहली बार हमज़बान में
संप्रति :  स्वतंत्र लेखन
संपर्क :  varshagorchhia89@gmail.com







   


कृषिप्रधान देश फ़िलहाल किसानों का क़ब्रगाह बना रहेगा !

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कृष्णकांतकी क़लम से 

सरकार ने 13 मार्च को संसद में जानकारी दी कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद डिवीजन में 2015 के शुरुआती 58 दिनों के भीतर 135 किसानों ने आत्महत्या कर ली. कृषि राज्यमंत्री मोहनभाई कुंडारिया ने बताया कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2012 और 2013 में क्रमश: 13,754 और 11,772 किसानों ने आत्महत्या की. भारत में ज्यादातर किसान कर्ज़, फसल की लागत बढ़ने, सिंचाई की सुविधा न होने, कीमतों में कमी और फसल के बर्बाद होने के चलते आत्महत्या कर लेते हैं. 1995 से लेकर अब तक 2,96,438 किसान आत्महत्या कर चुके हैं.
महाराष्ट्र लगातार 12वें साल महाराष्ट्र किसान आत्महत्या के मामले में अव्वल है. यहां का सूखाग्रस्त विदर्भ क्षेत्र किसानों की कब्रगाह है. अकेले महाराष्ट्र में 1995 से अब तक 60,750 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. बीती फरवरी में प्रधानमंत्री मोदी ने बारामती में शरद पवार के किसी ड्रीम प्रोजेक्ट कृषि विज्ञान केंद्र का उद्घाटन किया और दोनों नेताओं ने एक दूसरे को किसानों का हितैषी बताया. यह गौर करने की बात है कि 1995 से अब तक बीस साल में शरद पवार दस साल कृषि मंत्री रहे और सबसे ज्यादा किसान महाराष्ट्र में मरे. जब शरद पवार के  कथित ड्रीम प्रोजेक्ट का उद्घाटन हो रहा था, तब किसानों की इन मौतों का तो कोई जिक्र नहीं हुआ, कृषि को वैश्विक बाजार में तब्दील करने की घोषणा जरूर हुई. नई सरकार आने के बाद से अब तक इस सरकार ने एक बार भी किसानों को कोई सांत्वना तक नहीं दी है कि वे कर्ज और गरीबी के चलते आत्महत्या न करें, सरकार उनकी समस्याओं को सुलझाने के कुछ उपाय करेगी.
चुनाव प्रचार के मोदी हर सभा में कहा करते थे कि देश के संसाधनों पर पहला हक गरीबों और किसानों का है. लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनते ही अडाणी को छह हजार करोड़ का सरकारी कर्ज दिलवाना उनकी शुरुआती बड़ी घोषणाओं में से एक थी. तब से वे दुनिया भर में घूम घूम कर पूंजीपतियों को भरोसा दे रहे हैं कि उनकी सरकार पूंजीपतियों को पूरी सुरक्षा देगी. अमेरिका से परमाणु समझौते के तहत आनन फानन में भारत सरकार ने अमेरिकी कंपनियों को दुर्घटना संबंधी जवाबदेही से मुक्त कर दिया और देश के खजाने से 1500 करोड़ का मुआवजा पूल गठित कर दिया. यदि पूंजीपतियों के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जा सकता है तो क्या कर्ज से मरते किसानों की जान बचाने के लिए कुछ सौ करोड़ रुपए की योजनाएं नहीं शुरू की जा सकतीं?  
जब संसद में सरकार किसान आत्महत्याओं की जानकारी दे रही थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी विदेश यात्रा पर जा चुके थे. उन्होंने जाफना में श्रीलंकाई तमिलों को भारत की मदद से बने 27 हजार मकान सौंपे और इस परियोजना के दूसरे चरण में भारत के सहयोग से और 45 हजार मकान बनाए जाने की घोषणा की. मॉरीशस को  इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के लिए 50 करोड़ डॉलर का रियायती कर्ज देने की पेशकश की. इसी तरह अनुदान और कर्ज के रूप में सेशेल्स को भी 7.50 करोड़ डालर की राशि दी गई. काश प्रधानमंत्री अपने देश में मर रहे किसानों के लिए भी कुछ करते! यदि कुछ न करते तो दिलासा देने वाली कोई घोषणा ही कर देते!
मोदी एक ऐसे देश के प्रधानमंत्री हैं जहां पांच करोड़ लोग बेघर हैं. इन बेघर लोगों के लिए मोदी सरकार ने कोई पहल की हो, ऐसा अभी सुनने में नहीं आया है. सरकार भूमि अधिग्रहण बिल के लिए जरूर पूरा जोर लगा चुकी है जिसके तहत किसानों की सहमति के बिना उनकी जमीनें लेकर कारपोरेट को सस्ते दाम में देने की योजना है. 
यह वही देश है जो स्मार्ट सिटी बनाने और बुलेट ट्रेन चलाने की बात करता है, लेकिन इस पर कोई बात नहीं करता कि उसकी कितनी आबादी बेघर है, भूखी है। पहले से चल रही खटारा ट्रेनों में पानी नहीं होते. ज्यादातर जनसंख्या को पीने के लिए शुद्ध पानी तक नहीं है. यहां इस पर कोई बात नहीं होती कि हर साल करीब साढ़े तेरह लाख बच्चे पांच साल की उम्र पूरी करने से पहले मर जाते हैं. इसका कारण डायरिया और निमोनिया जैसी साधारण बीमारियां हैं. हम इन शर्मनाक आंकड़ों पर कभी शर्मिंदा नहीं होते.
जब प्रधानमंत्री उद्योगपतियों को विश्वास में लेने के लिए ताबड़तोड़ कॉरपोरेट हितैषी घोषणाएं कर रहे हैं और दुनिया भर में घूम घूम कर आर्थिक मदद बांट रहे हैं, उसी समय में स्वाइन फ्लू से अबतक 1600 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और करीब 50 हजार पर यह खतरा बना हुआ है. यदि स्वाइन फ्लू जैसी बीमारी से इतनी मौतें अमेरिका या यूरोपीय देशों में ​होतीं तो क्या वहां ऐसी ही चैन की बंसी बज रही होती?
चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी ने किसानों को लेकर बहुत बड़ी बड़ी बातें की थीं लेकिन अब किसान उनकी चिंताओं में नहीं हैं. भाजपा ने वादा किया था कि किसानों को उनकी लागत में 50 फ़ीसदी मुनाफ़ा जोड़कर फ़सलों का दाम दिलाया जाएगा. लेकिन सरकार बनाने के बाद मोदी एंड टीम का पूरा जोर कॉरपोरेट और मैन्यूफैक्चरिंग पर है. उनकी प्राथमिकता में कृषि और किसान कहीं नहीं हैं. सरकार मेक इन इंडिया के लिए तो मशक्कत कर रही है लेकिन कृषि के लिए उसके पास कोई योजना या सोच नहीं है. देश की करीब 60 प्रतशित जनसंख्या की आजीविका का आधार कृषि क्षेत्र है. लेकिन इस क्षेत्र को लेकर सरकार ने अब तक किसी बड़े नीतिगत बदलाव या घोषणा से परहेज ही किया है. जबकि कृषि पर गंभीर संकट मंडरा रहे हैं. चालू वित्त वर्ष (2014-15) में कृषि विकास दर सिर्फ़ 1.1 फ़ीसदी रहने का अनुमान है.
कृषि की दयनीय हालत के बावजूद अपने पहले बजट में मोदी सरकार ने कृषि आय की बात तो की, लेकिन कृषि बजट में कटौती कर दी.बजट में किसानों के लिए कुछ खास नहीं रहा. सरकार द्वारा जिस कृषि लोन की बात की जाती है, उसका फायदा किसानों से ज्यादा कृषि उद्योग से जुड़े लोगों को होता है. हालिया बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ऐलान किया कि कॉरपोरेट टैक्स को अगले चार सालों 30 फीसदी से घटाकर 25 फीसदी किया जाएगा. मोदी सरकार की अब तक की नीतियों और केंद्रीय बजट का संदेश साफ है कि किसानों को वह सांत्वना मात्र देने को तैयार नहीं हैं. यह  कृषिप्रधान देश फ़िलहाल किसानों का क़ब्रगाह बना रहेगा !


