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Channel: Hamzabaan हमज़बान ھمز با ن
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कोई अश्क आँख से ढल गया, कोई आरज़ू सी मचल गयी

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अभिषेक श्रीवास्तव की क़लम से


1.

एक सरापा जुस्तज़ू और कुछ करम हासिल ना हो
मेरी क़िस्मत ये जहाँ तक शौक़ हो मंज़िल ना हो

ज़िंदगी की ग़ालिबन तफ़सील ही मुश्किल में हैं
और मुश्किल ये कि मुश्किल हो अगर मुश्किल ना हो

वो कि बेजा कशमकश में अब तलक है मुब्तिला
मेरी तब थी इल्तजा  अब क्या पता कि दिल ना हो

एक ये आशिक़ कि जीते जी उसे संगदिल कहें
एक वो बामन कि उसका संग भी संगदिल ना हो

चल पड़े हम सर झुकाये बात आधी छोड़कर
सर को उसने भी झुकाया यूँ कि वो ग़ाफ़िल ना हो


2.

अजब ये दर्द के मारों की दुनिया
अना के चंद बीमारों की दुनिया

यहाँ हर शय के दाम तयशुदा है
यहाँ हर गाम बाज़ारों की दुनिया

डराते हो मुझे क्यूँ आख़िरत  से
यहीं क्या कम है आज़ारों की दुनिया

हर एक भगवान् को प्यारी लगे है
डरे सहमे से लाचारों की दुनिया

अना के साथ जीने की सज़ा है
हमारे हक़ पे इन्कारों की दुनिया


3.
वो आये मगर जाने किधर देखते रहे
हम ग़ौर  से बस उनकी नज़र देखते रहे

हाँ बात वो अंजाम तक पहुँची नहीं मगर
हम उसका हशर सारी उमर देखते रहे

हौले से मुस्कुरा दिये जो हमने यूँ कहा
क्या हम नहीं थे आप जिधर देखते रहे

जो चुप रहे तो हाल-ए-जिगर पूछते रहे
जो कह दिया तो तल्ख़ नज़र देखते रहे


4.
ख्वाब का बह गया महल शायद
लौट आँखों मे आया जल शायद

फिर उसी इक सवाल पे अटके
सबसे मुश्किल है जिसका हल शायद

हाय वो पल हमारे मिलने का
अब मिलेगा नहीं वो पल शायद

बात जिस कल पे मुल्तवी कर दी
हो गया मुल्तवी वो कल शायद

रात आँखों से खून आया था
हसरतों का है ये अमल शायद

आस्तां पे तुम्हारे बैठे हैं
हमको आयेगा इससे कल शायद

5.
और जो चाहा किये थे पा गये
जुस्तजू से पर तेरी उकता गये

इक वो पहले इश्क़  की तशना-लबी
और कुछ हम फ़ितरतन घबरा गये

थरथराते लब थे झुकती सी नज़र
पास जितने लोग थे धुँधला गये

एक मोमिन यूँ हुये दिल आशना
बस निगाहों से करम फ़रमा गये

उम्र भर के तजरुबे सब इक तरफ
इक तरफ तुम शेख जी टकरा गये

6.
हमने जाँ पर बेतरह पाले हैं ग़म
बस गए हैं रूह पर जाले हैं ग़म

ज़िंदगी जो ज़िंदगी थी क्या हुई
सिर्फ काली रात है काले हैं ग़म

हम ग़मों से भागकर जायें कहाँ
जीते जी जाने कहाँ वाले हैं ग़म

कैद में मैं ज़िंदगी की मर गया
बाब पर लटके हुए ताले हैं ग़म

इल्तेज़ा मिन्नत गुज़ारिश क्यूँ करें
इन सदाओं ने कहाँ टाले हैं ग़म


7.

सोचते हैं कि भूल जायें उसे
सोच के भूल कैसे पायें उसे

उसको भूले तो किस तरह भूलें
आप जब ज़िंदगी सा चाहें उसे

आप गर आप हैं तो मुमकिन है
आप एक रोज़ याद आयें उसे

इश्क करिये मगर ये ख़तरा है
खो भी दें और कभी ना पायें उसे

हम तो सब कुछ लुटा के आयें हैं
आप जायें, खरीद लायें उसे


8.
किसी हसरत पे, दिल को प्यार से, फुसला दिया जाये,
बड़ा मायूस हो बैठा, चलो समझा दिया जाये

दवा उसकी यही होगी, जो गुमसुम है खयालों में,
उसी का दर्द, उसके मुहं से अब कहला दिया जाये

मैं मुंसिफ उस अदालत का, जहाँ ये हाल है हरद
मेरे हालात का मुजरिम मुझे ठहरा दिया जाये

वो ज़िंदा है तेरे बिन, और इतनी उम्र है बाकी
सिवा इसके तेरे मुजरिम पे क्या फतवा दिया जाये

यहाँ हर शख्स की आंखों में इक मंज़र उदासी का
बड़े महंगे हैं चारागर, इन्हें समझा दिया जाये

किसी के नर्म हाथों से, किसी के दीदा-ए-तर से
मेरे ज़ख्मों की ख्वाहिश है, उन्हें सहला दिया जाये

अगर साहिब की मर्जी हो, अगर हज़रत इजाज़त दें
कतल तो हो चुका हूँ मैं ,मुझे दफना दिया जाये

9.
यूँ बहार अबकी गुज़र गयी, कि खिज़ा ही रंगत बदल गयी
मेरे ग़म अगर्चे ना कम हुये, और वस्ल की रात भी ढल गयी

तेरे ग़म से जब था आशना, तुझे क्यूँ मैं करता कुछ बयाँ
तू शमा थी, बाइस-ए-नूर थी, जो दयार-ए-गैर में जल गयी

जो विसाल में मेरा हाल था, तेरे बिन तो जीना मुहाल था
तुझे दिल में ऐसे बसा लिया, घड़ी मुश्किलात की टल गयी

जो पढ़ा किये वो किताब थी, तू गये जनम का सवाब थी
जो लकीर थी मेरे हाथ की, वो लकीर कैसे बदल गयी

मेरा हाल कोई बुरा नहीं, तेरा नाम सुनके हुआ यही
कोई अश्क आँख से ढल गया, कोई आरज़ू सी मचल गयी

10.

बड़े मायूस रहते हैं, बड़े खामोश रहते हैं
चलो बेहतर कि अब सदमों से हम बेहोश रहते है

कभी नज़रों से मेरी उसको देखो तब ये जानोगे
कि बस एक मय नहीं हैं , जिसमें सब मदहोश रहते हैं

मैं मुद्दत से खुशी की बात पे भी खुश नहीं होता
मेरी आँखों में कुछ दरिया हैं, जो रू-पोश रहते हैं

वो बचपन में मेरे मिट्टी के कुछ घर तोड़ गया था
वगरना लोग मेरी उम्र के पुर-जोश रहते हैं

फिराक़-ओ-ग़ालिब-ओ-मख़दूम से बचपन की निस्बत है
मेरे कूचे में अब तक फ़ैज़ हसरत जोश रहते है

(रचनाकार-परिचय
जन्म : २० जून, १९८०
शिक्षा : सांख्यिकी और गणित में स्नातक, लखनऊ विश्वविद्यालय, एमसी एए बीटीआई कानपुर
सृजन : वर्चुअल स्पेस में सक्रिय लेखन 
संप्रति :  गुडगाँव में निजी संस्थान में सॉफ्टवेर डिज़ाइन प्रोफेशनल
संपर्क : abhihbti@yahoo.com )




सिरफुटौव्वल आपको मुबारक

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ईमानदारी रखें बरक़रार आप 

कहां गए वे दिन।  फोटो : रायटर (गूगल महाराज का सौजन्य )








भवप्रीतानंद की क़लम से
कुछ विद्वान लोग जब आपस में ऐसे लड़ते हैं कि बच्चों की लड़ाई फीकी लगने लगे, तो सिर्फ और सिर्फ यही कहने का मन करता है कि आप लड़े, नो प्राब्लम। पर दिल्ली की जनता ने जिस ध्येय से आपको ऐतिहासिक जनमत विधानसभा में दिया है उसका सम्मान कीजिए। अभी के झिझिर कोना, झिझिर कोना, कोन कोना, के खेल में उस ईमानदारी को मत तिरोहित होने दीजिए जिसके लिए अरविंद केजरीवाल  आपको ६७ सीटें दी गई हैं।
जो वर्चस्व की लड़ाई आम आदमी पार्टी में जारी है उसमें सबके के निजी हित जुड़े हुए हैं। बिना किसी लाग लपेट के कहा जाए तो अभी आम आदमी पार्टी के असली हीरो अरविंद केजरीवाल ही हैं। उन्हीं को दिल्ली की जनता ने वोट दिया है। तमाम भीतरी विरोधियों की साजिश के बाद भी, जिसका उन्होंने २८ मार्च को पार्टी की हंगामेदार सभा में जिक्र किया था, दिल्ली की जनता ने उन्हें हीरो बनाया था। इस बहुमत को देखकर उनके मुंह से भी निकला था अरे बाप रे बाप। अभी यह देखना उतना अहम नहीं है कि अरविंद केजरीवाल सत्ता लोलुप हैं कि नहीं, देखना यह जरूरी है कि जो लेटर बम, जो स्ंिटग, जो नितांत निजी एसएमएस को मीडिया के सामने रख रहे हैं उनकी मंशा क्या है। अरविंद केजरीवाल की महात्वाकांक्षा को जानना इसलिए  गौण विषय-वस्तु की श्रेणी में आता है कि उन्हें तो जनता ने हीरो बनाया है। जनता अपने हीरो को जहां बिठाना चाहती थी बिठा दिया। इसके लिए  उन्हें पांच  वर्ष का समय भी दिया है। आज अगर अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री का पद छोड़कर पार्टी के किसी दूसरे नेता को यह जिम्मेदारी दे देते हैं तो उनकी छवि पार्टी में तो निखर जाएगी पर जनता इस स्टेप को कितना पचा पाएगी यह कहना मुश्किल है।

गौर करें तो पार्टी अभी अनकमांड की स्थिति में है। इसमें डेकोरम का घोर अभाव है। इसमें जितने भी उच्च पदों पर लोग हैं वह सुबह उठते ही मीडिया की माइक चाहते हैं और सोने से पहले मीडिया को ब्रीफ कर सोना चाहते हैं। योगेंद्र यादव या फिर प्रशांत भूषण या फिर और और महानुभाव को जो पद आम आदमी पार्टी में दिया गया था, उसके साथ उन्होंने कभी न्याय नहीं किया। उन्हें कोई सूचना मिलती तो वह पार्टी के भीतर बहस के बजाय मीडिया को बताना उचित समझते हैं। मीडिया से ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जी को पता लगत पाता है कि पार्टी में कितना कुछ घट चुका है। अपने यहां, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उस टीनएज के दौर से गुजर रही है जहां वह अपवाह और हकीकत में फर्क नहीं कर पाती है। अपवाह को भी हकीकत की श्रेणी में लेकर शाम सात से लेकर नौ तक सभी चैनल विद्वानों के कोलाहलों से त्रस्त रहते हंै। और आप के स्वनामधन्य नेतागणों की मीडिया को लेकर लार टपकाने वाली प्रवृति अभी कम नहीं हुई है। इसका कारण एक यह भी हो सकता है कि इसमें कई विद्वान ऐसे हैं जो वर्षों वर्ष तक मीडिया में लिखते-दिखते रहे हैं। उन्हें लगता है कि पार्टी की जरूरी सूचना पार्टी के अंदर देने के बजाय पहले  मीडिया को पकड़ा दिया जाए। फिर हो हल्ला शुरू। मार्च का करीब आधा पखवाड़ा आम आदमी पार्टी के मूर्खताभरे बयानों से त्रस्त रहा है। उन्होंने ऐसा कहा, तो फलाने ने वैसा किया।

पार्टी के मुखिया होने के नाते केजरीवाल को इन सब चीजों पर कड़ाई से स्टेप उठाने के दिन आ गए है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाते हैं तो चीजें उनके हाथ से निकल जाएंगी। हालांकि उन्होंने २९ मार्च को आपात बैठक बुलाकर  अनुशासन समिति और लोकपाल कमेटी को लगभग पूरी तरह से बदल दिया है। पर ध्यान इसपर भी देना चाहिए कि जिन्हें यह जिम्मेदारी दी गई है वह पार्टी के दायित्वों और मीडिया ब्रीफ के तकनीकी पक्ष से पूरी तरह से वाकिफ हों। दूसरे शब्दों  में कहा जाए तो उनमें वह स्वनामधन्यता नहीं हो जिसके कारण वे सूचनाओं को पार्टी प्रमुख तक पहुंचाने में अपना हेठी समझते हों।

इच्छा-महात्वाकांक्षा किसमें नहीं होती। जिसमें नहीं होता है वह रचनाहीन व्यक्ति होता है। राजनीति में आने से पहले अरविंद केजरीवाल एक दशक से अधिक समय तक आईआरएस थे। प्रशासनिक अधिकारी होने के नाते उन्होंने कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया जिसका कि जिक्र यहां पर किया जाए। एक दूसरे आम प्रशासनिक ऑफिसर की तरह वह भी थे। पर जो बातें गौर करने लायक है वह है कि इस दौरान उन्होंने ऐसा भी कुछ नहीं किया जो उनपर कीचड़ उछले। उनकी ईमानदारी पर बट्टा लगे। पर उन्होंने एक बहादुरी भरा कदम तो उठाया ही। राजनीति में आने का। जन आंदोलन से जुडऩे का।  उसमें वह धीरे-धीरे सफल भी हुए और अपनी ऐसी पर्सनैलिटी बनाई कि कम-से-कम दिल्ली की जनता के तो दीवाने बन ही गए। साथ में एक सुचिता भरी राजनीति का वादा भी किया है जो अब तक तो  कायम है। आगे का नहीं जानता। सिरफुटौव्वल के खेल में भी अभी तक किसी ने यह नहीं कहा है कि आप के फलां नेता भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। या फिर जनता के पैसा का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं।

आम आदमी के लिए अभी सबसे अहम यही हो सकता है कि वह लंबे  समय तक बयानबाजी करने वाली पार्टी नहीं बने। या सिर्फ बयानबाजी करने वाली पार्टी बनकर न रह जाए। मीडिया को लेकर अतिरिक्त आग्रह को कम करने की जरूरत है। पार्टी को ठोस रूप में यह बराबर बताते  रहना चाहिए कि दिल्ली की जनता से जो उन्होंने वादा किया था उसमें क्या-क्या पूरा हो गया है और किस पर काम चल रहा है। यह इसलिए भी जरूरी है कि लोगों तक सिर्फ एकतरफा संदेश नहीं जाना चाहिए।
एक पखवाड़े से जारी इस खेल का सबसे दुखद पहलू यह है कि पार्टी से मेधा पाटेकर ने नाता तोड़ लिया। मेधा पाटेकर ने गत  लोकसभा चुनाव लड़ा  था  और उन्होंने बहुत अच्छे मत प्राप्त किए थे। भारतीय राजनीति को अभी ऐसे-ऐसे प्रतिभावान लोगों की आवश्यकता है जिनके पास कुछ करने का विजन है। कुछ करने की ईमानदार कोशिश उनमें बची है। मेधा पाटेकर को थोड़ा धैय रखना चाहिए था। वर्चस्व की इस लड़ाई को चुपचाप देखते रहने देना चाहिए था। राजनीति में जो चीज मीडिया में खूब चर्चा का  विषय बनती है, इतिहास के कई प्रमाण गवाह हैं, वक्त के साथ उनके साथ कोई नहीं रहता है। ताजा प्रमाण बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी का है। इसलिए मेधा पाटेकर को धैर्य रखना चाहिए था। अरविंद केजरीवाल चाहें तो उन्हें मनाकर वापस ला सकते हैं। इसके लिए दरियादिली और बड़कपन दिखाने की जरूरत है। क्योंकि मेधा पाटेकर की कार्य क्षमता और उनकी दूर दृष्टि का इस्तेमाल व्यापक हित में किया जा सकता है।
शुरू-शुरू में केजरीवाल भी खूब मीडिया फ्रेंडली थे। दूसरी बार सत्ता में आने के बाद उन्हें समझ में आने लगा कि क्या कहना सही होगा और क्या कहने का संदेश गलत जाएगा। इसलिए दूसरी बार शपथ लेने के बाद उन्होंने मीडिया के बचकाने स्वरूप का जिक्र करते हुए चुटकी भी ली थी। आप को भी अपने बचकाने  स्वरूप की छवि को तोडऩा होगा। विद्वान और पढ़ेलिखे लोग राजनीति में जरूर आएं, यह समय-समाज की मांग है। पर राजनीति का जो शास्त्र होता है वह भी तरीके से ओढ़ें, यह नितांत जरूरी होता है।


(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )

हमज़बान पर पढ़ें  भवप्रीतानंद को

गुज़रे दिनों को याद करते हुए

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संग्रह उर्फ़ इतिहास से चार कविताएं
 










शहरोज़  


पापा मैं बेटा हो गई हूं

(दाया के लिए)

बहादुरगढ़ मेले से
तुम्हारी लाई मेरी चॉकलेटी क़मीज़
उसी पुराने बक्से में रक्खी है
हर दीवाली, दशहरे पर
उसे बदन में अटाने की कोशिश करती हूं
पापा ! अब मैं बड़ी हो गई हूं
लेकिन क़मीज़ की छूअन पूरे जिस्म में
तुम्हारी गर्माहट को पुनर्जीवित कर देती है।


तुम सब कुछ तो ले गए
लेकिन ईमानदारी, साहस और सच्चाई
इस अमानवीय होते समय में भी
तुम्हारी ये अनमोल धरोहर
अब भी हमारी सहचर हैं।

तुम्हारी ही तरह हर साल-छह महीने बाद
स्वाभिमान गलियों में भटकाता है
रोज़ बसों और दफ़्तरों की लपलपाती जिव्हाएं
सभ्यताओं पर तमांचा जड़ जाती हैं।

अम्मा और छोटू को गांव छोड़ आई हूं
छोटू ने आठवीं पास कर लिया है, अच्छा लगा न!
और मैं दिल्ली में हूं पापा
और बेटा हो गई हूं
तुम यही चाहते थे न!


प्रसंग बनाम संबंध उर्फ़ इतिहास

दूर देस से आया परिंदा
रोज़ दाने चुगता और हम चुगाते रहे
अचानक हमारे ही पत्थर से हुआ ज़ख़्मी
वह छटपटाता, फड़फड़ाता रहा।

सुबह से दूसरी सुबह तक
हम बढ़ते रहे अनजान
पास, पड़ोस की चीत्कारों और राग-विरागों
को तजते, रखते रहे पग डग-डग।

बच्चों के घरौंदों का टूअना आप जानते हैं
हम भी ख़्यालों में घर बनाते रहे
और रोज़-रोज़ उसका टूटना देखते रहे।

हंसते-बतियाते
यकबयक हो गए हम चुप्प
स्टेशन आते ही, बिना पता पूछे उतर गए
पीछे मुड़कर भी नहीं देखा
बमुश्किल एक मुस्कान हवा में उछाली
और बढ़ गए कि फिर मिलेंगे।

दिशाएं सब कांप रही हैं
मेज़ों, कुर्सियों पर श्मसान पसरा है।
पूछताछ पर अघोषित प्रतिबंध है।

कंकड़ को ख़ुद ही निबटना है
पहाड़-पहाड़ वृततियों से।

खड्गसिंह

बस्स धुन में चढ़ते जाना
पहाड़ों और पेड़ों पर
इससे बिल्कुल अनजान कि
वहां कांटे और ज़हरीले जीव भी हैं।
बचपन की आदतें कहीं छूटती भी हैं।

हम सब कुछ भला-भला सा
समझने के आदी जो ठहरे
जानती तो थी कि वह कई अस्तबलों में जाता है
अब उबकाई आती है कहते कि
वह बिल्कुल पिता की तरह था
हर संकट में साथ देने को तत्पर
उसकी डांट भी कभी बुरी नहीं लगी।

सुल्तान पर उसकी दृष्टि तो थी
पर मैंने सदैव उसे वात्सल्य समझा
उस शाम जरूरी निर्देश समझाते-समझाते
उसके हाथ पीठ पर रेंगे
तो उसकी कुटिल मुस्कान की हिंसा
मेरी आंखों से काफ़ी दूर थी कि
अचानक उसकी पकड़ मज़बूत हो गई
सुल्तान को मुझसे ज़बरदस्ती झपटने के
प्रतिकार में मैं बुक्का मार दहाड़ी।

वह आज का खड्गसिंह है, मां
देर तक मुझे समझाता रहा
और नए-नए प्रलोभनों की साजिशें बुनता रहा।

मां, लोग मुझे सहनशील कहते हैं
उन्हें पता है इसमें छुपी यातनाओं का।

मदद को बढ़ा हर हाथ अब सर्प-सा लहराता है
अपनत्व से निहारतीं निगाहें चिंगारियां उगलती हैं।

हे प्रभु ! मुझे क्षमा करना
मैंने सभी संपर्क ख़त्म कर लिए हैं
पर, मां हर कोई खड्गसिंह तो नहीं होता।

मुझे गर्भ में छुपा लो मां
बहुत-बहुत डर लगता है!

अपना-अपना चांद

गर पेड़ होते तो हवा और
सूरज से पेट भर लेते
कंप्यूटर होते तो सब कुछ
सिलसिलेवार करते जाते क़ैद
रात के गहराने के साथ-साथ।

इक मन ही तो है जो
सुनता है अपनी और दूसरों की भी।
कहने की जागीर
वर्जनाओं, संस्कारों और
महत्वकांक्षाओं के पास है।

जो तुम लिखते हो
जो मुझसे पढ़ा जाता है
या जो ख़ुद से सुना जाता है
कितने मानीख़ेज़ और ख़ूबसूरत हैं
ये अल्फ़ाज़।
नामी और बदनामी की डोर थामे
सरपट भागते जा रहे हैं हम
अपने-अपने चांद के लिए।

















अल्लाह क़सम ! अब तो सबसे बोलेंगे

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नई पौध के तहत 5 कविताएं






 










नाज़िश अंसारीकी क़लम से

आम आदमी की आम सी कविता

आंखें छत से बतियाती हैं देर तक
बनाती हैं स्केचेज़
कच्चे पक्के से
झूठे सच्चे से

किसी स्केच में तुम
सिमटे हो नींद की गोद में
और मैं सिरहाने सिर टिकाकर
देखती हूं तुम्हें एकटक
कभी उसी मासूमियत पर
टपक जाती है थोडी गीली हरारत
तुम्हारे गालों पर
कभी मेरे बचपने में चढ़ जाती एक कहानी
शुरुआत  में ही जिसकी
मर जाते 'राजा-रानी '

उफ्फ्फफ़ ... ये ख़्वाब भी ना !
अपनी औक़ात नहीं देखते
ये नहीं समझते
आम सी ज़िंदगी में ख़्वाब की जगह नहीं होती
काव्य की जगह नहीं होती
स्केचेज़ में रंग भर नहीं पाते
दरअसल वे बन ही नहीं पाते
घड़ी की ठकाठक
हथौङे सी लगती है उस वक़्त
याद दिलाती है डेली रूटीन
जिसमें राशन है, ईंधन है
टिफिन, ब्रेकफास्ट, लंच है
बीमा पालिसी, बैंक, लोन
अम्मा बाऊ जीकी दवाओ का वक़्त है
सत्तर तरीक़े के बिल
पचहत्तर तरीक़े की ज़रूरतें
और बैलेंस निल है

यही सच आम सी ज़िंदगी का
ढीठ सा
कर्कश सा
और कर्कश हैं खर्राटे भी तुम्हारे
बिखरा देते हैं रंग सारे
आंखें फ़िर भी बनाती हैं स्केचेज़
कच्चे पक्के से
झूठे सच्चे से

आम लोगों की आंखें ज़िद्दी होती हैं
दिल कमबख़्त
और ज़िंदगी बेहया
क्या कीजियेगा ! !
___________________

सौतन चुप्पी

इससे पहले कि
फ़र्श पर रेंगता सन्नाटा
डंक मार दे आंखों में हमारी
हम सच में हो जाएं पत्थर के
काल्पनिक कहानियों की तरह
और ये डायन बेरहम ख़ामोशी
कतर डाले महीन-महीन
हमारे बीच का रेशम
और खुल जाए
हर सीवन हर बखिया
उस लफ़्ज़ की
जिसे हम दोनों ने
एक ही वक़्त में दोहराया था
तीन दफ़ा...

