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Channel: Hamzabaan हमज़बान ھمز با ن
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26/05 की अद्भुत शाम

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सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यों है
 











ऋषभ श्रीवास्तवकी क़लम से
 
कुछ दिनों पहले से ही जिस्म शल (ठंडा) हो रहा था।  सिर दर्द कर रहा था. कुछ सोच नहीं पा रहा. क्या बोलूंगा उस दिन? 3-4 दिन ही तो बचे हैं! विगत 8-9 महिनों में सब तो बोल ही दिया है. बोल ही तो रहा हूँ यार. उस बन्दे की मैं इज़्ज़त तो करता हूँ भाई, बिना बोले ही दस साल निकाल दिया. बिना बोले ही चला भी गया. है कोई माई का लाल? धन्य है भारत माता! असल शेर तो वही था. एक गिलास पानी ही पी लेता हूँ. यार, चैन नहीं आ रहा. वाइफ को फोन करुंँ क्या? अबे यार, उस बैसाख् नन्दिनी गँवार पशु को क्या पता? रोने लगेगी कि अब तो साथ रख लो. स्त्री का जीवन तो पति के ही चरणों में होता है. जंगल में भी रह लूँगी. बस आपका सान्निध्य चाहिए. 

कैसे होगा? इतने बड़े-बड़े लोग होंगे! बड़े बड़े उद्योगपति,  हीरो हीरोइन , विदेशी लोग होंगे. क्या बताऊँगा? ये मेरी वाइफ है? थेपला अच्छा बनाती है. नही, मैं आजन्म कुंवारा रहूँगा. जो बोल दिया, वही सही है. कोई बहस नही होनी चाहिए. एक पशु के साथ बाँध देने से मैं विवाहित तो नही हो जाता? बस अब कोई बहस नहीं.
आज रात पार्टी ही कर लूँ क्या?  
यार, हिंदू हृदय सम्राटों को पता चलेगा तो बोलेंगे कि आ जाओ मस्ती करते हैं. अनूप भाई का नया भजन आया है. आ जाओ, धमाल होगा. अखंड दीप प्रज्वलित करेंगे. अनवरत आरती होगी. कसम से, बहुत बोर करते हो तुम लोग यार.दर्द सा लग रहा है सीने में. चिकित्सक बुला लूँ क्या? नहीं यार, फिर वही सीने वाली बात हो जायेगी. इतना इंच, उतना इंच. बात का बतंगड बना देते हैं लोग. थरूर को अंग्रेज़ी में धर लिया, मुझे हिन्दी में धर लेते हैं. इन लोगों को एक ही भाषा समझ आती है. रुक जाओ दो चार दिन, सब समझा दूँगा इधर. वन का गीदड़ जायेगा किधर.
ये तो कविता हो गयी. अरे वाह ! किसी कविता से ही शुरू करूँगा उस दिन. लेकिन वो अमेठी वाला लौंडा धर लेगा. रिज़ाला आदमी है. वाजपेयी जी तक को हथियाने लगता है. बोलेगा कि आ गए लाइन पर बेटा. मेरी पार्टी का प्रभाव है. श्री मुख से कविता फूटने लगी. मधुरता का संचार हो रहा है. शेर कोयल की आवाज़ में कूक रहा है. ख़ुद को हिन्दी कविता का छोटा पुत्र बताता है, मुझे तो बिन मांगी मुराद बता देगा. कविताएं सुनी है उसकी, संघी आदमी ही तो लगता है.
 जार्ज वाशिंगटन की tryst with destiny से शुरू करुं क्या? मस्त रहेगा! लेकिन फिर हंगामा हो जाएगा. ग़लत बोल दिया. नेहरु ने बोला था. विवेकानंद ने बोला था. भाइयों और बहनों, नेहरु ने कौन सा सही बोला था? when the whole world sleeps....... कहां भाई , रात तो भारत में ही थी. यहीं लोग सो रहे होंगे. पूरी दुनिया में तो दिन निकल गया था उस बखत. भावनाओं में बह गए थे नेहरू . भूगोल नहीं पता था उनको. मेरा इतिहास गड़बड़ है. भूगोल तो पक्का है मेरा. कश्मीर के भूगोल में भी नेहरू गच्चा खा गए थे. मुझे तो पूरा पता है कश्मीर का भूगोल. एक एक इंच नाप नाप के लूँगा.
 छडडो यार, हटा सावन की घटा़. जय श्री राम से ही शुरू करूँगा. पर यार ये बवाली साले गँवार ! एकदम से उन्मत हो जायेंगे. कही दंगा-फसाद कर दिया तो...... छोडूंगा नही मैं, बता देता हूँ. एक दो बार हो गया, हो गया. बार बार तुम्हारी वही बकैती. तुम्हारे चलते लोग प्रधानमंत्री बनना छोड़ दे अब. फिर मैं भूल जाऊँगा कौन सा देवता किसके सर आता है. मिलिटरी लगाऊँगा़. सारे भूत नक्षत्र उतरवा दूँगा.
 trin....trin....trin...trin....trin...
 हैलो , हाँ भाई बोलो. क्या? क्या? कब? LoL ....अच्छा मैं अभी आता हूँ. एकदम तुरंत. हाँ यार, हेलिकाप्टर यहीं पर है. जून जुलाई के बाद ही दूँगा. माँग भी नहीं रहे वो लोग. एक घंटा लगेगा. जय श्री राम. take care.
तैयार तो हूँ ही. भइया इस चुनाव में कई रंग देख लिए. लो, अब iron man को हार्ट अटैक आ गया. गज़ब नौटंकीबाज आदमी है. भइया तुम निकल ही लेते. जान छूटती. मूर्ति लगवा देते तुम्हारी. बच्चों की तरह करोगे तो अब कौन बरदाश्त करेगा. हिन्दुत्व वादी हो. पढ़े होगे कि जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का हो जायेगा. बात करते हो.पर चलो, थोड़ा टाइम पास हो जायेगा. खिलाड़ी आदमी है. मरेगा नहीं. इतना तो मुझे पता है. चलूँ मैं. देश पुकार रहा है. गिरने नहीं दूँगा मैं . मिटने नहीं दूँगा मैं.

(रचनाकार -परिचय:
जन्म: २१ मई १९८७ को गाजीपुर, उत्तर प्रदेश में
शिक्षा: प्रारंभिक- तराँव, गाजीपुर स्कूल- बक्सर कालेज- नोएडा से मेकेनिकल इंजीनियर
सृजन: फेसबुक पर सक्रिय। कोई प्रकाशित रचना नहीं।
संप्रति: मुंबई में सरकारी नौकरी
संपर्क: axn.micromouse@gmail.com )  

ऋषभ की कविताएं हमज़बान पर पहले  आ चुकी हैं
  

झारखंड को किसने लूटा 14 में 9 साल किया भाजपा ने शासन

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 भाजपा नामक ढोल की पोल














मुजाहिद नफ़ीसकी क़लम से 

झारखंड में भी चुनाव है। पहले चरण के बाद आज यानी दो दिसंबर को दूसरे चरण के तेहत राज्य के 20 विधानसभा क्षेत्रों में वोट पडेंगे। इनमें से अधिकतर इलाके नक्सल प्रभावित हैं। इसका कारण है, पहाड़ों से घिरे पेड़-पौधे से आच्छादित इन क्षेत्रों में विकास के सूरज का न पहुंच पाना। इधर, बड़ी तेजी से विकास के नाम पर हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति कर सत्ता शिखर पर पहुंची, भाजपा ने विस पर कब्जे की मुहिम शुरू कर दी। प्रधानमंत्री से लेकर पार्टी अध्यक्ष तक चुनाव प्रचार में डगर-नगर हुए। दूसरे दल अपेक्षाकृत प्रचार-प्रसार कम कर रहे हैं। लेकिन इनमें बड़ा अंतर यह है कि भाजपा के हर छोटे-बड़े नेता झूठ बेशर्मी की हद तक बोल रहे हैं। आईये उनकी बातों की सचाई को आंकड़े के आईने में झिलमिल देखें। भारतीय जनता पार्टी के चेहरे द्वारा ये कहा जा रहा है कि जिन्होंने झारखण्ड को लूटा है व विकास नहीं होने दिया, उन्हें बेदखल करना है. स्थायी सरकार ही राज्य का विकास कर सकती है जैसे लोकलुभावन नारे के साथ अपनी सभा की शुरुआत करते हैं। मैं यहाँ आपके सामने कुछ आंकड़े रखना चाहता हूँ जो इन दोनों बातो को ख़ारिज करते हैं। 
लगभग 60 % समय तक भाजपा रही सत्ता में
पहला कि झारखण्ड का गठन 15 नवंबर 2000 को हुआ था। उस वक़्त भाजपा ने सत्ता संभाली थी। तब से लेकर आज तक आचार संहिता लागू होने तक कुल 5121 झारखण्ड में शासन रहा है। अलग-अलग करके देखें तो भाजपा नें कुल 2982 दिन, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा नें 306 दिन, निर्दलीय नें  1212 दिन, व राष्ट्रपति शासन 621 दिन रहा है। कुल का अगर हम प्रतिशत निकालें तो लगभग 60 % समय तक भाजपा का ही शासन रहा है। जितने मुख्य कंपनियों के साथ राज्य की सम्पदा के साथ खिलवाड़ करने वाले समझौते हुए हैं वो सब के सब महान राष्ट्र भक्त भाजपा के शासन काल में हुए हैं। झारखण्ड को तो भाजपा नें ही सबसे ज्यादा लूटा है।  (स्रोत )

स्थायी गुजरात सरकार के विकास का सच
इधर, भाजपा समेत मीडिया ने गुजरात को सबसे विकसित राज्य के मॉडल की तरह पेश किया। हालांकि ईमानदार सर्वे और पत्रकारों की रपटों ने इसकी भी कलई खोल दी। झारखंड में चुनाव प्रचार के दौरान भोपूओं द्वारा शोर किया जा रहा है कि स्थायी सरकार ही राज्य में विकास करा सकती है। अगर मोदी जी के मॉडल गुजरात का उदाहरण लें तो हम पाते हैं की राज्य में गृह विभाग, सूचना जनसम्पर्क विभाग, विधायी कार्य एवं संसदीय कार्य, जलसंसाधन/नर्मदा, राजस्व विभाग एवं जलवायु परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण विभाग इंचार्ज सेक्रेटरी के भरोसे चल रहे हैं। (स्रोत गुजरात इंडिया)

राज्य मे माननीय उच्च न्यायलय अहमदाबाद के समक्ष 320 जनहित याचिकाएं आज की तिथि तक वर्ष 2014 दाखिल हो चुकी हैं। (स्रोत ) याचिकाएं शिक्षा, नौकरी, मानवाधिकार, जबरन भूमि अधिग्रहण आदि जनहित के व्यापक मुद्दो की हैं। राज्य में मानवाधिकार आयोग के दो सदस्यों में से एक, रजिस्ट्रार, लॉ (विधि) अधिकारी के पद रिक्त है (स्रोत ), राज्य में अलपसंख्यक आयोग नहीं है। (स्रोत टाइम्स ) राज्य के बाल अधिकार आयोग के सदस्यों के अधिकार आज तक वर्णित नहीं हैं।   शिक्षा अधिकार अधिनियम के तहत वर्ष 2013 में 49 बालको व 2014 में 614 के दाखले हुए हैं। (स्रोतऑउटलुक ) ये साफ़ दिखाता है कि राज्य में कितना विकास स्थाई सरकार नें किया है। 

दरअसल भाजपा के सूरमा नेता जनता को गुमराह कर सत्ता को हथियाने वाले हैं। जनता के मुद्दे बिजली, रोज़गार, पानी, पर्यावरण से भटका कर सुनहरी सपनो की दुनिया को दिखा कर देश का निजीकरण कर अपनी झोली भरने का मामला है। 

(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 11मार्च 1982 को बाराबंकी उत्तर प्रदेश में
शिक्षा: स्नातक
सृजन: छिटपुट इधर-उधर
संप्रति:बाल अधिकार कार्यकर्ता, रांची
संपर्क: nafeesmujahid43@gmail.com )

ख़्वाजा अहमद अब्बास को याद करते उनके नवासे

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 आज़ाद  क़लम का  आख़िरी पन्ना














मंसूर रिज़वीकी क़लम से
मेरी परवरिश बंबई के उसी घर में में हुई,जहां बाबा रहा करते थे। अब्बास साहबको हम मुहब्बत से ‘बाबा’ ही पुकारा करते थे । जुहु के उनके मकान में सन सत्तासी तक रहा, जोकि अफसोस से उनके इंतक़ाल का साल भी था। बाबा को हमेशा उस इंकलाबी शख्सियत के तौर पर याद करता हूं… जो लकवे का झटका बर्दाश्त कर भी पहली मुहब्बत क़लमपर कायम रहे। उन मुश्किल दिनों में आप साप्ताहिक बिलिट्ज़ के लिए हिंदी व अंग्रेजी मजमून लिख रहे थे। आप मरते वक्त तक वहां ‘आज़ाद  क़लम’  नाम से ‘आख़िरी पन्ना’ कालम लिख रहे थे। 
बहुत सी फीचर फिल्मों को बनाने के अलावा बाबा ने वतनपरस्ती जज्बे को जगाने वाली खास फिल्में भी बनाई। अब्बास साहेब वतन को लेकर बहुत गंभीरता से सोंचा करते थे। आप जज्बा-ए-वतन अर्थात देशभक्ति के जबरदस्त पैरोकार थे। आपकी लघु फिल्म ‘दो दोस्त’ में मेरे अलावा एक मजदूर के बेटे ने भी काम किया
था। कहानी में अमीर व  ग़रीब लडकों की तस्वीर-ए-जिंदगी के बरक्स पनप रही गहरी दोस्ती को विषय बनाया गया। इनकी प्यारी दोस्ती बन रही इमारत के पूरा हो जाने के  साथ जज़्बाती अंत को पा गयी। अम्मी आपको
मामूजानकहकर बुलाया करती थी। हम भी आपको कभी कभी मामूजान कहा करते थे। आप यकीन ना करें लेकिन अमिताभ भी अब्बास साहेब को इसी नाम से पुकारा करते। अमिताभ बच्चन से मिलना मुझे अब भी याद है। शहंशाह रिलीज होने की खुशी में एक महफिल जमा हुई थी। उन दिनों बाबा बहुत सख्त बीमारी से गुजर रहे थे। अमिताभ साहेब ने हमारी फिक्रों को साझा किया| आपको बताऊं कि अस्पताल के खर्च की जिम्मेदारी अमिताभ उठा रहे थे|
एकता के जज्बे को सलाम करते हुए बाबा ने ‘Naked Fakir’ डाक्युमेंट्री बनाई थी । महात्मा गांधी की इज्जत में सदर विंस्टन चर्चिल के इस्तकबाल ‘Naked Fakir’ के नाम से महात्मा गांधी पर फ़िल्म बनाई । बाबा परवरदिगार को अपनी इबादत व अकीदत अदा करने के लिए उसके किसी घर से परहेज नहीं करते थे । धर्म के संकीर्ण भेदभाव से विरोध का यह नायब तरीका था|

 काम की तालाश में आए फरियादी नौजवानों को आप अपने दर से खाली नहीं लौटाया करते थे। जिंदगी की राह में इनके जुनूं को जिंदा रखना जानते थे| फिल्मों में तक़दीर आजमाने आए इन युवाओं को शायद मालूम ही था कि बाबा ने सुपरस्टार अमिताभ बच्चन  की तक़दीर बनाई। वो जाने अनजाने अमिताभ की किस्मत पा लेने की कोशिश में दीवाने से  थे। इंटरव्यु में इन लोगों से बाबा का सवाल रहता, आपने मेरी कौन सी फिल्में देखी? सबसे ज्यादा पसंद आने वाली फिल्म? इसका रटा रटाया जवाब ‘सात हिन्दुस्तानी’ हुआ करती थी। आगे बाबा इसी से जुडा हुआ सवाल रखते मसलन  आपको किस किरदार ने सबसे अधिक प्रभावित किया? इसका जवाब अक्सर अमिताभ बच्चन का किरदार ‘अनवर अली ‘ हुआ करता था। बहुत से लोग ऐसा ही जवाब देते तो बाबा उलटकर पूछ लेते कि सिर्फ अमिताभ ही क्यों? जवाब ...युवा इम्तिहान में लड़खड़ाने लगते| वहां मौजूद हमलोग तब हंसी रोक नहीं पाते थे! बाबा नेहरू के विचारों को कटटरता से मानने वालों में से थे। 
आप जवाहरलाल नेहरू के वक्त से नेहरू-गांधी खानदान से गहरे रूप से प्रभावित रहे। इस खानदान पर आपने बहुत सी किताबें भी लिखीं। फिर भी इमरजेंसी की वजह से इंदिरा गांधी की पालिसियों की जबरदस्त आलोचना करने से नहीं चूके । इंदिरा जी पर लिखी आपकी दो किताबें इस सिलसिले में अहम थी। एक बार बाबा मुझे आल इंडिया रेडियो की रिकाडिंग सिलसिले में साथ ले  गए थे। उन दिनों बचपन के लिहाज से दुनिया की हलचल से अनजान सा था। इंदिरा गांधी की हत्या की खबर लेकिन इस उस बच्चे को भी असर करने वाली थी| क़त्ल की खबर पर अब्बास साहेब के चेहरे की रंगत को बदलते जरूर देखा। 

हमें एक डिनर पर जाना था,लेकिन आपका मन गमगीन फिजा में डिनर की सोंच सकता था? आसपास का माहौल भी नाजुक हो चुका था। घर वापसी के रास्ते में कुछ इंतेहापसंद नौजवानों ने रास्ता रोककर इंदिरा के कातिलों को खत्म करने के लिए मदद मांगी। गाडी रोकर हमलोगों के हुलिए की छानबीन की गयी। उस वक्त उसमें अम्मी व चचीजान के अलावा मर्द की शक्ल में अब्बास साहेब भी सवार थे । इंतेहापसंद लोगों के सरों पर खून सवार था… लेकिन हमारी गाडी को पास कर दिया गया। क्योंकि एक लडके ने बाबा को पहचान लिया था..युवा अपनी धड़कन को भला नुकसान पहुंचा सकते थे ? सब बहिफाजत वापस घर में थे| बहरहाल ... खेलों में  बाबा को क्रिकेट में सबसे ज्यादा  दिलचस्पी थी। हिन्दुस्तान-पाक मुकाबलों के खासे दीवाने रहे। जानते हुए कि आपकी बहन को करांची ब्याहा गया था| यह जानने की कोशिश में कि बाबा किस टीम की हिमायत में? हम आपका पक्ष जानना चाहते थे। बाबा का जवाब दो टूक हुआ करता….कपिल देव का दीवाना हूं।
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(पेशकशसैयद एस.तौहीद)

16 मई के बाद बदलते रंग हज़ार

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लोकतंत्र का भगवाकरण















कृष्णकांतकी क़लम से

 हमारे संविधान की उद्देशिका कहती है कि भारत एक समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। संविधान के अनुसार राजसत्ता का कोई अपना धर्म नहीं होगा। संविधान भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता का अधिकार प्रदान करता है। लेकिन कुछ राज्यों में पहले से मौजूद राज्य सरकारें और अब केंद्र में पूर्ण बहुमत की नरेंद्र मोदी सरकार लगातार प्रशासनिक संस्थाओं, शिक्षा और संस्कृति के भगवाकरण का प्रयास कर रही है. हालांकि नरेंद्र मोदी कहते हैं कि 'भारत इक्कीसवीं सदी में विश्वगुरु बनेगा', लेकिन लक्षण इसके विपरीत दिख रहे हैं. केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद एक तरफ तो देशभर के शिक्षण संस्थानों में एक खास तरह का राजनीतिक एजेंडा बड़ी खामोशी से लागू करने का प्रयास किया जा रहा है, तो दूसरी ओर प्रशासन पर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के नियंत्रण की कोशिश के क्रम में संघ के हिंदूवादी कार्यक्रमों में मंत्रियों व अधिकारियों को शामिल किया जा रहा है.

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ हमेशा यह दावा करता रहा है कि वह सरकारों के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करता। लेकिन संघ की ओर से एक नई पहल चर्चा में है. केंद्रीय मंत्रियों के सभी निजी स्टाफ को सप्ताह में एक दिन संघ की शाखा में शामिल होने को कहा गया है. मीडिया में आई खबरों में कहा गया कि हाल ही में संघ के कर्ता-धर्ताओं और केंद्रीय मंत्रियों के बीच मीटिंग हुई, जिसमें संघ ने मंत्रियों से कहा कि वे अपने निजी स्टाफ को रविवार को संघ की शाखा में जरूर भेजें. संघ के इस प्रस्ताव पर मंत्री राजी भी हैं. मंत्रियों के निजी स्टाफ को हर रविवार सुबह संघ की शाखा में पहुंचना होता है. इसके लिए उन्हें एक दिन पहले मोबाइल से जानकारी दे दी जाती है.

दिल्ली में वर्ल्ड हिंदू फाउंडेशन के तत्वावधान में 21 नवंबर को तीन दिवसीय विश्व हिंदू कांग्रेस शुरू हुई, जिसमें विश्व हिंदू परिषद के प्रमुख अशोक सिंघल ने घोषणा की कि 'दिल्ली में 800 साल बाद पहली बार दिल्ली में हिंदू स्वाभिमानियों के हाथ सत्ता आई है.'सिंघल ने कहा कि विहिप का उद्देश्य निर्भीक अजेय हिंदू बनाना है। हिंदू राष्ट्र की घोषणा करने वाले इस सम्मेलन में दलाई लामा और संघ प्रमुख मोहन भागवत व अन्य लोगों के अलावा सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी, मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी, वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण को भी शिरकत करनी है.

दूसरी तरफ संघ और केंद्र सरकार के बीच समन्वय के लिए एक समिति बनाई गई है और उस समिति की हाल ही में बैठक हुई। बैठक में सरकार का नेतृत्‍व कृषिमंत्री राधा मोहन सिंह ने किया। श्रम मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल, कृषि राज्य मंत्री संजीव कुमार बालियान केंद्र की ओर से शामिल होने वाले अन्य मंत्री थे। आरएसएस की ओर से बैठक में संघ और भाजपा के बीच समन्वय के लिए हाल ही में नियुक्त कृष्‍ण गोपाल, वरिष्ठ संघ पदाधिकारी सुरेश सोनी, भाजपा महासचिव राम लाल, राम माधव और पी मुरलीधर राव मौजूद थे। बैठक में संघ से जुड़े संगठनों स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, लघु उद्योग भारती और सहकार भारती के पद‌ाधिकरियों ने भी हिस्सा लिया। खबरों के मुताबिक, सरकार और संघ के बीच समन्यव की दिशा में पहल की जा चुकी है। बैठक में आर्थिक गतिविधियों से जुड़े मंत्रियों और संघ पदाधिकारियों के बीच नीतिगत पर चर्चा हुई. मंत्रियों ने संघ पदाधिकारियों के मशविरों को नोट किया. बैठक में शामिल एक पदाधिकारी का कहना था कि हाल में सरकार के कई फैसले संघ की नीतियों के अनुरूप नहीं रहे, ऐसे मुद्दों पर संघ की नीतियों को लेकर समझ बनाने के लिए यह बैठक हुई और आगे भी होती रहेगी।

शिक्षा की बात करें तो हालत और बदतर हैं. शिक्षा के लिए ऐसे ऐसे तर्क और ज्ञान पेश किए जा रहे हैं कि कोई हाईस्कूल पास व्यक्ति भी अपना सिर पीट ले. हरियाणा में भाजपा सरकार बनते ही बच्चों से बीस—बीस रुपये लेकर गोसेवा पर लि​खी गई दो किताबें बांटी गई हैं. बीते 30 जून को गुजरात सरकार ने सर्कुलर जारी कर राज्य के 42,000 सरकारी स्कूलों को निर्देश दिया कि वह पूरक साहित्य के तौर पर दीनानाथ बत्रा की नौ किताबों के सेट को शामिल करें। इन्हें पढ़ना सब बच्चों के लिए अनिवार्य होगा। दीनानाथ बत्रा संघ से जुड़ी संस्था विद्या भारती के मुखिया हैं। ये किताबें पूरी तरह संविधान की उस भावना की धज्जियां उड़ाती हैं कि सरकार वैज्ञानिक चेतना को बढ़ावा देगी. यह किताबें घोर अज्ञान को बढ़ावा देने वाली और बेहद हास्यास्पद हैं. किताब की कुछ बानगियां देखें— 'भारत के नक्शे में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, तिब्बत, बांगलादेश, श्रीलंका और म्यांमार अर्थात बर्मा भी शामिल है। ये सब 'अखंड भारत'का हिस्सा हैं।'

बत्रा साहेब की किताब ‘तेजोमय भारत’ का एक हिस्सा देखें—'अमेरिका आज स्टेम सेल रिसर्च का श्रेय लेना चाहता है, मगर सच्चाई यह है कि भारत के बालकृष्ण गणपत मातापुरकर ने शरीर के हिस्सों को पुनर्जीवित करने के लिए पेटेंट पहले ही हासिल किया है. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस रिसर्च में नया कुछ नहीं है और डा मातापुरकर महाभारत से प्रेरित हुए थे. कुंती के एक बच्चा था जो सूर्य से भी तेज था. जब गांधारी को यह पता चला तो उसका गर्भपात हुआ और उसकी कोख से मांस का लंबा टुकड़ा बाहर निकला. व्यास को बुलाया गया जि‍न्होंने मांस के उस टुकड़े को कुछ दवाइयों के साथ पानी की टंकी में रख दिया. बाद में उन्होंने मांस के उस टुकड़े को 100 भागों में बांट दिया और उन्हें घी से भरी टंकियों में दो साल के लिए रख दिया. दो साल बाद उसमें से 100 कौरव निकले. महाभारत में इस किस्से को पढ़ने के बाद मातापुरकर को अहसास हुआ कि स्टेम सेल की खोज उनकी अपनी नहीं है बल्कि वह महाभारत में भी दिखती है. (पृष्ठ 92-93)

इसी किताब में वे दावा करते हैं कि 'हम जिसे मोटरकार के नाम से जानते हैं उसका अस्तित्व वैदिक काल में बना हुआ था. उसे ‘अनश्व रथ’ कहा जाता था. अनश्व रथ ऐसा रथ होता था जो घोड़ों के बिना चलता था, यही आज की मोटरकार है, ऋग्वेद में इसका उल्लेख है.' (पृष्ठ 60) बत्रा की यह किताब ऐसे हास्यास्पद आख्यानों से भरी है. यह विश्वगुरु बनने की तैयारी कर रहे देश के बच्चों को दी जानी वाली अनिवार्य शिक्षा की बानगी है. यह संयोग नहीं है कि संघ परिवार से संबंधित तमाम साहित्य ऐसे असाधारण ज्ञान विज्ञान से भरा पड़ा है. क्या स्मृति ईरानी जैसी कम शिक्षित टेलीविजन अदाकारा को इसीलिए मानव संसाधन मंत्रालय दिया गया ताकि संघ परिवार बेरोकटोक ऐसी पोंगापंथियों का प्रसार कर सके? 