(रचनाकार-परिचय:
जन्म:  30 अगस्त 1986 को  उत्तरप्रदेश के गोंडा जिले में।
शिक्षा: इलाहाबाद विवि से पत्रकारिता में एमए।
सृजन: विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएं और कहानियां प्रकाशित
ब्लॉग : कृष्‍णकांत कहानियां लिखता है...
संप्रति:  दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण में बतौर चीफ सब एडीटर कार्यरत
संपर्क : krishnkant1986@gmail.com)



 कृष्‍णकांत के और लेख हमज़बान पर ही


कौन जानता है आज़ादी के योद्धा तेगवा बहादुर को

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बिहार के पूर्व मंत्री व समाजवादी नेता मुनीश्वर प्रसाद सिंह



 














प्रीति सिंह की क़लम से

"तेगवा बहादुर सिंह"के नाम से प्रसिद्ध मुनीश्वर प्रसाद सिंह का जन्म 29 नवम्बर 1921  को वैशाली जिला के महनार थाना के बासुदेवपुर चंदेल गांव में एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में  हुआ था। उनके पिता का नाम स्वर्गीय बांकेबिहारी सिंह और माता का नाम स्वर्गीय गया देवी था। स्व. मुनीश्वर प्रसाद सिंह छ: भाई-बहनों में सबसे बड़े थे।. बचपन से मेधावी रहे. सत्यनिष्ठा और ईमानदारी के संस्कार आँगन से  हासिल किया। प्राथमिक शिक्षा गाँव में, फिर जन्दाहा  हाईस्कूल  में दाख़िला लिया। लेकिन अंग्रेजी दासता से मुक्ति के उपाय नित्य दिन सोचा करते। इस बीच सन् 1937 में अंडमान-निकोबार जेल से छूट कर स्व. योगेन्द्र शुक्ल आये.  उनके भाषण ने किशोर मुनीश्वर को मानो प्रेरणा दे दी.  और वो स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई में कूद पड़े।

रेल, डाक और तार सेवा बाधित किया
 भारत सरकार के तत्कालीन सचिव श्री डार्ननरी का रेडियो भाषण (जिसमें उन्होंने रेल,डाक और तार सेवा को बाधित नहीं करने की अपील की थी) सुनने के बाद मुनीश्वर ने क्रांतिकारी कदम उठाया और रेल,डाक औऱ तार सेवाओं को बाधित कर अंग्रेज सरकार की नींव हिलाने का निश्चय किया। फलत: अपने साथियों युगल किशोर खन्ना,   राजेन्द्र सिंह,   लाला सिंह और  बलभद्र सिंह को साथ लेकर उन्होंने उत्तर बिहार में अनेक स्थानों पर इन सेवाओं को बाधित कर दिया। इस घटना के बाद  मुनीश्वर  अंग्रेज सरकार की आंखों की किरकिरी बन गए। अंग्रेज सरकार इन्हें जोर-शोर से पकड़ने के लिए जुट गई। जल्द ही ये अंग्रेज सरकार द्वारा पकड़ लिए गए। लेकिन कुछ ही दिनों में छूटकर जेल से बाहर आये और भूमिगत होकर स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई में अपना योगदान देते रहे।
 
जयप्रकाश के आजाद दस्ता में शामिल
सन् 1942 में जयप्रकाश नारायण द्वारा गठित आजाद दस्तामें शामिल होकर मुनीश्वर ने हनुमान नगर, नेपाल में  गुरिल्ला युद्ध की ट्रेनिंग ली. इसके बाद  अंग्रेज सरकार की नाक में एक बार फिर से दम भर दिया। जब जयप्रकाश नारायण को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया तब मुनीश्वरने  दस्ता के अपने साथियों के साथ मिलकर उन्हें जेल से बाहर निकाला।  इसी बीच दरभंगा के लहेरियासराय के अंदामा गांव में अंग्रेज दारोगा आदित्य झा की हत्या आजाद दस्ता के दरभंगा के सरदार रामलोचन सिंह के घर कुर्की-जब्ती करने जाते वक्त कर दी गई। इस मामले में मुनीश्वर को आरोपी बनाया गया।

बनारस में गिरफ्तार, लखनऊ जेल में
लेकिन युवा  तेगवा बहादुर और उसके साथी इससे तनिक न घबराए।  शहीद सूरज नारायण सिंह, गुलाबी सोनार, देवनारायण गुरमैना, अक्षयवट राय, योगेन्द्र शुक्ल , अमीर गुरुजी, सीताराम सिंह, लाला सिंह, राजेन्द्र सिंह, युगल किशोर खन्ना, बलभद्र सिंह और मुनीश्वर प्रसाद सिंह सहित आजाद दस्ता के अन्य साथियों ने 1942 से 1944 तक तिरहुत एवं दरभंगा कमिश्नरी में गुरिल्ला युद्ध के द्वारा अंग्रेज शासन की चूलें हिला दीं।
12-13 सितम्बर 1944 को आजाद दस्ताको भंग किए जाने के बाद शहीद सूरज बाबू के साथ मुनीश्वरभी  बनारस आ गये। ये दोनों बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रावास में रुके थे। यहां से ये दोनों क्रांतिकारी अपने आंदोलन को  गति देने लगे।  11 नवम्बर 1944 को डॉ. सम्पूर्णानंद से मिलकर छात्रावास लौटते वक्त बनारस अस्सी घाट में ये दोनों अंग्रेज सरकार द्वारा पकड़ लिए गये। मुनीश्वर प्रसाद सिंह को लखनऊ जेल में रखा गया।

