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Channel: Hamzabaan हमज़बान ھمز با ن
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चटख़ धूप की दबीज़ चादर

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मृदुला शुक्ला की कविताएं

पिता
चौतरफा दीवारें थी
भीतर घुप्प अँधेरा
एक खिड़की खुली

कुछ हवा आई
ढेर सारी रौशनी

तुम चौखट हो गए
आधे दीवार में धंसे से
आधे कब्जों में कसे से

ये जो उजाला है ना
खिडकियों के नाम है

चौखट तो अब भी
डटी है दीवारों के सामने
अंधेरों से लड़ती......

पिता तुम चौखट ही तो रहे हमेशा ..
ये जो तमाम उजाले हैं हमारे हिस्से के
ये मुझ तक पहुंचे ही हैं
तुम्हारे कंधो पर सवार होकर ...

मेरी कविताएँ

कविताएं मुझे मिलती हैं
चौराहों पर ,तिराहों पर
और अक्सर
दोराहों पर

संकरी पगडंडियों पर कविताएं
निकलती हैं
रगड़ते हुए मेरे कंधे से कन्धा
और डगमगा देती हैं मेरे पैर

इक्क्का दुक्का दिख ही जाती है
तहखानों में अंधेरो को दबोचे
उजालों से नहाए
महानगरों की पोश कोलोनियों में

पिछले दिनों गुजरते हुए गाँव के
साप्ताहिक बाज़ार में
उसने आकर मुझसे मिलाया अपना हाथ
और फिर झटके से गुज़र गयी
मुस्कुराते हुए ,दबा कर अपनी बायीं आँख

मेरे बेहद अकेले और उदास दिनों में
वो थाम कर घंटो तक
बैठती हैं मेरा हाथ
थपथपाती है मेरा कन्धा
अपनी आँखों में
सब कुछ ठीक हो जाने की आश्वस्ति लिए

सच तो ये है कि
कविताये मुझे घेर लेती हैं
पकड़ लेती हैं मेरा गिरेबान
सटाक ,सटाक पड़ती हैं मेरी पीठ पर
और छोड़ जाती हैं
गहरे नीले निशान .....

मेरी पीठ पर पड़े गहरे नीले निशान ही तो हैं  मेरी कविताएं


धृतराष्ट्र होना आसान है, गांधारी होने से

धृतराष्ट्र  होना आसान है गांधारी होने से
धूल धुएं और कुहासे से भरे मौसमों में
आसन होता है जीवन
जब सब धुंधला सा हो ,आप गढ़ पाते हैं
मनोनुकूल परिभाषाएं
अपने अननुभूत सत्यों के

सहज होता है कहना
ठंडा पड़ा सूरज किन्नरों के हाथ की थाली है
बजते हुए किसी पुत्र जन्मोत्सव पर

अपने चेहरे पर उग आये कांटो को
मान लेना खरोंच भर
पिछली हारी हुई लड़ाई का
सामने रखे आदमकद आइने

आईने में भी हम खुद को देख
पाते हैं इच्छानुसार
घटा बढ़ा कर
पीछे से आता प्रकाश का श्रोत भर

कठिन समय में हथियार डालते हुए
आप खुद को पाते हैं बेबस, लाचार
बदलने में दृश्य को,
आइना झूठ नहीं बोलता
वो समझता है पीछे से आती प्रकाश की भाषा मात्र

मैं कल्पना करती हूँ
एक दिन प्रकृति उतार ले सूर्य ,चन्द्रमा
प्रकाश के तमाम श्रोत आकाश से
और टांग दे उनकी जगह उनके धुंधले प्रतिबिम्ब

निःसंदेह धृतराष्ट्र होना आसान है, गांधारी होने से


उकताहटें हावी हैं प्रतिबद्धताओं पर

मेरे सपने नहीं रहते अब
मेरी आँखों में
वो प्रायः होते हैं
क्रूर गाडीवान की भूमिका में
हाथ में चाबुक लिए ,
नाक के कसे नकेल,
गाड़ी में जुते दोनों बैलों की भूमिका में
अकेली होती हूँ मैं

कभी वो कूद कर सवार हो जाते हैं
मेरे कंधो पर
अटपटे रास्तों पर सुनाते हैं कहानियां
अंत में कहानी को रूपांतरित कर एक प्रश्न में,
चस्पा कर एक प्रश्नवाचक चिह्न
उगते सूरज के मुहं पर
वे फिर से जा बैठते हैं
बूढ़े बरगद पर ,बेताल की तरह

वो मुझे प्रायः मिल जाते हैं
प्रकाश से सराबोर रास्तो पर
चुपचाप चलते
हाथों में उठाये जलती मोमबत्तियां
मशाल की तरह

अब जबकि,उकताहटें हावी है
प्रतिबद्धताओं पर
छद्म मौलिकता के इस विषम दौर में
मैं रोज भरती हूँ उनमे
समुद्री हरा ,आसमानी नीला
और गौरैया के पंखों का धूसर सलेटी रंग ,
चौराहों पर लगी हाइड्रोजन लैम्पों के
नीचे से गुजरते
वो खो देते हैं अपनी पहचान
और घर लौट आते हैं ,मुहं लटकाए
गिरह कट गए मुसाफिर से

मैं खुद को पाती हूँ
रंगमंच पर ठठा कर हँसते हुए विदूषक सा
जो आंसू पोछने के लिए
प्रतीक्षा करता है
यवनिकापात की

वो खुद को साथ नहीं लाती

रोज सुबह
जब वो घर से निकलती है
खुद को घर मैं छोड़ आती है
और साथ ले लेती है अपने
वो तमाम असबाब......................
जिनको साथ रहना चाहती है वो

वो ओढ़ लेती है अपनी
पिछली रात की नींद
जो कभी पूरी नहीं होती
दिन के सपनो की वजह से

उसके कंधो पर सवार होती हैं
वो लोरियां
जिन्हें सुनाने से पहले
नींद आ धमकती है
उसकी आँखों मैं

उसकी आँखों मैं बसे होते हैं
रूहानी मुस्कुराहट वाले दो दांत
जिनके निकलने की तकलीफ
तारी रहती है ,हर वक्त उसके दिल दिमाग पर

मैं रोज मिलता हूँ उससे
बस पर चढ़ते,उतरते

बस वो नहीं मिलती मुझसे
क्यूंकि वो खुद को साथ नहीं लाती

अस्पताल

अस्पताल में अपने बिस्तर पर
अकेले लेटे,आप पाते हैं
आपके पास पर्याप्त कारण नहीं है दुखी होना का ,
वंहा मौजूद लोगों के चेहरे पर नाचती भय की तेखाएँ
भारी पड़ जाती हैं आपके हर दुःख पर

आप देखते हैं डॉ का सफ़ेद चोंगा पहनना उसे
नहीं साबित कर देता धवल ह्रदय होना
अक्सर साबित करता है ,
उसकी रगों में बहते लाल रंग का सफ़ेद हो जाना

बेवजह मुस्कुराती नर्सों के पास
कोई वाजिब वजह नहीं होती मुस्कुराने की
आप पाते हैं कि.उनके मुस्कुराने का सम्बन्ध
उनकी किसी आंतरिक प्रसन्नता से नहीं
उनके चूल्हे के रोटी से है

विभिन्न प्रकार के कचरों के निस्तारण के लिए रखे
लाल ,पीले, काले डिब्बे
आपको अपने ही मस्तिष्क के
गुप्त तहखानों से लगते हैं

मृत्यु के कोलाहल से भरी इस इमारत में
जीवन आकांक्षा नहीं आशा होता
डॉ के आखिरी न में सर हिलाने तक

चपटी थैली नुमा बोतल में खूंटियों पर लटकता रक्त
अक्सर टिकट होता है
आगे की सवारी का, जीवन की रेलगाड़ी में

यंहा दफ़न होती हैं मृत आशाएं
लिपटी सफ़ेद चादरों में
मृतात्माओं की जगह ,
उनके प्रेत नहीं ठहरते यंहा
चल पड़ते हैं अपने रोते बिलखते परिजनों के पीछे

सधः प्रसव पीड़ा मुक्त माँ की मुस्कुराह्टें
उलट देती
पीड़ा के सारी पिछली ज्ञात परिभाषाएं

नवजातों के कोमल रुदन परास्त करते रहते हैं
तीक्ष्ण मृत्युगंधी विलापों को

विशवास की पराकाष्ठा ,उम्मीदों के तिलिस्म होते हैं
टूटी कसौटियों खंडित आस्थाओं के शवदाहगृह होते हैं... अस्पताल

वो कमरा
बहुत बेतरतीब है कामगारों की बस्ती सा ये कमरा ,
बंद पड़ी दीवाल घडी वक्त पूछती रहती है सबसे
वक्त बे वक्त
और हमेशा अपना सीना टटोल ढूँढा करती है
टिक टिक की आवाज

चिंता में रहती है तीन टांगो वाली डायनिंग टेबल
इस घर के लोग अब कुछ खाते क्यूँ नहीं
याद करती है पकवानों की खुशबु
और खो जाती है बिना रुके चलती पार्टियों के दौर में

गठ्ठर मैं बंधी किताबें हुलस कर बात करती हैं अक्सर
उन दिनों की पढ़ी जाती थी बड़े शौक से

इस कमरे में अक्सर कानाफूसी होती है
यंहा टेबल तीन पैर की तिपाया दो पैर का
कुर्सियां बिना हत्थे की क्यूँ हैं

जब भी चरमरा कर खुलता है दरवाजा
चौकन्नी हो जाती है जंग खाई सिलाई मशीन
शायद आज फिर कोई तेल डाल करेगा पुर्जे साफ़, ,
वो इतराती हुई सी गढ़ेगी कुछ नया सा

हैंडल टूटे मग अक्सर बाते करते हैं कॉफ़ी के
अलग अलग फ्लेवर के बारे में,

कभी कभी मुझे ये कमरा बस्ती से दूर किसी वृधाश्रम सा लगता है
जहाँ सब खोये होते हैं अपनी जवानी के दिनों में,
सब रहते हैं उदास,
धूल की एक मोटी चादर बड़े प्यार से
समेट कर रखती उन सबको अपने भीतर,
जैसे अवसाद समेटे रहता है बुजर्गों को

मकड़िया मुस्कुराती रहती हैं सुन कर इनकी बातें
बुनते हुए जाल इस छोर से उस छोर तक
बुनते हुए मच्छरदानियों सरीखा कुछ

(रचनाकार-परिचय :
जन्म: 11 अगस्त १९७० को प्रतापगढ़ में
शिक्षा:स्नातकोत्तर
सृजन: उम्मीदों के पाँव भारी हैं कविता संग्रह प्रकाशित
संप्रति : शिक्षण, गाज़ियाबाद
संपर्क : : mridulashukla11@gmail.com)

 

स्त्री को लड़ाई खुद लड़नी होगी

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कानून पीड़िता को सुरक्षा कम देता है, डराता है अधिक












फ़रहाना रियाज़ की क़लम से
 
टीवी चैनल्स और अखबारों पर नज़र डाली जाये तो आधे से ज़्यादा स्पेस महिला शोषण और अत्याचारों से भरे पड़े हैं | महिलाओं के साथ हो रहे इन हादसों को देख कर मन व्यथित है | कैसी विडंबना है कि नारी सशक्तीकरण  और नारी मुक्ति के जितने दावे किये जा रहे हैं, उतना ही नारी शोषण और अत्याचारों की घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है | कहा जाता है कि नारी को शोषण और अत्याचार से मुक्त करना है, तो सब से पहले उसको शिक्षित करना होगा | शिक्षा का अर्थ सिर्फ अक्षर ज्ञान नहीं बल्कि जीवन के हर पहलु को समझना होगा जिससे कि वो अपने अधिकारों के लिए जागरूक हों | परन्तु मौजूदा हालत पर नज़र डालें तो पिछड़ी और अशिक्षित महिलाओं की बात तो दूर जो शिक्षित महिलाएं हैं, वे भी निजी से लेकर सार्वजनिक जीवन में, सरकारी और निजी सेवाओं में, खेल मीडिया और राजनीति जैसे क्षेत्रों में उत्पीड़न और शोषण का शिकार हैं |
सबसे अधिक चिंता की बात ये है कि जिन महिलाओं को समाज में महिलाओं के शोषण और अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किया जाता है , वे स्वयं शोषण और उत्पीड़न का शिकार हैं | भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय सेना और अन्य सुरक्षा सेवाओं में महिलाओं का शोषण और उत्पीड़न की घटनाएँ आये दिन सामने आती रहती हैं | देश में राष्ट्रीय महिला आयोग और राज्य महिला आयोग जैसी संस्थाओं को पर्याप्त अधिकार और संसाधन उपलब्ध कराए गये हैं, इसके बावजूद कई महिलाएं न्याय के लिए मुंह तकती सी रह जाती हैं | 

देश में इस तरह के शोषण और अत्याचार के ख़िलाफ़ कानून भी है परन्तु फिर भी क्या कारण है कि ऐसी घटनाओं में दिन–ब-दिन वृद्धि होती जा रही है? दरअसल इसके लिए शासन-प्रशासन का ग़ैरज़िम्मेदार रवय्या तो दोषी है ही, साथ में हमारा समाज और मानसिकता भी बेहद ज़िम्मेदार है | कमी हमारी व्यवस्था और सोच में भी है | क्योंकि अधिकतर ऐसी घटनाओं के बाद एक तरफ जहाँ कुछ राजनेताओं के ग़ैरज़िम्मेदार ब्यान अपराधियों के हौसले बुलंद करते हैं ,तो दूसरी तरफ हमारा समाज अपराधी को अपराधी न मानकर पीडिता को ही दोषी मान लेता है | जिसके कारण समाज और अदालत में होने वाली बदनामी और परिवार की प्रतिष्ठा के नाम पर अधिकतर ऐसे मामलों को दबा दिया जाता है | यदि कोई महिला अपने ऊपर होने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाती है, तो उसे डरा-धमका कर चुप करा दिया जाता है | पीड़िता के चरित्र पर ही सवाल खड़े किये जाते हैं. 
हमारा कानून पीड़िता को सुरक्षा कम देता है, भयभीत अधिक करता है | अपराधी अपने रसूख और पैसों के बल पर कानूनी शिकंजे से बच निकल जाता है | कानून में बच निकलने के रास्ते बकायदा मौजूद हैं | इस प्रकार की घटनाओं में वृद्धि का एक प्रमुख कारण ये भी है कि आज जिस तरह से प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में महिला को किसी भी वस्तु और विज्ञापन के प्रचार और प्रसार के नाम पर देह प्रदर्शन के द्वारा एक भोग की वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे समाज में महिलाओं के प्रति विकर्ष्ण पैदा होता है और गन्दी मानसिकता पनपती है | जिसके कारण बलात्कार अत्याचार और यौन उत्पीड़न जैसी समस्याओं में वृद्धि हो रही है | और भी कई कारण है जैसे, लड़कियों को बचपन से ही दोयम दर्जे का समझना और मूल्य शिक्षा और अच्छे संस्कार का अभाव | यही वजह हैं कि इतने सामाजिक सुधार आन्दोलनों के बावजूद भी ये समस्या एक चुनौती पूर्ण समस्या बनती जा रही है | गंभीर समस्या होने के बाद भी हमारी सरकार इसे निरंतर अनदेखा कर रही है | 
कहते हैं कि जो बीत गया उसे बदला नहीं जा सकता लेकिन जो बदल सकता है, उसके बारे में सोचना आवश्यक है | इसलिए इस चुनौती पूर्ण समस्या के लिए किसी एक व्यक्ति विशेष को नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव समुदाय को आगे आना होगा | जो कमी हमारी व्यस्था और सोच में है, उसमे सुधार करना होगा तभी इस तरह की घटनाओं में कमी हो पायेगी | सर्वप्रथम तो जब भी ऐसी घटना घटती है तो इस अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ ज़रुर उठाई जाये क्योंकि अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना पीड़ित पक्ष की नैतिक ज़िम्मेदारी है | ऐसे मामलों में सम्बंधित महिला का नाम गोपनीय रखते हुए न्यायिक प्रकिया जल्दी शुरू की जानी चाहिए | क्योंकि न्यायिक प्रकिया जल्दी शुरू करने से पीड़ित पक्ष भावनात्मक रूप से मज़बूत होगा | समाज की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि पीड़िता को भावनात्मक सपोर्ट दी जाये, जिस से वो अपनी लड़ाई मज़बूती से लड़े| दूसरी ओर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में नारी की भूमिका में पर्याप्त सुधार करके ,पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण न करते हुए भोगवादी प्रवृति को समाप्त करके ऐसा वातावरण बनाना होगा, जहाँ नारी को सम्मान की नज़र से देखा जाये | बालिकाओं को समानता का अधिकार देते हुए आत्मरक्षा का प्रशिक्षण दिया जाये | आत्मरक्षा प्रशिक्षण को शिक्षा का एक अहम हिस्सा बनाया जाये | बच्चों को बचपन से ही ऐसे संस्कार दिए जाएँ जिस से कि वो स्त्री की इज्ज़त करना सीखे | 

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि हमें अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी | आर्थिक संबलता और आत्मनिर्भर होने के लिए सपनो को पूरा करते हुए , समाज में जो इंसानी भेड़िये घूम रहे हैं, उनको पहचान कर उनसे सावधान रहना होगा और साहस के साथ इनका सामना करते हुए ये बताना होगा कि नारी अबला नहीं है | यदि वो शोषण और अत्याचार के ख़िलाफ़ संघर्ष पर उतर आये तो दुनिया बदल सकती है | जब हम खुद अपनी लड़ाई लड़ेंगे तभी तो क़ानून और समाज हमारा साथ देगा , क्योंकि दुनिया में इंसानियत आज भी जिंदा है|                                                  
      

(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 11 अप्रैल 1985 को मेरठ (उत्तर प्रदेश ) में
शिक्षा: बीए. (चौ. चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ )
सृजन: समसायिक विषयों पर इधर कुछ पोर्टल पर लेख
संप्रति: अध्ययन और स्वतंत्र लेखन
संपर्क: farhanariyaz.md@gmail.com)  

                                        

दावेदारी फिर अनुरोध

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रजनी त्यागीकी कविताएं

तुम्हारी सदाशयता पर शक नहीं

तुमने कहा, सुरक्षा
लड़की ने सुना, क़ैद
क्या सचमुच तुमने सुरक्षा कहा
या सचमुच तुमने क़ैद कहा था
नहीं ! तुम्हारी सदाशयता पर शक ठीक नहीं
क्योंकि तुमने लड़की को धन भी कहा था
और वो भी पराया

फिर लड़की ने क्यों सुना क़ैद ?
शब्द उसके कानों तक पहुँच कर बदल कैसे गए?
या फिर वो ही बदल गई है?
लड़की बड़ी मुश्किल में है
जब से एक दिन उसने झाँक लिया
अनगिनत परिंदे उड़ते हैं उसके भीतर
पंख फड़फड़ाते और भी बड़ा आकाश चाहते हैं
लड़की इधर-उधर दौड़ती
हांफ-हांफ जाती है
इन्हें पकड़ने के लिए
बस में नहीं आते कम्बख़्त !
लड़की को चैन से बैठने नहीं देते
धन नहीं होने देते
एकदम ज़िंदा रखते हैं
पंखों की फड़फड़ाहट और इनकी चायं-चायं ने ही
ख़राब कर दिए हैं लड़की के कान
तुम्हारी सदाशयता पर शक ठीक नहीं!
तुम तो कहते हो 'सुरक्षा'
और लड़की सुनती है 'क़ैद '

8 मार्च : दावेदारी फिर अनुरोध

वैसे दिन तो सभी मेरे भी थे
पर दावेदारी के लिए एक दिन तो मिला
वैसे दावेदारी करना मेरे जीने का ढंग था ही नहीं कभी
मेरे जीने का ढंग तो प्रेम और मित्रता था
प्रेम का अनुवाद तुमने दासता किया
और दासों से कैसी मित्रता
चढ़ते गए तुम प्रभुता के पायदानों पर
मै क्योंकर रोकती
और पहुँच भी गए तुम सबसे ऊपर

सुनो, आज के दिन मैं तुमसे कहती हूँ
बहुत सन्नाटा है प्रभुता के शिखर पर
वहां का अकेलापन लील देगा तुम्हें
सुनो, वापस लौट चलो
ये कोई दावेदारी नहीं किसी दिन पर
मित्रता का अनुरोध है प्रेम भरा
क्योंकि मेरे जीने का ढंग प्रेम और मित्रता है

ऊर्जा की संभावना

तुम्हारे भौतिक जीवन में यदि मेरी कोई भूमिका होगी
तो मैं ज़रूर मिलूंगी तुम से ..एक दिन
क्योंकि प्रकृति का नियम है
जो विज्ञानियों ने खोज निकला है
पदार्थ के बनने को अणु करते हैं
इलेक्ट्रान का लेन-देन और जुड़ जाते हैं
तब तलक हमारी संवेदनाओं की ऊर्जाएं
मिलती रहेंगी स्वाभाविक बहाव में
क्योंकि ऊर्जा पदार्थ की मोहताज  नहीं होती.

आभार

रोज़ चली आती हो
बिना नाग़ा
नियम की बहुत पक्की
बहुत कर्मठ हो तुम
रास्ते हज़ार रोके कोई
हों कितने भी दरवाज़े बंद
अपनी मंज़िल पहुँच
जम ही जाती हो तुम
कई बार सोचा, नहीं दूँ ध्यान तुम पर,
पर तुम ज़िद्दी जमी हुई अपनी जगह
मुंह चिढ़ाती और भी जम जाती हो
दिलाती हो मुझे मेरा निक्क्मापन याद
धूल तुम्हें धन्यवाद् !!

जानती हूँ..तुम हो मेरे आस-पास

सुनहरे तिलिस्म का सागर है
दूर तक लहराता हुआ
असंख्य लहरें
व्यस्त हैं अपने रोज़मर्रा के कामों में
तूफ़ान और शान्ति दोनों को
एक साथ समेटे
इस किनारे बैठ जब छूती हूँ इन्हें
खरगोश सा स्नेह मेरी हथेलियों पर
आ फुदकता है
जानती हूँ किसी किनारे पर
तुम बैठे हो

रूह पर स्वामित्व कैसे हो

वो जो रौशन थी परिधि
वो नूर रूह का ही था
तुम घूमते रहे, उलझते रहे
परिधि से बारहा
वर्ना मुझ तक पहुँचने का रास्ता
कितना सीधा सा था
उस रास्ते में तुमको
अपने खो जाने का था शुबहा
सो परिधि पर ही चिन लिया
तुमने क़िला अधिपत्य का
मैं दे भी देती रूह को राजस्व में तुमको
मगर रूह के स्वामित्व का पट्टा कभी बना न था

लम्हों की प्रतिध्वनियां

साथ बिताये लम्हों की प्रतिध्वनियां
नई-नई व्याख्याएँ पेश करती हैं
उस दिन साथ बैठ कर खाते हुए
एक कौर मेरे मुंह के पास लाकर
तुमने निर्देश दिया, आ!
तुम्हारी उपस्थिति की तरंगों में सराबोर
तुम्हारी आँखों के तिलिस्म में डूबी मंत्रमुग्ध सी
एकदम यंत्रवत मैंने भी पालन किया
और मुझे छलते हुए तुमने
झट से कौर अपने मुंह में रख लिया था
ठगी हुई, आहत सी मैं हैरान हुई पहले
फिर तुम्हारी मज़बूत बाज़ू पर
ढेरों मुक्के बरसाए
और तुम हंस रहे थे बेसाख़्ता
मैं तो इसे प्रेम की
चुहलबाज़ी समझी थी
क्या इसी से मुझे समझ लेना था
कि दरअसल छल करना ही
तुम्हारा असल मिजाज़ है ..