बस भी करो
मुस्कुरा दो ना ज़रा !

कि जान छूटे इस सौतन चुप्पी से !!
______________

तीसरी आंख

तुमने बांट लिये थे सपने
अपनी दोनों काली पुतलियों  में
एक बडे भाई के नाम किया
एक पे छोटे का हक़ था
मैं कहीं नहीं थी...कहीं भी नहीं
क्युंकि तुम्हें "तीसरी आंख"नहीं थी
फ़िर भी जाने
किस आंख से देखते रहे तुम
उम्र से आगे
वक़्त से पहले
बढता हुआ मेरा बेढब शरीर

और फ़िर थकने लगी
तुम्हारी ज़िम्मेदार पीठ
मेरे स्त्रीलिंग के बोझ से
रोज़ टांगने  लगे नींद तुम
ज़ीरो वाट के मुर्दा उजाले में
वो जलता रहा...
तुम्हारी आंखें टहलती रहीं
तलाशती रहीं कुछ
"शरीफ़", "इज़ज़तदार", "ख़ानदानी "सा कुछ

तुम घर के बाहर थे
फलाने श्री कभी ढमाके जी
तुम हमेशा घर के बाहर थे
कभी घर के भीतर देखते
मेरे भीतर देखते..

कभी पूछते तो बताती
अब नहीं है ज़रूरत
फ़िर से तुम्हारे शुक्राणुओं को
गर्भ जैसी कोठरी की
उग आये हैं उनके हाथ-पांव
उग आया है उनसे बेढंगा शरीर
और अधपके विचार भी
तुम पूछते तो बताती
तुम्हारी उंगलियों के बाद
मैं नहीं चाहती कोई हथेली
जो रौंदती रहे मेरे सपने
अन्धेरे किसी कमरे में
मैं नहीं चाहती
संरक्षण के भुलावे में  मिला बंधन
जहां बेडियों के नाम पर हो पाजेब
हथकडियों की तरह कंगन

देखते तो दिख जाता तुम्हें
बिना दो नंबर चश्मे के भी कि
मैं मिटा देना चाहती हूं सारी थकान
तुम्हारी अकडी पीठ की
और उठा लेना चाहती हूं
अपने शरीर का बोझ..
तुम्हारी सारी ज़िम्मेदारिया..
सारी चिंताएं..
अपने पैरों पर

कभी तो मेरे भीतर देखते
ज़रा सी फ़ुर्सत निकालकर
"सामाजिक प्राणी"की तरह नहीं
खालिस पिता बनकर
ज़रा सी मां बनकर....
___________________________

मेरा गला दबा दो मां !

एक मध्यवर्गीय परिवार
जहां आमदनी या हैसियत से नहीं
सपने तय होते हैं
कुछ फटी-पुरानी परंपराओं से
कुछ चलताऊ पूर्वधारणाओं से
और फ़िर बंट जाते हैं लिंगों में
दो आंखों की दो पुतलियों में

तुम्हारी पुतली के एक कोने में
मेरा भी हिस्सा होगा
बंट गया होगा वो भी मगर
किसी "सुशील वर"  के नाम पर

मैं जानती हूं मुझे जाना है
जीना है उस वर के साथ
मुसकुराना है और मुस्कुराते ही रहना है
ताकि तुम मेरी मौन आंखों में
उसी "वर"को सुशील पा सको
और सो सको रात में सुख से.. चिंता रहित...

यहाँ मेरे जिस्म के रेशे भी उधड़ते रहें
और बिखरते रहें फर्श पर
कुछ पागल सपनें ...
कुछ लुच्चे अरमान...
कुछ लफ़ंगी ख्वाहिशे...
और डसा जाता रहे शरीर मेरा
रात भर..
मैं मान लूं दिल कुछ नहीं
एक पम्प के सिवाय
बंद कर लूं आंखें और
सी लूं अपने होंठ
कि तेज़ दर्द में भी नीले शरीर को
हरकत की इजाज़त नहीं

याद आ रही है तुम्हारी सांत्वना
जिसमे एक राजकुमार है
और मैं एक फूल...
याद आ रहा है तुम्हारी कमर का दर्द
तुम्हारी बढी हुई शुगर
याद आ रहा है रंग
बैंक की पासबुक का
पिता के माथे की शिकन
और करवट बदलती पीठ
सब याद आ रहा है सिवाय उस दवा के नाम के
जिससे नींद आती है

इससे पहले कि
बेसाख़्ता एक चीख़ से
खुल जाएं सीवन मेरे होंठ के
अपनी आवाज़ का हाथ पकड़ा  दो ना !
कि आज़ाद हो जाऊँ मैं
अन्धेरे कमरे की धीमी रोशनी से
धीमी रोशनी के काले दलदल से
जिस महल में तुम चुन गई हो मुझे
उसे तुड़वा दो ना !
तुम निभाओ आदर्श पत्नी का धर्म
सीती रहो फटी परंपरा
उससे पहले मगर

"मेरा गला दबा दो मां !! "
___________________________

अल्लाह क़सम ! हम नहीं कहेंगे किसी

अल्लाह क़सम
हम नहीं कहेंगे
नहीं कहेंगे किसी से

कितनी चालाकी से नोच लिये थे आपने
हमारी पानी वाली आंखों से
डूबते-उतराते उजले सतरंगी सपने
फ़िर कितने मीठे तरीक़ों से
कुरेद कर खुरचा उन्हें
उन्हीं पारम्परिक सामाजिक नाखूनो से

आपने काट दीये थे हमारे डैने
"मुझे चांद चाहिये"कहने से पहले
हमने देखना चाहा आकाश
आपने दिखा दी मंडराती हुई चीलें
फ़िर घुसेड दिया
घर के भीतर वाले सबसे अंधेरे कमरे में
जो सङांध मारती आज़ादी की क़ब्र पे खड़ा था

हम नहीं कहेंगे किसी से
कब कितनी
रिश्तेदारी की झक्क सफ़ेद पोशाकों में
विशालकाय मर्दानी आकृतियाँ
कमरे में आती रही
हमें पुचकारती रहीं
यहां-वहां सहलाती रहीं

हम नहीं बताएंगे किसी को
कि चौराहे का पान वाला
और चाय वाला भी
रोज़ आंखों से चुन्नी सरकाकर
झांक लेता है भीतर तलक
और नाप लेता है मन ही मन
जिस्म की हर उठान गिरान

हम नहीं पूछेंगे किसी से
खुदा से भी नहीं
शुचिता की सब परिभाषाएं
पवित्रता के सारे प्रमाण पत्र
सिर्फ हमारे ही शरीर पर आकर क्यों रुके रहें
क्यों हमारे विचार कूडे की तरह dustbin में फेंके गये
और जिस्मों की सब गुलाबी मुलामियत
और मासूमियत
क्यों अंधेरे नीले कमरो में बेचे गये

मगर हम नहीं पूछेंगे किसी से
नहीं कहेंगे किसी से
कि यहां बोलने पर तेज़ाब है
सर उठाचलने पर बलात्कार

फ़िर भी हमारी हिम्मत (बेशर्मी ?) देखिये
जियेंगे हम सौ-सौ बार
और जिला ले जाएंगे अपने बेहया सपने
पूरे सम्मान के साथ पूरा करके उन्हें
दे देंगे सारा श्रेय आपको
___________________________


(रचनाकार-परिचय :

जन्म: पहली जून 1987 को अवध में
शिक्षा: लाल बहादुर शास्त्री कॉलेज, गोंडा से मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर
सृजन :  कुछ पोर्टल पर कविताएं और लेख
संप्रति : लखनऊ में रहकर स्वतंत्र लेखन
संपर्क :  nazish.ansari2011@gmail.com )




बिमल राय का काबुलीवाला

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सैयद एस.तौहीद की क़लम से
काबुलीवाले  के पात्र से परिचित होना एक नवीन अनुभव विकसित करता है। काबुली जैसे तिजारतगुज़ारों के ज़रिये  मानवीय रिश्तों को दिखाने का ख़ूबसूरत अंदाज़ फ़िल्म में था। तिजारत के वास्ते ख़ान काबुल से हिन्दुस्तान चला आया. था। उसे इसका इल्म था कि हिन्दुस्तान में तिजारत के ज़्यादा  अवसर थे। घर-परिवार ख़ास कर प्यारी संतान से दूर चला आया था। नई मंज़िलें उसे बुला रही थी। काबुलीवाले के हालात में तिजारत करने वाले ख़ानाबदॊश दूसरे लोगों की तक़दीर भी अनुभव की जा सकती है। ज़िन्दगी फ़लसफ़ों से हो ना मेल खाती हो,  लेकिन सिर्फ़  फ़लसफ़ों के सहारे चलती नहीं। व्यापार के लिए हमे अक्सर अपनों की  तरफ़ से  दिल कठोर करना होता है. या यूं कह लें कि रोज़गार  व अर्थ पाने के लिये लिए समझौते करने पड़ती हैं. घर से निकल आने के बाद बडे लोगों से ज़्यादा वहां छूटे मासुम बच्चों को लेकर दिल को तकलीफ़ होती है. वतन से परदेस चले आए काबुली को प्यारी मिनी में अपनी बिटिया अमीना का चेहरा  नज़र आता था. मिनी को देख अमीना की याद आती थी.

विघटन पहले मज़हब से नहीं जोड़े जाते थे
दुनिया की खराबियों से अलग काबुलीवाला एक ज़िम्मेदार ज़िंदगी गुज़ारनेवाला  ख़ानाबदॊश फेरीवाला था। वतन से दूर एक दूसरे  वतन हिन्दुस्तान को अपना वतन बना लेता है। बोली व काम में खरा काबुली गलत कामों से सख्त परहेज़ करने वाला  चरित्र था। उस समय की फिल्मों का मुसलमान पात्र आतंकी या सरगना गतिविधियों में संलिप्त नहीं  हुआ करता था। पोजिटिव बातों वाले  किरदार समाज में परस्पर विश्वास बरक़रार रखा करते थे. इस वजह से हीरो अक्सर पाप का अंत करने वाले मसीहा के किरदार में नज़र आए. विघटन की ताकतों को जाति अथवा मज़हब  से नकारात्मकरूप  से जोडने का काम नहीं था। वो अत्यंत  हिंसक  व स्वार्थ का देवता नही होता था. खलनायक का हृदय परिवर्तन भी  रखा जाता था. समाज को जोड़ने  वाली कथाओं  को लोग पसंद भी ज्यादा  करते.

परदेस का दर्द भी अपना सा लगे
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ की यह कहानी मानचित्र की दूरियों को पाटने में कामयाब थी। एक दूसरे को लेकर नकारात्मक पूर्वाग्रहों  को ध्वस्त करने का काम भी किया था. काबुलीवाला सरीखा पात्र लेखक को हिन्दुस्तान में कहीं जरूर मिल जाता…लेकिन अफगानिस्तान के काबुल जाना लेखक की दूरदर्शिता व नयी सोंच को इंगित करता है। यह मिनी व काबुलीवाले के साथ हिन्दुस्तान-अफगानिस्तान  या यूं कह लें कि  वतन एवम  परदेस  को जोडने की भी कहानी थी। प्रेम एवम दुआओं की डोर सरहद को धूमिल कर आदमी को आदमी के क़रीब ले आती हैं. मिनी एवम उसके घर वालों  से काबुली का महज व्यापारी  नाता नहीँ था,बल्कि परिवार का रिश्ता था.जिस बच्ची का बचपन काबुली को  आंखो से प्यारा रहा..बरसो बाद उसे सुखी जीवन की दुआएं भी देने आया, जिस तरह अपनी अमीना को दिया होगा.

 
काबुली को हिन्दुस्तान में अपने परिवार की तरह एक परिवार मिल गया…मिनी की शक्ल में अमीना मिली। प्यारा सा रिश्ता वक्त के इम्तेहान को पार कर गया…जेल से रिहा होकर काबुली मिनी व उसके परिवार के पास जाता है। बरसों बाद भी उसे वही डोर वहां खीच लाती है। कहने को काबुली मिनी का सगा बाप नहीं था… लेकिन उसमें मिनी से कुछ वैसा ही रिश्ता नजर आया। काबुली (बलराज साहनी) अपनी बिटिया अमीना (बेबी फरीदा) के साथ काबुल में रहता है । वह तिजारत से घर चलाता है। लेकिन आर्थिक हालात दुरूस्त नहीं, जमीन और मकान हांथ से फिसल कर दूसरों की जागीर हो गए हैं । कर्ज के बोझ से निजात पाना फिलवक्त बहुत जरूरी हो गया है। क्योंकि कर्ज वक्त पर अदा ना होने से जमीन व मकान देनदारों के पास चले गए हैं। हालात को देखते हुए खान तिजारत के लिए हिन्दुस्तान जाने का मन बनाता है। परदेश में अपने वतन से बेहतर अवसर हैं, वहां आमदनी ज्यादा है। अमीना भी अब्बा के साथ जाने की जिद कर रही है। लेकिन खानाबदोश  इस सफर पर वह बच्चे को साथ  ना ले जाने के लिए मजबूर है.ज़िम्मेदारी का भी उसूल है कि बड़े अपने बच्चों को वक्त की ठोकरो से महफूज़ रखे.जल्द ही वापस लौटने के वायदे के साथ वह परदेश रवाना हो जाता है। अमीना को बुआ के जिम्मे कर वतन छोडकर चला आया। यहां तिजारत के लिए ऊनी कपडे और मेवे लेकर आया है।यहां वह रोजगार में लगा है ।
हिन्दुस्तान के शहर (कलकत्ता) को रोजगार का ठिकाना बनाए हुए है। इसी शहर में उसकी मुलाकात कहानी के अन्य पात्रों से होती है। सुत्रधार मिनी के पिता, मिनी की मां तथा भोला कथा को आधार दे रहे हैं । इस संवेदनशील पटकथा (विशराम बेडेकर व एस खलील) को पूर्णता प्रदान करने के लिए बेहतरीन गीतों को जगह दी गई। मिनी में काबुली अपनी बिटिया अमीना का अक्स देखता था। मिनी से उसका नाता रवीन्द्रनाथ टैगोर की लिखी कथा मे भी मुख्य आकर्षण था, फिल्म रूपांतरण में भी उसे कायम रखा गया । निर्देशक हेमेन गुप्ता व गुलजार (मुख्य सहायक) विमल राय (निर्माता) की उम्मीदों पर खरे उतरे थे । दर्शकों से भी सराहना मिली. अब्दुल जब कभी फेरी लगाता हुआ इस ओर आता मिनी ‘काबुलीवाला,काबुलीवाला’ पुकारती बाहर की ओर दौड पडती। मिनी को अपनी बिटिया मानने लगा था,बादाम-किसमिस-मेवे दिया करता । पांच साल की मिनी व चालीस बरस के काबुली की दोस्ती हर दिन के साथ ममत्व व स्नेह की मर्मस्पर्शी मिसाल बन गई । काबुली के प्रति मिनी की अभिलाषा भी देखने लायक थी। कथा के एक प्रसंग में काबुली के ना आने पर वह उसे मिठाई देने बाहर निकल जाती है । काबुली से मिलने बाहर निकली मिनी शहर की अनजान राहों में भटक कर गुम हो गई । घर के लोग मिनी के अचानक गुम हो जाने पर बेहद परेशान हैं ।

अए मेरे बिछड़े चमन तुझ पे दिल कुर्बान
बाबूजी व भोला उसकी तालाश में इधर-उधर भटक रहे हैं। वाकये के बारे में जानकर काबुली भी बच्ची का पता लगाने दूर तक निकल जाता है । मिनी उसे एक कंपाऊंड के रैन-बसेरा के पास बेखबर पडी मिली। उधर भोला (असित सेन) भी बच्ची को ढूंढते हुए उस ओर आया। मिनी को काबुली के कब्जे में देखकर उसे ही अपहरणकर्त्ता मानकर शोर करके आस-पास के लोगों को इकटठा कर लेता है । बच्ची को अगवा करने के आरोप में भीड अपना आपा खो ‘मसीहा’ को पीटने लगी। वहां पहुंचे मिनी के पिता बीच-बचाव को आए, लेकिन अब तक भीड ने काबुली को पीट कर घायल कर दिया था। काबुली का पक्ष जानकर मिनी के पिता भोला की करतूत पर बहुत लज्जित हैं । मायूस दिल लेकर काबुली वहां से चला जाता है। इधर बरसात से भींग कर मिनी को तेज बुखार आ जाता है। मिनी की तबीयत को लेकर वह अपने परवरदिगार से दुआ करता है । जिस रात बच्ची को तेज बुखार था,उसके ठीक हो जाने तक वहीं मिनी के अहाते में रूक कर रात भर इबादत करता रहा। मौला के दरबार में दुआएं कबूल होने साथ मिनी के हालत में सुधार हुआ। एक बार फिर से बच्ची को हंसता मुस्कुराता देखने बाद ही इस बंदानवाज़ को तसल्ली हुई। इस पूरे घटनाक्रम ने बता दिया कि काबुली मिनी में अपनी बिटिया ‘अमीना’ की छाया देखा करता था। उसके दिल में आज जज्बात का समुद्र सा है,पीछे छूटे वतन को स्मरण करते हुए उसका दर्द कुछ यूं बयान हुआ ‘अए मेरे प्यारे वतन,अए मेरे बिछडे चमन तुझ पे दिल कुर्बान। रुपांतरित कथा में इस रचनात्मक मोड के लिए फिल्म की प्रशंसा करने का मन होगा।

  
‘ससुर को मारता,पर क्या करूं ,हाथ बंधे हुए हैं’
अपने वतन को लौटने की इच्छा काबुली में बलवती हो चली है, जगह-जगह घूम कर माल पर बकाया रकम को पाने जा रहा है। इसी क्रम में वह रामभरोसे से उधार माल लेकर उसे पहचानने से मुकर गया। उसने रामपुरी चादरें खरीदने में बेईमानी की थी ,चादर खरीद कर रूपए देने से पलट गया । एक आदर्शवादी पठान भरोसे का कत्ल सहन न कर सका। दोनों में बात बढ गई। क्रोध में रामभरोसे पर छुरा चला दिया,जिससे वह मारा गया। हत्या के इल्जाम में पुलिस काबुली को हिरासत में ले जाती है। मुहल्ले की जिन गलियों में बेखौफ फेरी लगाया करता था,मुजरिम की शक्ल में जा रहा है । इतने में ‘काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला’ पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई । अब्दुल का चेहरा पल भर के लिए खुशी से झूम उठा। उसके कांधे पर आज मेवों की झोली नहीं थी। उसे इस हालत में देखकर मिनी बरबस पूछ बैठी ‘ससुराल जाओगे? सर आन पड़ी मुश्किल घड़ी पर  पर्दा डालकर उसने मुस्कुराते हुए कहा, ‘हां वहीं तो जा रहा हूं’ । काबुली समझ गया कि उसका यह जवाब मिनी के मुखडे पर खुशी ला नहीं सका था । तब उसने बंधे हुए हांथ दिखाकर कहा ‘ससुर को मारता,पर क्या करूं ,हांथ बंधे हुए हैं’ । छूरा चलाने के जुर्म में ‘काबुलीवाले’ को लम्बी सजा होगी।

  
सत्यता  व ईमानदारी देखकर वकील ने पीटा माथा 
 बचाव पक्ष के लोग काबुली के लिए वकील करते हैं, वकील उनसे अदालत में रटा-रटाया बयान देने को कहता है। ऐसा करने पर उसे क़ैद से बचाया जा सकता था । लेकिन अदालत में घटनाक्रम को हू-ब-हू कह दिया काबुली ने। उसकी सादगी, सत्यता  व ईमानदारी देखकर बचाव का वकील माथा पीट लेता है । आज की दुनिया में खुद को ज्यादा ईमानदार  व सच्चा बता  कर मुसीबत मोल  नहीँ ली जाती.काबुली की सच्चाई को देखत हुए सुनवाई में उसे दस बरस की ही सजा मिली । बहरहाल क़ैद हो जाने से बिछ्डे रिश्तों के पास जाने की उत्कट इच्छा दिल में ही रह गई। अब अमीना व मिनी बिटिया के पास जेल से रिहा होने बाद ही जा सकता था । यह पूरी घटना कथा में नाटकीय मोड लाती है । उजाले दिनों के इंतजार में काबुली अंधेरों के दौर से गुजर रहा था।

 
मिनी ने अमीना के लिए दिए तोहफ़े
रिहा होने बाद पुराने लोगों ढूंढते हुए वह कलकत्ता के उसी मुहल्ले में पहुंचा,जहां कभी मिनी का घर हुआ करता था। वहीं  जहां  कभी  वो फेरी लगाने  अक्सर जाया करता था. उधर से गुजरते हुए उस घर पर उसकी नजर ठहर गई । आज यहां चहल-पहल का माहौल है,वह दरवाजे के पास चला आया, जहां बावूजी इंतजाम में लगे हुए हैं। बदले हुए हुलीए के कारण उसे एकदम पहचान पाना थोडा मुश्किल था,पर समझ आ गया कि यह आदमी वही ‘खान’ है। काबुली मिनी को देखने की इच्छा प्रकट करता है, जिस पर बावूजी यह कहते हुए ‘आज नहीं! बहुत काम है। बाद में आना’ उसे जाने को कह देते हैं, लेकिन अगले ही पल उन्हें काबुली के बुझे दिल का ख्याल हुआ। बाहर आने के लिए मिनी को आवाज देते हैं। उसकी आंखों में मिनी की वात्सल्य छाया अब भी शेष थी,जैसे आज भी उसी बच्ची को देखना चाहता था । आज भी 'काबुलीवाले...काबुलीवाले'पुकारते हुए मिनी दौड़ी बाहर आएगी. सयानी मिनी का आज उसका ब्याह  होने वाला है, काबुलीवाला ने उसे खुशहाली की दुआएं दी । बावूजी काबुली (खान) को अपने वतन काबुल भेजने के लिए रूपए का इंतजाम करते हैं।  मिनी के विवाह के मद से रूपए निकाल कर उसे देने का निर्णय लिया था। मिनी बावूजी के इस कदम से बहुत संतुष्ट है, वह कहती है ‘इस रूपए से चाचा अपनी बिटिया के पास लौट सकें, मेरे लिए इससे बडा आशीर्वाद क्या होगा? रूपए के साथ सौगात के रूप में वह बहन अमीना के लिए एक तोहफा भी देती है । पहले तो अब्दुल यह सब लेने को राजी नहीं था। लेकिन ‘प्यार में एहसान नहीं होता,प्यार में सिर्फ प्यार होता है। यह एक पिता का दूसरे पिता के लिए प्यार है’ कहते हुए बावूजी उसे सहायता स्वीकार करने को कहते हैं । खुशी के आंसुओं में काबुलीवाला अपने वतन काबुल रवाना हो जाता है। यात्रा के  सांकेतिक दृश्य के पार्श्व में ‘अए मेरे प्यारे वतन, अए मेरे बिछडे चमन’ की पंक्तियों में फिल्म का मार्मिक समापन हुआ ।

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(रचनाकार-परिचय:
जन्म : 2 अक्टूबर 1983 को पटना (बिहार) में
शिक्षा : जामिया मिल्लिया इस्लामिया से उच्च शिक्षा
सृजन : सिनेमा पर अनेक लेख . फ़िल्म समीक्षाएं
संप्रति :  सिनेमा व संस्कृति विशेषकर हिंदी फिल्मों पर लेखन।
संपर्क : passion4pearl@gmail.com )

सैयद एस. तौहीद को  हमज़बान पर पढ़ें

ऐ लड़की, अम्मी और मैं

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संदर्भ : कृष्णा सोबती की लंबी कहानी ऐ लड़की














राकेश बिहारीकी क़लम से 

 
आसमान केगहरेकालेसन्नाटेपरधीरे-धीरेचिड़ियोंकीचहचहाहटउतररहीहै. लगभगसारीरातकेदूरभाषीअभिसारकेबाददूसरेछोरपरअधलेटीमेरीप्रेमिकाकीनींदसेभारीपलकेंखुद--खुदकिसीस्वप्न-लोकमेंखोनेलगीहैंऔरमैंखिड़कीसेबाहरभोरकेसितारोंकोएकटकदेखरहाहूं...