बर्फ की सिल्ली पर लिटाकर तलवे में बेंत से पिटा जाता
जेल में इन्हें अमानुषिक तकलीफें दी गईं। हफ्तों इन्हें भूखा रखा जाता था, ठंड की कड़कड़ाती रात में नंगे बदन ठंडे पानी में सारी रात खड़ा रखा जाता था। मारपीट तो रोज की बात थी। बर्फ की सिल्ली पर लिटाकर पैर के तलवे में बेंत से पिटा जाता था, नाखून उखाड़ लिए जाते थे। इसी टॉर्चर के दौरान एक अंग्रेज सरकार ने डॉ. विजयालक्ष्मी पंडित को एक भद्दी सी गाली दे दी। जिसका मुनीश्वर  ने जबरदस्त विरोध किया। जिसके बाद अंग्रेज अफसर ने इन पर जुल्म की इंतिहा कर दी और अमानुषिकतायें अपनी सीमा लांघ गईं। फिर भी इन्होंने उफ तक नहीं की और अपने क्रांतिकारी साथियों का नाम नहीं बताया। इसी दौरान इनके सिर पर इतने डंडे बरसाये गए जिसकी वजह से मुनीश्वर बाबू की बांयीं आंख की रोशनी हमेशा के लिए कम हो गई। 

अंदामा कांड में  सुनाई गई फांसी की सजा
लखनऊ जेल में मुनीश्वर बाबू स्वर्गीय सिंह वाई. वी. चव्हाण, लालबहादुर शास्त्री, अलगू चौधरी, रफी अहमद किदवई आदि के निकट संपर्क में आये। लखनऊ जेल से मुकदमे की सुनवाई के सिलसिले में इन्हें दरभंगा लाया गया।मुनीश्वर बाबू पर  अंग्रेज सरकार ने 88 से ज्यादा मुकदमों में नामजद किया। अंग्रेज जज ब्लैक बर्न ने "अंदामा कांड"में फांसी की सजा सुनाई। लेकिन अन्य मुकदमों में सुनवाई चलते रहने की वजह से इन्हें उस वक्त फांसी की सजा नहीं दी गई। सुनवाई के दौरान इन्हें हजारीबाग सेंट्रल जेल में रखा गया। 26 जून 1946 को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह के आदेश पर इन्हें जेल से रिहा किया गया। मुनीश्वर प्रसाद सिंह सन् 1948 में वकाश्त आंदोलन में भी सक्रिय रहे।
     
समाजवादी आंदोलन को दी गति 
आजादी के बाद स्वर्गीय मुनीश्वर प्रसाद सिंह जी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए। बाद में वो प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में चले गए। आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, नाथपाई, एन.जी.गोरे, एस.एम.जोशी, अशोक मेहता, मधु दंडवते, बसावन बाबू, रामानंद तिवारी, सुरेन्द्र मोहन, प्रेम भसीन, एस.एन. द्विवेदी, यमुना शास्त्री, जॉर्ज फर्नांडीस, चंद्रशेखर, कर्पूरी ठाकुर , रामबहादुर सिंह, युवराज सिंह और रामसुंदर दास के साथ मिलकर मुनीश्वर प्रसाद सिंह समाजवादी आंदोलन को मजबूती प्रदान करने में लगे रहे।1974 में "जयप्रकाश आंदोलन"में जयप्रकाश जी के आह्वान पर बिहार विधानसभा की सदस्यता से 6 जून 1974 को स्वर्गीय मुनीश्वर प्रसाद सिंह ने इस्तीफा दे दिया। ऐसा करने वाले ये बिहार विधानसभा के पहले विधायक थे।
 
चार बार महनार विधानसभा का प्रतिनिधित्व 
मुनीश्वर प्रसाद सिंह  ने  सन् 1962, 1972, 1977 और 1990 में वैशाली जिला के महनार विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। विधानसभा के कई महत्वपूर्ण कमिटियों के सदस्य रहे। सन् 1979-80 में बिहार सरकार के सिंचाई एवं विद्युत विभाग के मंत्री के रुप में अपनी प्रशासकीय क्षमता का उत्कृष्ट परिचय आप ने दिया। इस दौरान उनके कई फैसले अति महत्वपूर्ण और लीक से हटकर रहे। लेकिन उन्हें ज़्यादा समय राजनीतिक विडंबना ने नहीं दिया। ओछी राजनीति के तहत तत्कालीन  सरकार को अचानक गिरा दिया गया।

92 वें वर्ष में  त्यागा देह  
मुनीश्वर प्रसाद  ने आजीवन समाजवादी आंदोलन को गति देने का काम किया।  अपनी ईमानदारी, धर्मनिरपेक्षता, समाजवादी चिंतन और अक्खड़ मिजाज के लिए मुनीश्वर प्रसाद सिंह विख्यात रहे। 75-76 वर्षों के लंबे राजनैतिक-सामाजिक जीवन के बाद अपने जीवन के 92 वें वर्ष में 5 नवम्बर 2013 को इलाज के दौरान बिहार की राजधानी पटना के एक निजी अस्पताल में मुनीश्वर प्रसाद सिंह का निधन हो गया।
इसके साथ ही स्वतंत्रता संग्राम और समाजवादी राजनीति की एक अहम कड़ी हमेशा-हमेशा के लिए टूट गई।

(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 20 मई 1980 को पटना बिहार में
शिक्षा: पटना के मगध महिला कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक, नालंदा खुला विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में हिन्दी से स्नाकोत्तर
सृजन: कुछ कवितायें और कहानियां दैनिक अखबारों में छपीं। समसायिक विषयों पर लेख भी
संप्रति: हिंदुस्तान, सन्मार्ग और प्रभात खबर जैसे अखबार से भी जुड़ी, आर्यन न्यूज चैनल में बतौर बुलेटिन प्रोड्यूसर कार्य के बाद फिलहाल  कंटेंट डेवलपर और  आकाशवाणी में नैमित्तिक उद्घोषक
संपर्क: pritisingh592@gmail.com)