गहरी जमी उदासी

कुछ इधर पड़ा है
कुछ उधर पड़ा है
मेरे भीतर का सब सामान तितर-बितर पड़ा है
उधर गिलास लुढका हुआ
कुछ घूंट जो उम्मीद थी उसमें
अब बह चली है फर्श पर
सपनों के बिस्तर पर हजारों सिलवटें हैं
अनधुले कपड़ों सा दर्द कुर्सी पर बिखरा
बिस्तर पर भी
मेज़ पर जमे बैठे हैं काम कई
टुकुर-टुकुर घूरते हैं
फर्श पर भी जम गया है कितना ही कूड़ा-कबाड़
कुछ चोटें हैं
कुछ गुस्सा है
बहुत सी खिन्नता है
मेरे भीतर का सब सामान-तितर बितर पड़ा है
म्मम्म..सोचती हूँ शुरुआत बुहारने से करूँ

स्थगित किये हुए दर्द

स्थगित किये हुए दर्द भी जागते हैं बारहा
किसी ज़रूरी काम के लिए लगाये रिमाइंडर की तरह
करते रहते हैं दावेदारी
स्थगित किये हुए दर्द भी डालते हैं असमंजस में बारहा
किसी क़ीमती याद से जुड़े क़ीमती सामान की तरह
जो टूट-फूट गया है
नहीं है किसी भी काम का
जिसे ना फेंकते बनता है ना रखते

स्‍थगित किए हुए दर्द ज्‍यादा कुछ कहते-सुनते नहीं
लेकिन वे बदलते रहते हैं
तुम्हारे जीवन की रंगत धीरे-धीरे
पायदान पर जमा होती धूल की तरह
जो बदलती रहती है उसका असल रंग
ग्रे से गहरा ग्रे, कत्‍थई से गहरा कत्‍थई, लाल से मैरून..


(रचनाकार-परिचय: 
जन्म:  26 नवंबर 1981 को दिल्ली में
शिक्षा:दिल्ली के आईपी कोलेज से इतिहास में एम. ए. और  IGNOU से पत्रकारिता में डिप्लोमा
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित 
संप्रति: दिल्ली में रहकर अनुवाद और और हिंदी साप्ताहिक आफ्टर ब्रेक के लिए लेखन
संपर्क: rajni2ok@gmail.com)  

चरवाहा से कवि तक की यात्रा

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संजय शेफर्ड का आत्मकथ्य

लेखन और पाठन का सफ़र जीवन में काफी देर से जुड़ा, लेकिन घुम्मकड़ी की प्रवृति मुझमें जन्म के साथ ही मौजूद थी। उस समय जब लोगों का वक़्त लोगों की अंगुली पकड़कर उम्र के साथ- साथ चलता है। मेरे वक़्त ने मेरी उम्र के साथ किसी भी रूप में चलने से इंकार कर दिया था। पढ़ाई- लिखाई की अवधारणा को भाग्य की नियति मानकर कई वर्षों तक मैं अपने पुश्तैनी पेशे भेड़ पालन की वजह कर इधर-उधर भटकता रहा. यहीं पर मेरा साक्षात्कार जंगल, पहाड़, नदी, नाले और प्रकृति से हुआ. जाने-अनजाने में ही सही मेरा मन भावनाओं, संवेदनाओ और अहसासों सागर के रूप में मुझमें लहराने लगा।
वह रातें मुझे आज भी याद हैं, जिन्हें खुली पलकों के आगोश में लेकर मैंने कभी किसी नदी-नाले के किनारे या फिर वियाबान जंगलों की बांहों में बिताई थी। उन दिनों शेफर्ड हट जैसी कोई चीज अस्तित्व में नहीं आई थी। उस समय भेड़ पालन करने अथवा चराने वालों का कोई निश्चित ठौर ठिकाना नहीं होता था।  जहां सांझ ढली वहीं भेड़ों के लिए ठहराव ढूंढा और पाल डालकर खुले आसमान के नीचे सो गए। उस दौरान सर्दी, गर्मी, बरसात को मैंने बहुत क़रीब से देखा, छुआ और खुद में महसूस किया। उस समय मेरे पास एक विस्तृत धरती, खुला आसमान और दूर- दूर तक लहराता अथाह सागर था।

कुछेक ही दिनों में यह यायावरी भरी जिन्दगी मुझे रास आने लगी थी। यहां हमारी आवश्यकताएं बहुत ही सीमित थी। हम पूरी तरह से प्राकृतिक चीजों पर आश्रित थे, पेड़ से तोड़कर फल खा लिया, प्यास लगने पर किसी नदी का पानी पी लिया, भूख सताने लगी तो उपले इकट्ठा करके आग जलाई और लिट्टी आदि बनाया और पेट भर लिया। सही मायने में दुख, दर्द और विषाद क्या होता है बहुत दिनों तक जाना ही नहीं लेकिन एक दिन मेमने की में-में आवाज़ से रात का सन्नाटा टूटा तो ऐसा लगा कि सिर पर पहाड़ गिर गया।
उस समय भी जंगली जानवर रात के सन्नाटे में निचाट जगहों पर आकर शिकार तलाशते रहते थे। सुबह पास के खेत में उस मेमने की हड्डियों, बाल और खाल को लहू में लिपटा देखकर मन सिहर उठा और यहीं से जीवन में दुख, दर्द, विषाद और संवेदना का फूटा और वक़्त के साथ अपना आकर लेता रहा। इस तरह जन्म के साथ के सात शुरुआती  सालों ने मेरे हृदय- आत्मा कई अनकही कविताओं, कहानियों, उपन्यासों को जन्म दिया( जिसका लिखा जाना इस 27 साल की उम्र में पहुँचने के बावजूद भी बाक़ी है।

सही मायने में जब मैं कविता लिखता हूं तो कविता नहीं महज अपने मन के भाव लिखता हूं. कभी-कभी यही भाव विचार बन जाते हैं, स्थायित्व की प्रक्रिया पार कर अपना प्रतिबिंब बनाते हैं, और कविता बन जाती है । मेरी कविता, कुछ कल्पना, कुछ यथार्थ, कुछ वक़्त को समेटने की कोशिश, कुछ प्रतिध्वनि, कुछ परछाई, कुछ प्रतिबिंब के आलावा कुछ भी तो नहीं है। 

हमज़बान की अगली पोस्ट में पढ़ें  संजय शेफर्ड की कविताएं

(रचनाकार-परिचय: 
मूल नाम: संजय कुमार पाल।
जन्म: 10 अक्टूबर 1987 को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जनपद में।
शिक्षा: भारतीय मीडिया संस्थान दिल्ली से पत्रकारिता व जन संचार में स्नातक, जबकि जेवियर इंस्टिट्यूट ऑफ कम्युनिकेशन मुंबई से इसी में स्नातकोत्तर किया
कार्यक्षेत्र: एशिया के विभिन्न देशों में शोधकार्य, व्यवसायिकतौर पर मीडिया एंड टेलीविजन लेखन, साहित्य, सिनेमा, रंगमंच एवं सामाजिक कार्य में विशेष रुचि।
नुक्कड़ नाटकों का निर्देशन।  25 से अधिक नाटकों का लेखन।
सृजन: विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविजन एवं आकाशवाणी से रचनाओं का प्रकाशन व प्रसारण।
संप्रति: बीबीसी एशियन नेटवर्क में शोधकर्ता एवं किताबनामा प्रकाशन, हिन्दीनामा प्रकाशन के प्रबंध निदेशक के तौर पर संचालन।
संपर्क: sanjayshepherd@outlook.com)

संजय शेफर्ड की कविताएं

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टूटने का मर्म   

यक़ीनन जब भी कुछ टूटता है
हमारे अंदर
सबसे पहले यक़ीन टूटता है
खुद का का, खुद से
विश्वास करना मुश्किल हो जाता है
स्वयं पर, स्वयं से

महज़ एक बार टूटने के बाद से ही
हमारा अनुभव स्वयं कर लेता है
अच्छे- बुर, अपने-पराये की पहचान
अनायास ही !
अनायास ही होता है ?
बाक़ी  बाद का सबकुछ
आख़िर उसने विश्वास ही तो तोड़ा था ?

बाक़ी का, ना जाने कैसे
किस आंधी के डर से बिखर गया ?
बिना किसी तूफ़ान के
ज़ार-ज़ार  हो गया सपनों का वह घर
जिसे हमने कभी रेत
कभी ग्लास से बनाया था
विश्वास आख़िर एक शीशे का मकान ही तो है ?

कभी-कभी खुद को भी समझाना पड़ता है
अपने ही टूटे हुए दिल को
टुकड़ों- टुकड़ों में टूट जाने के बाद भी
नहीं टूटने का यक़ीन दिलाना पड़ता है
और इसी जद्दोजहद में
विश्वास फिर से अपनी उम्र क़ायम करता है।


तुम उदास हो !

जैसे कोई लम्हा टूट गया हो
अंदर ही अंदर
जैसे किसी ने तुम्हारे सकून भरे पलों पर
दर्द की बुझी हुई
एक ऐसी ढ़िबरी रख दिया हो
जो सिर्फ
दर्द, तड़प, सिहरन और तरल आंसुओं से जलती है

उस बुझे हुए दिए को
जलाने की मनाही नहीं है
पर क़तरे-क़तरे   रौशनी के लिए
खुद को मारना ; खुद को तड़पाना और
खुद को जलाना होगा

अंधेरा जितना तुम्हारी उम्र के इस पार है
उतना ही उम्र के उस पार है
और तुम बीचोबीच खड़ी हो
अपने दुपट्टे के एक छोर से अतीत
दूसरे छोर से भविष्य को थामें
एक ऐसे वर्तमान में जिसका होना नगण्य है

जिसके होने और नहीं होने का अर्थ
सृष्टि के जीवों के लिए संदेहास्पद रहा है
जिसका होना और नहीं होना
अक्सर हम मनुष्यों को
आश्चर्यचकित और विस्मित करता रहा है

आश्चर्यचकित नहीं ; आज मैं विस्मित हूं
और यह जानते हुए भी कि विस्मय में पूछे गए सवाल
इंसान की भावनाओं को रक्तरंजित
देह को लहुलुहान कर देते हैं
फिर भी मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूं

अगर मैं तुम पर पत्थर फेंकू तो
कहां गिरेगा ?
अतीत में ? भविष्य में ?
या फिर उस वर्तमान में जो होता ही नहीं !
जिसका होना महज़  आभासी है
जो अतीत की खिड़की से
अक्सर भविष्य में झांका करता हैं
खुद को वर्तमान कहकर
कभी दर्द ; कभी आंसू ; कभी तड़प बनकर

आखिर तुम उस खिड़की को आज बंद क्यों नहीं कर देती ?


स्वछंद प्रेम  

मुलाक़ात  के पहले ही दिन
एक पुरूष ने
मुट्ठी भर रेत स्त्री की हथेलिओं पर रखा
और कहा, लो ! यह 'प्रेम'है
इसे तुम हमेशा संभाल कर रखना

पल भर के लिए उसे खो देने का डर
स्त्री के हृदय - आत्मा - देह में उतर आया
दिल धड़का, अंगुलियां कांपी,
सांसे रुकने लगी
शायद यह पल उसका था
यह डर भी उसी का दिया हुआ

दूसरे पल उस लम्हे से  आज़ाद होते ही
वह स्त्री ज़ोर-ज़ोर से हंसी
और अपनी हथेलियों की रेत को
आसमान में बिखरा दिया
वह पल दो पल स्तब्ध देखता रहा
और फिर चलता बना

आख़िर  'प्रेम'जैसी चीज को
बंद मुठ्ठियों में
कब तक रखा जा सकता है ?
उस स्त्री का 'प्रेम'कल भी उन्मुक्त था
और आज भी स्वच्छंद और आज़ाद है।


नंगा खेल

रात ख़त्म हो जाती है
एक दूसरे को नंगा करने का खेल
कभी ख़त्म नहीं होता
वह सिर्फ कपड़े नहीं उतारता है
शरीर में घुसकर देह से
एक-एक चमड़ी को अलग कर देता है

सिर्फ वक्षों को नहीं मसलता
पीठ -पेट ; कुल्हे-कोहनियों तक को
रक्तरंजीत और लहुलुहान कर देता है
बहुत ही विभत्स होता है
एक रात के लिए सौदे की शर्त पर
किया जाने वाला अंधेरी रातों का 'अवैध प्रेम'

यूं तो कुछ तितलियां
कोठे की चौखट पर कदम रखने से पहले
अपनी आत्मा और प्रेम को त्याग
अपने गर्भ द्वार को बंदकर
सिर्फ देह के साथ
अपने-अपने घरों से प्रस्थान करती हैं

फिर भी कुछ आत्माएं
देह से चिपकी रह जाती हैं
दौड़ती रहती हैं ; धमनियों, रक्त शिराओं में
रक्त कणिकाओं की तरह
गिरती रहती हैं ; नंगी धरती पर
कटे जिस्म से टपकते लहू की बूंद बन
देह के युद्बभूमि में देह से पराजित हो
हर रात की लड़ाई हारकर

उदास कराहों के बीच न जाने
कितनी सिसकियां खो जाती हैं
भूख, उन तितलिओं के परों को
सिर्फ बेरंग और बदनाम नहीं बनाती
उड़ने की हर कोशिश को बाधित करके
रक्तरंजीत और लहुलुहान भी करती है

देह में कामुकता को तलाशने वाले
हम कलाकार देह को तो उलट-पलट
पेंटिंग या फिर किताब की तरह पढ़ते है
नहीं पढ़ पाते हैं तो देह की
उन उदासिओं को जो पुलिस थाने में
पेट की भूख तो लिखा देती हैं ;
कभी देह का 'बयान'नहीं लिखा पाती।

(रचनाकार-परिचय: 
मूल नाम: संजय कुमार पाल।
जन्म: 10 अक्टूबर 1987 को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जनपद में।
शिक्षा: भारतीय मीडिया संस्थान दिल्ली से पत्रकारिता व जन संचार में स्नातक, जबकि जेवियर इंस्टिट्यूट ऑफ कम्युनिकेशन मुंबई से इसी में स्नातकोत्तर किया
कार्यक्षेत्र: एशिया के विभिन्न देशों में शोधकार्य, व्यवसायिकतौर पर मीडिया एंड टेलीविजन लेखन, साहित्य, सिनेमा, रंगमंच एवं सामाजिक कार्य में विशेष रुचि।
नुक्कड़ नाटकों का निर्देशन।  25 से अधिक नाटकों का लेखन।
सृजन: विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविजन एवं आकाशवाणी से रचनाओं का प्रकाशन व प्रसारण।
संप्रति: बीबीसी एशियन नेटवर्क में शोधकर्ता एवं किताबनामा प्रकाशन, हिन्दीनामा प्रकाशन के प्रबंध निदेशक के तौर पर संचालन।
संपर्क: sanjayshepherd@outlook.com)

पटना में कामकाजी स्त्री

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तकिया और बस के सिवा कौन है उसका साथी 
 
 
 
 
 
 
 
 
प्रीति सिंहकी क़लम से
सुबह का धुंधलका. रात की कालिमा को परे धकेलते हुए सूरज की हल्की-हल्की रोशनी बिखरने को तैयार थी.चिड़ियों का झुंड शोर मचाते हुए दाने की तलाश में निकल पड़ा हो. ओस की बूंदें यूं लग रही थीं मानो अपने प्रीतम से बिछड़ने का दर्द किसी नवयौवना की आंखों से छलक आये हों.. सब कुछ ठहरा-ठहरा.. अलसाया हुआ था...
लेकिनइन सबसे अलग एक तबका भोर की इस हल्की सी रोशनी में भी भाग रहा था. आपाधापी कर रहा था .. बड़ी उत्सुकता से जब मैंने इन्हें जानने की कोशिश की.. तो हैरान रह गई.. दरअसल.. ये परछाईयां जो भाग रही थीं.. ये वो महिलायें थीं.. जो कामकाजी हैं..ऑटो और बसों में एक-दूसरे को धकियाते हुए आगे निकलने की इनकी होड़ इसलिए थीताकि ये सही समय पर अपने ऑफिस पहुंच सकें. किसी को अपने शहर के किसी सड़क तक जाने की हड़बड़ी थी, तो कुछ महिलाओं को दूसरे शहरों की ओर रुख करना था. इसके लिए पहले उन्हें पहले ऑटो फिर ट्रेन पकड़नी थी.
लेकिनसमस्यायें यहीं पर खत्म नहीं हुई थीं.ये तो बस एक शुरुआत थी. उसकी जो इन्होंने कामकाजी होने के एवज में चुकाई थी. कई घंटों का ट्रेन का सफर करने के बाद तय समय पर अपने ऑफिस पहुंचना इनकी पहली चुनौती थी. उससे भी बड़ी चुनौती थी अपने घर के सारे काम-काज को पूरा कर ऑफिस के लिए तैयार होकर सही समय पर निकलना. सुबह 4 बजे उठने के बाद भी उनकी ये तपस्या तब तक पूरी नहीं होती.. जब तक थक-हार कर घर लौटने के बाद वो फिर से अपने सारे काम-काज को निबटा न लें. काम-काज से यहां तात्पर्य उन कामों से हैजिसका न तो कोई तय रुटीन है.. और न ही कोई ड्यूटी आवर.. इसके लिए इन कामकाजी महिलाओं को कोई वेतन भी नहीं मिलता.. लेकिन.. फिर भी जन्म से लेकर मरते दम तक उसे ये घरेलू काम अनवरत करने पड़ते हैं.
कमोबेश ये हालत हर शहर, हर क़स्बे की है.लेकिनपटना जैसे शहर में तो हालात और भी बुरे हैंबुरे इसलिए क्योंकियहां कुछ दिनों में लोगों के खान-पान और पहनावे में बदलाव तो आया है. लेकिनमहिलाओं को लेकर पुरुषवादी मानसिकता में आज भी यहां बहुत ज्यादा फर्क नहीं आया है.सामाजिक रुढ़ियां लोगों को जकड़े हुई हैं.  कामकाजी महिलाओं केलिए हालात बहुत ज्यादा मुफीद नहीं हैं.आने-जाने के साधनों की कमी की वजह से महिलाओं को हर दिन परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है. पटना जैसे छोटे शहर में महिलाओं के लिए स्पेशल ट्रेन तो नहीं ही है.जो महिला बोगी है, उस पर भी पुरुषों का ही कब्जा अधिक नजर आता है.बंदी और हड़ताल में तो इन महिलाओं की हालत और भी ज्यादा खराब हो जाती हैऐसे में कभी ट्रेन छूट जायेतो फिर भगवान ही मालिक है.
मुझे याद आता है. रात 8 बजे ऑफिस से घर लौटने के दौरान मैंने पटना जंक्शन से घर जाने के लिए बस पकड़ी. बस में मेरी बगल वाली सीट पर एक महिला (जिनकी उम्र लगभग मेरे ही बराबर थी) बैठीं. रास्ते में बातचीत के दौरान पता चला कि वो हर दिन पटना बाइपास से मोकामा जाने के लिए सुबह 6 बजे घर से निकलती हैं. इसके पहले उन्हें सुबह जल्दी उठकर घर का सारा काम-काज निपटाना पड़ता है. घर पर अपनी छोटी सी बेटी को सास-ससुर पर छोड़कर वो हर दिन अपने काम पर जाती हैं. इस दौरान उन्हें बस स्टॉप तक जाने के लिए डेढ़ घंटे पैदल जाना पड़ता है. कई बार उनकी बेटी बीमार होती है. लेकिन उन्हें काम पर जाना ही पड़ता है. फिर भी आये दिन वो देर से ऑफिस पहुंचती हैं. वहां बॉस की झिड़कियां उन्हें सुननी पड़ती हैं. उन्होंने बताया कि कैसे घर लौटने के दौरान आये दिन ट्रेन में लोग बदतमीजी करते हैं. डांटने पर उल्टे वही लोग इन्हें ‘मनबढ़ू महिला’ की संज्ञा देते हैं. कहते हैं हमारे घर में ऐसी महिलायें हों तो हम उन्हें जिंदा न रहने दें. इन सबसे लड़ते-निपटते जब वो घर पहुंचती हैं, तो फिर से रात के खाने का वक्त हो जाता है. कई बार तो बिना कपड़े बदले ही उन्हें भयंकर गर्मी में सीधे रसोई में घुस जाना पड़ता है. देर रात गए जब वो बिस्तर पर जाती हैं तो पति से बिना बात किए सो जाती हैं. जिस पर उनके पति की नाराजगी और बढ़ जाती है.. उसी कामकाजी महिला के शब्दों में..”नौकरी करना जी का जंजाल बन गया है. न करो तो घर में पैसों की तंगी और करो तो जिंदगी हराम.“ उन्होंने बस से उतरते-उतरते मुझे सलाह दी, काम तभी तक करना जब तक शादी न हो जाये. शादी के बाद तो नौकरी और जिंदगी में तालमेल बिठाते-बिठाते ही उम्र खत्म हो जाती है और हम जिंदा हैं या नहीं ये एहसास भी मर जाता है.
लगभग हर कामकाजी महिला की यही कहानी है... काम पर से देर रात गए घर लौटते वक्त हाड़-हाड़ थक कर चूर हो जाता है.सोचने-समझने की शक्ति जवाब दे जाती है.लेकिन  घर के ढ़ेरों काम इनके इंतजार में रुके होते हैं.सब निबटा कर बिस्तर पर गिरने के बाद कोई होश नहीं रहताऐसे में पति की इनसे अलग शिकायतें होती हैंऔर बच्चों की अपनी.सासू मां और ससुर जी को इनका नौकरी करना रास नहीं आता, तो पति को घर पर खाली बैठे रहना.
लेकिनकोई नहीं सोचता किमहिला क्या चाहती हैकैसा लगता है उसे जब घर पर अपने छोटे बच्चे को छोड़ कर उसे नौकरी पर जाना होता है. मन बच्चे में अटका होता है.काम सही समय पर पूरा नहीं होने पर बॉस से झिड़कियां खानी पड़ती हैं.कैसा लगता है उसे तब.. जब ट्रेन की भीड़भाड़ में कई लोग हर रोज जाने-अंजाने उसे टटोलना चाहते हैं. कैसा लगता है जब बुखार के बाद भी उसे अहम फाइलों को निबटाने के लिए ऑफिस जाना पड़ता है.
सबसे अहम लेकिन सबसे खासकि कैसा लगता है उसे जब महीने के आखिर में उसकी मेहनत से कमाये गए रुपये बिना उसकी मर्जी जाने पति उससे ले लेते हैं.कहते हैं किलाओइसे मुझे दोनहीं तो तुम इसे बेकार की चीजों पर खर्च कर दोगी. तब पता चलता है एक कामकाजी महिला होने के सारे संघर्ष किस कदर बेमानी और बेमकसद हो जाते हैं. सारी रात तकिये को गीला करने के बाद अगली सुबह कामकाजी महिलायें फिर तेज-तेज कदमों से भागे चलती है उस बस को पकड़ने.. जो संघर्षों और संकटों में अकेला उसका साथी है. दूर खड़ी होकर मैं महिलाओं की इन भागती-दौड़ती परछाईयों को देखती हूं.

