मृदुला शुक्ला की कविताएं
पिता
चौतरफा दीवारें थी
भीतर घुप्प अँधेरा
एक खिड़की खुली
कुछ हवा आई
ढेर सारी रौशनी
तुम चौखट हो गए
आधे दीवार में धंसे से
आधे कब्जों में कसे से
ये जो उजाला है ना
खिडकियों के नाम है
चौखट तो अब भी
डटी है दीवारों के सामने
अंधेरों से लड़ती......
पिता तुम चौखट ही तो रहे हमेशा ..
ये जो तमाम उजाले हैं हमारे हिस्से के
ये मुझ तक पहुंचे ही हैं
तुम्हारे कंधो पर सवार होकर ...
मेरी कविताएँ
कविताएं मुझे मिलती हैं
चौराहों पर ,तिराहों पर
और अक्सर
दोराहों पर
संकरी पगडंडियों पर कविताएं
निकलती हैं
रगड़ते हुए मेरे कंधे से कन्धा
और डगमगा देती हैं मेरे पैर
इक्क्का दुक्का दिख ही जाती है
तहखानों में अंधेरो को दबोचे
उजालों से नहाए
महानगरों की पोश कोलोनियों में
पिछले दिनों गुजरते हुए गाँव के
साप्ताहिक बाज़ार में
उसने आकर मुझसे मिलाया अपना हाथ
और फिर झटके से गुज़र गयी
मुस्कुराते हुए ,दबा कर अपनी बायीं आँख
मेरे बेहद अकेले और उदास दिनों में
वो थाम कर घंटो तक
बैठती हैं मेरा हाथ
थपथपाती है मेरा कन्धा
अपनी आँखों में
सब कुछ ठीक हो जाने की आश्वस्ति लिए
सच तो ये है कि
कविताये मुझे घेर लेती हैं
पकड़ लेती हैं मेरा गिरेबान
सटाक ,सटाक पड़ती हैं मेरी पीठ पर
और छोड़ जाती हैं
गहरे नीले निशान .....
मेरी पीठ पर पड़े गहरे नीले निशान ही तो हैं मेरी कविताएं
धृतराष्ट्र होना आसान है, गांधारी होने से
धृतराष्ट्र होना आसान है गांधारी होने से
धूल धुएं और कुहासे से भरे मौसमों में
आसन होता है जीवन
जब सब धुंधला सा हो ,आप गढ़ पाते हैं
मनोनुकूल परिभाषाएं
अपने अननुभूत सत्यों के
सहज होता है कहना
ठंडा पड़ा सूरज किन्नरों के हाथ की थाली है
बजते हुए किसी पुत्र जन्मोत्सव पर
अपने चेहरे पर उग आये कांटो को
मान लेना खरोंच भर
पिछली हारी हुई लड़ाई का
सामने रखे आदमकद आइने
आईने में भी हम खुद को देख
पाते हैं इच्छानुसार
घटा बढ़ा कर
पीछे से आता प्रकाश का श्रोत भर
कठिन समय में हथियार डालते हुए
आप खुद को पाते हैं बेबस, लाचार
बदलने में दृश्य को,
आइना झूठ नहीं बोलता
वो समझता है पीछे से आती प्रकाश की भाषा मात्र
मैं कल्पना करती हूँ
एक दिन प्रकृति उतार ले सूर्य ,चन्द्रमा
प्रकाश के तमाम श्रोत आकाश से
और टांग दे उनकी जगह उनके धुंधले प्रतिबिम्ब
निःसंदेह धृतराष्ट्र होना आसान है, गांधारी होने से
उकताहटें हावी हैं प्रतिबद्धताओं पर
मेरे सपने नहीं रहते अब
मेरी आँखों में
वो प्रायः होते हैं
क्रूर गाडीवान की भूमिका में
हाथ में चाबुक लिए ,
नाक के कसे नकेल,
गाड़ी में जुते दोनों बैलों की भूमिका में
अकेली होती हूँ मैं
कभी वो कूद कर सवार हो जाते हैं
मेरे कंधो पर
अटपटे रास्तों पर सुनाते हैं कहानियां
अंत में कहानी को रूपांतरित कर एक प्रश्न में,
चस्पा कर एक प्रश्नवाचक चिह्न
उगते सूरज के मुहं पर
वे फिर से जा बैठते हैं
बूढ़े बरगद पर ,बेताल की तरह
वो मुझे प्रायः मिल जाते हैं
प्रकाश से सराबोर रास्तो पर
चुपचाप चलते
हाथों में उठाये जलती मोमबत्तियां
मशाल की तरह
अब जबकि,उकताहटें हावी है
प्रतिबद्धताओं पर
छद्म मौलिकता के इस विषम दौर में
मैं रोज भरती हूँ उनमे
समुद्री हरा ,आसमानी नीला
और गौरैया के पंखों का धूसर सलेटी रंग ,
चौराहों पर लगी हाइड्रोजन लैम्पों के
नीचे से गुजरते
वो खो देते हैं अपनी पहचान
और घर लौट आते हैं ,मुहं लटकाए
गिरह कट गए मुसाफिर से
मैं खुद को पाती हूँ
रंगमंच पर ठठा कर हँसते हुए विदूषक सा
जो आंसू पोछने के लिए
प्रतीक्षा करता है
यवनिकापात की
वो खुद को साथ नहीं लाती
रोज सुबह
जब वो घर से निकलती है
खुद को घर मैं छोड़ आती है
और साथ ले लेती है अपने
वो तमाम असबाब......................