लेखिका मुनीश्वर बाबू की सुपुत्री हैं। जल्द उनका आत्मीय संस्मरण पढ़ें।

हमज़बान पर पहले भी प्रीति सिंह को पढ़ें पटना में कामकाजी स्त्री








सूफ़ियों के रंग में रँगे कैनवास

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मिल्लत एकेडमी,  रांची में आयोजित रंग-ए-सूफियाना में मस्त कलंदर 
की तरह थिरकती रहींख्यात चित्रकारों की कूचियां
चारो ओर फैलती प्रेम व सद्भाव की खुश्बू के बीच कोई मस्त कलंदर। उसके इर्द-गिर्द कहीं कबीर व तुका की ठेठ धुसरता, तो कहीं बुल्लेशाह और अमीर खुसरू की हरियाली खुशहाल। वहीं मनुष्य की विभिन्न रंगत की तरह इठलाते रंग-बिरंगे फूल। लेकिन लरियों की भांति सभी सूफीवादी जुनून में पिरोए हुए। चित्रकार विनोद रंजन ने अपने कैनवास पर इसी मंजर को एकलेरिक कलर से उकेरा। मौका था, मिल्लत एकेडमी, हिंदपीढ़ी में आयोजित "रंग-ए-सूफियाना''नामक कार्यक्रम का। जिसमें वरिष्ठ चित्रकार दिनेश सिंह ने अंधेरे से उजाले की ओर के लिए सूफी व निर्गुण को माध्यम बनाया। उनकी पेंटिंग में हल्के रंगों का इस्तेमाल गंभीरता और रहस्यमयता को इंगित करता रहा। देश की गंगा-यमुनी संस्कृति परंपरा के नेक मकसद से "हम एक हैं''नामक मुहिम 1993 को राजधानी में चलाई गई थी। उसी विरासत को आगे बढ़ाने के लिए 23 सालों बाद शहर के नामी चित्रकार स्कूली बच्चों के बीच मौजूद थे। दिन-भर सभी मजहब, बोली और काल से निरपेक्ष सूफी आध्यात्मिकता को अपनी कूचियों से सार्थक करते रहे।

बच्चों की चुहलों के बीच कबूतरों की मीठी कूक

बच्चों की चुहलों के बीच शर्मिला ठाकुर विश्व प्रेम को दो कबूतरों की मीठी कूक के दायरे में अंकित करती हुईं मिलीं। उनके रंगों में सौम्यता झिलमिलाती गई। रमानुज शेखर के चित्र में नीले और गेरुए रंग ने सूफियों की रहस्यात्मकता व आध्यात्मिकता की पहचान कराई। सपना दास इक नूर से सब उपजाया के प्रकाश में आनंदित तीन सूफियों के अंकन में तल्लीन रहीं, तो आंगन की चटख धूप में शिल्पी रमानी सारंगी की धुन में एक-दूसरे में मग्न दो आकृतियों को रंगाकार करने में व्यस्त।

प्रेम, प्रकाश और आध्यात्मिक परिवेश

पास ही वरिष्ठ चित्रकार हरेन ठाकुर बंगाल के बाउल के बहाने सूफीवाद और दिव्य प्रेम को चित्रित करते रहे। नेपाली राइस पेपर से उन्होंने कैनवास पर बरगद ही उगा दिया। अमिताभ मुखर्जी के चित्र में प्रेम, प्रकाश और आध्यात्मिक परिवेश का क्लासिकल रंग उभरा। विश्वनाथ चक्रवर्ती ने एक सूफी के मूड को अत्यंत कलात्मक और सजीव ढंग से उकेरा। प्रवीण कर्मकार के चित्र में अभिव्यक्त होती दिव्य आध्यात्मिक प्रेम की आभा सहज ही अपनी ओर आकृष्ट करती रही।

सूफी रंग पर 4 को चढ़ेगा निर्गुण राग

स्कूल के डायरेक्टर हुसैन कच्छी ने बताया कि इसी कड़ी में अगला आयोजन चार अप्रैल को गांधी प्रतिमा, मोरहाबादी के पास होगा। जहां इन चित्रों की प्रदर्शनी होगी, साथ ही लोक गायिका चंदन तिवारी का निर्गुण गायन होगा। मौके पर राज्य अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष गुलफाम मुजीबी, दूरदर्शन के निदेशक शैलेश पंडित, मधुकर, एमजेड खान, अनवर सुहैल, सुहैल सईद, रोमा राय, सबीहा बानो, आमरीन हसन, सुल्ताना परवीन, सरोश तनवीर, अशरफ हुसैन, शालिनी साबू , ओपी वर्णवाल व नदीम खान आदि मौजूद रहे।













मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू

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नई पौध के तहत 10 ग़ज़लें 






 








प्रखर मालवीय  'कान्हा' की क़लम से

1.
वो मिरे सीने से आख़िर आ लगा
मर न जाऊं मैं कहीं ऐसा लगा

रेत माज़ी की मेरी आँखों में थी
सब्ज़ जंगल भी मुझे सहरा लगा

खो रहे हैं रंग तेरे होंट अब
हमनशीं ! इनपे मिरा बोसा लगा

लह्र इक निकली मेरे पहचान की
डूबते के हाथ में तिनका लगा

कर रहा था वो मुझे गुमराह क्या?
हर क़दम पे रास्ता मुड़ता लगा

कुछ नहीं..छोड़ो ..नहीं कुछ भी नहीं ..
ये नए अंदाज़ का शिकवा लगा

गेंद बल्ले पर कभी बैठी नहीं
हर दफ़ा मुझसे फ़क़त कोना लगा

 दूर जाते वक़्त बस इतना कहा
साथ ‘कान्हा’ आपका अच्छा लगा


2.