(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 20 मई 1980 को पटना बिहार में
शिक्षा: पटना के मगध महिला कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक, नालंदा खुला विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में हिन्दी से स्नाकोत्तर
सृजन: कुछ कवितायें और कहानियां दैनिक अखबारों में छपीं। समसायिक विषयों पर लेख भी
संप्रति: हिंदुस्तान, सन्मार्ग और प्रभात खबर जैसे अखबार से भी जुड़ी, आर्यन न्यूज चैनल में बतौर बुलेटिन प्रोड्यूसर कार्य के बाद फिलहाल वास्तु विहार मीडिया वेंचर प्राइवेट लिमिटेड में कंटेंट डेवलपर और  आकाशवाणी में नैमित्तिक उद्घोषक
संपर्क: pritisingh592@gmail.com)

ऋषभ @ कविताएं संगीत के दूसरे सात स्वर की तरह

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अजित कुमार सिन्हाकी कविताएं
 
याद
हवा के झोंके  की तरह
तुम आये मेरे जीवन में
कर दिया खुशबू से सराबोर मुझे
उड़ा दिया हिचकिचाहट के परदे को
हवा के झोंके की तरह
बस गयी तुम्हारी महक साँसों में
स्पर्श से तुम्हारे थरथराता रहा जिस्म
छेड़ते रहे तुम मेरी जुल्फों के तार
हवा के झोंके की तरह
सर्वस्व दिया मैंने तुमको, पर हुआ क्या?
मुझे नहीं पता, आये थे जितनी तेजी से
उतनी ही तेजी से लौट गए, बिलकुल
हवा के झोंके की तरह
पर अफ़सोस नहीं जरा भी, खुश हूँ मैं
क्योंकि, मेरी रूह में बसे हो तुम
हर सुगंध में तुम्हारी याद चली आती है
हवा के झोंके की तरह

अवसाद
घुप्प अँधेरा घिरता हुआ
रौशनी को लीलता हुआ
सुदूर क्षितिज तक आसमां के पार तक
बिंदु रौशनी भी दृष्टिगोचर नहीं
लोभ नहीं छूटता कहने का,
मिलेगा चाँद कहीं पे सहमा हुआ.
अवसादग्रस्त हैं फिजायें
हवा में भी सूनापन है
ठहरा हुआ है सब कुछ
आ रहा है बस अँधेरा घिरता हुआ
अब आशा की किरणें भी मद्धिम होती सीं
अनिश्चित भविष्य के गर्भ में विलीन होती सीं
इनपर घना कोहरा सा छाता हुआ
डूबता हुआ सा मन इस अँधेरे में
प्रतीत होता है इन क्षणों में
बस अँधेरे से अँधेरा मिलता हुआ

इंतजार
ये बिखरे हुए कागज़ ,
अलसाए से परदे, खिड़कियाँ
कर्कश प्रतीत होता बुलबुल का कलरव
भुतहा लगता अंधियारे में पार्क, बोझिल हवा
और ये सहमा हुआ चाँद
हाथ की किताब का मुड़ा हुआ पन्ना, बुझती मोमबत्ती
पॉकेट में सूखी गुलाब की पंखुडिया
तुच्छ लगती भावनाएं
मन को भाता अकेलापन
याद दिलाता है मुझको
अभी भी मैं वहीँ हूँ
जहाँ छोड़कर चले गए थे तुम

मन की बात
निस्तब्ध चंद्रमा को देखती एकटक झील में
ज्यों कोई कंकड़ गिरा हो
असंख्य उर्मियाँ खेलती ह्रदय के आँगन में
मथती हुई झील के ह्रदय पटल को
विलोड़ित करती नीरव शांति को
हो रहा लगातार ऊर्जा प्रवाह
रात्री के अन्धकार में
एक हलचल आती है एक हलचल जाती है
शांत हो जाता है सब , कुछ समय उपरांत
सीमाओं में बाँध लिया है खुद को
झील के बाहर नहीं होता ऊर्जा प्रवाह
कितने ही कंकड़ गिरे , कितनी ही तरंगे आईं और गयी
तोड़ न सकी कोई सीमाओं के बंधन को
कलुषित हृदयों के उद्धार के लिए पर्याप्त थी एक ही हलचल
सीमायें हम खुद बांधते हैं सो
कोई तरंग उठती है कुछ समय के लिए
पर उद्वेलित नहीं क़र पाती , जड़ बना रहता है सब कुछ
संचार नहीं होता ऊर्जा का
हम होने देते हैं कह के होनी और रह जाते हैं
निस्तब्ध , चंद्रमा को देखती , एकटक , झील की तरह .

(रचनाकार -परिचय:
जन्म: २१ मई १९८७ को गाजीपुर, उत्तर प्रदेश में
शिक्षा: प्रारंभिक- तराँव, गाजीपुर स्कूल- बक्सर कालेज- नोएडा से मेकेनिकल इंजीनियर
सृजन: फेसबुक पर सक्रिय। कोई प्रकाशित रचना नहीं।
संप्रति: मुंबई में सरकारी नौकरी
संपर्क: axn.micromouse@gmail.com 

रूट्स की खोज में झारखंड पहुंचा युवा फिल्मकार रंजीत उरांव

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 कुडुख में बनाई पहली फीचर फिल्म पेनाल्टी कार्नर



















जब आप अपने परिवार और पुरखों के बारे में बात करते हैं, तो असल में आप पृथ्वी के सारे इंसानों के बारे में बात कर रहे होते हैं। ऐसा विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘रूट्स’ के आदिवासी लेखक एलेक्स हेली ने कहा है। यही बात युवा फिल्मकार रंजीत कुमार उरांव के मन में रही और वह रूट्स की तलाश में चेन्नई की अच्छी-खासी इंजीनियरिंग की जॉब छोड़कर झारखंड पहुंच गए। अश्विनी कुमार पंकज की कहानी पर उन्होंने कुडुख में पहली फीचर फिल्म पेनाल्टी कार्नर बनाई। यह अभी प्रमाण-पत्र के लिए सेंसर बोर्ड में है।

पलामू में जन्म, पढ़ाई चेन्नई से

रंजीत का जन्म पलामू के जुरू गांव में हुआ। यहां से शुरुआती पढ़ाई के बाद वह चेन्नई चले गए। पिता वहां नौकरी में थे। वहां अन्ना इंजीनियरिंग यूनिवर्सीटी से 2005 में बीटेक किया। इसके बाद चेन्नई और कोयंबटूर में मल्टीनेश्नल कंपनी में तीन साल तक अच्छे पैकेज पर नौकरी की। लेकिन बच्पन से ही सृजनशील रहे रंजीत का मन इसमें नहीं लगा। नौकरी छोड़कर पुणे के फिल्म प्रशिक्षण संस्थान (एफटीआई) में दाखिला ले लिया। यहां से निर्देशन व लेखन का कोर्स किया।

जनजातीय फिल्म बनाने वाले पहले झारखंडी

एफटीआई में यूं अब तक झारखंड से करीब 20-25 युवाओं ने कोर्स किया है। इसमें कई आदिवासी समुदाय से भी हैं। लेकिन रंजीत इनमें से अकेले युवा हैं, जिन्होंने पांच मिनट की डॉक्यूमेंट्री से फीचर फिल्म तक अपनी मातृभाषा कुड़ुख का चयन किया। इस तरह निसंदेह वह जनजातीय फिल्म बनाने वाले पहले झारखंडी हुए। पेनाल्टी कार्नर की कहानी में कर्मा कथा के साथ एक आदिवासी खिलाड़ी बच्ची का संघर्ष समानांतर चलता है। विलुप्त हो रही उरांव संस्कृति व भाषा उनके झारखंड वापसी का कारण बनी।

भास्कर झारखंड के 15 अगस्त 2014 अंक में प्रकाशित 

कभी सूली नफ़रत की कभी फंदा हिफ़ाज़त का

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धीरेन्द्र सिंह की क़लम से

1. 
उम्र भर बस यही इक उदासी रही
आपके दीद को आँख प्यासी रही

तुम गये बाद जाने के बस दो यही
बेक़रारी रही,  बदहवासी रही

याद करने से क्या कोई आये भला?
एक उम्मीद थी जो ज़रा सी रही

मिस्ले- नामा- ए- बेनाम की ही तरह
मेरे अफ़सानों की इक हवा सी रही

हाले- दिल क्या बयां और कहके करूँ?
हार अपनी हुई और ख़ासी रही


2.

शौक़  तो हम तमाम रखते हैं.
सो सभी इन्तज़ाम रखते हैं.

आपके पास गर सुबह है तो
देखिये हम भी शाम रखते हैं

जाओ तुम क्या हमें ख़रीदोगे
हम बहुत ज्यादा दाम रखते हैं.

पत्थरो इक नयी ख़बर सुन लो
सर पे अब हम भी बाम रखते हैं.

क्या सिखाते हो बारहा हमको
काम से ही तो काम रखते हैं.

3.

काबा खोजे कलीसे ढूंढें हैं
सबमें  तुझको तुझी से ढूंढें हैं

कोई मिलया न कोई भाया है
सबमें  तुझको ही मैंने पाया है

मेनू इंसान दी शकल देके
रूह बनकर के तू समाया है

प्यार गर है ख़ुदा तो नासेहो
अब के मैंने उसी से ढूंढें हैं

काबा खोजे कलीसे ढूंढें हैं
सबमे तुझको तुझी से ढूंढें हैं

चाँद को वो उठाये मिटटी सा
वो बिगाड़े बनाये मिटटी सा

थोडा बाहर से सख्त दिखता है
पर वो नाज़ुक है हाये मिट्टी सा

हम-क़दम, हम-सफ़र है वो मेरा
अक्स उसके उसी से ढूंढें हैं

काबा खोजे कलीसे ढूंढें हैं
सबमे तुझको तुझी से ढूंढें हैं

4.

कभी सूली थी नफ़रत की कभी फंदा हिफ़ाज़त का
तरीक़ा ख़ूब तेरा था इबादत का मुहब्बत का

अबाबीलें थी मेरी दोस्त लेकर उड़ चलीं मुझको
तभी से ना ज़मीं देखी न देखा डर क़यामत का

कि करके वादा भी उसने मेरी लाज न रक्खी
वो है दुनिया से बे- ग़ाफ़िल, वो आशिक़ है शरारत का

तबीयत क्यूँ नहीं बनती कि जबसे वो हुई ओझल
सिला क्या बस यही हासिल है सजदे का इबादत का?

मुझे क़ानून का है डर, मगर दिल में ख़ुदा का घर
बहुत हूँ मुन्तज़िर कब से बस उसकी ही इजाज़त का

मिरे ख़्वाबों में भी मुझको यही इक खौफ़ रहता है
कि अगला खेल क्या होगा दिखावे की रिफ़ाक़त का

क़ुरआन-ए-पाक को छूकर, क़सम खाकर रमायन ( ण ) की
मैं करने आ रहा हूँ सामना फिर से क़यामत का

5.

चाहे तो मुझको दर- बदर कर दे
पर ख़ुदा इस मकां को घर कर दे

और गर हो, तो जान भी ले ले
मौत से पहले पर ख़बर कर दे

जान फूंको तो बुत बने इंसां
टूटी डाली को तू शजर कर दे

कुछ अता मुझको हिम्मतें कर दे
कुछ तो आसां मिरा सफ़र कर दे

6.

मेरी बात की बात कुछ भी नहीं है.
कहूँ क्या सवालात कुछ भी नहीं है.

तुम्हारी नज़र में ये दुनिया है सब कुछ,
हमारे ये हालात कुछ भी नहीं है?

कहें भी तो क्या क्या कि क्या हार आये,
मिली है जो ये मात कुछ भी नहीं है.

ग़म-ए-हिज्र इक ज़िन्दगी भर जिया है,
जुदाई की ये रात कुछ भी नहीं है.

7.

मिरे ख़त ध्यान से पढ़ना दुआएं साथ भेजी हैं
उन्ही आँखों से बरसेंगी घटाएं साथ भेजी हैं

अगर आँखें समझ न पायें तो तुम दिल से पढ़ लेना
मिरा ख़त बोल उट्ठेगा सदायें साथ भेजी हैं

तिरी आवाज़ के साये ज़बां से बाँध कर मैंने
वो सारी बातें जो तुमको सताएं साथ भेजी हैं

वही संजीदा सी ग़ज़लें तुम्हे जो ख़ास लगती हैं
वही जो इश्क़ से वाकिफ़ कराएं साथ भेजी हैं

तुम्हारी सांस से उलझी हैं जो खुशबू बहारों की
जो दुनिया भर को महका दें, हवाएं साथ भेजी हैं.

8.

कब तक कहूँ ये फितरत अच्छी नहीं किसी से
बे-इन्तहा मुहब्बत अच्छी नहीं किसी से

बेहद बुरी है हालत शब् भर मैं जागता हूँ
कैसे कहूँ तबीयत अच्छी नहीं किसी से

उसने कहा था मुझसे मेरी दुआ है रख लो
यूँ बाटना ये दौलत अच्छी नहीं किसी से

पूरा ही तोड़ देगा ये हश्र आदमी को
सच पूंछ लो तो कुदरत अच्छी नहीं किसी से

(रचनाकार-परिचय:
जन्म:  १० जुलाई १९८७ को क़स्बा चंदला, जिला छतरपुर (मध्य प्रदेश) में
शिक्षा: इंजीयरिंग की पढाई  अधूरी
सृजन: 'स्पंदन', कविता_संग्रह '  और अमेरिका के एक प्रकाशन  'पब्लिश अमेरिका'से  प्रकाशित उपन्यास 'वुंडेड मुंबई'जो काफी चर्चित हुआ।
शीघ्र प्रकाश्य: कविता-संग्रह  'रूहानी'और अंग्रेजी में उपन्यास   'नीडलेस नाइट्स'
संप्रति : प्रबंध निदेशक, इन्वेलप  ग्रुप
संपर्क: renaissance.akkii@gmail.com, यहाँ- वहाँ भी )

धीरेन्द्र सिंह की कुछ और ग़ज़लें हमज़बान पर ही


आदिवासियों ने बनाई पहली फ़िल्म निर्माण कंपनी

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पहली फिल्म सोनचांद की शूटिंग जल्द
 


















शहरोज़ की क़लम से
भारतीय सिनेमा में आदिवासी पहचान और अभिव्यक्ति को मुखर करने के लिए वंदना टेटे और ग्लैडसन डुंगडुंग ने मिलकर बिर बुरू ओम्पाय मीडिया एंड इंटरटेनमेंट एलएलपी नामक फिल्म  निर्माण कंपनी बनाई है। यह पहली फिल्म कंपनी है, जिसका स्वामित्व आदिवासियों के पास है। मुंडारी व खड़िया से मिलकर बने शब्द बुरू ओम्पाय का अर्थ ही है, जल, जंगल  व जमीन। जाहिर है, इस कंपनी की फिल्मों में नदी का चंचल प्रवाह,  पहाड़ सा स्वाभिमान और जंगलों सी हरियाली होगी।  वंदना टेटे ने बताया कि भारतीय सिनेमा के सौ साल के इतिहास में आदिवासी कहीं नहीं है। इसलिए उनकी अभिव्यक्ति व उपस्थिति के लिए कंपनी बनाई गई है। जबकि  ग्लैडसन डुंगडुंग का कहना है  आदिवासी अपनी ही जमीन से बेदखल किए जा रहे हैं, उनकी समस्याओं को प्रमुखता से फोकस करना कंपनी का उद्देश्य रहेगा।
कंपनी का पहला प्रोजेक्ट फीचर फिल्म सोनचांद  है। इसमें भी सत्तर फीसदी कलाकार झारखंडी व आदिवासी होंगे। वहीं डैनी डेंगजोप्पा, सीमा बिस्वास और उषा जाधव का अभिनयसोनचांदमें चार चांद लगाएगा। झारखंड के अलावा मुंबई, दिल्ली, मप्र., छत्तीसगढ़ व राजस्थान के मनुज मखीजा, रंजीत उरांव, बृजीत सुरीन, विजय गुप्ता, इंद्रजीत सिंह, शंकर सिंह, केएन सिंह मुंडा, इंद्रजीत सिंह और सामंत लकड़ा आदि फनकारों की फिल्म में अहम भूमिका होगी।

 निरे पे सेने पे लंदय पे रियो-रियो
 निरे पे सेने पे लंदय पे रियो-रियो फिल्मसोनचांदकी यह पंक्ति टैग लाइन है। मुंडारी के इन शब्दों का मतलब है, आओ दौड़ें, नाचें व खिलखिलाएं। फिल्म में संवाद पात्र के अनुसार नागपुरी, मुंडारी, भोजपुरी और हिंदी में होगा। मुंडारी संवाद कवि-प्रोफेसर अनुज लुगुन लिखेंगे। वहीं निर्देशन करेंगे, अश्विनी पंकज। अभिनय से तकनीकी पहलुओं और लेखन तक में कंपनी को एफटीआई से ट्रेंड सत्तर प्रतिशत आदिवासी युवाओं का योगदान होगा।

 कहानी जो आज तक कही नहीं गई
 इस फिल्म में 12-14 साल की आदिवासी बच्ची सोनचांदमुंडा की कहानी है। आदिवासी प्रदेश की आदिवासी समुदाय से आनेवाली यह लड़की फील्ड एथलीट है। बालिका वर्ग की 100 मीटर रेस में उसका प्रदर्शन बेमिसाल है। यह धाविका स्टेट चैंपियन है। लोग उसे नन्ही आदिवासी उड़नपरी बोलते हैं। उसका सेलेक्शन नेशनल चैंपियनशिप के लिए होता है। लेकिन चैंपियनशिप के कुछ दिन पहले एक रात कोई उसके पांव काट देता है।
भास्कर के रांची संस्करण में 1 सितंबर 2014  प्रकाशित

लेखक-परिचय






मैं था शायर, मुझको क्या था

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 चार नज़्म 






  








 फ़ैज़ी रेहरवी की क़लम से

1.

मैं गया कहाँ, बस यहीं रहा,
न रुका कभी, बस चला किया
मेरी ज़िन्दगी थी तेरे लिए,
मेरी लाश तो मुझको सौंप दो

वो सफ़र के जो कोई, कभी न था
वो डगर जो अब तक चली नहीं
वो रुका रुका सा भरा सा दरिया
एक आँख जो अब तक बही नहीं
ये सरमाया हैं मेरी ज़िन्दगी का,
इसे मुझको लाओ सौंप दो

न लिखूंगा तुझको क़सम तुम्हारी
पढूंगा क्या जब लिखा नहीं
वरक़ था कोरा, रहा भी कोरा
क्या ज़िन्दगी? जब जिया नहीं
ये ख़ला के उनवान सी ग़ज़ल है
ख़ला ही इसमें भरी हुई है
ख़ला थी कब के मेरा मुक़द्दर
ये तो अपनी मेरी चुनी हुई है

सितम थे जग में, थे कितने नाले
पलट के मैंने मगर न देखा
शोर के अब्र से बरसती लाशें
हर एक चिता पे ज़मीर सेंका
एहसास-ए-सर्द से भर के दामन
गर्म साँसों को मैंने फेंका

कौन भूखा कौन प्यासा
मैं था शायर, मुझको क्या था
तेरा बदन, ये तेरी निगाहें
तेरे ये गेसू तेरी ये बाहें
तेरे तसव्वर में मैं जी रहा था
शराब-ए- बेहिर्सी मैं पी रहा था
नशा था इल्म-ओ-सुखन का गहरा
नशा था हुस्न-ओ- कलम का गहरा
नशा था दींन -ओ- धरम का गहरा
नशा था यक़ीन-ओ- वहम का गहरा
नशा था इतना, के मैं न संभला
नशा था इतना, के न मैंने देखा

मिस्ले माही मैं बह रहा था
गोते दरिया में मैं खा रहा था
दरिया-ए- दुनिया वसी था इतना
न जाने किस सिम्त मैं जारहा था
के अचानक वो आई मेरे ज़ेहन में
तसव्वुरों में किया उजाला
सुखन को नयी रौ मिली उसी से
अशआरखाने में हुआ चेरागाँ
क़ल्ब को एक ज़िया सी बख्शी

मुगन्नी उसका, मैं उसका शायर
आवाज़ की अब खनक भी वो ही
समातों में भी घुली वही है
वरक पे देखो वो ही पड़ी है
जुबां पे मेरे वही बसी है
तभी किसी ने खोली खिड़की

तभी किसी ने खोली खिड़की
बे रह्म शम्स ने वहां से झाँका
मानिंद-ए-शोला नज़र से देखा
मैं चौका, भागा, जो बढ़ के झाँका
चिंगारियां नीचे पटी पड़ी थी
झुलस रहा था शहर हमारा
हर चीख शोलों सी जल रही थी
फिर मैंने देखा, मैंने समझा
तपिश ये दुनियामें है कैसी फैली
भूख से था कोई झुलस चूका
किसी को उसके खुदा ने फूँका
राख मज़हब की उसने बेचीं
किसी ने कोई बदन खरीदा
किसी कोठे की आतिश्फेशां आवाजें
कई चूड़ियाँ कलाई में पिघल गयीं
दूध की खातिर बिकती माएँ
बाज़ार-ए- जिस्म में क़ुमकुमों की मानिंद
तभी वरक पर नज़र गयी
जहाँ पे तुम थी पडी हुईं
तभी ये फिर से ख़याल आया
कौन भूखा कौन प्यासा
मैं था शायर, मुझको क्या था
एक जीस्त थी सो गुज़र गयी
एक नज़्म थी सो बिखर गयी
मैं गया कहाँ, बस यहीं रहा,
न रुका कभी, बस चला किया
मेरी ज़िन्दगी थी तेरे लिए,
मेरी लाश तो मुझको सौंप दो


2.