जिनको साथ रहना चाहती है वो
वो ओढ़ लेती है अपनी
पिछली रात की नींद
जो कभी पूरी नहीं होती
दिन के सपनो की वजह से
उसके कंधो पर सवार होती हैं
वो लोरियां
जिन्हें सुनाने से पहले
नींद आ धमकती है
उसकी आँखों मैं
उसकी आँखों मैं बसे होते हैं
रूहानी मुस्कुराहट वाले दो दांत
जिनके निकलने की तकलीफ
तारी रहती है ,हर वक्त उसके दिल दिमाग पर
मैं रोज मिलता हूँ उससे
बस पर चढ़ते,उतरते
बस वो नहीं मिलती मुझसे
क्यूंकि वो खुद को साथ नहीं लाती
अस्पताल
अस्पताल में अपने बिस्तर पर
अकेले लेटे,आप पाते हैं
आपके पास पर्याप्त कारण नहीं है दुखी होना का ,
वंहा मौजूद लोगों के चेहरे पर नाचती भय की तेखाएँ
भारी पड़ जाती हैं आपके हर दुःख पर
आप देखते हैं डॉ का सफ़ेद चोंगा पहनना उसे
नहीं साबित कर देता धवल ह्रदय होना
अक्सर साबित करता है ,
उसकी रगों में बहते लाल रंग का सफ़ेद हो जाना
बेवजह मुस्कुराती नर्सों के पास
कोई वाजिब वजह नहीं होती मुस्कुराने की
आप पाते हैं कि.उनके मुस्कुराने का सम्बन्ध
उनकी किसी आंतरिक प्रसन्नता से नहीं
उनके चूल्हे के रोटी से है
विभिन्न प्रकार के कचरों के निस्तारण के लिए रखे
लाल ,पीले, काले डिब्बे
आपको अपने ही मस्तिष्क के
गुप्त तहखानों से लगते हैं
मृत्यु के कोलाहल से भरी इस इमारत में
जीवन आकांक्षा नहीं आशा होता
डॉ के आखिरी न में सर हिलाने तक
चपटी थैली नुमा बोतल में खूंटियों पर लटकता रक्त
अक्सर टिकट होता है
आगे की सवारी का, जीवन की रेलगाड़ी में
यंहा दफ़न होती हैं मृत आशाएं
लिपटी सफ़ेद चादरों में
मृतात्माओं की जगह ,
उनके प्रेत नहीं ठहरते यंहा
चल पड़ते हैं अपने रोते बिलखते परिजनों के पीछे
सधः प्रसव पीड़ा मुक्त माँ की मुस्कुराह्टें
उलट देती
पीड़ा के सारी पिछली ज्ञात परिभाषाएं
नवजातों के कोमल रुदन परास्त करते रहते हैं
तीक्ष्ण मृत्युगंधी विलापों को
विशवास की पराकाष्ठा ,उम्मीदों के तिलिस्म होते हैं
टूटी कसौटियों खंडित आस्थाओं के शवदाहगृह होते हैं... अस्पताल
वो कमरा
बहुत बेतरतीब है कामगारों की बस्ती सा ये कमरा ,
बंद पड़ी दीवाल घडी वक्त पूछती रहती है सबसे
वक्त बे वक्त
और हमेशा अपना सीना टटोल ढूँढा करती है
टिक टिक की आवाज
चिंता में रहती है तीन टांगो वाली डायनिंग टेबल
इस घर के लोग अब कुछ खाते क्यूँ नहीं
याद करती है पकवानों की खुशबु
और खो जाती है बिना रुके चलती पार्टियों के दौर में
गठ्ठर मैं बंधी किताबें हुलस कर बात करती हैं अक्सर
उन दिनों की पढ़ी जाती थी बड़े शौक से
इस कमरे में अक्सर कानाफूसी होती है
यंहा टेबल तीन पैर की तिपाया दो पैर का
कुर्सियां बिना हत्थे की क्यूँ हैं
जब भी चरमरा कर खुलता है दरवाजा
चौकन्नी हो जाती है जंग खाई सिलाई मशीन
शायद आज फिर कोई तेल डाल करेगा पुर्जे साफ़, ,
वो इतराती हुई सी गढ़ेगी कुछ नया सा
हैंडल टूटे मग अक्सर बाते करते हैं कॉफ़ी के
अलग अलग फ्लेवर के बारे में,
कभी कभी मुझे ये कमरा बस्ती से दूर किसी वृधाश्रम सा लगता है
जहाँ सब खोये होते हैं अपनी जवानी के दिनों में,
सब रहते हैं उदास,
धूल की एक मोटी चादर बड़े प्यार से
समेट कर रखती उन सबको अपने भीतर,
जैसे अवसाद समेटे रहता है बुजर्गों को
मकड़िया मुस्कुराती रहती हैं सुन कर इनकी बातें
बुनते हुए जाल इस छोर से उस छोर तक
बुनते हुए मच्छरदानियों सरीखा कुछ
(रचनाकार-परिचय :
जन्म: 11 अगस्त १९७० को प्रतापगढ़ में
शिक्षा:स्नातकोत्तर
सृजन: उम्मीदों के पाँव भारी हैं कविता संग्रह प्रकाशित
संप्रति : शिक्षण, गाज़ियाबाद
संपर्क : : mridulashukla11@gmail.com)