रो-धो के सब कुछ अच्छा हो जाता है
मन जैसे रूठा बच्चा हो जाता है

कितना गहरा लगता है ग़म का सागर
अश्क बहा लूं तो उथला हो जाता है

लोगों को बस याद रहेगा ताजमहल
छप्पर वाला घर क़िस्सा हो जाता है

मिट जाती है मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू
कहने को तो, घर पक्का हो जाता है

नीँद के ख़ाब खुली आँखों से जब देखूँ
दिल का इक कोना ग़ुस्सा हो जाता है

3.
ख़ला को छू के आना चाहता हूँ
मैं ख़ुद को आज़माना चाहता हूँ

मेरी ख़्वाहिश तुझे पाना नहीं है
ज़रा सा हक़ जताना चाहता हूँ

तुझे ये जान कर हैरत तो होगी
मैं अब भी मुस्कुराना चाहता हूँ

तेरे हंसने की इक आवाज़ सुन कर
तेरी महफ़िल में आना चाहता हूँ

मेरी ख़ामोशियों की बात सुन लो
ख़मोशी से बताना चाहता हूँ

 बहुत तब्दीलियाँ करनी हैं ख़ुद में
नया किरदार पाना चाहता हूँ

4.
तीरगी से रौशनी का हो गया
मैं मुक़म्मल शाइरी का हो गया

देर तक भटका मैं उसके शह्र में
और फिर उसकी गली का हो गया

सो गया आँखों तले रख के उसे
और ख़त का रंग फीका हो गया

एक बोसा ही दिया था रात ने
चाँद तू तो रात ही का हो गया ?

रात भर लड़ता रहा लहरों के साथ
सुब्ह तक ‘कान्हा’ नदी का हॊ गया !!

5.
सितम देखो कि जो खोटा नहीं है
चलन में बस वही सिक्का नहीं है

यहाँ पर सिलसिला है आंसुओं का
दिया घर में मिरे बुझता नहीं है

यही रिश्ता हमें जोड़े हुए है
कि दोनों का कोई अपना नहीं है

नये दिन में नये किरदार में हूँ
मिरा अपना कोई चेहरा नहीं है

मिरी क्या आरज़ू है क्या बताऊँ?
मिरा दिल मुझपे भी खुलता नहीं है

कभी हाथी, कभी घोड़ा बना मैं
खिलौने बिन मिरा बच्चा नहीं है

मिरे हाथोँ के ज़ख्मों की बदौलत
तिरी राहों में इक काँटा नहीं है

सफ़र में साथ हो.. गुज़रा ज़माना
थकन का फिर पता चलता नहीं है

मुझे शक है तिरी मौजूदगी पर
तू दिल में है मिरे अब या नहीं है

तिरी यादों को मैं इग्नोर कर दूँ
मगर ये दिल मिरी सुनता नहीं है

ग़ज़ल की फ़स्ल हो हर बार अच्छी
ये अब हर बार तो होना नहीं है

ज़रा सा वक़्त दो रिश्ते को ‘कान्हा’
ये धागा तो बहुत उलझा नहीं है

6.
इश्क़ का रोग भला कैसे पलेगा मुझसे
क़त्ल होता ही नहीं यार अना का मुझसे

गर्म पानी की नदी खुल गयी सीने पे मेरे
कल गले लग के बड़ी देर वो रोया मुझसे

मैं बताता हूँ कुछेक दिन से सभी को कमतर
साहिबो ! उठ गया क्या मेरा भरोसा मुझसे

इक तेरा ख़्वाब ही काफ़ी है मिरे उड़ने को
रश्क करता है मेरी जान परिंदा मुझसे

यक ब यक डूब गया अश्कों के दरिया में मैं
बाँध यादों का तेरी आज जो टूटा मुझसे

किसी पत्थर से दबी है मेरी हर इक धड़कन
सीख लो ज़ब्त का जो भी है सलीक़ा मुझसे

कोई दरवाजा नहीं खुलता मगर जान मेरी
बात करता है तेरे घर का दरीचा मुझसे

बुझ गया मैं तो ग़ज़ल पढ़ के वो जिसमें तू था
पर हुआ बज़्म की रौनक़ में इज़ाफ़ा मुझसे


7.
पिछली तारीख़ का अख़बार सम्हाले हुये हैं
उनकी तस्वीर को बेकार सम्हाले हुये हैं

यार इस उम्र में घुँघरू की सदायें चुनते
‘आप ज़ंजीर की झंकार सम्हाले हुये हैं’

हम से ही लड़ता-झगड़ता है ये बूढा सा मकां
हम ही गिरती हुई दीवार सम्हाले हुये हैं

यार अब तक न मिला छोर हमें दुनिया का
रोज़े-अव्वल ही से रफ़्तार सम्हाले हुये हैं

जिनके पैरों से निकाले थे कभी ख़ार बहुत
हैं मुख़ालिफ़ वही, तलवार सम्हाले हुए हैं

लोग पल भर में ही उकता गये जिससे ‘कान्हा’
हम ही बरसों से वो किरदार सम्हाले हुए हैं

8.
मैं भी गुम माज़ी में था
दरिया भी जल्दी में था

एक बला का शोरो-गुल
मेरी ख़ामोशी में था

भर आयीं उसकी आँखें
फिर दरिया कश्ती में था

एक ही मौसम तारी क्यों
दिल की फुलवारी में था ?

सहरा सहरा भटका मैं
वो दिल की बस्ती में था

लम्हा लम्हा ख़ाक हुआ
मैं भी कब जल्दी में था ?

9.
सवाल दिल के इसी बात पर रखे रौशन
कभी तो होंगे जवाबों के सिलसिले रौशन

कभी जो लौट के आयेंगे वो मिरी जानिब
चराग़ मुंतज़िर आँखों के पायेंगे रौशन

सभी की शक्ल चमकदार ही नज़र आये
रखो न शह्र में इतने भी आइने रौशन

कहो सुनो भी किसी रात अपनी-मेरी बात
करो कभी तो हमारे ये रतजगे रौशन

वगरना दिन के उजाले में खो भी सकते हो
रखो चराग़ हर इक वक़्त ज़ह्न के रौशन

रदीफ़ छुप रही है जा के एक कोने में
ग़ज़ल में बांधे हैं हमने भी क़ाफ़िये रौशन

न कर सकेगा अँधेरा कोई तुझे अँधा
‘क़लम सम्हाल अँधेरे को जो लिखे रौशन ‘

10.
कहीं जीने से मैं डरने लगा तो….?
अज़ल के वक़्त ही घबरा गया तो ?

ये दुनिया अश्क से ग़म नापती है
अगर मैं ज़ब्त करके रह गया तो….?

ख़ुशी से नींद में ही चल बसूंगा
वो गर ख़्वाबों में ही मेरा हुआ तो…

ये ऊंची बिल्डिंगें हैं जिसके दम से
वो ख़ुद फुटपाथ पर सोया मिला तो….?

मैं बरसों से जो अब तक कह न पाया
लबों तक फिर वही आकर रूका तो….?

क़रीने से सजा कमरा है जिसका
वो ख़ुद अंदर से गर बिखरा मिला तो ?

लकीरों से हैं मेरे हाथ ख़ाली
मगर फिर भी जो वो मुझको मिला तो ?