संघ की स्थापना से ही उसका सपना रहा है कि इतिहास को हिंदूवादी नजरिये से लिखा जाए. केंद्र में नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के बाद येल्लाप्रगदा सुदर्शन राव को भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद का अध्यक्ष बनाया गया. राव इतिहासकार के तौर पर इस बात के हिमायती हैं कि महाभारत और रामायण को 'ऐतिहासिक घटनाएं'सिद्ध किया जाए. अध्यक्ष बने राव ने हास्यास्पद दुस्साहस दिखाते हुए ‘भारतीय जाति व्यवस्था’ की अच्छाइयां खोज लीं और घोषणा भी कर डाली कि उनका एजेंडा महाभारत की घटनाओं की तारीख निश्चित करने के लिए शोध कराने का है.
यह सब इत्तेफाक नहीं है. गुजरात और मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकारें पहले से ही ऐसी कोशिश करती रहीं हैं. करीब एक दशक से मध्य प्रदेश के मिस्टर क्लीन मुख्यमंत्री शिवराज चौहान शिक्षण संस्थानों के भगवाकरण की कोशिश में लगे हैं. अगस्त 2013 में मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार ने राजपत्र के जरिये  अधिसूचना जारी कर मदरसों में भी गीता पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया था. इसमें प्रदेश मदरसा बोर्ड से मान्यता प्राप्त सभी मदरसों में कक्षा तीन से आठ तक सामान्य हिंदी की तथा पहली और दूसरी की विशिष्ट अंग्रेजी और उर्दू की पाठ्यपुस्तकों में भगवतगीता में बताए प्रसंगों पर एक एक अध्याय जोड़े जाने की अनुज्ञा की गई थी और इसके लिए राज्य के पाठ्य पुस्तक अधिनियम में बाकायदा जरूरी बदलाव भी किए गए थे. विवाद पैदा हुआ तो अपने को भाजपा के अटल विहारी वाजपेयी साबित करने की कोशिश कर रहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने यह निर्णय वापस ले लिया.

इसके पहले 2011 में ​ही शिवराज सरकार स्कूलों के पाठ्यक्रम में गीता लागू करवा कर चुकी थी. शिवराज सरकार ने शासकीय स्कूलों में योग के नाम पर ‘सूर्य नमस्कार’ भी अनिवार्य किया था, बाद में उसे ऐच्छिक विषय बना दिया गया. स्कूल शिक्षकों को ऋषि कहकर संबोधित करना हो या मिड डे मील के पहले भोजन मंत्र पढ़ाने का आदेश, यह सब संस्थानों के भगवाकरण की ही कड़ी थे. वर्ष 2009 में मध्य प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पत्रिका देवपुत्र को सभी स्कूलों में अनिवार्य तौर पर पढ़ाए जाने का फैसला लिया था. संघ और भाजपा की प्राथमिकता शिक्षा का स्तर सुधारने और उसे वैज्ञानिक बनाने के बजाय हिंदू शिक्षा देने की है जिसकी वकालत आए दिन दीनानाथ बत्रा या बाबा रामदेव करते रहे हैं.

शिक्षा का अधिकार कानून अब तक पूरे देश में लागू नहीं हो सका है. पूरे देश के बच्चे कुपोषण और अशिक्षा से जूझ रहे हैं. ऐसे में संघ के रिमोट से चल रही केंद्र और राज्य सरकारें देश भर के संस्थानों में हिंदू एजेंडा लागू करने में जुटी हैं. यह देश के सौ सालों के स्वतंत्रता संघर्ष की विरासत और भारतीय संविधान की आत्मा को ध्वस्त करने की कोशिशें हैं. कालांतर में इनके परिणाम भयावह होंगे. (जनपथ से )
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(रचनाकार-परिचय:
जन्म:  30 अगस्त 1986 को  उत्तरप्रदेश के गोंडा जिले में।
शिक्षा: इलाहाबाद विवि से पत्रकारिता में एमए।
सृजन: विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएं और कहानियां प्रकाशित
संप्रति:  दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण में बतौर चीफ सब एडीटर कार्यरत
संपर्क : krishnkant1986@gmail.com)
  

दावेदारी फिर अनुरोध

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रजनी त्यागीकी कविताएं

तुम्हारी सदाशयता पर शक नहीं

तुमने कहा, सुरक्षा
लड़की ने सुना, क़ैद
क्या सचमुच तुमने सुरक्षा कहा
या सचमुच तुमने क़ैद कहा था
नहीं ! तुम्हारी सदाशयता पर शक ठीक नहीं
क्योंकि तुमने लड़की को धन भी कहा था
और वो भी पराया

फिर लड़की ने क्यों सुना क़ैद ?
शब्द उसके कानों तक पहुँच कर बदल कैसे गए?
या फिर वो ही बदल गई है?
लड़की बड़ी मुश्किल में है
जब से एक दिन उसने झाँक लिया
अनगिनत परिंदे उड़ते हैं उसके भीतर
पंख फड़फड़ाते और भी बड़ा आकाश चाहते हैं
लड़की इधर-उधर दौड़ती
हांफ-हांफ जाती है
इन्हें पकड़ने के लिए
बस में नहीं आते कम्बख़्त !
लड़की को चैन से बैठने नहीं देते
धन नहीं होने देते
एकदम ज़िंदा रखते हैं
पंखों की फड़फड़ाहट और इनकी चायं-चायं ने ही
ख़राब कर दिए हैं लड़की के कान
तुम्हारी सदाशयता पर शक ठीक नहीं!
तुम तो कहते हो 'सुरक्षा'
और लड़की सुनती है 'क़ैद '

8 मार्च : दावेदारी फिर अनुरोध

वैसे दिन तो सभी मेरे भी थे
पर दावेदारी के लिए एक दिन तो मिला
वैसे दावेदारी करना मेरे जीने का ढंग था ही नहीं कभी
मेरे जीने का ढंग तो प्रेम और मित्रता था
प्रेम का अनुवाद तुमने दासता किया
और दासों से कैसी मित्रता
चढ़ते गए तुम प्रभुता के पायदानों पर
मै क्योंकर रोकती
और पहुँच भी गए तुम सबसे ऊपर

सुनो, आज के दिन मैं तुमसे कहती हूँ
बहुत सन्नाटा है प्रभुता के शिखर पर
वहां का अकेलापन लील देगा तुम्हें
सुनो, वापस लौट चलो
ये कोई दावेदारी नहीं किसी दिन पर
मित्रता का अनुरोध है प्रेम भरा
क्योंकि मेरे जीने का ढंग प्रेम और मित्रता है

ऊर्जा की संभावना

तुम्हारे भौतिक जीवन में यदि मेरी कोई भूमिका होगी
तो मैं ज़रूर मिलूंगी तुम से ..एक दिन
क्योंकि प्रकृति का नियम है
जो विज्ञानियों ने खोज निकला है
पदार्थ के बनने को अणु करते हैं
इलेक्ट्रान का लेन-देन और जुड़ जाते हैं
तब तलक हमारी संवेदनाओं की ऊर्जाएं
मिलती रहेंगी स्वाभाविक बहाव में
क्योंकि ऊर्जा पदार्थ की मोहताज  नहीं होती.

आभार

रोज़ चली आती हो
बिना नाग़ा
नियम की बहुत पक्की
बहुत कर्मठ हो तुम
रास्ते हज़ार रोके कोई
हों कितने भी दरवाज़े बंद
अपनी मंज़िल पहुँच
जम ही जाती हो तुम
कई बार सोचा, नहीं दूँ ध्यान तुम पर,
पर तुम ज़िद्दी जमी हुई अपनी जगह
मुंह चिढ़ाती और भी जम जाती हो
दिलाती हो मुझे मेरा निक्क्मापन याद
धूल तुम्हें धन्यवाद् !!

जानती हूँ..तुम हो मेरे आस-पास

सुनहरे तिलिस्म का सागर है
दूर तक लहराता हुआ
असंख्य लहरें
व्यस्त हैं अपने रोज़मर्रा के कामों में
तूफ़ान और शान्ति दोनों को
एक साथ समेटे
इस किनारे बैठ जब छूती हूँ इन्हें
खरगोश सा स्नेह मेरी हथेलियों पर
आ फुदकता है
जानती हूँ किसी किनारे पर
तुम बैठे हो

रूह पर स्वामित्व कैसे हो

वो जो रौशन थी परिधि
वो नूर रूह का ही था
तुम घूमते रहे, उलझते रहे
परिधि से बारहा
वर्ना मुझ तक पहुँचने का रास्ता
कितना सीधा सा था
उस रास्ते में तुमको
अपने खो जाने का था शुबहा
सो परिधि पर ही चिन लिया
तुमने क़िला अधिपत्य का
मैं दे भी देती रूह को राजस्व में तुमको
मगर रूह के स्वामित्व का पट्टा कभी बना न था

लम्हों की प्रतिध्वनियां

साथ बिताये लम्हों की प्रतिध्वनियां
नई-नई व्याख्याएँ पेश करती हैं
उस दिन साथ बैठ कर खाते हुए
एक कौर मेरे मुंह के पास लाकर
तुमने निर्देश दिया, आ!
तुम्हारी उपस्थिति की तरंगों में सराबोर
तुम्हारी आँखों के तिलिस्म में डूबी मंत्रमुग्ध सी
एकदम यंत्रवत मैंने भी पालन किया
और मुझे छलते हुए तुमने
झट से कौर अपने मुंह में रख लिया था
ठगी हुई, आहत सी मैं हैरान हुई पहले
फिर तुम्हारी मज़बूत बाज़ू पर
ढेरों मुक्के बरसाए
और तुम हंस रहे थे बेसाख़्ता
मैं तो इसे प्रेम की
चुहलबाज़ी समझी थी
क्या इसी से मुझे समझ लेना था
कि दरअसल छल करना ही
तुम्हारा असल मिजाज़ है ..

गहरी जमी उदासी

कुछ इधर पड़ा है
कुछ उधर पड़ा है
मेरे भीतर का सब सामान तितर-बितर पड़ा है
उधर गिलास लुढका हुआ
कुछ घूंट जो उम्मीद थी उसमें
अब बह चली है फर्श पर
सपनों के बिस्तर पर हजारों सिलवटें हैं
अनधुले कपड़ों सा दर्द कुर्सी पर बिखरा
बिस्तर पर भी
मेज़ पर जमे बैठे हैं काम कई
टुकुर-टुकुर घूरते हैं
फर्श पर भी जम गया है कितना ही कूड़ा-कबाड़
कुछ चोटें हैं
कुछ गुस्सा है
बहुत सी खिन्नता है
मेरे भीतर का सब सामान-तितर बितर पड़ा है
म्मम्म..सोचती हूँ शुरुआत बुहारने से करूँ

स्थगित किये हुए दर्द

स्थगित किये हुए दर्द भी जागते हैं बारहा
किसी ज़रूरी काम के लिए लगाये रिमाइंडर की तरह
करते रहते हैं दावेदारी
स्थगित किये हुए दर्द भी डालते हैं असमंजस में बारहा
किसी क़ीमती याद से जुड़े क़ीमती सामान की तरह
जो टूट-फूट गया है
नहीं है किसी भी काम का
जिसे ना फेंकते बनता है ना रखते

स्‍थगित किए हुए दर्द ज्‍यादा कुछ कहते-सुनते नहीं
लेकिन वे बदलते रहते हैं
तुम्हारे जीवन की रंगत धीरे-धीरे
पायदान पर जमा होती धूल की तरह
जो बदलती रहती है उसका असल रंग
ग्रे से गहरा ग्रे, कत्‍थई से गहरा कत्‍थई, लाल से मैरून..


(रचनाकार-परिचय: 
जन्म:  26 नवंबर 1981 को दिल्ली में
शिक्षा:दिल्ली के आईपी कोलेज से इतिहास में एम. ए. और  IGNOU से पत्रकारिता में डिप्लोमा
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित 
संप्रति: दिल्ली में रहकर अनुवाद और और हिंदी साप्ताहिक आफ्टर ब्रेक के लिए लेखन
संपर्क: rajni2ok@gmail.com)  

अयोध्या : एक तहज़ीब के मर जाने की कहानी

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वसीम अकरम त्यागीकी क़लम से

कहते हैं अयोध्या में राम जन्मे. वहीं खेले-कूदे बड़े हुए. बनवास भेजे गए. लौट कर आए तो वहां राज भी किया. उनकी जिंदगी के हर पल को याद करने के लिए एक मंदिर बनाया गया. जहां खेले, वहां गुलेला मंदिर है. जहां पढ़ाई की वहां वशिष्ठ मंदिर हैं. जहां बैठकर राज किया वहां मंदिर है. जहां खाना खाया वहां सीता रसोई है. जहां भरत रहे वहां मंदिर है. हनुमान मंदिर है. कोप भवन है. सुमित्रा मंदिर है. दशरथ भवन है. ऐसे बीसीयों मंदिर हैं. और इन सबकी उम्र 400-500 साल है. 
यानी ये मंदिर तब बने जब हिंदुस्तान पर मुगल या मुसलमानों का राज रहा. अजीब है न! कैसे बनने दिए होंगे मुसलमानों ने ये मंदिर! उन्हें तो मंदिर तोड़ने के लिए याद किया जाता है. उनके रहते एक पूरा शहर मंदिरों में तब्दील होता रहा और उन्होंने कुछ नहीं किया! कैसे अताताई थे वे, जो मंदिरों के लिए जमीन दे रहे थे. 
शायद वे लोग झूठे होंगे जो बताते हैं कि जहां गुलेला मंदिर बनना था उसके लिए जमीन मुसलमान शासकों ने ही दी. दिगंबर अखाड़े में रखा वह दस्तावेज भी गलत ही होगा जिसमें लिखा है कि मुसलमान राजाओं ने मंदिरों के बनाने के लिए 500 बीघा जमीन दी. निर्मोही अखाड़े के लिए नवाब सिराजुदौला के जमीन देने की बात भी सच नहीं ही होगी. सच तो बस बाबर है और उसकी बनवाई बाबरी मस्जिद! 
अब तो तुलसी भी गलत लगने लगे हैं जो 1528 के आसपास ही जन्मे थे. लोग कहते हैं कि 1528 में ही बाबर ने राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवाई. तुलसी ने तो देखा या सुना होगा उस बात को. बाबर राम के जन्म स्थल को तोड़ रहा था और तुलसी लिख रहे थे मांग के खाइबो मसीत में सोइबो. और फिर उन्होंने रामायण लिखा डाली. राम मंदिर के टूटने का और बाबरी मस्जिद बनने क्या तुलसी को जरा भी अफसोस न रहा होगा! कहीं लिखा क्यों नहीं! 
अयोध्या में सच और झूठ अपने मायने खो चुके हैं. मुसलमान पांच पीढ़ी से वहां फूलों की खेती कर रहे हैं. उनके फूल सब मंदिरों पर उनमें बसे देवताओं पर.. राम पर चढ़ते रहे. मुसलमान वहां खड़ाऊं बनाने के पेशे में जाने कब से हैं. ऋषि मुनि, संन्यासी, राम भक्त सब मुसलमानों की बनाई खड़ाऊं पहनते रहे. सुंदर भवन मंदिर का सारा प्रबंध चार दशक तक एक मुसलमान के हाथों में रहा. 1949 में इसकी कमान संभालने वाले मुन्नू मियां 23 दिसंबर 1992 तक इसके मैनेजर रहे. जब कभी लोग कम होते और आरती के वक्त मुन्नू मियां खुद खड़ताल बजाने खड़े हो जाते तब क्या वह सोचते होंगे कि अयोध्या का सच क्या है और झूठ क्या? अग्रवालों के बनवाए एक मंदिर की हर ईंट पर 786 लिखा है. उसके लिए सारी ईंटें राजा हुसैन अली खां ने दीं.

किसे सच मानें? क्या मंदिर बनवाने वाले वे अग्रवाल सनकी थे या दीवाना था वह हुसैन अली खां जो मंदिर के लिए ईंटें दे रहा था? इस मंदिर में दुआ के लिए उठने वाले हाथ हिंदू या मुसलमान किसके हों, पहचाना ही नहीं जाता. सब आते हैं. एक नंबर 786 ने इस मंदिर को सबका बना दिया. क्या बस छह दिसंबर 1992 ही सच है! जाने कौन. छह दिसंबर 1992 के बाद सरकार ने अयोध्या के ज्यादातर मंदिरों को अधिग्रहण में ले लिया. वहां ताले पड़ गए. आरती बंद हो गई. लोगों का आना जाना बंद हो गया. बंद दरवाजों के पीछे बैठे देवी देवता क्या कोसते होंगे कभी उन्हें जो एक गुंबद पर चढ़कर राम को छू लेने की कोशिश कर रहे थे? सूने पड़े हनुमान मंदिर या सीता रसोई में उस खून की गंध नहीं आती होगी जो राम के नाम पर अयोध्या और भारत में बहाया गया? अयोध्या एक शहर के मसले में बदल जाने की कहानी है. अयोध्या एक तहजीब के मर जाने की कहानी है.
( वसीम अकरम त्यागी के फ़ेस बुक  स्टेटस से. खेद है कि कबाड़खानाजैसे ब्लॉग ने इसे संजीव भट्ट के नाम से पोस्ट किया है)  

(रचनाकार -परिचय:
जन्म :  उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक छोटे से गांव अमीनाबाद उर्फ बड़ा गांव में 12 अक्टूबर 1988 को ।
शिक्षा : माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता व  संचार विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक और स्नताकोत्तर।
सृजन : समसामायिक और दलित मुस्लिम मुद्दों पर ढेरों  रपट और लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
 संप्रति :  मुस्लिम टुडे में उपसंपादक/ रिपोर्टर
संपर्क : wasimakram323@gmail.com

भगवद गीता वाया सुषमा @ संघ

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कॅंवल भारती की क़लम से 




गीता पर ख़तरनाक  राजनीति


तवलीन सिंह वह पत्रकार हैं, जिन्होंने लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के पक्ष में लगभग अन्धविश्वासी पत्रकारिता की थी। लेकिन अब वे भी मानती हैं कि ‘मोदी सरकार ने जब से सत्ता सॅंभाली है, एक भूमिगत कट्टरपंथी हिन्दुत्व की लहर चल पड़ी है।’ उनकी यह टिप्पणी साध्वी निरंजन ज्योति के ‘रामजादे-हरामजादे’ बयान पर आई है। लेकिन इससे कोई सबक लेने के बजाए यह भूमिगत हिन्दू एजेण्डा अब ‘गीता’ के बहाने और भी खतरनाक साम्प्रदायिक लहर पैदा करने जा रहा है। 
मोदी सरकार की विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने हिन्दू धर्म ग्रन्थ गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग की है। उन्होंने गीता की वकालत में यह भी कहा है कि मनोचिकित्सकों अपने मरीजों का तनाव दूर करने के लिए उन्हें दवाई की जगह गीता पढ़ने का परामर्श देना चाहिए। इससे भी खतरनाक बयान हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहरलाल खटटर का है, जिन्होंने यह मांग की है कि गीता को संविधान से ऊपर माना जाना चाहिए। इसका साफ मतलब है कि खटटर भारतीय संविधान की जगह गीता को भारत का संविधान बनाना चाहते हैं।

दरअसल, मोदी के प्रधानमन्त्री बनते ही संघपरिवार का हिन्दुत्व ऐसी कुलांचे मार रहा है, जैसे उसके लिए भारत हिन्दू देश बन गया है और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत में पेशवा राज लौट आया है। शायद इसीलिए गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग करके संघपरिवार और भाजपा के नेता भारत को पाकिस्तान बनाना चाहते हैं। जिस तरह पाकिस्तान में कटटर पंथियों के दबाव में ईश-निन्दा कानून बनाया गया है, और उसके तहत अल्लाह और कुरान की निन्दा करने वालों के विरुद्ध फांसी तक की सजा का प्राविधान है, जिसके तहत न जाने कितने बेगुनाहों को वहां अब तक मारा जा चुका है। ठीक वही स्थिति भारत में भी पैदा हो सकती है, यदि कटटर हिन्दुत्व के दबाव में गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दिया जाता है। शायद कटटरपंथी हिन्दू पाकस्तिान जैसे ही खतरनाक हालात भारत में भी पैदा करना चाहते हैं, क्योंकि गीता के राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित होने का मतलब है, जो भी गीता की निन्दा करेगा, वह राष्ट्र द्रोह करेगा और जेल जाएगा। इस साजिश के आसान शिकार सबसे ज्यादा दलित और आदिवासी होंगे, क्योंकि ये दोनों समुदाय गीता के समर्थक नहीं हैं। इसके तहत अन्य अल्पसंख्यक, जैसे मुस्लिम, ईसाई और सिख समुदाय भी हिन्दू कटटरपंथियों के निशाने पर रहेंगे। वैसे इस खतरनाक मुहिम की शुरुआत नरेन्द्र मोदी ने ही जापान के प्रधानमन्त्री को गीता की प्रति भेंट करके की थी।

सवाल यह भी गौरतलब है कि गीता में ऐसा क्या है, जिस पर आरएसएस और भाजपा के नेता इतने फिदा हैं कि उसे राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करना चाहते हैं? सुषमा जी कहती हैं कि उससे मानसिक तनाव दूर होता है। मानसिक तनाव तो हर धर्मग्रन्थ से दूर होता है। ईसाई और मुस्लिम धर्मगुरुओं की मानें, तो बाइबिल और कुरान से भी तनाव दूर होता है। सिखों के अनुसार ‘गुरु ग्रन्थ साहेब’ के पाठ से भी तनाव दूर होता है। अगर तनाव दूर करने की विशेषता से ही गीता राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित होने योग्य है, तो बाइबिल, कुरान और गुरु ग्रन्थ साहेब को भी राष्ट्रीय ग्रन्थ क्यों नहीं घोषित किया जाना चाहिए। लेकिन, यहाँ यह तथ्य भी विचारणीय है कि बाइबिल, कुरान और गुरु ग्रन्थ साहेब में सामाजिक समानता का जो क्रान्तिकारी दर्शन है, क्या वैसा क्रन्तिकारी दर्शन गीता में है? क्या गीता के पैरोकार यह नहीं जानते हैं कि गीता में वर्णव्यवस्था और जातिभेद का समर्थन किया गया है और उसे ईश्वरीय व्यवस्था कहा गया है? यदि गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाया जाता है, तो क्या वर्णव्यवस्था और जातिभेद भी भारत की स्वतः ही राष्ट्रीय व्यवस्था नहीं हो जाएगी? क्या आरएसएस और भाजपा के नेता इसी हिन्दू राष्ट्र को साकार करना चाहते हैं, तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि भारत में लोकतन्त्र है और जनता ऐसा हरगिज नहीं होने देगी।

यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा के नेताओं का गीता-शिगूफा यादव समाज को, जो अपने को कृष्ण का वंशज मानता है, भाजपा के पक्ष में धु्रवीकृत करने की सुनियोजित राजनीति है। उत्तर प्रदेश और बिहार में यादवों की काफी बड़ी संख्या है, जो वर्तमान राजनीति में मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के वोट बैंक बने हुए हैं। लेकिन आरएसएस और भाजपा के नेता प्रतीकों की जिस राजनीति में अभी भी जी रहे हैं, उसका युग कब का विदा हो चुका है। आज की हिन्दू जनता 1990 के समय की नहीं है, जो थी भी, उसमें भी समय के साथ काफी परिवर्तन आया है। कुछ मुट्ठीभर कटटरपंथियों को छोड़ दें, तो आज के समाज की मुख्य समस्या शिक्षा, रोजगार और मूलभूत सुविधाओं की है, मन्दिर और गीता-रामायण की नहीं है। अतः यदि भाजपा गीता के सहारे यादव समाज को लक्ष्य बना रही है, तो उसे सफलता मिलने वाली नहीं है। (8 दिसम्बर 2014)






गीता, कृष्ण और भाजपा

ऐसा लगता है कि आरएसएस और भाजपा ने उत्तर भारत के यादवों को पार्टी से जोड़ने के लिए गीताका कार्ड खेला है। इसमें उन्हें सफलता तो मिलनी नहीं है, पर इस बहाने गीता, कृष्ण और यादव बहस के केन्द्र में जरूर आ गए हैं।

1.
पूर्ण बहुमत की सत्ता में आते ही आरएसएस और भाजपा के नेताओं को लगने लगा कि गीताको राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित किया जाना चाहिए। इससे पहले ऐसी आवाज न उठी थी और न उठाने की उन्होंने हिम्मत की थी। चूँकि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने इस अलोकतान्त्रिक मांग का विरोध नहीं किया है, इसलिए यह मानना होगा कि उनकी स्वीकृति भी इस खेल में है, अन्यथा क्या मजाल कि सुषमा स्वराज गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग करें और मरीजों को गीता पढ़ाने का परामर्श देने के लिए मनोचिकित्सकों को कहें। और, क्या मजाल हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहर लाल खटटर की कि वे यह बेहूदा वक्तव्य दें कि गीता का स्थान भारत के संविधान से ऊपर होना चाहिए। यह दो नेताऔं का खेल नहीं है, वरन् इसके पीछे एक सोची-समझी योजना काम कर रही है। कोई खटटर से पूछे कि क्यों होना चाहिए संविधान से ऊपर गीता का स्थान? इसका कोई तार्किक जवाब है उनके पास? अगर होगा भी, तो वही रटटू तोता वाला घिसा-पिटा जवाब कि यह आस्था का सवाल है, कि आस्था संविधान से ऊपर होती है, और यह कि गीता पर करोड़ों हिन्दुओं की आस्था है। अब आस्था है, तो क्या उसे संविधान से ऊपर कर दोगे? संविधान में आस्था का कोई महत्व नहीं है क्या? जब इसी आस्था का तर्क देकर कोई कटटरपंथी मुसलमान अपने कुरान को संविधान से ऊपर बताता है, तो आरएसएस और भाजपा के लोग ही ज्यादा हाय-हाय करते हैं।

2.
सुषमा स्वराज के भी तर्क देखिए, कितने हास्यास्पद हैं! वे कहती हैं कि गीता को पढ़ने से मानसिक तनाव दूर होता है, शान्ति मिलती है। तनाव से मुक्ति और शान्ति तो कुरान को पढ़ने से भी मिलती है, बाइबिल को पढ़ने से भी मिलती है और गुरुग्रन्थ साहेब का पाठ करने से भी मिलती है। इस बात की तस्दीक मुसलमानों, ईसाईयों और सिक्खों से की जा सकती है। अगर वे इसकी तस्दीक कर दें, तो सुषमा जी गीता के साथ ही कुरान, बाइबिल और गुरुग्रन्थ साहेब को भी राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दीजिए। क्या कर सकेंगी ऐसा?

