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Channel: Hamzabaan हमज़बान ھمز با ن
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सुनो ! देश-दुनिया के नेताओं सुनो

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चित्र गूगल कृपा

(प्रिय पाठकों ! विनम्र आग्रह है कि लेख को पूरा पढ़ें , तभी अपनी कोई राय बनाएं। आतंकवाद से हर देश और हर व्यक्ति प्रभावित है. इसको नष्ट करने के लिए सभी के ईमानदार साथ की ज़रूरत है. )


 

शहरोज़ की क़लम से

 "11 साल जेल में आतंकवादी बनकर जिस कोठरी में रहा, वह इस घर से बड़ी थी लेकिन वहां मैं एक ज़िंदा लाश था और सिर्फ़ इस उम्मीद पर ज़िंदा था कि जिस देश का मैं नागरिक हूं, उसका क़ानून पूरी तरह अंधा नहीं है और मुझे इन्साफ मिलेगा."यह कहना है आदम सुलेमान अजमेरी का जो 17 मई, 2014 को जेल से बाहर आए हैं. उन पर अक्षरधाम मंदिर हमले में शामिल  होने का आरोप था और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन पर लगे सभी आरोप ख़ारिज कर दिए और उन्हें बाइज़्ज़त रिहा कर दिया. उनके साथ इस मामले में इनके समेत छह लोग रिहा हुए  हैं. ग़ौरतलब है कि  24 सितंबर, 2002 को दो हमलावरों ने अक्षरधाम मंदिर के भीतर एके-56 राइफल से गोलियां बरसाकर 30 लोगों की जान ले ली थी, जबकि लगभग 80 को बुरी तरह ज़ख्मी हो गए थे.

अब सवाल क्या मौज़ूं नहीं कि दोषी को हम अब तक क्यों नहीं पकड़ सके. हमारा तंत्र इतना बौना क्यों हो गया. इधर,  पुलिस ने वाह-वाही बटोरने के चक्कर में इन लोगों की ताबड़ तोड़ गिरफ़्तारी की. और इन्हें प्रताड़ित कर इनसे जबरन अपने अनुकूल बयान ले लिए.  इन्हें लश्कर-ए-तय्यबा का खूंख्वार आतंकवादी घोषित कर दिया। इसके बाद शुरू हुई इन बेकसूरों के घर वालों की परेशानी। बच्चे को घर से बहार निकलना छूट गया. उनकी  पढ़ाई छूट गयी. माँ बिलखते-बिलखते चल  बसी.  अब जब देश की सर्वोच्च अदालत ने इन्हें बा इज़्ज़त रिहा कर दिया, तो इनकी प्रताड़ना,  मानहानि, रोज़गार छूटना, बच्चों की पढाई और इस दरम्यान अपनों की मौत इसका हर्जाना कौन देगा। ऐसे मामलों  में मीडिया वाले भी कम दोषी  नहीं हैं.   ऐसी ख़बरों को पुलिस के हवाले से नमक-मिर्च लगा लगाकर छापते हैं. रोज़ नए-से-नए खुलासे करने में टीवी एंकर अपनी गर्दनें फुलाते हैं. आरोपी को तुरंत ही आतंकवादी बना देना। जबकि यह पत्रकारीय मूल्यों के विरुद्ध है.
आतंक ने विश्व में लाखों निर्दोष बुज़ुर्ग, स्त्री और बच्चे, युवाओं को हलाक किया है. भारत और पाकिस्तान भी इसकी हिंसा से दो-चार है. भले, हमारा सुरक्षा अमला सही दोषियों को नहीं दबोच सका हो(अधिकतर मामले में ऐसे आरोपी कोर्ट से रिहा हो चुके हैं ). लेकिन नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति नवाज़ शरीफ़ ने जिस गर्मजोशी के साथ मुलाक़ात की. आतंकवाद के ख़ात्मे का संकल्प लिया। महाद्वीप  के दोनों दिग्गजों से यह गुज़ारिश है कि यह संकल्प धरा पर भी उतरे।

नवाज़ से गुज़ारिश
नवाज़ साहब! कोई बहाना मत कीजियेगा। सब जानते हैं कि भारतीय उप महाद्वीप में लश्कर-ए-तय्यबा और तालीबानी ग्रुप आतंक को अंजाम दे रहा है. पाक को अपने यहां के कैंप को ध्वस्त करना चाहिए। आपको अपने यहां लोकतंत्र को मज़बूत करना होगा ताकि सरकारी काम-काज में फ़ौजी दख़ल कम हो. क्योंकि कई बार ख़बरें मिली हैं कि कश्मीर के बहाने आपकी फ़ौज आतंकवादियों की मदद लेती है.  आतंकवाद को मटियामेट करने के बाद ही हम अच्छे पड़ोसी बन सकते हैं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी विरासत साझा है.

 मोदी से आग्रह
मुल्क के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आग्रह है कि आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए बेहद ईमानदारी से प्रयास किये जाएँ। दहशतगर्दी फैलाने वालों को सख्त से सख्त सज़ा मिले। लेकिन सरकार को यह भी ध्यान रखना होगा कि इसमें निर्दोष युवा बलि का बकरा न बने. यदि संदेह के आधार पर पुलिस किसी को हिरासत में ले या गिरफ़्तार करे तो मीडिया तुरंत उसे आतंकवादी या मास्टर माइंड बतलाने की हड़बड़ी न दिखाए।

 हम जैसे ढेरों लोग भारत-पाक की दोस्ती के हिमायती हैं. हमें आस है कि आप दोनों जल्द ही साझी रणनीति बनाकर आतंकवाद के बनते गढ़ों को ज़मींदोज़ कर  देंगे।  

अरब के शेख़ों कान तुम्हारे भी खुलें
संसार में इस्लाम के नाम पर जहाँ-जहाँ भी आपके कथित जिहादी खूंरेज़ी कर रहे हैं, उनमें सभी अहल-ए -हदीस विचारधारा के समर्थक हैं. यह कोई ढंकी-छुपी बात नहीं रह गयी कि आप अपने गुनाहों को ढंकने के लिए इनकी आर्थिक मदद करते हैं. आपके यह जिहादी हमारे पढ़ने वाले युवाओं को वर्गला कर जन्नत का ख्वाब दिखाते हैं. फिर उसके पासपोर्ट वीज़ा की शक्ल में उस मासूम की कमर में खुदकश बम बाँध देते हैं. इससे वह भले जन्नत में न जाते हों, लेकिन कई नस्लों को जहन्नुम के हवाले ज़रूर कर जाते हैं. तो शेख साहब! अब अय्याशी छोड़िये। तेल के कुंए  ज़्यादा दिन काम नहीं आएंगे। बच्चों को पढ़ाइये। हमारे बच्चों को भी पढ़ने दीजिये। इस्लाम की गलत व्याख्या कर फ़िज़ूल ख्वाब मत दिखाईये।

अंकल सैम कब होगी चौधराहट कम
अफगानिस्तान से रूस की दखल कम करने के लिए आपने अरब और पाकिस्तान के गुरगुओं की बदौलत दहशतगर्दों को जन्म दिया। उसे  खुराक देनी शुरू की. उसे हथियार देने के साथ ट्रेनिंग भी दी. अब जब रूसी फौजी अफगानिस्तान से चले गए तो वहाँ की बदहाली शुरू हो गयी. समाज कूपमंडूक होने लगा. हँसते बच्चे, खिलखिलाते युवाओं का स्कूल- कालेज जाना बंद हो गया. लडकियां क़ैद कर दी गयीं। आपके परवरिश से परवान चढ़े तालिबानी आपस में ही मरने-कटने लगे. जब आपने रसद बंद कर दी, पाक ने हमदर्दी, तो ज़ाहिर है, उसने आपको ही डसने को फन काढ़ लिया। ट्विन टावर नेस्ट नाबूद होने के बाद आपने मिटटी के बुर्ज़ों को ढहाना शुरू किया। अनगिनत बेक़सूर बमबारी के ग्रास बने. फिर लाशों को रोटियां खिलाने की क़वायद।
अंत में आपने लोकतंत्र के नाम पर हामिद करज़ई की कठपुतली सरकार बनवायी। खैर! क़िस्साकोताह यह है कि इराक़, लीबिया, वियतनाम और अफगानिस्तान में आपको लोकतंत्र की याद आती है. आपका मानवाधिकार अरब पहुँच कर क्यों सजदे करने लगता है. यहां एक वंश की बादशाहत आपकी नींद ख़राब क्यों नहीं करती। और आपकी खुफिया यह भी तो जानती है कि शिक्षा संस्थानों के नाम पर यहां के शेख इन आतंकवादियों को रक़म भी मुहैय्या कराते हैं. विश्व मुखिया बनने के लिए इन्साफ पसंद बनना होगा। ऐसी चौधराहट तुम्हारी ज़्यादा दिनों तक नहीं  चलने वाली, अभी भी चेत जाओ.       
    

हाशिए का आदमी

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दिलीप तेतरवे की कविताएँ

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो रात का खिलौना
और दिन का
होता है चाकर
जिसका कोई पता नहीं होता
पर जो लापता भी नहीं होता
जिसका कोई परिचय नहीं होता
पर जिसका परिचय
बड़े बड़े लोग
बनाते और बिगाड़ते रहते हैं
और जो
हर नए परिचय में
ढल जाता है
और मरने से पहले जो
अपने सारे
परिचयों से
मुक्त हो जाता है
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

2.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिसकी जांघों पर
असमय
जबरन
अनेक लाल फूल
खिला दिए जाते हैं
और जो आदमी
समझ भी नहीं पाता
अचानक उग आये फूलों को
और जब वह
उन्हें समझ पाता है
उससे समझने का अधिकार ही
छीन लिया जाता है
और जिसकी आत्मा पर
महात्मागण
करते हैं योग
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

3.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिसके सपनों के ऊपर
लोग अपने सपने जड़ देते हैं
और जिसके रोते हांफते ह्रदय पर
लोग घाव बना देते हैं
और उस पर नमक
छिड़क देते हैं
और जिसकी दुखती रगों पर
लोग छेड़-छाड़ करने से
कभी बाज नहीं आते हैं
और जिसे लोग
अपना काम पूरा होते ही 
एक झटके में
बाहर का रास्ता दिखा देते हैं
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है     


निराशा के पद
1.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो यह हिसाब नहीं रख पाता कि
कितनी बार उसकी साँसें फूलीं
कितनी बार उसकी आत्मा चीखी
कितनी बार उसका दिल दरका
कितनी बार उसके प्राण
कंठ में अंटके
और जिसे लोग परदे में
बेपर्दा करते हैं
और खुले में
कानी आँख से भी नहीं देखते
और जो
अपनी छोटी सी जिन्दगी में
अनेक बार मौत से सामना करते हुए
मिट्टी में मिल जाता है
और जिसकी मिट्टी पर
किसी के आंसू नहीं गिरते
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

2.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो माँगता रहा है
जन्म के बाद से ही
रोटी या मौत
और जो
इन दोनों के लिए
धारण करता रहा है
असीम/आश्चर्यजनक सहनशीलता
किन्तु
अब जो चल पड़ा है
आकाश को पृथ्वी पर लाने
उसके अहंकार को/धोने/सुखाने/मिटाने
और जो बनाने जा रहा है
अब रोटी को
सब का अधिकार
और मौत को प्राकृतिक
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है


3.

 यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो निर्दोष
हमेशा ढोता रहा है
आरोपों का पहाड़
घाघ अपराधियों के द्वारा
बनाया गया/आरोपों का पहाड़
और जो अब
आरोपों के पहाड़ को ख़ारिज कर
जा रहा है बनाने
आरोप-प्रत्यारोप से मुक्त संसार
और जो तोड़ रहा है/वह परम्परा
जिसमें/एक चोर
दूसरे चोर को
बताता रहा है डाकू
और जो सारे चोरों के लिए
बना रहा है सुधार-गृह
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है



 आशा के पद

1.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो दूसरों की कथित दया पर
कथित दानवीरता पर
रहता रहा है निर्भर
किन्तु जो अब
स्व-रचित शब्द-कोश में
दया और दान के
उचित और सात्विक अर्थ को
जा रहा है अंकित करने
और जो
समस्त छलने वाले शब्दों के
अर्थ और उद्देश्य को
तर्क और कर्म का
देने जा रहा है आधार
और जो/सम्पूर्ण भ्रष्ट-शब्द-कोश का
करने जा रहा है संपादन
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है                                 

2.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो बुनता है
सब के लिए कपड़े
और किया जाता रहा है मजबूर
निवस्त्र रहने के लिए
लेकिन
जिसने अब
बुनकरों के लिए
उनके तन ढंकने लिए
कपड़ा बुनना
सिलना
कर दिया है प्रारंभ
और जो
पुरानी वस्त्र-परंपरा को
अपनी वस्त्र-क्रांति से
कर रहा है समाप्त
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

3.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिसे अब तक/कंगाल/असंस्कृत/अछूत
उचक्का/चोर आदि शब्दों से
किया जाता रहा है संबोधित
किन्तु अब जो
मंगल-दीप बन कर
है जल रहा
और कर रहा है
चिंतन-संशोधन
ऐसे शब्द-संबोधन करने वालों का.....
और जो कर रहा है दूर
समाज का मानसिक रोग
उसकी जड़ता/निष्ठुरता/कामुकता
बना कर हृदय-हृदय को संवेदनशील
और जो है जगा रहा
सुप्त-मन को
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

4.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिसे बचपन में ही
चल गया था पता कि
उसे बचपन में ही हो जाना है बड़ा
ताकि वह/चुका सके
अपनी जिंदगी की कीमत
रोज पिस कर/रोज लुट कर
रोज मर कर
किन्तु जो अब/निकल पड़ा है
हर झुग्गी में
दीप जलाने/लक्ष्मी बुलाने
रंगोली रचने 
अन्न का थाल सजाने
सूखे होठों पर/लालिमा बिखेरने
और जो पहचान से वंचित हैं
उनको पहचान दिलाने
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है                                    

5.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिससे लोग
बदलते रहते हैं रिश्ते
दिन में कुछ और
रात में कुछ और
लेकिन जो/अब अपना रिश्ता
पूरी दुनिया से
बना रहा है
बराबरी पर
और जिसके रिश्ते की बुनियाद का
सदियों बाद
आयी है मानवता
करने स्वागत
और जो हर लावारिस के जनक को
जा रहा है करने खड़ा
समाज में
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

6.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो तपते-तपते
वाष्पिभूत हो गया
बादल बन गया
और उस बादल में अमृत भर गया
और अब वही अमृतमय बादल
निकल पड़ा है
दलितों, शोषितों और पीड़ितों पर
अमृत बरसाने
और जो
गरज-गरज कर
गा रहा है जागरण का गीत
और जिसका साथ दे रहे हैं/हजारों कंठ    
और जिसके साथ
अलमस्त है/झूम रहा है
आबादी का अस्सी प्रतिशत
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

                                  
7.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिस पर रहा है समय
सदा प्रभावी/सदा शासक
घड़ी की हर टिक-टिक
जिसकी धड़कनों को
करती रही है और तेज और तेज
लेकिन/जिसने अब
पकड़ ली है वह गति
जो बहुत अधिक है/समय की गति से
और जो पाट रहा है हजारों साल का अंतराल
जिन हजारों साल में/हाशिए के आदमी
जकड़ दिए गए थे
अधार्मिक बंधनों में
निबंधित गरीबी और जिल्लत में
और जो अब
समाज को मुक्त करने जा रहा है
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

 8.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो है
बिल्लियों के उस समाज का
एक चूहा
जिस समाज में/चूहे की मौत होती है 
तो बिल्लियों का खेल होता है
लेकिन वही चूहा
अब लोहे के जाल को काट कर
अधिकार युक्त आदमी बन कर
चल पड़ा है
बिल्लियों को आदमी बनाने
उनकी उग्रता मिटाने
उनकी हिंसा मिटाने
उनकी नीचता मिटाने
और जो बिल्लियों को बताने चला है
कि चूहा भी क्रांति कर सकता है
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

                                    

(कवि-परिचय-

जन्म: 5 फ़रवरी 1951
शिक्षा :
सृजन: रचनाएं: कहानी, नाटक, धारावाहिक नाटक, व्यंग्य आलेख, कविता, बाल कहानियां, बाल नाटक आदि विभिन्न पत्र प्रत्रिकाओं में प्रकाशित/आकाशवाणी, दूरदर्शन और गीत और नाटक विभाग द्वारा प्रसारित. एक काल खंड की यात्रा(व्यंग्य उपन्यास), हाशिए का आदमी और तुम बादल हो (काव्य), बिरसा की महागाथा(नाटक), सिंगिदई की गाथा(गीत नाटिका), बिरसा की अमर कहानी (काव्य), हमारे पुरखे (ऐतिहासिक कहानी), धारावाहिक नाटक: मैडम शा के अफ़साने, मन की खिड़की और किलकारी, 1857 के शहीद नीलाम्बर और पीताम्बर पुस्तके प्रकाशित
अन्य : आईआईएम, रांची के शैक्षणिक फिल्म, ‘बेयर फुट मैनेजर’ के लिए स्क्रिप्ट लेखन,
पुरस्कार: झारखण्ड रत्न-2008(साहित्य)
संप्रति:  रांची में रहकर अनवरत मासिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन ।
संपर्क: diliptetarbe2009@gmail.com)

ऋतु दा या ऋतु दी मतलब ऋतुपर्णो घोष

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रिश्तों की जटिलता का बारीक फ़िल्मकार 



 








ऋतु कलसी की क़लम से  


विज्ञापन की दुनिया से अपना कैरियर शुरू करने वाले ऋतुपर्णो घोष ने फ़िल्मी कैरियर की शुरुआत बाल फ़िल्मों के निर्माण से की। वर्ष 1994 में बाल फ़िल्म 'हिरेर आंग्टी'के निर्देशन से उन्हें शोहरत मिलने लगी थी। इसके बाद 'उनिशे एप्रिल'के लिए उन्हें 1995 में 'राष्ट्रीय पुरस्कार'से नवाज़ा गया था। यह फ़िल्म प्रख्यात फ़िल्म निर्देशक इंगमार बर्गमन की 'ऑटम सोनाटा'से प्रेरित थी। इस फ़िल्म में ऋतुपर्णो घोष ने माँ-बेटी के तनावपूर्ण रिश्तों को बारीकी से रेखांकित किया था। एक कामकाजी महिला अपने व्यावसायिक कैरियर में सफल है, लेकिन अपनी पारिवारिक ज़िंदगी में वह असफल रहती है। इसका असर उसकी बेटी पर होता है और बेटी अपनी माँ से इस बात को लेकर नाराज है कि वह अपने व्यवसाय को कुछ ज़्यादा ही महत्त्व देती है। इस फ़िल्म में अपर्णा सेन, देबश्री राय और प्रसन्नजीत चटर्जी ने अभिनय किया था। इस फ़िल्म को सिने प्रेमियों ने खूब सराहा था। उनके जानने-पहचानने वाले लोग उन्हें 'ऋतु दा'के नाम से पुकारने लगे थे।

ऋतुपर्णो घोष को फ़िल्म मेकिंग की प्रेरणा अपने पिता सुनील घोष से ही मिली थी। सुनील डॉक्युमेंट्री फ़िल्म मेकर और पैंटर थे। ऋतुपर्णो  ने अपनी प्रारम्भिक स्कूली शिक्षा 'साउथ पॉइंट हाईस्कूल'से प्राप्त की। उन्होंने अपनी अर्थशास्त्र की डिग्री 'जादवपुर यूनिवर्सिटी', कोलकाता से प्राप्त की थी। आगे चलकर अपने आधुनिक विचारों को उन्होंने फ़िल्मों के जरिये पेश किया और जल्दी ही अपनी पहचान एक ऐसे फ़िल्म मेकर के रूप में बना ली, जिसने 'भारतीय सिनेमा'को समृद्ध किया। अपनी फ़िल्मों के माध्यम से ऋतुपर्णो घोष ने बहुत लोकप्रियता प्राप्त की। सारे बड़े फ़िल्मी कलाकार उनके साथ काम करने के लिए तुरंत राजी हो जाते थे, क्योंकि उनकी फ़िल्मों में काम करना गर्व की बात थी। रिश्तों की जटिलता और लीक से हट कर विषय उनकी फ़िल्मों की ख़ासियत होते थे। बांग्ला उनकी मातृभाषा थी और इस भाषा में वे सहज महसूस करते थे। इसलिए अधिकतर फ़िल्में उन्होंने बांग्ला भाषा में ही बनाईं। फ़िल्म फेस्टिवल में सिनेमा देखने वाले दर्शक और ऑफबीट फ़िल्मों के शौकीन ऋतु दा की फ़िल्मों का बेसब्री से इंतज़ार करते थे।

ऋतुपर्णो घोष लेखक और कवि भी थे. बंगाल के सबसे प्रभावशाली लोगों में उनकी गिनती होती थी.कुछ समीक्षकों का यह भी कहना था कि उन्होंने बंगाल के साहित्य और फिल्म शैली को दुनिया तक पहुँचा कर, सत्यजीत रे की विरासत को आगे बढ़ाया था. लेकिन उनकी असमय मौत के कुछ वर्षों पहले वह फिल्म निर्माता कम और एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) समुदाय के प्रतीक ज्यादा बन गए थे.
ऋतुपर्णो ने सार्वजनिक रूप से क्रॉसड्रेसिंग करके, मेकअप लगाकर, पगड़ी और खूबसूरत दुपट्टों का इस्तेमाल शुरू कर पूर्वाग्रहों को चुनौती दी. अपनी लैंगिकता को स्वीकार कर उन्हें एक अलग किस्म का प्रशंसक वर्ग मिला, लेकिन उनके करीबी लोगों ने उनसे कुछ दूरी भी बना ली, और उन्हें मिला एक अकेलापन, जिसे उन्होंने दुखी मन से स्वीकार भी किया.उनके बारे में अप्रिय चुटकुले बनने लगे. हालाँकि शीर्ष अभिनेत्रियाँ (राष्ट्रीय पुरस्कार की उम्मीद में) उनके साथ काम करने के लिए उतावली थीं, लेकिन फिल्म उद्योग में अंतर्निहित होमोफोबिया को समझते हुए वह इस बात को लेकर सतर्क थे कि वह मर्द कलाकारों के साथ कैसे बातचीत कर रहे हैं.
ऋतुपर्णो ने अर एकती प्रीमर गोल्पो, मैमोरिज़ इन मार्च और चित्रांगदा में उन्होंने अभिनय भी किया. उन्होंने स्त्री की तरह दिखने के लिए कुछ सर्जरियाँ करवाईं और हॉर्मोन थेरेपी का सहारा भी लिया. इन फिल्मों को बनाने और खुद को सबके निशाने पर रखा उनका व्यक्तित्व फीका और सावधानीपूर्ण हो चुका था, और वह पूरी तरह से स्वयं को अलग-थलग महसूस करने लगे थे. लेकिन वह जानते थे कि वह अपने सेलेब्रिटी हैसियत का इस्तेमाल एलजीबीटी समुदाय के लिए कर सकते हैं.