यहां हर शख़्स रो देगा यक़ीनन
ग़ज़ल गर मैं यूं ही कहता रहा तो…..

सफ़र जारी है जिसके दम पे `कान्हा
अगर नाराज़ वो जूगनू हुआ तो?


(रचनाकार-परिचय :

जन्म :  चौबे बरोही , रसूलपुर नन्दलाल , आज़मगढ़ ( उत्तर प्रदेश ) में 14 नवंबर  1992 को । 
शिक्षा : प्रारंभिक आजमगढ़ से हुई. बरेली कॉलेज बरेली से बीकॉम  और शिब्ली नेशनल कॉलेज आजमगढ़ से एमकॉम। 
सृजन : अमर उजाला, हिंदुस्तान , हिमतरू, गृहलक्ष्मी , कादम्बनी इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ।  'दस्तक'और 'ग़ज़ल के फलक पर 'नाम से दो साझा ग़ज़ल संकलन भी प्रकाशित।
संप्रति : नोएडा से सीए की ट्रेनिंग और स्वतंत्र लेखन। 
संपर्क  : prakhar29@outlook.com )




कहानी : दहलीज़

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 युवा कवि की पहली कहानी 












संजय शेफर्डकी क़लम से 

यह लड़कियां भी ना ? ना जाने किस परिवेश और संस्कार में पलती- बढ़ती और बड़ी होती हैं ? एक अधेड़ 
व्यक्ति ने खुद से मन ही मन में प्रश्न किया और उस चौदह वर्षीय लड़की की आवश्यकता से थोड़ी ऊंची उठ 
रही  स्कर्ट के अंदर झांकने की कोशिश की। लड़की उस अधेड़ व्यक्ति की नज़रों को भांप थोड़ी सकपकाई और 
असहज महसूस करते हुए करीब छह इंच की दूरी बनाते हुए बगल में खड़ी हो गई। अब उस अधेड़ की नज़र 
सीधे- सीधे लड़की की छातियों के आसपास से घूमती हुई कुछ देर बाद लड़की के उन उभारों पर जा टिकीं जहां 
एक अधोवस्त्र के आलावा कुछ भी नहीं था। लड़की की सकपकाहट बेचैनी में परिवर्तित होने लगी थी और 
असहजता बौखलाहट का रूप लेकर अब फूटे क तब फूटे। परन्तु वह अधेड़ उस लड़की की इन तमाम 
स्थितियों से बेखबर उसकी देह के तमाम हिस्सों में अपनी नज़र इस कदर गड़ाए जा रहा था कि मानों उसकी 
देह के तमाम छिद्रों को अपनी वासना से भर देगा। लड़की की मानसिक व्यथा बढ़ने के क्रम में दैहिक पीड़ा में 
परिवर्तित होने लगी। लड़की को लगा उसकी देह के तमाम छिद्रों में एकाएक किसी ने हजारों की संख्या में 
तलवार घुसेड़ दिया है। उसकी देह की कराह चीख में परिवर्तित होकर उठी और उसके मन की कब्र में जा 
समाई।

सही मायने में यह स्थिति लड़की के संयम के दायरे से बाहर की थी फिर भी लड़की ने अपने अथाह दर्द और 
उफनते आवेग पर कायम रखते हुए थोड़ी और दूरी बनाकर खड़ी हो गई। पर उसे यह दूरी उस अधेड़ की नज़र 
से ज्यादा नहीं ले जा पाई। इस बार उसकी नज़र लड़की के वक्ष से नीचे उतर नाभि के इर्द-गिर्द ही टिकी हुई 
थी।  लड़की ने उस अधेड़ की चुभती हुई नज़र को दूबारा जैसे ही अपने नाभि में महसूसा, साथ ही यह भी 
महसूसा  कि अब यह नजरें नाभि के नीचे उतरने की कोशिश करेंगी उसकी बंद मुठ्ठियां खुली और एक जोरदार 
तमाचे की आवाज पूरे ठसमठस भीड़ भरी बस में गूंज पड़ी। किसी को कुछ समझ में ना आए इसका तो सवाल 
ही नहीं था। इस तरह की घटनाएं आये दिन दिल्ली के बसों में होती रहती हैं। करीब बीस सेकेंड तक पूरे बस में 
शांति छाई रही उसके बाद धीरे-धीरे कुछ आवाजें अपना-अपना मुंह खोलने लगी।

मारों साले को मारों, लड़की को ताड़ता है, तेरी मां- बहन नहीं है। इतना सुनते ही मानों भीड़ का पूरा का पूरा 
जत्था उस अधेड़ व्यक्ति पर टूट पड़ा। दो मिनट के अंदर उस पर कितने लात- जूते पड़े होंगे उसे इस बात का 
अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। लोगों की मार से उसके शरीर के तमाम हिस्से ज़ख्मी हो गए थे। उसके 
होंठ कट गए थे और नाक से खून टपक रहा था। लेकिन आश्चर्य की बात यह कि उस व्यक्ति ने जरा भी 
भागने  का प्रयास नहीं किया। इतनी मार खाने के बाद भी जस का तस बस की सीट पर ही पड़ा रहा। दूसरी 
तरफ लड़की जोर-जोर से सिसक रही थी। उसके आसपास कई औरतों की भीड़ जमा हो गई थी। कोई उसके 
बालों में  हाथ फेरते हुए सन्तावना के स्वर में यह कह रहा था कि चुप हो जा बेटा- चुप हो जा। कोई उल्टे उसके 
पहनावे को दोषी ठहराते हुए कह रहा था इस तरह के कपडे पहनती ही क्यों हो जब सती - सावित्री बनती हो ? 
जितने  मुंह उतनी बात ! कोई कुछ कह रहा है तो कोई कुछ ! लोगों की कहा सुनी, आपस की घुसर-पुसर के 
मध्य यह  तिहत्तर नंबर की बस निर्माण विहार के स्टैंड पर जैसे ही पहुंची वह लड़की बस से उतर गई।