दूरटिमटिमातेतारोंमेंसहसाअम्मीकीठहरीआवाज़खनकउठतीहै- "लड़की, भोरबड़ीसंपदाहै. जिसनेसोकरइसेगंवाया, उसनेबहुतकुछखोदिया. आंखोंसेरातऔरदिनकामिलनदेखाऔरउनकाअलगहोना. पंछीजबचहचहातेहैंऊषाकीललाईमें, तोपूरीसृष्टिगूंजउठतीहै."

मीलोंदूरसपनोंकेहिंडोलेमेंझूलतीअपनीस्वपन-सुंदरीकोमैंहौलेसेजगानाचाहताहूं... उठो! भोरकीइसअकूतसंपदाकोहमसाथ-साथअपनीअंजुरियोंमेंभरलें...

पंछियोंकाशनैं-शने: तेजहोताकलरवमेरेभीतरकिसीमीठेसोतेकीतरहउतरनेलगाहैऔरमैंजैसेअपनेलिंगसेमुक्तहुआजारहाहूं. रातकाछंटताअंधेरामेरेपुरुषकोअपनेसाथलियेजारहाहैऔरमेरेअंतसकेकिसीसुदूरकोनेमेंदुबकीकोईस्त्रीऊषाकीलालिमामेंनहाकररक्तिमहोउठीहै...

मेरेठीकसामनेकीदीवानपरअम्मीलेटीहैं- क्लांतशरीर, परमन-मिजाजपरगजबकीकांति, जैसेमृत्युकीआगोशमेंजीवनकाअनुरागगुनगुनारहीहों... मुंदीहुईपलकोंपरमुस्कुराहटकीलेपकोदेखऐसालगताहैजैसेतुरन्तहीउठकरबैठजायेंगीऔरजीवनकीअतलगहराइयोंसेनिकालकरनानाप्रकारकेसिखावनकेमोतियोंसेहमारीतलहथियोंकोभरदेंगी. मसलन- "अपनीसमरूपाउत्पन्नकरनामांकेलियेबड़ामहत्वकारीहै. पुण्यहै. बेटीकेपैदाहोतेहीमांसदाजीवीहोजातीहै. वहकभीनहींमरती. होउठतीहैवहनिरंतरा..."

मेरेभीतरकीस्त्रीजैसेअम्मीकीबेटीहुईजारहीहै... अम्मीजीकीमान्यतायेंजैसेसीधेउसकेभीतरतकउतररहीहैं. वहसिर्फउनकेसवालोंकाजवाबनहींदेरही, बल्किखुदसेएकवायदाकररहीहै- "जरूरतपड़नेपरमैंकिसीऐरे-गैरेकोआवाज़नहींदूंगी. मैंअम्मीजीकीबेटीहूं, अपनीदौड़खुददौड़ूंगी..."

अम्मीजीकाचेहरादर्पसेचमकनेलगाहै. उनकातेजउसकीआंखोंसेहोताहुआनाभितककोआलोकितकररहाहैऔरवहएकबारफिरनयेसंकल्पोंसेभरउठतीहै... मैंदिन-रातबेगारकेखातेमेंनहींखटूंगी... पूरेब्रह्मांडसेशक्तिखींचकरजोबच्चीमुझेजननीहैउसेकिसीऔरकेसहारेनहींछोडूंगी... उसेहमारीदेहकीउपजभरहीनहींहोनाहै, वहतोमेरीआत्माकासपनाहै... उसेअपनीताकतकाअहसासकराऊंगीकिसीकेहाथकाझुनझुनाकभीनहींबननेदूंगी...

अम्मीजीकीउंगलियोंमेंहरकतहुईहै... पलकेंजैसेसोयेमेंभीचमकने-सीलगीहैं. जीवनकेतीखे-कसैलेअनुभवोंकोकहती-सुनतीअचानकउन्होंनेमेरेभीतरमुखरहोतीलड़कीकीतरफएकप्रश्नउछालाहै- "एकबातसच-सचकहना! क्याकिसीनेतुम्हारीइच्छानुसारतुम्हेंजानाहै? चाहाहै?"कितनातीखाहैयहसवाल.. कुछपलमेंहीजैसेमेरेभीतरकीलड़कीअपनीतरुंणाईसेयुवादिनोंतककीपरिक्रमाकरआतीहै... 'दूसरोंकीइच्छाओंकोपूराकरती-करतीमैंनेकभीअपनीइच्छाओंकातोध्यानहीनहींदिया... अम्मीजीकेइससवालनेजैसेमेरेभीतरचाहनाओंकीएकगुननुनीनदीउतारदीहै..'लड़कीकीनसेंपहलीबारअपनीइच्छासेतनना-सिकुड़नाचाहरहीहैं... उसकेअंदरकीहरितलतायेंपरिवेशमेंएकमनचाहाआत्मीयआलंबनखोजनेलगीहैं. वहसोचतीहै- 'अम्मीनेसिर्फसवालहीनहींपूछेहैंबल्किमेरेअंतसमेंअपूरितइछ्छाओंकीबेलरोपदीहै...'

दिनऔररातकीअभिसंधिपरखड़ीअम्मीअपनायौवनफिरसेजीनाचाहतीहै..."कहींसेलेतोआओउसताज़ालड़कीको, जिसनेशादीकाजोड़ापहनरखाथा. लासकतीहोकहींउसे! नहींलासकती! नहीं..."

लड़कीमांकेबेडरूमकीतरफभागतीहै... उसनेउनकीपेटीसेउनकेसुहागकाजोड़ानिकालकरपहनलियाहै... सिंगारदानकेआगेखड़ीवहजैसेखुदहीअम्मीहोगईहै... होठोंपरदहकतेलिप्स्टिककेरंगकोउसनेथोड़ाहल्काकियाहैऔरकाजलकीरेखाकोतनिकऔरगहरी... भागकेअम्मीकेपासआईहैवह... "अम्मीजीयेलीजिये... मैंउसलड़कीकोलेआई. पहचानियेइसे... येआपहीहैं?"

अम्मीकुछबोलतीहीनहीं... उनकीबन्दपलकेंअबभीमुस्कुरारहीहैंजैसेअबबोलेंगी, तबबोलेंगी... लगातरपुकारते-पुकारतेलड़कीकीआवाज़कीचहकरुलाईमेंबदलनेलगीहै...

अम्मीकेनहींहोनेकाअहसासमेरेभीतरकीलड़कीकोमर्मांतकवेदनासेभररहाहै... मैंधीरे-धीरेअपनेबानेमेंलौटनेलगाहूंऔरउनसेपूछनाचहताहूंमृत्युकीदहलीजपरबैठकरज़िंदगीकीपरतेंउघाड़नाकितनासुखदयातकलीफदेहहोताहै...?

अम्मीचुपहैंऔरमैंमीलोंदूरनींदकेहिंडोलेमेंझूलतीअपनीसखिकेलियेबेपनाहदुआओंसेभरगयाहूं...
***


(रचनाकार-परिचय:
जन्म : 11 अक्टूबर 1973 को शिवहर (बिहार) में।
शिक्षा : एसीएमए (कॉस्ट अकाउन्टेंसी), एमबीए (फाइनान्स)
सृजन : प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख। वह सपने बेचता था (कहानी-संग्रह) और केंद्र में कहानी
            (आलोचना) नामक दो पुस्तकें प्रकाशित।
चर्चित ब्लॉग समालोचन के लिए कहानी केन्द्रित लेखमाला
संपादन : स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन)
पहली कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ (निकट पत्रिका का विशेषांक)
समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी (संवेद पत्रिका का विशेषांक)
बिहार और झारखंड मूल के स्त्री कथाकारों पर केंद्रित आर्य संदेश'का विशेषांक
अकार – 41 (2014 की महत्वपूर्ण पुस्तकों पर केंद्रित)
संप्रति : एनटीपीसी लि. सिंगरौली, (म. प्र.) में (प्रबंधक-वित्त)
संपर्कbrakesh1110@gmail.com)

ताल ठोक के बोलूंगी मर्द से बना दूंगी भू्रण

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दामिनी यादवकी12 कविताएं

ताल ठोक के

आज फिर तुमने मेरा बलात्कार कर दिया
और मान लिया कि
तुमने मेरा अस्तित्व मिटा दिया है
क्या सचमुच?
तुम्हें लगता है कि तुम्हारी इस हरकत पर
मुझे रोना चाहिए,
पर देखो, देखो
मेरी हंसी है कि
रोके नहीं रुक रही है।
मैं हंस रही हूं व्यवस्था पर
उसी व्यवस्था से उपजी
तुम्हारी मानसिकता पर,
मेरे कपड़ों के चिथड़े उड़ा
तुम्हें क्या लगा
कि तुमने मुझे भी तार-तार कर दिया है!
मैं भी नंगी हो गई हूं!
वैसे, मेरी नग्नता का प्रमाण ही है
तुम्हारी देह, तुम्हारा अस्तित्व
फिर क्या, क्यों देखना चाहते हो
मुझे बार-बार नंगा?
शायद मेरे अस्तित्व की गहनता
तुम्हारे सिर के ऊपर से गुजर जाती है
इसीलिए उस गहनता को
तुम मेरी योनि में
सरिये, मोमबत्ती, बोतलें डालकर नापना चाहते हो।
फिर भी नाकाम ही होते हो
मुझे समझने में,
तभी क्यों नहीं नाप लिया था तुमने
इस असीमता को
जब तुम खुद इसी योनि से
गुज़रकर जनमने आए थे?
तुम तब भी मुझे
समझ नहीं पाए थे।
अपनी हताशा से उपजी तिलमिलाहट में,
भर देते हो मेरी योनि में मिर्ची पाउडर!
फिर भी नाकामयाब ही होते हो
मुझे जलाने में।
इसी झल्लाहट में
मेरे शरीर को
काटकर, नोंचकर वीभत्स कर देते हो
फिर भी नाकामयाब होते हो
मेरी आत्मा को घायल कर पाने में,
तुम कितने शरीरों को रौंदकर
मेरा अस्तित्व मिटाने चले हो?
मेरा अस्तित्व मेरे शरीर से परे है,
मैं तुमसे मिटी नहीं
मैंने तुमको मिटाया है।
यक़ीन नहीं होता तो देखो,
अब मैं तुमसे छलनी होकर भी
ताल-तलैया, कुआं-बावड़ी
ढूंढ़ने की बजाय
पुलिस स्टेशन ढूंढ़कर
एफआईआर  दर्ज कराती हूं।
तुम्हारे चेहरे की पहचान कर
सज़ा देने को सबूत जुटवाती हूं।
अब आओ, आओ
कि ताल ठोककर
मैं तुम्हें चुनौती देती हूं,
करो मेरा बलात्कार फिर से
और देखो मुझे धूल झाड़कर
वीभत्स-लहूलुहान शरीर से ही सही
फिर से खड़ा होते।
मैं अब भी तुम्हें
गली-कूचों, बाज़ारों  में नज़र आऊंगी
चैके-चूल्हे, आॅफिस, मीडिया
सत्ता के गलियारों में नज़र आऊंगी

अब सुनो!
ताल ठोककर मैं देती हूं तुम्हें चेतावनी
कि सुधर जाओ।
मुझे रौंदने के सपने देखने से
बाज़  आ जाओ,
वरना मैं तुम्हारे होश ठिकाने लगा दूंगी,
मर्द से बना दूंगी भू्रण
और जैसा कि करते आए हो
तुम मेरे साथ
मैं भी गर्भ में ही
तुम्हारा अस्तित्व मिटा दूंगी,
या फिर भू्रण से बना दूंगी अंडाणु
और माहवारी के ज़रिये
बजबजाती नालियों में बहा दूंगी।
छोड़ दो कोशिशें
मुझे लहूलुहान करने की
अपने लिंग की तलवार से।
बरसों खौला है मेरा रक्त
मेरी शिराओं में,
मेरे संस्कारों की दरार से
अब तुम्हारी बारी है,
बचो-बचो!
रक्तबीज बने मेरे नए अवतार से। 

 माहवारी

आज मेरी माहवारी का
दूसरा दिन है।
पैरों में चलने की ताक़त नहीं है,
जांघों में जैसे पत्थर की सिल भरी है।
पेट की अंतड़ियां
दर्द से खिंची हुई हैं।
इस दर्द से उठती रूलाई
जबड़ों की सख़्ती में भिंची हुई है।
कल जब मैं उस दुकान में
‘व्हीस्पर’ पैड का नाम ले फुसफुसाई थी,
सारे लोगों की जमी हुई नज़रों के बीच,
दुकानदार ने काली थैली में लपेट
मुझे ‘वो’ चीज़  लगभग छिपाते हुए पकड़ाई थी।
आज तो पूरा बदन ही
दर्द से ऐंठा जाता है।
आॅफिस में कुर्सी पर देर तलक भी
बैठा नहीं जाता है।
क्या करूं कि हर महीने के
इस पांच दिवसीय झंझट में,
छुट्टी ले के भी तो
लेटा नहीं जाता है।
मेरा सहयोगी कनखियों से मुझे देख,
बार-बार मुस्कुराता है,
बात करता है दूसरों से,
पर घुमा-फिरा के मुझे ही
निशाना बनाता है।
मैं अपने काम में दक्ष हूं।
पर कल से दर्द की वजह से पस्त हूं।
अचानक मेरा बाॅस मुझे केबिन में बुलवाता हैै,
कल के अधूरे काम पर डांट पिलाता है।
काम में चुस्ती बरतने का
देते हुए सुझाव,
मेरे पच्चीस दिनों का लगातार
ओवरटाइम भूल जाता है।
अचानक उसकी निगाह,
मेरे चेहरे के पीलेपन, थकान
और शरीर की सुस्ती-कमजोरी पर जाती है,
और मेरी स्थिति शायद उसे
व्हीसपर के देखे किसी ऐड की याद दिलाती है।
अपने स्वर की सख़्ती को अस्सी प्रतिशत दबाकर,
कहता है, ‘‘काम को कर लेना,
दो-चार दिन में दिल लगाकर।’’
केबिन के बाहर जाते
मेरे मन में तेज़ी से असहजता की
एक लहर उमड़ आई थी।
नहीं, यह चिंता नहीं थी
पीछे कुर्ते पर कोई ‘धब्बा’
उभर आने की।
यहां राहत थी
अस्सी रुपये में ख़रीदे आठ पैड से
‘हैव ए हैप्पी पीरियड’ जुटाने की।

मैं असहज थी क्योंकि
मेरी पीठ पर अब तक, उसकी निगाहें गड़ी थीं,
और कानों में हल्की-सी
खिलखिलाहट पड़ी थी
‘‘इन औरतों का बराबरी का
झंडा नहीं झुकता है
जबकि हर महीने
अपना शरीर ही नहीं संभलता है।
शुक्र है हम मर्द इनके
ये ‘नाज़ -नखरे’ सह लेते हैं
और हंसकर इन औरतों को
बराबरी करने के मौके देते हैं।’’

ओ पुरुषो!
मैं क्या करूं
तुम्हारी इस सोच पर,
कैसे हैरानी ना जताऊं?
और ना ही समझ पाती हूं
कि कैसे तुम्हें समझाऊं!
मैं आज जो रक्त-मांस
सेनेटरी नैपकिन या नालियों में बहाती हूं,
उसी मांस-लोथड़े से कभी वक्त आने पर,
तुम्हारे वजूद के लिए,
‘कच्चा माल’ जुटाती हूं।
और इसी माहवारी के दर्द से
मैं वो अभ्यास पाती हूं,
जब अपनी जान पर खेल
तुम्हें दुनिया में लाती हूं।
इसलिए अरे ओ मदो!
ना हंसो मुझ पर कि जब मैं
इस दर्द से छटपटाती हूं,
क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत मैं तुम्हें
‘भ्रूण’ से इंसान बनाती हूं।


 सहभागी


मेरी पीड़ा  में अक्सर
तुम सहभागी बन जाते हो
मुझे समझाते हो
कि तुम मेरी पीड़ा समझते हो,
मैं भी जानती हूं
कि तुम सचमुच मेरी पीड़ा समझते हो
मगर, तुम सिर्फ समझते-भर हो
सहते नहीं हो मेरी जैसी पीड़ा,
क्योंकि तुम जानते ही नहीं हो
मेरी जैसी पीड़ा को
सहना क्या होता है।
तुम नहीं जानते
कि कैसी होती है वो पीड़ा,
कैसे सह पाती हूं मैं वो पीड़ा
जब आशीर्वाद देता हाथ
सर से सरककर पीठ पर घिनौने, लिजलिजे सांप-सा
रेंगने लगता है।
तुम नहीं सहते उस पीड़ा को
जब बंधे हुए हाथ
तमाचा बनने से रुकने के लिए
और भी कसकर बंध जाते हैं,
क्योंकि इन हाथों से
शाम को घर लौटकर
मुझे रोटियां भी पकानी हैं
और उन रोटियों के आटे की ख़रीद-लागत
उन घिनौने हाथों से ही पानी है।
तुम नहीं सहते हो उस पीड़ा को
जब बस की भीड़ में से कोई
अचानक ‘यहां’ या ‘वहां’
छूकर, नोंचकर भीड़ में ही वापस खो जाता है,
तुम चाहकर भी
नहीं समझ पाओगे
क्योंकि तुम मेरी पीड़ा के
सिर्फ सहभागी हो
सहभोगी नहीं।
 

वफ़ादारी


वो अपनी बीवी से
झूठ बोलकर आया है,
और प्रेमिका के लिए तोहफ़े में,
ताजमहल लाया है,
यूं तो बीवी के बिना उसके
जूते-टाई-कच्छे-रुमाल तक
नहीं मिल पाते हैं,
सर पर चढ़ा होता है चश्मा
और वो पूरे घर में ढूंढ़ आते हैं,
पर प्रेमिका जब गले में
अपनी सुडौल बांहें सजाती है,
सारी दुनिया उसे बिन चश्मे के ही
रंगीन नज़र आती है.
बीवी को आख़िरी तोहफ़ा उसनेे
चार साल पहले दिया था,
जब तीसरी बेटी ने
घर की पांचवीं सदस्य के रूप में
इज़ाफ़ा  किया था,
बीवी इस ‘गुनाह’ से अब तक
उबर नहीं पाती है,
इसीलिए सुन-सह-मान लेती है
इसकी हर बात,
खुद कभी कुछ नहीं सुनाती है,
इन ‘गुनाहों’ ने उसे काफ़ी
अंतर्मुखी बना रखा है।
बिस्तर पर भी एक बुलाहट-भर से ही
काफी बोरिंग ढंग से
पसर जाती है,
न नाज़,  न नखरे
न अंगड़ाइयों के जलवे दिखाती है।
बस घरेलू कामों में
सुबह से आधी रात तक नहीं झलकता है,
वरना तो उसका ‘ढीलापन’
शरीर के हर अंग से टपकता है।

प्रेमिका में अब तक
अदाओं की गर्मी है,
सो इसमें भी उसके लिए
अब तक वफ़ाओं की नर्मी है।
तीन साल से इसके अलावा,
कहीं आंख नहीं घुमाई है,
वरना पंद्रह साल की गृहस्थी में,
यही तो इनकी तीसरी और ‘आख़िरी ’
बेवफ़ाई है,
बीवी के साथ तो सपने भी
ब्लैक एंड व्हाइट ही आते हैं,
अब तो बस प्रेमिका के नाम पर ही होंठ
रंगीनियत से मुस्कुराते हैं।
ऐसा नहीं है कि बीवी
इसकी प्रेमिका के बारे में नहीं जानती है!
इनके बालों की बदलती लट और
महकते बदन की बेवफ़ाई
वो सालों से पहचानती है।
‘ये रोज़ सुबह चाहे जितनी दूर
निकल जाते हैं,
शाम को ‘लौटकर’ तो
इसी घर में आते हैं’
बीवी बेवफ़ाई के बंटते ताजमहल को
कर देती है नज़र अंदाज
बस मनाती है इतना कि
घर से बाहर ही रहे हर आंच
अपने घर की दहलीज़ से ही वो
अंतिम चिता तक जाना चाहती है
इसीलिए हर रोज़
इस बेवफ़ा पति की सेज पर
पूरी वफ़ादारी से खुद को बिछाती है।

प्रेयसी बनाम चादर

फोन की घंटी घनघनाई
मैं दौड़ती हुई आई,
उठाते ही रिसीवर तुम्हारी आवाज़ टकराई
तुमने कहा,
‘‘तुमसे मिलने का मन है।’’
और मैं एक पल को
ख़ामोश हो जाती हूं
मगर, इस ख़ामोशी में
मेरी वो चीख़ है जो चीख़ेगी  तब तक
जब तक तुम दोबारा कहोगे
‘‘तुमसे मिलने का मन है।’’
अपनी कार के दरवाज़े के साथ ही तुम
खोलोगे उस अलमारी का दरवाज़ा
जहां एक हफ़्ते पहले तुम मुझे
भोग कर, समेट कर, सहेज कर रख गए थे,
फिर तुम मुझे उस सफ़र पर ले जाओगे
जहां मेरे इंतज़ार का सूरज
तुम्हारी रात में खो जाएगा
और उस रात का सारा अंधेरा
एक कमरे में सिमट जाएगा,
तुम मेरी तहंे खोलकर
मुझे बिछा दोगे उस बिस्तर पर
और मैं
यूं ग़ौर से देखने लगूंगी
उस चादर को
जिसकी जगह मैंने ले ली है
और इसके पहले कि
तुम भी अंधेरे की ही तरह
मुझ पर छा जाओ
मैं भी अंधेरे का हिस्सा बन
खो जाऊं,
तड़पकर दे देना चाहती हूं
तुम्हें उस उजियारे का वो सब
जो अपने हिस्से में से मैं
तुम्हारे लिए बचा लाई हूं
बिना तुम्हारी पहल का इंतज़ार किए
खुद ही झटके से अपने बालों-सा
खोलकर बिखेर देती हूं
उस सामान को
जो तुम्हारे लिए जुटा लाई हूं,
सबसे पहले मैं तुम्हें देती हूं
वो सुनहरी पहली किरण का टुकड़ा
जो बादल से छिटककर
मेरी खिड़की पर आ बैठा था
और मैंने उसे पकड़कर
तुम्हारे लिए रख लिया था
इसी अंधियारे में दिखाने को।
एक गुनगुना उनींदा-सा सेक भी है
उस दुपहरी का, जब मैं
तपती धूप में ठंडे पानी में
पांव डाले बैठी थी
वो धूप तेरे दिए अंधेरे-सी गर्म थी
और पानी तेरी मौजूदगी-सा ठंडा।
एक खुशबू भी है
फूल पर पड़ी उस धूल की,
जिसे ओस और ज्यादा महका गई थी
एक गीलापन बारिश के
बिन बरसे चले जाने का
एक छोटी हंसी
एक लंबी उदास मुस्कुराहट
एक रात की आंख-मिचौली तारों की
एक चंाद की लाड़ भरी खिलखिलाहट
और भी ना जाने कितना कुछ
जो होना रह गया है
जो कहना रह गया है
क्योंकि तुम अचानक बीच में
मेरी बातों को, मेरे बालों-सा
समेट देते हो, कहते हो
‘‘मैं भी एक सिंदूरी शाम
तुम्हारे लिए लाया हँू।’’
और मैं झट अपनी हथेली बढ़ा देती हूं 
लेकिन तुम्हारी हथेली से
मेरी हथेली तक आते-आते
वो सिंदूरी शाम ढलकर रात बन जाती है।
क्या तुम्हारी हथेली से
मेरी हथेली तक का सफ़र भी
उतना ही लंबा है,
जितना तुम्हारी चुटकी से
मेरी मांग का?
मुझे सवालों के जंगल में अकेला छोड़कर
तुम अंधेरे में खो जाते हो
पास आने की कोशिश में दूर हो जाते हो।
फिर अचानक शायद
तुम्हें एहसास होता है
मेरी ठंडी दूरी का
और तुम वापस लौट आते हो
मेरे सवालों को अधूरा छोड़
मेरी सलवटों को झाड़कर फिर से,
समेटकर, सहेजकर तह कर देते हो और दोबारा
उसी चादर को बिछा देते हो।
इस बार
वो चादर मुझे ग़ौर से देखती है
जैसे अब, उसने मेरी जगह ले ली हो।
फिर तुम वापस मुझे
उसी अलमारी में रख आते हो
और मैं उस ख़ामोशी में
उस गूंज को ढूंढ़ती हूं
जिसके साथ मुझे फिर से
तब तक रहना है जब तक
तुम फिर से कहोगे,
‘‘तुमसे मिलने का मन है।’’