वो चाँद, सितारे फूल ओ खुशबु लाऊँ कैसे 
ऐ ग़ज़ल मेरी मैं तुझको सजाऊँ कैसे

अशआर आंसू की जगह बर्फ हुए जाते हैं 
एहसास गजलोंमें बस कुछ हर्फ़ हुए जाते हैं 
दिल बैठता जाता है आहट से तेरे जाने की 
जज़्बात गुस्से के दलदल में कहीं ग़र्क हुए जाते हैं 
तेरे लिए वोह पंखुड़ियों से लफ्ज़ लाऊं कैसे 
ऐ ग़ज़ल मेरी मैं तुझको सजाऊँ कैसे

तुझे दौलत की हवस, उससे तो सजा सकता नहीं 
घर का दिया है, घर को तो जला सकता नहीं 
रदीब काफिये हर शेर पाक रखे खुदा मेरे
तेरी हवस इस कलम से तो बुझा सकता नहीं
शमा दिखा के इस पत्थर को पिघलाऊँ कैसे
ऐ ग़ज़ल मेरी मैं तुझको सजाऊँ कैसे

फीकी होली अँधेरी दीवाली है मेरी
सोच भी जेब की मानिंद ही खाली है मेरी
कुछ जिम्मेदारियों ने नब्ज़ संभाली है मेरी
क्यों नज़र तेरी फिर भी सवाली है मेरी ?
मुफलिसी का पैरहन तेरे हसीं जिस्म पे पहनाऊँ कैसे
इए मेरी ग़ज़ल, मैं तुझको सजाऊँ कैसे ????? - 
3.
तुम क्या समझोगे 
देशभक्ति के नाम पर 
जुबानो की सियासत 
करने वाले 
टूटपुन्जिये सियासतदानों 

हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान 

से पैदा हुई थी एक ज़बान 
ज़बान नहीं दरिया थी 
जिसमे जब रघुपति सहाय ने डुबकी लगाई
तो रघुपति नहीं फिराक़ निकला था
जिसने भर दिए अनगिनत मोती
इस दरिया में
और बढ़ गया दरिया का पानी और कुछ
सम्पूरण सिंह कालरा
आज भी उसी दरिया में तैरता रहता
दीखता है कभी कभी
लोग समझते हैं
यह गुलज़ार है
वोह बूढा पगड़ी वाला
कृपाण दबाये मोटे चश्मे से
देखो क्या पढ़ रहा है
इसी दरिया के वरक़ पलट रहा है
गुरु ग्रन्थ साहेब
दरिया है
तो संगम भी ज़रूर होगा
जब मिलते हैं
साहिर और अमृता
अलग ज़बानें
अलग ज़ेहन
अलग ज़ायक़ा 
लेकिन फिर बन जाता है एक दरिया.
जो निकलता है कभी अमीर खुसरो
के लब से
कभी क़लम से
इंशा अल्लाह  खान के
कभी गाता है कबीर बन
कभी गिरता है मीरा के चश्म से

तुम क्या समझोगे
दरिया पानी भाप बादल बारिश संगम की
शीरीं सियासत को

देशभक्ति के नाम पर
जुबानो की
सियासत करने वाले
टूटपुन्जिये सियासतदानों
4.
तुम्हे याद है?
जब धर्म ने डाली थे बेडी 
पाँव में तुम्हारे ?

दोनों पाँव सटा कर इस तरह बाँध दिए गये थे 
कि तुम चाह कर भी 
उसे खोल नहीं सकती थीं.

तुम्हारे पाँव नहीं क़ैद करने थे 
धर्म को क़ैद करना था 
अधीन करना था
सीमित करना था
संसार को असीमित बनाने वाले उस अंग को

जो पहचान था तुम्हारी

बहुत चीखीं चिल्लाई थीं
हाथ पाँव चलाये थें
जीभ बहार निकाल कृपान ले रौद्र रूप ले लिया था
शेर पर सवार अरिसेना पर टूट पड़ी थीं
तुम?

नहीं. तुम्हारे अन्दर की औरत
तुमने तो वोह चीत्कार ही नहीं सुनी थी तब
घूंघट के अन्दर पहुंची ही नहीं वोह
चीख

धर्म की बेड़ियां  पुरानी होने लगीं
लगने लगा जंग
कड़ियों में

खड़े कर दिए गए
साहित्यकार
उस असीमित को सीमित रखने के लिए
चाटुकारिता के कोड़े थामे

पन्नों में सजा दिया तुम्हारा
वजूद
पूरा वजूद
नहीं
केवल
शायर का "हुस्न"
और कवि का "यौवन"
चीख रही थी फिर वोह
जौहर की वेदी पर
पति की चिता पे
बाज़ार के कोठों पर

लेकिन किसी ने न खोले उसके पैर

चाटुकारिता के चाबुक पुराने पड़ते ही
ले आया बाज़ार
तुम्हारा खोया हुआ सम्मान
तुम्हारी आजादी
तुम्हारी स्वायत्ता
जो घूमती रहती थी इर्द गिर्द
असीमिन करने वाले सीमित क्षेत्र की
सीमाओं के ही अंतर्गत

फिर चीखा उसने
अबकी समझा रही थी वोह
सचेत कर रही थी तुम्हे
लेकिन डीजे के तेज़ शोर
और मोबाइल की मनमोहक धुनों के बीच
तुम थिरकती ही रहीं ...

और खुल गए
आखिर \
वोह बंधे पैर

लेकिन अभी भी तुम्हारी मर्जी से नहीं
तुम्हारा वजूद 


--

(रचनाकार-परिचय:
 पूरा नाम: हैदर रिज़वी
जन्म : 18 अक्टूबर 1983 को  ओबरा - सोनभद्र, यूपी में
शिक्षा :  इन्जीनीयर ( आई टी)
सृजन: वर्चुअल जगत में सक्रिय लेखन  
संप्रति : डायरेक्टर कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन तहलका टुडे
संपर्क : faizi.rizvi@gmail.com )  

अतातुर्क और नाज़िम हिकमत के देश में

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तक़सीम चौक, इस्तांबुल में एक महिला मित्र के साथ लेखक        .























निशांत कौशिकतुर्की से  लौट कर



यूरोपीय मध्यकाल से सतत चली आ रही पूर्व-पश्चिम की बहस, तानपीनार और ओरहन पामुक के उपन्यासों में गूंजती है।  "मेरा नाम सुर्ख है" (My name is red) के प्रथम पृष्ठ में कुएं के अंदर फेंकी गयी एक ओटोमन साम्राज्य कालीन नक़्क़ाश की लाश इस पुराने झगड़े  को हमारी शताब्दी में फिर ताज़ा कर देती है. तुर्की धार्मिक की अपेक्षा जातीय पहचान के आधार पर बना मुल्क़ था, जिसने राष्ट्र राज्य नामक राजनीतिक युक्ति को अतातुर्क के ज़माने में अपना लिया था।  बहुधा ये माना जाता है कि अतातुर्क "पश्चिम समर्थक"एवं "इस्लाम विरोधी"था।  ऐसी कपोल कल्पना में कई भ्रम है, उदाहरणार्थ अतातुर्क के पहले ही ओटोमन शासकों ने अपने प्रशासनिक भवनों और संस्कृति में पश्चिमीकरण की ज़रूरत महसूस की थी, तंज़ीमात कालीन राजनीतिक गतिविधियाँ और रचित साहित्य में इसकी स्पष्ट झलक है. दूसरा यह कि तुर्की को साम्राज्यीय स्मृतियों से मुक्त करने के लिए कमाल अतातुर्क ने तुर्की भाषा की लिपि में बदलाव किया और इस्तांबुल की जगह एकदम भिन्न प्रकृति के नगर "अंकारा"को तुर्की की राजधानी घोषित किया. तुर्की की आज़ादी का युद्ध काल बेहद भीषण था, जिसमे अरब मुल्क़ों ने भी बंदरबांट मचा रखी थी और दीगर मग़रिबी मुल्क़ों ने भी।  झगड़ा इस्लाम और ईसाइयत की जगह अरब, तुर्क, कुर्दिश और आर्मेनियन प्रभुता का था. कुछेक को छोड़ दीन सबका इस्लाम था. एक घनघोर तूरानीवाद का भी जन्म  हुआ, जिसके पैरोकार ज़िया गोकाल्प और निहाल आतसिज़ जैसे अव्वल दर्जे  के साहित्यकार थे, जिन्होंने साहित्य में अरबी बह्र (फाइलुन, मफाईलुन) की जगह हैजे के इस्तेमाल पर आंदोलन किया. साहित्य में कुछ नए सौन्दर्यशास्त्रीय प्रयोगों में हम सबके प्रिय कवि "नाज़िम हिकमत"हैं.

 45 दिन की यायावरी 

मेरे तुर्की प्रवास की अवधि कुछ 45 दिन की थी.  दो मुल्क़ों के पारस्परिक प्रयासों का यह एक महत्वपूर्ण अंग है. 2007 में स्थापित युनुस एमरे संस्थान को तुर्की भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के प्रसार हेतु स्थापित किया गया. संस्थान का नाम "युनुस एमरे"रखने की वजह एक ऐतिहासिक परम्परा से जुड़ाव का प्रयास है, युनुस एमरे तुर्की के शास्त्रीय कवियों में अहम हैं.  वे ओटोमन काल से भी पूर्व के कवि हैं, जो महान इस्लामिक सूफी परम्परा के प्रतिनिधि हैं. अफ़ग़ानिस्तान और ईरान में जो मान्यता रूमी को है, वही तुर्की में "युनुस एमरे"की  है. युनुस एमरे संस्थान की स्थापना रजब तय्यब एर्दोआन (अर्थात नवोदित) के प्रधानमंत्रित्व में "नव-ऑटोमानवाद"रणनीति के तहत हुयी, तय्यब साहब तुर्की के पूर्व प्रधानमन्त्री रहे हैं और नज़दीक ही राष्ट्रपति चयनित हुए हैं. उनकी विदेश नीतियों की विश्व भर में बुद्धिजीवियों एवं धर्म निरपेक्षता के समर्थकों के द्वारा निंदा एवं आलोचना की जाती रही है. इन आलोचकों में प्रसिद्ध भाषाविद नोम चोम्स्की एवं तुर्की मूल के लेखक ओरहन पामुक भी हैं. इस नव ऑटोमानवाद का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य बाल्कन क्षेत्रों से रिश्तों को सुधारना और स्थापित करना भी है.

एस्कीशेहिर यानी मुल्ला नसरुद्दीन का शहर

हिंदुस्तान मुख्यतः जामिया मिल्लिया इस्लामिया नयी दिल्ली से चयनित मैं और दीगर ३ मित्रों को तुर्की के भिन्न-भिन्न शहरों में तुर्किश साहित्य एवं संस्कृति से परिचित होने के लिए आमंत्रित किया गया. मेरा रहवास मध्य अनातोलिया क्षेत्र में स्थित एस्कीशेहिर (क़दीम शहर) में रहा. यह शहर (प्रांत) युनुस एमरे और मुल्ला नसरुद्दीन की जन्मभूमि रही है. नाम से क़दीम लेकिन लगभग नूतन इस शहर को छात्रों का शहर कहा जाता है, यहाँ बेहद महत्वपूर्ण २ विश्वविद्यालय ओसमानगाज़ी विश्वविद्यालय एवं अनादोलू विश्वविद्यालय स्थित हैं. नगर योजना रोम के किसी नगर की तरह स्थिर एवं खूबसूरत है. तुर्कमेन पहाड़ों से घिरा नरम-गरम मौसम में पला यह शहर फ्रीजियन, गोकतुर्क, रोमन, बायज़ेंटियन एवं ओटोमन साम्राज्य की स्मृति को सहेजे हुए है. शहर के मध्य पोरसुक नदी का प्रवाह इसे ख़ास बनाने में मदद करता है. शहरी आवागमन के साधन में सबसे महत्वपूर्ण है ट्राम, दिन रात शहर के दिल में धड़कन की तरह हौले-हौले धड़कती, मुसाफिरों को देर रात बिना शोर गलियों में छोड़ देती है.

पूरब -पश्चिम का अनमोल रंग 

सामजिक सुरक्षा और ज़मीनी विकास तुर्की के लगभग हर क्षेत्र में मौजूद है.  दो वर्ष सेना में भर्ती एवं माध्यमिक शिक्षा पूरी तरह सरकारी खर्चे से संचालित है। निजी विश्वास एवं धर्म निरपेक्षता की अच्छी झलक देखने मिली, फिर भी नास्तिकता और ईशनिंदा एक प्रतिबंधित स्वरुप में मालूम होती है . शहर के लगभग हर हिस्से में मस्जिदें मौजूद हैं, जिनकी वास्तुकला देखते बनती है। तुर्की में पूर्व एवं पश्चिम की संस्कृति का अद्भुत सम्मिश्रण है. युवा वर्ग राजनीतिक बहसों में अच्छे से सक्रिय है. यहां सिर्फ फिलिस्तीन और गाज़ा ही नहीं. इराक़ के चल रहे संकट पर भी बहसें हैं. शहर के एक अखबार (सोज़जू) के मुख्य पृष्ठ में मुझे राष्ट्रपति तय्यब एर्दोआन की इस्राइल सम्बन्धी नीतियों की आक्रामक आलोचना मिली, जिसमे उनसे कुछ प्रश्न पूछे गए हैं. अंग्रेजी का इस्तेमाल लगभग नहीं के बराबर है. एक औपचारिक शिक्षा के उपरान्त अंग्रेजी के प्रयोग हेतु कोई दवाब नहीं है, ना ही एक इस्लामिक मुल्क ( ?) होते हुए अरबी के प्रयोग का ठेठ आग्रह है.

ईद के दूसरे दिन गाँव में चॉकलेट व  हामूर का ज़ायक़ा 

रमज़ान के महीने में मित्रों के साथ कुछ रोज़े भी रखे. मिस्र और कज़ाकिस्तान के सहपाठियों के साथ रहने के कारण उनकी सांस्कृतिक परम्पराओं से भी खूब परिचय हुआ. मेरे मिस्र के सहपाठी की राजनीतिक शून्यता एवं निष्क्रियता ने कुछ हैरान भी किया, यही नहीं सीरिया और इराक़  के मित्रों की राजनीतिक असक्रियता ने "काबुल में सिर्फ घोड़े नहीं होते"जैसी कहावत को सच कर दिया। ईद के पहले दिन प्रशासनिक अधिकारियों के साथ मुलाक़ात तुर्की में एक रिवाज़ है, तथा दूसरे दिन किसी गाँव में जाकर चॉकलेट एवं हामूर (दाल और गूंथा हुआ आटा, शब्द का उद्भव खमीर से) का भोग तथा वितरण एक पुरानी परंपरा है. अधिकतम मस्जिदों में वुजूख़ाने भीतर मौजूद हैं. खाना खाने के पहले एवं बाद एक तरह के सुगन्धित द्रव से हस्त प्रक्षालन किया जाता है, मेरी एक ईरानी मित्र राहील ख़तीबी ने इस संस्कृति के ईरान में भी होने की पुष्टि की.

फ़ारसी-अरबी मुक्त तुर्की और लोक संगीत

तुर्की भाषा में अरबी-फ़ारसी शब्दों की बहुलता है, व्याकरण में भी फ़ारसी का प्रभाव है. भाषिक प्रकृति ये है कि एक वाक्य में अनंत प्रत्यय जोड़े जा सकते हैं. शिक्षा संस्थानों द्वारा भाषा को और अधिक फ़ारसी -अरबी मुक्त करने के प्रयास किये जा रहे हैं.  हमारी कक्षाओं में भाषा के अलावा संगीत का दर्स भी दिया गया. तुर्की की संगीत परंपरा को ३ हिस्सों में बांटा जा सकता है. शास्त्रीय संगीत (तुर्कचे सनात म्युज़ियि), लोक संगीत (तुर्कचे हल्क़ म्युज़ियि) और समकालीन (चादाश तुर्कचे म्युज़ियि) . शास्त्रीय संगीत अपनी जटिलता के साथ फ़ारसी-अरबी स्वर ध्वनियां एवं इस्लामिक काव्य परंपरा (मुख्यतः क़सीदाः) के आसपास बुना हुआ  है. कालांतर में ओटोमन कालीन लेखकों मसलन फुज़ूली, नेफी, नबी एवं नदीम आदि की अमर रचनाओं को स्वरबद्ध किया गया और गाया गया.  तुर्की को जिस संगीत की परंपरा पर गर्व है वो है लोक संगीत। जो भिन्न भिन्न जातीय बाशिंदों की रचनाओं एवं कबीलाई परंपरा का घोतक है. कबीलाई वाद्य यंत्र एवं मुर्कियों के अरूज़ ओ ज़वाल इस संगीत परंपरा को अमर घोषित कर देते हैं. गाये जाने वाली रचनाओं की संख्या लगभग अनंत है और ये ध्वनिया सैंकड़ों सालों से यूँ ही गायी जाती रही हैं. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचने में इनका स्वरुप बहुत कुछ श्रुति परंपरा की तरह रहा है, ज़ेकी मुरेन आदि इस परंपरा के अमर गायक हैं. दारबुका, तेफ (डफ), साज़, नै आदि खालिस मध्य पूर्वीय वाद्य यंत्र हैं.

पहाड़ों के बीच शीतल-सौंदर्य  

एस्कीशेहिर से नज़दीक बसे कुछ महत्वपूर्ण क़स्बों का ज़िक्र भी ज़रूरी है, जिसमे महत्वपूर्ण है "सोउत"और "बिलेजिक" . सोउत ओटोमन साम्राज्य की पहली राजधानी रहा है, पहाड़ों के बीच बसे इस खूबसूरत ठन्डे इलाक़े को देखकर बरबस ही महसूस होता है कि किसी उभरते हुए साम्राज्य की राजधानी होना सिर्फ इसी के नसीब में हो सकता है, दीगर राजधानियों में बुर्सा, एदिर्ने और अंत में कुंस्तुंतुनिया यानी आज का इस्तांबुल है. सोउत में आज भी पहली राजधानी होने की बहुत सारी निशानियाँ और स्मृतियाँ मौजूद हैं. नगर का मुख्य व्यवसाय "संगमरमर पत्थर की कलाकृतियां"हैं. इन क़स्बों के अलावा बुर्सा भी महत्वपूर्ण शहर है जो तुर्की के बनारस की तरह मालूम होता है, मरमरा समंदर के किनारे लगे इस शहर में ओटोमन साम्राज्य के काल में बने बड़े-बड़े बाजार और हमाम मौजूद हैं. मुख्य भोजन इस्कंदर कबाब है. इनसे रवानगी के बाद राजधानी अंकारा की ओर प्रस्थान हुआ. दुनिया की हर राजधानी की तरह मशगूल और भीड़ से भरा हुआ शहर. प्रशासनिक कार्यालयों, संस्थानों एवं कुछेक ऐतिहासिक जगह से युक्त अंकारा अपनी पूरी बोरियत के साथ थमता चलता है, खूबसूरत राजधानी होने के सिवा अंकारा बहुत पसंद नहीं आया सिवाय विशाल "अनितकबीर"के जो मुस्तफा कमाल अतातुर्क और तुर्की के दूसरे प्रधानमन्त्री इस्मेत इनोनु का स्मृति स्थल है.

नाश्ता लज़ीज़ चाय बिना दूध की 

तुर्की में खानपान की स्वस्थ परंपरा है. पौष्टिकता एवं लज़्ज़त का अच्छा समन्वय है. जिसमे से कुछ चीज़ें एकदम नियत हैं, मसलन नाश्ता सिर्फ आम नाश्ता नहीं है,.लोग दोपहर में भी नाश्ते के लिए मिलते हैं और शाम को भी नाश्ते के लिए आमंत्रित कर सकते हैं. नाश्ते से मुराद उस ख़ास खाद्य समन्वय की है जो रात्रि भोज से भिन्न है. इससे जुड़ा एक और महत्वपूर्ण नुक़्ता चाय है, चाय के गिलास (चाय बार्दाक) चाय की अन्य पेय पदार्थों से भिन्नता और विशेषता बताते हैं, चाय में दूध का इस्तेमाल कभी नहीं होता. कभी मौलाना रूमी ने भी कहा था, "आओ जानें एक दूसरे को, ये चाय पीने के मानिंद है, आओ चाय साझा करें, आओ जीवन साझा करें"  


तुम्हे शिखर से निहारा अज़ीज़ इस्तांबुल

 45 दिन की इस रोचक यात्रा ने अनुभवों का एक ज़खीरा दिया है, जिसे व्यवस्थित करने के लिए ही एक लम्बा समय चाहिए. हिन्दुस्तान का प्रतिनिधि होने के नाते अजीब लेकिन वाजिब सवालों से कई दफ़ा साबक़ा हुआ. जिसमें मुख्य थे : हिन्दुस्तान की जनसँख्या, हिन्दुस्तान में बलात्कार और हिंदुस्तान में गौपूजा। इन तीनों सवालो का किसी भी भाषा में उत्तर सहज नहीं था . न तुर्की न फ़ारसी न अंग्रेजी और न उर्दू.  कुताहिया, इज़्नीक और अन्य कुछ क़स्बों के बाद अंत के 5 दिन इस्तांबुल में ठहरना हुआ. इस्तांबुल प्रस्थान का बयान बेहद जटिल मालूम होता है. एक पड़ाव पर पहुंच कर ऐसा लगा मानो शायर याह्या कमाल (Yahya Kamal) मेरे अंदर जीवित हो. इस शहर के किनारे थमे एक शिखर पे बैठ अमर वाक्य कह रहे हो "कल मैंने तुम्हे एक शिखर से निहारा अज़ीज़ इस्तांबुल" (Sana dün bir tepeden baktım aziz İstanbul!). रोचक है किन्तु सत्य कि पैगम्बर मुहम्मद साहब की एक हदीस (बुखारी शरीफ) में 1453 में ओटोमन शासक "फतीह"द्वारा इस्तांबुल (तत्कालीन कुंस्तुंतुनिया) फतह की पूर्व बयानी है. जिसमे पैगम्बर साहब फरमाते हैं कि "महान शासक की महान सेना द्वारा एक दिन इस्तांबुल को पूरी तरह फतह कर लिया जाएगा".इस्तांबुल यूरोप एवं एशिया को जोड़ने की ऐतिहासिक भौगोलिक कड़ी है. बॉस्फोरस संधि के एक तरफ एशिया और दूसरी तरफ यूरोप को देखना रोचक अहसास है.

मस्जिदें विशाल क़नात  की तरह 

कई साम्राज्यों एवं सभ्यताओं की राजधानी रहा यह शहर भौगोलिक दृष्टि में बहुत अधिक विस्तृत है. इस्तांबुल में मेरा रहवास 1773 में स्थापित इस्तांबुल टेक्नीकल यूनिवर्सिटी में था, जो यूरोपियन हिस्से में थी. किन्तु वहाँ से एशिया महाद्वीप की दूरी मात्र आधा घंटे की थी. पानी के जहाज से उसकूदार (एक लोकगीत भी है, उसकूदारा जाते वक़्त भीग गए हम सावन में, üsküdara gider iken aldıda bir yağmur ) और बुयुकअदा (विशाल घाट) की यात्रा लगभग २ घंटे की थी, जिसके रास्ते में एशिया यूरोप को जोड़ने वाले २ सेतु भी देखे. एशिया में समंदर किनारे स्थित ऐतिहासिक हैदरपाशा रेलवे स्टेशन भी, जहां से कभी इराक़, ईरान और जर्मनी तक के लिए ट्रेनें चला करती थीं। इस्तांबुल से इतना दूर भी पीछे मुड़कर हदे-निगाह तक इस्तांबुल शहर ही नज़र आता रहा. बायज़ेन्टियम एवं ओटोमन वास्तुकला पर आधारित मस्जिदें विशाल क़नात  की तरह पूरे शहर में मौजूद हैं. एक महत्वपूर्ण मस्जिद (अब म्यूज़ियम) अयासोफ्या ( हगिअसोफ़िया) है, जो रोमन राजा कोंस्तान्तीन ने बनाई थी, रोमन काल में ये चर्च था, कालांतर में मस्जिद और अब म्यूज़ियम है. अंदर दोनों साम्राज्यों के अवशेष मौजूद हैं जो ऐतिहासिक विरासत के प्रति एक सहिष्णु दृष्टि का बोध कराते हैं.