फैशन शो हो या फिर पुरस्कार समारोह, ऋतु महिलाओं की पोशाक में नज़र आते थे जिसके लिए वो कई बार मीडिया में चर्चा का पात्र भी बन जाते थे. बावजूद इसके वो बिना किसी झिझक या शर्म के महिलाओं के कपड़े पहनते थे और समलैंगिकता पर अपने विचार खुलकर व्यक्त करते थे.ऋतु की सहकलाकार रही दीप्ति नवल का कहना है अपनी सेक्शुएलिटी को लेकर इतना सहज मैंने किसी को नहीं देखा. उसने मुझे बताया था कि एक बार अभिषेक बच्चन ने उसे ऋतु दा नहीं ऋतु दी कहा और ये बताते हुए उसकी आंखों में चमक थी.
--
( रचनाकार परिचय:
 जन्म: 9 सितंबर
शिक्षा : एस एम् डी आर एस डी कालेज, पठानकोट से स्नातक
सृजन:पंजाबी की लगभग सभी स्तरीय पत्रिकाओं में कहानियां. दो पुस्तकें जल्द ही प्रकाश्य
रुचि: अध्ययन, लेखन और नृत्य
सम्प्रति:जालंधर से फ़िल्म की पत्रिका ‘सिने वर्ल्ड ’ का संपादन व प्रकाशन
ब्लॉग: पर्यावरण पर हरिप्रिया
संपर्क:reetukalsi@gmail.com)

कविता का कुलदीप, ग़ज़ल की अंजुम

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चार कविता : चार ग़ज़ल
 
अकेले में बहुत चीखा किये है ! समंदर रात में रोया किये है !!
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
कुलदीप अंजुम की क़लम से


गुनाहगार तो मैं भी हूँ

बदलाव वक़्त की ज़रुरत है
ज़िन्दगी ने यही सिखाया है
सब बदल गए
हवा, पानी, रुत औ'फ़िज़ाएँ
शायद बदल गया

अक्से गुनाह भी ....!
सुबह दफ्तर जाते वक़्त
एक वृद्धा देखी थी
ज़र्ज़र ,मलिन, धूसरित काया
माँस कहाँ ख़त्म
हड्डियाँ कहा शुरू ..
कुछ पता नहीं !
ज़िन्दगी से इस कदर अनमनापन
स्टेशन के एक कोने में
इतना बेबसपन...
मानो खुद के वजूद को ललकारती
इंसानियत को दुत्कारती
हर मुसाफिर को घूरती
जारी थी एक अबूझ सी खोज
ना जाने कब से

आखिर मदद के हाथ
इतनी आसानी से तो नहीं मिलते ...!
मैंने भी डाली
एक बरबस सी
ठंडी निगाह......
और फिर ज़िन्दगी ने
जोर का धक्का दिया

शाम को वक़्त जब कुछ ठहरा
तन्हाई ने दामन थमा
तो आंख शर्म से झुक गयी
ना जाने क्यूँ लगा
कि
गुनाहगार तो मैं भी हूँ
उस बेरहम खुदा के साथ.........!!

2.

हमेशा गुमसुम से रहने वाले
दूसरों के लिए लगभग झक्की
अजनबी और अपने कहे के प्रति
औसतन ईमानदार
कवि को
कब चाहिए होता है
कोई ज्ञानपीठ
कोई पद्म
यहाँ तक के कोई दीवान
या रिसाला
वो तो चाहता है
के कविता
सीधे उसके कोख से उतरकर
एक मुसलसल सफर में लग जाये !
सफ़र, एक ऐसा सफ़र
जिसकी शुरुआत ही
गली के
उस आखिरी कोने से हो !

जंग ज़िन्दगी से ...

इन्सान और जिंदगी
के बीच की जंग
शाश्वत और ऐतिहासिक है |
यदि केवल कर्म ही
इस प्रतिस्पर्धा का
आधार होता
तो सुनिश्चित सी थी
इन्सान की जीत ,
मगर इस जंग के
अपने कुछ एकतरफा
उसूल हैं ,
भूख, परिवार, परम्पराएं
मजबूरी, समाज, जिम्मेदारियां
खींच देती हैं
हौसलों के सामने
इक लक्ष्मण रेखा
और फिर कर्म
का फल भी तो
हमेशा नहीं मिलता ,
लटकती रहती है
भाग्य की तलवार |
दमतोड़ देते हैं हौसले
और घट जाती है
जीवटता के जीतने की
प्रत्याशा ||

सुनो ....

उदास क्यूँ हो तुम .....
एक उचटती नज़र डालो  जरा अपने इतिहास पर
तो जानोगे कि
तुमने रची है अनेक क्रांतियों की रूपरेखा ...
तोड़ चुके हो कई बार वक़्त का ठहराव
तुमने हमेशा पैदा किया है नया हौसला
बदली हैं इंसानी सोच और तोड़े हैं सोच के दायरे
तुम्हारे खून में है तोडना बंदिशें
और एक अल्हड़पन ......
व्यापक है बहुत तुम्हारा विस्तार
तुम फैले हो रूस  से लेकर लातिन अमरीका  तक
भारत से लेकर फ़्रांस और क्यूबा तक
और आजकल तुम मशहूर हो ट्यूनीशिया  से लेकर सीरिया तक
तुम बसे हो सुकरात से लेकर कन्फ्यूशियस तक
रूसो ,वाल्टेयर से मार्क्स तक
मार्टिन लूथर से लेकर गाँधी तक
ग़ालिब से लेकर लमही के प्रेमचंद तक .......

 
और सुनो
तुमने नहीं छोड़ा कभी भी मुझे एकाकी
चलते रहे हो साथ हमेशा कदम बकदम बतौर हमसाया
निराश  मत हो
मुझे यकीन है तुम
बदल दोगे दुनिया
अपनी आखिरी सर्द आह लेते लेते ......

.............

.........

...शब्द असहाय नहीं हो तुम !

 

1.
अब हो गयी है वक़्त की पहचान बग़ावत  !
मजबूरिओं में कर रहा इन्सान बग़ावत  !!

शुरुआत में अच्छा बुरा सब इल्म उसे है !
फिर बाद उसके सबसे है अनजान बग़ावत  !!

अंजाम से आगाज़ को देखा जो पलटकर !
क्या पूछिए कितनी हुई हैरान बग़ावत  !

देखो जरा समझो भी तो मौसम का तकाजा  !
ये क्या कि हर इक बात का उन्बान बग़ावत  !

परखो जरा उनको कभी बीमारे जुनूं तुम !
करते  रहे जो  आजतक ऐलान बग़ावत  !

2. 

जिन्दगी क्या अजब मुसीबत है !
हर घड़ी कुछ न कुछ ज़रुरत है !!

जब भी सोचो की बच गए अब के !
उसके अगले ही पल फज़ीहत है !

तुम इसे छोड़ने को कहते हो !
ये मेरी एक ही तो आदत है !

सच कहा पास कुछ नहीं मेरे !
बस मेरे नाम एक वसीयत है !!

 
3.

क्या अजब काम खैरख्वाही भी !
लूट के साथ रहनुमाई भी !! 

है पशेमाँ बहुत खुदा अबके !
लोग कोसें भी, दें दुहाई भी !!

हाकिमे वक़्त ने सुना ही नही !
वक़्त रोया, कसम उठाई भी !!

क़त्ल कर कर के थक गए अब वो !
खुश कहाँ शहर के दंगाई भी !!

और क्या चाहिए तुझे उससे !
होश है , साथ लबकुशाई भी !!

 
4.

रेत पे दुनिया बसाये बैठे हैं !
नुमाइशे ख्वाब सजाये बैठे हैं !!

जिंदगी से अनमना पन देखो !
ख्वाब से दिल लगाये बैठे हैं !!

मंजिलो तक कौन ले जाये मुझे !
रास्ते सब सर झुकाए बैठे हैं !!

गर्मी ऐ बाज़ार को तो देखिये !
सब मसीहा फड लगाये बैठे हैं !!

मेरी आँखों में ही खली अश्क हैं !
बाकि सब तो मुह घुमाये बैठे है !!

हसरतो ने आके आजिज़ जान दी !
फिर भी हम हिम्मत जुटाए बैठे हैं

(रचनाकार परिचय:
पूरा नाम: कुलदीप यादव 
जन्म : 25 नवंबर 1988 को फ़र्रुख़ाबाद में
शिक्षा: बीटेक
सृजन: कविता व ग़ज़ल
सम्प्रति: .दक्षिण अफ़्रीका में  सॉफ्टवेयर इंजिनियर
ब्लॉग : राही फिर अकेला है
संपर्क: Kuldeep.yadav@standardbank.co.za)


हमज़बान पर पहले भी

रास्ता बनाती हुई रोशनी

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जसिंता केरकेट्टा की कविताएं



नदी और लाल पानी

कोका-कोला बनाकर
तुमने उसे ''ठंडा का मतलब''बताया
तो अब दुनियां को भी बताओ
सारंडा के नदी-नालों में बहते
लाल पानी का मतलब क्या है?
नदी के तट पर चुंआ बनाकर, पानी
छानते-छानते थक चुकी जुंबईबुरू की
सुकुरमुनी को तुम क्या समझाओगे?
कौन सी उपमा देकर
नदी के इस लाल पानी की ओट में
अपने गुनाहों के रंग छुपाओगे,
पीकर जिसे मौत को गले लगा रही सोमारी
उसकी लाल आंखें सवाल पूछती हंैं तुमसे
कादो से सना लाल पानी
उतार देने को उसके हलक में
और कितने साल की लीज तुमने ले रखी है?
वो लोग भी कहां चले गए, जो कल तक
खूब करते थे लाल पानी की राजनीति
कितनी सशक्त थी वो रणनीति कि
आज तक रंग पीकर बह रही नदी
सवाल पूछ रही है उस शक्स से भी
जो सारंडा के विकास का दावा ठोक रहे,
देवियों की नग्न कलाकृति देखकर हुसैन को
तुम देश निकाले की सजा सुनाना चाहते थे
तो इंसानों की जिंदगी विकृत कर देने वाली
ऐसी हरकतों के लिए क्या दे सकोगे
सारंडा निकाले की सजा?