3.
एक सवाल मेरे जहन में यह पैदा हो रहा है कि अगर मोदी सरकार ने गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दिया, हालांकि ऐसा होना सम्भव नहीं है, तो क्या हो सकता है? मेरा जवाब यह है कि अगर ऐसा हुआ, तो भारत में पाकिस्तान जैसे फासीवादी हालात पैदा हो जाएंगे । जिस तरह वहाँ कटटरपंथियों के दबाव में ईश-निन्दा कानून बना है, जिसकी आड़ में वहाँ के मौलवी अपने विरोधियों पर ईश-निन्दा करने का इलजाम लगाकर उन्हें ठिकाने लगवा देते हैं, उसी तरह की स्थिति भारत में हो भी जाएगी। यहाँ भी गीता की निन्दा करने वाले को राष्ट्र-द्रोह के अपराध में जेल में डाल दिया जाएगा। इसकी आड़ में कटटरपंथी हिन्दू अपने विरोधियों को ही ठिकाने लगाने का काम करेंगे और उनकी हिंसा के आसान शिकार दलित और आदिवासी ही ज्यादा होंगे, क्योंकि वे स्वयं को हिन्दू फोल्ड में नहीं मानते हैं। उनकी हिंसा की जद में मुसलमान और ईसाई तो पहले से ही हैं, तब वे और भी उनके निशाने पर आ जाएंगे।

4.
चूँकि ब्राह्मणों ने कृष्ण की असुर-विरोधी छवि पहले ही बनाई हुई है, इसलिए आरएसएस उसी का लाभ उठा रही है। उसके सारे कथावाचक आजकल इसी अभियान में लगे हुए हैं। कल ही मेरे शहर के एक ग्रामीण अंचल में कथावाचिका मंजू शास्त्री प्रचार कर रही थीं कि असुरों ने पृथ्वी पर देवताओं का जीना मुश्किल कर दिया था, जिनके विनाश के लिए कृष्ण को जन्म लेना पड़ा था। यह एक ऐसा मिथ्या प्रचार है, जिसका कृष्ण के जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। ब्राह्मणों ने कंस के संहारक के रूप में जिस कृष्ण को पुराणों में गढ़ा है, वे वास्तविक नहीं हैं। वास्तविक कृष्ण इन्द्र विरोधी, आर्य विरोधी, देवता विरोधी और उनकी पशुबलि तथा यज्ञ-संस्कृति के विरोधी थे। कृष्ण का जिस इन्द्र से भयानक संघर्ष चला था, उसका वर्णन कोई कथावाचक नहीं करता। आरएसएस के इतिहासकार भी इसे बताना नहीं चाहते। अगर वे उसे बता देंगे, तो कृष्ण के नाम से जो मिथकीय लीलाधाम उन्होंने खड़ा किया है, वह ताश के पत्तों की तरह बिखर जाएगा और उसी के साथ उनका भोगेश्वर भी समाप्त हो जाएगा।
कृष्ण पाण्डवों का समकालीन समझे जाते हैं, पर यह भूल है। धर्म-दर्शन और इतिहास के महाविद्वान धर्मानन्द कोसम्बी ने अपने ग्रन्थ भारतीय संस्कृति और अहिंसा’ (1948) में लिखा है कि कुरु देश में कौरवों और पाण्डवों का साम्राज्य होना और उसी के पड़ोस में, उसी समय, कंस का साम्राज्य होना सम्भव ही नहीं है। उनके अनुसार, महाभारत में कंस और कौरवों का कोई भी सम्बन्ध नहीं दिखाया गया है। पौराणिक काल में कृष्ण की और पाण्डवों की कथाओं का मिश्रण किया गया, पर उसे विश्वसनीय मानने के लिए कोई आधार नहीं है। कोसम्बी लिखते हैं कि कृष्ण गोरक्षक थे, जबकि इन्द्र के यज्ञों में गोहत्या होती थी। इसी गोहत्या को रोकने के लिए कृष्ण ने इन्द्र के साथ युद्ध किया था, जिसमें इन्द्र की पराजय हुई थी। कोसम्बी ने लिखा है कि यदि कृष्ण ने इन्द्र की अधीनता स्वीकार करके उसके नाम से यज्ञ-याग आरम्भ कर दिए होते, तो कृष्ण भी दिवोदास की तरह ऋग्वेद के एक प्रसिद्ध व्यक्ति होते। पर, गायें मारकर यज्ञ करना कृष्ण को पसन्द नहीं था, इसलिए इन्द्र ने उन्हें शत्रु माना और उनकी गणना असुर-राक्षसों में की गई। लेकिन कोसम्बी कहते हैं कि मध्य हिन्दुस्तान में कृष्ण की पूजा बराबर जारी थी। इसीलिए ब्राह्मण उन्हें अवतार बनाने पर मजबूर हुए, पर उनका विकृतीकरण करके। कोसम्बी के अनुसार, दास और आर्यों के संघर्ष से उत्पन्न बलिपूर्वक यज्ञ करने की प्रथा का एकमात्र विरोधी देवकीनन्दन कृष्ण ही था।
कोसम्बी के अन्य विवरण से पता चलता है कि सप्तसिंधु प्रदेश पर कब्जा करने के बाद जब इन्द्र पूर्व की ओर बढ़ा, तो उसका सामना कृष्ण से ही हुआ था। कृष्ण ने दस हजार सेना के साथ अंशुमति नदी के समीप, जहाँ उनकी छावनी थी, इन्द्र से मुकाबला किया था। इसका उल्लेख ऋग्वेद के आठवें मण्डल में सूक्त 85में मिलता है। यहाँ कृष्ण को तेज चलने वाला असुरकहा गया है। कृष्ण की व्यूह रचना जबरदस्त थी, जिससे इन्द्र को पराजय का सामना करना पड़ा था। इससे बौखला कर इन्द्र ने कृष्ण के देश में एक प्रसूतिगृह में घुसकर वहाँ सभी गर्भवती स्त्रियों को मार डाला था। भागवत के दशवें स्कन्ध से यह भी पता चलता है कि इन्द्र ने कृष्ण समर्थक कुछ अन्य स्त्रियों पर तेज पानी की बारिश करके (धार छोड़कर) उन्हें मारने की कोशिश की थी, तब कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर (स्त्रियों को किसी पर्वत की आड़ में ले जाकर) उनकी रक्षा की थी। ये वर्णन बताते हैं कि जो कृष्ण स्वयं असुर या अनार्य थे, वह असुरों का वध कैसे कर सकते थे?

5.
यह भी देख लेना चाहिए कि क्या गीता से कृष्ण का कोई सम्बन्ध बनता है? गीता गुप्तकाल में किसी समय लिखी गई रचना है, जिसे बाद में महाभारत में जोड़ा गया होगा। गीता की रचना से कृष्ण का कोई भी सम्बन्ध नहीं है। कृष्ण का समय ऋग्वेद का समय है, जबकि गीता के अध्याय 13के चैथे श्लोक में ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमöिर्विनिश्चितैःमें ब्रह्मसूत्रका उल्लेख स्वयं बताता है कि गीता की रचना ब्रह्मसूत्रके बाद हुई थी। ब्रह्मसूत्रके रचयिता वादरायण माने जाते हैं, जिनका समय 300ई. था। वह जैमिनी के समकालीन थे। पौराणिक परम्परा वादरायण और वेदव्यास को एक मानती है और पांच हजार साल पहले के महाभारत काल में ले जाती है, पर राहुल सांकृत्यायन कहते हैं कि इसका खण्डन स्वयं वेदान्त सूत्रकार के सूत्र करते हैं, जिनमें सिर्फ बुद्ध के दर्शन का ही नहीं, बल्कि उनकी मृत्यु (483ई.पू.) से छह-सात सदियों से भी पीछे अस्तित्व में आने वाले बौद्ध दार्शनिक सम्प्रदायों- वैभाषिक, योगाचार, माध्यमिक- का खण्डन है। बुद्धवचनों में, जो ऐतिहासिक माने जाते हैं, कहीं भी राम-रावण और कृष्ण-कंस का जिक्र नहीं है, पर पांचवी शताब्दी में लिखी गईं अट्ठकथाओं में जरूर उनका उल्लेख मिलता है। इस प्रकार  गीता चैथी या पांचवी सदी की रचना होनी चाहिए, जिसका देवकीनन्दन कृष्ण से कोई ऐतिहासिक मेल नहीं बैठता है।

6.
गीता का धर्म वर्णव्यवस्था और जातिभेद का धर्म है। गीता में कृष्ण के मुॅंह से अध्याय 4के श्लोक 13में कहलवाया गया है कि चातुर्वर्ण व्यवस्था का कर्ता मैं ही हूॅं, यह मेरे द्वारा ही रचा गया है।दूसरे शब्दों में गीता में वर्णव्यवस्था ईश्वरीय व्यवस्था है। ऐसे ग्रन्थ को अगर राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दिया जाता है तो वर्णव्यवस्था भी स्वतः ईश्वरीय व्यवस्था घोषित हो जाएगी, जबकि कृष्ण की वर्णव्यवस्था में कोई आस्था नहीं थी। (9दिसम्बर 2014) 

कॅंवल भारती हमज़बान में भी
 

(लेखक-परिचय:
प्रगतिशील -अम्बेडकरवादी विचारक, कवि, आलोचक और पत्रकार
जन्म: 4 फ़रवरी 1953 को उत्तर प्रदेश के रामपुर  में
शिक्षा: स्नात कोत्तर
सृजन: पंद्रह वर्ष की उम्र से  ही कविताई। दलित इतिहास, साहित्य,  राजनीति और पत्रकारिता पर हिंदी में अब तक 40 पुस्तकें प्रकाशित.
ब्लॉग:  कँवल भारती के शब्द 
संप्रति: स्वतंत्र लेखक व पत्रकार
संपर्क: kbharti53@gmail.com) 


   

 

नीलेश रघुवंशी को मिला शैलप्रिया स्मृति सम्मान

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बहुमुखी सृजनशीलता के लिए मशहूर युवा कवयित्री व लेखिका नीलेश रघुवंशी को रविवार को रांची में दूसरे शैलप्रियास्मृति सम्मान से अलंकृत किया गया। वन सभागार, डोरंडा में आयोजित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि ख्यात लेखिका अलका सरावगी ने उन्हें मान पत्र से नवाज़ा। उन्हें पंद्रह हजार रुपए की राशि पुरस्कार स्वरूप भेंट की। गौरतलब है कि रांची की प्रतिभावान कवयित्री शैलप्रिया का 1 दिसंबर 1994, को महज 48 साल की उम्र में कैंसर से जूझते हुए निधन हो गया था। गत वर्ष उनके परिजनों ने शैलप्रिया स्मृति न्यास का गठन किया। पहला शैलप्रिया सम्मान निर्मला पुतुल को दिया गया था। शैलप्रिया के पुत्र व कवि-पत्रकार प्रियदर्शनने कहा कि शैलप्रिया के सरोकारों से लैस नीलेश रघुवंशी जीवन की भट्ठी से निकली हुई रचनाकार हैं। हाशिये के लोगों के पक्ष में उनकी रचना खड़ी होती है। शैलप्रिया के छोटे  बेटे व कवि-पत्रकार  अनुराग अन्वेषी ने मान पत्र पढ़कर सुनाया। लेखकीय वक्तव्य में नीलेश ने सोचना आैर होना, हाय दइया, हुट जाएं, पिता की स्मृति में, सांकल, बेखटके और खेल का मैदान शीर्षक कविताओं का पाठ किया। अंतिम कविता में उन्होंने कहा, मैं बेखटके जीना चाहती हूं। आदिवासी लेखक और न्यास के सदस्य महादेव टोप्पो ने कहा कि भविष्य में अन्य भाषाओं में भी  स्त्री लेखन को सम्मानित किया जाएगा। अध्यक्षता सुख्यात उपन्यासकार मनमोहन पाठक ने की, वहीं पहले सत्र का संचालन सुशील अंकन ने किया।

महिला लेखन का बदलता परिदृश्य
दूसरे सत्र में समकालीन महिला लेखन का बदलता परिदृश्य विषय पर हिस्सा लेते हुए रविभूषण ने कहा कि इंदिरा गांधी जबकि बरसों तक प्रधानमंत्री रहीं, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद स्त्री लेखन ज्यादा सामने आया। इसमें हंस और राजेंद्र यादव की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हंस ने दलित और महिला लेखन को प्रमुखता दी। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में स्त्री लेखन अधिक मुखर हुआ। महिलाओं ने कई विधाओं में अभिव्यक्त करना शुरू किया। प्रियदर्शन बोले कि परंपरा व आधुनिकता दोनों स्त्री विरोधी हैं। परंपरा घर में बंद कर, तो आधुनिकता बाजार में खड़ा कर स्त्री को मारना चाहती है। कलिकथा बायपास जैसे अपने चर्चित उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार पा चुकीं अलका सरावगी ने लेखन स्त्री या पुरुष नहीं होता। स्त्री लेखन के नाम से कहीं हमारा एक घेटो तो नहीं बनाया जा रहा है। ठीक है कि स्त्री कई स्तरों पर शोषित है। लेकिन स्त्री सिर्फ स्त्री जीवन पर ही क्यों लिखे। वह इससे इतर संसार पर क्यों न लिखे। नीलेश ने महिला लेखन को अलग खांचे में देखे जाने से इंकार किया। कहा कि गांवों में स्त्रियों को आजादी मिल रही है, वहीं साहित्य में संघर्ष जारी है। राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष व लेखिका महुआ माजी ने अपने दोनों उपन्यास के मार्फत अपनी बात शुरू की। कहा कि उन्होंने पुरुष पात्रों के माधम से स्त्री जीवन को दिखाने की कोशिश की है। हालांकि उन्होंने जानबूझकर नहीं किया, लेकिन उनके स्त्री किरदार शोषित नहीं, बल्कि पुरुष को प्रताड़ित करते हैं।

शैलप्रिया की बिटिया की किताब हुई  लोकार्पित

अंतिम सत्र में अनामिका प्रिया की आलोचना पुस्तक हिंदी का कथा साहित्य और झारखंड लोकार्पित की गई। इसका प्रकाशन क्राउन बुक ने किया है। इस पर रांची विवि के प्रो. मिथिलेश ने बोलते हुए कहा कि यह किताब हिंदी साहित्य के कई अनजाने तथ्य सामने लाती है। । मौके पर विद्याभूषण, हरेराम त्रिपाठी चेतन, अशोक प्रियदर्शी, बालेंदु शेखर तिवारी, डॉ. माया प्रसाद, शैलेश पंडित, दिलीप तेतरवे, कलावंती, डॉ. भारती कश्यप, एमजेड खान, कामेश्वर श्रीवास्तव निरंकुश, रश्मी शर्मा, शिल्पी, अालोका, सुनील भाटिया, जसिंता और प्रशांत गौरव आदि ढेरों साहित्य प्रेमी मौजूद थे।

नीलेश की रचना यात्रा काफी विपुल और बहुमुखी: निर्णायक मंडल
 इस सम्मान के निर्णायक मंडल में रविभूषण, महादेव टोप्पो और प्रियदर्शन शामिल थे। इन्होने  कहा  है, ‘नब्बे के दशक में अपनी कविताओं से हिंदी के युवा लेखन में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाली कवयित्री नीलेश रघुवंशी की रचना यात्रा पिछले दो दशकों में काफी विपुल और बहुमुखी रही है। इसी दौर में भूमंडलीकरण के चौतरफ़ा हमले में जो घर, जो समाज, जो कस्बे अपनी चूलों से उख़ड़ रहे हैं, उन्हें नीलेश रघुवंशी का साहित्य जैसे फिर से बसाता है। जनपक्षधरता उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता भर नहीं, उनकी रचना का स्वभाव है जो उनके जीवन से निकली है। कमजोर लोगों की हांफती हुई आवाज़ें उनकी कलम में नई हैसियत हासिल करती हैं। 2012 में प्रकाशित उनके उपन्यास ‘एक कस्बे के नोट्स’ के साथ उनके लेखकीय व्यक्तित्व का एक और समृद्ध पक्ष सामने आया है। समकालीन हिंदी संसार में यह औपन्यासिक कृति अलग से रेखांकित किए जाने योग्य है जिसमें एक कस्बे के भीतर बेटियों से भरे एक मेहनतकश घर की कहानी अपनी पूरी गरिमा के साथ खुलती है। कहना न होगा कि इस पूरे रचना संसार में स्त्री-दृष्टि सक्रिय है जो बेहद संवेदनशील और सभ्यतामुखी है।‘


नीलेश : इक नज़र
जन्म: 4 अगस्त 1969, गंज बासौदा (म.प्र.)
सृजन: घर-निकासी, पानी का स्वाद, अंतिम पंक्ति में (कविता संग्रह ), एक कस्बे के नोट्स (उपन्यास),  छूटी हुई जगह (स्त्री कविता पर नाट्य आलेख), अभी ना होगा मेरा अंत  (निराला पर नाट्य आलेख), ए क्रिएटिव लीजेंड (सैयद हैदर रजा एवं ब. व. कारंत पर नाट्य आलेख), एलिस इन वंडरलैंड,  डॉन क्विगजोट,  झाँसी की रानी (बाल नाटक )
सम्मान: भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, दुष्यंत कुमार स्मृति सम्मान, केदार सम्मान, शीला स्मृति पुरस्कार, युवा लेखन पुरस्कार (भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता), डीडी अवार्ड 2003 और 2004
संप्रति: भोपाल दूरदर्शन से सम्बद्ध 

भास्कर के  15 दिसंबर 2014 के अंक में संपादित अंश प्रकाशित

41 अनाम शवों की अंत्येष्टि में रो पड़ा रांची का जुमार पुल भी

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संवेदनाएं शेष हैं अभी
















शहरोज़ जुमार पुल

तब अंग्रेजों का समय था। आवागमन भी कम था। तभी जुमार नदी को पार करने के लिए मेसरा के पास मुझे(जुमार पुल)बनाया गया। जब  घोड़ों पर सवार आजादी के दीवाने की टोलियां इधर से गुजरती थीं, तो मेरी छाती चौड़ी हो जाया करती थी। रविवार को जब मुर्दा कल्याण समिति, हजारीबाग के मोहम्मद खालिद और मुक्ति रांची के प्रवीण लोहिया की टीम पहुंची, तो छाती फिर चौड़ी हो गई। लगा शहीद उमराव टिकैत और शहीद शेख भिखारी की टोली आई हो। देश के उन बांकुरों ने जहां विदेशी शासन से मुक्ति दी और कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। वहीं इन युवाओं ने आज अनाम 41 शवों की अंत्येष्टि कर उनकी  आत्माओं को मुक्ति दी। इनमें दो महिलाओं के शव भी थे। पुलकित मैं तब भी हुआ था, जब सितंबर 2010 मेंखालिद व तापस ने मिलकर पचास अनाम शवों का एक साथ अंतिम संस्कार किया था। लेकिन तब सिर्फ हजारीबाग के नेक लोग थे, आज रांची के युवाओं की संवेदनशीलता उनके इंसानी जज्बे से लबरेज थी।

शोक में गिरे पेड़ों के पत्ते
 
 सुबह ही मुर्दा कल्याण समिति की टीम हजारीबाग से रिम्स, रांची पहुंच गई थी। जाति, धर्म और संप्रदाय के दायरे को लांघ कर मुर्दाघर में शवों को बाहर निकालने के लिए खालिद, डॉ. राजेंद्र हाजरा, मुकेश, रोहित, धनंजय व गौतम आदि आगे आए। रिम्स के किसी कर्मचारी के नहीं रहने और बिजली के अभाव ने भी इनके दायित्व निर्वहन में कमी न आने दी। कटे-छंटे मुर्दा जिस्मों में रसायनिक लेप लगाया गया। सभी शवों को पैक किया गया। वहीं इनकी मदद कर माला पांडेय, रचना बाड़ा और राखी कुमारी ने ममत्व को चरितार्थ किया। कई वाहनों पर 41 अनाम लाशों को लेकर जब टीम दिन के 1:45 बजे श्मसान घाट पहुंची, तो हमारी आंखें नम हो गईं। वहीं आसपास के पेड़ों से झर-झर पत्ते गिरने लगे। नदी का पानी भी कल-कल करने लगा।

नहीं पहुंचा कोई सरकारी नुमाइंदा
इधर,  प्रवीण लोहिया,अमरजीत गिरधर, आशीष भाटिया, दीपक लोहिया, पंकज चौधरी, परमजीत सिंह टिकु और हरीश नागपाल आदि मुक्ति के ढेरों सदस्य पहले ही चिता के लिए एक 407 और दो ट्रैक्टर से लकड़ी और तेल ,धूप आदि अन्य सामान के साथ घाट पर तैयार थे। शव यात्रा के पहुंचते ही सभी ने जनाजे को वाहन से उतारा। अरविंद, निजाम, तापस आदि ने चिता सजाई। शवों को उसपर लिटाने के बाद सभी ने पुष्पांजलि अर्पित की। चिता की परिक्रमा के बाद सुनील, फिरोज व मेराज ने इन्हें मुखाग्नि दी, तो सभी आंखें डबडबा गईं। ये सभी शव उनके थे, जो अलग-अलग हादसों में मारे गए। वे कहां के थे। किन-किन गांव-शहरों में उनका बचपन मुस्कुराया, जवानी की उमंग ने कहां अंगड़ाई ली, तो मौत उन्हें कहां से कहां ले आई। ये कोई नहीं जानता। कहीं उनके भाई इन्हें ढूंढ रहे होंगे, तो कहीं उनके मां-पिता की आंखें इंतजार में पत्थर हो चुकी होंगी। कोई मासूम पापा-पापा की रट लगाए रोज मां की गोद में सो जाता होगा। प्रशासन ने उनके दाह-संस्कार की अनुमति जरूर दी, पर उसका कोई प्रतिनिधि उन्हें नमन करने तक नहीं पहुंचा।


भास्कर झारखंड के 22 दिसंबर 2014 के अंक में प्रकाशित
 
   

शेरघाटी जो इक शहर है आलम में इंतिख़ाब

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वाया  रंग लाल के प्रेमिल क्षण




  







सैयद शहरोज़ क़मरकी क़लम से


हमें हमारे बचपन से जुड़ी हर
चीज़ से दूर ले जाया गया
हमें हमारी गलियों पटियों
और महफ़िलों से
बाहर ले जाया गया
बहुत टुच्ची ज़रूरतों के
बदले छीना गया हमसे
इतना सारा सब-कुछ!


किसी को बताएं तो कहेगा
व्यर्थ ही भावुक हो रहे हो तुम
इसमें तो ऐसा ख़ास कुछ भी नहीं
जगहों से प्यारा करने का रिवाज तो
कब का ख़त्म हो चुका!

-राजेश जोशी की एक कविता का अंश

लेकिन जब रिटायर्ड अडिश्नल मजिस्ट्रेट काजी हसन साहब का काजी हाउस से जनाजा उठा, तो हजारों की भीड़ देखते-देखते जुट गई। जबकि नौकरी के सबब उन्हें बिहार के कई शहरों में रहना पड़ा था। शेरघाटीआना-जाना भी बहुधा कम होता था। तब जूनियर इंजीनियर खलीक साहब ने कहा था कि उनकी भी तमन्ना है कि उन्हें भी अपने ही घर-गांव में दफ्न किया जाए। दिल्ली जो इक शहर है आलम में इंतिखाब शीर्षक लेख में मशहूर अंग्रेजी लेखक खुशवंत सिंह ने लिखा है कि अपने शहर को कौन प्यार नहीं करता? आखिर जिस शहर में आप जन्मते और बड़े होते हैं, उससे लगाव हो ही सकता है। लेकिन कितने लोग होते हैं, जो उस शहर के बीते कल को जानते हैं। दरअसल, बीते कल की जानकारी से शहर और लोगों के बीच का रिश्ता मजबूत होता है। सन् 1992की गर्मियों में जब मुझे पसीने से लथपथ इमरान अली मिले, कहा कि भाई नेहरु युवा केंद्र की एक स्मारिका निकाल रहा हूं।कुछ रचनाएं दो। शेरघाटी पर केंद्रित करने का प्रयास है। तब भी लगा था कि रिश्ता जड़ों से छूटता नहीं। शिक्षा और रोजगार के कारण देश के कई राज्यों और शहरों में डोलता रहा हूं। इस दरम्यान कुछ किताबें भी प्रकाशित हुईं। कई पत्र-पत्रिकाओं और प्रकाशनों में ऊर्जा खपाई। पर आज भी मेरी कहानियां शेरघाटी की जमीन पर ही खड़ी होती हैं। तब दिल्ली में था। एक ईद पर घर आया, तो गुरुवर नमर्देश्वर पाठक के स्नेहिल कंधों ने हौले से थपथपाया, मेरी पुस्तक कब आएगी। बाबा, जब आप चाहें, मैं तो यही चाहता हूं कि जल्द आ जाए। बोले, इसे तुम संपादित करोगे। इसके बाद सारी सामग्री मुझे सौंप दी। ये अदब से अदब का रिश्ता ही नहीं, मिट्‌टी की ललक रही कि इंकार न कर सका। दिल्ली पहुंच जब उनकी पांड़ुलिपि तैयार करने में था कि दैनिक भास्कर के रांची संस्करण से मेरा बुलावा आ गया। अम्मी पास थीं, बोलीं, बेटा बहुत हो गया परदेस, अब घर चलो। फिर 6 सितंबर 2010 को रांची आ गया। बाबा की किताब प्रकाशक के यहां रह गई। उसके नखरे माशा अल्लाह। पर मोहब्बत शय है आखिर वतन की कि तमाम मुश्किलों के दोबारा कविताओं का चयन किया। पिछले साल उनका कविता-संग्रह जिंदगी पोर-पोरउन्हें समर्पित कर दिया। इसकी प्रतियां उन्हें देते समय भाई इमरान बोले, रंगलाल हाईस्कूल स्थापना के सौ साल पूरे करने जा रहा है। इसपर बाबा, अनुपम, इमरान और मेरी सहमति बनी कि शताब्दी समारोह में क्यों न इसका विमोचन कराया जाए। बाबा स्कूल के शिक्षक ही नहीं, प्राचार्य तक रहे। 