विश्व मुल्क़ होता तो राजधानी इस्तांबुल

इस्तांबुल कई बड़े लेखकों की जन्मभूमि कर्मभूमि रही है. बहुत कम शहरों में यह हैसियत होती है कि वे अपने समूचे इतिहास को ज़िंदा रखें, ऐसे शहरों में पेरिस आदि भी शामिल हैं. इस्तांबुल में घूमने के लिए बहुत स्थान हैं. 5 दिनों में उन महत्वपूर्ण स्थानों से वाक़िफ़ भी हुआ गया जिसकी तफ़्सीर बड़ी लम्बी है. हिस्टोरिकल फिक्शन लेखक अहमत उम्मीत अपनी कई पुस्तकें इस्तांबुल को समर्पित कर चुके हैं, तानपीनार अपनी क्लासिक किताब "बेश शेहिर" (पांच शहर) में तुर्की के पांच महत्वपूर्ण शहरों का ज़िक्र करते हैं. जिसमे अंकारा, एर्ज़ुरुम, बुर्सा, कोन्या और इस्तांबुल शामिल हैं. ओरहन पामुक ने इस्तांबुल पर "इस्तांबुल शहर और स्मृतियाँ"नामक किताब लिखी है. 2013-14 में इस्तांबुल के गेज़ी पार्क (तकसीम चौक के नज़दीक) घटे आंदोलन ने इस्तांबुल के रहवासियों की राजनीतिक चेतना का भी परिचय दिया कि आंदोलन सिर्फ राजधानियों (अंकारा) में नहीं होते। इस आंदोलन में युगोस्लावियन दार्शनिक स्लावोज ज़िज़ेक ने भी हिस्सा लिया. पता नहीं किसका शायद नेपोलियन का लेकिन बड़ा प्रासंगिक मालूम पड़ता है ये कथन कभी कभी कि "यह विश्व यदि एक मुल्क़ होता तो इसकी राजधानी निश्चित ही इस्तांबुल होता" (Dünya tek bir ülke olsaydı başkent istanbul olurdu) .
.

(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 1991 में मध्य प्रदेश के शहर जबलपुर में।
शिक्षा: स्नातक जबलपुर से
सृजन: कविताएं इधर-उधर प्रकाशित 
संप्रति: जामिया मिल्लिया इस्लामिया नयी दिल्ली में तुर्की भाषा एवं साहित्य में अध्यनरत।
अन्य: जबलपुर में रंगमंच में कुछ समय सक्रिय, तकनीकी भाषा विज्ञान, भाषा सम्बन्धी समकालीन मुबाहिसों, इस्लाम और इतिहास अध्ययन में रुचि.विश्व युवा उत्सव (WFYS) के तहत 2010 में जोहान्सबर्ग, दक्षिण अफ्रीका शिरकत। गत मास युनुस एमरे संस्थान अंकारा (तुर्की) की तरफ से आयोजित कार्यक्रम में 45 दिन की शिरकत।
संपर्क: kaushiknishant2@gmail.com )              

16 मई के बाद

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दो कविता अगस्त की 

फोटो: स्व. विजय गुप्ता


 










शहरोज़की क़लम से

आफ़त कभी आती थी
हमने इतना विकास कर लिया कि
आफ़त जब चाहा, जहाँ चाहा उंडेल दी जाती है
बवंडर बवा भी कर ली जाती है निमंत्रित।

आपके और  आपके परिवार की रातों रात
बनाई जा सकती है वंशावली
बदल दी जा सकती  पहचान।

दुःख और पीड़ा ने भी
बदल लिया है अपना धर्म।
जाति और संप्रदाय भी
सुविधानुसार कर सकता है तब्दील।

मेरी त्रासदी जैसे आपकी ख़ुशी का बायस हो सकती है
आपका दर्द मेरे हर्ष का कारण।

नर्क और जहन्नुम से मुक्ति के अपने-अपने हैं यत्न
जन्नत की ख़रीद क़त्ल और ग़ारत के बाज़ारों में होती है।

2.

तुम हँसते-हँसते चुप हो जाते हो
तुम कहते-कहते गुम हो जाते हो
तुम खेलते-खेलते लड़ पड़ते हो

दरअसल यह तुम भी नहीं जानते
ऐसा अचानक क्यों करते हो
क्या हो जाता है तुम्हें
कि एक थाली में कौर निगलते हुए
तुम्हें खाने से मांस की गंध आने लगती है
कि अच्छा सा शेर सुनाते हुए
मेरी प्रेमिका का तुम्हें धर्म याद आ जाता है
कि कभी मध्य प्रांत की राजधानी रहा शहर
तुम्हें देश की राजधानी लगने लगता है.

कि अचानक तुम्हें ध्यान आता है
पंद्रह अगस्त पर किसी मदरसे पर फहराते तिरंगे की
फेसबुक पर शेयर तस्वीर के नीचे मैंने वंदे मातरम् लिखा या नहीं
जबकि तुम अपनी उस राजधानी के मुख्यालय पर तिरंगे का फोटो
कभी लगा नहीं पाये।
लगा भी नहीं सकोगे(क्योंकि मुख्यालय एक रंगा है )।
पर यह तुम्हारी पीड़ा नहीं बन सका.

हालांकि इससे कोई अब फ़र्क़ नहीं पड़ता
पर भरे दफ़्तर में मुख्यालय का सदस्य
होने की सगर्व घोषणा करते
तुम मेरे चेहरे के भय को अनदेखा कर जाते हो.
दरअसल हम सभी शोक मुद्रा में हैं
लेकिन तुम क्षणिक आवेश में उत्साह समझने की भूल कर जाते हो.
हर्ष और विषाद की लहर में डूबते-उतरते हुए

अब सभी रास्ते एक ओर जाते हैं
कहने का ढोंग हमें तुरंत बंद कर देना चाहिए।
वरना हर्ष और विषाद की परिभाषा बदलनी होगी
अब हमें पहनावे भी बदल देने चाहिए
और बढ़ा लेने चाहिए अपने-अपने केश
परंपरागत धार्मिक बुर्जों पर चढ़ने का यही अंतिम उपाय है

आओ लौट चलें आदिम कंदराओं में
तेज़ कर अपनी-अपनी धार

रूहें गर हों, तो लौटेंगी फीनिक्स की तरह
प्रेम और स्नेह बनकर




हौसला फिर से कश्मीर को बना रहा जन्नत

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 फोटो रमीज़


श्रीनगर से सैयद शहरोज़ क़मर

लाल चौक धूप में भले चटक रहा हो, लेकिन फुटपाथ पर दुकानों से सामान निकालकर बेचने वालों और खरीदारों के चेहरे से रौनक गायब है. जबकि नाम के अनुरूप ही श्रीनगर के इस दिल की लालिमा निशात बाग़ की तरह ही खुश बाग़ हुआ करती थी. जबकि डेढ़ माह पहले समूचा शहर ही डल झील हो चुका था। डल पर बसी चालीस हजार आबादी अपने चौदह हजार शिकारे के साथ नहर बनी सड़कों पर आ चुकी थी। इनके साथ ही मुन्ना भाई, वसीम, करतार और उमर जैसे युवाओं की टोलियां। इन सबने हौसले की कश्ती से लाखों लोगों की जानें बचाईं। वहीं लतीफ खान जैसों ने अपने होटल में लंगर खोल दिया।
यह 7 सितम्बर की बात है. फ़िज़ा में शोर व खौफ था. बीस से चौबीस फ़ीट पानी में डूबे घरों से निकलने की हड़बड़ाहट का प्रवाह झेलम से भी तेज़ था. मजहूर नगर के गगन दीप कोहली सुबह जल्दी उठ गए थे। उन्हें गुरुद्वारा में अरदास के बाद लाल चौक अपनी जूतों की दूकान खोलनी थी. लेकिन खिड़की से झाँका तो उनके पैरों तले ज़मीन न थी. बस था पानी-पानी। बाहर शिकारे लिए मोहल्ले के युवा। गगन ने माँ, पत्नी और दो बच्चे को लिया और उस पर बैठ गये. लेकिन कुछ दूर पर ही नाव पलट गयी. सभी सवार को बचा तो लिया गया. पर गगन को ही धरती ने समो लिया। लाल चौक स्थित कोहली एंड संस धन तेरस पर खुली है। इसे संभाल रही हैं, अरविंदर कौर और जिंदर। इनकी आंखों में रह -रह कर सैलाब उमड़ पड़ता है।  गगन दीप कोहली का शोक इन महिलाओं के चेहरों पर अयां है। मां जिंदर तो कभी-कभार पहले भी दुकान आ जाया करती रही हैं। पर गगन की पत्नी अरविंदर पहली बार साहस बटोर रही हैं। दुकान के सारे जूते-चप्पल पानी में होम हुए। गगन के भाई दिल्ली से नया माल लेकर आए। वहीं हिम्मत ने शोक को हवा किया। 















इधर, जम्मू एंड कश्मीर बैंक की कार्गो शाखा दफ्तर पहुंची काशिफा नज़ीर की उंगलियां की-पेड पर कांपती हैं, लेकिन यह कंपन 7 सितंबर से काफी कम है, लेकिन उनकी आँखों में उतरी झेलम डेढ़ माह पहले ठहरी। उसका असर उनके गालों पर ज़र्द हुआ जाता है. उनकी ललाट पर खिल-खिलाती उनकी बच्चियां। जल-प्रलय की चपेट में आया रविवार का दिन था. काशिफा आसिफ सरवाल ने बच्चों के साथ चश्म शाही जाने का इरादा किया था. लेकिन वे कुछ समझ और संभल पाते कि इससे पहले अचानक ही राज बाग़ जैसे उनके इलाक़े में चारों तरफ तबाही फैल चुकी थी.

उनके घर के पास भी लोग शिकारे लेकर पहुंचे। आसिफ ने उस पर काशिफा के साथ तीन छोटी बच्चियों और माँ हाजरा बेगम को बैठा दिया। पर कुछ देर बाद यह नाव भी पानी का वेग न संभाल सकी। दादी की गोद में सात माह की राहत, तो काशिफा ने ढाई साल की सर्वत का हाथ थामा। बड़ी बिटिया तरावत खुद पानी में. इधर, आसिफ जब कुछ देर बाद दूसरी नाव से सुरक्षित जगह पहुंचे तो पत्नी, माँ और बच्चियों को न पाकर बेचैन हो गए. घंटे भर बाद भी जब उनका पता न चला तो उनकी बेज़ारी बढ़ गयी. काशिफ़ा जब तरावत के साथ पहुंची तो लिपट कर सुबकने लगी. दूध मुँही बच्ची समेत सर्वत और माँ के डूबने की खबर ने आसिफ को चिनार के पत्तों की तरह बिखेर दिया.    


लेकिन कहते हैं कि तमसो मा ज्योतिर्गमय। आसिफ हो काशिफ़ा, अरविंदर हों राजिंदर या राजा खान के परिजन। और ऐसे ढेरों लोग जिनके घरों के चिराग हमेश के लिए बुझ गए। लेकिन अब इन्होने बिखरे तिनकों को इकठ्ठा कर ज़िन्दगी को नयी रौशनी दी है। बक़ौल कश्मीरी कवि लल दह आमे पन रस नाए छस लमान कच्चे धागे की मदद से काशिफा, आरिफा, मदीहा और गुरप्रीत अपनी किश्ती को खींच रही हैं। मदीहा एनआईटी से मेकेनिकल इंजीनियरिंग कर रही हैं। उनका घर पूरी तरह तबाह हो गया। मामू के घर से फिलहाल इंस्टीच्यूट आना-जाना करती हैं। शीतरा शाही का गुरप्रीत का घर भी कहां रहा। दीवारों के साथ उस ऑटो को भी तो गिरी छत ने लील लिया, जिसे उनके पति कँवल नैन सिंह चलते थे। भास्कर टीम जब पहुंची तो पूरा परिवार घरों के बिखरे तिनकों को इकट्ठा कर रहा था। उनकी बेटी सिमरन का आत्मविश्वास बोलता है, रब्बा ने दर्द दिया वही दवा देगा। अब ज़िन्दगी है. यही हौसला मुन्ना भाई में नज़र आया। मलवे में दबी दुकानों से किसी तरह सामान निकाल कर धोने और चमकाने में लगे हैं। उनका जज़्बे का तेज शहीद गंज पुलिया पर दौड़ती ज़िन्दगी में भी अकार पाता है। झेलम की नहर पर बनी इस पुलिया ने भी तो साथ छोड़ दिया था। पर लोगों ने आपसी मदद से उसे बना डाला, न वक़्त रुकता है , न ही हवा-बवंडर लेकिन इंसानी हिम्मत चिर युवा होती है। इसका एहसास जवाहर श्रीनगर से अनंत नाग तक दिखा। फ़िदा हुसैन के तीन भाई हैं, सभी ने साथ-साथ एक जगह आशियाने बनाये। पर अब बचा है तो सिर्फ ईंट और गारे का ढेर। फ़िदा जब बिना यूनिफार्म के अपनी बेटियों को स्कूल छोड़ने के लिए निकले तो उनकी माँ की आँखें से चश्मा (झरना) तारी हो गया, जिसे उनका चश्मा (ऐनक ) न छुपा सका। सारे कपड़ों और सामानों के साथ यूनिफार्म और किताबें भी तो नष्ट हो गयीं। लेकिन उड़ान निसंदेह हौसले में होती है, यही हौसला कश्मीर को फिर से जन्नत बना रहा है।  


फोटो रमीज़     



भास्कर के कई संस्करणों में 26 अक्टूबर 2014 के अंक में प्रकाशित

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बिक रही है देशभक्ति

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 छह छोटे क़िस्से व्यंग्य और मर्म के














 विभांशु दिव्यालकी क़लम से



1.
सेठ खोखामल अपनी धर्म की दुकान पर मस्जिद मंथन से उत्पन्न हुए हिंदुत्व के अमृत को बेचकर बच्चे-बच्चे को राम बनाने लगे, माताएं खिलौनों की दुकान पर न जाकर सेठ जी की दुकान पर आने लगीं. बच्चों के लिए हेलीकाप्टर और बंदूकों की जगह पुष्पक विमान और तीर-धनुष खरीदने लगीं, पुरुषों ने कपड़ों की दुकान पर जाना छोड़ दिया, अब वो सेठ जी की दुकान से रामनामी कपड़े खरीदने लगे, सेठ जी ने भक्ति का नया ट्रेंड देखते हुए लगे हाथ मंदिर निर्माण में सहयोग देने के लिए दुकान के बाहर एक दान पेटी भी लगवा दी, मंदिर तो बना नहीं लेकिन सेठ खोखामल के घर को लक्ष्मी जी ने अपना निवास बना लिया.
सब कुछ ठीक चल रहा था, देश राम राम जप रहा था, इसी बीच देश के एक कोने से साईं राम साईं राम की धुन सुनाई देने लगी, दिन भर भगवान की मूर्तियों की शरण में रहते-रहते सेठ जी को भगवान की आगामी योजनाओं का आभास होने लगा था. सेठ खोखमाल ने भक्ति के नए ट्रेंड की धुन से अपनी धुन मिलाई और दुकान के मंदिर से राम जी की मूर्ती हटाकर साईं राम जी की प्राण-प्रतिष्ठा कर दी,. अगरबत्ती साईं राम जी के नाम की जलाते और मंत्र लक्ष्मी जी का पढ़ते, भक्ति के नए ट्रेंड ने अपना चमत्कार दिखाया. अब बच्चा-बच्चा साईं राम होने लगा. गली-गली में साईं राम की प्रतिष्ठा होने लगी. कॉलोनी-कॉलोनी धर्म की दुकानें खुलने लगीं, चौदह वर्ष तक वनवास झेलने वाले राम जी अब अनिश्चितकालीन वनवास पर भेज दिए गए.
अब जमाना भी आधुनिक हो चला था, रियल स्टेट के कारोबारी मंदिर निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रख चुके थे, टीवी पर स्वर्ग का रास्ता और ऑनलाइन दर्शन पूजन की सुविधा उपलब्ध हो जाने से सेठ खोखामल की धर्म की दुकान पर ग्राहक भक्तों की संख्या घट गई थी. देश आर्थिक मंदी से जूझ रहा था और सेठ जी आर्थिक तंगी से, सेठ जी ने भक्ति का नया ट्रेंड पता करने के लिए जमाने की चाल से अपने कदम मिलाये और इंटरनेट की शरण में गए, तिरुपति बालाजी के ऑनलाइन अकाउंट में चढ़ावा चढ़ाया, दुकान के मंदिर में साईं राम जी की जगह बालाजी की प्राण प्रतिष्ठा की, दुकान के ऊपर नया बोर्ड लगवाया, बोर्ड पर लिखा था- ज्योतिषाचार्य बाबा जगरोपन दास द्वारा प्रमाणित, घर के दक्षिण कोने में प्राण प्रतिष्ठा करें और दक्षिण दिशा में किये गए सभी पापों से मुक्ति पाएं.... सेठ जी की दुकान पर पाप को पुण्य में बदलने वाली मूरत खरीदने वालों की लाइनलगने लगी, देश आर्थिक मंदी से उबर चुका था और सेठ खोखामल आर्थिक तंगी से.


2.
 मंदिर का वार्षिक श्रृंगार था,  इस वर्ष भी इलाके के गणमान्य लोगों को निमंत्रण पत्र भेजे गए. कुल मिलाकर पंद्रह सौ लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था की गई..बिना निमंत्रण वालों को मंदिर में हो रहे भजन-कीर्तन तक ही सिमित रखा गया था, भगवान के सामने हाथ जोड़ने के बाद प्रसाद के रूप में गेंहू के आटे से बना चूरन देकर व्यवस्था में लगे सेवक सबको दरवाजे तक छोड़ आते...निमंत्रण कार्ड वाले गणमान्य लोग आते, मालिक के पास बैठते. हजार दस हजार का चंदा पकड़ाते और हाथ जोड़कर विदा मांगते. कुछ गणमान्य लोगों को अगले निमंत्रण में भी जाना था.. भूखे पेट भजन कीर्तन करने के बाद एक बच्चे को खाने की खुशबू ने पागल बना दिया. बच्चा गणमान्य लोगों की भीड़ में घुस गया, थोड़ी ही देर में उसकी कमर पर एक सेवक की जोरदार लात पड़ी. कमर पर मिले एक नए दर्द ने पेट में लगी आग के दर्द पर मरहम का काम किया, भगवान की जय जयकार के बीच अपनी सिसकियां दबाये वो बच्चा मंदिर के पीछे निढाल पड़ गया..सुबह हुई, मंदिर की रसोई साफ़ करने के लिए मजदूर खोजा जाने लगा, तभी एक सेवक मंदिर के पीछे से आंख मलते बच्चे को पकड़ लाया, पचास रूपये मजदूरी तय हुई, लगभग चार सौ लोगों का खाना बच गया था, खाने के बदले जोरदार लात खाने वाला बच्चा अब वही खाना फेंक रहा था, जिसमें वो दो तीन रोटियां भी थीं जितने में उसकी भूख मिट जाती.

3.
आज सजीले को अभिनय करना था, गांव की कुटी जहां बारात घर भी बना हुआ था, वहां जनता  की अदालत में उनको एक आरोपी का किरदार अदा करना था, उस किरदार ने गुप्ता और तोदी एक साथ लिख दिया था, वरिष्ठ अधिवक्ता नवानी की याचिका को संज्ञान में लेते हुए अदालत ने अभिव्यक्ति की आज़ादी रोकने के लिए बनाये गए कानून को तोड़ने के आरोप में किरदार को गिरफ्तार कर अदालत में पेश करने का आदेश दिया था कुटी पर पहुंचने के बाद सजीले के साथ उनके अन्य दोस्तों ने अपने अपने किरदार के लिए निर्धारित स्थान ग्रहण किया, वरिष्ठ अधिवक्ता नवानी  ने अपनी तरफ से अपने जूनियर को इस केस का वकील नियुक्त किया, आरोपी बने सजीले को अपनी पैरवी खुद करनी थी, गीता ब्रांड की ईंट पर हाथ रखकर सच बोलने की कसम खाकर सजीले ने जूनियर से जिरह शुरू की- हमने किस गुप्ता या तोदी का नाम लिखा, हरेंद्र गुप्ता कामनाथ गुप्ता या सुकेश तोदी सुनील तोदी, ना किसी गुप्ता जी को बुरा लगा ना किसी तोदी जी को, गुप्ता और तोदी में आप इतनी रुचि क्यूं ले रहे हैं, इतनी रुचि दलितों को कहे जाने वाले चमार शब्द में क्यूं नहीं लेते अपने किरदार में उतर रहे सजीले की बात बीच में काटते हुए जूनियर चीख पड़े- आई ऑब्जेक्ट योर ऑनर, ये इधर-उधर की बातों में अदालत का समय नष्ट कर रहे हैं, इनको पता होना चाहिए कि अदालत में कानून की डिग्री चलती है… बातों की नहीं, ये केस शीशे की तरह साफ़ है मी लार्ड, मैं अदालत से दरख्वास्त करूंगा कि इस केस का फैसला आज ही सुनाया जाए.
 जूनियर की कानूनी भाषा सुनने के बाद जज साहब ने सजीले को फटकार लगाई और कानूनी भाषा में बात करने को कहा, सजीले अब पूरी तरह किरदार में डूब चुके थे, उन्होंने फिर बोलना शुरू किया- वकील साहब अदालत में केस का फैसला होता है, सच या झूठ का नहीं, यहां सिर्फ केस हारे या जीते जाते हैं, सत्य को जीत हासिल करने के लिए कानून की किताबों के सहारे की जरूरत नहीं, हम कैसे मान लें कि एक स्त्री के सर पर हाथ रख कर सभी लोग सच ही बोलते हैं, वही स्त्री है ये न्याय की देवी वाली मूर्ति, जिनकी आंखों पर काली पट्टी भी बांधी गई है, इन्हें तो आज तक इस अदालत ने बैठकर सांस लेने की इजाजत नहीं दी, अब इनकी जगह न्याय के देवता की मूर्ति खड़ी की जाए....आंखों पर पट्टी बांधकर और स्त्री के नाम की जगह पुरुष के नाम पर हाथ रख कर कसम दिलाई जाए सजीले की बातों को अदालत की तौहीन करार देते हुए जज साहब ने अपना फैसला सुनाया, पुलिस का किरदार निभा रहे सजीले के दोस्त गमछे से बनी हथकड़ी सजीले के हाथों में पहना देते हैं, सजीले अपना बिगुल बजाते हुए बारात घर के एक कमरे में बनी जेल की तरफ बढ़ते हैं.