सिर्फ एक स्टेशन के बाद मुझे भी बस से उतरना था। उस लड़की के बस से उतरने के बात यात्रियों की आपसी 
सुगबुगाहट थोड़ी और तेज हो गई। कहा सुनी, आपस की घुसर-पुसर का स्वर धीरे-धीरे और ऊंचा उठने लगा। 
जो घटना महज़ पांच मिनट पहले एक घटना थी अब वह इंटरटेनमेंट से ज्यादा कुछ नहीं रह गई थी। इस बस 
में मैं करीब साल भर से सफ़र कर रही हूं। बस में अक्सर इस तरह की छेड़छाड़ की घटनाएं होती ही रहती हैं। 
और मेरे ही साथ क्या पब्लिक या फिर प्राइवेट बस में चलने वाली हर लड़की के साथ होती ही रहती हैं। फिर 
धीरे-धीरे यह घटनाएं रोजमर्रा यात्रा करने वाली लड़कियों या महिलाओं के रूटीन की एक हिस्सा बन जाती हैं। 
अब भला कामकाजी महिलाएं और लड़कियां करें भी तो क्या करें, सामान्य तरीके से अगर समझाने की 
कोशिश करें तो यह मनचले पीछे पड़ जाते हैं और असामान्य तरीके से समझाएं तो उनके जान पर ही बन 
आती है। भरी भीड़ में ही कब किस हरकत पर उत्तर आएं। और घर-परिवार ? दरअसल हम लड़कियों को 
रोटी  भी कमानी होती है और अपनी इज्ज़त भी बचानी होती है अन्यथा परिवार के लोग ही कह देंगे कि- 
नौकरी करने की कोई जरुरत नहीं घर में ही बैठी रहो ? यह कह देना सचमुच बहुत आसान है पर एक 
पढ़ी-लिखी लड़की का घर की दहलीज़ के अंदर कैद हो जाना बहुत ही मुश्किल। लेकिन मां- बाप और 
घर-परिवार वाले भी क्या करें ? उनके पास दिन- ब- दिन बढ़ते भ्रष्टाचार और सामाजिक विषमताओं ने बहुत 
ही सीमित दायरे छोड़े हैं।

दिल्ली की बसों में भीड़ एक समस्या है लेकिन आये दिन कोई ना कोई इस भीड़ का फायदा उठाकर किसी 
लड़की की कमर या छाती पर हाथ फेर ही देता है। ऐसी स्थिति में लड़कियां अपने आपको असहज महसूस 
करती हैं। पर करें भी तो क्या करें सामने वाला बंदा अपने इस कृत्य के लिए बाकायदा सॉरी भी बोलता है 
लेकिन मौका मिलते ही दुबारा कमर या पेट पर कोहनी धंसा देता है। ज्यादातर लड़कियां इस तरह कि 
घटनाओं को नज़रअंदाज करने की कोशिश करती हैं। परन्तु कुछ लड़कियां इस घटनाओं को एन्जॉय करती 
और हंसकर टाल भी जाती हैं। विस्मय तो तब होता है जब कोई 40 -45 साल का युवक 14-15 साल की 
लड़की  को छेड़ रहा होता है और बात- बात में उसकी जांघ पर हाथ रखने से नहीं चुकता। पर ऐसी घटनाओं के 
प्रति लड़कियों को गंभीर हो जाना चाहिए और कठोर लहजे में सख्त आवाज के साथ अपना विरोध दर्शना 
चाहिए।

पिछले दिनों सलोनी के साथ भी तो आखिरकार यही तो हुआ। आखिर उसने एक मुस्कराहट का जबाब एक 
मुस्कराहट से हे तो दिया। तीन लड़के करीब एक  महीने तक उस लड़की का पीछा करते-करते उसके घर और 
ऑफिस तक पहुंचते रहे थे। नौबत यहां तक आ  गई कि वह चाक- चौराहे और बाज़ार जहां भी होती वही तीन 
गिने चुके चहरे नजर आ जाते। अंतत जब वह  इस हालत से तंग आ गई तो पुलिस को फ़ोन करना पड़ा और 
तब कहीं जाकर इस मुश्किल से निजात मिल  पाई। लेकिन महिने भर भी नहीं बीते थे कि प्रतिशोधवश उन्हीं 
मनचलों ने दुबारा उसे परेशान करना शुरू कर  दिया। फिर इस बात को वह अपने घर पर भी नहीं बता पाई। 
लेकिन स्थिति जब उसके मानसिक प्रताड़ना के  रूप में असहनीय होने लगी तो एक अपने ही हमउम्र पुरुष 
मित्र के साथ पुलिस थाने पहुंच गई। उन मनचलों  के  छेड़छाड़ ने उसे सिर्फ मानसिक प्रताड़ना का शिकार 
बनाया था पर पुलिस के सवालों ने महिला सुरक्षा  कानून का बलात्कार कर दिया। कितने दिन छेड़ रहे हैं ? 
क्यों छेड़ रहें हैं ? तुम्हारे पहले से कोई आपसी  सम्बन्ध तो नहीं हैं ? सिर्फ तुम्हें ही क्यों छेड़ते हैं ? तुमने 
इतने  छोटे कपडे क्यों पहनी हो ? तुम अपने मां-बाप  के साथ क्यों नहीं आई ? तुम्हारे साथ यह पुरुष मित्र 
कौन है ?  और ना जाने क्या- क्या ?

मैं इन्हीं सभी ख्यालों में उलझी हुई थी तभी मेरी नजर उस सीट पर पड़ी तो वह अधेड़ व्यक्ति और उसके 
बगल  वाली सीट पर बैठी महिला गायब थे। बीच में तो कोई बस स्टैंड भी नहीं आया ? लग रहा है वह व्यक्ति 
भी निर्माण विहार के उसी स्टैंड पर उतर गया जहां वह लड़की उतरी थी। क्या ? कहीं वह उस लड़की का दुबारा 
पीछा तो नहीं करेगा ? मेरे अंदर एक सवाल कौंधा परन्तु तब तक बस प्रीत विहार बस स्टैंड के करीब पहुंच 
चुकी थी। मैं बस से उतरने से पहले अपने सामान को सहेजती नजर पास में पड़े लेडीज़ बैग पर पड़ी। मैंने 
अगल बगल नजर दौड़ाई आसपास दो-चार पुरुष यात्रियों के आलावा कोई और नजर नहीं आया तो मुझे यह 
समझने में तनिक भी देर नहीं लगी की यह पर्स उस पीड़ित लड़की का ही है जो असहजता की स्थिति में 
भूलवश छोड़कर चली गई होगी। मैंने उस लावारिस बैग को उठा लिया पहले जी चाहा कि कंडक्टर को दे दे 
ताकि वह वापस ढूंढने आये तो वह लौटा दे। परन्तु फिर ख्याल आया नहीं - आजकल दूसरे का सामान भला 
कौन सहेजकर रखता और लौटाता है। और कहीं कोई जरुरी डाक्यूमेंट्स हुआ तो …?