 बोनसाई

मैं बरगद थी,
विशाल बरगद
इस रास्ते के किनारे पर
जो मेरे सामने से होकर
गुज़र जाता है,
मैंने युगों तक
तुम्हारी प्रतीक्षा की थी
और एक दिन तुम आए।
तुम सफ़र की थकान से चूर थे
तुम्हारे कंधे तुम्हारे ही बोझ से झुके हुए थे
मेरी छाया में तुमने
अपनी थकान मिटाई,
मेरे ओस से भीगे हुए पत्तों से
तुमने अपनी प्यास बुझाई
मेरी जटाओं में झूलकर
तुमने अपने गम भुलाए
और जब तुम तरो-ताज़ा हो
उठ खड़े हुए हुए तो जाने क्यों
मेरे क़द की ऊंचाई
तुम्हें नापसंद आई।
तुमने खुद को एक
तरकीब सुझाई,
अपनी गहरी चमकीली आंखों से
मुझेे देख कर अपनी बांहें
मेरी तरफ फैलाई,
मैं भी युगों की प्रतीक्षा के बाद
थक चुकी थी।
उन बांहों में आराम पाना चाहती थी,
सुस्ताना चाहती थी,
सो अपने वजूद को मैंने
तुम्हारी बांहों के दायरे में समेट दिया।
वाकई, तुमने मेरे वजूद को एक खूबसूरत जगह दी
चौराहे की बड़ी-सी चौपाल से उठा के
रख दिया
अपने ड्राइंग-रूम के कोने में
क्योंकि,
अब मैं विशाल बरगद नहीं
बल्कि बोनसाई बन हंू।


 इंसानियत

उस बूढ़ी भिखारिन के कटोरे में,
पांच रुपये का सिक्का डाल,
मैंने जुटाई है अपने लिए
प्रेरणा बेमिसाल!
लिखूंगी कोई कविता उस पे
और कर दूंगी गोष्ठी को
अपनी ‘मानवीयता’ से निहाल!
या उडे़लंूंगी कैनवॉस पे
रंगों से ऐसा दर्द
कि इस भिखारिन का झुर्रीदार चेहरा,
किसी ड्राइंगरूम की मरकरी लाइट तले झिलमिलाए
और हो जाए मेरी जेब भी मालामाल।
या फिर इस गंदी भिखारिन का
एक फोटो ही खंीच लूं,
इससे भी हल हो सकता है
मेरी शोहरत का सवाल,
मेरे पांच रुपये से इस भिखारिन की
जिंदगी तो नहीं बदल पाएगी,
पर हां, इसकी बदहाली, भूख, बेबसी,
मेरे रचनात्मकता की दुकान के लिए
थोड़ी शोहरत और थोड़े खरीदार
जरूर जुटा लाएगी।

 वेश्या

इस गंदे, बदबूदार, संकरे, अंधेरे कमरे में,
बस एक तख्त-भर का है अरेंजमेंट,
घंटे के हिसाब से चलता है यहां का रेट,
बीसियों बार खुलता है यहां दिन-भर में,
मेरे औरत होने की दुकान का ‘गेट’,
ड्राईवर, मजदूर, रिक्शावाला,
कोई भी आ सकता है,
जो भी मेरे गोश्त की,
क़ीमत चुका सकता है,
पुलिस वाला तो दाम भी नहीं चुकाएगा,
हमारे ‘संरक्षण’ के नाम पर ही
दो ग्राहकों की ‘सेवा’
अकेला मार जाएगा,
करना तो है ही,
चाहे भला हो या बुरा, ये काम,
क्योंकि मुझे भी बनाना है
अपने बच्चे को अच्छा इंसान।

 बूढ़ी वेश्या

जैसे ही उस ग्राहक ने
उस पर से नज़र हटा अगली पर बढ़ाई,
वो दांत पीसकर मन-ही-मन बड़बड़ाई,
पता नहीं इन औरतखोरों को
क्या चीज भाती है,
आंख बंद करने पर तो
दुनिया की हर लड़की
एक-सी बन जाती है!
उस पोपले मुंह वाले बुड्ढे को तो देखो,
जोर नहीं है दम-भर का,
पर उसे भी चाहिए बदन
सोलहवे सावन का!
वो कोने में बैठा कलमुंहां
दूर से ही नोट दिखाता है,
पास जाने पर छूता है यहां-वहां
पर नोट से पकड़ नहीं हटाता है,
अब ये मुफ्त में ही
दिल बहलवाना चाहते हैं
तो बीवी को छोड़कर इन गलियों की
धूल क्यों फांकने आते हैं
सारी जवानी काटी यहीं मैंने
अब बुढ़ापे में कहां जाऊं?
मुझ पर लेटने को हजार पर
पर श्मशान तक लेट के जाने को
मैं अपने लिए चार कांधे कहां से जुटाऊं?


कोठा

उसने हर रात किसी की
सेज सजाई है,
फिर भी दुल्हन
किसी की नहीं बन पाई है।
कई बार उसकी हालत पर
इंसानियत ने नज़र  झुकाई है,
जब सुबह बाप ने और
शाम को बेटे ने उसकी देह
अपने नीचे सजाई है।
हर रिश्ते को
लिहाज़  रिश्ता बनाता है,
इन कोठों पर
हर रिश्ते का लिहाज टूट जाता है।
किसी नौजवान को ‘ट्रेंड’ करने में
कोई बूढ़ी तवायफ़
अपनी देह नुचवाती है,
तब कहीं जा के वो उस दिन
अपने पेट की आग बुझा पाती है।
ढलते-मसले जिस्म का
खरीदार मुश्किल से मिलता है,
ये जिस्मों का कारोबार
जवानी तलक ही चलता है।
वो वेश्या मौत से पहले ही
दहशत से मर जाती है,
जिसे अपने बालों में सफेदी
और चेहरे पे झुर्रियां नजर आती है,
बिन मौत आए सचमुच मरने का
हौसला भी कम ही जुटा पाती हैं,
इसीलिए इन कोठों पर अक्सर
मांएं ही बेटियों की
दलाल भी नजर आती हैं।


 दूसरा जन्म

बरसों तुम्हारे लिए तड़पकर
बरसों तुम्हारे लिए जीकर
मैं तड़पने का अर्थ भूल चुकी हूँ
मैं जीने का अर्थ भूल चुकी हूँ।
वो दर्द जिसे मैंने सीने में बसाया था
दुनिया को समझने के लिए
अपने दिल को दर्दमंद बनाया था
वो सिर्फ तुम्हारे लिए तड़पकर
चूकने लगा है,
वो सारे शब्द और जबानें
जो मैंने सीखी थीं
दुनिया की करीबी के लिए
वो सिर्फ तुम्हारा नाम लिखने
और तुम्हारी बात समझने तक ही
सिमट गए हैं।
वो बात जो तुम्हारे नाम से शुरू न हो
मुझे समझ नहीं आती है
वो खुशी जो तुम्हारे चेहरे पे न झिलमिलाए
मुझे खुश नहीं कर पाती है,
और इन सबके बदले
मैंने तुमसे तुम्हारा नाम खरीदा है
जो मेरे नाम के साथ
कभी नहीं जुड़ता है,
तुमसे तुम्हारा साथ पाया है
जो सात कदमों के फ़ासले से
बिन सात फेरों के
साथ चलता है,
और इन सबके अलावा
तुमने मेरी जिंदगी की माँग में
एक खालीपन भी भरा है
जो मेरी माँग से होकर
मेरी कोख से गुज़रकर
मेरी जिंदगी में पसर जाता है।
इस तमामतर खालीपन से
इस थके हुए तन-मन से
कुछ नया ढब जुटाते हैं
हाड़, मांस, रक्त, मज्जा की
इस जिंदगी के फर्श को चमकाते हैं,
जेहन की दीवारों से उलझनों के जाले हटा
इसे फिर से रंगवाते हैं,
खाली करा लेते हैं ये जिस्म
इस औरत से
और इस मकान में औरत नहीं,
सिर्फ एक इंसान को बसाते हैं।


एक प्रयास

तुम करो
बस एक सफल प्रयास
मेरे कई असफल प्रयासों को
सफल बनाने को,
तुम उठाओ
बस एक सही कदम
मेरे भटके कदमों को
रास्ते पे लाने को,
तुम फिर करो शुरू
कोई सफर
हो सामान इंतजार से
मुझे बहलाने को,
तुम लगाओ
कोई जिंदादिल कहकहा
मिले बहाना मेरे मुर्दा होंठों को
मुस्कुराने को,
तुम तोड़ दो कोई शीशा
बड़ी बेदर्दी से
पाए रास्ता मेरा दर्द
छलक कर बह जाने को।


(रचनाकार -परिचय :
जन्म : 24 अक्टूबर 1981, को नई दिल्ली में.
शिक्षा : हिंदी में स्नातकोत्तर
सृजन :  नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, हिंदुस्तान, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, हंस, सर्वनाम,  अलाव और संवदिया आदि  पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं। मादा ही नहीं मनुष्य भी ( स्त्री विमर्श),  समय से परे सरोकार  (समसामयिक विषयों पर केन्द्रित) और ताल ठोक के (कविता-संग्रह)  प्रकाशित।
सातवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक ‘वितान’ में लेख सम्मिलित।
डी.डी. नेशनल, जी.सलाम,  विश्व पुस्तक मेला व साहित्य अकादमी के  काव्य पाठों में भागीदारी।
कार्य-अनुभव :  हिन्द पॉकेट बुक्स, मेरी संगिनी, डायमंड प्रकाशन की पत्रिका ‘गृहलक्ष्मी’ में क्रमशः सहायक संपादक व वरिष्ठ सहायक संपादक। कुछ वर्षों तक आकाशवाणी दिल्ली से भी संबद्ध।
संप्रति : स्वतंत्र लेखन, संपादन व अनुवाद।
संपर्क : medamini@rediffmail.com )

विधायक से सांसद बना मुनीश्वर बाबू पर गोलियां चलाने वाला

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मुनीश्वर बाबू अपनी लाडली बिटिया
प्रीति (लेखिका) के साथ



स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता

मुनीश्वर प्रसाद सिंह पर उनकी बेटी का संस्मरण-3

प्रीति सिंहकी क़लम से

मां-बाप बच्चों के रहते मौसम के बदलते रंगों का कोई असर बच्चों पर नहीं होता। लेकिन जब ये छत न रहे तब अहसास होता है कि गर्मी की कड़क धूप, सर्दी की हाड़ कंपाने वाली ठंड और बरसात की मूसलाधार बारिश कैसे हमारे तन-मन को घायल कर देती है। जब अपने पास हों तो हम उनकी ओर से लापरवाह हो जाते हैं और जब वो दूर चले जाते हैं तो हम उनसे मिलने के लिए ईश्वर से फरियादें करते हैं। आज अगर मुझसे कोई पूछे कि तुम अगले जन्म में क्या बनना चाहती हो,तो मैं बेसाख़्ता बोलूंगी, बाबूजी। मुझे हैरत होती है कि दूसरों की बड़ी-से-बड़ी गलतियां वह कैसे माफ कर देते थे। चाहे वो अपने हों या गैर। उनके अपनों ने ही उन्हें कई बार धोखा दिया। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने ऐसे लोगों से रिश्ता नहीं तोड़ा। बल्कि घर आने पर उनके आतिथ्य सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनकी ये बात घर के अन्य सदस्यों के साथ मुझे भी बुरी लगती थी। लेकिन उनका कहना था कि अपनों को तो सभी माफ कर देते हैं। लेकिन इंसान वही है जो गैरों के गलत व्यवहार को भी भुला कर उसे क्षमा कर दें। क्योंकि क्षमा करने वाला हर हाल में बड़ा होता है।

चुनाव के बाद दोपहर का सन्नाटा
साल 1995 के गर्मियों के दिन थे। चुनाव खत्म हो गया था और बाबूजी दोपहर में आराम कर रहे थे। लेकिन घर में बच्चों के शोर ने उन्हें जगा दिया और वो दरवाजे पर बैठने चले गए। उनके साथ वहां उनके पार्टी के साथी, वर्तमान में डीलर एसोसिएशन के अध्यक्ष श्रीकांत लाभ, मेरा छोटा भईया और गांव के कुछ और लोग थे। बाबूजी और लाभ चाचा वोटिंग प्रतिशत पर चर्चा कर रहे थे। चुनाव खत्म होने और गर्मी की दोपहर का असर था कि गांव में सन्नाटा पसरा हुआ था। लोग घरों में आराम कर रहे थे। चिलचिलाती गर्मी में सड़क पर कई मोटरसाइकिलें बार-बार आ-जा रही थीं। जिस ओर किसी का ध्यान नहीं गया।

बरसाईं गोलियां, पटके बम
बाबूजी दरवाजे के एकदम सामने वाली कुर्सी पर बैठकर बातें कर रहे थे। वो हमेशा वहीं बैठते थे। उस जगह से दरवाजा सीधा नजर आता था। अचानक दो-तीन गाड़ियों और 8-10 मोटरसाइकिलों पर सवार लोग दरवाजे के सामने की सड़क पर आकर रुक गए और बाबूजी का नाम लेकर उन्हें नहीं हिलने की चेतावनी दी। दरवाजे पर मौजूद लोग बाबूजी को अपनी जगह से हट जाने को कहने लगे। लेकिन उन्होंने कायर की तरह वहां से हटने से इनकार कर दिया और कहा कि गोली चलाना है तो चलाओ। उधर निशानेबाज ने गोली चलाई और इधर मेरे छोटे भाई ने फुर्ती दिखाते हुए बाबूजी की कुर्सी को पीछे से पलट दिया। उन हत्यारों को लगा कि गोली बाबूजी को लगी और वो घर पर अंधाधुंध गोलियां और बम चलाते हुए भाग निकले।

रोने लगे बच्चे, अपराधियों को दौड़ाया युवाओं ने
गोलियों की आवाज सुनकर हमलोग घर के अंदर से दौड़े। घर से निकलकर मैं जब दरवाजे की तरफ भाग रही थी तो मैंने देखा कि बड़े भईया और दीदी बाबूजी को जबरदस्ती पकड़कर अंदर ला रहे थे। सबने मिलकर उन्हें एक कमरे में बंद कर दिया और मां को दरवाजा नहीं खोलने का कहा। मां को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। क्योंकि घटना के समय वो दूसरे आंगन में सो रही थी और बाबूजी दरवाजा नहीं खोलने पर अंदर से नाराज हो रहे थे। मैं बौखला कर रोने लगी और दरवाजे की ओर जाने लगी। लेकिन गांव के कुछ लोगों ने हम सभी बच्चों को एक कमरे में बंद कर दिया। उधर बड़े भईया और दीदी उनलोगों के पीछे बहुत दूर तक दौड़े। लेकिन वो लोग घटना को अंजाम देकर आराम से चलते बने। हमारे एक ड्राईवर रंजीत ने तो बिना किसी हथियार और साथी के ही कई किलोमीटर तक उनलोगों का पीछा गाड़ी से किया। लेकिन एक जगह जाकर वो लोग रंजीत को चकमा देकर आगे निकल गए। गांव के एक बुजुर्ग पंडित जी ने भी मोटरसाइकिल सवारों का पीछा किया और मोटरसाइकिल का कैरियर पकड़कर लटक गए। लेकिन कुछ दूर जाने के बाद वो गिर पड़े और अपराधी आराम से चलते बने।

खदेड़ कर पकड़ाबाबूजी ने बचाई उनकी जान
गोलियों और बमों की आवाज से तब तक गांववाले आ जुटे थे। सबने मिलकर 4-5 मोटरसाइकिल वालों को खदेड़ कर पकड़ा। हालांकि तब तक शॉर्प शूटर भाग चुका था। उस शॉर्प शूटर अशोक सम्राट को खासतौर पर दूसरे जिला से बाबूजी पर गोली चलवाने के लिए बुलावाया गया था। इस कांड को अंजाम देने के पीछे उस बाहुबली के मन में ये खौफ था कि जब तक ये बुजुर्ग जीवित रहेंगे वो यहां से चुनाव नहीं जीत पायेगा। उधर.. पकड़े गए मोटरसाइकिल सवारों को जब गांववाले मारने लगे,तो बाबूजी ने लोगों को उनलोगों को न मारने की अपील की और शांत रहने को कहा। बाबूजी ने पकड़े गए युवकों को गुमराह बताकर गांववालों के गुस्से को शांत किया और उन्हें सबके आक्रोश से बचा लिया। अगर उस दिन बाबूजी ऐसा नहीं करते तो गांववाले उनलोगों को पीच-पीटकर मार डालते।

एफआईआर दर्ज करवाने से किया मना
देखते-ही-देखते पुलिस के आलाधिकारी मौके पर पहुंच गए। बाबूजी के अंगरक्षकों को भी डांट पड़ी। लेकिन बाबूजी ने उनका बचाव किया। पुलिस के आलाधिकारियों के सामने भी बाबूजी ने किसी के व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने से मना कर दिया। हालांकि घटना किसने और क्यों की थी। ये बात हर कोई जानता था। लेकिन बाबूजी ने किसी का नाम नहीं लिया। नाम नहीं लेने के पीछे कोई डर नहीं था। बल्कि उन्होंने इस मामले को इतना तूल देना ही बेकार कहा। वो नहीं चाहते थे कि ऐसे लोगों को भी पुलिसिया कार्रवाई को झेलना पड़े जिन्होंने उनके साथ छल किया है। ऐसे थे मेरे बाबूजी। हर किसी को माफ कर देने वाले और मुंह से एक बददुआ तक नहीं देने वाले। वो सब कुछ ऊपरवाले पर छोड़ देते थे।

विधानसभा में उठा मामला, सुरक्षा लेने से इंकार
हालांकि इस घटना ने काफी तूल पकड़ा। रेडियो, अखबार और टीवी के साथ-साथ ये मामला एक बार फिर विधानसभा में पुरजोर तरीके से उछला। बाबूजी को स्कॉर्ट पार्टी जबरदस्ती दी गई। क्योंकि हर बार की तरह इस बार भी उन्होंने किसी भी तरह की सुरक्षा लेने से इनकार कर दिया था। लेकिन इस घटना ने उनके अंतर्मन पर गहरा घाव किया। जिस गांव और क्षेत्र को उन्होंने जान से ज्यादा चाहा था, जिसके विकास के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व झोंक दिया था, जिस क्षेत्र के लिए उन्होंने संसद जाने से इनकार कर दिया था। उन्हीं अपनों ने उनके साथ विश्वासघात किया। ये दर्द वो अपने सीने में दबाकर बैठ गए।

राजनीति से मोहभंग, गीता बनी सहारा
दो-एक दिन में ही वो पटना लौट आये। इस मुश्किल घड़ी में उनका संबल बनी गीता। कई दिनों तक चुपचाप उन्होंने गीता का अध्ययन किया और खुद को संभाला। इस पूरी घटना में उनके कई विश्वस्त साथियों का नाम सामने आया जिन्होंने इस कांड की योजना बनाई थी। अपनों का ये धोखा उनके मन में इतने गहरे चुभ गया कि बाबूजी ने धीरे-धीरे खुद को सक्रिय राजनीति से दूर कर दिया। पद और पैसे की लालसा तो उनके मन में कभी थी ही नहीं। इस घटना ने उनके मन में संसार के प्रति विरक्ति भी पैदा कर दी।

बाहुबली नेता ने तीन बार मांगी माफी
इधर, घटना के बाद बाबूजी पर गोलियां चलवाने और उन्हें मारने के लिए शॉर्प शूटर को बुलवाने वाले बाहुबली ने तीन बार बाबूजी के पैरों को पकड़ कर उनसे माफी मांगी। हर बार बाबूजी ने उन्हें यही कहा कि मैंने तो तुम्हें उसी वक्त माफ कर दिया था। अब भी तुम्हें माफ कैसे कर सकता हूं। क्योंकि तुम्हारे लिए तो मैं उसी वक्त मर गया था जब तुमने ऐसी बात सोची थी। ये जवाब सुनकर एयरकंडीशंड कमरे में भी उस शख्स के चेहरे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा रही थीं। आज वो इंसान बिहार का बड़ा नेता है और विधानसभा से अब संसद की छलांग लगा चुका है।

यहां ये बताना जरुरी है कि जब बाबूजी 1990 से लेकर 1995 तक विधायक थे। इस बीच में लगातार उन्हें धमकी भरे पत्र और फोन आ रहे थे। लेकिन इन सबके बावजूद बाबूजी ने किसी भी तरह की सरकारी सुरक्षा लेने से साफ इंकार कर दिया था। गोलयां चलने के बाद बाबूजी के कई साथियों ने इस मुद्दे को विधानसभा में उठाया। विधानसभा अध्यक्ष और कई अन्य नेताओं ने कई बार बाबूजी को अंगरक्षक साथ रखने को कहा। लेकिन उन्होंने हर बार मना कर दिया। हालांकि घर, मित्रों और शुभचिंतकों के बार-बार आग्रह के आगे बाबूजी झुक गए और अपने साथ दो अंगरक्षक रखने के लिए तैयार हो गए।


अवांतर उवाच

ईमानदार पिता की संतान होना
हर कदम पर ईमानदारी की कीमत नेताओं के परिवारों को ही देनी होती है और बदले में उन्हें समाज का तिरस्कार मिलता है। ये सुनने को मिलता है कि जिन्होंने अपने लिए कुछ नहीं किया वो क्या समाज के लिए करेंगे? यहां ‘कुछ करने’ का तात्पर्य सामने वाले को रुपये कमाने देने की छूट से होता है। मैं कई ऐसे विधायकों और सांसदों को जानती हूं जिनके बच्चे आज जैसे-तैसे जीवन गुजारने को विवश हैं। क्योंकि उनके पिता ने ईमानदारी का जीवन जीना पसंद किया। उन्होंने न कोई संपत्ति बनाई, न ही अपने बच्चों को अच्छी जगह पढ़ा सके। बच्चों के लिए कोई सरकारी पद भी नहीं जुगाड़ किया। कई ईमानदार नेताओं की बेटियों की अच्छे घर में शादी महज इसलिए नहीं हुई क्योंकि वो बड़ी और मोटी रकम देने में असमर्थ थे।
कर्तव्य लाइक से शुरू कमेंट तक ख़त्म
ऐसे परिवार किस स्थिति में हैं,ये जानने की फुर्सत किसको है? लेकिन दीपिका पादुकोण ने कौन सी ड्रेस पहनी है और विराट कोहली किसके साथ घूम रहे हैं? ये जानना अब ज्यादा जरूरी है। यहां भगत सिंह को कोने में फेंक दिया जाता है और उनके खिलाफ गवाही देने वाले परिवार को सिर-आंखों पर बिठाया जाता है। हॉकी खिलाड़ी ध्यानचंद की विधवा दूसरों के घरों में जूठे बर्तन साफ करती हैं। फेसबुक पर हम उनके फोटो को लाइक कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। याद रखियेगा जो वक्त पड़ने पर दूसरों के लिए खड़ा नहीं होता। उसकी जरूरत के समय कोई उसके लिए भी खड़ा नहीं होता। क्योंकि दुनिया ईमानदारों से कम और बेईमानों से ज्यादा भरी हुई है।
तो क्या ये अच्छा नहीं होगा कि हम सब मिलकर ईमानदारी और बेईमानी की इस खाई को कम करने की कोशिश करें? सोचिए और अपनी ओर से एक छोटी सी पहल कीजिए। तभी दुनिया हमारे सपनों जैसी सुंदर बन सकेगी।