इसके बाद लगातार इमरान के फोन आते रहे कि यार समारोह को लेकर शहर बड़ा उदासीन है। लेकिन पिछले दिनों हमारे युवा विधायक व बिहार के पंचायती राज्य मंत्री विनोद प्रसाद यादव की फेस बुक वाल पर समारोह को लेकर हुई बैठक की तस्वीरें दिखीं, तो सूरज की तरह रंग लाल सामने आ गया। इसी रंग ने तो हमेशा उष्मा और ऊर्जा दी है। तब वेदनारायण सिंह यानी वेदनारायण बाबू हेड मास्टर थे। अचानक एक दोपहर हमारी नौवीं की क्लास में आ धमके। उनकी बहुत दहशत थी। तब यही समझते थे। अब इसे सम्मान कहता हूं। वेदनारायण बाबू बोले, बच्चो कुछ भी पूछो। और किसी से कभी घबराओं नहीं। लेकिन यह भी कहा, सवाल करना बहुत सरल होता है, जवाब देना कठिन। उनसे ग्रहण किया आत्मविश्वास, तो मेरी पहली लघु कथा के संशोधक गुरुवर पाठक जी की सहजता, सिराज सर से मिली बेतकल्लुफी, मौलाना फकरू की बेबाकी और नसीम सर से हासिल तीक्ष्णता ने पल-पल मेरे होने को सार्थक किया है। इसके अलावा शायद ही कोई होगा जिसे शशिनाथ सर का गामा-बीटा, तो गोपी बाबू की अंग्रेजी का ठेठ देशज लहजा याद न हो। गर रामअवतार बाबू न होते, तो मुझ जैसे डेढ़-पसली को कौन एनसीसी में लेता। लेकिन जब हमलोगों की टीम पुराने कोल्ड स्टोरेज के पास मोरहर नदी किनारे फायरिंग के लिए पहुंची, तो दस में से नौ फायरिंग निशाने पर का कमाल इसी नाजुक कंधे का रहा था।

स्कूल की स्मारिका के प्रकाशन पर रंग लाल बार-बार प्रेमिल कर रहा है। भूलते-भागते उन क्षणों की स्मृतियों में लाल रंग के क्रोध और आवेश का मानो लोप ही हो गया हो। कभी स्कूल की लाइब्रेरी, तो कभी आंगन की तुलसी। बुलाती है बार-बार। उसी तुलसी के पास पहली बार मैंने अंग्रेजी में बिदाई संदेश पढ़ा था, पायजामें में घुसी टांग लगातार कांप रही थी। इसी स्कूल का छात्र होने के नाते ट्रेनिंग कॉलेज में आयोजित अनुमंडल युवा उत्सव में भाषण देकर अव्वल आया था। स्कूल में होनेवाली मिलाद की शीरनी, तो सरस्वती पूजा के प्रसाद की मिठास अब कहां मिलेगी। दरअसल यह मिठास मेरे शहर की हर गली-कूचे में है। मस्जिद की अजान से हटिया मोहल्ला में पौ फटती है, तो लोदी शहीद में मंदिर की घंटियों के साथ ही उजास फैलता है। वैदिक काल में भी हमारे शहर का ज़िक्र मिलता है, ऐसा कुछ लोग मानते हैं। वहीं गढ़ के अवशेष आदिवासी मुंडाओं के अतीत बनकर खड़े हैं। एतिहासिक सन्दर्भ मुग़ल काल के अवश्य मिलते हैं। किंवदंती है कि शेरशाह ने यहाँ एक वार से शेर के दो टुकड़े किए थे। जंगलों और टापुओं से घिरे इस इलाके को तभी से शेरघाटी कहा जाने लगा। शेरशाह ने यहाँ कई मस्जिदें , जेल , कचहरी और सराय भी बनवाया था। लेकिन जिस एन.एच-2 पर यह स्थित है। इसे पांच साल पहले तक जीटी रोड या शेरशाह सूरी मार्ग कहा जाता रहा है। पेशावर से कोलकता तक इसे शेरशाह सूरी ने बनवाया था। तब शेरघाटी मगध संभाग का मुख्यालय था। संभवता बिहार-विभाजन तक यही दशा रही। कालांतर में धीरे-धीरे ये ब्लाक बनकर रह गया। 1983में इसे अनुमंडल बनाया गया। जिला बनाने के लिए आंदोलन भी होते रहे हैं। मुस्लिम संतों और विद्वानों की ये स्थली रही है। वहीं प्राचीन शिवालयों से मुखरित ऋचाएं इसके सांस्कृतिक और आद्यात्मिक कथा को दुहराती रहती हैं। 1857 के पहले विद्रोह से गाँधी जी के '42 के असहयोग आन्दोलन में इलाके के लोगों ने अपनी कुर्बानियां दी हैं।




( रंग लाल हाई स्कूल, शेरघाटी  के साल पूरे होने पर प्रकाशित स्मारिका में )




अन्याय के ख़िलाफ़

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शहनाज़ इमरानीकी कविताएं

जंग अधूरी रह जाती है

कितना आसान है आगे बढ़ना
अगर सामने रास्ते है
मगर रास्ते सब के लिये कहाँ होते हैं
बाहर का सन्नाटा और अन्दर की खलबली में
कुछ लोग चुनौती को स्वीकारते है
खेतों, कारखानों में कई करोड़
किसान और मज़दूर
कई करोड़ बेरोज़गार युवा
जिनकी कोशिश जारी है
एक सम्पादक लिखता है
विद्रोह न्यायसंगत है
अन्याय के ख़िलाफ़
एक चित्रकार चित्रित करता है
किसान की खुदकशी
एक कवि लिखता है
धर्म के ठेकेदारों के षड्यंत्रों के विरुद्ध
कुछ लोग ढूँढ़ते हैं मसीहा
विचारहीन सम्मोहित भीड़ चल पड़ती है पीछे-पीछे
यह सिर्फ़ ज़बानी वादों का ज़माना है
ज़बान में बहुत ताक़त
कान तक पहुंची बात
क़लम से ज़्यादा असरदार है
जंग अधूरी रह जाती है
किसी और समय में कोई दूसरे
हथियारों के साथ पूरी होने के लिए।

रोज़ बदलती है तारीखें

कई सवाल हैं
कब ,क्यों , कैसे और किसलिए
सवाल जो कभी ख़त्म नही होते
हर आदमी अपने
सवालों के बोझ से दबा हुआ
रोज़ बदलती है तारीखें
बदलती हैं शताब्दियाँ
नहीं बदलते हैं सवाल
नहीं मिलते है जवाब
इतिहास में क़िस्से है राजाओं के
जंग और जीत के उत्थान और पतन के
कहाँ दर्ज है इतिहास भूख का, ग़रीबी का?
जिन्होंने बनाये क़िले और मक़बरे
मंदिरों और मस्जिदों को
उन हुनरमंद हाथों का, उन उँगलियों का?


मेरा शहर भोपाल

 शहर में भीड़ है
शहर में शोर है
शहर को खूबसूरत बनाया जा रहा है
पूंजीपतियों के सेवा ली जा रही है
ऊँचे वेतन और विशेषाधिकार
रिश्वत ,दलाली और कमीशन की मोटी रक़म
रौशनियों में डूबा शहर
जिसकी रात अब जागती है देर तक
फिर भी इसमें खुले आम लूटा जाता है इंसान
भीड़ में कोई पहचानी आवाज़ नहीं रोकती अब
सब कुछ समतल होता जाता है
मर चुकी संवेदनाओं दे साथ जीने लगा है शहर
अब बहुत तेज़ दौड़ने लगा है मेंरा शहर।

 
आत्महत्या

मुझे मालूम है
आत्महत्या पलायन है
मुझे मालूम है
मेरी चीख़ को तुम
चीखने का अभ्यास समझोगे
तुम्हारे लिए यह आशचर्य पैदा करने वाला तथ्य है
अपनी मुक्ति का भ्रम पालती रही हूँ झूठ ही
इस तरह तो कभी चुप्पी नहीं थी
निस्तब्धता तो ऐसी नहीं थी
काटती हूँ चिकोटी अपने आपको
पता नहीं इस प्रस्ताव पर सहमति हो या नहीं
पर नब्ज़ काट लेने दो मुझे
सरकारी तफ्तीशों में मेरी आत्महत्या
एक नैसर्गिक मौत मान ली जाएगी
कोई भी मृत्यु नैसर्गिक नहीं होती
घटना अगर स्मृति नहीं बनती
तो सिर्फ हादसा बन जाती है।

 इस जंग में

 लहू तपती रेत में जज़्ब हो गया
कुछ जीते जी मर गए
और कुछ को मार डाला गया

हड्डियां पत्थरों में मिलती जाती
धरती का तापमान बदल रहा
जिस्मों से लहू उबल रहा
दुनियां और देश की राजनीति में
हर पल इंसान मर रहा
कत्लगाह-ए-शहर में
आदम-ओ-हव्वा की औलादें
लहू में लथ-पथ

वे जिस्म जिनमें
ज़िन्दगी जीने का लालच था
ज़मींदोज़ हो गये
नफरत और जंग की हवा में
हज़ारों बेक़सूर मारे गए
जो बे-ख़ता वार करते हैं
लोगों को बग़ावत के लिए तैयार करते हैं

फैल रहा वहशत का जंगल
कोई नहीं है आग बुझाने वाला
जब वक़्त का फ़ैसला होगा
ज़ुल्म आखिरकार हद में आएगा
मज़हब और अक़ीदों के फ़लीते में
विस्फोट किया जा सकता है
तो लहू की आखरी बूँद को भी
आत्मा में बदला जा सकता है

हम लाश उठाने वाले लोग
हम कांधा देने वाले लोग
हमें भी तो लाशों के ढ़ेरो पर
एक लफ्ज़ नदामत लिखना है
इंसान के लिए इस ज़मीं पर
बाक़ी है मोहब्बत लिखना है।

 सभी नहीं जानते मौत के बारे में

फूल नहीं जानते मौत के बारे में
कौन ख़ामोश है कौन रो रहा है
वो तो मुस्कुराते रहते हैं
मछलियाँ नहीं जानतीं
समुन्द्र में कितने आँसू शामिल है
वो तैरती हैं बिना किसी वजह के
दरख़्त, परिंदे शायद जानते हों
जानती है हवा
चिताएँ जलती हैं रोज़ न जाने कितनी
जानती है ज़मीन
दफ़नाये जाते हैं हर पल ज़िस्म इसमें 
अब वयवस्था हुई जंगल और क़ानून बन्दूक़
मरने वाले की चीखों से
बहरे हुए हैं कान छिन गई हैं आवाज़ें

उफ़्फ़ के शब्द गले में ही अटके गए
ऐसी ही होती हैं सुबहें ऐसी ही हैं शामें
हम जानते हैं मौत को
जो आ जायेगी कभी भी
बिना बताये ख़ामोशी से।

पुराना डाकख़ाना

चौड़ी सड़कों में दबे
पानी के बाँध में समा गए
शहर की तरह एक दिन तुम भी
तमाम मुर्दा चीज़ों में शुमार हो जाओगे
वक़्त की चाबूक से छिल गई है राब्ते की पीठ
कुछ शब्दों को नकार दिया है
कुछ पुराने पड़ गए शब्दों को
मिट्टी में दबा दिया है
उखड़ी सड़क, झाड़-झंखाड़
और अकेले खड़े तुम
रोज़ अंदर-ही-अंदर का
खालीपन गहरा होता जाता है
पुराने धूल भरे कार्ड
पत्रिकायें, बेनाम चिट्ठियां
जाने कहाँ-कहाँ भटकी हैं
कुछ आँखें धुंधला गयी होंगी इंतज़ार में
कुछ आँखों से बहता होगा काजल
कुछ आँखें को आज भी इंतज़ार है
गुम हुई चिट्ठियों के मिलने का।

बातों के छोटे-छोटे टुकड़ों में

बहुत कुछ है
और बहुत कुछ नहीं है के बीच
बहुत सारी बेवकूफ़ियों के बाद भी
बची रहती है समझदारी
जैसे कुछ चीज़ों में
बचा रह जाता है अपनापन
अलमारी में रखा छोटा सा पर्स
पुरानी डायरी में
कविता की दो चार पंक्तियाँ
बातों के छोटे-छोटे टुकड़ों में
छुपी रहती है एक दुनियां
ज़िन्दगी में फ़ैला दर्द
जो तुम्हारी बातों में खो गया
मेरी सपाट दुनियां में
तुम्हारा होना
दिल से दिमाग़ के रास्ते पर
भटक जाती हूँ कई बार
लिखना चाहती हूँ एक कविता
प्यार, मौसम, बारिश, धूप, चाँद
सब कुछ होते हुए भी
न होने की आवाज़।

एक रात

सर्दी की रात में सहमा-सहमा पानी बरसता है
हवा दरख्तों को हलके से छू कर गुज़रती है
कुछ दैर शोर मचाते है पत्ते
करवट दर करवट वक़्त गुजरता है
रात के चहरे पर
खाली आँखों के दो कटोरे
दीवारों से फिसलते हुए
फर्श पर आ गिरते हैं
नींद बे आवाज़ आ कर कहती है
सोना नहीं है क्या ?


(रचनाकार-परिचय :
जन्म: भोपाल में
शिक्षा:  पुरातत्व  विज्ञानं (अर्कोलॉजी ) में स्नातकोत्तर
सृजन: पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। काव्य-संग्रह जल्द 
संप्रति: भोपाल में अध्यापिका
संपर्क: shahnaz.imrani@gmail.com  )


हमज़बान पर कवयित्री की और कविताएं भी पढ़ें    

 

रण जारी है ‘भेर’ के अस्तित्व के लिए

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संघर्ष कर रहा है आखिरी सिपहसालार छेदी मिस्त्री

लेखक के साथ छेदी मिस्त्री
 


























कुंदन कुमार चौधरीकी क़लम से

कभी रणभेरी की आवाज से सेनाओं में जोश भर उठता था। उनकी भुजाएं फड़कने लगती थीं। जब रणभेरी बजाने वाले सेना के आगे चलते, तो उन साजिंदों की आन-बान और शान के क्या कहने। वक्त बदला, युद्ध करने के तरीके में बदलाव आया। रण चलता रहा, लेकिन अपने ‘भेर’ से जोश भरने वाले काल-कवलित होते गए। लेकिन उस पीढ़ी के आखिरी सिपहसालार छेदी मिस्त्री की जिद और जज्बे ने ‘भेर’ बनाने और बजाने की कला को जीवित रखा है। आदिवासियों के नाम पर बने झारखंड की विडंबना है कि छेदी मुफलिसी में भी इस कला के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

बेटों ने सीखने से किया इंकार

रांची से 20 किलोमीटर दूर नगड़ी प्रखंड के हेथाकोटा गांव में छेदी मिस्त्री झोपड़ीनुमा घर में रहते हैं। गरीबी की मार और बीमारी से उनकी पत्नी आठ साल पहले असमय ही मृत्यु का ग्रास बनीं। छेदी ने अपने दो बेटे को इस पारंपरिक कला को सिखाने की कोशिश की। लेकिन भला ‘भेर’ की कला से पेट की क्षुधा कैसे शांत होती। छोटे बेटे ने भेर की गर्वीली आवाज छोड़ टाइल्स की खटखट में रोटी ढूंढ ली। वह शहर आकर टाइल्स लगाने का काम करता है। एक बेटा साथ रहता है और कभी कोई काम मिले, तो कर लेता है।

रोजी के लिए अब भेर ही सहारा

कभी छेदी की भेर सुनकर रातू महाराज खो जाया करते थे। उनकी शाबाशी से छेदी का सीना चौड़ा हो जाता था। जगन्नाथपुर रथयात्रा में उसकी भेर के बना रथ आगे नहीं बढ़ता था। मुड़मा मेले की शान था वह। लोगों से मिले इस सम्मान से कभी अपने ऊपर और अपनी कला पर अभिमान भी होता। पूर्वजों का आशीर्वाद मान पूजा की तरह ही भेर बजाता। अपने खानदानी साज पर उसे नाज है। अब शादी-ब्याह आदि मौकों पर गाहे-बगाहे इसे बजाने का अवसर मिलता है, कई कार्यक्रमों में भी बुलावा आता है, जिससे किसी प्रकार घर चलता है।

तांबे की जगह अब चदरे से बनता है

करीब पांच फुट लंबा भेर रणभेरी का ही झारखंडी संस्करण है। जब से सभ्यता का विकास हुआ, राजा आए और सेनाओं के बीच लड़ाई शुरू हुई, इसका उद्भव हुआ। मूलत: यह तांबे का बनता है। तांबा महंगा होने पर आजकल चदरे से भी इसे बनाया जाता है। आखिरी छोर में लकड़ी का मूठ बनाकर इसे हवा के प्रेशर से बजाया जाता है। इसमें काफी ताकत लगती है। लेकिन ताकत से ज्यादा इसे बजाने का अभ्यास है।


(लेखक-परिचय:

जन्म: 13 फरवरी, 1978
शिक्षा: बीएससी, बीजे

करीब 12 वर्षों से हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय.
सम्प्रति: दैनिक भास्कर, रांची में फीचर एडिटर
संपर्क: kundankkc@gmail.com )


भास्कर के 2 जनवरी 2015 के अंक में प्रकाशित 










ज़मीन का संघर्ष और संघर्ष की ज़मीन

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बदलते समय में भूमिसंबंध , किसान और जनसुनवाई
















अपर्णा की क़लम से 




भारत में लंबे समय समय से परंपरागत पेशे और विकास का झगड़ा चल रहा है और इस बात को साहित्य में भी कुछ लेखकों ने उठाया है . प्रेमचंद की प्रसिद्ध कृति ‘रंगभूमि’ में गाँव में लगाये जाने वाले कारखाने के परिणाम स्वरुप ग्रामीण और कुटीर उद्योगों की होनेवाली तबाही और ग्रामीणों के जीवन में पैदा होने वाले भ्रष्टाचार , नशाखोरी , वेश्यावृत्ति और मूल्यहीनता के विरोध में उपन्यास का नायक सूरदास लड़ता है . सूरदास का तर्क लम्बे समय तक गांधीवाद के एजेंडे के रूप में आलोचना के केंद्र में रहा है. क्योंकि उन्नीस सौ नौ में ‘हिन्द स्वराज’ में गाँधी ने योरोपीय औद्योगिक ढांचे और कार्यप्रणाली की आलोचना की थी और ‘रंगभूमि’ उस विचार का एक सर्जनात्मक रूप माना जाता है .इस आलोचना के पीछे भारत के पिछड़े जनसमूहों को मुख्यधारा में शामिल करने का तर्क था . माना जाता रहा है कि एक पिछड़े पूंजीवादी देश और वर्ण-व्यवस्था मूलक समाज व्यवस्था को आधुनिक बनाने के लिए औद्योगिक विकास की तेज प्रक्रिया बहुत ज़रूरी है .  नेहरू ने उद्योग को भारत का नया तीर्थ कहा और सार्वजनिक उपक्रमों की एक कतार देश में बनी . निजी उद्योगों के विकास के लिए जगह और धन के साथ कानूनी लचीलापन उपलब्ध कराया गया . इस प्रकार परंपरागत उत्पादन व्यवस्था की जगह बड़े उद्योगों का प्रसार तेजी से हुआ . बेशक इस प्रक्रिया में लघु और कुटीर उद्योगों ने तेजी से दम तोड़ना शुरू किया और बीसवीं शताब्दी बीतते बीतते कई कारोबार तो एकदम विलुप्त ही हो गए .

लेकिन आज जबकि स्थितियां कई करवट बदल चुकी हैं तो हमें उन चीजों पर बहुत गंभीरता से विचार करना चाहिए जो इस देश के वर्तमान को क्षत-विक्षत तो कर ही रहा है भविष्य को भी बहुत बड़े खतरे में डाल रहा है . इन चीजों में हम भारत की नयी आर्थिक और औद्योगिक नीति के तहत विकसित होने वाले खनन उद्योगों और उनके मालिकानों के रवैये को देख सकते हैं, जो आज देश को गृहयुद्ध के कगार पर ले आकर खड़ा कर चुका है .  यह और बात है कि अपने ही देश की जनता के खिलाफ सेना और अर्द्ध-सैनिक बलों को उतारने के मंसूबे के बावजूद शासक वर्ग पूरी तरह डरा हुआ है और धीरे-धीरे लोगों को नियंत्रित कर रहा है . यह नियंत्रण अनेक तरह की लोकतांत्रिक प्रणालियों के बहाने तानाशाहीपूर्ण ढंग से लोगों की जमीन और श्रम को हडपने की साजिशों के रूप में लगातार बढा है . देश के विभिन्न हिस्सों में होनेवाली जनसुनवाइयाँ और उनके खिलाफ लोगों के असंतोष के रूप में इसे देखा और परखा जा सकता है .


जन सुनवाई में पुलिस ने किया जाना महाल

छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले की तहसील घरघोड़ा के गांव जमुनीपाली, जहाँ कोयले की विशाल खदान में काम शुरू होने वाला है , में हुई जनसुनवाई में उसी गाँव के लोग शामिल नहीं हो पाए.  उन्हें वहां जाने से रोकने के लिए पुलिस का इतना अधिक बंदोबस्त किया गया था कि लोग जनसुनवाई के पिछले अनुभवों से भयभीत हो गए . 2008 में इस जिले में जनसुनवाई के दौरान पत्थरबाजी , लाठीचार्ज और गोलीबारी हुई थी . लोगों को फर्जी मुकदमों में फंसाया गया और खदान करने वाली कंपनी ने दर्जनों किसानों से जबरन उनकी जमीनें छीन ली . मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के मुलताई कसबे में भी बारह साल पहले पुलिस द्वारा की गई गोलीबारी में एक सोलह किसान मारे गए थे . इस प्रकार हम देखते हैं कि देश के विभिन्न हिस्सों में भूमि अधिग्रहण को लेकर अनेक रूपों में नीतिगत और अनीतिगत गतिविधियाँ चल रही हैं . किसानों के आक्रोश को दबाया जा रहा है और दमन का इतना वीभत्स रूप सामने आ रहा है कि अगर मीडिया लोगों को मनोरंजन के नशे में बेहोश न करे तो सचमुच लोगों के होश उड़ जाएँ . सिंगुर और लालगढ़ के घाव अभी सूखे नहीं हैं .

औने-पौने ली जा रही किसानों की जमीन
देश में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक कोई एक ऐसा राज्य नहीं बचा जहाँ विकास के नाम पर लाखों किसान-आदिवासियों की ज़मीनों का औने-पौने दाम अथवा थोडा सा मुआवज़ा दे विस्थापित कर कॉपोरेट और विदेशी कंपनियों को लाभ न पहुंचाया गया हो. इसी वजह से विस्थापन विरोधी आन्दोलन स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक चल रहें है. देश ब्रिटिश साम्राज्य के चंगुल से 200 वर्ष बाद मुक्त हुआ लेकिन आज फिर विकसित अवस्था में पहुँचने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के औपनिवेशीकरण के चपेट में है . निवेशीकरण की नीति पर परवान चढ़ता यह औपनिवेशीकरण ज्यादा खतरनाक और त्रासद है.200 वर्षों तक पूरा देश आर्थिक,सामाजिक और राजनीतिक रूप से गुलामी की जंजीरों को अपने वजूद पर झेलता रहा लेकिन उन दिनों मानसिक गुलामी से लोग बचे रहे . उन्हें पता था कि किस प्रकार उनके देश की सारी सम्पदा और दौलत ब्रितानी शासक लूट रहे हैं और इसकी खिलाफत करनेवाले का राजनीतिक दमन कर रहे हैं . इसीलिए राष्ट्रीय मुक्ति के बहुत लम्बे संघर्ष के बाद देश मुक्त हो सका लेकिन आज की स्थिति पहले के मुकाबले बिलकुल भिन्न है . आज की गुलामी पूरी तौर पर आर्थिक है.

विडम्बना यह है कि इसे ही आज़ादी बताने के लिए सैकड़ों चैनल , अखबार और पत्रिकाएं दिन-रात एक किये हुए हैं . लोगों के विवेक को पूरी तरह से काबू में कर लिया गया है क्योंकि अधिकांश मध्यवर्ग इस आर्थिक साम्राज्य का शेयर होल्डर है . लोग इसीलिए मानसिक गुलामी का शिकार हुए है क्योंकि इस नए परिदृश्य ने लोगों की वैचारिक क्षमता को कॉर्पोरेट सोच में तब्दील करने में आशातीत सफलता पाई है .हालांकि मुट्ठी भर लोग इस तंत्र की डोर संभालने में शामिल हैं लेकिन कॉर्पोरेट प्रचार-तंत्र इन मुट्ठी भर लोगों की स्थिति के बहाने बहुत ही मजबूती से अपने पक्ष को सही ठहराने में लगा हुआ है. यही तंत्र देश को किसी भी शर्त पर विकसित अवस्था में पहुंचाने की प्रतिज्ञा किये हुये है. बेशक विकसित होने की इस कोशिश में करोड़ों की आबादी अँधेरे में गर्त हो जाए .

विकास की परिभाषा क्या है ? इस प्रश्न का जवाब तलाशने से पहले एक प्रश्न और सामने आता है कि किस वर्ग के विकास की बात हो रही है ?  यहाँ विकास एक खास वर्ग के लिए ही है. उस विकास के नाम पर चमचमाती सड़कें वह भी मेट्रो शहरों में और उन शहरों में जहाँ बड़े-बड़े उद्योग स्थापित किये जाने हैं. इन चमचमाती सड़कों का तात्पर्य कच्चे माल के स्रोतों तक पहुंचना और बेतहाशा उन्हें लूटने से है .विकास का मतलब मोबाइल के टावर स्थापित करना है ताकि आर्थिक और राजनीतिक राजधानियों में बैठे मालिक काम पर आने वाले अधिकारियों से संपर्क कर वहाँ के अपडेट्स लेते रहें . विकास का मायने अपने बच्चों के लिए शहरों और दूरदराज के इलाकों में पब्लिक स्कूलों के स्थापना है ,जहाँ उस गाँव के बच्चों को दाखिला ही नहीं मिल सकता है जिसकी जमीन पर उसकी तामीर हुई है . विकास का मतलब असीमित और गैरजरूरी भौतिक सुख-सुविधाओं से है.जबकि देश की आधी से अधिक जनता अपनी आधारभूत जरूरतों को ही पूरा करने में असमर्थ है . ऐसे में यह विकास किस खास वर्ग के लिए मायने रखता है इसे समझना कोई टेढ़ी खीर नहीं है .