बस से उतरने के बाद पीजी पहुंची तो घडी की छोटी सुई सात और बड़ी बारह पर थी। कनॉट प्लेस से प्रीत 
विहार पहुँचाने में करीब करीब एक घंटे का समय तो लग ही जाता है। दिन भर ऑफिस की थकान के बाद यह 
आधे घंटे की कमरतोड़ बस की यात्रा पूरे शरीर को चूस लेती है। और इस बार तो पीरियड भी पता नहीं क्यों 
पांच दिन पहले आ गया। इस ईश्वर ने भी जाने क्यों सारे दर्द हम लड़कियों के हिस्से में लिख रखे हैं ? वाशरूम 
पहुंचकर मैंने चेहरे पर ठंडे पानी के छींटे मारे और वापस आकर उस बैग को टटोला ताकि ऐसा कुछ मिल जाये 
जिसके आधार पर उसे वापस लौटाया जा सके। कोई डायरी, नोट बुक, विजिटिंग कार्ड कुछ भी जिसमें अमुक 
लड़की का नाम या फिर पता लिखा हो। पर बैग में एक पैकट सैनिटरी नैपकिन, एक लंचबॉक्स और पानी की 
बोतल के आलावा कुछ दिखाई नहीं दिया। लेकिन साईड पॉकेट में हाथ डाला तो एक छोटी डायरी मिल गई। 
डायरी में कोई पता तो नहीं पर कुछ टेलीफोन नंबर जरूर थे। एक नंबर पर जिसके ऊपर पापा लिखा था मैंने 
अपने फोन से डॉयल किया तो दूसरी तरह से जो आवाज़ आई वह एक महिला की थी। मैंने बिना कोई भूमिका 
बनाए बैग के बस में मिलाने की बात बताई तो उसने धन्यवाद ज्ञापन के भाव के साथ बिना पूछे ही यह बता 
दिया हां, यह मेरी बेटी का बैग है जो 73 नंबर की डीटीसी बस में छूट गया था। मैंने फ़ोन पर ही उस महिला के 
घर का पता लिया और अगले दिन पहुंचाने का आश्वासन दिया तो उसे यह कहते देर नहीं लगी कि कोई बात 
नहीं बेटी आप अपना पता दे दो आकर मैं ही ले लूंगी। पर मैंने कोई बात नहीं कहते हुए फ़ोन काट दिया।


दूसरे दिन घर से करीब पांच बजे के आसपास घर से निकल गई। उस लड़की का घर मुख्य सड़क से दस 
मिनट  की दूरी पर एक बिल्डिंग के तीसरी मंजिल पर था। मैंने थोड़ी सी पूछताछ की और तीसरे मंजिल पर 
पहुंची। अपने आपको थोड़ा आस्वश्त किया और डोरवेल बजाकर दरवाजा खुलने का इन्तजार करने लगी। 
थोड़ी देर बाद दरवाजा खुला तो आवाक रह गई- यह तो वही अधेड़ आदमी था जिसे उस दिन लोगों ने बस में 
पीटा था। और उसके बगल में खड़ी महिला भी वही थी जो उस दिन इस अधेड़ के बगल वाली सीट पर बैठी थी। 
किसी अनहोनी के डर से मेरे हाथ- पैर थर- थर कांपने लगे, मुझे पल भर के लिए ऐसे लगा कि मैं किसी बहुत 
बड़ी साजिश की शिकार हो चुकी हूं। परन्तु ऐसे में अपना धैर्य खो देना किसी मूर्खता से कम नहीं था। मैंने 
अपनी आवाज़ को थोड़ा कसा तथा कठोरता और संदेह भरे लहज़े में उन दोनों की तरफ नजरे तरेरते हुए उन 
प्रश्न किया ? उन दोनों ने बिना किसी गहरे भाव के अंदर आने को कहा और एक लड़की की तरफ इशारा 
करते  हुए कहा नहीं, मेरा नहीं, मेरी बेटी का है। इसका नाम अनन्या है और यह सेकण्डरी की स्टूडेंट है।


मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था ! मेरे पैर के नीचे की जमीन अब खिसके की तब खिसके। मेरे घर के अंदर 
 की तरफ बढ़ते हुए कदम अचानक दहलीज़ के बाहर ही अटक गए- क्योंकि यह लड़की भी वही लड़की थी 
 जिसने अधेड़ को थप्पड़ जड़ा था। उस वक़्त मेरे पास एक मां- एक बेटी और एक बाप के तीन चेहरे थे। मेरे मन  में उस लड़की, उस महिला, और उस पुरुष के लिए एक जोरदार समुंद्री लहर की तरह कुछ घिनौने ख्याल आए। रिश्तों के मर्म का बिना कोई परवाह किए मैं उल्टे पैर भागी। पर इन घिनौने रिश्तों से कब तक भागा जा सकता है ? इस घटना को करीब दो साल हो गए- परन्तु ऐसा लगता है कि तब से लेकर अब तक मैं एक अंतहीन रास्ते पर भागे जा रही हूं - और एक मर्दाना आवाज़ ''उस दिन जो कुछ हुआ वह महज़ एक कमजोर लम्हा था''आज भी मेरा पीछा कर रही है। उफ्फ ! यह लम्हें भी इतने कमजोर क्यों होते हैं ? जो एक स्त्री की ढकी अथवा खुली देह में छाती, कमर और योनि तो देखते हैं पर अपनी ही बहन- बेटियों का चेहरा नहीं तलाश पाते।

 
 
 
(रचनाकार-परिचय: 
मूल नाम: संजय कुमार पाल।
जन्म: 10 अक्टूबर 1987 को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जनपद में।
शिक्षा:
स्कूली तालीम जवाहर नवोदय विद्यालय गोरखपुर से, भारतीय मीडिया संस्थान दिल्ली से पत्रकारिता व जन संचार में स्नातक, जबकि जेवियर इंस्टिट्यूट ऑफ कम्युनिकेशन मुंबई से इसी में स्नातकोत्तर किया
कार्यक्षेत्र: एशिया के विभिन्न देशों में शोधकार्य, व्यवसायिकतौर पर मीडिया एंड टेलीविजन लेखन, साहित्य, सिनेमा, रंगमंच एवं सामाजिक कार्य में विशेष रुचि।
नुक्कड़ नाटकों का निर्देशन।  25 से अधिक नाटकों का लेखन।
सृजन: विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविजन एवं आकाशवाणी से रचनाओं का प्रकाशन व प्रसारण।
संप्रति: बीबीसी एशियन नेटवर्क में शोधकर्ता एवं किताबनामा प्रकाशन, हिन्दीनामा प्रकाशन के प्रबंध निदेशक के तौर पर संचालन।
संपर्क: sanjayshepherd@outlook.com)
 
 
 
 
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