गुमनाम गांव

आदिकाल का वक्त समयचक्र पर चढ़कर
मानो लुक-छुप कर गिरती किरणों के सहारे
फिसल कर उतर आया है देखो
सारंडा के बिहड़ जंगलों के अंदर, तभी
इस काल में आदिवासी आज भी
झाड़-झंकड़ साफ कर पूर्वजों की तरह
सर छुपाने को बना रहे मिट्टी के घर
कोड़ कर पथरीली जमीनें बना रहे खेत
खा रहे हैं जो कंद मूल और फल फूल
हर रोज चल-चलकर पैरों से खुद
पहाड़ों पर बना रहे पगडंडियां
ऐसे गुमनाम गांव जिसने कभी देखी नहीं
जंगल के बाहर की दुनियां
सांसे जो चलती हैं अंधेरे में चुपचाप
छोड़ती हैं देह का साथ
अनजानी बीमारियों के हाथों कत्ल होकर
देखती है साथ छूटे उन देहों को
बहती हुई लाश बनकर लाल नदी में
इससे बेखबर
उसी सारंडा के जंगलों में घूमती -फिरती
आती है सरकार सिर्फ चंद चिंहित गांवों में
रास्ता बनाती हुई सोलर लैंप की रोशनी में
और खनिजों के होने के सही निशान
ढूंढ निकालती है बड़ी आसानी से जाने कैसे
पर इन्हीं जंगलों में नहीं खोज पाती
उन गुमनाम कई गांवों का पता ।।

प्रकृति और स्त्री

सदियों से तुम डरते रहे प्रकृति से
सोचकर, वो है सृजन के साथ विनाश की भी देवी
तुम उसे कभी समझ नहीं पाए, जैसे
कभी समझ नहीं पाए तुम स्त्री को भी
औजार और सत्ता हाथ में आते ही
पहले किया प्रकृति को तबाह
करने को उन पर एकक्षत्र राज
कभी न सुनी स्त्री की भी आह
सृजनशाीलता की जादुई डिबिया में बंद
कैद रह गयी हमेशा उनकी आवाज,
तुमने स्थापित किया देवियों को
घर से बाहर, बनाकर मंदिर
तुम्हारी बनायी विकसित दुनिया में
ताकि, हमेशा के लिए उन मंदिरों में
पुरातन सभ्यता की देवियां, रह जाएं बंदी,
‘मातृसत्तात्मकता’ के शब्द जाल में कैद
ये देवियां हर साल अलग-अलग नामों से
तुम्हारे ही हाथों से लेती हैं आकार
तुम्हीं उतारते हो उनकी आरती
फिर करते हो
अपने ही हाथों उनका अंतिम संस्कार,
तुमने धरती को खोद डाला
उसके गर्भ से निकालने को
आर्थिक वर्चस्व के लिए संपदा अपार
पीढि़यों पर करने को अपना अधिकार
तुमने अनसुनी कर दी स्त्री की चित्कार
फिर आज कौन सी ताकत तुम्हें
खींच लाती है इन देवियों के दर
वो है सिर्फ और सिर्फ
प्रकृति और स्त्री से तुम्हारा डर।।

टूटते पहाड़ और टूटती जिंदगियां

पहाड़ के पहाड़ दे दिए जाते हैं
यहां लीज पर
लीज मिले पहाड़ों के सीने पर
होता है हर रोज विस्फोट
एक पहाड़ अब बन जाता है कोई खंडहर
उन खंडहरों में एक उम्र गुजारती हैं
परित्यक्त, विधवा, एकल, गरीब महिलाएं
पत्थर तोड़ती हुई धूल-कणों को सूंघते हुए
खंडहर के अंदर रिसते पानी को पीते हुए
किसी कालेपानी की सजा सी, धीमी मौत मरने को,
हर धमाके के साथ पहाड़ों के बीच टूटती हैं
उन महिलाओं की जिंदगी भी, जो जानती हैं
लंबे अरसे से वहां काम करते-करते
चंद पैसे और एक गंभीर बीमारी के सिवा
अंततः कुछ भी उनके हाथ नहीं बचेगा
महिलाएं जो करती हैं परिवार व बच्चों के लिए
चंद पैसे के बदले फेफड़े में धूल भरने का सौदा
महसूस करती हैं पहाड़ और उनकी स्थिति
एक सी हो गई है जैसे दोनो बेजुबां से,
पहाड़ टूटते हैं पर कुछ बोल नहीं सकते
जो बोल सकते हैं वो अपना मुंह नहीं खोलते
बस देखते हैं टुकुर-टुकुर कैसे कोई
पहाड़, जंगल, जमीन को ट्रकों पर लादकर
ले जा रहा एक मजबूत घर जमाने को
जो कहते हैं खुद को रखवाले, कैसे वो लोग
इन जंगलों-पहाड़ों की खूबसूती देकर किसी गैर को
देखो हाथ हिलाते हुए निकल जाते हैं हर साल
देश के दूसरे भागों में पहाड़ी सैर को ।।


क्यों नहीं होता मलाल

हर साल इस देश की गलियों से निकलकर
हजारों लोग जाते हैं विदेश रंगीन सपने लिए
किसी भारतीय को अगर किसी गोरे ने मार दी चाकू
मानवता चीखती है अपने देश के हर कोने से
देशभक्ति की लहू टपकती है इस देश के सीने से
छिड़ जाती है बहस भारतीयों की सुरक्षा पर
हर कोई टिप्पणी करता है गोरों के नस्लभेदी रवैये पर,
हमारे गांव से निकलकर फूलो भी जाती है
अपने ही देश के किसी शहर में, जहां
चाकू से गोद दिया जाता है उसका चेहरा
बिगाड़ दिया जाता है इंसानी शरीर का नक्शा
इसी देश में नस्लभेदी, संवेदनहीन लोगों द्वारा,
मसल दिया जाता है उन पलाश के फूलों को
जो बिखरी होती है महानगर के हर घर में
जंगल से निकल कर मेहनत के रंग से
उनके घर की चारदिवारियेां को रंगती हुई,
खरीद लिया जाता है उसका कोख
एक ही घर के सारे मर्दो द्वारा
जलाने को चिराग अपने वंश का
उस फूलो की जिंदगी की लौ बुझाकर
लौट आती है वो अपने घर वापस
जब नुचे-खुरचे, चिथड़े-चिथड़े हो चुके
अपनी आत्मा के टुकड़ों को समटते हुए
किसी जिंदा लाश की तरह चलती हुई
तब देश के कोने-कोने से नहीं उठता
ऐसी ही हजारो फूलो की सुरक्षा पर सवाल
नस्लभेदी, संवेदनहीन देश के लोगों को
क्यों नहीं होता अपनी करतूतों पर मलाल ।।
 
तुम्हारे योद्धा होने की कहानी

ओ सांवरी,
तुम्हारे माथे पर ये जख्म कैसा
कोई गाढ़ा लाल सा
जैसे जम गया हो रक्त
माथे पर तुम्हारे न जाने
कई सदियों से पुराने घाव सा
और तुम उसपर डाले फिरती हो
डहडहाता लाल रंग का सिंदूर
जिससे छुपा सको जख्म अपने
और तुम खुश हो जमाने को
देकर अपने सुहागन होने का प्रमाण,

देखो न गौर से सांवरी
उनके बदन पर तुम्हारे लिए
कौन-कौन से और कितने प्रमाण हंै ?
क्या कोई पुरानी निशानी
रख छोड़ी है उसने ?
जिसपर जमे परतो को खुरचकर
तुम्हारी नई पीढि़यां पढ़ सके, कभी
तुम्हारे योद्धा होने की कहानी,

ओ सांवरी,
उनके कई गुनाहों की
आड़ी-तिरछी हजार लकीरें
अपने बदन पर लिए तुमने
क्यों सीख लिया उसपर
रेशमी टुकड़े डालकर उन्हें छुपाना,

देखो इन सफेद कपड़ों के पीछे
तुम्हारे बदन पर हिंसा की खरोंचें हैं
उन खरोंचों से निकलते लाल खून को
तुम अपने मन के चुल्हे का अंगार बना लो
जिसपर खुद को तपाकर गढ़ सको एक खंजर
जिससे भविष्य की पहाड़ों पर खोद सको़
तुम्हारे जीवन जंग के मैदान में
हमेशा से एक योद्धा होने की कहानी.................।।



(रचनाकार परिचय:
जन्म: झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के एक छोटे से गांव खुदपोस के बांधटोली में.  पिता के बिहार पुलिस में होने के कारण बचपन बिहार और संथाल परगना में बीता।
शिक्षा: गोड्डा के ख्रीस्त राजा स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा शुरू हुई। मास कम्युनिकेशन में ग्रेजुएशन संत जेवियर्स काॅलेज रांची से ।
सृजन:  स्कूल के दौरान रांची  से निकलने वाली पत्रिका राही में कहानी व कविता का प्रकाशन। इसके अलावा ढेरों पत्र-पत्रिकाओं में रिपोर्ट, लेख, कविताएँ 
सम्मान: छोटानागपुर सांस्कृतिक संघ का  2014 में प्ररेणा सम्मान
संप्रति:  प्रभात खबर, दैनिक जागरण, गुलेल डाॅट काॅम, डीएनए डाॅट काॅम के लिए रिपोर्टिंग करने के बाद वर्तमान में तहलका सहित अन्य पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता।
संपक:  jcntkerketta7@gmail.com )

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है: बिस्मिल अज़ीमाबादी

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سرفروشی کی تمنا اب ہمارے دل میں ہے

دیکھنا ہے زور کتنا بازو ے قاتل میں ہے

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू -ए-क़ातिल में है।


Sarfaroshi ki Tamanna Ab Hamare Dil Me Hai
Dekhna Hai Zor Kitna Bazu-E-Qatil Me Hai






यह शेर बिस्मिल अज़ीमाबादी का है. लेकिन आज़ादी के दौरान इसके असर ने यूँ हंगामा बरपा किया कि  हर जुबां पर यह नारा बन गया. ख्यात क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल ने खुद इस ज़मीन पर नज़्म कही. बस यहीं से यह शेर उनके नाम मंसूब हो गया। इस संबंध में विस्तृत लेख यहां पढ़ें।