इस जगह पर मुझे मारिओ वर्गास लोसा का उपन्यास ‘किस्सागो’ याद आता है जिसमें विकास और प्रकृति के सम्बन्ध में बहुत बुनियादी और मौजूं सवाल उठाये गए हैं . आधुनिक सभ्यता के बरक्स आदिवासी जीवन-दृष्टि और अस्मिता के सवालों को उठानेवाले इस उपन्यास ने विकास की प्रक्रिया में किये जाने वाले विनाश की तीखी आलोचना की है . पेरू के माचीग्वेंगा समुदाय के आदिवासियों की मान्यताओं , नैतिकता और दृष्टि को न केवल उनकी ज़िन्दगी के बुनियादी प्रश्नों के साथ बल्कि विकास के मायाजाल को मानवीय ज़रूरतों के समानांतर सामने रखते हुए यह उपन्यास भारत के आदिवासी जीवन और उसमें लगाई जा रही सेंध और किये जा रहे विनाश पर हमें सोचने की जगह देता है . धरती के भीतर छिपी अकूत प्राकृतिक संपदाओं की लूट के बहाने झारखंड , उडीसा , छत्तीसगढ़ ,आंध्र प्रदेश , महाराष्ट्र आदि राज्यों में जिस तरह आदिवासियों को पिछड़ेपन का प्रतीक बताकर खदेड़ा जा रहा है वह भारत के सबसे ज्वलंत प्रश्नों में से एक है . सिर्फ आदिवासी और पहाड़ी इलाकों ही में नहीं बल्कि मैदानी इलाकों में तमाम सारे उद्योगों और प्लांटों के नाम पर भूमि पर जिस तरह कब्ज़ा जमाया जा रहा है वह पूँजी की अनियंत्रित ताकत के सामने लाचार ग्रामीणों और आदिवासियों की एकांगी गाथा ही है . जिस तरह से किसानों और आदिवासियों को लालच देकर और उनकी मज़बूरी का फायदा उठाकर उनके जीवनाधार के रूप में बची हुई भूमि अधिग्रहित की जा रही है वह पूँजी की ऐसी साजिश है जिसके खिलाफ आमतौर पर आवाज नहीं उठ रही है . जो आवाजें उठ भी रही हैं उन्हें दबाने के लिए जुल्म और दमन किया जा रहा है . अभी तक जनसुनवाई के जैसे तौर-तरीके सामने आये हैं वे सिर्फ इस जुल्म और दमन के ही एक पहलू को उजागर करते हैं . बेशक इसका दूसरा पहलू भी कम शर्मनाक नहीं है क्योंकि वहां केवल बिचौलियों और दलालों का बोलबाला है .

कुछ इसी तरह का मामला है विदेशी पूँजी-निवेश का , जो अंततः देशी ताकत , कच्चा माल और श्रमशक्ति के उपयोग से अपरिमित मुनाफा खड़ा करने का उपक्रम है . जहाँ-जहाँ विदेशी पूँजी-निवेश से उद्योग शुरू हो रहे हैं वहां-वहां भूमि अधिग्रहण और उससे पैदा हुए असंतोष की कहानियां देखी जा सकती हैं .विदेशी पूँजी का निवेश इस शर्त पर शुरू हुआ था कि विस्थापित परिवारों में से एक को रोज़गार और उचित मुआवजा मिलेगा . यह सब देने के आश्वासन के बदले देश में विशाल औद्योगिक संस्थानों की स्थापना करने वाले विकास की अनिवार्य शर्त है विस्थापन . इसका सीधा तात्पर्य है कि कॉर्पोरेट और सत्ता में बैठे लोगों की नज़रें इनकी ज़मीनों पर है .प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता वाले इलाके में विकास का सबसे अधिक जोर होता है क्योंकि यहाँ ज़मीनें सस्ते दामों में उपलब्ध हो जाती हैं और यहाँ विकास वे अपनी शर्तों पर कर सकते हैं. कहा यही जाता है कि ये विकास इन्हीं किसानों और आदिवासियों के लिए ही होना है चाहे वे उस तथाकथित विकास की मुख्यधारा में शामिल होना चाह रहे हैं या नहीं यह पूछने ,जानने और समझने वाला कोई नहीं .ऐसा नहीं है कि वे विकास नहीं चाहते . चाहते हैं लेकिन अपनी शर्तों पर और अपने हिसाब क्योंकि अभाव की ज़िन्दगी से वे भी त्रस्त रहते हैं , लेकिन प्रकृति के निकट रह वे पुरसुकून और अपने को सहज महसूस करते हैं. लेकिन उद्योगपति औद्योगिकीकरण, शहर का विकास ,विशेष आर्थिक क्षेत्रों का निर्माण , बुनियादी ढांचे के   निर्माण आदि के लिए ज़मीनें हडपते जा रहें हैं. लोग अपने पुश्तैनी घरों और स्थानों, परम्परागत आर्थिक कार्य-कलापों ,स्थानीय और लोक संस्कृति से ज़बरदस्ती ही भगाए जा रहें हैं . इसके नतीजे में नकारात्मक तरीके से धन का इतना बड़ा अम्बार खड़ा होना है कि पूंजीपती आर्थिक स्थिति जो टापू के रूप में थी अब विशाल पहाड़ में परिवर्तित हो एक बड़ी जगह घेर चुकी है जिसके नीचे गरीब और अधिक गरीबी में दबे चले जा रहें हैं.



जमीन का संघर्ष और संघर्ष की जमीन

ज़मीन की लड़ाई आज की नहीं है बल्कि हजारों वर्षों से चली आ रही है .पाषाण युग में दो आदिवासियों समूहों के बीच ज़मीन और पद के लिए युद्ध होते रहे हैं . उसके बाद ज़मींदारी प्रथा में गाँव के ज़मींदारों द्वारा किसानों की ज़मीनें हड़प ली जाती थीं और अब आज के इस युग में कॉर्पोरेट गिरोहों ने इस प्रक्रिया को अपने हिसाब से तेज कर दिया है . लेकिन पहले के मुकाबले आज ज़मीन के संघर्ष अधिक घिनौने , षड्यंत्रपूर्ण और खतरनाक हो गए हैं . आज कॉर्पोरेट और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ  समूचे पर्यावरण और प्रकृति के सत्यानाश करने में लगी हुई हैं . उत्तराखंड का चिपको आन्दोलन पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और उससे होने वाले पर्यावरण के विनाश के विरुद्ध एक बहुत बड़ी लड़ाई थी . देश के विभिन्न हिस्सों में लगाये जाने वाले परमाणु रिएक्टरों के कारण पैदा होने वाले खतरों , बांधों और टावरों , हवाई अड्डों से स्थानीय प्रकृति पर पडनेवाले असर और होने वाले विनाश को लेकर जैतापुर , नर्मदा के किनारे के हजारों गाँवों और पनवेल के आसपास के ग्रामीणों के विरोध को यूँ ही नज़रन्दाज नहीं किया जा सकता .

भारत में भूमि पर अधिकार और बंदोबस्ती एक जटिल प्रक्रिया रही है और उसमें धीरे-धीरे बदलाव भी आये लेकिन आज जब श्रमशील ताकतें धरती को नए सिरे से उपजाऊ बनाने के लिए पसीना बहा रही हैं उन्हें फिर से तहस-नहस करने का परिणाम बहुत घातक होगा . जो जमींन किसानों ने अपने विराट धैर्य से बचाए रखी वह उनके हाथ में किसी दैवीय उपहार के रूप में नहीं हासिल थी बल्कि आज़ादी के बाद हमारे देश में कृषि कार्यों के विकास और किसानों की स्थिति को सुधारने के लिए कई आन्दोलन किये गए और इन आन्दोलनों में किसानों और खेतिहर मजदूरों ने अपने जन नेताओं के नेतृत्व में बढ-चढ कर हिस्सा लिया . 1951 में विनोबा भावे ने गरीब और भूमिहीन किसानों के लिए राष्ट्रव्यापी  भूदान आन्दोलन चलाया जिसमे लाखों एकड़ भूमि दान में मिली और 1955 आते तक भूदान के बदले कई स्थानों पर यह ग्रामदान आन्दोलन में तब्दील हो गया . आज भी दान हो रहा है लेकिन यह चिंता बात है कि आज हमारे प्रतिनिधि जो तंत्र का प्रमुख हिस्सा हैं वे भी गाँव के गाँव नाममात्र के मुवाअजे पर दान करने में ज़रा भी संकोच नहीं कर रहे. जबकि देश में भूमि हदबंदी कानून, आदिवासी स्वशासन कानून जैसे कई गरीबोन्मुखी कानून वर्षों से लागू हैं, परन्तु आज तक उनका सही क्रियान्वयन नहीं किया जा सका। दूसरी तरफ गरीबों के अधिकारों का हनन करने वाले कानून जैसे भूमि अधिग्रहण अधिनियम, विशेष आर्थिक क्षेत्र अधिनियम, खान और खनिज अधिनियम आदि भी बनाये गये और बड़ी तीव्रता के साथ इन कानूनों का क्रियान्वयन भी किया जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में यह आवश्यक है कि न्याय और समानता के लिये कुछ मुद्दों पर तुरन्त कुछ कदम उठाये जायें।



हर जगह हो रहा है विरोध

अध्ययन से यह पता चलता है कि भूमि अधिग्रहण संबंधी कानूनों , प्रावधानों और तरीकों में सैद्धांतिक और व्यवहारिक र्रूप से ज़मीन आसमान का अंतर है . यानी कागज़ पर कुछ और तथा व्यवहार में कुछ और . हम जानते हैं कि पूरे देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हों या कॉर्पोरेट द्वारा स्थापित कोई प्लांट हो या खदानों से खनन कार्य हो सबसे पहले अनुमति मिलती है केंद्र और राज्य सरकार से और फिर शुरू होता है सर्वे का काम जिसमें गाँव-गाँव जाकर निजी भूमि,राजस्व भूमि,और शासकीय भूमि की नाप-जोख चालू होती  है .जबकि किसानों की और आदिवासियों की भूमि पर काम शुरू करने या कहें अधिग्रहित करने की अनुमति मिलती है ग्रामसभा में हुए निर्णय से , जो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से भी जयादा अहम् होता है अर्थात् इस भूमि पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी मान्य नहीं होता है. इसका सबसे सामयिक उदाहरण उड़ीसा के रायगड़ा ज़िले के नियमगिरि पहाड़ियों से बाक्साईट खनन के लिए 12 गावों में जनसुनवाई के लिए अलग-अलग दिन ग्रामसभा बुलवाई गई जिसमें से हर गाँव में खनन कार्य के लिए स्थापित वेदांता को एक सिरे से और एक सुर में खारिज कर दिया गया. यह जनसुनवाई उन  गांवों के आदिवासियों की एकता ,दृढ निश्चय, सकारत्मक दृष्टि , अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की जड़ को बचाए रखने का जज़्बा तारीफ़-ए-काबिल है. लेकिन यह जज्बा हर कहीं नहीं है अथवा जहाँ कहीं है उसे दबाया भी जा रहा है .

इसके विपरीत पूरे देश में भूमि अधिग्रहण के लिए चल रहे आन्दोलान और हो रही जनसुनवाई से संबधित समाचार किसी भी चैनल पर देखने को नहीं मिलते , न ही इन्हें अखबारों में प्रकाशित किया जाता है . यदि गाहे-बगाहे कुछ खबर छपी भी तो इतनी छोटी होती है कि लोगों की नज़र वहां तक नहीं पहुँच पाती . तंत्र का चौथा खम्भा अब पूरी तरह बिक चुका है कॉर्पोरेट के हाथों. इस मीडिया में पूरी तरह बाजारवादी और उपभोक्तावादी संस्कृति का पहरा लगा हुआ है .

उपभोक्ता संस्कृति के इस चकाचौंध के साथ-साथ भूमि -अधिग्रहण  के मामले पूरे देश में हर प्रदेश में देखे जा रहे हैं और इस कार्य में शासन का पूरा सहयोग है . और दूसरी बात यह कि भूमि अधिग्रहण केवल गाँव के किसानों और आदिवासियों की ज़मीनों का ही नहीं हो रहा है बल्कि शहरों में विकास के लिए (शहरों में विकास के मायने वातानुकूलित शॉपिंग काम्प्लेक्स और माल से हैं ) वहाँ रहनेवाली जनता को उनके घरों से बेघर कर या थोडा सा मुआवजा दे या ज़मीन के टुकड़े का आबंटन कर भूमि पर कब्ज़ा जमा अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेना भर ही है . वे शर्तों पर दस्तख़त करते हुए आम नागरिकों के हित की बात दरकिनार करते हुए कॉर्पोरेट और विदेशी कंपनियों को पीले चांवल दे आमंत्रित करते हैं. पॉस्को इसका बेहतरीन उदाहरण है .

जैसा कि मालूम है कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी ,प्रतिपक्ष पार्टी और राज्य सरकार ने मिल-जुलकर पॉस्को की स्थापना पर सहमति प्रदान की है. आप और हम सोच सकते हैं कि प्रतिपक्ष पार्टी गैर ज़रूरी मुद्दों पर संसद पर आवाज उठा विरोध दर्ज करती है लेकिन आम जनता के हित से जुड़े सीधे मामलों में वह सत्ता के साथ खड़ी हो हाँ में हाँ मिला आने वाले दिनों के लिए अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करने से नहीं चूकती है . उडीसा के तटीय ज़िले जगतसिंहपुर में स्थित तीन गांवों के करीब दस हज़ार लोगों को बेदख़ल कर पॉस्को (पोहाग स्टील कम्पनी) को स्थापित किया जा रहा है. पिछले 8 वर्षों से जारी व्यापक जन प्रतिरोध और आन्दोलन को नज़रअंदाज़ कर वर्ष 2014 के जनवरी माह में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने प्लांट की स्थापना को अनापत्ति प्रमाण पत्र दे दिया है . इस कम्पनी के 4004 एकड़ भूमि में से 1700 एकड़ भूमि पहले ही आबंटित हो चुकी है .पॉस्को (पोहाग स्टील कंपनी) प्रतिवर्ष 1.2 मिलियन टन स्टील का उत्पादन करेगी जिस पर लगभग 1.3 बिलियन डॉलर की लागत आएगी और इस संयंत्र से नदियों,जंगलों और पेड़-पौधों को जो नुकसान होगा उसका कोई बैरोमीटर/थर्मामीटर नहीं है जिससे उसे आंका जा सके. जिन लोगों को यह नहीं पता है वे भी जान लें कि मोइलीजी ने यह  कहा कि “जंगल हजारों वर्षों से जीवित अवस्था में है तो किसी संयंत्र की स्थापना के बाद भी वे वैसे ही बने रहेंगे” . है न गजब का सामान्य ज्ञान !

इस सरकारी सामान्य ज्ञान के विरुद्ध देश भर में आन्दोलन होते रहे हैं . उड़ीसा के रायगडा में वेदांता का विरोध,मध्यप्रदेश में पेंच-अदानी परियोजना को रद्द करने हेतु आन्दोलन , उत्तरप्रदेश में गाजीपुर में गंगा एक्सप्रेस वे परियोजना का के विरोध में आन्दोलन , दादरी में अनिल अम्बानी की प्रस्तावित कंपनी का विरोध ,उ.प्र. में इलाहाबाद ज़िले की करछना तहसील में जे.पी. कंपनी के  पावर प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण का विरोध, राजस्थान में नवलगढ़ की तीन सीमेंट इकाइयां लगाने के 18 गांवों में जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण करने का विरोध,छत्तीसगढ़ में जांजगीर चाम्पा ज़िले में 34 थर्मल पॉवर प्लांट लगाने की योजना का विरोध ,रायगढ़ ज़िले के आस-पास लगभग 55  स्पंज आयरन प्लांट , जिनमें जिंदल ग्रुप (सांसद नवीन जिंदल) का जेएसपीएल ,जेपीएल आदि हैं के लिए भूमि अधिग्रहण का विरोध इन आन्दोलनों की श्रृंखलाओं की कुछ कड़ियाँ भर हैं .

रायगढ़ का उदहारण

ज्ञातव्य है कि रायगढ़ में जिंदल को आबंटित कोल खदानों से खनन कार्य के लिए आदिवासियों और किसानों की हजारों एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया गया . जबकि मुवाअज़ा कुछ लोगों को ही मिला . इसके साथ ही स्थाई काम का अभाव हमेशा की ही तरह बना रहा . लगभग 35 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि और 11 हजार हेक्टेयर वनभूमि गैरकानूनी ढंग से  खदानों और उद्योगों के कब्जे में चली गई है , जिनमें कृषि मजदूरों और परम्परागत रूप से काम करने वाले ग्रामीणों तथा हस्तशिल्प का काम करने वाले, लुहार ,सुनार, बढई, कुम्हारों की भी ज़मीनें हैं .ये ज़मीनें उनसे जनसुनवाई का दिखावा कर ली गई हैं  .इसके तहत यह पक्का वादा किया गया था  कि उनकी ज़मीन के बदले बेरोजगार हुए स्थानीय लोगों को रोज़गार अवश्य दिया जाएगा . लेकिन देखा यही गया है कि जैसे ही जनसुनवाई मालिकानों के पक्ष में होती है कम कृषि भूमि वाले ग्रामीणों को कम योग्यता के कारण नकार दिया जाता है . जिनकी ज़मीनें अधिग्रहित नहीं हुई उन्हें रोज़गार सम्बंधित अपनी बात रखने कहीं कोई मौका नहीं मिलता और जिनकी ज्यादा ज़मीनें उद्योगों के पास चली गई हैं और उस परिवार में कोई पढ़ा-लिखा है तो अपना पल्ला झाड़ने के लिए उन्हें कामचोर ,अयोग्य और अविश्वसनीय मान नौकरी देने से इनकार कर दिया जाता है लेकिन इसके उलट यदि आप दिल्ली,पंजाब या हरियाणा से हैं तब आपको प्रबंधन में सबसे ऊपर की श्रेणी में रखा जाएगा . छतीसगढ़ छोड़कर यदि आप किसी अन्य राज्य के हैं तब आपको दूसरी श्रेणी पर काम मिलेगा. छतीसगढ़ के भीतर राजनीतिक रसूख रखने वाले को कम्पनी में तीसरी श्रेणी पर रखा जाता है.  आप और हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि विकास और रोज़गार के नाम पर ये उद्योगपति किस तरह का झांसा देते हैं .

रायगढ़ ज़िले में वर्तमान में रोज़गार कार्यालय में लगभग 1.50 लाख बेरोजगार पंजीकृत हैं . शासन भी अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करते हुए प्रतिवर्ष रोज़गार मेले का आयोजन करता  है लेकिन उनमें से किसी का चयन नहीं किया जाता क्योंकि ये लोग उनके द्वारा तय किये हुए मापदंड को पूरा  नहीं करते हैं. यह सोचने की बात है कि जब उद्योग स्थापित करते समय रोज़गार देने के वादे किये जाते हैं तब न तो उनकी योगता को परखा जाता है और न जांचा जाता है क्योंकि यदि अधिग्रहण से पहले ही इन बातों पर विचार कर लिया जाए तो वास्तविक स्थिति दोनों पक्षों के सामने आ जायेगी . एक बात और,यदि उद्योग स्थापित हो भी गया तब विस्थापित लोगों में से लोगों को ट्रेनिंग दे उन्हें काम के योग्य बनाया जाए . लेकिन वास्तव में जिन लोगों को काम पर रखा जाता है उन्हें दरअसल मजदूर बनाया जाता है . जो किसान और आदिवासी हैं वे केवल अपने परम्परागत कार्यों को ही करने में सक्षम होते हैं लेकिन अपना सब कुछ दांव पर लगाने के बाद वे न तो घर के होते हैं न ही घाट के , क्योंकि नए रोजगार के लिए अकुशल होने के कारण अब हर जगह उन्हें सिर्फ मजदूरी का काम करना पड़ता है . कुछ किसान दूसरे राज्यों में पलायन कर लेते हैं. मध्यम किसान से टैक्टर और बोलेरो खरीद किराए पर उठा बैंक के ऋण को चुकता करने की व्यवस्था में जुट जाते हैं.जबकि छोटे किसान कम्पनी के ठेकेदारों के नीचे मजदूरी करने लगते हैं.जबकि भूमिहीन लोग कंपनियों के अधिकारियों के  यहाँ घरेलू काम करने को मजबूर होते हैं . यह सोचने की बात है कि जिन लोगों ने ताउम्र अपना गुजारा कृषि कार्यों से किया है बिना किसी उचित प्रशिक्षण के उन्हें दूसरे काम की कुशलता कहाँ से मिलेगी ?

रायगढ़ छतीसगढ़ के पूर्व में स्थित जिला है और जिसकी जनसंख्या लगभग 18 लाख की है.आज़ादी से पहले यहाँ गोंड(आदिवासी) राजाओं का शासन रहा है , जिन्हें जीवनयापन के लिए कृषि योग्य भूमि जंगलों के भीतर दी  गई थी , ताकि टैक्स के रूप में अनाज और वनोपज राज्य को मिलता रहे. पारंपरिक रूप से जंगलों और खेती पर निर्भर रहने वाले आदिवासियों और किसानों की आवश्यकता उनकी मूलभूत जरूरतों पर ही आकर खत्म हो जाती है . रायगढ़ के जंगलों में महुआ,चार,साल,साजा,तेंदू,खम्हार आदि वनोपजों के बड़े पेड़ हैं तो दूसरी तरफ चिरौंजी,लाख,तसर आदि कंदमूल और वनौषधियां हैं जिनके आधार पर उनका जीवनयापन आसानी से हो जाता (है) था . अब चूँकि औद्योगिक विकास के नाम पर वर्तमान में रायगढ़ जिले में 54 स्पंज आयरन प्लांट चालू स्थिति में हैं और लगभग 15 पॉवर प्लांट आम जनता के नाम पर उदयोगों के लिए बिजली का उत्पादन कर रहें हैं इसलिए वन और पर्यावरण पर इसका क्या असर पड़ रहा है इसे आसानी से समझा जा सकता है . दूसरी ओर रायगढ़ ज़िले में कोयला का अथाह भण्डार है . यहाँ ए.सी.सी ,जिंदल,  मोनेट और निकी जायसवाल की ओपन कास्ट और अंडर ग्राउंड कोल माइंस हैं . इस बात से हम निश्चित तौर पर यह अनुमान लगा सकते हैं कि जहां इतने विशाल स्तर पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है वहां पर्यावरण किस हाल में होगा ? पूरे ज़िले में दस बड़े संयंत्रों द्वारा निजी और शासकीय भूमि को मिलाकर लगभग 1630.670 हजार  हेक्टेयेर भूमि का अधिग्रहण कर लोगों को विस्थापित किया गया है .

ये आंकड़े केवल कुछ संयंत्रों द्वारा अधिग्रहित भूमि के हैं . इसमें जो कृषि भूमि थी और जिस पर वर्ष भर में दो फसलें ली जाती थीं वह तो किसानों के हाथ से चली ही गई .इसके साथ-साथ जलस्रोतों , जिनमें ज़िंदा नाला का पानी , रामझरना ,कई तालाबों , नदियों में केलो ,कुरकुट ,महानदी और मांड नदी का पानी संयंत्रों के लिए सरकार ने उपलब्ध करवाया . इतना ही नहीं प्राकृतिक जलस्रोतों , बांधों और जंगलों में औद्योगिक कचरा और संयंत्रों से निकलने वाली फ्लाई एश,कोयले का चूरा, डीजल, मोबिल तेल बेहिचक डस्टबिन समझ डाला जाता रहा है ,जिससे जलाशयों और तालाबों में मिलने वाली मोंगरी,कोतरी, गिना, बांबी, गाजा,चिंगरी इन छ मछलियों का अस्तित्व ही लुप्त हो चुका है. भूमि का जल स्तर नीचे बहुत गहरे तक पहुँच गया है इस कारण पानी की किल्लत का सामना करना पड रहा है. केवल पीने के पानी की कमी ही नहीं , निस्तारण के काम के लिए भी पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है . औद्योगिक प्रदूषण के कारण यहाँ के लोग अनेक बीमारियों से ग्रस्त हो चुके हैं. कुछ ब्रेन टूयमर से तो ढेरों लोग चर्म रोगों से . कोई आँखों की जलन से तो किसी को अस्थमा और श्वांस की बीमारियों से परेशानी है . पानी की खराबी से हड्डियों का टेढ़ा और कमज़ोर पड़ना आदि  असर दिखाई दे रहा है.  इतना ही नहीं चारागाह,वनोपज संग्रहण,पशुपालन जैसे आजीविका के साधन पूरी तरह से खत्म हो चुके हैं. सबसे ज्यादा संकट आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा पर पड़ा है .

इन सब स्थितियों का गरीबों के जीवन पर बहुत बुरा असर पड़ा है . वर्तमान स्थिति में जिस तरीके से रायगढ़ ज़िले में एच.आई.वी. एड्स के मरीजों की संख्या में वृद्धि हुई है उससे कुछ मजबूर महिलायों के द्वारा देह व्यापार जैसे गर्हित रोज़गार के साधनों को अपनाने से भी इनकार नहीं किया जा सकता है. कंपनियों के मालिकों और स्थापना की अनुमति देने वाले आकाओं को कोई चिंता नहीं कि इस तरह से किस प्रकार का समाज निर्मित होगा ? उन्हें अपने प्रदेश को देश भर में तकनीकों से लैस और आधुनिक बनाना है. राजधानी रायपुर में नया रायपुर बसाने की कवायद में वहाँ से हज़ारो लोगों को विस्थापित किया गया. विस्थापन की शर्त पर तरक्की का यह रूप देश में हर जगह दिखाई देना लगा है .



अरहर की टाटी गुजराती ताला

सरकार और उद्योगपति आदिवासियों, किसानों को उनकी भूमि से विस्थापित कर मुआवजा बाँट रही  है .जबकि आदिवासियों की भूमि के अधिग्रहण के बारे में धारा 170 “स” एवं अनुसूची 05 में पेसा अधिनियम जैसा विशेष अधिनियम बनाया गया है लेकिन इसका अमल कहाँ और कब होता है ? जबकि पेसा कानून अनुसूची पांच के तहत आने वाले आदिवासियों की सुरक्षा और स्थितरता के लिए ही बनाया गया  है . यहाँ तक कि उनके क्षेत्र में उद्योग स्थापित करने की सहमति के अधिकारों का संविधान ने पूरी तरह से विकेन्द्रीयकरण कर दिया है अर्थात् सत्ता की सबसे छोटी इकाई ग्रामसभा  इस बात का निर्णय बिना किसी के दबाव में आकर कर सकती है . उडीसा में स्थापित होने वेदांता कम्पनी के विरुद्ध बारह गाँव के आदिवासियों ने जनसुनवाई में विपक्ष में मत दे कर पूरी दुनिया में एक  मिसाल कायम की है .लोकतंत्र की इस सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई में जंगल में रहने वाले इन अशिक्षित आदिवासियों ने जीत हासिल की  .लेकिन ऐसी दृढ़ता और दबाव से मुक्त होकर कम ही जगह निर्णय आदिवासियों के पक्ष में हो पाते हैं ,उनमे सबसे बड़ा कारण कुछ लोगों का लालच की गिरफ्त में आ जाना या कुछ लोगों का अपने फायदे के लिए उद्योगपतियों और प्रशासन के हाथों की कठपुतली या साफ़ शब्दों में कहे तो दलाल की भूमिका में आ जाना है . रायगढ़ में भी स्थापित अनेक वृहद् उद्योगों के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए प्रशासन के तमाम आला अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा मिलकर धारा 4,6 और धारा 9 की एवं पेसा या पंचायत(एक्सटेंशन टू शेडूयल एरिया) अधिनियम 1996 का ,वनाधिकार क़ानून और खनन कानून का खुल कर उल्लघंन किया गया है .जबकि बिना प्रशासन के सहयोग और मिलीभगत के पेसा क्षेत्र में एक इंच भी ज़मीन का डायवर्सन नहीं हो सकता . जबकि वास्तविकता यह है कि ऐसी स्थिति में हजारों एकड़ भूमि का डायवर्सन हुआ है .