4.
अंग्रेजों के ज़माने के जमींदार थे, आजादी के बाद जमीनें सरकार ने ले लीं, लेकिन मूंछों का ताव अब भी बरकरार था. घर की शान ओ शौकत और मूंछों की इज्जत बरकरार रखने के लिए बची जमीनें बेच-बेचकर शाही शादियों और भव्य ब्राह्मण भोजों का आयोजन करते रहे. बेटे बड़े हुए, ठसक जमींदार पिता वाली ही थी, इसीलिए पढ़ाई बीच में ही छोड़ ठेकेदारी करने लगे. घर की दहलीज से विद्या कोसों दूर थीं लेकिन अब घर में पूंजी का प्रवाह होने लगा, एक पीढ़ी और बदली, शान ओ शौकत छोड़ उच्च शिक्षा की तलाश में 'बड़े घर'की दहलीज के बाहर कदम पड़ने लगी. कभी खेतों में मजदूरों को हांक देने वाले और गांव की अदालत में मुखिया बनने वाले जमींदार साहब के अंदर का रौब मूंछ के झड़ते बालों के साथ कम होता जा रहा था. बदलते जमाने के साथ बदलती सोच ने जमींदार साहब को समझौते करने पर मजबूर कर दिया.  दो पीढ़ियों के बीच समय की मार से इकलौती बची बेटी को भी शहर जाकर पढ़ने की इजाजत मिल गई. इसके पहले 'बड़े घर'की बेटी के कदम जब भी चौखट के बाहर पड़े वो डोली में बैठकर ससुराल ही गई थी. स्टेशन पर अपनी पौत्री को ट्रेन में
बिठाने के बाद जमीदार साहब तेजी से बूढ़े होने लगे.दिन रात पौत्री की चिंता में डूबे रहते.... समय गुजरता रहा, भाप के रेल इंजनों की जगह डीजल के रेल इंजनों ने ले ली. पौत्री की रोज कॉलेज तक की भाग दौड़ अब नौकरी के लिए की जाने वाली भागदौड़ बन गई थी. शहर में उसके सुख दुःख का भागी बनने वाला एक लड़का भी अपने पैरों पर खड़े होने के लिए जी जान लगाकर जुटा हुआ था. 
एक-एक कर दोनों को नौकरी मिलती है. लड़की घर जाने की तैयारी करती है. अपने दादा को 'एक और'ख़ुशखबरी देने की हड़बड़ी में उसे सूझ ही नहीं रहा था कि वो क्या पहने, बिखरे बालों के साथ ही वह घर की ट्रेन पकड़ती है. उधर स्टेशन पर अपनी पौत्री को लेने आये दादा जी राहत की सांस ले रहे हैं. लड़की की शादी अब ऊंचे खानदान में होगी ये सोचकर अपनी मूंछों को ताव देते हैं. लड़की दादा जी के साथ घर जाती है. रास्ते में अपने उस एक साधारण घर के साथी लड़के के बारे में बताती है जिसने शहर में लड़की को उसके घर वालों की कमी महसूस नहीं होने दी थी, उस लड़के के बारे में जानकर दादा जी बेचैन हो उठे. लेकिन लड़की की हिम्मत के आगे उनकी बेचैनी मन में ही दबी रही. दादा जी ने अपने पुत्रों से सलाह मशविरा करने के बाद शादी की रजामंदी दे दी. वर्षों पहले समय की मार को मात देकर 'बड़े घर'में जिस लड़की की किलकारी गूंजी थी, आज फिर वही लड़की चहक रही थी. मेहंदी लगे हाथ और आईने में खुद को निहारती आंखों में एक आजाद दुनिया के सपने तैर रहे थे. लड़के के घर वाले आज लड़की देखने की रस्म निभाने आ रहे थे. 
मूछों के सफ़ेद बाल काले कराकर दादा जी भी आज सज धज कर तैयार थे. साल दर साल मौसम और वक्त की मार सहते-सहते जर्जर हो आया 'बड़ा घर'आज सजा धजा हुआ था. बड़े घर की कई दीवारें अचानक ही गिरी थीं. आज फिर अचानक एक हादसा हुआ, लड़की ने छत से कूदकर अपनी जान दे दी.  शुभ घड़ी में हुए इस अमंगल की सूचना पाकर पूरा गांव जमींदार साहब के दरवाजे पर जुट गया. सबकी जबान पर यही बात थी- लगता है लड़की की शादी जबरदस्ती की जा रही थी, इसीलिए उसने अपनी जान दे दी. तिरछी नज़रों से लोग एक मंजिला बड़े घर की बारह पंद्रह फ़ीट ऊंची उस छत को देख रहे थे जहां से गिरकर बचपन में जमींदार साहब के लड़के का हाथ टूटा था, आज उसी छत से गिरकर एक लड़की की जान चली गई. जमींदार साहब ने खुद को कमरे में बंद कर लिया था, आदमकद आईने के सामने कुर्सी पर बैठे हुए थे, आईने में उनकी बूढ़ी मूंछों पर जवानी वाला ताव और चेहरे पर मजदूरों को हांकने वाला रौब नजर आ रहा था.

5.
आजादी की दुकान सज गई है, देशभक्ति बिक रही है, प्लास्टिक के झंडों वाली देशभक्ति पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है, देशभक्ति अब खादी के कपड़ों में बिक रही है, सूरज ढलने के बाद सरकारी देशभक्ति उतार दी गई है, संसद और अदालत की देशभक्ति हवा के अभाव में शांत हैं, दुकानों पर चौबीस घंटे देशभक्ति फहरा रही है, दसों दिशाओं से हवा चल रही है, देशभक्ति भी दसों दिशाओं में खड़ी है, किसी का सर हिमालय की चोटियों की तरह तना हुआ है, किसी का सर नीचे बह रही नाली के मुंह में जाने को है, उसी नाली में एक कुत्ता सोया हुआ है, अचानक वो उठता है, अपनी नींद की खुमारी दूर करता है, अपना शरीर भूकंप में कांप रही बहुमंजिली इमारत ही तरह हिलाता है, फिर अपनी पूंछ का कीचड़ साफ़ करता है, तभी नाली के मुंह के पास खड़ी देशभक्ति के दामन में कीचड लग जाता है, दुकानदार को कुत्ते की हरकत पर गुस्सा आता है, देशभक्ति के डंडे से कुत्ते को उसके किये की सजा देता है, अब ये देशभक्ति नहीं बिकेगी ये बुद-बुदाता है, देशभक्ति का गोला बनाता है, उसे शैंपू वाले पानी में भिगोता है, अपनी कमाई की पेटी पर जमी धूल साफ़ करने लगता है, दूर खड़ा कुत्ता ये दृश्य देखकर भौं भौं करता है. संविधान के सभी अधिनियम ख़त्म हो गए हैं, अदालतों की शान में गुस्ताखी हो रही है, सब खामोश खड़े हैं हाथ पीछे बांधे, दुकान का बोलबाला है आजादी की दुकान सज गई है, देशभक्ति बिक रही है.

6.
उसका जन्म हुआ, थोड़ी ख़ुशी थोड़े गम के बीच उसका नामकरण हुआ, घर परिवार के लोग और उसे देखने आने वाले नाते- रिश्तेदार प्यार से उसके गालों को सहलाते. समय गुजरता गया और वो बड़ी होती गई. अब वो अपने पैरों पर चलने लगी थी और स्पर्श में छुपे भावों को भी समझने लगे थी. सात-आठ साल की हुई तो बचपन में उसके गालों को सहलाने वाला एक रिश्तेदार उसके उन अंगों को सहलाने लगा जो छुपाये जाते हैं.
बारह-पंद्रह साल की हुई. एक रात सबके सोने के बाद उसे शौच जाना पड़ा, हाथ में टॉर्च लिए खेतों की तरफ गई. टॉर्च की रोशनी देख आकर्षित होने वाले कीट पतंगों की तरह उसके गांव के दो चार पुरुष भी उसके पीछे लग गए. उनसे बचने के लिए वो कई घण्टे चारे की फसल में छुपी रही, घर में किसी की नींद नहीं टूटी. चारे की फसल में छुपी उस लड़की की उम्मीद हर पल टूट रही थी. घण्टों तक खेत को अपने आंसुओं से सींचने के बाद हिचकियों के साथ वह घर लौटी. अपनी आबरू बचाकर बिस्तर पर पड़े-पड़े अपना दुपट्टा मुंह में डाले रात भर वो सिसकती रही. नींद तब भी किसी की नहीं टूटी और बड़ी हुई, स्कूल के दिन ख़त्म हुए और कॉलेज जाने के दिन आ गए, घर से कॉलेज जाने के लिए बस का सहारा था.
एक दिन बस स्टैंड पर उसे लघु शंका महसूस हुई, हर तरफ देखने के बाद ऐसी कोई जगह नहीं नजर आई जहां किसी की नजर ना पहुंचे, एक बस के पीछे खड़े होकर वो इस उम्मीद से सबकी तरफ देखती रही कि शायद लोग अपनी नजर दूसरी तरफ कर लें. दूसरों से लगी उसकी उम्मीद टूटती रही और अपना सर नीचे किये वो लघु शंका करती रही. जमीन पर पड़ती मूत्र की हर बूंद के साथ वह शर्म के मारे जमीन में धंसती जा रही थी. कॉलेज के दिन ख़त्म हुए, दूसरे शहर में नौकरी मिली. उस शहर जाने के लिए ट्रेन का सहारा था. स्टेशन पहुंची और प्लेटफॉर्म पर बैठी. सामने वाले प्लेटफॉर्म पर एक युवक को लघु शंका महसूस हुई, उसकी लघु शंका में कोई शर्म नहीं थी.  लड़की के सामने ही उसने अपनी जिप खोली और रेलवे लाइन पर पड़े मल को अपने मूत्र से धोने लगा, लड़की ने दोनों घुटनों के बीच अपना सर छुपाया और फिर से प्लेटफॉर्म के पक्के फर्श में धंसती गई. लड़की द्वारा अनदेखा किये जाने के बाद युवक के पैंट की जिप भी बंद हो गई. इतना कुछ हुआ लेकिन ये बलात्कार की श्रेणी में नहीं आया.

 वो दिन भी आया जब उस लड़की का बलात्कार हुआ, लोग उबल पड़े. दुष्कर्मियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के लिए धरने-प्रदर्शन शुरू हो गए. लड़की के साथ हुए बलात्कार से अत्यधिक उद्वेलित लोगों ने अब तक खामोश रहे लोगों के खून में उबाल लाने के लिए लड़की की फोटो के साथ धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया. उनकी मेहनत रंग लाई, दोषियों को सजा हुई, अब लड़की घर वापस आ गई, घर में ही पड़ी रहती, उसकी फोटो ने उसे पूरे देश में चर्चित बना दिया था, सभी पहचानने लगे थे उसे, अब उसके नाम से उसकी पहचान नहीं होती थी. लोग कहते यही वो लड़की है जिसके साथ पांच ने बलात्कार किया था, बलात्कार में निकले खून के छींटे उसके दामन पर हर तरफ पड़े थे. खून के उन लाल धब्बों ने उसके हाथ भी पीले नहीं होने दिए, अब तक सब कुछ ख़ामोशी से सहती आई उस लड़की ने खामोशी से ही एक दिन मौत को गले लगा लिया, उसके मरने के बाद कुछ लोग उसे गले लगाकर रो रहे थे तो कुछ लोग कह रहे थे कि अच्छा ही हुआ, कौन इसे अपना जीवनसाथी बनाता.

(रचनाकार-परिचय
जन्म: 20 अगस्त 1984 को छितौना-वाराणसी, उत्तर प्रदेश में
शिक्षा: स्नातक (पत्रकारिता)
सृजन: स्वतंत्र लेखन
संप्रति: मुक्त श्रमिक
संपर्क: vibhanshu.kvp@gmail.com)

 

महिला का दलित और दमित होना

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कोई इक शमा तो जलाओ यारो!

 
 










फ़रहाना रियाज़की क़लम से


नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा था, ‘तुम मुझे एक योग्य माता दो, मैं तुमको एक योग्य राष्ट्र दूंगा.'  किसी भी समाज का स्वरूप वहां महिलाओं की स्थिति  पर निर्भर करता है,  अगर उसकी  स्थिति मज़बूत  और सम्मानजनक है,  तो समाज भी स्वाभिमानी  होगा. अगर हम इस बात को भारतीय संदर्भ में देखें, तो मालूम होगा कि आज़ादी के बाद शहरी और सवर्ण महिलाओं की  स्थिति में तो सुधार हुआ है , लेकिन पिछड़े ग्रामीण इलाकों की और दलित महिलाओं की  स्थिति क्या है ? इस बात का अंदाज़ा हम राजस्थान में दलित महिला भंवरी देवी के साथ हुई घटना से लगा सकते हैं. 22 दिसम्बर 1992 को राजस्थान की दलित महिला भंवरी देवी का सामूहिक बलात्कार हुआ था. लेकिन इनके द्वारा पुलिस में अपनी शिकायत व्यक्त करने के बावजूद पुलिस ने F.I.R. दर्ज करने से इनकार कर दिया.
इस मामले में हाई कोर्ट की भूमिका भी बहुत शर्मनाक रही,  जिसने अपने आदेश में कहा था:  ‘जब कोई सवर्ण व्यक्ति दलित को छू नहीं सकता, तो भला वह दलित महिला के साथ बलात्कार कैसे कर सकता है .’ यह तो एक बानगी भर है. आज आज़ादी के छः दशक बाद भी दलित महिलों को हिंसा,  भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है .
2011 के जनसंख्या  आंकड़ों के मुताबिक भारत की 1.2 बिलियन आबादी का क़रीब 17.5 फीसदी अथवा 210 मिलियन लोग दलित हैं.  ग़रीब, दलित,  महिला ये तीनों फैक्टर इनके शोषण में मुख्य भूमिका निभाते हैं. दुर्व्यवहार की शिकार सबसे ज़्यादा दलित महिलाएं होती हैं. इनके साथ सामाजिक  स्थिति की वजह से भेदभाव किया जाता है. आए दिन दलित  महिलाओं पर सवर्ण समाज द्वारा ज़ुल्म ढाने की घटनाएँ सामने आती रहती हैं.
 2006 के एक अध्ययन के तहत जिन 500 दलित महिलाओं का साक्षात्कार किया गया. उनमें से 116 ने दावा किया कि उनका एक अथवा ज़्यादा पुरुषों ने बलात्कार किया , जिनमें ज़्यादातर ज़मींदार , उन्हें काम देने वाले उच्च जाति के लोग थे.
दलित महिलाओं को प्रताड़ित करने वाले मामलों में सिर्फ 1 फीसद अपराधियों को ही अदालत सजा सुनाती है. अदालत में अपराधियों  को सज़ा से मुक्त करना भी एक बडी समस्या है, जो दलित महिलाओं को बहुत सालती है. जब भी किसी  पीड़ित महिला ने  ज़ुल्म का विरोध किया है,  तो इन्हें जिंदा जला डालने, कभी निर्वस्त्र कर गाँव में घुमाने , उनके परिजनों को बंधक बनाने और मल खिलाने जैसे पाशविक और पैशाचिक  कृत्य वाली घटनाएँ सामने आती हैं. हैरत की बात ये है कि आर्थिक , वैज्ञानिक और सांस्कृतिक रूप से सभ्य होने का दावा करने वाले भारतीय समाज को इन घटनाओं से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. दलित महिलाओं पर मीडिया का ध्यान भी तब जाता है , जब वे बलात्कार या सामूहिक बलात्कार का शिकार होती हैं या फिर उन्हें निर्वस्त्र कर के सड़कों पर घुमाया जाता है. बात अकेले मीडिया की नहीं है.  सारा समाज ही दलित महिलाओं के साथ हुई इस तरह की घटना पर इसी तरह का व्यवहार करता है. अभी हाल ही में बिहार के भोजपुर ज़िले की छह दलित महिलाओं के साथ गैंग रेप का मामला सामने आया है. भोजपुर ज़िले के सिकरहटटा थाने के कुरकुरी गाँव में हुए इस गैंग रेप पीड़ितों में 3 नाबालिग़ भी शामिल हैं. प्रशासन ने पहले तो इस मामले को दबाने की कोशिश की फिर बाद में घटना की पुष्टि करते हुए प्राथमिकी दर्ज की.
 दूर ग्रामीण क्षेत्र में दलित महिलाओं के साथ हुए इस इतने बड़े गैंग रेप पर कहीं कोई हलचल नहीं दिखाई दी , न ही कोई खास विरोध.  न ही  इन महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए कहीं कोई आवाज़. क्या अगर ये महिलाएं किसी बड़े शहर या सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न किसी सवर्ण समाज से होतीं, तो तब भी मीडिया , राजनेता और समाजसेवी संगठनों  में इसी तरह की ख़ामोशी होती ?
निर्भया केस में केंडल मार्च निकाल कर अपना विरोध दर्ज करने वाले देश के प्रबुद्ध नागरिक और आंसू बहाने वाले लोग, और 24 घंटे प्रसारण कर न्याय दिलाने वाली मीडिया देश के ग्रामीण क्षेत्र में दलित महिलाओं के साथ हो रहे ऐसे अत्याचारों पर क्यूँ खामोश हो जाती  हैं ?
भारत के अर्थशास्त्री और नोबेल पुरुस्कार विजेता अमर्त्य सेन कहते हैं, 'दलित महिलाओं की सहायता के लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया जाता.  मैं इस बात से खुश हूँ कि आख़िरकार महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा का मामला ध्यानाकर्षण पा रहा है.'  सेन ने अपने एक भाषण में दिल्ली में हुए निर्भया केस के बाद सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन का हवाला देते हुए कहा था ‘लेकिन मैं तब और ज़्यादा प्रसन्न होता अगर ये मान लिया जाता कि दलित महिलाएं अरसे से असल हिंसा का सामना कर रहीं हैं. उनके हक में न तो कोई विरोध प्रदर्शन होता है और न ही कोई संगठन उनकी हिमायत करता है , मैं समझता हूँ कि इस तस्वीर में एक निरपेक्ष खाई है.’

आज अगर देखा जाये तो हर रोज़ कहीं न कहीं कोई न कोई महिला इसी तरह अपमानित और प्रताड़ित की जा रही है. बात सिर्फ ये नहीं है कि महिला दलित थी या संभ्रात. असल बात ये है कि जिस तरह किसी बड़े शहर की एक महिला के लिए पूरा देश उमड़ आता है. ऐसे ही पिछड़े ग्रामीण इलाक़ों की और दलित होने के कारण महिलाओं को और उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए. क्यूंकि महिला की कोई जाति नहीं होती है , महिला होना ही उसकी जाति है. महिला कहीं भी हो कैसी भी हो,  अगर उसके साथ अत्याचार होता है, तो आवाज़ को उठाना ही होगा.
हो कहीं  भी पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
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(रचनाकार-परिचय:
 जन्म:11 अप्रैल 1985 को मेरठ( उत्तर प्रदेश) में
शिक्षा: बीए ( चौ .चरण सिंह विश्विद्यालय मेरठ)
सृजन: समसायिक विषयों पर कुछ पोर्टल पर लेख
संप्रति: अध्ययन और स्वतंत्र लेखन
संपर्क : farhanariyaz.md@gmail.com)

हमज़बान पर  पहले भी


खत को लेकर चोंच में यादें खड़ीं रहीं, किताबों के पन्ने खोल दिए डाकिया आ गया

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आओ फिर से चिट्ठियाँ लिखें ....






 






विजेंद्र शर्मा की क़लम से

घर में कुछ मेहमान आये हुए थे उनके साथ चाय की चुस्कियों का लुत्फ़ लिया जा रहा था ! दसवीं जमात में पढ़ने वाली मेरी बेटी आयी और कहने लगी कि पापा कोई बेटियों पे शे'र लिखवा दो कल स्कूल में एक छोटा सा कार्यक्रम है मैं  सुनाऊंगी  ! मुझे पदम् श्री बशीर बद्र साहब का एक मतला याद आया और उसे सुनाया : 
वो शाख़ है न फूल अगर तितलियाँ न हों
वो घर भी कोई घर है जहाँ बच्चियां न हों

इसी ग़ज़ल का मुझे एक और ख़ूबसूरत शे'र याद आ गया मैंने सोचा मेहमानों को ये भी सुनाया जाए :

मैं पूछता हूँ मेरी गली में वो आये क्यों
जिस डाकिये के पास तेरी चिट्ठियाँ न हो

शे'र सुनते ही मेहमान तो वाह -वाह करने लगे मगर बेटी ने एक सवाल दाग़ दिया "पापा ये डाकिया क्या होता है ? उसका ये सवाल मेरे ज़हन में न जाने कितने और सवाल पैदा कर गया ! मैंने उसे बताया कि बेटे पोस्ट मैन को डाकिया कह्ते है ,जो हमारी चिट्ठियाँ हम तक पहुंचाता है ,बेटी को बात आधी -अधूरी समझ आयी, उसका प्रश्न स्वाभाविक था जब से उसने होश सम्भाला घर में कौनसी चिट्ठियाँ आयी थी और मैंने भी तो एक मुद्दत से किसी को ख़त नहीं लिखा था !
बेटी का ये कहना कि "डाकिया क्या होता है"मेरे ज़हन में ऐसा शोर करने लगा जो शोर अख़बार के छपते वक़्त प्रिंटींग मशीन करती है ! मैं सोचने लगा कि आख़िर कौन- कौन से ऐसे तत्व हमारे जीवन में आ गये जिससे कि  हम हमारी ज़िंदगी के एक अहम किरदार "डाकिये"  को भी भूल गये ! मेरे ज़हन में फ़िक्र मश्क़ करने में लगी ही थी कि अचानक एक दोहे की शक्ल में मुझे इस सवाल का जवाब भी मिल गया :

मोबाइल ई - मेल ने , कैसा किया कमाल !
क्या होता है डाकिया ? बच्चे करें सवाल !!