महिलाओं ने रचा केरल का इतिहास

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विकास का मॉडल कुदुंबश्री  















मनोरमा सिंह क़लम से 


तरक्की और विकास की पहली शर्त है लोगों का जागरूक और शिक्षित होना, केरल की साक्षरता दर भारत के सभी राज्यों में सबसे अधिक रही है और यही वजह है कि यह भारत के सबसे विकसित राज्यों में से रहा है। देश का सबसे शहरीकृत राज्य होने के साथ केरल की शहरी और ग्रामीण जीवनशैली में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है. राज्य के सभी जिलों की  हर पंचायत में कम से कम एक शैक्षणिक संस्थान और स्वास्थ्य केन्द्र जरूर होता है। लेकिन बेरोजगारी केरल की सबसे बड़ी समस्या रही है. 17वीं शताब्दी से ही यहां से  रोजगार की तलाश में प्रवास शुरू हो चुका था। लेकिन पिछले पंद्रह सालों में केरल में गरीबी हटाने और महिलाओं को सशक्त बनाने का काम जमीनी स्तर पर हुआ है जिसका असर अब दिखने लगा है।
कुदुम्बश्री के मार्फत केरल में न सिर्फ केन्द्र और राज्य सरकार की योजनाओं का अव्वल तरीके से क्रियान्वयन हुआ है बल्कि पंचायती राज की अवधारणा की जड़ें भी मजबूत हुई है। धान की खेती पर निर्भर यहां के गरीब और भूमिहीन किसानों को वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराने के लिए अस्सी के दशक में उन्हें स्वसहायता समूह के बारे में बताया गया और माईक्रोफाईनांस योजनाओं को लागू करने की शुरुआत की गई। और अगले कुछ सालों में गरीबी को समझने के साथ गरीबी उन्मूलन के लिए भी एक व्यापक दृष्टिकोण विकसित किया गया। 1994 में इन्हीं अनुभवों के आधार पर पहली बार केरल में सरकारी योजनाओं को लागू करने के लिए महिला आधारित सामुदायिक संरचना विकसित की गयी। 73वें और 74वें संविधान संशोधन के बाद सत्ता के विकेन्द्रीकरण की शुरूआत हुई व पंचायत और नगरनिगम जैसे स्थानीय स्वशासन निकाय मजबूत हुए। इसी दौरान 1998 में गरीबी उन्मूलन और महिला सशक्तीकरण के लिए सामुदायिक नेटवर्क के तौर पर कुदुंबश्री की शुरुआत  हुई, जिसका लक्ष्य स्थानीय स्वशासी निकायों के साथ मिलकर गरीबी उल्मूलन और महिला सशक्तीकरण  के लिए काम करना था। 1998 से अब तक कुदुंबश्री की लगातार कई उपलब्धियां रही हैं संयुक्त राष्ट्रसंघ समेत कई अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय अवार्ड इसे हासिल हुआ है। साथ ही इसे एशिया  का सबसे बडा महिला आंदोलन भी कहा जाता है।
दरअसल, कुदुंबश्री की खासियत रही है गरीबी हटाने की प्रक्रिया पर काम करना ना कि परियोजना पर। इसलिए 40 लाख महिलाएं इसकी सदस्य हैं, हर जिले की सभी पंचायतों के सभी वार्ड में इसकी पहुंच है। इसके तहत 1.87 लाख पड़ोस समूह हैं, सत्तरह हजार क्षेत्र विकास समाज या एडीसी हैं और 1,058 समुदाय विकास समाज या सीडीएस ग्रामीण व शहरी हैं। कुदुंबश्री के मार्फत पड़ोस समूह के सदस्यों में अब तक 2,818 करोड़ की राशि बतौर ऋण बांटी जा चुकी है। इसी का नतीजा है कि केरल में जमीन कम होने के बावजूद 47 हजार महिला किसान हैं जो लीज पर खेत लेकर धान की खेती करती हैं। पहले दस रूपए भी जिनके पास नहीं हुआ करते थे उनके अब खुद के पक्के मकान हैं। कुल सवा तीन लाख किसान इसके दायरे में हैं और लीज पर 65 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन पर खेती की जा रही है, इसके कारण पलायन भी रुका है। कुदुंबश्री माॅडल की एक सफलता ये भी है कि सदस्य ऋृृण वापसी के मामले में नियमित और अनुशासित हैं इसलिए निरंतरता बनी रही है अतंतः जिसका फायदा सदस्यों को ही हो रहा है।
कुदुंबश्री के द्वारा केवल महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए ही काम नहीं किया गया है बल्कि युवाश्री जैसे विशेष रोजगार कार्यक्रम के जरिए साढ़े तीन सौ से ज्यादा सामुहिक और सवा तीन सौ के करीब निजी उद्यमों को शुरू किया गया। बेसहारा लोगों के लिए आश्रय कार्यक्रम को 745 स्थानीय निकायों में लागू किया गया और करीब साठ हजार बेघर बेसहारा लोगों का पुनर्वास किया गया। इसके अलावा भावनाश्री गृृह लोन योजना के तहत पैंतालीस हजार से ज्यादा गरीब लोगों को घर बनाने के लिए ऋृृण मुहैया कराया गया।  कुदुंबश्री के मार्फत केरल में केन्द्र और राज्य सरकार की योजनाओं के बेहतरीन क्रियान्वयन के कारण दो साल पहले ही राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार मिशन ने इस माॅडल को पूरे देश में लागू किए जाने की सिफारिश की थी। फिलहाल पांच राज्यों में कुदुंबश्री माॅडल लागू किए जाने पर सहमति भी बनी है।
 


कुदुंबश्री की कार्यकारी निदेशक के बी वल्सला कुमारी से बातचीत

कुदुंबश्री के मार्फत केरल में काफी पहले से केरल में गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चलाया जा रहा है। हाल के दिनों में और कौन-कौन सी शुरुआत की गयी है?
- पिछले पंद्रह सालों में कुदुंबश्री के मार्फत केरल में बड़े पैमाने पर महिलाओं को रोजगार देकर और आत्मनिर्भर बनने के मौके मुहैया कराकर उनका सशक्तीकरण किया गया है। करीब 40 लाख महिलाएं इसकी सदस्य हैं, जो चालीस लाख परिवारों को सशक्त बना रही हैं और साबुन निर्माण व खेती से लेकर सूचना प्रौद्योगिकी तक करीब पचास हजार लघु उद्यमों के मार्फत आर्थिक समृृद्धि की कहानी लिख रही हैं। कुदुंबश्री के खाद्य उद्योग को इसी साल दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेला में स्वर्णपदक हासिल हुआ है। हाल ही में कुदुंबश्री की ओर से पूरी तरह से महिलाओं द्वारा संचालित टैक्सी सेवा शुरू की गई है,इससे पहले पूरी तरह से महिलाओं द्वारा संचालित कुदुंबश्री कैफे भी बहुत सफल रहा है. कुदुंबश्री कैफे का और विस्तार किये जाने की घोषणा हुई है। इसके अलावा हमने केरल वेटेरनरी एंड एनीमल साईंस यूनीवर्सिटी के साथ भी समझौता किया है. ताकि किसी कारण से पेशेवर उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर सकीं महिलाएं पशुपालन या इससे संबंधित विषयों में डिप्लोमा हासिल कर खुद अपना व्यवसाय कर सकें। दरअसल, कुदुंबश्री की दस्तक खेती से लेकर सूचना प्रौद्योगिकी तक है और हर क्षेत्र में महिलाओं के सशक्तीकरण में यह बेहद कारगर साबित हो रही है। पिछले डेढ़ साल से मै इससे जुड़ी हंू और मेरे लिए ये गर्व की बात है।

इस माॅडल की संरचना किस तरह की है?
-बिल्कुल जमीनी स्तर से हमारी पकड़ है, केरल की 62 फीसद से ज्यादा आबादी  इसके दायरे में हैं। सबसे पहले समुदाय के स्तर पर ग्रामीण या शहरी इलाकों में 10 से 20 महिलाएं जुड़कर आपस में समुदाय बनाती हैं, जिसे पड़ोस समूह कहा जाता है. इस समूह के द्वारा स्वबचत की शुरुआत होती है,ं फिर बैंकों से इन्हें जोड़ा जाता है और बैंक इन्हें इनके काम के लिए लोन देना शुरू करता है। एक पंचायत या नगरपालिका में कई पड़ोस समूह होते हैं जिसे एरिया डेवलपमेंट सोसाईटी या एडीएस कहते हैं, एडीएस के उपर सीडीएस होता है। सीडीएस दातव्य न्यास के तहत रजिस्टर्ड संस्था होती है और सामाजिक न्याय व पंचायत मंत्रायल के अधीन हैं।
गरीबी उन्मूलन के लिए केन्द्र और राज्य सरकार की ओर से कई योजनाएं चलायी जा रही हैं, कुदुंबश्री उसी का विस्तार है?
-पूरी तरह से ऐसा नहीं है, केन्द्र और राज्य सरकार दोनों की ओर से इसे फंड मिलता है पर ये एक अलग माॅडल है, केन्द्र सरकार की नारेगा और मनरेगा जैसी योजना लागू करने में केरल पूरे देश में अव्वल रहा हैं तो उसकी वजह कुदुंबश्री है, हम पंचायत स्तर पर लोगों को केन्द्र और राज्य सरकार की सभी योजनाओं की जानकारी देते हैं और उसे कैसे लागू कराना है इसमें मदद करते हैं। हालांकि आन्ध्र प्रदेश का गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम भी बहुत सफल हो रहा है पर वो दस हजार करोड़ की ऋृण राशि के साथ एक वित्तीय माॅडल है और कुदुंबश्री 7 सौ करोड़ ऋृण राशि के साथ एक सामाजिक माॅडल। इसके तहत केवल महिला सशक्तीकरण ही नहीं बच्चों, बुढ़ों, असहायों, बेघर बेसहारा सभी के लिए योजनांए हैं और उन्हें लागू भी किया गया है। पूरे राज्य के सभी जिलों के सभी पंचायतों में इसकी मौजूदगी है फिलहाल केवल दो प्रतिशत जनसंख्या ही इसके दायरे से बाहर है।    
कुदुंबश्री को इसी हफ्ते साल 2013-14 के हडको राष्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित किया गया ये एक और उपलब्धि है?
-बिल्कुल, यह सम्मान कुदुंबश्री को महिलाओं की आर्थिक दशा सुधारने की दिशा में उल्लेखनीय काम करने के लिए मिला है। कुदुंबश्री ने आमदनी सुनिश्चित करने वाली सर्वोत्तम परियोजनाएं लागू करके यह लक्ष्य हासिल किया है। हमने निर्माण क्षेत्र में काम कर रही महिलाओं के हुनर को तराशने और उनके लिए बेहतर संभावनाएं बनाने के लिए एरनाकूलम में कुदुंबश्री वुमैंस कंस्ट्रक्शन ग्रुप परियोजना लागू किया, जिसे एक नयी शुरूआत कहा जा सकता है, इसके तहत निर्माण क्षेत्र में काम कर रही इंजीनियर, सुपरवाईजर और राजमिस्त्री का काम करने वाली महिलाओं को इसी क्षेत्र के अनुभवी लोगों के द्वारा विषेशज्ञ प्रशिक्षण मुहैया कराया गया। जिसका फायदा भी हुआ। फिलहाल इस समूह के पास 87 गृह निर्माण परियोजना का अनुबंध है।   यहां से उड़ाया


(रचनाकार परिचय:
 जन्म: 11 जनवरी 1974 को बेगुसराय (बिहार) में
शिक्षा: स्नातक, भूगोल, बीएचयू,  स्नातकोत्तर हिन्दी, दिल्ली  विश्वविद्यालय, जनसंचार और पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा  इग्नू  से 
सृजन: ढेरों पत्र- पत्रिकाओं में लेख, रपट प्रकाशित
ब्लॉग: मनुलॉग   
संप्रति: सात-आठ साल दिल्ली में प्रिंट और एक टीवी प्रोडक्शन हॉउस की नौकरी करने के बाद फिलहाल बंगलूरु में रह कर   पब्लिक एजेंडा के लिये दक्षिण के चारों राज्यों की रिपोर्टिंग
संपर्क: manorma74@gmail.com) 
 

डुबोया होने ने, न होता तो क्या होता

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गुंजेश की कविताएं

1.