जनसुनवाई पहले बंद कमरों में की जाती थी जिसमें कोई पारदर्शिता नहीं होती थी .लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं और किसानों के दबाव और मांग के लिए जन आन्दोलन किये गए जिसके बाद जनसुनवाई को सार्वजनिक किया गया. नहीं तो जिसके पक्ष को लेकर चर्चा होनी है उसे ही इसमें शामिल होने का अधिकार नहीं था .भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में एस.डी.एम. के कार्यालय से धारा 4 लगाकर सूचित किया जाता है .3 महीने बाद धारा 6 लगाकर भूमि अधिग्रहण से जुडी आपत्तियों को आमंत्रित किया जता है, जिसमें ग्राम सभा के प्रस्ताव को पूरे कोरम के साथ होना अनिवार्य है . इसके बाद यदि धारा 9 के तहत कोई आपत्ति नहीं है तब मुआवजा, पुनर्वास,  रोज़गार, मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने की शर्तों पर भूमि अधिग्रहण का काम पूरा किया जाता है. जबकि पेसा अधिनियम के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण करने की प्राथमिकता और निर्णय  के सभी अधिकार ग्रामसभा  को मिले हुए हैं .लेकिन जानकारी के अभाव में पेसा अधिनियम का पूरा लाभ प्रभावितों को नहीं मिल पा रहा है. इस कमी के बाद भी नियमगिरि (उडीसा) , केरल में कोकाकोला आदि में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में कोयला खदानों की जांच में अब तक 11 खदानें और हिमांचल प्रदेश में 4 हाइड्रो पॉवर रद्द किये गए हैं.

नए उद्योगपतियों द्वारा विकास के बड़े-बड़े दावे ही नहीं किये जाते बल्कि उन पर अमल भी किया  जाता हैं – स्कूल ,अस्पताल,  क्लब, पक्की सड़क,बिजली, पानी, मोबाइल के टावर आदि लगाने और बनाने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता दूर से ही दिखती है लेकिन स्थानीय रूप से देखने पर हाथी के दांतों की असलियत सामने आ जाती है . वास्तव में ये सारी सहूलियतें गाँववासियों के लिए नहीं होतीं बल्कि यहाँ संयंत्रों में काम करने आये बड़े अधिकारियों ,प्रबंधक वर्ग और कर्मचारियों की सुविधा के लिए होते हैं. जिसमें सी.एस.आर. के नाम पर समाज के कल्याण के बहाने वे अपना नफ़ा पहले देखते हैं . वहां खोले गए स्कूलों में न तो आदिवासी बच्चों और न ही ग्रामीण बच्चों का एडमिशन हो पाता है और न ही वहां खुले अस्पतालों में इन गरीब विस्थापितों के अपने लोगों का मुफ्त इलाज किया जाता है क्योंकि दोनों ही जगह का फीस उनकी पहुँच से बाहर होती है . केवल विकास के नाम पर सड़क और मोबाइल के टावर का खुलकर उपयोग करना सीख जाते  है. सड़क निर्माण का भी अपना एक समीकरण और सूत्र है.वह ऐसे कि सडकों का विकास किया गया है तो ऑटो मोबाइल वाले उद्योगपतियों की चांदी हो रही है , कारण उनकी दोपहिया और चार पहिया गाड़ियों की बिक्री में वृद्धि हुई है. कभी सरकार ने रेल लाइन बिछाने का बेड़ा इतने जोर-शोर से नहीं उठाया क्योंकि रेल लाइन बिछाने के बाद  वह मुनाफ़ा उद्योगपतियों से नही मिल पाता जो मोटरगाड़ियों से मिलता है . इसीलिए पूरे देश में जितनी तरक्की और बिक्री ऑटोमोबाइल कम्पनियों की हुई है उसके मुकाबले कोई दूसरा नहीं.



वास्तविकता को जानना बहुत ज़रूरी है

इन्ही सब खामियों और पूरे देश भर में चल रहे भूमि अधिग्रहण विरोधी आन्दोलन के चलते 120 वर्ष पुराना भूमि अधिग्रहण क़ानून 1894 पूरी तरह से निरस्त कर एक जनवरी 2014 से भूमि अधिग्रहण , पुनर्वास एवं पुनर्व्यवास्थापन में पारदर्शिता अधिनियम 2013 लागू गया है. गौरतलब है कि पिछले साल 5 सितम्बर 2013 को संसद के दोनों सदनों द्वारा मानसून सत्र में यह विधयेक पारित किया गया एवं 27  सितम्बर 2013 को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल जाने के बाद यह क़ानून बना . विभिन्न स्टॉक होल्डरों के साथ किये गए राष्ट्रव्यापी परामर्श के बाद नियमों का प्रारूप अनुमोदन के लिए विधि मंत्रालय द्वारा अंतिम रूप दिए जाने के बाद 1 जनवरी 2014 को ये कानून लागू लागू कर दिया गया .

तुलनात्मक रूप से 120 वर्ष पहले लागू 1894  का भूमि अधिग्रहण क़ानून में ‘अनुमति’ नहीं ‘मशविरा’  शब्द का प्रयोग किया गया था जबकि इस नए कानून में अनुमति का प्रयोग किया गया है . इस सन्दर्भ में ‘बिना ग्रामसभा के अनुमति’ का पद प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ यह हुआ कि बिना ग्रामसभा के अनुमति के भूमि अधिग्रहित नहीं की जा सकेगी .भूमि अधिग्रहण के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में बाज़ार मूल्य का चार गुना और शहरी क्षेत्र में बाज़ार मूल्य  का दो गुना मुआवजा देना होगा . इसके अतिरिक्त एकमुश्त नकद भुगतानों के अलावा भूमि ,आवास की व्यवस्था, रोज़गार का  विकल्प आदि प्रावधान भी इसमें शामिल हैं .

पुराने 1894 के भूमि अधिग्रहण के तहत अगर भूमि अधिग्रहण प्राधिकारी द्वारा भूमि अधिग्रहण का मन बना लिया गया तो अधिग्रहण की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी जाती थी. लेकिन नए क़ानून में ऐसे प्रावधान को हटा दिया गया है .नए क़ानून के तहत यदि भूमि अधिग्रहण के पांच साल तक अधिगृहित भूमि का उपयोग नहीं किया गया तो इसे किसानों को लौटा दिए जाने या ‘लैंड बैंक’ को दिए जाने का प्रावधान किया गया है .

लैंड बैंक राज्य सरकार के अधीन कार्यरत होगा . नए क़ानून के तहत किसी भी व्यक्ति को विस्थापित करने से पहले उसके लिए पुनर्वास की वैकल्पिक व्यवस्था तथा मुआवज़े का सही भुगतान के बाद ही अधिग्रहण करने की अनुमति दी गयी है .साथ ही आदिवासियों की भूमि हस्तांतरण यदि वर्तमान क़ानून के नियमों की अनदेखी के तहत हुआ तो उसे रद्द माना जाएगा .

नए भूमि अधिग्रहण में आदिवासियों के हितों की सुरक्षा की दृष्टि से अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभाओं की सहमति के बिना भूमि अधिग्रहण न करने के साथ ही पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों के विस्तार) अधिनियम 1996 तथा वन अधिनियम 2006 के प्रावधानों का भी पालन करने के प्रावधानों को रखा गया है.

नए क़ानून के लागू होने से जो लाभ होगा उसे रेखांकित करते हुए तत्कालीन केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जैराम रमेश ने कहा था कि नए भूमि अधिग्रहण क़ानून के लागू होने से नक्सली समस्या में कमी आएगी. झारखंड उडीसा,छतीसगढ़ जैसे नक्सल प्रभावित राज्यों में ग्रामसभा की अनुमति जरुरी होगी.

उल्लेखनीय है कि यदि अधिग्रहण की प्रक्रिया पुराने कानून के तहत शुरू हुई हो ,मगर अब तक मुआवज़े की घोषणा नहीं हुई और न ही ज़मीन पर पांच साल गुजर जाने के बाद कब्ज़ा ही लिया गया हो,तब भी नया भूमि अधिग्रहण क़ानून लागू हो जाएगा . यदि पुराने क़ानून के तहत प्रक्रिया शुरू हुई हो लेकिन बहुमत से प्रभावित भूस्वामियों ने मुआवज़े का बहिष्कार कर दिया हो ऐसी परिस्थिति में भूस्वामियों को नए क़ानून के तहत मुआवजा व अन्य लाभ दिया जाएगा .

गौरतलब है कि पुराने भूमि अधिग्रहण क़ानून की जगह लाये गए नए क़ानून में फिलवक्त 13 ऐसे कानूनों को , जिनके तहत भूमि अधिग्रहण हो सकता है, को शामिल नहीं किया गया है लेकिन सालभर के अंदर ही इन अलग-अलग कानूनों को नए भूमि अधिग्रहण क़ानून में शामिल कर लिया जाएगा. इसके लिए तीन मंत्रालयों कोयला मंत्रालय,खान मंत्रालय और परिवहन एवं एन एच आई मंत्रालय को पत्र लिखा गया है.

केंद्र के इस भूमि अधिग्रहण क़ानून लागू होने के बाद प्रत्येक राज्य को अपना भूमि अधिग्रहण क़ानून बनाने का अधिकार है .भूमि अधिग्रहण के समवर्ती सूची में होने के कारण राज्य व केंद्र के भूमि अधिग्रहण कानून में अंतेर्विरोध होने पर केन्द्रीय कानून ही सर्वोपरि होगा.

उल्लेखनीय है कि भूमि अधिग्रहण संबंधी इस तरह की गतिविधियों और कानूनों में त्वरा हमारे देश की उस स्थिति की ओर इशारा करती है जो यहाँ के प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और मानवीय संसाधनों के अकूत शोषण से पूँजी की विशाल मीनार खड़े करने का सन्दर्भ बनती हैं . हम देखते हैं कि खेती और स्वरोजगार तथा लघु और कुटीर उद्योगों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है लेकिन बड़े उद्योगों और खनन को अतिशय महत्व मिला है . झारखण्ड और बंगाल की खदानों की लूट का किस्सा अभी भी पुराना नहीं हुआ है और पिछले साल कोल गेट घोटाला इस देश का सबसे बड़ा घोटाला बनकर सामने आया . ये सारी स्थितियां हमें इस देश के वर्त्तमान और भविष्य     को लेकर अगर गहरी चिंता में नहीं डालतीं तो हमारे सरोकारों में निस्संदेह कोई खोट है . भूमि अधिग्रहण ने कई तरह के वर्ग पैदा कर दिए हैं और इस तरह पूँजी की दुनिया ने शोषकों को और भी पाँव पसारने का मौका दे दिया है . हमें इस बात पर बहुत गंभीरता से विचार करना होगा कि गाँव , किसान और आदिवासी आज और आने वाले दिनों में किन चुनौतियों से दो चार हो रहे हैं !!


(रचनाकार-परिचय:
जन्म : 19 मार्च 1970 को रायगढ़, छत्तीसगढ़ में.
शिक्षा : बीकॉम। एम-फ़िल
सृजन : कविताएं और लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
अन्य : इप्टा में क़रीब डेढ़ दशक से सक्रिय। रंगकर्मी। रेडियो का भी अनुभव
संप्रति : कॉलेज में तदर्थ व्याख्याता
संपर्क : aparnaa70@gmail.com

कौन जानता है आज़ादी के योद्धा तेगवा बहादुर को

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बिहार के पूर्व मंत्री व समाजवादी नेता मुनीश्वर प्रसाद सिंह



 














प्रीति सिंह की क़लम से

"तेगवा बहादुर सिंह"के नाम से प्रसिद्ध मुनीश्वर प्रसाद सिंह का जन्म 29 नवम्बर 1921  को वैशाली जिला के महनार थाना के बासुदेवपुर चंदेल गांव में एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में  हुआ था। उनके पिता का नाम स्वर्गीय बांकेबिहारी सिंह और माता का नाम स्वर्गीय गया देवी था। स्व. मुनीश्वर प्रसाद सिंह छ: भाई-बहनों में सबसे बड़े थे।. बचपन से मेधावी रहे. सत्यनिष्ठा और ईमानदारी के संस्कार आँगन से  हासिल किया। प्राथमिक शिक्षा गाँव में, फिर जन्दाहा  हाईस्कूल  में दाख़िला लिया। लेकिन अंग्रेजी दासता से मुक्ति के उपाय नित्य दिन सोचा करते। इस बीच सन् 1937 में अंडमान-निकोबार जेल से छूट कर स्व. योगेन्द्र शुक्ल आये.  उनके भाषण ने किशोर मुनीश्वर को मानो प्रेरणा दे दी.  और वो स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई में कूद पड़े।

रेल, डाक और तार सेवा बाधित किया
 भारत सरकार के तत्कालीन सचिव श्री डार्ननरी का रेडियो भाषण (जिसमें उन्होंने रेल,डाक और तार सेवा को बाधित नहीं करने की अपील की थी) सुनने के बाद मुनीश्वर ने क्रांतिकारी कदम उठाया और रेल,डाक औऱ तार सेवाओं को बाधित कर अंग्रेज सरकार की नींव हिलाने का निश्चय किया। फलत: अपने साथियों युगल किशोर खन्ना,   राजेन्द्र सिंह,   लाला सिंह और  बलभद्र सिंह को साथ लेकर उन्होंने उत्तर बिहार में अनेक स्थानों पर इन सेवाओं को बाधित कर दिया। इस घटना के बाद  मुनीश्वर  अंग्रेज सरकार की आंखों की किरकिरी बन गए। अंग्रेज सरकार इन्हें जोर-शोर से पकड़ने के लिए जुट गई। जल्द ही ये अंग्रेज सरकार द्वारा पकड़ लिए गए। लेकिन कुछ ही दिनों में छूटकर जेल से बाहर आये और भूमिगत होकर स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई में अपना योगदान देते रहे।
 
जयप्रकाश के आजाद दस्ता में शामिल
सन् 1942 में जयप्रकाश नारायण द्वारा गठित आजाद दस्तामें शामिल होकर मुनीश्वर ने हनुमान नगर, नेपाल में  गुरिल्ला युद्ध की ट्रेनिंग ली. इसके बाद  अंग्रेज सरकार की नाक में एक बार फिर से दम भर दिया। जब जयप्रकाश नारायण को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया तब मुनीश्वरने  दस्ता के अपने साथियों के साथ मिलकर उन्हें जेल से बाहर निकाला।  इसी बीच दरभंगा के लहेरियासराय के अंदामा गांव में अंग्रेज दारोगा आदित्य झा की हत्या आजाद दस्ता के दरभंगा के सरदार रामलोचन सिंह के घर कुर्की-जब्ती करने जाते वक्त कर दी गई। इस मामले में मुनीश्वर को आरोपी बनाया गया।

बनारस में गिरफ्तार, लखनऊ जेल में
लेकिन युवा  तेगवा बहादुर और उसके साथी इससे तनिक न घबराए।  शहीद सूरज नारायण सिंह, गुलाबी सोनार, देवनारायण गुरमैना, अक्षयवट राय, योगेन्द्र शुक्ल , अमीर गुरुजी, सीताराम सिंह, लाला सिंह, राजेन्द्र सिंह, युगल किशोर खन्ना, बलभद्र सिंह और मुनीश्वर प्रसाद सिंह सहित आजाद दस्ता के अन्य साथियों ने 1942 से 1944 तक तिरहुत एवं दरभंगा कमिश्नरी में गुरिल्ला युद्ध के द्वारा अंग्रेज शासन की चूलें हिला दीं।
12-13 सितम्बर 1944 को आजाद दस्ताको भंग किए जाने के बाद शहीद सूरज बाबू के साथ मुनीश्वरभी  बनारस आ गये। ये दोनों बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रावास में रुके थे। यहां से ये दोनों क्रांतिकारी अपने आंदोलन को  गति देने लगे।  11 नवम्बर 1944 को डॉ. सम्पूर्णानंद से मिलकर छात्रावास लौटते वक्त बनारस अस्सी घाट में ये दोनों अंग्रेज सरकार द्वारा पकड़ लिए गये। मुनीश्वर प्रसाद सिंह को लखनऊ जेल में रखा गया।

बर्फ की सिल्ली पर लिटाकर तलवे में बेंत से पिटा जाता
जेल में इन्हें अमानुषिक तकलीफें दी गईं। हफ्तों इन्हें भूखा रखा जाता था, ठंड की कड़कड़ाती रात में नंगे बदन ठंडे पानी में सारी रात खड़ा रखा जाता था। मारपीट तो रोज की बात थी। बर्फ की सिल्ली पर लिटाकर पैर के तलवे में बेंत से पिटा जाता था, नाखून उखाड़ लिए जाते थे। इसी टॉर्चर के दौरान एक अंग्रेज सरकार ने डॉ. विजयालक्ष्मी पंडित को एक भद्दी सी गाली दे दी। जिसका मुनीश्वर  ने जबरदस्त विरोध किया। जिसके बाद अंग्रेज अफसर ने इन पर जुल्म की इंतिहा कर दी और अमानुषिकतायें अपनी सीमा लांघ गईं। फिर भी इन्होंने उफ तक नहीं की और अपने क्रांतिकारी साथियों का नाम नहीं बताया। इसी दौरान इनके सिर पर इतने डंडे बरसाये गए जिसकी वजह से मुनीश्वर बाबू की बांयीं आंख की रोशनी हमेशा के लिए कम हो गई। 

अंदामा कांड में  सुनाई गई फांसी की सजा
लखनऊ जेल में मुनीश्वर बाबू स्वर्गीय सिंह वाई. वी. चव्हाण, लालबहादुर शास्त्री, अलगू चौधरी, रफी अहमद किदवई आदि के निकट संपर्क में आये। लखनऊ जेल से मुकदमे की सुनवाई के सिलसिले में इन्हें दरभंगा लाया गया।मुनीश्वर बाबू पर  अंग्रेज सरकार ने 88 से ज्यादा मुकदमों में नामजद किया। अंग्रेज जज ब्लैक बर्न ने "अंदामा कांड"में फांसी की सजा सुनाई। लेकिन अन्य मुकदमों में सुनवाई चलते रहने की वजह से इन्हें उस वक्त फांसी की सजा नहीं दी गई। सुनवाई के दौरान इन्हें हजारीबाग सेंट्रल जेल में रखा गया। 26 जून 1946 को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह के आदेश पर इन्हें जेल से रिहा किया गया। मुनीश्वर प्रसाद सिंह सन् 1948 में वकाश्त आंदोलन में भी सक्रिय रहे।
     
समाजवादी आंदोलन को दी गति 
आजादी के बाद स्वर्गीय मुनीश्वर प्रसाद सिंह जी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए। बाद में वो प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में चले गए। आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, नाथपाई, एन.जी.गोरे, एस.एम.जोशी, अशोक मेहता, मधु दंडवते, बसावन बाबू, रामानंद तिवारी, सुरेन्द्र मोहन, प्रेम भसीन, एस.एन. द्विवेदी, यमुना शास्त्री, जॉर्ज फर्नांडीस, चंद्रशेखर, कर्पूरी ठाकुर , रामबहादुर सिंह, युवराज सिंह और रामसुंदर दास के साथ मिलकर मुनीश्वर प्रसाद सिंह समाजवादी आंदोलन को मजबूती प्रदान करने में लगे रहे।1974 में "जयप्रकाश आंदोलन"में जयप्रकाश जी के आह्वान पर बिहार विधानसभा की सदस्यता से 6 जून 1974 को स्वर्गीय मुनीश्वर प्रसाद सिंह ने इस्तीफा दे दिया। ऐसा करने वाले ये बिहार विधानसभा के पहले विधायक थे।
 
चार बार महनार विधानसभा का प्रतिनिधित्व 
मुनीश्वर प्रसाद सिंह  ने  सन् 1962, 1972, 1977 और 1990 में वैशाली जिला के महनार विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। विधानसभा के कई महत्वपूर्ण कमिटियों के सदस्य रहे। सन् 1979-80 में बिहार सरकार के सिंचाई एवं विद्युत विभाग के मंत्री के रुप में अपनी प्रशासकीय क्षमता का उत्कृष्ट परिचय आप ने दिया। इस दौरान उनके कई फैसले अति महत्वपूर्ण और लीक से हटकर रहे। लेकिन उन्हें ज़्यादा समय राजनीतिक विडंबना ने नहीं दिया। ओछी राजनीति के तहत तत्कालीन  सरकार को अचानक गिरा दिया गया।

92 वें वर्ष में  त्यागा देह  
मुनीश्वर प्रसाद  ने आजीवन समाजवादी आंदोलन को गति देने का काम किया।  अपनी ईमानदारी, धर्मनिरपेक्षता, समाजवादी चिंतन और अक्खड़ मिजाज के लिए मुनीश्वर प्रसाद सिंह विख्यात रहे। 75-76 वर्षों के लंबे राजनैतिक-सामाजिक जीवन के बाद अपने जीवन के 92 वें वर्ष में 5 नवम्बर 2013 को इलाज के दौरान बिहार की राजधानी पटना के एक निजी अस्पताल में मुनीश्वर प्रसाद सिंह का निधन हो गया।
इसके साथ ही स्वतंत्रता संग्राम और समाजवादी राजनीति की एक अहम कड़ी हमेशा-हमेशा के लिए टूट गई।

(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 20 मई 1980 को पटना बिहार में
शिक्षा: पटना के मगध महिला कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक, नालंदा खुला विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में हिन्दी से स्नाकोत्तर
सृजन: कुछ कवितायें और कहानियां दैनिक अखबारों में छपीं। समसायिक विषयों पर लेख भी
संप्रति: हिंदुस्तान, सन्मार्ग और प्रभात खबर जैसे अखबार से भी जुड़ी, आर्यन न्यूज चैनल में बतौर बुलेटिन प्रोड्यूसर कार्य के बाद फिलहाल  कंटेंट डेवलपर और  आकाशवाणी में नैमित्तिक उद्घोषक
संपर्क: pritisingh592@gmail.com)


लेखिका मुनीश्वर बाबू की सुपुत्री हैं। जल्द उनका आत्मीय संस्मरण पढ़ें।

हमज़बान पर पहले भी प्रीति सिंह को पढ़ें पटना में कामकाजी स्त्री








धुलवा दिया सोफ़ा कि घर में अकर्मण्यता की खटमल न फैल जाए

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मुनीश्वर बाबू अपनी लाडली बिटिया प्रीति (लेखिका) के साथ



आज़ादी के योद्धा मुनीश्वर बाबू  उर्फ़ तेगवा बहादुर को यूँ याद किया बेटी ने

प्रीति सिंह की क़लम से

मॉर्निंग वॉक से लौटने के बाद वो उदास होकर बैठ गए थे. उनकी आंखों में आंसू थे। घर में सभी उनकी इस हालत को देखकर परेशान हो गए और कारण जानना चाहा तो उनका दुख जुबान के रास्ते निकल गया। उन्हीं के शब्दों में “आज सुबह जब मैं मॉर्निंग वॉक के लिए निकला तो दो बच्चियों को कूड़ा में से खाना चुनते देखा। ये देखकर मुझे कैसा महसूस हुआ ये शब्दों में बताना नामुमकिन है। मेरे रोंगटे खड़े हो गए और लगा जैसे दिल पर किसी ने भारी पत्थर रख दिया हो। मैंने दोनों को पास बुलाया और एक मिठाई दुकानदार से कुछ रुपये उधार लेकर उसे दिए।“  बेहद गमगीन आवाज में उन्होंने कहा कि आज महसूस हो रहा है कि हमलोग हार गए। हमने अंग्रेजों से लड़ाई लड़कर जो स्वतंत्रता हासिल की थी। आज वो बेमानी साबित हो गई है। जीवन के अंतिम क्षण तक उनकी यही सोच थी कि देश अपने उद्देश्य से भटक गया है और गलत रास्ते पर चल रहा है। ये कसक वो अपने दिल में लिए हमेशा के लिए हमलोगों से दूर चले गए। बात समाजवादी नेता,स्वतंत्रता सेनानी और बिहार सरकार में मंत्री रहे मुनीश्वर प्रसाद  सिंह यानी मेरे पिताश्री की. जिन्हें हम बाबुजी बुलाते थे. 