(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 20 मई 1980 को पटना बिहार में
शिक्षा: पटना के मगध महिला कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक, नालंदा खुला विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में हिन्दी से स्नाकोत्तर
सृजन: कुछ कवितायें और कहानियां दैनिक अखबारों में छपीं। समसायिक विषयों पर लेख भी
संप्रति: हिंदुस्तान, सन्मार्ग और प्रभात खबर जैसे अखबार से भी जुड़ी, आर्यन न्यूज चैनल में बतौर बुलेटिन प्रोड्यूसर कार्य के बाद फिलहाल आकाशवाणी में अस्थायी उद्घोषक
संपर्क: pritisingh592@gmail.com)






चाहती तुम्हारी प्रेम कविताओं में शब्द भर होना

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प्रोमिला क़ाज़ी की कविताएं
 
1.
मै तुम्हें प्रेम करना चाहती थी
कुछ इस तरह कि
तुम झूठ और सच का समीकरण
इस रिश्ते में भुला देते
पाप और पुण्य का झंझट
कहीं पर दबा आते
तुम न वो बनते, न यह बनते
बस सहज जैसे मां के सामने थे
वैसे ही मेरे सामने आते
मैं तुम्हें आकाश कर देना चाहती थी
और उस पर होने वाली उड़ानों को
आँख भर , सांस रोक देखना चाहती थी
एक खिड़की भर हिस्सा अपने लिए
और तुम्हें खाली छोड़ देना चाहती थी
मैं चाहती थी कि कोई सत्य न तुम
मुझको बताओ
जब कोई रंग बस मेरे लिए
पक्षियों के परों से चुराओ
जब लड़ पड़ो समुंदरों से
और मेरे लिए रास्ता बनाओ
मैं चाहती थी बस शब्द भर होना
तुम्हारे काव्य में
तुम्हारी उन प्रेम कविताओं में
जो मेरे लिए नहीं थी
मै चाहती थी कि मुझको तुम बताओ
यह सब तुमने लिखा किसके लिए है
सच कहना आसान कब था
पर सच को सुनने के लिए
मै पत्थर हो जाना चाहती थी
हमारे रिश्ते में
वैसे ही आसान क्या था
पर जो भी था मै उसको ही
सत्य, सुंदर मानती थी
बात इतनी सी थी, मेरे समुंदर
मै बस तुम्हारी लहर भर होना चाहती थी
पर तुम्हें अपनी लहरों से नहीं
हर दिशा से आती नदियों से प्रेम था II
=================

2 . जाने क्यों
 
रिश्ते-नातों का
अनचाहा बंधन
सिकुड़ते कमरे
व्यथित मन

कैसे होंगे कभी
अपने पराये?
सोचे जब
मन भर आये …

चलो छोड़ो अब
सोंचेंगे अपने लिए
आँगन की चौखट पर
चाँद सपने लिए …

मिल जाये चलो
सब सीमओं से परे
भीचती आँखें
जागने से डरे।
----------------------------

3 . तुम्हारा प्रेम

तुम्हारा प्रेम मेरे लिए
बचे रंगो की प्लेट जैसा है
जिसे कलाकार सोते-जागते
कोई मास्टरपीस बनाने का
सपना देखता है
और सहेजे रहता है
सूखते रंगों को
अपनी अधमुंदीं आँखों में !
तुम्हारा प्रेम
भरपूर ज़िंदगी जी चुके
उस जीवन की अंतिम हिचकी सा है
जिसमें जाने वाले को पूरा इत्मीनान होता है
कि अब कुछ भी छूटा नहीं है
कि अब शांति से जाया जा सकता है I
तुम्हारा प्रेम
मेरे कानों में लगे उस एयर प्लग सा है
जो बाहर की तमाम अनचाही
आवाज़ों को बंद कर देता है
और बहा देता है एक खामोश नदी मेरे भीतर I
तुम्हारा प्रेम
मेरे लिए
बसंत के आखिरी खिले फूल सा है
जो भूल गया हो
आते पतझड़ में मुरझा जाना !
तुम्हारा प्रेम मेरे लिए
कोई अनदेखा स्वर्ग नहीं
बल्कि दोबारा जनम लेने की
तुम्हारे साथ रहने की
एक बचकानी ज़िद है
जिसके लिए अस्वीकारा जाएगा
हर मोक्ष I
==============
4.

आते समय वो गिन के रखती है
बटुवे में अपनी स्वतंत्रता के पल
और ताकीद करती है अपने आप से
कि इससे ज्यादा खर्च नहीं करेगी उन्हें I
लौटते समय देखती है
खाली हुए रास्ते, खाली बाजार
खाली चेहरे और अपना खाली बटुवा भी
फिर मूँद लेती है अपनी भरी-भरी आँखें
भरा-भरा मन
आँखों की कोर पे अटका
भरा हुआ सावन
और एक अव्यक्त सी ख़ुशी
और हिसाब लगाती है
फिर बटुवे को कैसे भरा जाए ?
=================
5. 
 
बाजार की लड़की !
उसकी ऊँगलियाँ आस-पास के हर शीशे पर
उकेरती तितलियों सी आकृतियाँ
फिर वह अपनी अधखुली आँखों से
और हलके गोल घुमाते होंठो से
फूंक मार उन्हें उड़ा देती
उसकी आँखे आस्मां से ज्यादा विस्तृत हो जाती
और बरस पड़ती मानसून सी उसकी हँसी I
उसकी उँगलियाँ धीमे-धीमे बजातीं
धुंधलाये शीशो पर ढेरो राग
वो गुनगुनाती प्रेम और भीग जाती आँखें उसकी I
यह सब सीखा नहीं था उसने
फिर अचानक से उसे बड़ा घोषित कर दिया गया
उसका हाथ पकड़ सिखाया गया उसे
बालों में उलझना, देह पर फिसलना
सासो का बिखरना, बिना संगीत के शब्द
वो सीखती रही और सूखता रहा उसके अंतर का मानसून
खोता रहा उसकी पलकों के नीचे छुपा आसमान
और अदृश्य होती गयी उकेरी तितलियाँ
उसकी आँखें देख नहीं पाती अब कुछ
और यह खोजती है कोई खाली दर्पण
उकेरने की कोशिश में दर्पण चटख जाता है
कोई बेहूदा सा पैटर्न उभर आता है
जो मिलता है, ठीक उस निशाँ से
जो उसकी देह पर अब जहाँ-तहाँ है।
============


(रचनाकार-परिचय:
जन्म : 18 जून 1966 को हिमाचल प्रदेश में।
शिक्षा: मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर, आगरा।
सृजन: हिंदी और अंग्रेजी के लगभग 25 कहानी व् कविता-संग्रहों में रचनाएं। मन उगता ताड़ सा, मन होता उजाड़ भीशीर्षक कविता-संग्रह प्रकाशित। इसके अतिरिक्त पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल्स पर कविताएं।
संप्रति: स्वतंत्र लेखन हिंदी व् अंग्रेजी में, और एक वेब पोर्टल में मुख्य संपादक
संपर्क: promillaqazi@gmail.com )





माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

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कितने बदनसीब हैं जो करते हैं मां को नाराज़

वसीम अकरम त्यागी की क़लम से

अक्सर शनिवार को मैं अपने गांव चला जाता हूं। इस बार भी गया था। बीच में हाशिमपुरा पड़ गया वहां लोगों से मिलने के लिये रुक गया, फिर शाम को चौधरी चरण सिंह विवि चला गया। उर्दू विभाग अध्यक्ष डॉक्टर असलम जमशैदपुरी ने वहां पर एक ड्रामा रखा था। उस प्ले को देखते-देखते रात समय ज्यादा बीत गया। सोचा घर जाऊंगा, तो अम्मी को देर रात नाहक़ परेशानी होगी। इसलिए खाना भी शहर में खा लिया। इसके बाद रात को तक़रीबन 12 बजे मैं गांव पहुंचा। औपचारिक बातचीत के बाद अधूरी छोड़ रखी एक पुरानी किताब पढ़ने लगा और पढ़ते पढ़ते ही सो गया।

सुबह देर से आंख खुली। जिंदगी में एक बदलाव मैंने महसूस किया है, जब मैं 17 या 18 साल का था तब फ़ज्र की अज़ान होते ही बिस्तर छोड़ दिया करता था अम्मी खुद जगा देती थीं। उससे पहले यह ड्यूटी दादाजी के पास थी। उनके इंतक़ाल के बाद यह मामूल अम्मी बख़बी निभती रहीं। मगर अब कोई नहीं जगाता। जिस कमरे में सोता हूं, उसके पास बच्चों के आने-जाने पर पाबंदी लगा दी जाती है। अम्मी कहती हैं, वसीम सो रहा है अभी सोने दो। रात को देरी से सोया है। शहर में थक जाता होगा यहां कमसे कम आराम से तो सो लेता है।
चाय के कप में मां की उष्माबेटामेरी भी सुना कर
बहरहाल सुब्ह आंखें खुलने के बाद छत पर गया। अम्मी किचन में कुछ बना रही थी। मेरी तरफ़ चाय का कप बढ़ाते हुए बोलीं, सुबह से तीन बार चाय बना चुकी हूं कि तू उठते ही चाय मांगेगा। मैंने चाय का वही अपना वाला कप (मेरे चाय पीने का कप औरों से अलग है, वह एक ग्लास के बराबर है) अपने हाथ में ले लिया। उन्हें देखकर लग रहा था कि वे कुछ अपसेट हैं। मैंने वजह मालूम की, तो कहने लगीं कि आते हो और थोड़ी देर हमारे पास बैठकर अपने कमरे में घुस जाते हो। फिर सुबह होते ही चलने की तैयारी करने लगते हो। इससे बेहतर हो कि तुम आया ही न करो। अरे कम-अज़-कम कुछ हमारी भी सुना करो, कुछ अपनी कहा करो।
अम्मी का लहजा लगा जब सख़्त
कुछ खा़मोश अंतराल के बाद अम्मी बोलीं, .... मगर तुम हो कि हर वक्त, कभी लैपटाप, कभी मोबाईल, तो कभी किताबों में खो जाते हो। तुम्हारे पास दुनिया के लिये वक्त है, हमारे लिये कहां है? अम्मी का लहजा ज़रा सख़्त था। मुझे भी लगा कि अम्मी कुछ ज्यादा ही कह गईं? मगर बात को टालते हुए मैंने कहा तुम ख़्वाहमख़्वाह में अपनी एनर्जी वेस्ट मत किया कीजिये। और अगर आपको लगता है कि मेरे आने से आप परेशान होती हैं, तो मैं महीने में ही एक बार आया करुंगा। अब हर हफ्ते नहीं आऊंगा। यह कहकर चाय का कप लिये नीचे आ गया और अख़बार में सर खपाना शुरू कर दिया मुझे लगा कि सुबह उठते ही मूड ख़राब हो गया है। मगर यह मां की ममता थी जो एक बेटे के सामने शिकायती अंदाज़ में झलक रही थी जिसे मैं नहीं समझ पाया।
आंख मिलाना हुआ मुश्किल
मुझे लगा कि मैंने ग़लती कर दी है और उस वजह से अम्मी से आंख नहीं मिला पा रहा था। चलते वक्त छोटे भाई से कह दिया कि गाड़ी निकाल और मुझे शहर छोड़ के आ जाओ मुझे किसी प्रोग्राम में जाना है। उसने गाड़ी निकाल ली। अम्मी अभी ऊपर वाले कमरे में ही थीं। एक छोटे बच्चे से मैंने कहा कि जाकर कह दो कि मैं जा रहा हूं। अम्मी हर बार मुझे दरवाज़े तक छोड़ने आती है, जिस कार में बैठता हूं उसे तब तक देखती रहती हैं जब तक वह उनकी आंखों से ओझल न हो जाये। मगर उस दिन वे नहीं आयीं। मैं भी उनके पास ऊपर नहीं गया और दस मिनट इंतजार करने के गाड़ी में बैठ गया, और दिल्ली आ गया।
बिना मिले चला गया न!
मगर एक बात थी जो बराबर खाये जा रही थी, कि मुझसे नाराज़ होने वाली कोई और नहीं बल्कि मेरी मां है ? यानी मेरी जन्नत मुझसे नाराज़ है। पिछले चार दिन से यह सवाल मैं अपने आपसे कर रहा था कि मैं कितना बड़ा गुनहगार हूं.. अपनी मां को नहीं मना सका, तो दूसरों को कैसे मनाऊंगा ? मां की मोहब्बत तो निस्वार्थ है, यह तो सभी जानते हैं। वह दिखावे की मोहब्बत से बिल्कुल जुदा है। बार–बार मुझे यह बातें खाये जा रही थीं। आज सुब्ह आंखें खुलते ही मैंने घर फोन किया अम्मी से बात की उन्होंने फिर वही शिकायत कीं तू तो चला गया था न। अब क्यों फोन कर रहा है।
मगर वह मां है हर गलती को माफ करने वाली है,... दुःखों के पहाड़ सहकर हमें पालने वाली... खुद को बूढ़ा करके हमें जवान करने वाली। उसकी मोहब्बत से कैसे इंकार किया जा सकता है। हम लोग सिर्फ यह सोचकर उसे नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि मां ही तो है मान जायेगी और वह मान भी जाती है। मैंने भी मना लिया, अब कोई टेंशन नहीं है, काम में मन लग रहा है। सबकुछ पहले जैसा ही लग रहा है, वे लोग कितने बदनसीब होते होंगे जो मां को नाराज़ कर देते हैं। घर से निकाल देते हैं, वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं, या फिर जिनकी मां मर जाती है।
लगता है जैसे जिस्म है और जां नहीं रही
वह शख्स जो ज़िंदा है लेकिन मां नहीं रही।

शीर्षक मनव्वर राना के शेर का सानी मिसरा।
(रचनाकार -परिचय:
जन्म: उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक छोटे से गांव अमीनाबाद उर्फ बड़ा गांव में 12 अक्टूबर 1988 को ।
शिक्षा: माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता व संचार विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक और स्नताकोत्तर।
सृजन: समसामायिक और दलित मुस्लिम मुद्दों पर ढेरों रपट और लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
संप्रति: मुस्लिम टुडे में उपसंपादक/ रिपोर्टर
संपर्क: wasimakram323@gmail.com )






साहिर, देवताले, ख़ैयाम का साथ चलना

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संध्या कुलकर्णी की दस कविताएं

1.

अलसुबह ओस की बूंद
गिरी माथे पर
कविता ने ही उठाया मुझे
मां नहीं थी, जो उठाती।

2.

जैसे रहते हो कई बेआवाज़ लोग यहां
निर्भर रहते हैं, दूसरो की अपनी आवाज़ पर
मोहर के लिए
जब तक सियाही के रंग से नहीं जोड़ पाते
अपना तारतम्य
कागज़ की खुशबू ना कर पाये जज़्ब
अपने नथुनों में
अडोनिस ने कहा
भाषा आवाज़ की सुबह है
ठीक वैसे साक्षर ना होना
जीवन की रात ....!!

3.

गुलाब के फूलों का ये
तिलिस्मी गुच्छा
एक दिन जब मुरझाने पर आएगा
अपने सुर्ख़ से रंग को छोड़ कर
ज़र्द सियाही में बदल जाएगा
संभाले रखने की अपनी कोशिश में
किसी किताब के सफ़हे में दबकर
अर्क़ से दबा जाएगा, कोई गुमशुदा हरुफ़
और फिर अपने माज़ी से मिलने के लिए
मेरे ख़यालों का दरवाज़ा खटखटाएगा
गुज़िशता एक दिन
(वो भी पूरा नहीं)
और उसके कुछ ज़िंदा लम्हों को
अपने धुंधले अक्स में छुपकर
धनक से कई मानी
मेरी झोली में डाल जाएगा ......!!

4.

ज़रा देर को
कोई एक बादल का टुकड़ा
कर सकता है अदृश्य तुम्हें
अपनी गति के प्रमेय से बंधी
निहारती हूँ अटल तुम्हें ...
हे ध्रुव ....
बनी रहना चाहती हूँ
और भी अधिक धरती
हमेशा के लिए।

5.

नहीं चाहिए उनको कोई बाधा
अपने मुग़ालतों में
बहुत सारा ख़ाली वक़्त है उनके पास
और ढेर सारा खाना
देखने को हैं सपने
और कर लिया है वक़्त को ख़ाली
दिवास्वप्नों के लिए
'इरशाद''वाह 'और'मुकर्रर 'की दिलखुश
आवाज़ों मे गुम है उनका असल व्यक्तित्व
और अहम के परचम थामे
स्वयंसिद्ध होने की होड़ में गुम हैं
अपने सफल अभिनय से
बिल्कुल नहीं कहते.... जो चाहते हैं
असल में
कहने और सोचने के फ़र्क को
दिखाई भी नहीं देने देते
अपने सशक्त अभिनय से वो
अपने दोहरी शख़्सियत पर
अक्सर लगा देते हैं ज्ञान की छौंक
तथाकथित बुद्धिजीविता से
बस लोभ का संवरण
बस के बाहर है इनके
(इन्हें पता ही नहीं .....ये कहाँ जाने के लिए निकले थे दरअसल)

6.

रात और दिन
रोज़ मिलते हैं, बिछड्ते हैं
समय के विनिर्दिष्ट बिन्दु पर
और ठीक वहीं मुस्कुरा उठती है साँझ
अपने अस्तित्व को समेटे
इंद्रधनुषी छटा बिखेरे, क्षितिज पर
लगाती है अपनी जीवंतता
की मोहर
अनवरत क्रम लिए
प्रतीक्षारत ...!!

7.

सृष्टि के अंतिम छोर पर
डूबता है सूरज
आँखों की कोर में
भरता अंधियारा
नहीं डूब पाता हृदय के भीतर
जमा हुआ तुम्हारी कौंध का सूरज
अटका रहता सदा
जीवंतता की मोहर लगाता
जैसे उजागर हो जाता था सन्नाटा
चन्द्रकांत देवताले जी की कविता
"कुछ तो है तुम में, जो सितार सा बजा लेती हो
सन्नाटे को तुम"
तुम्हारी आवाज़ की
मृदुता के साथ कौंधता
बजता हुआ .....
साहिर, खामोश गुंजाते अपने गीत
तुम्हारे मेरे बीच....तुम्हारे मौन में....
तुम्हारे विश्वास .अति आत्मविश्वासी..
प्रश्नवाद के उत्तर में
चिन्हित...उजियारे के बीच
आ खड़े होते तुम ...
ख़ैयाम के गीत-संगीत में
दिलराज कौर की दिलकश आवाज़
को गाती आवाज़ को बार-बार
सुनने के इसरार के बीच
कौंधता सूरज .....
हृदय की नदी के पार .....
मुझे खुशी है
"साहिर"अब तक ठहरे हैं वहीं
"ख़ैयाम "भी जैसे साथ-साथ चलते हैं
किसी मौन के टुकड़े में
किसी हाँ-हूँ के बीच
और स्वीकृति की
मृदुल मुसकान के बीच
सूरज जो दिखता रहा
कहीं डूबता हुआ
दरअसल जगह बदल
आ ठहरता है
दिल के बीचों बीच .....!!

8.

कितनी सारी आवाज़ों के बीच
अपनी चिर-परिचित आवाज़ को ढूँढना
दूभर सा क्यों होता जा रहा है इन दिनों
कितना संतोष दे जाता था
एक ही शहर में रहकर भी
कितने-कितने दिन न मिलकर
जुड़े रहना बातों में... आवाज़ के साथ
और भर देता था कितनी बेचेनियाँ, बदहवासियाँ
कुछ ही समय को छोड़कर जाना शहर से बाहर मेरा
तुम्हारे अंदर ....
एक-एक पल की ख़बर रखना तुम्हारी
कहाँ हो ? सब ठीक है न ? अपना ख़याल रखना ....
तरह-तरह के अंदेशे तुम्हारे
और वो एहसास दूरियों का
तुम्हारी वो शीरीं खनकदार आवाज़
और "खाँ यार "कह कर बतियाते असंख्य क़िस्से
और तुम्हारी खिलखिलाहट में बसी वो पुरसुकून लगावट
किस तरह चढ़ गए है भेंट कुछ दुरभिसंधियों के
या महत्वाकांक्षा के पहाड़ चढ़ गिर गए हैं विस्मृति के गर्त में
या चढ़ गई है समय की गर्द उस अदृश्य डोर पर
जिसने जोड़े रखा सदा ही .....
वो पुरशीरीं आवाज़ ढूँढती है मेरे मोबाइल को
और मैं ढूँढती हूँ आवाज़ को उसके भीतर शिद्दत से
नदारद बेचेनियों का सुकून .......!!

9.

हाँ, आओ ख़ामोश
उतर आओ पुरसुकून
मेरे भीतर
इन अतल गहराईयों में
कोई परेशानी नहीं बची रहेगी
अंतर्मन पर पड़ने वाली
बाह्य में घिरने वाली
कोई मार नहीं छू सकती तुम्हें

घुटनो में सर रख दो
और डूब जाओ मेरे भीतर
कोई दुश्मन अब नहीं आने वाला
कोई विषाद छू नहीं सकेगा तुम्हें

वो लड़ाईयां
जो लड़ नहीं पाये तुम
वो ढाल जो थी ही नहीं तुम्हारे पास
वो अस्त्र जिसे नहीं चाहा इस्तेमाल करना तुमने
यहाँ उपलब्ध हैं तुम्हारी सहायता को

बस आँख मीचो
और उतर आओ ख़ामोश
हाँ मैं हूँ अंधेरे में डूबी
अवसाद की एक
अंधेरी खोह .........!!

10.

प्रोमिथियस
क्या तुम्हें
ये आग नहीं दिखाई देती
जो ज्वाला बन पेट में धधकती है
रोटी पकाती उंगलियों में
उभर आती है गाँठ बन
और आँखों में उबल पड़ती है
मेरे यक़ीन मे उतर आती है

आग ढूँढने
तुम कहाँ चले गए थे
प्रोमिथियस ...!

(रचनाकार: परिचय:
जन्म: 15 अगस्त 1965 को भोपाल मध्यप्रदेश में। मूलत: कर्नाटक(बंगलुरु ) से।
शिक्षा: स्नातकोतर (वाणिज्य )Diploma in Craetive Writing
सृजन: कई पत्र- पत्रिकाओं मे रचनाएं। आकाशवाणी से समय-समय पर रचनाओं का प्रसारण भी।
संप्रति: शासकीय संस्था में लेखाकर्म
सम्मान: प्रभात साहित्य परिषद सरस्वती प्रभा सम्मान एवं सुमित्रा देवी पुरस्कार।
संपर्क: sandhyakulkarni007@gmail.com )

इंसानियत का जनाजा़ है, ज़रा धूम से निकले!