तुम जवाब मत दो
मैं सवाल भी नहीं करूंगा
मेरा और तुम्हारा रिश्ता
बादल और धूप का हो
लोग, एक की उपस्थिती में
दूसरे को चाहें

2.

अरसा हो गया
तुमसे मिले हुए
अब तो तुम्हें याद भी नहीं होगा कि
आखरी दिन मैंने शेव किया था या नहीं
आखरी दिन तुमने कौन से रंग का सूट पहना था
अब कुछ ठीक से याद नहीं पड़ता
वैसे भी, कितने तो रंग पहन लेती थी एक साथ
इसलिए याद नहीं अब कोई भी एक
तुम मेजेंटा कहो, पर्पल कहो
मुझे तो सब आसमानी लगते हैं
...
आसमानी रंग, आसमानी ख्वाब
आसमानी साथ
......

अद्भुत तरीके से
तुम्हें
हरा, नीला और लाल
तीनों रंग पसंद थे
ताज्जुब है कि तुम
पसीने के गंध को भी रंगों में ही देखती थी
पहले झगड़े के बाद तुमने मेरे पसीने के पीले
गंध से ही मेरी उदासी पहचानी थी
और दुलार के हरे दुप्पट्टे से
पसीने का पीलापन पोछा था
उस दिन पहली बार मैंने इंद्रधनुष को चूमा था
छुआ था, जाना था.

3.

तुम पड़ी हो
मेरे यादों के बुक शेल्फ में
उस किताब की तरह
जो हर बार दूसरी को ढूँढने में सबसे पहले आती है हाथ
रख दूँ तुम्हें कहीं भी किसी भी कोने में
कुछ भी ढूंढते हुए, पहुंचता हूँ तुम्हीं तक ...


4.

इस शहर में
जहां अब हूँ
तुम्हारे साथ से ज्यादा तुम्हारे बिना
जिसके लिए कहा करता था
'तुम हो तो शहर है, वरना क्या है'
'नहीं, शहर है तो हम हैं
हम, हम नहीं रहेंगे तो भी शहर रहेगा'तुम्हारी हिदायत होती थी.
अपनी रखी हुई कोई चीज़ भूल जाने
रसोई में एक छिपकली से डर कर चाय
बिखेर देने के बावजूद
तुमने बेहतर समझा था इस शहर को
कैसे झूम कर बरसता था यह शहर, उन दिनों में
जिनको अब कोई याद नहीं करता
तुमने ही तो कहा था - 'जब बहुत उमड़-घुमड़ कर शोर मचाते हैं बादल
और बरसते हैं  दो एक बूंद ही,
तो लगता है जैसे, खूब ठहाकों के बाद
दो बूंद पानी निकली हो किसी के आँखों
से'..........


5.

हमने कुछ नहीं किया था
बस ढूंढा था
तुम्हारी हंसी को, अपने चेहरे पर
तुमने
मेरे आंसुओं को अपनी आँखों में


अब भी कुछ नहीं हुआ
हमने
पेंसिल और इरेज़र की तरह
एक दूसरे की चीज़ें
एक दूसरे को लौटा दी है .....

6.

कमरा ठीक करना भी कविता लिखने जैसा है
जब आप एक कविता लिख रहे हों तो दूसरी नहीं लिखी जाएगी
कवि ठीक नहीं कर पाते हैं
अपना कमरा
कई-कई दिनों तक
ज़रूरी नहीं कि लिख रहे हों कविता ही
मन में अ-कविता की स्थिति हो
तो भी कमरा ठीक कर पाना, बेहद मुश्किल है
कि ऐसे में आप भूल जाएंगे/जाएंगी अपनी ही रखी कोई चीज़......
कि किसी पंक्ति के बीच से गायब
हो जाएगा कोई संयोजक
और बेमेल हो जाएगी
अगली लाइन पिछली से....
कि कमरा ठीक करने के लिए उठते ही
याद आएगा
टिकट के लिए स्टेशन जाना
स्टेशन जाते ही माँ के लिए चश्मा बनवाना, दवाइयाँ ले लेना
अपनी छोटी सी भतीजी के लिए
जिसे पीला रंग इतना पसंद है कि वह पिता के चेहरे से ही पहचान लेती है
कि दिन सुनहरा पीला रहा या उदास पीला
एक बहुरंगी पीला फ्राक....
और इस तरह से रह जाएगी एक कविता
और रह जाएगा एक कमरा
ठीक होते-होते
 ......

कि कविता लिखना प्रेम करने जैसा है
कि जिसके लिए भूलनी पड़ती है सारी दुनिया
कि जिसके लिए सारी दुनिया याद करती है आपको
कि आपकी सारी दुनिया सिमट आती है आप दोनों के बीच
आपके मन-मस्तिष्क से बाहर
दो हथेलियों के बीच, उलझी हुई उँगलियों में
जैसे गद्य और पद्य की किताबें रखीं हों शेल्फ में
एक बाद एक, अपने रखे होने में बेतरतीब
अनुशासित और अनुशासनहीन दोनों एक साथ
भरे पूरे जीवन की तरह 
कि प्रेम करना जीवन को ठीक करना है.......

7.

उसने जैसा सोचा वैसा लिखा
जैसा लिखा वैसा जीया
जैसा जीया वैसा स्वीकार किया
इसलिए वह लगातार अनुपयोगी होता हुआ
पागलों में शुमार किया गया।
……

बहुत ज़रूरी था
कि, वह जैसा सोचे उसमें मिला दे थोड़ी सी
वैसी सोच जो वह नहीं सोचता
कि वह जैसा जिए उसमें मिला दे
थोड़ा सा वैसा जीना जो वह नहीं जीता
कि वह जो स्वीकारे उसमें मिला दे
वह स्वीकृति भी जो उसकी नहीं है
कुल मिला कर यह पैकेजिंग का मामला था
उसे एक पैकेट होना था
एक ऐसे उत्पाद का पैकेट जो कि वह नहीं था
बाजार के विशेषज्ञों का मानना था इससे उपभोक्ता चौंकेगा
'उपभोक्ता का चौंकना'उत्पाद से  ज़्यादा अहम था
लेकिन, वह, वह था
जिसने पहली बार प्रेम करने के बाद चौंकना बंद कर दिया था
और अब भी उसे माँ और विचार
दोनों की याद बुरी तरह परेशान कर देती थी
था, था की बहुलता से आप इस बात की तस्सली न कर लें
कि  वह आपके बीच नहीं रहा
वह है, अगर आप बर्दाश्त कर सकें उसकी असहमतियों को
तो आपके विचार के विरोध में एक विचार के रूप में
आपकी नफरतों के विरोध में एक प्रेम के रूप में
वह है, तमाम तालाबों में प्यास के रूप में
छायायों में धुप के रूप में
वह है बेटी की होटों में पुकार के रूप में ……

8.

रोज़-ब-रोज़
दर-ब-दर
सार्वजनिकता के एकांत में
बहुमत के उमस से लथपथ
भाषा के बिना अभिव्यक्त होने की आस लिए
कई शब्द हैं, दम तोड़ रहे हैं
और इधर
जो है
और जो नहीं है, उस सबके बीच
तुम्हारा होना एक पुल है
जिससे होकर सारी त्रासदियों को होकर गुज़रना है


(कवि-परिचय:
जन्म: बिहार झरखंड के एक अनाम से गाँव में 9 जुलाई 1989 को
शिक्षा: वाणिज्य में स्नातक और जनसंचार में स्नातकोत्तर महात्मा  गांधी अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा से
सृजन: अनगिनत पत्र-पत्रिकाओं व वर्चुअल स्पेस  में लेख, रपट, कहानी, कविता 
संप्रति: भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क:gunjeshkcc@gmail.com)




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तीन तलाक़ कितना हलाल

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शहरोज़ की क़लम से 

 तलाक़ दे तो रहे हो, ग़ुरूर-व-क़हर के साथ
मेरा शबाब भी लौटा दो, मेरे मेहर के साथ.
तलाक़ को लेकर भोपाल रियासत के नवाब ख़ानदान की एक अनाम विदुषी शायरा का यह शेर बहुत मक़बूल है. हालाँकि कुछ लोग मीना कुमारी को रचयिता मानते हैं. इस शेर में शादीशुदा महिला अपने पति से कहती है कि पुरुषत्व के घमंड में क्रूर-आक्रामकता के साथ उसने उसे तलाक़ दे तो दी है, तो उसके मेहर के साथ उसका यौवन भी लौटा दे. क्या ऐसा संभव है. शायद यही वजह है कि तलाक़ को बहुत बुरा बताया गया है. 'अल्लाह के लिए उन सभी चीज़ों में से, जिनकी आज्ञा दी गयी है, तलाक़ सबसे ज़्यादा नापसंद-दीदा है' (क़ुरआन सूर: 65 ). लेकिन क़ुरआन और इस्लाम की मूल भावना समझे बगैर पुरुष दाल में नमक कम क्यों? जैसी फ़िज़ूल बातों को लेकर भी अपनी औरतों के सर पर तलवार लटकाए फिरते हैं. तलाक़ के मामले में स्त्रियों के साथ विशेष कर भारत में सदियों से असमान बर्ताव किया जाता रहा है.  ताज्जुब की बात है कि मुल्ला-मौलवियों ने, न तो इसकी वाजिब और मान्य व्याख्या की और न ही इसके उचित रूप को प्रचलित किया। इसके उलट जब प्रगतिशील तबक़ा समझ भरी बातें तर्कों के साथ लेकर उपस्थित  होता है, तो उसे क़ुरआन और हदीस में दख़ल मानकर उसे ख़ारिज कर दिया जाता है. जबकि एक बैठक में तीन तलाक़ और हलाला की इजाज़त न क़ुरआन देता है, न ही सही हदीस।

मुसलमानों को यह ध्यान में रखना होगा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ ही शरीयत नहीं है. और इस लॉ में पाकिस्तान समेत कई मुस्लिम मुल्कों में संशोधन हो चुका है। वहीं शरीयत को लेकर भी हनफ़ी, मालिकी, शाफ़ई, हंबली विचार धारा में एक मत नहीं है. सुन्नी और शिया में भी इसकी व्याख्याऍं भी अलग-अलग हैं. अल्लामा इक़बाल ने अपनी मशहूर किताब ‘दि रिकन्सट्रक्शन ऑफ रिलीजियस थॉट इन इस्लाम’ में साफ़-साफ़ लिखा है कि शरीया की इन व्याख्याओं को अटल नहीं माना जा सकता है| क्या मित्रों ! समय नहीं है कि मुस्लिम उलमा इज्तिहाद से काम लेकर पर्सनल लॉ में कई ज़रूरी संशोधन करें ताकि एक बैठक में तीन तलाक़ की रिवायत ख़त्म हो. वही मेहर की ऐसी रक़म तय हो जो पति की वार्षिक आय हो.