ऐसा कुछ नहीं जिसे लिखा जाए

सांवला रंग, ऊंची छाती, चेहरे पर कोमल मुस्कान और हृदय में दृढ़ विश्वास। ये तस्वीर है मेरे बाबुजी की। उनको गये हुए एक साल हो गए। लेकिन आज भी ऐसा लगता है मानो वो कहीं आस-पास ही हों। कभी उदास होती हूं तो यूं लगता है जैसे वो मुझे मुस्कुराने को कह रहे हों, खुशी में भी वो कहीं पास नजर आते हैं तो संघर्षों के लंबे साये में थक कर नहीं रुकने की सलाह देते हैं। मेरे बाबुजी सिद्धांतों और नैतिकता को अपनी जिंदगी में उतारने वाले महान योद्धा। उन्होंने जीवन में न जाने कितना संघर्ष किया। लेकिन कभी न तो हार मानी और न ही मायूस हुए। आज भी याद है हमारे एक मुंहबोले मामाजी (जो कभी दूरदर्शन के निदेशक थे और आज बिहार राज्य सूचना आयुक्त के पद को सुशोभित कर रहे हैं)  ने मेरे बाबुजी से अपनी आत्मकथा लिखने को कहा। इस पर बड़ी मासूमियत से बाबुजी बोले “मेरी जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं जिसे लिखा जाये। हर आम इंसान की तरह मैंने भी संघर्ष किया। इसमें आत्मकथा लिखने वाली कोई बात नहीं।“ ताज्जुब होता है आज भी इस दुनिया में इस तरह के व्यक्ति होते हैं जो अपने संघर्षों के जरिये लाईम-लाईट में आने की बजाय किसी कोने में रहना ही बेहतर समझते हैं।  आज जब राजनेता हर दिन झूठ की खेती करते हैं। अखबारों में उनके बयान बढ़-चढ़कर आते हैं। उस वक्त एक बार फिर मुझे अपने बाबुजी याद आते हैं। बिहार के बड़े राजनेताओं में शामिल होने के बावजूद उन्होंने खुद को हमेशा ओछी राजनीति से दूर ही रखा। किसी भी काम को उन्होंने खुद के लिए नहीं बल्कि समाज के हित के लिए किया।
याद आता है मुझे साल 1995 का वक्त। उस साल विधानसभा चुनाव वो हार गए थे। इसी दरम्यान उनसे मिलने इनकम टैक्स के एक बड़े ऑफिसर (जो बाबुजी के पुराने परिचित थे) आये। उनके साथ एक और साहब थे। उनका कुछ काम था। बाबुजी ने कहा मैं प्रयत्न करुंगा। उन्होंने एक ब्रीफकेस आगे करते हुए कहा कि इसमें 50 हजार रुपये हैं। बाकी जितने रुपये आप कहेंगे मैं दूंगा। इतना सुनना था कि बाबुजी को गुस्सा आ गया और उन्होंने उन साहब के साथ-साथ अपने परिचितको भी खूब डांटा। अपनी नाराजगी जताने के बाद उन्होंने उनलोगों को चाय-नाश्ता कराकर विदा कराया। उनके जाने के बाद बाबुजी बहुत देर तक खिन्न रहे। मुझे बुलाया और सोफा का कवर खोलने को कहा। मैंने पूछा क्यों तो उन्होंने कहा कि अकर्मण्य लोग आकर बैठ गए थे। इसे धो दो नहीं तो इसमें जो अकर्मण्यता आ गई है वो तुम सबके भीतर चली जाएगी। उस वक्त मुझे उनकी बातों पर बहुत हंसी आई थी। मैंने सोचा था क्या ऐसा भी होता है? लेकिन आज लगता है कितने सरल शब्दों में कितनी बड़ी बात बता गए थे वो। एक ईमानदार पिता होने के नाते वो नहीं चाहते थे कि उनके बच्चों में वो अकर्मण्यता आये जो दूसरे लोगों में मौजूद है।

देशभक्त की गर्वीली गरीबी

यादों के पन्ने पलटते हुए कई स्मृतियां जेहन में कौंध जाती है। लगता है जैसे बाबुजी मेरे आस-पास कहीं खड़े हों और मुझे देख रहे हों। आज भी याद है घोर बीमारी की अवस्था में जब वो बिस्तर पर पड़े रहते थे तब भी उनकी आंखों से मेरे चेहरे का भाव नहीं छुपता था। जो मेरे अंदर था वो शायद सब पढ़ लेते थे। तभी तो कोई जाने ना जाने वो सब जान लेते थे और मुझे बुलाकर अपनी परेशानी बताने को कहते थे। मेरे बताने पर वो सही सलाह देते थे और नहीं बताने पर समझाते थे। उन्होंने हमेशा मुझे राय दी कि बेटा तुम बहुत संवेदनशील हो। अपनी संवेदनशीलता को थोड़ा कम करो। वर्ना जिंदगी में छोटी-छोटी बातें बहुत तकलीफ देगी। हर लड़की के लिए उसके पिता रोल मॉडल होते हैं। मेरे लिए भी मेरे बाबुजी रोल मॉडल हैं। उन्होंने अपने जीवन में जो त्याग, संघर्ष और तपस्या की है वो मामूली नहीं है। मेरी मां अक्सर एक कहानी सुनाती थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरानजब वो जेल में थे तो मां उनसे मिलने गईं। घर की आर्थिक हालत खराब होने की बात कही। इस पर बाबुजी ने बड़ी शांति से कहा घर जाकर एक जहर की शीशी मंगा लेना। खुद भी खा लेना और बच्चों को भी खिला देना। लेकिन फिर कभी मेरे सामने घर की मजबूरियां मत बताना। नहीं तो शायद मैं कमजोर पड़ जाऊंगा।इस दिन के बाद सारी जिंदगी मेरी मां ने कभी घर की मजबूरियों के बारे में बाबुजी को नहीं बताया। आजीवन मां बाबुजी के जीवन में एक ऐसे मजबूत स्तंभ के रुप में रही जिसके बल पर उन्होंने जीवन की बड़ी-से-बड़ी लड़ाईयां लड़ीं और जीती।

धार्मिक थे पर मंदिर से परहेज़

जब उनके खाली बिस्तर को आज देखती हूं तो दिल में कचोट उठती है। कभी इस बिस्तर पर मेरे बाबुजी सोया करते थे। उस वक्त उस पर कोई और नहीं बैठ सकता था। बिना नहाये वो खुद भी अपने बिस्तर पर नहीं बैठते थे। दिन में कम-से-कम वो तीन बार नहाया करते थे। ठंड की सर्द रात हो या भयंकर गर्मी की रात उनका ये नियम आखिर तक नहीं टूटा। तब भी नहीं जब वो बिस्तर पर गिर गए। कितनी भी ठंड हो, वो कितने भी बीमार हों। लेकिन नहाना उनकी आदत में शुमार था। बिना नहाये वो अपने बिस्तर पर नहीं जाते थे। तबियत खराब होने पर जब दीदी और भईया उन्हें नहाने से मना कर देते थे तो वो बच्चों की तरह नाराज होकर बात नहीं करते थे और फीडिंग लेने से भी इनकार कर देते थे। मजबूरन घरवालों को उनकी जिद के आगे झुकना पड़ता था। नहाने के बाद वो बिस्तर पर बैठकर आधे-एक घंटे तक मंत्र पढ़ते थे। मैंने कभी भी उन्हें मंदिर में या घर में धूप-दीप दिखाकर पूजा करते नहीं देखा। उनके लिए कुछ मंत्रों का जाप और पूर्वजों को हर दिन याद करना ही कर्मकांड था। हर दिन वो नहाने के बाद अपने सारे पूर्वजों को जल भी अर्पण करते थे और ये नियम आजीवन वो निभाते रहे।

खाने से ज्यादा खिलाने के शौक़ीन

अपने दादाजी से मेरे बाबुजी का खास लगाव था। वो कहते थे मैं अपने माता-पिता से ज्यादा अपने दादा-दादी के करीब रहा हूं। छुट्टियों में भी वो दादी के साथ उनके मायके जाया करते थे। घर में सबसे बड़े होने की वजह से उनसे दादा-दादी,चाचा-चाची सबका खास लगाव था। सुबह 4 बजे उनके दादाजी बाबुजी को उठा देते थे। इसके बाद स्नान कर वो गीता का पाठ करते थे और फिर अपनी पढ़ाई में लग जाते थे। आज जब भी किसी अवसर पर घर में कुछ अच्छा खाना बनता है तो एकबारगी बाबुजी का चेहरा आंखों के सामने आ जाता है। खाने-पीने और खिलाने के बेहद शौकीन मेरे बाबुजी को ईश्वर ने न जाने किस बात की सजा दी कि आखिरी तीन साल उन्हें कुछ भी खाने के लिए मन मसोस कर रह जाना पड़ा। पार्किंसन की बीमारी पकड़ में आने पर एम्स के डॉक्टरों ने उन्हें ट्यूब के सहारे फीडिंग देने को कहा। फीडिंग के लिए मटेरियल एम्स से ही आता था। जिसे मेरे चाचा का बेटा वहां से भेजता था। कई बार कुछ खाने की इच्छा होने पर बाबुजी थोड़ा सा खाने को मांगते थे। एक-दो बारे दीदी ने उन्हें खिलाने की कोशिश की तो उनकी तबियत बिगड़ गई। डॉक्टर ने बाबुजी की सेहत के लिए मुंह से खिलाने से सख्त मना किया। जिसके बाद दीदी उनके खाने की मांग पर रोती हुई किसी कमरे में छुप कर बैठ जाती थी। बाद में बाबुजी ने भी बात मान ली और खाने की जिद छोड़ दी। लेकिन इसके बाद भी हर आने-जाने वाले के खाने को लेकर वो बहुत परेशान रहते थे और बार-बार मेहमानों को बिना खाये न जाने का निवेदन करते थे। 

तब भगवान से हुई नाराज़

एक घटना बरबस याद आ रही है। लिखते वक्त भावुक हो गई हूं। आंखों में आंसू आ गए हैं। धीरे-धीरे पार्किंसन रोग का असर बाबुजी पर असर डाल रहा था। वो दीपावली की रात थी। अमूमन हर दीपावली मैं ही अपने घर में पूजा करती हूं। उस दिन भी पूजा करने के बाद मैंने सबको प्रसाद बांटा। दीदी से पूछकर बाबुजी को मैं थोड़ा सा प्रसाद खिलाने लगी। इसी दौरान उनको पता नहीं चला और मेरी ऊंगली उनके दांतों के नीचे दब गई। मैं रोने लगी। बाबुजी कुछ नहीं समझे। मेरी आवाज सुनकर दीदी और भईया आये और बाबुजी का मुंह खोलकर मेरी ऊंगली बाहर निकाली। बाबुजी को बाद में बात समझ आई तो उन्हें बहुत बुरा लगा और उन्होंने मुझसे बहुत माफी मांगी। मुझे और भी रोना आने लगा। उस दिन लोगों ने समझा कि मैं ऊंगली दबने से रो रही थी। लेकिन आज मैं अपने दिल की बात बता रही हूं मैं अपने बाबुजी की हालत देखकर रो रही थी। मुझे दुख इसका था कि उनके साथ ऐसा क्यों हो रहा है? उन्होंने भला किसका क्या बिगाड़ा था? भगवान से उस दिन मैं बहुत नाराज हुई और पूछा कि क्या अच्छे लोगों के साथ हमेशा बुरा होता है? तो फिर अच्छा बनकर फायदा क्या है?

मनुष्य होकर कैसे परोपकार करना छोड़ दूं?

कई बार जब अपने किसी विरोधी का काम वो करवाते थे या जिसने उन्हें चोट और दुख पहुंचाया था। वैसे लोगों की वो फिक्र करते थे तो अक्सर मैं उनसे पूछती थी कि बुरे लोगों के साथ अच्छाई करके क्या फायदा? तब मेरे बाबुजी बहुत प्यार से मुझे एक कहानी सुनाते थे। वो कहते थे- एक ऋषि थे। वो गंगा में स्नान कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि एक बिच्छू पानी की तेज धारा में बहा चला जा रहा है। उन्होंने उसे हाथ में उठाटक किनारे पर रखने की कोशिश की। लेकिन इतने में बिच्छू ने ऋषि को डंक मार दिया। डंक के दर्द से ऋषि का हाथ हिला और बिच्छू फिर पानी में जा गिरा। बिच्छू को डूबते देख ऋषि ने फिर से उसे उठाया। इस बार फिर बिच्छू ने ऋषि को डंक मार दिया। फिर बिच्छू उनके हाथ से छूट गया। लेकिन ऋषि ने हार नहीं मानी और तीसरी बार बिच्छू को उठाकर किनारे पर रख दिया। ये दृश्य देख रहे वहां मौजूद लोगों ने ऋषि को पागल करार दिया। तब ऋषि ने कहा कि जब बिच्छू जैसा एक साधारण कीड़ा अपना जन्मजात स्वभाव डंक मारना नहीं छोड़ता तो फिर मैं मनुष्य होकर कैसे परोपकार करना छोड़ दूं?  उनकी ये बात कई बार मुझे अच्छी नहीं लगती थी। इसी की वजह से बाबुजी को अपनों के धोखे खाने पड़े.   इसी वजह से आज मुझे भी कई बार चोट लगी है। लेकिन उनको खोने के बाद उनका मोल ज्यादा जान पाई हूं मैं।
 
बेख़ौफ़ होकर सच कहो

दूसरों की मदद करना उनके स्वभाव का एक अंग था। जो हमेशा हर विरोध के बाद भी उन्होंने नहीं छोड़ी। कई बार तो उनकी इस आदत से घरवाले परेशान हो जाते थे और कई बार उनके अपने समर्थक भी नाराज हो जाते थे। लेकिन बाबुजी हमेशा यही कहते थे कि एक इंसान के लिए मानवता पहली शर्त है और जब कोई मदद मांगे तो कभी किसी को न नहीं कहना चाहिए। अपनी पूरी कोशिश से मांगने वाले की मदद करनी चाहिए। अच्छे-बुरे का फल ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। वो ही हर चीज का फैसला करेंगे। ऐसे थे मेरे बाबुजी। जितना लिखूं उतना कम है। आज तक उके जैसा दूसरा कोई इंसान मुझे नहीं मिला। निष्पाप, निष्कलंक। जिनके अंदर कोई भी छल, कोई भी पाप नहीं था। आमतौर पर लड़कियों के लिए कहा जाता है कि वो गंगा की तरह निष्पाप हैं। लेकिन मैं अपने बाबुजी के लिए इस बात को गर्व से कह सकती हूं कि वो गंगा की तरह साफ दिल वाले, सादगी पसंद, ईमानदार व्यक्ति थे। लेकिन जितनी सादगी थी उनके अंदर उतना ही सच बोलने का माद्दा था। वो अक्सर हमें भी समझाते थे कि कभी भी किसी भी इंसान से सच बोलने से पीछे मत रहो। भले ही वो कितना भी पावरफुल इंसान रहे। बेखौफ होकर सच कहो और उसके मुंह पर कहो।

(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 20 मई 1980 को पटना बिहार में
शिक्षा: पटना के मगध महिला कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक, नालंदा खुला विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में हिन्दी से स्नाकोत्तर
सृजन: कुछ कवितायें और कहानियां दैनिक अखबारों में छपीं। समसायिक विषयों पर लेख भी
संप्रति: हिंदुस्तान, सन्मार्ग और प्रभात खबर जैसे अखबार से भी जुड़ी, आर्यन न्यूज चैनल में बतौर बुलेटिन प्रोड्यूसर कार्य के बाद फिलहाल एक संस्थान में कंटेंट डेवलपर और  आकाशवाणी में नैमित्तिक उद्घोषक
संपर्क: pritisingh592@gmail.com)





    
        

समय की बेचैनियों से बनीं शाहनाज़ की कविताएँ

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राजेश जोशीकी क़लम से
आँसुओं से भीगी ताज़ा लहू में डूबी कविता
लिखती हूँ काट देती हूँ फिर लिखती हूँ !

शाहनाज़ की ये कविताएँ गुस्से , खीज , गहरी करूणा ,स्मृतियों और हमारे समय की
बेचैनियों से बनी कविताएँ हैं। इनमें गहरी हताशा का स्वर है तो कहीं उसी के बीच से कौंधती उम्मीद की रौशनी भी मौजूद है। यहाँ रौशनी की एक बूंद को अपनी मुट्ठी में बंद कर लेने का खेल है तो यह प्रश्न भी कि आज़ाद चीजों को कै़द करने का ऐसा खेल क्यों होता है। यहाँ कभी न लौट सकने वाले बचपन की स्मृतियाँ है और यह दुख भी कि उस समय जब घर में सब होते थे मतलब दादा-दादी, नाना-नानी, बड़े पापा , चाचा, मामी , ख़ाला उस संयुक्त परिवार के हम आख़री गवाह है। तेजी से बदल रहे शहर, रिश्ते और गुम हो रही चीजें और चिट्ठियाँ हैं,  जिनका शायद कुछ आँखों को अभी भी इंतज़ार है। यह कविताएँ अपनी बात कहने के लिये किसी कविताई कौतुक, अलंकारिकता या भाषायी बंतुपन का आसरा नहीं ढूंढती। इनमें हिन्दी उर्दू की मिली-जुली जबान का वह स्वाद है जो शाहनाज़ को अपने शहर की बोलचाल से प्राप्त हुआ है । शाहनाज़ के पाँव अपनी ज़मीन को पहचानते हैं और अपने आसमान को भी ।
ये कविताएँ उन दृश्यों को सामने रखती है जो अतिपरिचित हैं, सबके देखेभाले हैं और शायद इसीलिए रचना में वो हमसे अक्सर अदेखे रह जाते हैं । वो हमारे एकदम आसपास बिखरे जीवन के दृश्य है। इनमें आँसू भी है और लहू भी। ये कविताएँ जीवन के बहुत ज़रूरी सवालों को बेलाग ढंग से और बेख़ौफ़ होकर उठाती है। इसमें किसी तरह का संकोच या हकलाहट नहीं। पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री की अस्मिता से जुड़े सवाल हों या अल्पसंख्यक समुदाय और तथाकथित सेक्यूलर राजनीति के कारनामे, कहीं भी शाहनाज़ विमर्श के सीमित दायरों में अपने को कैद नहीं रखती , वह उससे बाहर आकर उन सच्चाइयों को वर्गीय राजनीतिक समझ के साथ देखने की कोशिश करती हैं। इसलिए उसकी दृष्टि बहुत हद तक अस्मिताविमर्शवादियों से अलग भी है ।
हमारे समय की राजनीति जिसे हमेशा ही सिर्फ चुनाव के समय ही हाशिये से बाहर के लोग याद आते हैं पर ये कविताएँ विचलित कर देने वाले सवाल खड़े करती हैं। हमारे आसपास बिखरी सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक विद्रूपताएँ इन कविताओं की उठी हुई उंगली की जद में हैं। यह ऐसी राजनीति है जिसे जब वोट मांगना होता है तब ही वह नाक पर रूमाल रखकर मुसलमानों के मोहल्ले में प्रवेश करती है । जहाँ जख़्मों से चूर ज़िन्दगी ख़ून सी छलकती है । यह एक ऐसा जीवन है जो स्टिललाइफ़ की तरह पिछले साठ सालों में ठहर-सा गया है । जिसे किसी न किसी बहाने से सरकारें बार बार भूल जाती हैं । आलोचना की सुई किसी एक ही तरफ ठहरी हुई नहीं है । इसी तरह उम्र बीस साल कविता में वह कहती है-

तुम्हारा परिचय भी हुआ होगा
हिंसा ,उत्पीड़न ,यातना ,अपमान जैसे शब्दों से
मौलवियों और उलेमाओं की इस दुनिया में
रोने पर पाबन्दी है और ज़ोर से हँसना मना है
तबलीग करने वाले सिर्फ फ़र्ज़ बताते हैं
और हक़ सिर्फ़ किताबों में लिखे जाते हैं ।
शाहनाज़ का यह पहला कविता संग्रह है। एक नये कवि को पढ़ते हुए पाठक यही ढूंढता है कि उसमें नया क्या है और कितना चौकन्ना है वह अपने समय और आसपास के जीवन को देखने, जानने बूझने के लिये। शाहनाज़ की ये कविताएँ अपने आसपास के प्रति सजग भी हैं और इनमें कई अलक्षित कोनों में झाकने और चीजों को नये तरह से देखने और कहने का कौशल भी है। इन कविताओं से किसी हिस्से को अलग करके उद्धृत करना मुश्किल है। वस्तुतः ये कविताएँ एक मुकम्मिल इकाई की तरह हैं। इसलिए उन्हें हिस्सों में नहीं पढ़ा जा सकता। कई बार तो किसी पंक्ति या पंक्तियों को अलग करके रखने में यह भी डर होता है कि संदर्भ से कट जाने पर उनका अर्थ ही न बदल जाये ।
शाहनाज़ सोचती है कि इन वर्कों पर कुछ और भी लिखा जा सकता था। जैसे:

एक सफ़र का क़िस्सा
जंग की भयावहता
डरावनी यादें
चूल्हे की आग ,छीनी गई रोटी
झील में उभरता सूरज
अकेली शाम की खामोशी
या तुम्हारी काली आँखें

पर आँसू और खुशी , गुस्से और नफ़रत , तकलीफ़ें और मोहब्बत लिखते हुए उसे लगता है कि ऐसा लिखना-कुछ ऐसा ही जैसे लिखना / खुद को बचाये रखने का रास्ता हो।
 

मुझे पूरा विश्वास है कि इस संग्रह को पढ़ने के बाद आप विचलित हुए बिना नहीं रह सकते और इस संग्रह की अनेक कविताएँ और अनेक पंक्तियाँ आपके मन में उतरकर आपकी स्मृति का हिस्सा हो जायेंगी ।


दख़ल से प्रकाशित शहनाज़ के कविता-संग्रह दृश्य के बाहर की भूमिका


शहनाज़ इमरानी की कविताएं पढ़ें



(लेखक-परिचय:
जन्म: 18 जुलाई 1946 को नरसिंहगढ़, मध्य प्रदेश में
प्रमुख कृतियाँ :     कविता-संग्रह- समरगाथा (लम्बी कविता), एक दिन बोलेंगे पेड़, मिट्टी का चेहरा, नेपथ्य में हँसी और दो पंक्तियों के बीच, दो कहानी संग्रह - सोमवार और अन्य कहानियाँ, कपिल का पेड़, तीन नाटक - जादू जंगल, अच्छे आदमी, टंकारा का गाना। इसके अतिरिक्त आलोचनात्मक टिप्पणियों की किताब - एक कवि की नोटबुक, पतलून पहना आदमी (मायकोवस्की की कविताओं का अनुवाद), धरती का कल्पतरु(भृतहरि की कविताओं का अनुवाद)
कुछ लघु फिल्मों के लिए पटकथा लेखन भी
सम्मान : शमशेर सम्मान, पहल सम्मान, मध्य प्रदेश सरकार का शिखर सम्मान और माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार के साथ साहित्य अकादमी पुरस्कार  से विभूषित। )

रेड ज़ोन यानी झारखंड का औपन्यासिक दस्तावेज़

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समस्याओं को समग्रता में डायग्नोस करता उपन्यास


 
















गुंजेश की क़लम से
 
हम अपनी पीढ़ी में अंतिम इतिहास नहीं लिख सकते, लेकिन हम परंपरागत इतिहास को रद्द कर सकते हैं और इन दोनों के बीच प्रगति के उस बिंदु को दिखा सकते हैं, जहां हम पहुंचे हैं। सभी सूचनाएं हमारी मुट्ठी में है और हर समस्या समाधान के लिए पक चुकी है।  -ऐक्टन

एलोपैथ में अक्सर होता है कि कान की बीमारी के इलाज के लिए नाक में दवाई दी जाती है। साहित्य रचना बीमारी का इलाज भले ही न हो, लेकिन उसकोडायग्नोस करने का एक तरीका तो जरूर है। विनोद कुमार रचित रेड जोन, ऐसा ही एक उपन्यास है जो हमारे आसपास मौजूद समाजों (दल, वर्ग, जाति, राष्ट्र, या जो भी नाम हम देना चाहें) में समाधान के लिए पक चुकी समस्याओं को समग्रता में डायग्नोस करता है। रेड जोन, में सिर्फ रेड जोन की बात नहीं है बल्कि यह पूरे झारखंड और उसके बनने के क्रम में यहां की समाजिक हलचलों का दस्तावेज है। खुद लेखक इस बारे में लिखते हैं ""सच पूरा का पूरा देखना तो कठिन है ही, लिखना और भी ज्यादा कठिन। कुछ यथार्थ और कल्पनाओं को जोड़ कर यह रचना बनी है। मौजूदा राजनीति, राजनेताओं, पत्रकारों के ब्योरे में यथार्थ का अंश ज्यादा है। झारखंड को लाल रंग देती भूमिगत गतिविधियों और प्रवृत्तियों में कल्पना का अंश ज्यादा।'' (दो शब्द)
रेड जोन में दर्ज समय झारखंड अलग राज्य बनाने की मांग से लेकर अलग राज्य बनने के कुछ बाद तक का है। पहली नजर में उपन्यास का नायक मानव दिखता है जो कि लौहनगरी में राजधानी से निकलने वाले एक अखबार का स्टॉफ रिपोर्टर है। लेकिन पाठ खत्म होते ही यह सवाल उठता है कि क्या वाकई मानव उपन्यास का नायक है? या वह उस दिक (स्पेस) में जिसमें उपन्यास रचा गया है, के काल (टाइम) का प्रतिक है। जिसमें सब कुछ घटित हो रहा है। लेकिन उन तमाम घटनाओं पर उसका कोई प्रभाव नहीं है। वह सिर्फ मौजूद है और कई बार तो पीड़ित भी।

उपन्यास अपने आधे हिस्से में जिस सवाल को प्रमुखता से उठाता है वह है ""... अब देखिए न, इस लौह कारखाना के चलते इस औद्योगिक शहर के रूप मेंझारखंड में समृद्धि का एक द्वीप जरूर बन गया है लेकिन यहां के आदिवासियों और मूलवासियों को क्या मिला?''