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इंसानों में जानवर रहता है
वसीम अकरम त्यागीकी क़लम से


हादसा बहुत पुराना है। तब कि मेरा जन्म भी न हुआ था। लेकिन बचपनसेअबतकउसदुर्घटनाकोइतनी बार सुना कि मानो उसे देखते-देखतेही मैंबड़ाहुआहूंघटनायहथीकिहमारेगांवमेंमेरेपड़ोसीकेघररातकोचोरगयेथेअधखुलीनींदमेंजैसेहीमेरेबड़ेअब्बाोरसुनकरउठकरभागे,तोचोरोंकेगिरोहमेंशामिलकिसीएकचोरनेउनकोगोलीमारदी,जिसकीवजहसेवेएकहाथसेअपहिजहोगये।जैसे-जैसेमैंबड़ाहोतागया,मैंनेइसदास्तानकोसुनतागयाहजारोंबारअपनेबड़ेअब्बूकेअपाहिजहोनेकीकथालोगोंसेसुनींऔरअपनेकिसीदोस्तकेमालूमकरनेपरउसेभीसुनाई।
मगरएकसवालथा,जिसकाजवाबआजतकनहींमिलपायाअक्सरवहसवालमुझेपरेशानकरदेताहैकिजिसनेभीबड़ेअब्बूकोगोलीमारीथी,वहभीतोइंसानथाबड़ेअब्बूभीइंसानथेफिरएकइंसाननेदूसरेपरगोलीक्योंचलाई? बचपनमेंघरवालेजंगलीजानवरकाडरदिखायाकरतेथेमगरयहकैसेइंसानथे,जिन्होंने़रासीदेरमेंएकहंसते-खेलतेइंसानकोअपाहिजबनादिया।कईबारसोचाफिरमहसूसकियाकिइंसानकेअंदरहीजानवरबसताहै।जोइंसानोंकीतरहहीखाताहै, रहताहै, बोलताहैमगरकामएसेकरताहै,जैसाजानवरभीनहींकरपाते।
टीवीपरसमाचारसुनरहाथा,तोलड़कियोंसेजुड़ीदोबरेंसामनेआईं।एकतेलंगानाकीथी,जहांपरमासूमबच्चियोंकोबेचाजाताहै।दूसरीपश्चिमउत्तरप्रदेशकेशामलीजनपदकेएकगांवकी थी,जहांएकमंदबुद्धिलड़कीकेसाथबलात्कारकियागयाजिसकेबादपीड़ितपरिवारनेउसयुवतीकोजंजीरोंसेबांधदियाताकिवहघरसेबाहरजायेऔरउसकेसाथवैसीहैवानियतफिरदोहराईजामगरसवालतोउठताहैकिउपरोक्ततीनोंघटनाऐंइंसानोंनेहीअंजामदीहैंऔरइंसानोंकेसाथअंजामदीहैंफिरइन्हेंइंसानकहलानेकाहकक्योंहै?
शर्मआतीहैकिहमएसेलोगोंकोइंसानकहतेहैंजिन्होंनेजानवरोंसेभीबदतरकामकियेहैं।जिन्होंनेउसमंदबुद्धिबालिकाकेसाथबलात्कारकियाक्यावेइंसानकहलानेकेकाबिलहैं? जोमासूमबच्चियोंकोबेचरहेहैंक्यावेइंसानकहलानेलायकहैं? जोउनबच्चियोंकोपैदाकरकेबेचनेकेलियेछोड़जातेहैंक्यावेइंसानकहलानेकेकाबिलहैं? कहांगईआखिरइंसानियत? कुछतोजवाबमिले।सड़कोंपरचलते-फिरतेरोजानाइंसानियतमरजातीहैअभीहालहीमेंजंतरमंतरपरभीइंसानियतमरीहै,जहांएककिसाननेहजारोंलोगोंकेदरमियांखुदकुशीकरली।क्याइसदुनियामेंइंसानियतसिर्फइतनीहीहैजितनीपेड़परझूलतीहुईउसगजेंद्रकीलाशनेबताईहैकिएकव्यक्तिमररहाहैऔरदोयुवकउसेबचानेकेलियेपेड़परचढ़रहेहैंबाकीवीडियोबनारहेहैं, फोटोक्लिककररहेहैं।हजारोंकीभीड़मेंएसेकितनेइंसानहोंगेजिन्होंनेमौतकेइसलाईवटेलिकास्टकोदेखकरएकवक्तकाखानानहींखायाहोगा? जिनकीआंखोंमेंगजेंद्रकीलाशतैररहीहोगी।चलते-फिरतेहुएसभीलोगइंसानहैं,मगरइंसानियतकहांहै? इसकाभीतोपतामिले।क्योंएकमंदबुद्धिबच्चीकेसाथबलात्कारहोजाताहै? औरहममहजएकखबरकीतरहउसेसुनतेहैंफिरआगेकीतरफबढ़जातेहैं? हमखुदसेक्योंयहसवालनहींकरपातेकिइंसानोंकेदरमियांजोहैवानियतपसरीहै,उसकाखात्माक्योंनहींहोता? आयेदिनइंसानियतकोशर्मशारकरदेनेवालीघटनाओंकीसंख्याबढ़तीहीजातीहै।किसीशायरनेकहाहै:
किसेदफ्नरूंकिसकोजलानेजाऊं
वहतोहररोजहीमुश्किलमेंडालदेताहै।
हररोजसुब्हयहअखबारबांटनेवाला
मेरेघरपरजानेकितनीलाशेंडालदेताहै।
जाहिरहै,शायरकाइशारारोजानादमतोड़तीइंसानियतकीतरफरहाहोगा, तभीउसनेअखबारकोलाशेंबतायाजिसमेंकोईकोईखबरसीरहतीहै,जिससेइंसानियतशर्मशारहोतीहै।एसीखबरोंकाघटनास्थलअलगहोसकताहै, देशअलगहोसकताहैमगरमरनेवालेऔरमारनेवालेतोइंसानहीहैं।फिरचाहेवहशामलीकीमंदबुद्धियुवतीकेसाथबलात्कारकामामलाहोयाफिरतेलंगानामेंबच्चियोंकीखरीद--फरोख्तकामामलाहै।यहएसीघटनाऐंहैं,जोबतातीहैंकिइंसानियतधीरेधीरेमररहीहै।औरहमलोगउसकेजनाजेकोकांधादेरहेहैं।
 
(रचनाकार-परिचय:
जन्म: उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक छोटे से गांव अमीनाबाद उर्फ बड़ा गांव में 12 अक्टूबर 1988 को ।
शिक्षा: माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता व संचार विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक और स्नताकोत्तर।
सृजन: समसामायिक और दलित मुस्लिम मुद्दों पर ढेरों रपट और लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
संप्रति: मुस्लिम टुडे में उपसंपादक/ रिपोर्टर
संपर्क: wasimakram323@gmail.com )

महँगा पड़ा दबंग सलमान से भिड़ना

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असमय कैसे मर गया केस का प्रमुख गवाह रवींद्र पाटिल

संजीव खुदशाह की क़लम से

पिछले दिनों सलमान खान के हिट एड रन केस का निर्णय आने के बाद, सलमान की चर्चा चारों ओर होने लगी। लेकिन इन चर्चाओं में उनकी आवाज़ कहीं खो गई, जो इस केस में जुड़े थे और बर्बाद हो गये। अक्‍सर ऐसा होता है किसी पहुंच वाले व्‍यक्ति के सामने एक आम आदमी की आवाज़ नक्‍कार ख़ाने की तूती की तरह दबा दी जाती है। खास कर ऐसे लोगों के सामने तन कर खड़े होने वाले लोगों की जिन्‍दगी दबंगों के जूते तले रौंद दी जाती है इसका ताजा उदाहरण है रवींद्र पाटिल।

मैं इस केस के मुख्‍य गवाह पुलिस कांस्‍टेबल रवींद्र पाटिल की बात कर रहां हूँ, जो उस समय सलमान खान का अंगरक्षक था और वारदात के दौरान उनके साथ कार में पीछे की सीट पर बैठा था। आपको बता दें कि सलमान पर आरोप है कि उन्होंने 2002 में अपनी कार एक दुकान से टकरा दी थी, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई थी और चार अन्य घायल हो गए थे. यह घटना 28 सिंतबर 2002 की है. सलमान खान को कोर्ट में अपना पक्ष रखने का मौका मिला. एक मजिस्ट्रेट द्वारा इस मामले में गैर इरादतन हत्या का आरोप जोड़े जाने के बाद सत्र अदालत में नए सिरे से सुनवाई हुई . इस मामले में फैसला आ चुका है और सलमान खान को दोषी करार दिया गया है। बता दें, इस मामले में सलमान खान पांच साल के जेल की सजा हुई है, जबकि 25 हजार जुर्माना लगाया गया है। लेकिन बाद में हाइ्रकोर्ट ने सलमान की सजा को रद्द करते हुए मामले की सुनवाई बढ़ा दी।

यह घटना 13 साल पुरानी है। बहरहाल, इस पूरे केस में 4 ऐसे चश्मदीद गवाह हैं, जिन्होंने समय-समय पर इस केस को मोड़ दिया है। ग़ौरतलब है की इस मुआमले में 4 चश्मदीद गवाह थे- पहले चश्मदीद- नौजवान रवींद्र पाटिल अभियोजन पक्ष के गवाह थे। दुर्घटना के बाद इन्होंने ही सलमान के खिलाफ ए‍फआईआर दर्ज कराई थी। उन्होंने सलमान पर शराब पीकर गाड़ी चलाने का आरोप लगाया था। रिपोर्ट के मुताबिक, वे दुर्घटना के समय सलमान के साथ गाड़ी में मौजूद थे। दूसरे चश्मदीद सलमान के अच्छे दोस्त कमाल खान गायक हैं। इस मामले में वे मुख्य गवाह रहे। दुर्घटना के वक्त वे सलमान के साथ गाड़ी में मौजूद थे। कमाल ने पुलिस को बयान दिया था कि गाड़ी सलमान ही चला रहे थे। तीसरे चश्मदीद- अशोक सिंह इस पूरे मामले में ये एक ऐसे चश्मदीद रहे, जो साल 2015 में सामने आये कोर्ट में उन्होंने बयान दिया था कि गाड़ी सलमान नहीं, वे चला रहे थे। बता दें, अशोक सिंह ने कहा था कि,'ड्राइविंग मैं कर रहा था और यह दुर्घटना टायर फट जाने की वजह से हुई।'चौथे चश्मदीद- रामआसरे पांडे इस केस में सबसे महत्वपूर्ण गवाह माने जा सकते थे, लेकिन ऐन वक्त पर ये मुकर गए। जब एक्सिंडेंट हुआ तो रामआसरे पांडे बेकरी के सामने सो रहे थे। इस मामले में पहले जहां रामआसरे ने कहा था कि सलमान ड्राइविंग सीट की ओर से बाहर आए थे। वहीं बाद में उन्होंने कहा कि उन्होंने सलमान को गाड़ी चलाते नहीं देखा।

यदि सलमान के गवाह अशोक सिंह को छोड़ दें तो बाकी गवाहों पर ब्‍यान बदलने का जबरदस्‍त दबाव था। खास कर पुलिस कांस्‍टेबल रवींद्र पाटिल पर दबाव इतना था कि खुद पुलिस विभाग ने उनका साथ छोड़ दिया। भारतीय न्‍याय व्‍यवस्‍था का काला सच देखिये कि जिस जेल में आरोपी सलमान खान को होना था, उस जेल में आवेदक रवींद्र पाटिल को बंद कर दिया गया। उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ा। बावजूद इसके पाटिल ने अपना बयान नहीं बदला जिसके बदले उसे कई परेशानियां, टॉर्चर और डिप्रेशन से गुजरना पड़ा। कुछ लोग बताते है कि पाटिल अपने अंतिम समय में मुबई रेल्‍वे स्‍टेशन में में भीख मांगा करते थे। दुर्घटना में महज पांच साल बाद 2007 में उनकी टीबी से मौत हो गई।

ये कई लोगों के लिए काफी शॉकिंग खबर थी कि जिस व्यक्ति ने कोर्ट में सलमान खान के खिलाफ गवाई दी थी, अब खुद उसी के खिलाफ पुलिस ने वारंट निकाल दिया है। कारण, वो कोर्ट की किसी भी सुनवाई में हाजिर नहीं रहा था। हालांकि दबी जुबान से ये भी कहा जा रहा है कि एक निडर आम आदमी बॉलीवुड के बड़े आदमी के विरोध में खड़े होते हैं तो अक्सर ऐसा ही होता है। और खासकर तब, तब बात सलमान खान की हो।

दरअसल भारतीय सफेद पोश का ये असली चेहरा है जहां एक ओर सलमान खान की ह्यूमन बीइंग एनजीओ की तारीफ करते मीडिया नहीं थकती, तो अनकी पाली हुई बहन को सर आंखों पर बैठाने उसकी शादी करवाने की खबरें मीडिया में दिन भर तैरती रहतीं। वहीं एक ओर दम तोड़ती निरीहों की जिन्‍दगी को क्‍या एक कलम का भी सहारा नसीब नहीं हो सका। दुर्घटना में जो हुआ सो हुआ। लेकिन पाटिल की मौत का जिम्‍मेदार आखिर कौन है, उसके आरोपियों को सजा कौन देखा। आज भारत में ऐसे रवींद्र पाटिलों की संख्‍या बहुत है जो न्‍यायालय से उम्‍मीद करने के भी काबिल नही रह गये है। आज ऐसे दबंगों की भी कमी नहीं है, जो गवाहों को कत्‍ल करने के बाद भी अपने को बे-दाग सिद्ध करने में तुले हुये हैं। बलात्‍कार के आरोपी संत आशाराम के कई गवाहों के कत्‍ल को इसी चश्‍मे से देखा जा सकता है। सारी व्‍यवस्‍था सच का दामन पकड़ने वालों की जिन्‍दगी के साथ खिलवाड़ करने से नहीं चूकती है। यदि रवींद्र के मुआमले में देखें तो खुद उसका पुलिस विभाग, न्‍याय विभाग और मीडिया ने न केवल बहिष्कार किया बल्कि मौत के अंजाम तक पहुंचाया। सारी व्‍यवस्‍था दबंग के साथ खड़ी दिखती है। कब ये दबंग इन न्‍यायधीशों की जान पर बन जाएंगे कहना कठिन नहीं है। अभी भी मौका है इस व्यवस्‍था को सुधारने का व्यवस्‍था के झंडाबरदार और मीडिया इसमें अपना महत्‍वपूर्ण रोल निभा सकती है। क्‍या रवींद्र जैसे हजारों लोगों की जिन्‍दगी बचाई जा सकती है।

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(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 12 फरवरी 1973 को बिलासपुर छत्तीसगढ़ में।
शिक्षा: एम.. एल.एल.बी.
सृजन: देश की लगभग सभी अग्रणी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं। सफाई कामगार समुदाय एवं आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग नामक दो पुस्तकें प्रकाशित। इनका मराठी, पंजाबी, एवं ओडिया सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
सम्मान: कई पुरस्‍कार एवं सम्मान
संप्रति: राजस्व विभाग में प्रभारी सहायक प्रोग्रामर बिलासपुर
संपर्क: sanjeevkhudshah@gmail.com )






मां का एक दिन नहीं होता, सदी होती है

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वसीम अकरम त्यागीकी क़लम से

रिश्तों पर भारी पड़ते बाजार ने हमें एक और झुनझुना थमा दिया है, मां दिवस। पैदा होने से लेकर मरने तक के हर एक रिश्ते को हम लोग बाजार में बदलते जा रहे हैं। फेसबुक पर अधिकतर दीवारें मां की ममता पर इन दिनों समर्पित हैं। मगर क्या मां के लिए कोई दिन मुकर्र कर देना जायज़ होगा ? क्या आज के दिन वह अपनी औलाद पर प्यार नहीं लुटाएगी कि क्योंकि आज तो उसका दिन है? इसलिए आज का सारा प्यार उसे ही मिलना चाहिये। क्या आज वह अपने बच्चों के लिये खाना नहीं बनाएगी ? मां के लिए कोई खास दिन मुकर्रर देने से क्या हम उसके अहसानों का बोझ उतार सकते हैं ? क्या हम उस दर्द को कम कर सकते हैं। जब दुनिया भर का दर्द और तकलीफ झेलने के बाद हम पैदा हुऐ थे और वह हमें रोता देखकर मुस्कुराई थी? पाश्चात्य संस्कृति की ओर बढ़ते कदमों ने भी उस देश में मां के लिए खास दिन मुकर्रर कर लिया, जिसमें नदियों से लेकर जमीन तक को मां की संज्ञा दी गई है।
इधर, हर शहर में बने वृद्धाश्रम में सिसकती हजारों मां और पिता हमारी तरफ मुंह चिढ़कर कह रहे हैं कि हम Happy Mother’s Day कहने का हक ही नहीं रखते। फिर भी लोग कह रहे हैं। जिस मां को उफ्फ तक नहीं कहना चाहिये था, उसे घरों से निकाल दिया जाता है। यह भी उसी देश की उन्हीं आंगनों की सच्चाई है, जिसमें चारों ओर हैप्पी मदर्स डे प्रचारित किया जा रहा है। सदियों तक न उतरने वाले कर्ज को हमने सिर्फ साल के एक दिन पर लाकर लाद दिया है कि आज मदर्स डे है। कैसी कड़वी सच्चाई है इस पंक्ति में:
लड़के जवान पांच थे मां को न रख सके
बूढ़ा हुआ शरीर तो घर से निकाल दिया

जाहिर है, सड़कों पर, रेलवे स्टेशनों, वृद्धाश्रमों, तीर्थ यात्रा पर आपको न जाने कितनी मां मिलेंगी। जिनकी आंखों में बुढ़ापा अपने पोती-पोतियों के साथ गुजारने के सपने जिंदा हैं। मदर्स डे पर मुझे और मेरी मां को भी उसी पाश्चात्य संस्कृति में रंग जाना चाहिये था, जिसमें भारत का विशेष वर्ग सराबोर है। मगर रोजाना की तरह अम्मी का फोन मुझे नींद से जगाने के लिये आया, उन्हें पता ही नहीं था कि आज उनका दिन है। गांव की हैं न भोली हैं। उन्होंने रोजाना की तरह वही ताकीद की। बेटा नाश्ता वक्त पर कर लेना और ऑफिस जाओ, तो बाइक आहिस्ता चलाना। मगर उन्हें क्या मालूम कि मैं इनमें से किसी एक भी बात बस तभी याद रखता हूं, जब फोन पर उनसे बात कर रहा होता हूं। बाद में या तो अनदेखी कर देता हूं या भूल जाता हूं। खैर मेरे कहने का आशय सिर्फ इतना है कि जो मां एक स्कूल और सच्ची मौहब्बत की जीती-जागती मिसाल है, उसके अहसानों को हम एक दिन निश्चित करके नहीं उतार सकते। क्योंकि हम सलामत रहें, उसे तो सिर्फ यही चाहिए। हजारों माएं ऐसी होंगी, जो इस शब्द हैप्पी मदर्स डे से वाक़िफ़ भी नहीं होंगी। फिर इस लफ़्ज़ के क्या मायने रह जाते हैं?
क्या यह लफ़्ज़ मदर्स डे उस पूंजीपति वर्ग का मध्यम वर्ग पर थोपा हुआ एक शिगूफा नहीं है, जिसे रिश्तों की समझ ही नहीं होती ? जिंदगी की भागदौड़ में बाजार को भी हमने रिश्तों पर हावी कर दिया ? हर जगह बाजार है। प्यार कहां है? रिश्ते कहां हैं ? मां दिवस पर मां चिल्लाने वाले हम लोगों को क्या हर रोज मां का ख्याल नहीं रखना चाहिए? उसकी सारी ममता को एक ही दिन में लाकर खड़ा कर देने से क्या हम उसकी अहमियत को कम नहीं कर रहे हैं ?

ऐसे तो उसकी मौहब्बत में कमी होती है
मां का एक दिन नहीं होता सदी होती है।

(रचनाकार-परिचय:
जन्म: उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक छोटे से गांव अमीनाबाद उर्फ बड़ा गांव में 12 अक्टूबर 1988 को ।
शिक्षा: माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता व संचार विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक और स्नताकोत्तर।
सृजन: समसामायिक और दलित मुस्लिम मुद्दों पर ढेरों रपट और लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
संप्रति: मुस्लिम टुडे में उपसंपादक/ रिपोर्टर
संपर्क: wasimakram323@gmail.com )



गिरीश पंकज को रामदास तिवारी सृजन सम्मान

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त्रिपुरारीशरण श्रीवास्तव व्यंग्यश्री
किरण तिवारी विद्याभारती 
वामा सम्मान से सम्मानित


आजादी के बाद के समय को जानने के लिए हरिशंकर परसाई से लेकर मौजूदा व्यंग्य लेखकों को पढ़ना चाहिए। तब जिस महान भारत की कल्पना महात्मा गांधी ने की थी, आज देश पतन की ओर है। बाजारवाद का दैत्य, तो भ्रष्टाचार का दानव सामने खड़ा है। महंगाई डायन बन चुकी है। ऐसी प्रतिकूल स्थितियों से प्रतिकार करने को व्यंग्य जैसी अस्त्र-विधा जरूरी है। यह बातें मशहूर व्यंग्यकार व लेखक गिरीश पंकज ने शनिवार को रांची में कहीं। वह होटल ली लैक में आयोजित लीलावती फाउंडेशन के दूसरे सृजन सम्मन समारोह में बोल रहे थे। मौके पर गिरीश पंकज (रायपुर)को रामदास तिवारी सृजन सम्मान से नवाजा गया। उन्हें पुरस्कार स्वरूप स्ृति चिन्ह, सम्मान पत्र व 25 हजार रुपए मानद राशि सौंपी गई। उन्हें यह सम्मान उनके समग्र साहित्यिक अवदान के लिए मिला है।


समारोह में त्रिपुरारीशरण श्रीवास्तव व्यंग्यश्री व किरण तिवारी विद्याभारती वामा सम्मान से सम्मानित की गईं। शशिकांत सिंह भी पुरस्कृत किए गए। सभी सम्मानित रचनाकारों को स्मृति चिन्ह, सम्मान पत्र व मानद राशि दी गई। स्वागत भाषण बालेंदुशेखर तिवारी ने दिया। संचालन संपदा पांडेय ने, जबकि अध्यक्षता दूरदर्शन के महानिदेशक शैलेश पंडित ने की। कार्यक्रम में अशोक प्रियदर्शी, विद्याभूषण, श्रवणकुमार गोस्वामी, माया प्रसाद, अशोक पागल, दिलीप तेतरवे, जंगहादुर पांडेय, कामेश्वर प्रसाद निरंकुश, ललन चतुर्वेदी, रामअवतार चेतन, प्रशांत गौरव, नरेश बंका, शिल्पी कुमारी, सुशील अंकन, यशोदरा राठौर व अरुण कुमार समेत ढेरों लेखक व संस्कृतिकर्मी मौजूद थे।


व्यंग्य का रीतिकाल: प्रेम जनमेजय


दिल्ली से आए वरिष्ठ व्यंग्य-लेखक प्रेम जनमेजय ने बतौर मुख्य अतिथि ने कहा कि व्यंग्य का इनदिनों रीतिकाल चल रहा है। लेखकों की नई पीढ़ी के समक्ष कई तरह की चुनौतियां हैं। मोबाइल व नेट के दौर में संवादहीनता की स्थित है। इससे आपसी रिश्तों पर गहरा असर पड़ा है। पूंजीवाद अपने लक्ष्य में सफल हुआ है कि व्यक्ति महज अपने बारे में सोचे। उन्होंने कहा कि जो रचना सवाल न करे, उसे वे नपुंसक रचना कहते हैं।












शिखर की खोज का लोकार्पण

मौके पर काव्य-संग्रह शिखर की खोज का लोकार्पण अतिथियों ने किया। इसका संपादन मधुसूदन साहा और डॉ. कृष्णकुमार प्रजापति ने किया है। पुस्तक का उपशीर्षक साधना के सप्तरथी भाग-2 है। इसमें नचिकेता, बालेंदुशेखर तिवारी, गिरीश पंकज, अनिल कुमार, कुलजीत सिंह, मधुसूदन साहा और कृष्णकुमार प्रजापति की रचनाएं संगृहीत हैं। क्लासिकल पब्लिशिंग, नईदिल्ली से प्रकाशित इस संग्रह की कीमत चार सौ रुपए है।


रांची भास्कर में 10 मई के अंक में प्रकाशित




मुबारक हो मंसूरा बेगम ने लड़का जना है !