हालांकि तकनीक में आयी क्रांति ने हमारे जीवन को बड़ा सुलभ बना दिया है  , दूर रह रहे अपनों से हम फट से बातें करने लगे हैं , बड़े-बड़े काग़ज़ात इक पल  में ई-मेल के ज़रिये एक जगह से दूसरी जगह जाने लगे है जिन्हें डाक के ज़रिये  भेजने में कई दिन लग जाते थे ! दोस्ती , जान- पहचान , संबंधों और रिश्तों का पूरा सागर जैसा फैलाव सिकुड़ कर एक मोबाइल में क़ैद हो गया  है ! मुनव्वर राना ने इसे यूँ बयान किया है  :

अब फ़ासलों की कोई हक़ीक़त नहीं रही
दुनिया सिमट के छोटे से इक सिम में आ गई

मुझे लगता है कि नयेपन के चस्के और वक़्त से भी आगे निकलने के चक्कर में हम लोग उन चीज़ों को भी भुलाते जा रहें हैं जो हमारी ज़िंदगी का कभी अहम हिस्सा थी ! .ख़त और डाकिया दो ऐसी चीज़ें थी जो हमे इंतज़ार के लुत्फ़ से जुदा नहीं होने देती थीं ! हर उम्र की आँखों को चिट्ठी का इंतज़ार रहता था ! एक माँ को सरहद पे तैनात बेटे की चिट्ठी का , बहन को अपने भाई की खैर-ख़बर की चिट्ठी का , एक बीवी को रोटी की जुगत में परदेस गये शौहर की चिट्ठी का, एक बे-रोज़गार को किसी सरकारी महकमें से नौकरी के लिए आये बुलावे  और ज़माने की नज़रों से छुप कर मुहब्बत करने वालों को अपने मुहब्बत- नामे का इंतज़ार रहता था ! इंतज़ार की इस सियाही से लिखी तहरीर ( लिखावट ) को जो शख्स सबसे ज़ियादा पढ़ना जानता था, बड़ा अफ़सोस है कि अब वो डाकिया प्राय-प्राय लुप्त सा हो गया है !
ख़त, हमारी ज़िंदगी और हमारे अदब ( साहित्य ) का   हिस्सा थे  जिसे भुला कर हमने  अपनी तहज़ीब के दरख्त को ख़ुद अपने ही  हाथों से काट दिया !
मीर ओ ग़ालिब के ज़माने से ही ख़त और ख़त को पहुंचाने वाले डाकिये (क़ासिद, नामावर ) के बिना शाइरी अधूरी थी ! मीर ने तो ख़त और क़ासिद के हवाले से एक पूरी ग़ज़ल ही कह दी थी ! उस ग़ज़ल का मतला और एक शे'र मुलाहिज़ा हों :

न पढ़ा ख़त को या पढ़ा क़ासिद
आख़िरे -कार क्या कहा क़ासिद
है तिलस्मात उसका कूचा तो
जो गया सो वहीं रहा क़ासिद

उस ज़माने में ये आलम था कि ख़तों का सिलसिला  थमता ही नहीं था तभी तो ग़ालिब ने कहा कि :

क़ासिद के आते -आते ख़त इक और लिख रखूं
मैं  जानता  हूँ  जो   वह   लिखेंगे  जवाब  में

ग़ालिब शाइरी के साथ - साथ ख़त लिखने में भी बड़े माहिर थे उनके अहबाब ( मित्र ) उनसे अपने मुहब्बत-नामे (प्रेम-पत्र ) लिखवाने आते थे ! अपनी एक मक़बूल ग़ज़ल में ग़ालिब ने इसी लिए ये शे'र कहा :

मगर लिखवाये कोई उसको ख़त ,तो हम से लिखवाये
हुई सुबह , और घर से कान पर रखकर क़लम निकले
आज की नस्ल मोबाइल के एसएम्एस (SMS)की दीवानी है मगर ये एसएमएस और ई-मेल कोई सहेज के नहीं रखेगा,  ख़त सहेज के रखे जाते थे ग़ालिब ने जो ख़त लिखे लोग  आज उन पर शोध कर के पीएचडी कर रही है ! ख़त जिन्हें  अब हमने लिखने बन्द कर दिये हैं  वाकई  धरोहर होते है तभी तो ग़ालिब ने पहले ही लिख दिया था :
चंद   तस्वीर-ए-बुताँ , चंद हसीनों के ख़ुतूत
बाद मरने के मिरे घर से यह सामान निकला

  नौजवान शाइर  डॉ. विकास शर्मा  ख़तों को अपनी  पूंजी  समझते है और अगर  नई उम्र का  कोई शाइर इस ख़याल को शाइरी में ढालता है तो थोड़ी उम्मीद जगती है कि ख़ुतूत की क़ीमत हमारी नई - नस्ल को मालूम तो है ! डॉ .विकास शर्मा "राज "का ये मतला और शे'र सुनने के बाद उनके क़लाम को सलाम करने का मन करता है :

क़बीले से जुदा कर दे
मुहब्बत बावला कर दे
ख़तों को भी उठा ले जा
मुझे दिवालिया कर दे

ख़त होते ही ऐसे थे जिन्हें मुहब्बत करने वाले महबूब के दिये गुलाब  की तरह किताबों में संभाल के रखते थे आज की तरह नहीं कि  एस. एम् .एस पढ़ा ज़ियादा से ज़ियादा एक-दो  रोज़ रखा और डिलीट कर दिया ! हसरत मोहानी ने यूँ ही थोड़ी कहा :

 लिक्खा था अपने हाथ से तुमने जो एक बार
अब तक हमारे पास है वो यादगार ख़त

ख़तों के उस ज़माने में ऐसे - ऐसे ज़ावियों (कोण )  से शाइरों ने अपनी बात कही कि बस आह-वाह अपने - आप दिल से निकलने लगे, बशीर बद्र के ख़त लिखने का अंदाज़ सबसे मुख्तलिफ़ था :

जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाए रात भर
भेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं

कई बार मुहब्बत में ऐसे भी मुकाम आते थे कि ख़त जला दिये जाते थे, मगर वे कोई आज के एसएमएस की तरह डिलीट नहीं होते थे उनकी तहरीर ज़िन्दा रहती थी ! बकौल वसीम बरेलवी  :

प्यार की फांस किसी तरह निकलती भी नहीं
ख़त जला डालिये तहरीर तो जलती भी नहीं 
 ख़त लिखने में कोई आंसुओं की सियाही काम में लेता था  तो कोई अपना लहू इसलिए न तो कोई इन्हें फाड़ता था ना ही कोई जलाता था ..हाँ मगर राजेंदर नाथ रहबर ने किसी के मुहब्बत भरे ख़त गंगा में ज़रूर बहाए :
तेरे खुश्बू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे
प्यार में डूबे हुए ख़त मैं जलाता कैसे
तेरे हाथों के लिखे ख़त मैं जलाता कैसे
तेरे ख़त आज मैं गंगा मैं बहा आया हूँ
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ

मोबाइल के किसी एक मैसेज को आप दो -तीन बार से अधिक नहीं पढ़ते मगर जब - ख़तों का दौर था तो ख़त को कई - कई बार पढ़ने के बाद भी मन नहीं भरता था !
इसका कारण ये था कि ख़त लिखने वाला अपने जज़बात , अपने आंसू यहाँ तक कि अपने लहू तक को सियाही बना देता था ! जब आंसुओं की सियाही से कोई ख़त लिक्खा हो तो शाइर यहाँ तक तसव्वुर करता था :

 सियाही आँख से ले कर  ये नामा तुमको लिखता हूँ
कि तुम नामे को देखो और तुम्हे देखें मेरी ऑंखें
 
(नामा =ख़त )

 ये पाकीज़गी , ये शिद्दत क्या आज की  नस्ल समझ पाएगी , शायद नहीं क्यूंकि हमने उन्हें चिट्ठियों से दूर कर दिया है ! आज के बच्चे पुराने गानों से भी दूर होते जा रहें है अगर पुराने फ़िल्मी गीतों से भी उन्हें लगाव हो जाए तो उन्हें मालूम हो जाएगा कि ख़त क्या होते है और डाकिये की क्या अहमियत होती है ! हमारे फ़िल्मी दुनिया के गीतकारों ने ख़त को लेकर जो गीत लिखे वो मशहूर हुए और लोगों की ज़ुबान पे चढ़ गये !  इन्दीवर का लिखा ये गीत : 

फूल तुम्हे भेजा है ख़त में ,फूल नहीं मेरा दिल है
प्रियतम मेरे तुम भी लिखना क्या ये तुम्हारे काबिल है
प्यार छिपा है ख़त में इतना, जितने सागर में मोती
चूम ही लेता हाथ तुम्हारा पास जो मेरे तुम होती

नीरज जी का लिखा ये गीत :

फूलों के रंग से दिल की क़लम से तुझको लिखी रोज़ पाती
कैसे बताऊं किस किस तरह से पल पल मुझे तू सताती

"नाम"फिल्म के लिए आनंद बक्शी ने जब ये गीत लिखा तो जिसने भी सुना उसे अपने घर की दास्तान मालूम हुई , पंकज उदास के गाए इस गीत ने लोगों की सोई हुई संवेदनाओं को जगाया ,हमे अपने बच्चों को  ये गीत ज़रूर सुनाना चाहिए :

चिट्ठी आयी है आयी है चिट्ठी आयी है ....

फिल्म "बोर्डर"के लिए जब जावेद अख्तर की लिखी चिट्ठी "संदेशे आते है हमे तड़पाते है , के घर कब आओगे , लिखो कब आओगे .....को सोनू निगम ने गाया तो वो भी लोगों के दिलों में घर कर गयी ! ये सब चिट्ठी / ख़त के ही तो कमाल थे !
आनंद बक्शी ने भी सनम को ख़त लिखा त ऐसे लिखा :

हमने सनम को ख़त लिखा ख़त में लिखा .....
ऐ दिलरूबा दिल की गली शहरे वफ़ा ..
इसी गीत में ये मिसरा तो कमाल का लिखा
पहुंचे ये ख़त जाने कहाँ ,जाने बने क्या दास्ताँ
उस पर रकीबों का ये डर लग जाए उनके हाथ गर

जब ख़तों के दौर थे तब एक बात का अंदेशा हमेशा बना रहता था कि ख़त किसी के हाथ ना लग जाये ,ख़त को न जाने कहाँ - कहाँ छिपा के रखा जाता था कभी किताबों में , अलमारी में , संदूक में तो कभी दराजों में !  कैसर उल जाफरी ने इसे यूँ शाइरी बनाया :
 

ख़त में दिल की बातें लिखना ,अच्छी बात नहीं
घर में इतने लोग है , जाने किस के हाथ लगे

आज ना तो घरों में इतने लोग होते है ,ना अब घर घर रहें है ना अब वो पहले सी पर्दादारी रही है ! नई पीढ़ी की रफ़्तार देख के अब तो डर लगता है ! आज किसी को देखा , आज ही उस से सीधे - सीधे बात की और आज ही चले गये डेट पे , कहाँ गहराई आयेगी ऐसे प्यार में ! उस ज़माने में इज़हार करने और पहला ख़त लिखने की हिम्मत जुटाने में ही साल गुज़र जाते थे ! हस्ती मल हस्ती जी ग़लत थोड़े कह्ते हैं : 

प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है
नए   परिंदों   को  उड़ने    में वक़्त   तो   लगता है
 
जब पहला ख़त लिख दिया जाता था और महबूब तक पहुँच जाता था तो फिर मुहब्बत परवान चढ़े बिना दम नहीं लेती थी ! ऐसा भी नहीं था कि सभी ख़तों के नसीब में महबूब तक पहुंचना लिखा हो  कुछ ख़त बस लिखे ही रह जाते थे ! कुंवर बैचैन साहब ने जो ख़त लिखे वो आज भी उनकी दराजों में है :
अब भी किसी दराज  में मिल जायेंगे तुम्हे
वो ख़त जो तुमको दे न सके लिख-लिखा   लिए

 बशीर बद्र साहब पे क्या गुज़री वो तो उन्होंने बताया नहीं हाँ ये ज़रूर कहा उन्होंने :

हम पे जो गुज़री बताया न बताएँगे कभी
कितने ख़त अब भी तेरे नाम लिखे रक्खे  है

कुछ ऐसे बदनसीब ख़त भी थे जिन्हें लिखने वाला उनसे भी बड़ा बदनसीब था :

मैंने जितने मुहब्बत भरे ख़त लिखे
सब पे अपने ही घर का पता लिख दिया

अगर ख़तों का सिलसिला  किसी वजह से थम जाता था  तो सिर्फ़ ख़त में ये लिखा हुआ आता था :

हमसे क्या ख़ता हो गयी कि ख़तों का आना बन्द है
आप ख़फ़ा  है हमसे या फिर डाक खाना बन्द है

ख़तो-ख़तावत से कोसों दूर हो चुकी हमारी नई पीढ़ी को ख़त लिखने के लिए हमे प्रेरित करना चाहिए ! ख़त लिखना भी शाइरी और कविता लिखने की तरह एक आर्ट है ! जो ख़ूबसूरत ख़त दुनिया के सामने आये है उन्हें पढ़ा जाए तो इन नए- चराग़ों  को पता चले कि  बिन बाती के जलने का हुनर क्या है ! अमृता प्रीतम  और इमरोज़ के ख़त पढ़कर महसूस किया जा सकता है कि मुहब्बत ऐसे होती थी वैसी  नहीं जो आज की नई उम्र की खुदमुख्तारियो ने समझ लिया है ! मिसाल के तौर पे अमृता और इमरोज़ के ख़तों के कुछ अंश आपको पढवाता हूँ :

"यह मेरा उम्र का ख़त व्यर्थ हो गया ! हमारे दिल ने जो महबूब का पता लिखा था ,वह हमारी क़िस्मत से पढ़ा न गया ..तुम्हारे नए सपनों का महल बनाने के लिए अगर मुझे अपनी ज़िंदगी खंडहर भी बनानी पड़े तो मुझे एतराज़ नहीं होगा ! जो चार दिन ज़िंदगी के दिये है ,उनमे से दो की जगह तीन आरज़ू में गुज़र गये है और बाकी बचा एक दिन सिर्फ़ इंतज़ार में ही न गुज़र जाए !अनहोनी को होनी बना लो मिर्ज़ा ..... 
तुम्हारी अमृता

इमरोज़ ये लिखते हैं :

मुझ पे और भरोसा करो , मेरे अपनत्व पे पूरा एतबार करो !  जीने की हद तक तुम्हारा ! ये अपने अतीत ,वर्तमान   और  भविष्य    का   पल्ला   तुम्हारे  आगे  फैलाता  हूँ  , इसमे  अपने अतीत , वर्तमान  और भविष्य  को  डाल  दो   जीतो  !.
तुम्हारा  इमरोज़

 ये था प्यार और खतों के ज़रिये इस तरह अपने दिल की बात पहुँचती थी ! हम फोन पे किसी को अपने दिल के जज़बात नहीं कह सकते ना ही उन्हें मोबाइल के मैसज में तब्दील किया जा सकता है ! दिल के जज़्बे तो अपने हाथ से ही काग़ज़ के सीने पे उकेरे जा सकते हैं !
ख़तों के दौर में लोगों का रुझान अदब ( साहित्य ) की तरफ़ ख़ुद ब ख़ुद हो जाता था ! ख़त तक़रीबन सभी लिखते थे और ख़त लिखना किसी अनुष्ठान से कम न था और जब मोहतरम डाकिया जी  गली में नज़र भर आ जाते थे तो  उत्सव का  सा नज़ारा हो जाता था ! ख़त में संबोधन क्या लिखना है ...इसकी शुरुआत किस लफ़्ज़  से की जाए वगैरा -  वगैरा उस वक़्त एक इम्तेहान की तरह होता था ! अपनी प्रेयसी को ख़त लिखते समय कुछ तो  ..मेरी ग़ज़ल , मेरी जाने जाँ , मेरी तरन्नुम , मेरी रूह , मेरे ख़्वाबों की मल्लिका आदी  संबोधन का इस्तेमाल करते थे ! आशिक के दिल  का जज़्बा क़लम में मिसरी  की डली की तरह घूल जाता था  जबकी आज ख़त लिखने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता मैसज में लिखा जाता है hi स्वीटू ,hi जानू  जैसे संबोधन जो किसी भी कोण से   मुहब्बत की राह के मुसाफ़िर नज़र नहीं आते !

ख़त वाकई अमूल्य पूंजी थे , नेहरू जी के  पत्र  "भारत एक खोज "जैसा एतिहासिक दस्तावेज़ हो गया ! मेरे फ़िरोज़ पुर में एक मित्र है गौरव  भास्कर उनके वालिद स्व. श्री मोहन लाल भास्कर कवि थे उनके मरासिम  हरीवंश राय बच्चन  जी से बहुत अच्छे थे ! भास्कर साहब बदकिस्मती से पाकिस्तान में जासूसी के इल्ज़ाम में पकडे गये ! सात साल तक उन्होंने पाकिस्तान की जेलों में यातनाएं सही ! बच्चन जी तब विशेष मंत्रालय में थे उन्होंने भास्कर साहब की रिहाई में अहम रोल अदा किया ! उस दौरान उनमें ख़तों का बड़ा आदान - प्रदान हुआ ! गौरव भाई की माता जी ने उन सब ख़तों को सहेज के रखा ! किसी माध्यम से जब अमिताभ बच्चन साहब को पता चला कि बाबू जी के हाथ से लिखे ख़त फीरोज़पुर में किन्ही के पास है तो ख़बर की पूरी तस्दीक के बाद अमिताभ जी ने उन्हें सपरिवार मुंबई बुलवाया उस परिवार का सम्मान किया  और उन ख़तों की एक - एक प्रीति  ली  ,ये है ख़त की ताक़त !
अपने महकमे की बात करता हूँ , सरहद पे तैनात जवान के लिए ख़तों की बहुत  अहमियत होती थी   ! घर से बीवी - बच्चों के ख़तों  का सरहद के पहरेदारों को इंतज़ार रहता था ! बीवी लिखती थी कि आपके जाने के बाद   मन  नहीं लग रहा , जी बहुत घबराता है तो जवान भी ख़त के ज़रिये जवाब दे देते थे !
भाई जीतेन्द्र परवाज़ ने इसे  महसूस किया और लिखा :

तुम तो ख़त में लिख देती हो घर में जी घबराता है
तुम क्या जानो क्या होता है हाल हमारा सरहद पर 

मगर जब से ख़तों की जगह मोबाइलों ने ले ली हमारे यहाँ समस्या कुछ गंभीर  हो गयी है !  पहले ख़त के आने में दस-पंद्रह  दिन लग जाते थे ! पीछे से जवान के घर में अगर कोई बात हो जाती या  सास - बहू की मामूली कहा - सुनी हो जाती तो जब तक बीवी ये सब ख़त में लिखती उस से पहले मुआमला शांत हो जाता था मगर अब  मोबाइल के दौर में जैसे ही घर में कोई बात होती है घर से फ़ौरन फोन आ जाता है जवान अपनी ड्यूटी पे एक दम परेशान हो जाता है और कई बार ऐसा भी हुआ  कि जवानों ने ख़ुदकुशी भी कर ली ! इस लिहाज़ से  ख़तों का ज़माना सरहद के प्रहरी के लिए ज़ियादा   बेहतर  था !
 एक ज़माना था जब ख़तों को पहुंचाने का काम कबूतर किया करते थे ! क़ासिद का किरदार कबूतरों ने बड़ी ख़ूबी से   निभाया वे इतने  मंझे हुए होते थे कि सीधा ख़त उसी को देते  जिसके लिए लिखा जाता था  ! अस्सी के दशक के आख़िर में आयी फिल्म "मैंने प्यार किया में "इस की मिसाल भी दी गयी , कबूतर जा जा जा कबूतर जा ...वाला गीत भी बड़ा प्रसिद्ध  हुआ ! जाने - माने शाइर राहत इन्दौरी ने भी इसी मफ़हूम से  शे'र निकाला  :--
 

अगर ख़याल भी आये कि तुझे ख़त लिखूं
तो घौसलों से कबूतर निकलने लगते हैं

आठों पहर मोबाइल से चिपके रहने वाली ये नस्ल कहाँ समझेगी कि ख़त क्या है, कबूतर क्या है और डाकिया क्या ! राजेश खन्ना अभिनीत एक फिल्म आयी "पलकों की छाँव में "उसके लिए गुलज़ार ने एक गीत लिखा  "डाकिया डाक लाया ....   राजेश खन्ना का खाकी वर्दी में साइकल पे फिल्माया  ये गीत हर आँख में डाकिये की  सच्ची  तस्वीर बनाता है मगर हमारे आज के बच्चे ऐसे गीत भी तो नहीं सुनते है जिससे  उन्हें पता चले कि डाकिया क्या होता है !
डाकिये की शान में निदा फाजली ने तो यहाँ तक लिखा :

सीधा - साधा डाकिया , जादू करे महान !
इक ही थैले में भरे , आंसू ओ मुस्कान !!

 चिट्ठी या डाक अपने गंतव्य तक जल्दी से जल्दी पहुंचे लोगों ने डाक महकमे की जगह कुरियर कंपनियों पे भरोसा करना शुरू किया मगर जब डाक ले के कुरियर कंपनी का कोई नुमाइंदा आता तो वो डाक तो दे के चला जाता पर वो  डाकिये जैसा मुहब्बत का रिश्ता नहीं बना पाया ! वक़्त के साथ - साथ ख़त लिखने का चलन कम होता गया  और ख़त लिखने की लोगों को ज़रूरत भी नहीं रही ! चिट्ठी के काम मोबाइल से होने लगे और डाकिया हमारे स्मृति पटल से गायब होने लगा मुझे आज भी याद है  शाम के वक़्त रोजाना डाकिया हमारे मोहल्ले में आता था ! मोहल्ले की औरतें एक दूसरे से  पूछती रहती थी कि डाकिया आया क्या , बगल वाली अम्मा को अपने बेटे के मनी -ऑर्डर का इंतज़ार रहता था ! बहुत से दरवाज़े बार - बार सिर्फ़ डाकिये की प्रतीक्षा में पलकें बिछाए रहते थे ! अब तो ये नज़ारा देखे बरसों हो गये तभी मैंने लिखा :

कब आवेगा डाकिया , पूछे कौन सवाल !
क़ासिद को देखे हुए , गुज़र गये है साल !!

बीकानेर के कलंदर सिफ़त शाइर शमीम बीकानेर से एक दिन इसी मौज़ू पे गुफ्तगू हो रही थी उन्होंने कहा कि विजेंदर भाई मैं ये प्रण करता  हूँ कि आज से ख़त लिखने का सिलसिला दोबारा शुरू करूंगा ! मेरी आप सब से भी  यही  गुज़ारिश है कि हम एक बार फिर से ख़त लिखने का सिलसिला शुरू करें  अगर कोई बहुत ज़ियादा आपात स्थिती ना हो तो हम सिर्फ़ ख़त लिखें और हो सकता है कि हमे देख कर  बच्चों को भी लगेगा कि वाकई ये मुआमलात इस मैसजबाज़ी  से बेहतर है ! ऐसा करने से हम फिर से अदब से जुड़ जायेंगे , इंतज़ार के लुत्फ़ से  फिर से मुखातिब होंगे  ,हमारी सूखी हुई क़लम में रोशनाई आ जायेगी और राह  भटकी हुई हमारी नई पीढ़ी फिर से तहज़ीब के फ्रेम में अपनी तस्वीर तलाश करने लगेगी !
 उम्मीद करता हूँ  कि  आप सब  भी  शमीम बीकानेरी की तरह ख़त लिखने  का सिलसिला फिर से शुरू करेंगे  और  ये अलख जगायेंगे  कि "आओ फिर से चिट्ठियाँ लिखें ...