सुप्रसिद्ध आलोचक वीर भारत तलवार ने अपने किसी लेख में शिबू सोरेन का जिक्र करते हुए लिखा था कि कभी सोचा था की उन पर किताब लिखूंगा लेकिन अब स्थितियां काफी बदल गईं हैं। रेड जोन में गुरुजी की कहानी शिबू सोरेन की उन्हीं बदली हुई स्थितियों का बयान है। गुरुजी, बाटूल, मुक्ति मोर्चा, मंडल जी, विस्थापन की राजनीति। भाजपा, दादा, बिहार, वनांचल की मांग। दुर्गा, कालीचरण, तेज सिंह, लेवाटांड़, पछियाहा राजनीति, दारोगा, बंदूक और उसकी नली से निकलने वाली सत्ता का स्वप्न। दो अन्य नेता एके राय और महेंद्र सिंह। इन सब से गुजरने वाला मानव, मानव पर नजर रखने वाला उसका अखबार और अखबार के संपादक हर्षवर्द्धनजी।

क्या हम यह मान सकते हैं कि ऐतिहासिक समस्याएं हमेशा व्यक्तिगत व्यवहार और व्यक्तिगत सनक की समस्या होती है। चाहे वह अलग राज्य को लेकर चला आंदोलन हो या फिर राज्य बनने के बाद सत्ता हासिल करने की राजनीति, इत्तिफाक से झारखंड में हमेशा व्यक्तियों के इर्दगिर्द ही नाचती रही है। ""इसके अलावा झारखंडी समाज में एक और द्वंद्व है, वह है बाहरी और भीतरी का। कॉमरेड राय ने इस विभाजन- रेखा को एक दशक पहले बहुत गहरा कर दिया था।'' (पृष्ठ सं. : 121) में लेखक व्यक्ति आधारित राजनीति के साथ-साथ नेताओं के व्यक्तिवादी होने पर भी टिप्पणी कर रहा है। मानव खुद जेपी आंदोलन से निकल कर पत्रकारिता के क्षेत्र में अाया है और जन आंदोलनों की ओर सहानुभूति रखता है। लेकिन यह मानव का जेपी आंदोलन के मोह से निकला हुआ मन है या पत्रकारिता में रम चुका वस्तुनिष्ठ दिमाग कि वह किसी भी व्यक्ति पर चाहे वह गुरुजी हों, एके राय हों, दादा हों या महेंद्र सिंह हों पूरी तरह भरोसा नहीं करता। वास्तव में यही उपन्यास के पूरे क्राफ्ट की विशेषता और सफलता है कि वह किसी को हीरो नहीं बनाता। वरना हाल के दिनों में आदिवासियों और जन आंदोलनों के हीरो गढ़ने की जो परंपरा चल निकली है वह इतिहास दृष्टि में बहुत अधिक गलतियां और भ्रम पैदा कर रही हैं।

कालीचरण और दुर्गा

दो आदिवासी चरित्र उभर कर सामने आए हैं। कालिचरण बरास्ते गुरुजी वामपंथ और फिर माओवाद की शरण में चला जाता है। दुर्गा पर समय की नजर कुछ ऐसी पड़ी है कि उसे यकीन होने लगा है कि सत्ता बंदूक के रास्ते से ही मिल सकती है। कालीचरण तो पहले से ही हिंसा के मार्ग के पक्ष में नहीं था।
लंबी बहसों और हत्याओं के एक सिलसिले के बाद दुर्गा को भी लगने लगता है कि ""लड़ें-मरें हम और निर्णय कोई और ले। हमारे यहां ऐसा नहीं होता।.....
हमारे यहां नहीं होता माने हमारे समाज में नहीं होता। आदिवासी समाज में नहीं होता।'' (पृष्ठ सं. 334)  दरअसल झारखंड की विडंबना यही रही कि ""आम झारखंडी नेता समाजवादी आंदोलन मुखी नहीं है और जो लोग आंदोलन में हैं वे झारखंडी नहीं हैं।'' (पृष्ठ सं. 372) और इन सब स्थितियों में कई कालीचरण और दुर्गा बनते जा रहे हैं। जो अपनी समाज की तरह "राज्य'की तलाश में एक खेमे से दूसरे खेमे में जाते हैं और हर जगह से ठगे से लौटते हैं।

यह कहने में कोई संकाेच नहीं है कि लेखक ने वो सारे खतरे उठाए जो इस उपन्यास को व्यक्तिवादी और सेंसेशनल बना सकता था और लेखक उन सब खतरों के बीच से समाज में फैले कमिटमेंट की कमी को दर्ज करने में भी कामयाब हुआ। चाहे वह पत्रकारिता से जुड़े मानव के अपने सवाल हों या फिर राजनीतिक हलकों से जिंदा नजिरों को उठाना। वीर भारत तलवार ने फ्लैप पर सटीक ही लिखा है कि लेखक के जवाबों से कोई सहमत या असहमत हो सकता है लेकिन उसकी ईमानदारी पर शक नहीं किया जा सकता। अंत में सिर्फ इतना ही कि यह न केवल एक राजनीतिक उपन्यास है बल्कि पिछले कुछ समय का एक महत्वपूर्ण डाक्यूमेंट भी है।


पुस्तक : रेड ज़ोन
लेखक : विनोद कुमार
 प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली
 कीमत : 395
 पृष्ठ : 400

दैनिक भास्कर के झारखंड संस्करणों में 12 फरवरी 2014 को प्रकाशित
 
(रचनाकार -परिचय:
जन्म: बिहार झरखंड के एक अनाम से गाँव में 9 जुलाई 1989 को
शिक्षा: वाणिज्य में स्नातक और जनसंचार में स्नातकोत्तर महात्मा  गांधी अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा से
सृजन: अनगिनत पत्र-पत्रिकाओं व वर्चुअल स्पेस  में लेख, रपट, कहानी, कविता
संप्रति: भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क: gunjeshkcc@gmail.com )



दिल में उतरी अरविंद की सादगी

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दिल्ली में बस कुछ नहीं, आप ही आप 


चित्र: गूगल से साभार



भवप्रीतानंदकी क़लम से
अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिले असाधारण बहुमत पर अचंभित हैं, और कह रहे हैं, यह बहुमत डरानेवाला है। आप कार्यकर्ताओं को चेता रहे हैं,  अधिक अहंकार मत पालो नहीं तो पांच साल बाद हमारी हालत भी भाजपा-कांग्रेस की तरह हो जाएगी। जीत के बाद यह दो बातें वही व्यक्ति कह सकता है जो चीजों को सही तरीके से देखने का आदी है। जो यह कह सकता है,  मैंने पिछली बार गलती की। मुझे दिल्ली में सरकार नहीं गिरानी चाहिए। अबकी मौका मिला तो ऐसा नहीं करूंगा। यह सादगी लोगों के दिलों में सीधे उतरती है। और उतरी भी। दिल्ली की जनता ने दिल खोलकर आप को ७० विधानसभा सीट में से ६७ सीट दे दिए।


देश में परंपरागत पार्टियों के लिए यह बहुमत सुधरकर सलीके से काम करने का संकेत दे रहा है। परंपरागत पार्टियां मतलब भाजपा और कांग्रेस को अपनी बैठकों में इस बात पर निश्चित मंथन करना चाहिए कि वह कौन-सा आंतरिक फोर्स काम कर रहा था,जो आप को लोगों ने इकतरफा वोट दे डाले। भ्रष्टाचार से मुक्ति हर आमोखास चाहता है। यह एक बहुत बड़ा मुद्दा तो है ही। दिल्ली में लोकल समस्या बिजली-पानी से जुड़ी है। इस संबंध में केजरीवाल की पिछली पचास दिनों की सरकार ने बहुत ठोस कदम उठाए थे। उस ठोस कदम का फायदा भी लोगों मिलने लगा था। इसके अलावा दिल्ली में एक प्रमुख समस्या कच्ची बस्ती की मान्यता से जुड़ी हुई है। उसके नियमन के लिए भी आप ने नीतिगत आश्वासन दिया था। ये कुछ ऐसे तत्व हैं, जो लोगों को आप के करीब ले आई। खासकर कच्ची बस्ती के नियमन से जुड़े मुद्दे ने निम्र मध्यमवर्गीय परिवार को आप के करीब ला दिया। इसके बरक्स भाजपा और कांग्रेस के वादे सिर्फ कोरे वादे ही लगते हैं। दोनों पार्टियां चुनाव के समय किए गए वादे को सत्ता मिलने के बाद लगभग भूल जाती हैं। फिर उन्हें उन लोगों की फिक्र ही नहीं रहती, जिसने उन्हें सत्ता दी है। यह जो ट्रेंड पारंपरिक पार्टियों में है, वादों से मुकरने का, इसके टूटने की दिन अब आ चुके हैं। अगर इस मिथ को इन पार्टियों ने नहीं तोड़ा तो उनका नामलेवा भी कोई नहीं रह जाएगा। जैसा कि अभी कांग्रेस की गत हुई है। लोकल मीडिया में एक जुमला खूब चला है कि भाजपा का भी यारो अजीब गम है। पहले चार कम थे...अब चार से भी कम है।
दिल्ली का विधानसभा चुनाव परिणाम है, इसलिए इसके राष्ट्रीय अर्थ भी निकाले जाते हैं। भाजपा में मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने कई चुनाव जीते हैं। दिल्ली में उन्हें मुंह की खानी पड़ी है। इसलिए कोई इसे दिल्ली  भाजपा की हार  या दिल्ली  भाजपा की रणनीतिक असफलता मानने को भी तैयार नहीं है। खासकर तब जब भाजपा ने दिल्ली में मुख्यमंत्री पद के लिए हैलीकॉप्टर लेंडिंग की तरह किरण बेदी को उतारा। दिल्ली में किरण बेदी को मुख्यमंत्री के तौर पर उतारने के बाद से ही भाजपा कार्यकर्ताओं में नाखुशी थी। खासकर किरण बेदी की कार्यशैली को लेकर। वह भाजपा या संघ की बातों को तवज्जो ही नहीं दे रही थीं। किरण बेदी का प्रशासनिक कार्यकलाप उन्हें राजनीति में कभी सहजता से लोगों से रूबरू नहीं होने देगा, इसे दिल्ली की चुनाव ने साफ कर दिया है। अमित शाह ने मुखमंत्री पद के लिए किरण बेदी को इसलिए प्राथमिकता दी कि वह साफ छवि की हैं। भ्रष्टाचार से मुक्ति की बात केजरीवाल के बरक्स वही करेंगी  तो दिल्ली  की जनता में अच्छा संदेश जाएगा। फिर मोदी की चार-पांच सभाएं कराकर दिल्ली के किले में भी घुस जाया जाएगा। लेकिन यह सब दांव उलट पड़े। सबसे पहले संघ और पार्टी कार्यकर्ताओं में किरण बेदी को लेकर उपेक्षा का भाव पनपा। जो ठीक चुनाव के पहले स्पष्ट रूप से दिखाई देना शुरू हो गया था। दूसरा, जो सबसे खतरनाक ट्रेंड दिखाई दिया वह यह है कि पार्टी में वर्षों समय खपाने के बाद  अगर बाहर से मुख्यमंत्री पद के लिए किसी को बिठा दिया जाता है तो पार्टी में उपेक्षा का वातावरण पसर जाता है। यही बेदी के साथ हुआ। हार के बाद उनका पहला स्टेटमेंट देखिए, मैं हारी नहीं हूं। हार के बारे में जानना है तो भाजपा से पूछो। सोचिए, जिस प्रशासनिक अधिकारी कम  नेता को आपने मुख्यमंत्री पद के लिए चुना वह पूरी पार्टी को ही कटघरे में खड़ा कर रही है। भाजपा यही भूल पश्चिम बंगाल में क्रिकेटर सौरभ गांगुली को पार्टी में लाकर करना चाहती है। वो तो सौरभ ही बार-बार कन्नी काट रहे हैं। कुल मिलाकर अपने पार्टी में तपे नेता में से ही किसी एक को चुनकर उसे प्रोजेक्ट किया जाए तो अधिक अच्छा है। किरण बेदी वाला प्रयोग भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए एक सबक से कम नहीं है।
केंद्र में सत्ता में आने के बाद से भाजपा ने कुछ ऐसे कदम उठाए हैं जिसने दिल्ली चुनाव पर बुरा असर डाला है। इसमें पहला है, धर्म परिवर्तन कर घर वापसी वाली मुहिम। संघ के नेताओं को अब तो ऐसा लग रहा है,  जैसे लाइसेंस मिल गया है। कुछ सांसद तो मुंहफट हो चुके हैं। हिंदुओं को अधिक बच्चे पैदा करने के सार्वजनिक बयान ऐसे दे रहे हैं, जैसे वह उनका निजी मसला है। ऐसे बयान अगर थोक के भाव में आते रहेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब भाजपा मूल मुद्दे से भटक जाएगी और देश में सांप्रदायिक माहौल बिगड़ जाएगा। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा जब इस ओर इंगित करते हैं तो बुरा लगता है क्योंकि यह हमारा नितांत निजी मामला है। पर मामला निजी तभी तक रहता है, जब हम चीजों को निजी रहने देते हैं। बेलगाम होकर जहां-तहां घर वापसी के स्टेटमेंट देने से चीजों निजी नहीं रह पाएंगी। दिल्ली की जनता ने इसके विरोध में भी अपना वोट दिया है। नहीं तो दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में साक्षी महाराज ने माहौल तो बिगाड़ ही दिया था।
एक अन्य बात मोदी के पर्सनल व्यक्तित्व से जुड़ी है। वह जब सोने के तार से अपना नाम गुदवाई शेरवानी पहनते हैं और मीडिया में यह बात उछलती है कि मोदी नेदस लाख की ड्रेस पहनी है, तो इसकी कोई सार्थक छाप जनता पर नहीं जाती। मोदी से अधिक मोदी का पहनावा समाचार का विषय वस्तु बने तो इसमें भविष्य के खतरनाक संकेत  छिपे हैं। दूसरी बात, अपने विचार या किसी मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया ट्विट करने के स्थान पर पत्रकारों से मिलिए। धर्म परिवर्तन, घर वापसी ऐसे मुद्दे हैं जिसपर लोग प्रधानमंत्री की राय जानता चाहते हैं। उनकी प्रतिक्रिया से लोगों में उनसे प्यार या उपेक्षा जन्म लेगी। इस मामले में मोदी तो मनमोहन सिंह से भी आगे हैं। वह मीडिया से मिलना ही नहीं चाहते हैं। जनता को अपने सामने सरकार की स्थिति स्पष्ट ही नहीं करना चाहते हैं। हर उस मुद्दे पर, जो राष्ट्रीय स्तर पर असर डालती है उसपर मोदी की या फिर स्पोक्स पर्सन की सफाई (जवाब) आनी चाहिए। मोदी की कई मुद्दों पर अस्पष्टता ने भी दिल्ली में भाजपा के वोट काटे ही होंगे।

दिल्ली चुनाव परिणाम ने स्पष्ट संकेत दिया है जो कहो, उसे करो। जो करो उसके बारे में बताओ। जो बताओ वह तथ्यहीन नहीं हो। यानी प्रशासक और उसको चुनने वाली जनता के बीच कोई बिचौलिया नहीं हो।
.............................












(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )
 

तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो : कलीम आजिज़

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कलीम आजिज़














इंक़लाबी शायर का अंदाज़ जुदा 

1.
इस नाज़ से, अंदाज़ से तुम हाये चलो हो
रोज एक ग़ज़ल हमसे कहलवाये चलो हो

रखना है कहीं पांव तो रक्खो हो कहीं पांव
चलना जरा आ जाये तो इतराये चलो हो

दीवान-ए-गुल क़ैदी-ए-जंजीर है और तुम
क्या ठाठ से गुलशन की हवा खाये चलो हो

मय में कोई ख़ामी है न साग़र में कोई खोट
पीना नहीं आये है तो छलकाये चलो हो

हम कुछ नहीं कहते हैं, कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सबसे कहलवाये चलो हो

ज़ुल्फ़ों की तो फ़ितरत है लेकिन मेरे प्यारे
ज़ुल्फ़ो से भी ज्यादा बलख़ाये चलो हो

वो शोख़ सितमगर तो सितम ढ़ाये चले है
तुम हो के कलीम अपनी ग़ज़ल गाये चलो हो

2.

दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो

मेरे ही लहू पर गुज़र औकात करो हो
मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो

हम खाकनशीं तुम सुखन आरा ए सरे बाम
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो

हमको जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है
हम और भुला दें तुम्हें? क्या बात करो हो

दामन पे कोई छींट न खंजर पे कोई दाग
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो

यूं तो कभी मुँह फेर के देखो भी नहीं हो
जब वक्त पड़े है तो मुदारात करो हो

बकने भी दो आजिज़ को जो बोले है बके है
दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो.

3.
ज़ालिम था वो और ज़ुल्म की आदत भी बहुत थी
मजबूर थे हम उस से मुहब्बत भी बहुत थी

उस बुत के सितम सह के दिखा ही दिया हम ने
गो अपनी तबियत में बगावत भी बहुत थी

वाकिफ ही न था रंज-ए-मुहब्बत से वो वरना
दिल के लिए थोड़ी सी इनायत भी बहुत थी

यूं ही नहीं मशहूर-ए-ज़माना मेरा कातिल
उस शख्स को इस फन में महारत भी बहुत थी

क्या दौर-ए-ग़ज़ल था के लहू दिल में बहुत था
और दिल को लहू करने की फुर्सत भी बहुत थी

हर शाम सुनाते थे हसीनो को ग़ज़ल हम
जब माल बहुत था तो सखावत भी बहुत थी

बुलावा के हम "आजिज़"को पशेमान भी बहुत हैं
क्या कीजिये कमबख्त की शोहरत भी बहुत थी

4.

ये आँसू बे-सबब जारी नहीं है
मुझे रोने की बीमारी नहीं है

न पूछो ज़ख्म-हा-ए-दिल का आलम
चमन में ऐसी गुल-कारी नहीं है

बहुत दुश्वार समझाना है गम का
समझ लेने में दुश्वारी नहीं है

गज़ल ही गुनगुनाने दो मुझ को
मिज़ाज-ए-तल्ख-गुफ्तारी नहीं है

चमन में क्यूँ चलूँ काँटों से बच कर
ये आईन-ए-वफादारी नहीं है

वो आएँ कत्ल को जिस रोज चाहें
यहाँ किस रोज़ तैयारी नहीं है

5.
नज़र को आइना दिल को तेरा शाना बना देंगे
तुझे हम क्या से क्या ऐ जुल्फ-ए-जनाना बना देंगे

हमीं अच्छा है बन जाएँ सरापा सर-गुजिश्त अपनी
नहीं तो लोग जो चाहेंगे अफसाना बना देंगे

उम्मीद ऐसी न थी महफिल के अर्बाब-ए-बसीरत से
गुनाह-ए-शम्मा को भी जुर्म-ए-परवाना बना देंगे

हमें तो फिक्र दिल-साज़ी की है दिल है तो दुनिया है
सनम पहले बना दें फिर सनम-खाना बना देंगे

न इतना छेड़ कर ऐ वक्त दीवाना बना हम को
हुए दीवाने हम तो सब को दीवाना बना देंगे

न जाने कितने दिल बन जाएँगे इक दिल के टुकड़े से
वो तोड़ें आईना हम आईना-खाना बना देंगे


6.

मेरी मस्ती के अफसाने रहेंगे
जहाँ गर्दिश में पैमाने रहेंगे

निकाले जाएँगे अहल-ए-मोहब्बत
अब इस महफिल में बे-गाने रहेंगे

यही अंदाज-ए-मै-नोशी रहेगा
तो ये शीशे न पैमाने रहेंगे

रहेगा सिलसिला दा-ओ-रसन का
जहाँ दो-चार दीवाने रहेंगे

जिन्हें गुलशन में ठुकराया गया है
उन्हीं फूलों के अफसाने रहेंगे

ख़िरद ज़ंजीर पहनाती रहेगी
जो दीवाने हैं दीवाने रहेंगे 





(परिचय :
असली नाम : कलीम अहमद
जन्म :11 अक्तूबर 1924, तेलहाड़ा (जिला पटना) में हुआ।
शिक्षा : पटना विश्वविद्यालय से र्दू साहित्य के विकास पर पीएचडी
सेवा : 1964-65 में पटना कालेज में लेक्चरर हुए और 1986 में सेवानिवृत्त हुए। वर्तमान समय में बिहार सरकार, उर्दू मुशावरती कमिटी के अध्यक्ष थे ।
सृजन :  मजलिसे अदब (आलोचना); वो जो शाइरी का सबब हुआ, जब फसले बहाराँ आई थी(ग़ज़ल संग्रह); फिर ऐसा नज़ारा नहीं होगा, कूचा-ए जानाँ जानाँ (ग़ज़लों एवं नज़्मों का संग्रह); जहाँ ख़ुशबू ही ख़ुशबू थी, अभी सुन लो मुझसे (आत्मकथा); मेरी ज़बान मेरा क़लम (लेखों का संग्रह, दो भाग); दफ़्तरे गुम गश्ता (शोध); दीवाने दो, पहलू न दुखेगा (पत्रों का संग्रह); एक देश एक बिदेसी (यात्रा-वृत्तान्त, अमेरिका); यहाँ से काबा-काबा से मदीना (यात्रा-वृत्तान्त, हज) इसके अलावा मो. जाकिर हुसैन के संपादन में उनकी शायरी का संकलन दिल से जो बात निकली ग़ज़ल हो गई शीर्षक से हिंदी में प्रकाशित ।
सम्मान : पद्म श्री 1989, भारत सरकार; इम्तियाज़े मीर, कुल हिंद मीर अकादमी, लखनऊ; अल्लामा, मशीगन उर्दू सोसाइटी, अमेरिका; अल्लामा, तिलसा लिटरेरी सोसाइटी, अमेरिका; प्रशंसा पत्र, मल्टी कल्चरल कौंसिल आफ ग्रेटर टोरंटो; प्रशंसा पत्र, उर्दू कौंसिल आफ कनाडा; मौलाना मज़हरुल हक़ पुरस्कार, राज्य भाषा, बिहार सरकार; बिहार उर्दू अकादमी पुरस्कार।
निधन : 15 फ़रवरी 2015 हज़ारीबाग़ झारखंड में. पटना में सुपुर्द-ख़ाक किये जाएंगे। )

महज़ इक सुख़नवर का जाना नहीं कलीम

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कलीम आजिज़ एक गुमनाम शायर का फ़साना

सिद्धान्त मोहन की क़लम से
कलीम आजिज़, यानी वह शख्स जो मीर की रवायत को अब तक बनाए रखे हुए था, हमें और उर्दू शायरी छोड़ चले गए. यह छोड़कर जाना सिर्फ़ एक सुखनवर के गुज़र जाने का होता तो कोई बात भी थी, लेकिन यह जाना पूरी उर्दू शायरी और उससे कमोबेश हर हाल में प्रभावित रहने वाली हिन्दी कविता के एक बड़े अध्याय का जाना था. आपातकाल के वक्त इंदिरा गांधी के लिए कलीम साहब ने कहा था:
रखना है कहीं तो पाँव तो रखो हो कहीं पाँव
चलना ज़रा आया तो इतराए चलो हो.
और
दामन पे कोई छींट न खंजर पे कोई दाग़
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो

और इसी के साथ कलीम साहब की शायरी के सियासी लहजे को भी वह मक़ाम मिला, जो आज हम सबके सामने है. बात ज़ाहिर करने के लिए मीर की पूरी परम्परा को अख्तियार करते हुए कलीम आजिज़ ने अपने अंदाज़-ए-बयां को फ़िर भी पूरी मकबूलियत दी
.
हम ख़ाकनशीं तुम सुखन आरा-ए-सरे बाम
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो

इसके साथ-साथ कलीम आजिज़ ने हरेक सामाजिक पहलू को अपनी शायरी में समेटने का बीड़ा उठाया. चाहे इश्क करना हो या क़ाफिर साबित होना हो, कहीं भी कलीम साहब ने भाषा और लहज़े को मुक़म्मिल बनाए रखा. किसी भी स्थिति को साफ़ और ज़ाहिर तरीकों से सामने रखने के लिए जो अंदाज़ कलीम आजिज़ ने अख्तियार किया था, वह आज भी प्रासंगिक और पूरे वजूद में बना हुआ है.
अंदर हड्डी-हड्डी सुलगे बाहर नज़र न आए
बहुत कम कवियों और शाइरों के साथ ऐसा होता आया है कि उनकी ही किसी नज़्म, शेर या कविता के साथ ही उनका व्यक्तित्व या उनके जाने को बयां किया जा सके. उन बेहद कम लोगों की फ़ेहरिस्त में कलीम आजिज़ का नाम गिना जा रहा है.
दर्द का इक संसार पुकारे, खींचे और बुलाए
लोग कहे हैं ठहरो-ठहरो ठहरा कैसे जाए
ऐसा कम हुआ है कि किसी शायर की मौत पर सियासतदार ने अपना गम ज़ाहिर किया हो. अपनी राजनीतिक विषमताओं से दो-चार हो रहे राज्य बिहार के नेता नीतीश कुमार ने कहा, ‘बिहार में हिन्दू-मुस्लिम इत्तिहाद का बड़ा पैरोकार हमारे बीच से चला गया है. कलीम साहब के जाने से उर्दू अदीब का एक बड़ा सितारा बुझ गया.’
बिहार में क़ाबिज़ रंगकर्मी हृषिकेश सुलभ कहते हैं, ‘पोएट(शायर) दो तरह के होते हैं – एक सिर्फ़ पोएट और दूसरे पोएट ऑफ़ पोएट्स. कलीम आजिज़ दूसरे किस्म के शायर थे. उन्होंने शायरी और जीवन के कई दौर देखे थे. अज़ीमाबाद की शायरी के वे बड़े नामों में शुमार थे.’
शायरी में पसरे पॉपुलर कल्चर के बारे में बात करने पर सुलभ कहते हैं, ‘जिस तरह यह ज़रूरी नहीं कि जो लोकप्रिय हो वह अच्छा हो, इसलिए यह भी ज़रूरी नहीं कि जो लोकप्रिय हो वह ख़राब भी हो. कलीम आजिज़ की लोकप्रियता के अपने मानी थे. वे बशीर बद्र व निदा फाज़ली तरह नहीं थे, इसका मतलब यह नहीं कि उनकी शायरी कमज़ोर थी. वे गंभीर थे, जब वे पढ़ना शुरू करते थे तो हर कोई शान्त होकर उन्हें सुनता था. उनके आगे-पीछे कोई नहीं होता था. उन्होंने शायरी के मेआर को बनाए रखा था.’
हिन्दी कवि और आलोचक असद ज़ैदी कहते हैं, ‘मुझे आज से क़रीब 40 साल पहले एक मित्र ने कलीम साहब की गज़ल पढ़ाई थी. उस समय मेरा परिचय आजिज़ की शायरी से हुआ था. मैं कहूँगा कि मीर के लहज़े और डिक्शन को पूरी मजबूती के साथ पकड़ने वाले शायर आजिज़ साहब थे.’ असद ज़ैदी आगे कहते हैं, ‘विभाजन के दौरान कलीम आजिज़ के समूचे परिवार का ख़ात्मा कर दिया गया था. हमें और आपको पता है कि इसके क़त्ल-ए-आम के पीछे कौन था? आजिज़ साहब को भी पता था. लेकिन यह अचरज का विषय है कि इन सबके बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई और नौकरी का रास्ता बुलंद किया.’ गुमनामी के बारे में बात करते हुए असद ज़ैदी कहते हैं, ‘बिहार के बाहर मुट्ठीभर पाठक ही हैं, जो आजिज़ साहब को पढ़ते-जानते हैं. उर्दू शायरी के चुनिन्दा नाम ही सभी को पता हैं. लेकिन यह जानना ज़रूरी है कि गंभीरता और ख़ामोशी के साथ शायरी करने वाला शायर कलीम आजिज़ है.’
साफ़ है कि हिन्दी के कल्चर में जिस तरह केवल चुनिन्दा शाइरों का नाम प्रचलन में रहा, उसका शिकार कलीम आजिज़ की शख्सियत भी हुई. उन्हें हिन्दी पट्टी के पाठकों ने नहीं पढ़ा. युवाओं में उनकी उपस्थिति बिलकुल गायब थी. युवाओं के पास ग़ालिब, मीर और फैज़ सरीखे बड़े नाम तो थे लेकिन इन नामों से नया परिष्कार क्या हुआ, बेहद कम लोगों को मालूम है.
और चलते-चलते कलीम आजिज़ की एक गज़ल...
इस नाज़ से अंदाज़ से तुम हाय चलो हो
रोज़ एक गज़ल हम से कहलवाए चले हो
रखना है कहीं पांव तो रखो हो कहीं पांव
चलना ज़रा आया है तो इतराए चले हो
दीवाना-ए-गुल क़ैदी ए ज़ंजीर हैं और तुम
क्या ठाठ से गुलशन की हवा खाए चले हो
ज़ुल्फों की तो फ़ितरत ही है लेकिन मेरे प्यारे
ज़ुल्फों से ज़ियादा तुम्हों बलखाये चले हो
मय में कोई ख़ामी है न सागर में कोई खोट
पीना नहीं आए है तो छलकाए चले हो
हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सबसे कहलवाए चले हो
वो शोख सितमगर तो सितम ढाए चले हैं
तुम हो कलीम अपनी गज़ल गाये चले हो

(साभार TwoCircles.net )

इंक़लाबी शायर कलीम आजिज़ की ग़ज़लें पढ़ें










(लेखक-परिचय:
जन्म : बनारस में
शिक्षा : बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय से
सृजन: लेख और कविताएं प्रकाशित
संप्रति : वेब पत्रिका फर्स्ट फ्रंटका संपादन और स्वतंत्र लेखन
ब्लॉग: बुद्धू-बक्सा
संपर्क : sidaurche@gmail.com)




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