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लंबी कहानी का पहला भाग










    धीरेन्द्र सिंह की क़लम से
     
एक रुकी हुई, लम्बी, चट्टानी, पतली पहाड़ी पर जिसकी टांगों के पंजों के नाखून, दूर तक फैली तवारीख़ की एक लाफ़ानी नदी में डूबे रहते.
नदी- जिसने बेशुमार बदबुओं को धोते वक़्त अपने नथुने सिकोड़े होंगे, जिसने बेशुमार नंगे बदनों को देखते वक़्त अपनी आँखें मूंदी होंगी.
नदी- ढेरों आलसी मगरमच्छ.
नदी- बेशुमार मछलियों वाली नदी, जिसमे वे छलांगे लगातीं और वापस डूब जातीं. एक गोलाकृति किसी बिंदु से शुरू होती और दीर्घ वृत्त पर ख़त्म.
नदी में डगमगाता क़िला जिसके नीले गुम्बदों को मछलियाँ उछल-उछलकर चूमा करतीं. नीली नक्काशियों वाला, सैकड़ों गुम्बदों वाला, किसी एकांतवास में विहप की पहाड़ियों की ईंटों से, मज़बूत पत्थरो से बना गेरू बालुकाश्य रंग का सात प्रवेश द्वारों वाला आठवीं सदी में बना ''किरमानियों''का क़िला. जिसकी क्षितिज तह तीन सौ सत्तर फ़ीट, चौड़ाई आठ सौ दस फ़ीट और कुल लम्बाई अढ़ाई किलोमीटर होगी.
(इस क़िले का त'अल्लुक़ मेरी कहानी से बस उतना है जितना की बढ़े हुए नाखूनों का असल नाखूनों से होता है. वक़्त आने पर जिन्हे काट के फेंक दिया जाता है.)
    ______________________________________________________

    कमरे से चीखने की आवाज़ें आयीं, रोशनियों का दख़ल हुआ, खिड़कियाँ सहम गयीं, दरवाजे बंद हुए, दीवारों से रंगों की एक महीन पर्त उतरकर ग़ायब हो गयी.
    नौकरानियों के आग्रह शुरू हुए 'बस मालकिन थोड़ा सा और जोर लगाइये, बस बस थोड़ा और, बस बस हो गया'
    मानो पौ फटने को थी. क्षितिज में होली का उत्सव मनाया जाने वाला था. सूरज बारूद के गोले की तरह आसमान में चढ़ने ही वाला था और फिर एक विस्फोट होने वाला था. किरणों का विस्फोट-- और वह हो गया, नाभि के रिश्ते के विस्फोट में चीथड़े उड़ गए. अब बस रह गया तो आत्मा का रिस्ता.
    दो अलग-अलग शरीर आजू-बाजू, एक का क़द दूसरे से दस गुना बड़ा. बेगम बिस्तर पर लम्बी साँसे लेते हुए ऐसे पड़ी थी जैसे उसे सैकड़ों टूटी हुई हड्डियों के दर्द से अभी-अभी राहत मिली हो. उसके होंठों पर मुस्कराहट ऐसे चस्पां थीं मानो सूरज की लालिमा ने आसमान में दो होंठ रेखांकित किये हों. फिर उसके क़द के दसवें हिस्से के बराबर नन्हे से शरीर के गले से उड़ती 'कुआओं- कुआओं'की आवाज़ें रोशनदानों से बहार निकलकर पंछियों की टांगों में बंधकर पूरे महल में घूम आयीं. उधर किरमानियों के इंतज़ार पर अब ताले पड़ गए.
    मुबारक हो मंसूरा बेगम ने लड़का जना है, रज़ा- उमराह ने ख़ुशी में एक छलांग मारी और हवा के सफ़र का एक 'लघुत्तम'हल किया. बाक़ी रही सही ख़ुशी पे उमराह ने अपने हाथों की दसों उंगलियां ख़ाली कर दीं. रज़ा की गोरी, लम्बी, चिकनी और हारों- मालाओं से भरी गर्दन हवा में तलवार की मार्फ़त उड़ रही थी. उसकी मुंडी, ढाल सरीखी तलवार पर उल्टी पड़ी थी. उसकी दोनों आँखें फैलकर काले टीकों वाले अण्डों में बदल गयीं. और ठहाकों वाले उसके दो मोटे होंठों ने पंछियों की टांगों से सारी आवाज़ें खोलकर उनमे ठहाके बाँध दिए. 'किरमानी पैलेस'की दीवारें 'ईको पॉइंट्स'में बदल गयीं. आवाज़ों ने लम्बे वक़्त तक आवाम में कैंचियां चलायीं। ना जाने कितने फूलों को टहनियों से उतार दिया गया. ना जाने कितने पेड़ रज़ा किरमानी की तरह छातियाँ फुलाकर आसमान को घूरने लगे.
    घड़ी पर एक वक़्त ऐसा आकर रुक गया जो इतिहास का दर्जा रखता था.
    जब रूमो आईने के सामने अपने हाथों को ढालों में फंसी तलवार की मार्फत चिपकाकर अपनी उंगलियां अपनी गर्दन में फेर रही थी, तो एक नन्हा सवाल उसके रक़्स करते होंठों पर तेज़ाब जैसा पड़ा. उसके कानो का मोम पिघलकर बाहर बह पड़ा. उसने बिलकुल ठीक से सुना 'अम्मू ये क्या लायी हो? आज तो आप रूमो नहीं बेग़म हुसैनी रूमो लग रही हैं'.
    श्श्श्श्श्श्श---- दोनों होंठों के बीच अपनी जीभ फसाकर सीने में भरी सारी हवा को पूरे दबाव से बाहर निकालते हुए उसने अपने सारे सुर सफ़ेद कर लिए (राग--- की तरह). किरमानियों को पोता पोता हुआ है. महल की रौशनी देखो-- हमारी परछाइयाँ क्या कभी इतनी लम्बी हुयी हैं? क्या तुमने अरसा भर से इतने मधुर संगीत सुने हैं? जैसे हर एक मुंडेर पर तानसेन बैठा हो. हुसैनी रूमो को बेग़म हुसैनी रुमो बनाने की वजह बस यही अदना सी ख़बर ही तो है. जब मैंने रज़ा-उमराह को ये बताया कि उनको नवासा हुआ है, तो मालूम है बेग़म ने अपनी सारी उंगलियां ख़ाली कर दीं और मेरी भर दीं. और नवाब साहब ने अपनी चिकनी गर्दन को नंगा कर दिया और मेरी गर्दन पे ये बोझ लटका दिया. सोचती हूँ इसे पहने रखूं लेकिन तौबा मेरी क्या मजाल जो मैं नवाब का दिया हुआ हार उन्हीं के सामने पहन के जाऊं. चलो नवाब रज़ा तो दिन में एक-आध दफ़ा ही मिलेंगे, लेकिन उमराह तो रसोई में पच्चीसों बार टकराएंगी. ख़ुदा ना करे कोई पकवान बिगड़ जाये या तरकारी में ज़रा सा नमक ही नीचे-ऊपर हो जाये, तो मुझे तो अपनी उँगलियों से ही जाना पड़ेगा..
    ना बाबा ना
    तो आप इन्हे पहनेंगी नहीं क्या? (रूमो के बेटे ने पूछा)
    कुछ कहना मुनासिब नहीं और ख़ौफ़ भी तो हैं वो भी तीन-तीन.
    ख़ौफ़ ? तीन-तीन? कैसे?
    देखो पहला- गर्दन काटने का
    दूसरा- उँगलियों से जाने का
    तीसरा- इसके चोरी होने का
    या ख़ुदा ऐसे तोहफ़े भी किस काम के किरमानियों के ये तोहफ़े बेच लें, तो अच्छा वरना वापस महल में जायेंगे. क्या फ़ायदा ऐसे तोहफों का-- हार गले में नहीं डाल सकते, अंगूठियां पहन नहीं सकते.
    तो क्या आप वाक़ई में इन्हें बेचने वाली हैं? (उसके बेटे ने फिर सवाल किया जो घुटने टेक कर सांप की तरह पिंडी बनाये एक स्टूल पर बैठा है. जिसके दोनों हाथ उसके होंठों के दायें-बाएं गालों पर थे. उँगलियों के दबाव वाली जगहों से मांस की पतली लकीरें उभार पर थीं. मानो गीली मिटटी में किसी ने अपने हाथ दबाये हों. माथे पे उतरे उसके रेशम जैसे बाल जिन पर एक गोल टोपी ऐसे बैठी थी, जैसे अमावस में कोई रहस्यमयी चाँद उग आया हो. उसकी सवालिया आँखें उसकी माँ को एकटक देखती रहीं और सोचती रहीं 'यह कितना अजीब है, गुलाबों को बोओ, उगाओ, उनकी खुशामद भी करो, लेकिन जब फूल आ जाएँ तो उन्हें महकने की इजाज़त ना दो').
    क्या अब्बू आपको ऐसा करने देंगे?
    वही तो मैं सोच रही हूँ.. मुझे क्या उनसे पूछना होगा ? क्या मुझे उनसे पूछना चाहिए?
    यह आपकी ज़िम्मेदारी है, आप ही सोचो मैं क्या कह सकता हूँ.
    रूमो ने अपने माथे पे बल डालते हुए उसपर तीन रेखाएं बना दीं और फिर अपने नितम्ब एक कुर्सी पर रख दिए. सलवार को घुटनों तक खींचा. उसकी गोरी चिट्टी टांगों पर उगे नाबालिग रोएँ ऐसे दिख रहे थे, जैसे 'बखिन्गम पैलेस'के मैदानों में उगी शाही घास हो. उसने कमर को आराम देते हुए सलवार का नाड़ा ढीला किया और दोनों हांथो को प्रार्थना की मुद्रा के विपरीत चिपकाकर फिर उंगलियां गिननी शुरू कर दीं.
    एक
    दो
    तीन
    चार
    पांच
    छह
    सात
    आठ
    नौ
    दस
    वापस हाथों को छातियों में ऐसे रखा जैसे ढाल के पीछे दो तलवारें. दस उँगलियों वाली तलवारें. और सारी उंगलियां गर्दन पे दौड़ने के लिए तैयार. हार के हीरों पे हुज्जत लगाने की होड़ में-- कौन सी ऊँगली किसे छुएगी ? कितने हीरे..? कितने मोती..? कितने नीलम..? और पुखराज कितने..? कितने का हार..? कितनी दौलत..? पूरे क़र्ज़ पर भारी पड़ने वाली दौलत.
    बादाम का तेल है क्या ? हो तो ला मेरे सिर में लगा दे, आह! बहुत दर्द हो रहा है. जैसे अभी कोई बिस्फोट होगा. या अल्लाह! ये कैसा तोहफ़ा है ? ये कैसी ख़ुशी है ? और ये दौलत कैसी ? और आखिर किस काम की ? तूने इस ख़बर के लिए मेरी ही ज़बान क्यों चुनी ? अब कौन इतने बोझ को लेकर सो सकेगा-- (रूमो अपने में ही बड़बड़ाते हुए) उसने अपने बालों को खोल दिया और कुर्सी के पीछे सिर टिकाया। फिर उस रोशनदान की तरफ देखने लगी जहां से पैलेस की रोशनियाँ अंदर आने की लड़ाइयां लड़ रही थीं. उसकी टाँगे फैलती हुई, पिंडलियों पर उतरती हुई उसकी सलवार। जैसे शाम हुई और अब घास के अदृश्य होने का वक़्त आया, बखिन्गम पैलेस के दरवाजे बंद. उसका बेटा भूरे चमचमाते कच्चे कद्दू (Pumpkin) की तरह, रूमो के ज़मीन पर रखे सपाट पैरों के पास लुढ़क जाता है. और एक सिक्का मुह में लील लेटा है. लार की धुलाई से पूरा सिक्का यूँ नया सा हो गया कि उस पर पड़ती शम्म'ओं की रोशनियाँ उसे कांच की सूरत दे रही थीं. सिक्के की परिधि पर अनेक छोटे-छोटे तारे रोशन हुए. रूमो ने उसके हाथ से सिक्का छुड़ाया और झल्लाते हुए बोली 'पागल है क्या? ये कोई चूसने की चीज़ है? हलक में चला जाता तो अभी लेने के देने पड़ जाते'.
    उसका बेटा अधखिले गुलाबों सी अपनी आँखों से रूमो को उसी मासूमियत से देखता है, (जैसे फलक पे लटका चाँद हमें देखता है जब हम उसे देखते हैं. जैसे वह कुछ जानता ही नहीं. जैसे उसे अपने ग़ायब होने का दुःख नहीं. उगने की ख़ुशी नहीं. जैसे वह जानता ही नहीं कि वो छोटे से बड़ा होता है और बड़े से फिर छोटा). अपने खीसें निपोरता है, उसके दांत बेतरतीब मगर एक घुमावदार क़तार में मसूड़ों पर ऐसे जड़े थे मानो समंदर किनारे बत्तीस नारियल के पेड़ एक घेरे में जिनमे से दो दायीं तरफ के, दो बायीं तरफ के लगभग अदृश्य ही थे (अक्ल के दांत, अभी अक्ल भी उतनी नहीं तो दांत भी उतने नहीं यानि पूरे दांत नहीं). उसके खुरदरे दांतों का रंग ऐसा था मानो सिलबट्टे में किसी ने अमचूर पीसकर उसे बिना साफ़ किये ही छोड़ दिया हो.
    रूमो उसके माथे को चूमती है और वो बिल्ली की तरह आँखें लपकता है.
    अम्मू अगर ये मेरे हलक़ में अटक जाता तो?
    अटका तो नहीं ना-- अगर अटक भी जाता तो घूंसे खाता और उगल देता. उससे भी ना होता तो हकीम साहब मुह में चिमटी डाल के खींच लेते तब भी नहीं तो तुझे सुबह पाखाने में अपना सिक्का ढूँढना पड़ता.
    फिर से खीसें निपोरता है-- अट्ठाइस दांत (अक्ल नहीं है) खुरदुरे.. ऐसे जैसे किसी ने सिलबट्टे में अमचूर पीस कर बिना साफ़ किये ही छोड़ दिया हो.
    आपके साथ कभी हुआ ऐसा?
    कैसा?
    आपके हलक़ में कुछ अटक गया हो फिर आपने घूंसे खाए हों या हकीम साहब ने चिमटी डाल के उसे निकाला हो या सुबह---------या--- या--- सुबह आपने भी पाख़ाने में---------? (उसका ठहाका गेंद की तरह पूरे कमरे में उछल गया). रूमो हँस पड़ी-- पूरे बत्तीस दांत (अक्ल वाले भी) सफ़ेद संगमरमर की तरह, चिकनी 'टाइलों'की तरह (जैसे दूध वाले दांत).
    मारूंगी तुझे (दुगने प्यार से बेटे के गालों को खींचते हुए).
    अम्मू.. बताओ ना?
    अभी तक तो नहीं अटका था. पर आज अटका है लेकिन हलक़ में नहीं, बाहर गर्दन पे-- 'ये हार'और मेरी तो उंगलियां भी गिरफ्तार कर ली गयीं हैं. अब ये भरी- भरी चमकदार उँगलियों से सिल में बट्टा तो रगड़ा नहीं जायेगा, ना ही ये हार पहना जायेगा मुझसे. हाय! देखो तो कितना भारी हार है. उफ़ ये नवाब का ही हार है? गुलु बंद हार, औरतों जैसा.. गर्दन से कितना चिपका हुआ है बिलकुल ऐसे जैसे किसी शैतान का पंजा.
    दरवाजे पर से सांकल के बजने की आवाज़ आती है (खट- खट, खट- खट, खट- खट, खट- खट).
    ओह! लगता है तेरे अब्बू आ गए----- आती हूँ (जोर की आवाज़ लगते हुए उठती है)
    ______________________
    (रचनाकार-परिचय:
    जन्म: १० जुलाई १९८७ को क़स्बा चंदला, जिला छतरपुर (मध्य प्रदेश) में
    शिक्षा: इंजीयरिंग की पढाई अधूरी
    सृजन: 'स्पंदन', कविता-संग्रह और अमेरिका के एक प्रकाशन 'पब्लिश अमेरिका'से प्रकाशित उपन्यास 'वुंडेड मुंबई'जो काफी चर्चित हुआ।
    शीघ्र प्रकाश्य: कविता-संग्रह 'रूहानी'और अंग्रेजी में उपन्यास 'नीडलेस नाइट्स'
    संप्रति: प्रबंध निदेशक, इन्वेलप ग्रुप
    संपर्क: renaissance.akkii@gmail.com, यहाँभी )





हरेक ओर यहाँ दहशतों का मंज़र है

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नई पौध के तहत 9 रचनाएं










आदित्यभूषणमिश्र की क़लम से


कविता


आदत

तेरेप्रोफाइलपर
मैंरोज़जाताहूँ
कईदफ़े
येआदतहै

औरयेसोचताहूँ
कुछतोहोगा
जोबताएगामुझे
किहाँमुझेसोचागयाहै
जैसे
वोसखियाँ
बतातीथींतुम्हारी
जबनहींथा
फोन, इन्टरनेट

याकोई
प्यारकामैसेज
मेरेइनबॉक्समेंहोगा
किजैसेख़त
कबूतरलाकेकोई
छोड़जाताथा
छतपर

मगरयेसबनहींहोता
बहुतनाराज़होशायद

मगरहाँ
लफ्ज़गीतोंकेकई
याऔरस्टेटस
तोहोतेहैं
जोलगतेहैंकि
शायद
कहरहेहोंमेरेबारेमें
वोजैसे
साथसखियोंके
तुमउनजगहोंपेजातीथी
जहांपरबातकरतेथे
कभीहमबैठकरजानां
औरमैंमानलेताथा
कहींमैंहूँ
अभीभीदिलोज़ेहनमें
मुझेभूलीनहींहोतुम
मैंअबभीमानलेताहूँ

मगरवोफेसजो
हरबुककेपन्नोंपरतुम्हारे
रक्सकरताथा
नहींहैअबतुम्हारे
फेसबुकपरभी

मैंफिरभी
रोज़जाताहूँ
तेरेप्रोफाइलपरजानां


क़िस्मत

कलतक
अपनी-अपनीखूंटियोंपे
टंगेहुए
हमने
आजइक-दूसरेको
पहना
औरउतारकर
फिरटांगदिया
इक-दूसरेकीखूंटियोंपर
टंगेरहनेकेलिये
सदियोंतक

शायदटंगेरहनाहीहमारीक़िस्मतहै

गुलज़ारसे

चाँदचुराकरतुम्हारीनज़्मोंसे
खेलाकियाहैकईबार
छतपेअकेले
साथरखकरलेटजाताहूँ,
कभीयूँभीउछालाहै
उसेनाराज़गीमेंफिर
चलाजाताहैवो
दूरबहुतदूर
जिसेफिरढूंढताहूँ
किसीकनवासपे
तुम्हारे
कभीरोटीकीशकलमें
कभीखिड़कीपेतुम्हारे
तोकभीस्विमिंगपूल
मेंतैरतामिलताहैवो

फिरकोईअटकाहुआमिसरा
कोईउलझीहुईसीनज़्म
कोईखम्भापुरानासा
हलकीरौशनीटेके
तुम्हारीनज़्ममेंसबकुछतोमिलताहै

दुःखवोमुल्ककेतकसीम
होनेका
हल्ला-सादोंका
सभीदेखाहैतेरीइनबूढीआँखोंने
बयांकरताहैवोफ़्फ़ाफ़लफ़्ज़ोंमें

मोहब्ब्बतकीतेरीनज्में
फुरककेतेरेअलफ़ाज़
जबभीमैंपढताहूँ,
सांसें चलती हैं


तुम्हारीहरकिताबोंको
पढ़ाहै
औरपढताहूँकभी
घुटनोंकोरहलकीसूरतबनाकर
कभीछातीपेरखकरलेटजाताहूँ

लिखतेरहेंगेलोगनज़्में
तुम्हारेबादभीयूँही
मगरइसमेंजोमिलतीहै
वोइकरूहानियत
वोकहाँहोगी
वोफिरनहींहोगी

नज़्मऔरशायर

अरसाबीतचुकाहै
जबलिक्खीथीनाज़ुकनज़्मकोई
याइठलातामिसराहीइक
मेरीलमोने
औरर्जहुआकरताथा
यूँकागज़परजैसे
बच्चाकोईशानसेट्रॉफीघरलाताहै

परअबजानेरूठेहैंसब
कईनज़्मकेटुकड़े
यामिसरेग़ज़लोंके
गुज़रतोजातेहैंबगलोंसे
परवोबातनहींकरतेहैं
याफिरऐसाभीहोताहै
अलग-अलगबिखरेरहतेहैं
औरख़यालसेटकराकरफिर
छूमंतरसेहोजातेहैं
याफिरदूरखड़ेहोकरतकतेरहतेहैं
इसबेहिस, बेबसशायरको

कुछनज़मेंआयींथीमिलने
सबकीसबबेशक्लमगरथीं
कोईतोबे-पैराहनथीं
अल्फ़ाज़काइकटुकड़ाभीगोया
तनपेउसकेकहींनहींथा
किसीकिसीकीरूहहीगायब
बेखयाल, बेमानीसेसब

इकमिसराआयाऔरबोला
शक्लतुम्हीबख्शाकरतेथे
साथमेंरखलफ्ज़--ख़यालको
इकशयमेंढालाकरतेथे
हमतोजैसेथेवैसेहैं
तुमकमज़ोरपड़ेहोशायर
फिरसेखुदकेअंदरझांको
तुमबेनूरपड़ेहोशायर

बड़ीहिक़ारतसेउसनेमुझकोदेखाथा
औरमैंबसखामोशनहींकुछबोलसकाथा


शायद

कलरात
मेट्रोस्टेशनके
रौशनखम्भोंपर
फिर
पतंगोंकोरौशनीकेतअक़्कुबमेंदेखा

जानेक्यूँ
सालों-सालसे
उन्हेंपानेकीचाहत
जातीनहींइनकी

यादहैएकरोज़
मैंनेकहाथाकि
कितनाभरोसाहैइन्हेंखुदपर
कितनीमोहब्बतहैरौशनीसे
तोतुमने
कहाथा, डांटकरमुझसे
"प्रैक्टिकल"बनो,
इसेभरोसानहीं, बेवकूफीकहतेहैं
हासिलक्याहोगा
जलकेमरजाएंगेसोअलग

तुमसहीथी
मैंभीतोरोज़मरताहूँ
परभरोसानहींजाता
मैंभीबेवकूफहूँ

शायद




ग़ज़ल

 
1.

हमतोलहरोंपेबहकरइधरगए
हमकोजानाकहाँथाकिधरगए

खुदकोखुदसेछिपाकररखाथाबहुत
आईनेमेंमगरहमनज़रगए

उसनेअपनीसमदेकेरुखसतकिया
अश्कसंभलेनहींहममगरगए

हक़ीमेंगएजोमुझेछोड़कर
ख्वाबमेंदेखोवोलौटकरगए

ईदतबहीमनेगीमेरीखुदा
सामनेदीदकोवोअगरगए

गाँवरोतारहारुखसतीपेतोक्या
छोड़आयेउसेहमनगरगए


2.

आजमझसेजुदाहुईदुनिया
जानेअबकिसकेघरगईदुनिया

थाजहाँसेशुरूकियाहमने
हाँवहीँख़त्महोगईदुनिया

तुमकोदेखातोयूँलगाजैसे
आजभीहैकहींबचीदुनिया

शबेहिज़्राँपेऔरक्याकरता
हमनेआपसमेंबाँटलीदुनिया

मेरेहिस्सेमेंकुछतेरीआई
तेरेहिस्सेमेंकुछमेरीदुनिया

 
3.