 उदय प्रताप सिंह जी की इन्ही पंक्तियों के साथ विदा लेता हूँ   :

सब  फैसले होते  नहीं सिक्का उछाल के
 ये दिल का मुआमला है ज़रा देख भाल के

ये  कह के नई रौशनी रोयेगी एक दिन
अच्छे थे वही लोग पुराने ख़याल के 

मोबाइलों के दौर की नस्लों को क्या पता
रखते थे ख़त में  कैसे कलेजा निकाल के
 



(लेखक परिचय:
जन्म: 15 अगस्त 1972, हनुमान गढ़ (राजस्थान)
शिक्षा: विद्युत् इंजीनियरिंग में स्नातक एवं एमबीए
सृजन: गत पंद्रह  वर्षों से शायरी पर लेखन. दोहा  लेखन भी ...
           विभिन्न अखबारात के लिए साप्ताहिक कॉलम
संप्रति : सीमा सुरक्षा बल में  उप कमांडेंट, नई दिल्ली
संपर्क:  vijendra.vijen@gmail.com )

विजेंद्र शर्मा हमज़बान  में पहले भी

शीर्षक क़मर सादीपुरी का इक शेर

चाँद को फिर-फिर बुला लाएँ

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आओ ! इस शादमाँ पल में

चित्र: गूगल साभार












क़मर सादीपुरीकी क़लम से

मैं तेरे ख़्याल  के क़ाबिल न था
हमने आँखों को न चुराया था
तू दिल से जुदा हरगिज़ न हुआ
पर मै तेरे प्यार के हामिल न था!

उन तारों से बात की थी मैंने
जो तेरे आस्मां से आते थे
चाँदनी को छूता था अक्सर
जिसका अक्स तेरा चेहरा था

उन हवाओं से पता पूछा था
तेरी गलियों में जिसका आना था
उनको छूने की कोशिश की हमने
तेज तूफ़ान ने डराया था

मैंने न डरने की जब क़सम खाई
उन हवाओं ने आना छोड़ दिया
मेरी अब सांस उखड़ी जाती है
दिन कहो,  रात हुई जाती है!

कहीं यह जीवन का अंतिम पहर तो नहीं!

कसमें वफ़ा भी वे जब भूल गए
हमने उनकी जफ़ा का पास रखा
दिल को न कभी उदास रखा
सूरज से जब दुआ मांगी
चाँद-तारे को साथ-साथ रखा

लेकिन बादल कहाँ से आ धमके
तूफाँ ने भी की, यूँ ही यारी
हमने ख़त को दबा कर सीने से
हरेक तहरीर को छुपा रखा

ऐसी तहरीर फिर कहाँ होगी
जिसमें तारे भी झिलमिलाते थे
चाँद सूरज से बात करता था
फूल, पत्थर भी मुस्कुराते थे

उन पत्थर को हमने घर रख कर
एक आँगन में आरती की थी
और चराग़ों से कर लिया रौशन
उसके अलफ़ाज़ को टटोला था

कहीं तो होगा वो पैमाने वफ़ा
कि जिसकी ख़ाक हमने छानी थी
कि रह-रह आंसुओं की बारिश में
तेरे होठों के लाल -लाल डोरे
कैसे तिल का कमाल करते थे

हमने तिल को दिल था दे डाला
कैसे-कैसे जमाल करते थे

हमने उस बोसा-ए-दिल से
कैसे था रूह को भिगो डाला
तुमने सजाई मांग में बूंदे
फूल का रंग भी चटख आया

ख्वाइश की राह पर चले कब थे
हमने रिश्ते को, पोसा, न पाला
स्याह रात को जगे अक्सर
कि हिचकी को पास आना था।

माँ-सी आरज़ू को मुठ्ठी में
लिये नींद से ना जागा था
ऐसे ख़्वाबों के कैसे सज्दे में
कौन सहीफ़े लिए आया था।
कि अल्फाज़ ने तपिश बन कर
पीर पयंबरी को पाया था।

आओ ! इस शादमाँ पल में
चाँद को फिर-फिर बुला लाएँ
कैसे दहक़ाँ के खेत पसीने में
रह-रह फसल को उगा आएँ।

यही ज़िन्दगी का हासिल है
यही मोहब्बतों का हामिल है!

(बोसा-ए-दिल=दिल का चुम्बन, हामिल= योग्य , सहीफ़े= ईश्वरीय संदेश, पयंबरी=पैगम्बरी, दहक़ाँ=किसान, शादमाँ=हर्षित, हामिल= धारक )

{6-7may2013 को फ़ेसबुक पर ही लिखी और पोस्ट की गयी थी.}

 

नेताओं को देखा तो मक्कारी याद आई।

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दो चुनावी व्यंग्य 





 








सैयद शहरोज़ क़मर  की क़लम से

शरमा जाए गिरगिट भी

हम सियासत के कभी कायल न थे

तुमको देखा तो मक्कारी याद आई।


चचा दुखन यूं तो शायरी करते नहीं, पर जब मेरी खटारा बाइक की मरम्मत करने के दौरान दुआ-सलाम हुई, तो उनके लब पर कमर सादीपुरी का यह शेर बेसाख्ता आ गया। हम भी पूछ बैठे, काहे चचा खफा बैठे हैं। इतना कहना था कि मानो उनके अंदर बरसों से जमा गुबार सर्दी में हुदहुद की तरह फट पड़ा। का पूछते हैं, पत्रकार बाबू। आप लोगों से कुछो छुपल है का। देखिये न रहे हैं, ई नेतवा सब हम सबके मूरखे समझ ले है। सुबह में कुछ और बोलता है, तो दोपहर ढलते-ढलते इसकी बोलती कुछ और। शाम व रात तक तो जिसको जिंदगी भर गरियाता रहा, उसको माला पहनाते हुए फोटो खिंचवा लेता है। चचा से जरा चुहल सूझी, देखिये दुखन चा अब आपके नेता जी सेकुलर हो गए। लेकिन चचा चिढ़ गए। ई अऊ सेकुलर। अरे बबुआ आपसी प्रेम मोहब्ब्त के लिए दिल की जरूरत पड़ती है। पार्टी-वार्टी की अदला-बदली से फरक नहीं पड़ता। ई सबबे नेता बस छटल मक्कार है। अपन फायदा की खातिर ई पार्टी से ऊ पार्टी डगरा के बैगन की तरह भागल फिर रहा है। बात गांधी की करेगा, काम गोडसे का। बिरसा भगवान की मूरत पर फूल तो चढ़ाएगा, पर अबुआ दिशुम-अबुआ राज के लिए डोंबारी व सारंडा को गिरवी रखने में परहेज नहीं करेगा.. उनकी बात अधूरी ही थी कि अचानक दुकान की दीवार पर गिरगिट महाराज प्रकट हो गए। हम दोनों की नजर गिरगिट से होते हुए परस्पर टकरा गई, तो दुखन चा मुस्कुरा दिए। आंखों बोल पड़ीं, देखिये ;gनेता जी पधार दिये। मुझे अचानक रूसी लेखक चेखव की कहानी गिरगिट का स्मरण हो आया।

(भास्कर के 5 नवम्बर 2014 के  अंक में प्रकाशित)


कौए के बीच कोयल की खोज
कांव ! कांव !! कांव !!! कभी यह आवाज़ कानों में पड़ते ही हम बच्चे उछल कर कहते थे, उड़ कौआ उड़ संदेसा आएगा!  लेकिन अब घर  की मुंडेर पर कौए नहीं आते. कहते हैं कि पेड़ों के साथ इनका भी सफाया हो गया. वहीं कुछ विद्वानों की राय है कि कौए का  मनुष्य की एक विशेष प्रजाति में पुनर्जन्म  हो गया है.  इनका रहना-सहना भी बदल चुका है. यह एक ख़ास मौसम में बड़े-बड़े शहरों के अपने वातानुकूलित प्रासादों से विचरण को निकलते हैं. कंदराओं से उनके बाहर निकलने का यह सही समय है. कांव ! कांव !! कांव !!! यह गूंज अब हर सड़क-गलियारे में शोर बनकर उभर रही है. लेकिन बचपन में सुने और अब के इनके कांव-कांव में काफी विभिन्नताएं हैं.  अब हालत यह है कि कौए को महज़ उड़ने के लिए नहीं बल्कि रफू-चक्कर होने की दुआ की जा रही है. लेकिन वे हैं कि रोज़ नई टेर रेघा रहे हैं. हालांकि कुछ ने शहरों में जाकर गले की सर्जरी करा ली है. रंग-रूप भी बदला है.  लेकिन गौर कीजिये तो चेहरे पर उनकी करतूत काली दिख जाएगी।  इनमें एक और विशेषता देखी जा सकती है, कि राजधानी की दौड़ में यह  काकरोच का कवच ओढ़ लेते हैं. दूसरे को  आगे जाता देख तुरंत उनके सदस्य उसकी टांग खींच कर नीचे  गिरा देते हैं.  लेकिन ख़ुदा-न-खास्ता इन किसी भी खद्दर धारी की मौत हो जाती है, तो सारे अपने समूह और खेमे को भूल कर एक जुट हो जाते हैं.  वहीं राज्य से लेकर देश की राजधानी और शहर लेकर गाँव-पंचायत तक के कौओं  को इकट्ठे कर इतना कांव-कांव मचाते हैं कि एहसास पुख्ता होता है कि इन्होने शहर को तो पहले ही जंगल बना रखा है. नित्य ही कंक्रीट के गगन चुंबी पेड़ खड़े किये जा रहे हैं. इधर,  कांव ! कांव !! कांव !!! के बीच हंस को तिनके  का भी टोटा है.  वहीं कहते हैं कि कौए को मूर्ख सिर्फ कोयल ही बना सकती है. उसकी तलाश जारी है. 

(भास्कर के 14 नवम्बर 2014 के  अंक में प्रकाशित)

ख्वाजा अहमद अब्बास और अलीगढ़

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 वसुधैव कुटुंबकम के सच्चे पैरोकार 












सैयद एस.तौहीदकी क़लम से


ख्वाजा अहमद अब्बास इस सदी के मकबूल पत्रकार,कथाकार एवं फिल्मकार थे। आपको वाकिफ होगा कि अब्बास अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ताल्लुक रखते हैं। अलीगढ से पढकर निकलने वाले महान विद्यार्थियों में आपका एक मुकाम था। अलीगढ को अब्बास सरीखा छात्रों पर नाज है।  अब्बास साहेब के परिवार का अलीगढ से एक पुराना रिश्ता रहा है। आपके परनाना ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली जनाब सर सैयद अहमद के करीबी दोस्त थे। आपके नाना ख्वाजा सज्जाद का ताल्लुक अलीगढ की पहली नस्ल से था। ख्वाजा सज्जाद ने मोहम्मडन एंग्लो इंडियन कालेज से स्नातक किया था। अब्बास के पिता ख्वाजा गुलाम भी विश्वविद्यालय से जुडे रहे। विश्वविद्यालय रिकार्ड अनुसार अब्बास का जन्म हरियाणा के पानीपत में हुआ था। तीस के दशक में आप अलीगढ में शिक्षा ले रहे थे। आपके चचाज़ात भाई ख्वाजा अल सैयद भी अलीगढ के छात्र थे। बाद में जाकर आपके यह भाई वहीं प्रोफेसर भी नियुक्त हुए। 
अलीगढ में अब्बास पहली बार ख्वाजा सज्जाद संग सन पच्चीस के जुबली समारोह में आए । सामारोह में मुसलमानों के सबसे मशहूर नेता व शख्सियतें शामिल थी । इन शख्सियतों में मुहम्मद अली जिन्ना एवं इक़बाल तथा अली इमाम फिर आगा खान का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। मशहूर लीडर अली इमाम से आप पहली मर्तबा इसी सामारोह में मिले। विश्वविद्यालय के जुबली सामारोह व दिलकश फिजा ने अब्बास को बहुत प्रभावित किया। जुबली सामारोह में पेश वाद-विवाद प्रतियोगिता ने दिल जीत लिया था। शानदार इमारतों और जुबली के हंगामों के बीच वाद-विवाद का कार्यक्रम सबसे हटकर था। जुबली डिबेट कंपीटिशन में आपके चचाज़ात भाई हीरो बनकर उभरे। वो  घटना ने जिसने आपकी जिंदगी को सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह यही डिबेट कंपीटिशन था । तकरीबन पांच हजार लोगों की भीड थी । मंच पर मुसलमानों के सबसे मशहूर नेता मौजूद थे। डिबेट का विषय ‘हिन्दुस्तान के मुसलमानों को क़ौमी सियासत में बाक़ी लोगों के साथ मिलकर काम करना चाहिए, अथवा अलग पार्टी भी बनानी चाहिए’।  पक्ष में  बात आपके भाई ने रखी जिसको वहां आए सभी मशहूर लोगों ने काटने की कोशिश की। आपके चचाज़ात भाई  ख्वाजा अल सैयद की तक़रीर अलीगढ के इतिहास में  यादगार है। इसने आपकी जिंदगी का रुख मोड दिया । तक़रीर खत्म होते ही पंडाल तालियों से गूंज उठा।  विपक्ष में बोलने वाले मिस्टर अली इमाम ने आपके विजेता भाई को गले लगा लिया था। इस पर उनके धडकते हुए दिल ने कहा ‘भाईजान ने बहुत खूबसुरत व काबिले तारीफ तक़रीर पेश की है, एक दिन मैं भी इनकी तरह बनूंगा। बडे भाई की तरह ओजस्वी तकरीरें दूंगा । लेकिन इसके लिए बहुत कुछ पढना-लिखना पढेगा, बडे आदमियों का मुक़ाबला करना पडेगा…सब करूंगा…सब करूंगा’। 
अब्बास अपने एक आलेख में लिखते हैं 
‘कभी इंजन ड्राईवर बनने का ख्वाब था, फिर जज बनना चाहता था, डाक्टर बनकर लोगों की खिदमत करने का दिल आया । डिप्टी कमीशनर होने का भी ख्वाब सजाया। इल्म ताल्लुक इस मंथन उपरांत पत्रकार, नेता व वक्ता बनने का सपना देखने लगा। इनके अलावा वो शख्सियत भी जिनसे मेरी उम्र के करोडों हिन्दुस्तानी प्रभावित हुए । जिनकी छाप हजारों युवाओं की जिंदगी व किरदार पर कायम रही । महात्मा गांधी…इनको पहली बार जब देखा तो उस वक्त मेरी उम्र पांच या छह बरस की थी ,लेकिन उस बचपन में भी उनकी महान शख्सियत ने मुझे प्रभावित किया। भगत सिंह जिनकी शहादत के दिन मैं और मेरे कालेज के बहुत से साथी इस तरह फूट-फूट कर रोए कि हमारा सगा भाई शहीद कर दिया गया है...।

इंटर कालेज के दिनों में एक रोज आप दोस्तों के साथ साइकल पर ताजमहल को चांदनी रात में देखने निकल पड़े । रास्ते में साइकल का टायर फट जाने की वजह से एक गांव में रुके। उस गांव के लोगों की आर्थिक बदहाली ने आपके दिल में पीडा व संवेदना का समुद्र जगा दिया। आप इसे ज़ाहिर  करने का जरिया तलाश करने लगे। इन हालातों ने आपको हांथ बांधे चुपचाप वक्त गुजारने नहीं दिया। तीस दशक में अलीगढ विश्वविद्यालय मुसलमानों की उभरती नस्ल का चिंतन स्थल एवं सांस्कृतिक केंद्र था। प्रगतिशील आंदोलन ने साहित्य को नया भविष्य दिया, अलीगढ आंदोलन का एक मुख्य स्रोत था।  अख्तर रायपुरी, ख्वाजा अहमद अब्बास, सआदत हसन मंटो, जानिसार अख्तर एवं मजाज तथा अली सरदार जाफरी सब अलीगढ के छात्र थे। कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक कुंवर अशरफ उस्तादों में से थे। उस जमाने में अलीगढ में कम्युनिज्म की लहर थी। छात्रों की कोशिश यह थी कि लहर की रफ्तार तेज कर दिया जाए। मुल्क को आज़ाद करने का हर जतन लोग दीवाने कर रहे थे। 
अलीगढ तराना के लेखक मजाज की बहन के अनुसार
 विश्वविद्यालय का हर जमाना प्रकाशवान जमाना था।  इसके क्षितिज पर जगमगाने वाले सितारों की रोशनी देश के हर कोने में पहुंची। शिक्षा साहित्य चिंतन व आंदोलन में अलीगढ के छात्रों का नाम था।  ऐसा मालूम होता था मानो यहां प्रेरणा की रोशनी फूट रही हो। अलीगढ के अहाते से आजादी के दीपक को खुराक मिल रही हो। कोई जोशीला सामाजिक कार्यकर्ता, कोई आजादी का दीवाना…कुछ युं फिजा रही जिसमें सब अपने-अपने शस्त्रों से विदेशी निजाम को जडों से उखाडने पर आमादा थे। एक नया सवेरा…एक नयी जिंदगी जन्म ले रही थी। उस वक्त अलीगढ में जोशीले युवाओं का दल उभर चुका था जिसके कार्यों को विश्वविद्यालय का इतिहास कभी भूला नहीं सकेगा।  पत्रकारिता के माध्यम से आंदोलन की पहल अख्तर रायपुरी ने की । आपने हांथ से लिखा साप्ताहिक अखबार निकाला। हांथ से लिखे इस अखबार की प्रतियों को हरेक हास्टल पर चिपकाया जाता था। इस हफ्तावार की खबरें व आलेख आज़ादी के जददोजहद के सरमाया था। सामग्री अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ तेवर की थी। अख्तर रायपुरी से सीख लेकर ख्वाजा अहमद अब्बास ने भी हांथ से लिखा अखबार ‘अलीगढ मेल’  निकाला। अखबार अब्बास की पत्रकारिता का पहला तेजाब था।  वकालत की पढाई के दरम्यान आपने Aligarh Opinion नामक अखबार भी निकाला। 
शुक्रवार का आधा दिन व रविवार का आधा दिन इन उत्तरदायित्वों को संभालने में गुजर जाता था। इसके अलावे अब्बास विश्वविद्यालय से जुडी खबरों को खुफिया तरीके से Hindustan Times एवं Bombay Chronicle को भेजा करते थे। इन खबरों पर विश्वविद्यालय पर्दा डालने की कोशिश करता था।  खुफिया खबरों को प्रकाश में लाने के लिए प्रशासन की ओर से धमकियां भी मिलती थी। अखबार विश्वविद्यालय प्रशासन व शिक्षकों व अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ आम राय को प्रकाश में लाता था। अब्बास प्रशासन द्वारा बाग़ी करार दिए जाने लगे। अली सरदार जाफरी लिखते हैं…अलीगढ में तहरीक-ए-आजादी का तेजाब उठ रही थी। अब्बास ऐसे ही एक तेजाब थे। आप अपने जमाने के बेबाक वक्ता थे। अब्बास व मजाज तथा उनके साथी रात गए रेलवे प्लेटफार्म पर तफरीह करना पसंद था। प्राक्टर आफिस द्वारा लगाई गयी पाबंदियों को तोडने का मजा था ही साथ ही उम्मीद रहती कि हसीन लडकियों का दीदार होगा। जाडों की रातों में स्टेशन की गरम चाय में भी एक खास लुत्फ था। उन दिनों आप बाछु भाई के नाम विख्यात थे। अब्बास के हवाले से अलीगढ से ताल्लुक रखने वाले एक किस्से अनुसार अब्बास अपने जिगरी अंसार भाई को प्लेटफार्म गर्दी के लिए देर रात बुलाने आते थे। दोस्तों में तय था कि वो खिडकी पास आकर भौंकने की आवाज़ निकालेंगे और इस आवाज़ पर अंसार भाई खामोशी साथ बाहर निकलेंगे। एक मर्तबा रात प्लेटफार्म पर किसी रेलवे कर्मचारी से खबर मिली कि रेल से अलगे दिन जवाहर लाल नेहरू देहली से इलाहाबाद जाने वाले हैं। अब्बास और अंसार भाई दोनों ने ही तय किया कि खुर्जा पहुंचा जाए। अलीगढ में मेल दो मिनट के लिए रूकेगी। पुलिस एवं नगर के कांग्रेसियों का हुजूम होगा। पंडित जी का चेहरा भी मुश्किल से देखने को मिलेगी। यह सोंचकर दोनों दोस्त खुर्जा पहुंच गए। वो चलती गाडी में किसी तरह नेहरू जी के पहले दर्जा कंपार्टमेंट तक पहुंचने में सफल रहे। इनकी काली शेरवानियां अलीगढ की खास पहचान थी । आपने पंडित नेहरू से अलीगढ आने का आग्रह किया, जिसे नेहरू जी ने कुबूल किया।
एक मर्तबा डिबेट प्रतियोगिता सिलसिले में बंबई से भी छात्र अलीगढ आए। इन्होंने विश्वविद्यालय स्वीमिंग पूल पास रानी विक्टोरिया की तस्वीर टंगी देखने बाद कुछ युं कहा ‘हमने अपने यहां फाउंटेन पर बनी रानी की प्रतिमा की तोड दी। यहां के छात्र अब भी अंग्रेजपरस्त हैं।  अगली ही रात अब्बास व दोस्तो ने स्वीमिंग पर टंगी रानी की तस्वीर को फ्रेम से निकाल फेंका। प्रशासन ने समझदारी का तकाजा दिखाते हुए मामले को तूल नहीं दिया।  महान शख्सियतों में अब्बास महात्मा गांधी की विचारधारा से प्रभावित थे। अलीगढ में ग़ांधी जी से अपनी दूसरी मुलाकात के बारे में अब्बास ने लिखा…महात्मा गांधी विश्वविद्यालय छात्र युनियन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में तकरीर देने आए थे।  हाल हाऊसफुल था…लेकिन मैं डायस के फर्श पर गांधी जी के कदमों पास बैठने में कामयाब रहा। युनियन के प्रेसीडेंट के भाषण दौरान मेरा ध्यान गांधी जी तरफ था। बापू बेफिक्री से इधर-उधर देख रहे थे। कुछ युं जैसे यह बातें किसी दूसरे वयक्ति के बारे में कही जा रही हों। एक बार इक नजर मेरी ओर डाली तो उन्होंने शायद देखा कि यह युवा टकटकी बांधे इन्हें देख रहा। मेरा अंदाज देखकर वह मुस्कुराए,पहले तो मैं घबराया जैसे चोर पकडा गया हो। लेकिन शायद मेरे चेहरे पर भी मुस्कुराहट उभर आई । गांधी जी मासूम मुस्कुराहट तो हरेक आदमी के लिए थी। यह अलग बात है कि हरेक यही समझता कि यह मुस्कुराहट…यह मां की ममता समान मुहब्बत सिर्फ उसके लिए है। फिर वो समय भी आया जब जनवरी तीस की शाम को बंबई के मरीन ड्राईव पर टहलते हुए किसी ने बताया कि किसी सिरफिरे ने महात्मा गांधी को गोलियां चलाकर मार डाला है। सुनकर ऐसा लगा कि चलती दुनिया रुक गयी…जिंदगी थम गयी है। अब्बास खुद को वतन एवं कौम की संतान तस्व्वुर करते थे। गांधीजी व पंडित नेहरू के परिवार को अपना परिवार समझते थे। इंसानियत व समाज के नजरिए से पूरी दुनिया को रिश्तेदार मानते थे।

















(रचनाकार-परिचय
 जन्म: 2 अक्टूबर 1983 को पटना( बिहार) में
शिक्षा : जामिया मिल्लिया से उच्च शिक्षा
सृजन : सिनेमा पर अनेक लेख . फ़िल्म रिव्युज
संप्रति : सिनेमा लेखन
संपर्क : passion4pearl@gmail.com )

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