क़रीब दो दशक पहले एक बैठक में तीन तलाक़ जैसी स्त्री -विरोधी कुप्रथा की मुख़ालिफ़त अहले हदीस के तीन विद्वान मुफ़्तियों शेख़ उबैदुर रहमान, शेख़ आताउररहमान मदनी और शेख़ जमील अहमद कर चुके हैं. हंबली और  शिया के यहां भी इस पर प्रतिबंध है. इस बात पर आम सहमति है कि यह बिदाहः (पाप) है. पैंगबर  ने तलाक के इस तरीके को बिलकुल गलत क़रार दिया था. यह तरीका, इस्लाम से पहले प्रचलित था. इस्लाम के आरंभिक दौर में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को जब एक बार में तीन तलाक़ कह दी, तो पैग़म्बर मोहम्मद गुस्से से सुर्ख़ हो गए. बोले मेरा वश चलता तो मैं उसका क़त्ल कर देता। बावजूद इसके प्यारे नबी का दामन नहीं छोड़ेंगे का नारा लगाने वाले इस परंपरा को जारी रखे हुए हैं.
इस्लाम में शादी दो वयस्क स्त्री-पुरुष के बीच साथ जीवन गुज़ारने के लिए हुआ समझौता है, जिसे निकाह कहते हैं. इसे तोड़ने की प्रक्रिया तलाक़ कही जाती है. इस्लाम ने मर्द को तलाक़ का अधिकार अवश्य दिया है, मगर इस शर्त के साथ कि कम से कम तीन महीने की मुहलत ज़रूरी है, लेकिन दूसरी तरफ़ इसे अप्रिय भी कहा है. यदि किसी कारण वश आपसी कलह से दांपत्य जीवन नरक बन जाए और साथ रहना असंभव लगे, तो फिर ऐसे दांपत्य जीवन से बेहतर है कि पति-पत्नी सम्बन्ध -विच्छेद कर नए सिरे से अपना-अपना नया दांपत्य जीवन शुरू करें।
मुस्लिम महिला भी तलाक़ ले सकती है, इसे 'खुलाअ'कहा जाता है. वह कुछ विशेष आधारों पर अपने पति से संबंध -विच्छेद कर सकती है. (2:229). ख्यात चिंतक डॉ. असगर अली इंजीनियर लिखते हैं कि 'पवित्र पैगम्बर ने भी अपनी पत्नी जमीला का 'खुलाअ'स्वीकार किया था, क्योंकि वे उनके साथ रहना नहीं चाहती थीं. हालांकि पैगम्बर साहब, जमीला से बहुत स्नेह करते थे और उन्हें पूरा सम्मान देते थे. उन्होंने जमीला से केवल इतना कहा कि वे उस बाग को उन्हें लौटा दें जो उन्होंने जमीला को मेहर के तौर पर दिया था. इस हदीस से स्पष्ट है कि पत्नियों का खुलूअ का अधिकार संपूर्ण है और इसमें कोई शर्त नहीं लगाई जा सकती. खुलूअ के लिए पति की सहमति की आवश्यकता नहीं है.'
हिन्दुस्तान में शाफ़ई, हंबली, मालिकी और अहले हदीस विचार धारा के मुसलमानों की आबादी नगण्य है. भारतीय उपमहाद्वीप में हनफ़ी मुसलमानों की आबादी ज़्यादा। इनमें भी देवबंदी (तब्लीग़ी जमात), बरेलवी (कछौछवी, दावत-ए-इस्लामी ) और जमात इस्लामी जैसी गुटबंदियां हैं. शियाओं  के यहां भी आग़ा खानी और बोहरा स्कूल है. भारत में क़रीब नब्बे फ़ीसदी मुसलमान हनफ़ी हैं, जिन्हें सुन्नी कहा जाता है.  इनपर आधिपत्य के लिए  सर-फूड़व्वल जारी है. 

भारतीय सुन्नी मुसलमान एक बैठक में तीन तलाक़ को भले सही माने, जॉर्डन के सुन्नी मुसलमान इसे ख़ारिज कर चुके हैं. भारत में भी शरीयत पर सुन्नी विद्वानों के 1973 में हुए एक सेमिनार में तीन तलाक़ की आलोचना हो चुकी है. तब अहमदाबाद में मौलाना मुफ़्ती अतीक़ुर्रहमान उस्मानी की अध्यक्षता में यह सेमिनार हुआ था. इसमें शिरकत कर रहे तमाम मुफ्तियों और मौलानाओं ने अपने-अपने पेपर में क़ुरआन और हदीस के हवाले से एक साथ तीन तलाक़ को अवैध क़रार दिया था. बाद में सेमिनार के निष्कर्षों पर आधारित एक पुस्तक का भी प्रकाशन हुआ.             

18 वीं सदी के मशहूर सूफ़ी-संत शाह वली उल्लाह भी शरीयत के उस मार्ग के हिमायती थे जिसमें प्रचलित चारों विचार धाराओं हनफ़ी, मालिकी, शाफ़ई और हंबली के मतों को समान मान्यता मिले और एक व्यवहारिक पद्धति का निर्माण हो. ज़रुरत आज इसी की है.
आख़िर ऐसा क्यों हैं कि जिस बात की अनुमति क़ुरआन और हदीस नहीं देता, भारत में ही एक साथ तीन तलाक़ जैसी कुप्रथा लागू है.  दरअसल इसकी सुरक्षा यहां का मुस्लिम पर्सनल लॉ करता है. लेकिन जिस लॉ को शरीयत मान मुस्लिम समुदाय सबसे पवित्र दस्तावेज़ समझ रहा है, क्या ऐसी मान्यता हर काल और परिस्थिति में रही है ? 
पर्सनल लॉ को परिभाषित करने का पहला अवसर 1937 में तब आया, जब ब्रिटिश सरकार ने शरीयत एक्ट बनाने का निश्चय किया। ज़रुरत इसलिए पड़ी कि अदालतों में मुसलमानों के तलाक़, विवाह, संपत्ति और विरासत आदि से सम्बंधित मामलों की क़तार गयी. जब पर्सनल लॉ के अलग स्वरूप की चर्चा शुरू हुई तो समकालीन विद्वानों ने इसका मुखर विरोध भी आरम्भ कर दिया। इनमें मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिना और जमात इस्लामी के संस्थापक मौलाना सैयद अबुलउला मौदूदी अग्रणी थे. कथित मुस्लिम हितचिंतक होने  बावजूद जिना के विरोध का यही मतलब है कि उनकी दृष्टि में मुस्लिम समाज के लिए यह लाभप्रद नहीं था. मौलाना मौदूदी की राय थी कि मुसलमानों के दो तिहाई परिवारों में इस शरीयत एक्ट की वजह से बर्बादी आई है. यदि आप मुसलमानों का ज़रा भी भला चाहते हैं, तो सबसे पहले उन्हें पर्सनल लॉ से आज़ाद कर दीजिये।   
इन बहसों का विदेशी हुक्मरानों पर कोई असर न हुआ.  17 मार्च 1939 को मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम बना लिया गया. लेकिन यह आज़ादी के बाद ही लागू हो सका. इस अधिनियम की धारा दो मुस्लिम महिलाओं को नौ विभिन्न आधारों तलाक़ लेने का अधिकार देती है. 1986 में मुस्लिम महिला विवाह विच्छेद पर अधिकार संरक्षण अधिनियम बना.


दरअसल भारतीय मुसलमानों की बड़ी समस्या अशिक्षा है. जिसकी वजह से कठ मुल्लाओं के सम्मुख वो नतमस्तक होता आया है. जबकि मौलाना अबुल कलम आज़ाद ने क़ुरआन का अनुवाद करते हुए स्पष्ट लिखा कि इस्लाम ने तेरह सौ साल पहले क्रांतिकारी क़दम उठाते हुए महिला-पुरुष के बीच अधिकारों का समान वितरण किया था. लेकिन दुःख की बात है कि रूढ़िवादी सामंती समाज के असर में मुस्लिम समाज धर्म की मूल  आत्मा को न समझ सका. इस्लामी क़ानून विशेषज्ञ अय्यूब सैयद कहते हैं कि मुस्लिम औरतों के पिछड़ेपन का कारण इस्लामी क़ानून नहीं, बल्कि कट्टर पंथियों द्वारा उसकी गलत व्याख्या और समय के साथ अपने को न बदलने की ज़िद है. 

मुस्लिम पर्सनल लॉ का विवाद दरअसल उदार और कट्टरवादी व्यवस्था का टकराव है. एक समूह महिलाओं लिए मानववादी नज़रिये का समर्थक है,  शरीयत को आधुनिक समाज के निकट लाने का यत्न करता है, जबकि दूसरा पक्ष समय की मांग के अनुरूप अपने आपको बदलने के लिए तैयार है और समाज को पुरातन वादी मान्यताओं-परंपराओं से जकड़े रखना चाहता है. यही सबब है कि इमाम मुफ़्ती मुकर्रम तीन तलाक़ को कोई मसला नहीं मानते। वहीँ बिहार और उड़ीसा के शरई मामले के निष्पादन के लिए बनी संस्था इमारत -ए -शरिया पिछले कई वर्षों से तीन तलाक़ के अधिकांश मामले को नज़र अंदाज़ करती आई है.