मेरेख़यालमेंआओकिकोईनज़्मबुने
यूँमेरेख्व़ाबजगाओकिकोईनज़्मबुने

ठिठुरकेइकग़रीबफिरसुपुर्देख़ाकहुआ
चलोअलावजलाओकिकोईनज़्मबुने

अबतोखूनकीहोलीबहुतमनालीहै
दीवाली, ईदमनाओकिकोईनज़्मबुने

बढ़ीहैभीड़सहराहुआशह्रअपना
इसेगुलज़ारबनाओकिकोईनज़्मबुने

हरेकओरयहाँदहशतोंकामंज़रहै
येजहाँफिरसेबनाओकिकोईनज़्मबुने

अबतोऊबचूकाहैजहाँसेदिलअपना
कोईतोप्यारजताओकिकोईनज़्मबुनें।


4.
इसओरअबबहारआतीनहींतोक्या
रंगीनियतजोमुझकोलुभातीनहींतोक्या

भूलनाउसकोकोईफ़ौतसेकमहै
आतीहैमौतपरइधरआतीनहींतोक्या

जिसकोजानाचाहिएथावोचलागया
टीसउसकेजानेकीजातीनहींतोक्या

हमज़िंदगीसेहीकोईदिनखेललेंगेऔर
शतरंजकीबाज़ीहमेंआतीनहींतोक्या

दर्दोज़फ़ाकेसाथमुसलसलचलाहूँमैं
क्योंकरयेज़िंदगीभीबतातीनहींतोक्या


(रचनाकार-परिचय :
जन्म: 18 जुलाई 1989 को दरभंगा(बिहार) में
शिक्षा: बीए एलएलबी
ृजन: पहली बार कहीं रचनाएं
संप्रति: स्वतंत्रलेखन
संपर्क: adityabhushan54@gmail.com )






धर्मांतरण बनाम घर वापसी

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चित भी उनका, पट भी उनकी











पंकज सावकी क़लम से

आगरा में हुई कथित 'घर वापसी'की खबर मीडिया के लिए भले बासी हो चुकी है। लेकिन उसके अर्थ व भाव भारतीय लोक चेतना को रह-रहकर उद्वेलित करते रहेंगे। क्योंकि इस घटना को स्वाभाविक मान लेना बौद्धिक भोलेपन के सिवा कुछ नहीं है। कुछ घटनाओं की कड़ियां जोड़ने पर यह बात साफ हो जाती है कि इसे हवा देने में उन्हीं तत्वों का हाथ है, जो चाहते हैं कि किसी न किसी तरह धर्मांतरण के खिलाफ कानून बन जाए ताकि उनका 'हिन्दू राष्ट्र का सपना'साकार हो सके। पिछली सरकारों की दूरदर्शिता अथवा हिन्दुत्ववादी ताकतों के सत्ता पर उतनी मजबूत पकड़ (जो अब है) से दूर होने के कारण इस तरह का कानून बनाना अब तक संभव नहीं हो सका था।

आठ दिसंबर को आगरा के 57 गरीब मुसलमानों ने हिन्दू धर्म अपना लिया। यह धर्मांतरण की घटना थी, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और अन्य हिन्दूवादी संगठन घर वापसी कहते हैं। आरएसएस के ही एक विंग धर्म जागरण समिति की इसमें मुख्य भूमिका थी। यह समिति देश के बहुत से हिस्सों में अन्य धर्मों के लोगों को हिन्दू बनाने का काम कई सालों से कर रही है, पर गोपनीय तरीके से। लेकिन, इस बार इसी समिति के एक नेता ने आगरा की घटना के बाद घोषणा कर दी कि क्रिसमस के दिन पांच हजार ईसाइयों को हिन्दू बनाया जाएगा। केंद्र ने राज्य सरकार के पाले में गेंद डालते हुए खुद को मामले से दूर कर लिया, मगर बयानबाजी जारी रही।

पिछले वर्ष मई में देश में मोदी सरकार बनने के सात महीने के अंदर आगरा में ऐसा हुआ और संसद से सड़क तक बहस छिड़ गई। इसमें मीडिया की भूमिका अहम रही। संसद में भाजपा नेताओं की ओर से धर्मांतरण रोकने के लिए कानून बनाने की वकालत के पीछे उनके मातृ संगठन की ही बरसों पुरानी मांग है। संसद के बाद देश भर में योगी आदित्यनाथ, राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू, अमित शाह के बयान यह साबित करने के लिए काफी हैं कि धर्मांतरण को चर्चा में लाने में वे सफल हो गए हैं। मिला-जुलाकर उनकी बातों का यही मतलब बना कि या तो घर वापसी (जो वास्तव में धर्मांतरण ही है) का विरोध बंद कर दिया जाए या फिर धर्मांतरण के खिलाफ कानून बना दिया जाए। आरएसएस-भाजपा के लिए ये दोनों ही स्थितियों में 'चित भी उनका है और पट भी उनकी'

आरएसएस शुरू से धर्मांतरण का विरोधी रहा है। इसके खिलाफ कानून बनाने की उसकी मांग पुरानी है। कानून बनवाने में सक्षम नहीं होने पर हिन्दुओं की घटती आबादी का ढिंढोरा पीटते हुए उसने आदिवासियों के बीच ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों का जवाब देने के लिए वनवासी आश्रम, वन बंधु परिषद, एकल विद्यालय जैसे कई प्रोजेक्ट शुरू किए। लेकिन मिशनरियों की सेवा भावना, आधुनिक सोच, संसाधनों की ताकत के आगे उनकी कोशिशें बौनी ही रहीं। झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, पूर्वोत्तर के राज्यों समेत देश के बड़े इलाके में आधुनिक स्कूलों, हॉस्पिटल्स, रोजगार प्रशिक्षण केंद्रों के फैले जाल ने मिशनरियों को जो ताकत दी है, उसका सत्ता की बदौलत संघ मुकाबला करना चाहता है। उसके इस मिशन में भाजपा बहुत चालाकी से साथ देती दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री ने 'झुंझलाहट'में पद छोड़ने की जो चेतावनी दी थी, उसमें सच्चाई खोजना हमारी भूल होगी। धर्मांतरण की चर्चा का एक और फायदा सरकार को और हुआ है कि जनता और मीडिया का ध्यान उन जमीनी मुद्दों से भटका, जिन पर नई सरकार कुछ उल्लेखनीय कर पाने में नाकाम रही है।

(लेखक-परिचय :
जन्म: 8 अक्टूबर 1986 को हज़ारीबाग (झारखंड) में
शिक्षा: संत कोलंबा कॉलेज, हजारीबाग से कला स्नातक तथा माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि, भोपाल से MA in Mass Communication
सृजन: छिटपुट यत्र-तत्र लेख, रपट प्रकाशित
2011 से पत्रकारिता की शुरुआत
संप्रति: रायपुर में दैनिक भास्कर डॉट कॉम से संबद्ध
संपर्क: pankajsaw86@gmail.com )



दबंग से अम्मा तक का सफ़र

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दो अदालती फ़ैसले और कुछ शंकाएं

भवप्रीतानंदकी क़लम से
जेल में बैठे संजय दत्त सोच रहे होंगे कि वह चूक गए। जयललिता और सलमान खान के मामले में हाईकोर्ट ने दशकों पुराने मामले में जैसी जल्दबाजी दिखाई, वैसी परिस्थितयों को पैदा करने में शायद संजय दत्त के वकीलों से चूक हो गई। वह जज को आरोपियों की शोहरत और अकूत धन के आभामंडल में हिप्नोटाइज करने में सफल नहीं हो सके। कर्नाटक हाईकोर्ट के जज न्यायमूर्ति सीआर कुमार स्वामी ने जयललिता के आय से अधिक संपत्ति के मामले में 11 मई को मात्र दस सेकंड में फैसला सुना दिया। उन्हें क्षणभर में दूध का धुला बताकर भ्रष्टाचार मुक्त बता दिया। यह केस 19 साल पुराना था। वैसे, हमारे यहां के न्यायालयों में न्याय पाने में व्यक्ति के जवान से बूढ़े हो जाने की कहानी आम है।
एक सामान्य इंसान की तरह सोचें तो हमारे तर्कों को भोथरा करने में माननीय वकीलों को मिनट भी नहीं लगेगा। पर सलमान खान, जयललिता आदि नेम-फेम वाले लोगों को जब उनके पक्ष में फैसला जाता दीखता है, तो एक क्षण के लिए बंबइया मूवी की वह पंक्ति, जिसे कई फ़िल्मों में बार-बार दुहराया गया है, कहने का मन करता है:
न्याय बिका हुआ है। न्यायाधीश बिके हुए हैं। जिस न्याय को पाने के लिए आम आदमी के जूते घिस जाते हैं, उसको बड़े लोग सेकंडों-मिनटों में प्राप्त कर लेते हैं। जबकि वह केस दशकों पुराना है। दशकों से जुटाए सबूत-गवाह क्षण भर में खारिज कर दिए जाते हैं। एक वकील की बात याद आती है जिसने कहा था कि कोर्ट में प्रस्तुत सैकड़ों पन्ने की बात जज के पास जाकर एक लाइन की हो जाती है। बात दमदार थी। न्याय के कटघरे में यही होता है। पर जज उस एक लाइन में ईमानदारी से डोल जाएं तो!

जयललिता राजनीति से पहले तमिल फ़िल्मों की जानी-मानी हिरोइन थीं। जाहिर के उनके पास धन की कमी नहीं होगी। उनके पास भौतिक वस्तुओं की भी कमी नहीं होगी। सैकड़ों जोड़ी कपड़े, सेंडल होना सामान्य बात होनी चाहिए। इसलिए जब वह राजनीति में आई और नब्बे के दशक के शुरू में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बनने का बहुमत मिला, तो उन्होंने दरियादिली दिखाते हुए मात्र एक रुपए, मतलब टोकन मनी सेलरी लेने की घोषणा की थी। वाकई यह आम लोगों के दिलों में जगह बनाने वाला स्टेप था। पर सत्ता के पांच सालों में जयललिता के पास 66 करोड़ रुपए कैसे आ गए। 1996 में उनके घर में छापा पड़ा। 28 किलो सोना, 896 किलो चांदी के अलावा हजारों की संख्या में साड़ियां, सैकड़ों की संख्या में जूते बरामद किए गए।
एक पूर्व जानीमानी तमिल फ़िल्मों में काम करने वाली हिरोइन के घर से यह सबकुछ बरामद होता, तो आम आदमी यह सोचकर मानसिक रूप से अपने को मना लेता। चलो हिरोइन के घर से यह सबकुछ निकलना कोई बहुत मायने नहीं रखता है। पर राजनीति के आने के बाद मात्र पांच वर्षों में इतनी बड़ी मात्रा में गहनों का निकलना कई शंकाओं को तो जन्म देता ही था। बहुत संभव है कि उन्हें पांच वर्षों के मुख्यमंत्रित्व काल में यह सब बतौर गिफ्ट मिला होगा। चूंकि वह पूर्व हिरोइन थीं तो गिफ्ट देने वाले सोने-चांदी का नेग चढ़ाने के बाद ही बात आगे बढ़ाते होंगे। और वही सब जमा होते-होते इतना जमा हो गया होगा। जयललिता के व्यक्तित्व को देखकर इस निष्कर्ष पर आसानी से पहुंचा जा सकता है। पर तर्क की कसौटी तो यही कहना चाह रही है कि यहां एक रुपए सेलरी लेने वाली सादगी कहां चली गई थी!
अभियोग लगाने वाले पक्ष का कहना था कि उन्हें हाईकोर्ट में अपनी बात रखने का पूरा मौका नहीं दिया गया। याचिकाकर्ता सुब्रमण्यम स्वामी हाईकोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकते हैं। पर निचली अदालत ने उनपर दस साल चुनाव नहीं लड़ने का भी फैसला सुनाया था। अब हाईकोर्ट के फैसले आने के बाद जयललिता चुनाव लड़ सकती हैं। दस महीने बाद तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव है। जयललिता के भक्त और मुख्यमंत्री पन्नीरसेलवम कुर्सी पर जयलिलता की चरण पादुका रखकर, एक-एक बात पूछकर सत्ता चला रहे थे। वह भी मनो-टनों विनम्रता और भक्ति के साथ जयललिता को उसी कुर्सी पर सत्ता सौंपेंगे जो उनके जाने के बाद से ही सुरक्षित रखी हुई है।
संवेदना और भक्ति के क्रूर बैर रखने वाले इस युग में जयललिता के भक्तों को नाचते और पूजा करते देखते यह प्रश्न कौंधता रहता है कि क्या यह इसी युग के कार्यकर्ता हैं या फिर सत्ता में बने रहने के लिए जयललिता ही उनके तुरुप का पत्ता हैं।
ठेठ बंबइया फिल्म के हीरो सलमान खान पर भी हाईकोर्ट ने जिस तेजी से फैसला सुनाया वह कॉमन मैन के गले नहीं पच पाया। उनपर भारतीय दंड संहिता के तहत जो धाराएं लगीं थी, पक्का विश्वास है अगर वह सलमान खान नहीं होकर कोई सामान्य अपराधी रहता, तो जेल के भीतर होता। सोशल मीडिया पर चली एक बात पर यहां गौर करना समीचीन होगा। इसमें कहा गया है कि निचली अदालतों का आईक्यू लेवल इतना ही कम है जो उनका फैसला रद्द ही होना है तो उन्हें बंद ही क्यों नहीं कर दिया जाता है। वाकई वर्षों से जुटाए सबूतों और गवाहों को सुनने और मगजमारी करने के बाद जो फैसले यह निचली अदालतें देती हैं उनकी औकात ऊपर की अदालतें चंद सेकंड में बता देती हैं।
हम सलमान के मामले को थोड़ा भावनात्मक रूप से भी सोचने को विवश हैं। वह सेलिब्रेटी हैं। शराब पीकर गाड़ी चला रहे हैं। फुटपाथ पर दीनहीन-घर विहीन लोगों को कुचलते हुए निकल गए। जब उन्हें अपराध का भान हुआ, तो घायलों को अस्पताल पहुंचाने की बजाय अपने घर में दुबक गए। निचली अदालत को एक सारगर्भित प्रश्न यह भी पूछना था कि अगर सलमान खान निर्दोष थे, वह कार नहीं चला रहे थे तो दुर्घटना के बाद वह भागे क्यों। क्या उनमें इतनी भी संवेदना नहीं थी कि उनकी कार से एक्सीडेंट हो गया है और और वह घायलों की खोज-खबर लेने की बजाय भागकर अपने घर जाना उचित समझा। बाद में जब उन्होंने मृतकों और घायलों की सहायता भी की तो व इतनी कम थी वह इलाज में ही चुक गई। एक्सीडेंट में अधिकांश अपंग हुए लोग किसी काम के नहीं रह गए हैं। उनके लिए इतनी तो व्यवस्था वह कर ही सकते हैं जिससे कि जिंदगी कट सके। बाद में कोर्ट को मानवीय कार्यों में लगे रहने का हवाला देना मात्र दिखावा ही है। वह हंसने के तर्क के अलावा कुछ और सोचने को विवश नहीं करता है। कहते हैं, ईश्वर-अल्लाह के घर देर है, अंधेर नहीं। पर प्रश्न यह भी है कि जब वही नियामक हैं तो यह अदालत किस लिए!

(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा: पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन: देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति : दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क: anandbhavpreet@gmail.com )


बंद कब होगा चश्मे से देखना आतंकवाद

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फ़राह शकेब की क़लम से
विकरालरूपधारणकरसमस्तविश्वकेलिएआतंकवादनिश्चितही चुनौतीबनचुकाहैदेश,समुदाय,जाति,धर्मइत्यादिसेहटकरइसकीनिंदाकीजानीचाहिएयह इस्लाम के नाम पर हो या हिंदुत्व के नाम पर। जिहाद हो या क्रूसेड। इसका समूल नष्ट होना जरूरी है। लेकिनआतंकवादकेनामपरएकसमुदायविशेषकेविरुद्धवातावरणतैयारकरनेकी साजिश का भी उतना ही विरोध भी होना चाहिए।
भारतीय संदर्भ में देखें, तो इसमेंडिया,पुलिसऔरराजनेताओंकीभूमिकासंदिग्धरही है। भारतमेंविगतकईवर्षोंसेलगातारदेशकेविभिन्नराज्योंकीपुलिसकेद्वाराआतंकवादकेनामपरपहलेसेनिर्धारितTargetted Goal केसाथएकसमुदायविशेषपरक्रैकडाउनकासिलसिलाचलरहाहैबार-बारअदालतकेसामनेमुंहकीखानेकेबादभीइसरवैय्येमेंकोईब्दीलीदिखाईनहींदेतीजिन-जिनयुवाओंकोकुख्यातआतंकीबताकरफ़िल्मीकहानीकीस्क्रिप्टकेसाथगिरफ्तारकरवर्दीपरसितारोंकीगिनतीबढ़ाईगयीपुस्कारजीतेगएवोसबआजएक-एककरअदालतकेसामनेनिर्दोषसाबितहोरहेहैंजिसेआधारबनाकरउनयुवकोंकोजेलकीचहारदीवारीमेंक़ैदरखाजाताहै,वो, सुरक्षाएजेंसियोंऔरपुलिसकीबनाईहुईकहानियांअदालतोंकीचहारदीवारीमेंदमतोड़तीजारहीहैंएकसालकेअंदर-अंदरकईधमाकोंकेआरोपीअदालतोंमेंनिर्दोषसाबितहुएऔरअदालतोंनेयेस्वीकारकियाहैकेउनकेसाथअन्यायहुआउनयुवाओंकीपूरीज़िन्दगीकई-कईसालतकजेलमेंरखकरतबाहकरदेनेवालीसुरक्षाएजेंसियांअपनेकुकर्मोंपरसिर्फ "गलतीहुईकाकवचचढ़ाकरफिरदूसरेशिकारकीतलाशमेंलगजातीहैं। इसे सियासी शब्दावली में प्रेशर पॉलिटिक्स कहा जाता है। दिल्लीपुलिसकेद्वाराअंसलप्लाजाएन्कोउन्टर, बटलाहाउसइंकॉउंटरघटितहोनेकेपहलेंटेसेहीसंदिग्धऔरफ़र्ज़ीहोनेकी चुगलीकरतारहाहैलियाक़तशाहकीगोरखपुरसेगिरफ्तारीऔररेस्टहोउसमेंहथियारज़ब्तीकीमनोरंजककहानीऔंधेमुंहगिरचुकीहैलियाक़तकोएनआईएद्वाराक्लीनचिटदेतेहुएदिल्लीपुलिसकोठघरेमेंखड़ाकियाजाचुकाहैइसजैसेकईकेसेज़मेंदिल्लीपुलिसबार-बारबैकफुटपरचुकीहैलेकिनपुलिसमोरलडाउनहोगाजैसेजुमलेकीआड़मेंइनकेकुकर्मोंकोछुपातेसत्ताधारीऔरविपक्षसबएकजुटहोजाते हैं।यहीएकजुटताऔरखादीकासंरक्षणख़ाकीकोएकधर्मविशेषएकसमुदायविशेषपरदेशकीआंतरिकसुरक्षाकीआड़मेंअत्याचारकरनेकोप्रोत्साहितकररहाहै

एकमईकोविभिन्नबमधमाकोंकेआरोपमेंकईवर्षोंतकजेलकीसलाखोंकेपीछेअपनीअँधेरीहोचुकीज़िन्दगीकाबोझउठाते17 नौजवानदेशकीअदालतमेंनिष्कलंकऔरनिर्दोषसाबितहुएऔरठीक11 दिनबाददिल्लीपुलिसकीस्पेशलसेलकेद्वाराएकबारफिर""इंडियनमुजाहिदीनकाइरफ़ान""नामकफ़िल्मरिलीज़कीगयीइसकीपटकथालिखनेवालेनेगिरफ्तारीकेलिएउत्तरप्रदेशकेबहराइचकोचुनाऔरअपराधकेनामपर1993 मेंहोनेवालेकईबमधमाकोंकेआरोपकाझूमरउसकेमाथेपरलगाकरअपनीवर्दीपरसितारोंकेशृंगारकाप्रयासकियागयाहैजिसतरह2002 केबादहोनेवालेतमामबमधमाकोकोपुलिसऔरएजेंसियोंद्वारामुस्लिमयुवकोंकोआरोपीबनानेकीमुहिमेंबलदेनेकेलिएगोधराऔरगुजरातकाप्रतिशोधजैसाकवचचढ़ायाजातारहाहै,उसीतरहइरफ़ानअहमदको1993 मेंहोनेवालेबमधमाकेकाआरोपीबतातेहुएइसेबाबरीविद्ध्वंसकाप्रतिशोधबतातेहुएकहानीमेंथोड़ाथ्रिलपैदाकरनेकीकोशिशकीगयीहैबाक़ीपूरीकहानीउसीघिसे-पिटेपुरानेपैटर्नपरहै
अगरआप12 मई2015, दिल्लीसेप्रकाशितदैनिकहिन्दुस्तानकेपृष्ठ3 कोबांचनेकाकष्टकरें,तोआपकुछभीनयानहींपाएंगेहोसकताहै,कुछसमयबादइरफ़ानभीनिर्दोषसाबितहोजाएअगरवोदोषीहै,तोउसेअदालतमेंकड़ी से कड़ी सज़ामिलनीचाहिएलेकिनअदालतमेंपेशीसेपहलेजिसतरहहिंदीडियानेसुरक्षाअधिकारियोंकेद्वाराउपलब्धकरवाईगयीजानकारीकोईश्वरीयआकाशवाणीसमझतेहुएगिरफ्तारयुवककोपरंपरागततरीकेसेकुख्यातआतंकीघोषितकरदियाहैक्यायेन्यायसंगतकेवलइसलिएमानलियाजाएयेमामलाकिसीइरफ़ानकाहैक्याडियाहॉउसेज़कीवातानुकूलितकेबिनोंमेंबैठेभ्रष्टकॉर्पोरेटकेवेतनभोगीकर्मचारीदेशकीअदालतोंसेभीसर्वपरिहैं,जोकिसीदानिशयाजावेदकीगिरफ्तारीपरउसेकेवलपूर्वाग्रहकेआधारपरमुल्ज़िमसेमुजरिमबनादेनेकेलिएस्वतंत्रहैं
विगतआठवर्षोंमेंआजतककोईहिंदीतोक्याउर्दूअखबारऐसानहींमिला,जिसनेसाध्वीप्रज्ञापुरोहितपांडेअसीमानंदकोअभिनवभारतकाकुख्यातआतंकवादीलिखाहोक्योंकियहांमालेगाधमाकोंकेआरोपीशब्दकाइस्तेमालहोताहै। सवाल क्या मौजूं नहीं कि यहीमापदंडकिसीइरफ़ानया किसीदानिशकेसाथक्योंनहींइसदेशमेंनियम-नीतियांसबकेलिएसमानहैंयाजाति,, समुदायऔरधर्मकेआधारपरउनमेफेरबदलकियाजासकताहै???? मुस्लिमहै,तोआतंकवादीकहोआदिवासीहै,तोनक्सलीकहोईसाईहै,तोमिशनचलाकरर्मांतरणकरवानेवालेकहोसिखहै,तोखालिस्तानीअलगाववादीकहोऔरदेशभक्त....... केवल....
सिस्टमऔरइसतंत्रकीजवाबदेहीजनताकेप्रतिकबप्रायोगिकतौरपरतयकीजायेगी??? चोटीतकभ्रष्टाचारदलालीऔरपूंजीवादियोंकीगुलामीमेंआकंठतकडूबाभ्रष्टसामंतीडियाकबअपनेनैतिकदायित्वोंकेसाथन्यायकरेगा..??? जनताकेरक्षककबतकइसदेशमेंजनभक्षककिभूमिकानिभाएंगे..?? इनप्रश्नोंकाजवाबकबमिलेगा..?? अगरयेसबनहींहोगा,तोआपसरकारेंबदलतेरहेंस्तिथिढाककेतीनपातसेकुछइतरनहींहोनेवालीदिल्लीमेंचेहरेबदलेंगेदेशनहीं.... औरयहीमूलकारणहैकेआजमंगलपरपहुँचनेवालेदेशमेंकिसीदलितकेघरशादीमेंदूल्हाघोड़ीचढ़जाए,तोदेशकोसदियोंसेअपनेद्वारारचेगएविद्ध्वंसकपाखंडकामानसिकगुलामबनाकररखनेवालेनीचपाखंडियोंकोउसपरपत्थरबरसानेमेंदेरनहींलगती""मंगलपरपहुँचनेकागर्व""वहीँइसभारतीयसंस्कृतिऔरसमाजपरहंसतामुंहचिढ़ातादिखाईदेताहैयहएकसचहै
 
बेड़ियांटूटेहुएज़मानाहोगया,
फिरभीरुखबदलानहींहालातका
हमकलभीतारीकियोंमेंथे, आजभीहैं
सिलसिलाबाक़ीहै, अबभीरातका

(लेखक परिचय:
जन्म: 1 जनवरी 1981 को मुंगेर ( बिहार ) में
शिक्षा: मगध यूनिवर्सिटी बोधगया से एमबीए 
सृजन: कुछ ब्लॉग और पोर्टल पर समसामयिक मुद्दों पर नियमित लेखन
संप्रति: अनहद से संबद्ध
संपर्क: mfshakeb@gmail.com)



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