एक बैठक में तीन तलाक़ और हलाला जैसी कुरीतियों से  ढेरों इस्लामी विद्वान सहमत नहीं हैं. वहीं पढ़े-लिखे ढेरों मित्रों का भी सुझाव इस मामले में संशोधन का है. कुछ इज्मा, तो कुछ इज्तिहाद की वकालत करते हैं.  इज्तिहाद यानी कुऱआन और हदीस का आदेश साफ़ पता न चले तो अपनी सोच-सामर्थ्य से सही रास्ता निकालना। डॉ. रफ़ीक़ ज़करिया लिखते हैं कि इज्तिहाद स्वतन्त्र चिंतन का ऐसा मान्य माध्यम है, जिसके ज़रिये ज़रूरी सुधारों को लागू किया जा सकता है.और अतीत में अनेक गणमान्य न्यायविदों और धर्म वेत्ताओं ने मुख्य रूप से इसका उपयोग किया भी है. कुछ लोग इसे इज्मा कहते हैं. पर अब इज्मा की रिवायत भी क्षीण हो गई प्रतीत होती है. वरना एक बैठक में तीन तलाक़, हलाला और शौहर के लापता हो जाने पर ज़िन्दगी भर इंतज़ार करना जैसे स्त्री-विरोधी चलन पर ज़रूर लगाम लगती, पर इसे पर्सनल लॉ की सुरक्षा मिली हुई है. हमें ज़ेहन से यह निकालना होगा कि पर्सनल लॉ पूरी तरह क़ुरआन पर आधारित है. जबकि हक़ीक़त यह है कि यह 'मोहम्मडन लॉ' (अंग्रेज़ों ने यही लिखा और कहा) लार्ड मैकाले के निर्देश पर इस्लामी विद्वानों की एक टोली की व्याख्याओं पर बनाया गया था.
डॉ. असगर अली इंजीनियर ने अपने एक लेख में लिखा था कि पूरी इस्लामिक दुनिया में मुस्लिम महिलाएं विभिन्न समस्याओं का सामना कर रही हैं. भारत में उलेमा की ज़िद के चलते, मुस्लिम महिलाएं वे अधिकार भी नहीं पा सकी हैं, जो क़ुरआन उन्हें देती है. भारत, दुनिया का एकमात्र देश है जहाँ उलेमा, पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध किए जाने तक का विरोध कर रहे हैं. संहिताबद्ध होने से कानूनों में कोई परिवर्तन नहीं होगा बल्कि उन्हें ठीक ढंग से, पूरे देश में एक समान प्रावधानों के साथ लागू किया जा सकेगा. बहर-कैफ़ मुस्लिम आलिमों को लॉ में ज़रूरी संशोधन से एतराज़ नहीं करना चाहिए। कई मुस्लिम मुल्कों जैसे तंज़ानिया, किनिया, तुर्की, टयूनिशिया, मोरक़्क़ो, इराक़, मलेशिया, इंडोनेशिया, मॉरिशश, ईरान, जॉर्डन और मालद्वीप ने भी अपने क़ायदे-क़ानूनों में बदलाव किया है. इस्लाम के नाम पर बने पाकिस्तान ने भी 1961 में शरीयत क़ानून में ज़रूरी सुधार किये।   

शरीयत या मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप या देवबंदी-बरेलवी विवाद से परे यह देखना ज़रूरी होगा कि विश्व भर के मुसलमानों  की जिस ग्रंथ पर सर्वाधिक श्रद्धा-आस्था है, वह क़ुरआन तलाक़ के संबंध में क्या कहता है:
तलाक़शुदा औरतें अपने आपको तीन मासिक धर्मों के इंतज़ार में रोकें और उसके लिए जाएज़ नहीं है कि वह उसे छिपाएं, जो अल्लाह ने उनके गर्भ में पैदा किया है.। इस अवधि में उनके पति उनको वापस लेने के लिए ज़्यादा हक़दार हैं, अगर वह सुलह चाहें। (सूरा -2 बक़रा - 228 )

तलाक़ दो बार है। फिर (तीसरी बार ) उसे अच्छे तरीक़े से विदा करना है. या भले तरीक़े से रख भी सकते हैं. (वही, आयत-229 )


(इद्दत के समय) न तुम उन्हें उनके घर से निकालो, और न वह खुद निकलें, सिवा इसके कि वह खुद बेहयाई में पड़ गयी हों...फिर जब वह अपनी इद्दत की समाप्ति पर पहुँचने लगें, तो भले तरीक़े से (अपने निकाह में) रोके रखो या भले तरीक़े से एक दूसरे से जुदा हो जाओ. (सूरा -65तलाक़-2)

क़ुरआन के साफ़ निर्देश की भी अवहेलना करना पता नहीं यह समाज किस ज़ोम में कर रहा है. इसके अलावा भी कई आलिमों ने लिखा है कि अगर पति-पत्नी के ज़ेहन में कभी संबंध-विच्छेद का ख्याल आये तो उन्हें पहले बातचीत बंद कर देनी चाहिए। लेकिन इस दौरान यह सोचते रहें कि हमें अलग हो जाना चाहिए या साथ रह सकते हैं. गर साथ का रुझान न दिखे तो एक ही बिस्तर पर करवट बदल कर सोएं। दैहिक रिश्ते से परहेज़ करें। इस समय भी साथ या अलग रहने पर विचार करते रहें। जवाब नहीं में हो, तो फिर एक ही घर में अलग-अलग कमरे में रहना शुरू करें। तब भी अलग ही रहने की सोच प्रबल हो तो पत्नी को कुछ दिनों के लिए उसके मायके भेज दें. वहाँ से यदि पत्नी आ जाये तो पुन: विचार कर लें क्या तलाक़ ज़रूरी है तो पहली तलाक़ दें. उसके बाद क़ुरआन के मुताबिक़ दोनों अलग-अलग हो जाएँ। मेहर अगर पहले न दी हो तो उसे दे दें.  खुलाअ का भी यही तरीक़ा है.  लेकिन अगर उसके बाद आप दोनों को लगे कि तलाक़ देकर या खुलाअ लेकर अच्छा नहीं किया तो आप दोनों नयी मेहर के साथ नया निकाह कर सकते हैं. इसके लिए हलाला की कोई ज़रुरत नहीं, डॉ असग़र अली इंजीनियर और डॉ ज़ाकिर नायक भी यही कहते हैं. क्योंकि क़ुरआन में हलाला का कहीं भी ज़िक्र नहीं मिलता। न ही कोई हदीस इसके समर्थन में है. लेकिन कबीलाई और सामंती मानसिकता के तहत आज भी स्त्री-विरोधी कुप्रथा जारी है.  हलाला के हिमायती तर्क देते हैं कि यह  सज़ा है कि तलाक़ कितनी बुरी चीज़ है. क्योंकि तलाक़ के बाद अपनी पत्नी से दुबारा शादी चाहते हो तो उस औरत को पहले किसी और से निकाह  करना होगा। एक रात उसके साथ गुज़ारनी होगी। यदि अपनी इच्छा से वह दूसरा पति तलाक़ दे  तो इद्दत अवधि गुज़ारने के बाद औरत पहले पति से निकाह कर सकती है. इसे ही हलाला कहते हैं. आप ही बताएं तलाक़ दी पुरुष ने दंड स्त्री को क्यों? बहनों तुम चुप क्यों हो.

इद्दत = पहले तलाक़ के बाद चार माह की अवधि               
            



 

इस्लाम में कंडोम !

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शहरोज़की क़लम से 
चौंकिए मत ! मुझे कह लेने दीजिये कि इस्लाम परिवार कल्याण की अनुमति देता है.यानी कंडोम का इस्तेमाल इस सिलसिले में प्रतिबंधित नहीं है.पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद के समय अज़्ल की खूब परम्परा रही है.यह अज़्ल कंडोम का ही पर्याय है.अज़्ल यानी वीर्य का बाह्य स्खलन,रोक,गर्भ की सुरक्षा.मिश्र में एक बहुत ही प्राचीन विश्वविद्यालय है जिसकी मुस्लिम जगत में मान्य प्रतिष्ठा है जामा [जामिया ] अल अज़हर ,यहाँ के ख्यात इस्लामी चिन्तक शेख जादउल हक़ अली कहते हैं:
कुरआन की तमाम आयतों के गहरे अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इसमें से ऐसी कोई आयत नहीं है जो गर्भ रोकने या बच्चों की संख्या को कम करने को हराम क़रार देती हो.

अन्यथा हरगिज़ न लें तो इस तरफ ध्यान दिलाने की गुस्ताखी करूँगा कि कहने का अर्थ कतई यह नहीं है कि भारत मे बढ़ती जनसंख्या के पीछे मुस्लिम समुदाय का योगदान खूब तर है.सच तो यह है, अब तक के तमाम सर्वे ने इस झूठ की कलई खोल दी है.जहां निरक्षरता है, उस समाज में परिवार कल्याण को लेकर जाग्रति नहीं है.ऐसा मुस्लिम समेत अन्य समुदायों में भी देखने को मिलता है.बहुविवाह को लेकर व्याप्त भ्रांतियों को भी अनगिनत शोध्य ने गलत साबित किया .बहुविवाह का मुस्लिमों की अपेक्षा दूसरे समाज में अधिक चलन है.अब तो ढेरों हिन्दू भी कई शादियाँ कर रहे हैं. यह दीगर है कि इसके लिए इस्लाम का सहारा लेते हैं.खैर विषय से ज़रा इतर भाग रहे अपने घोड़े को यहीं विराम देता हूँ.
तो मैं कह रहा था कि मुस्लिम समाज में अक्सर धर्म को हर मर्ज़ की दवा बताये जाने की परम्परा है.लेकिन ऐसा कहने वाले खुद अपने धर्म के मूल स्वर या उसकी गूढ़ बातों से अनजान रहते हैं.मुल्लाओं के बतलाये मार्ग पर चलना ही तब इन्हें श्रेयस्कर लगता है.और इसका खामियाजा यह होता है कि मुस्लिम विरोधी शक्तियां सीधे इस्लाम पर ही आक्रमण करने लगती हैं.कुरआन की अपने अपने ढंग से समझने और अपने मुताबिक तोड़ मरोड़ कर आयतों के इस्तेमाल की कुपरम्परा रही है.ऐसा मुस्लिम विरोधी अक्सर करते हैं.और कभी कभी कई वर्गों में विभक्त मुस्लिम समाज के धर्म गुरुओं ने भी किया है.कईयों ने गहन अध्ययन मनन के बाद निष्कर्ष निकालने के सार्थक यास भी किये हैं.कुरआन और हदीस में किसी बात का समाधान न हो तो इस तरह के कोशिशों के लिए इज्तीहाद के परम्परा रही है.

यूँ तो हर समूह ने परिवार कल्याण के समर्थन और विरोध में कुरआन और हदीस का ही हवाला दिया है.इसके विरोध में प्राय यह कहा जाता है कि किसी जिव को जिंदा दर्गोर करना गुनाह है.कुरआन की कुछ आयतें :

अपनी औलाद को गरीबी के डर से क़त्ल न करो.हम तुम्हें रोज़ी देते हैं उन्हें भी देंगे.
[अल अनआम-६]

और जब जीवित गाडी गयी लडकी से पूछा जाएगा कि उसकी ह्त्या किस गुनाह के कारण की गयी.
[अत तक्वीर ८-9]

परिवार कल्याण के विरोध में कुछ लोग ऐसी ही आयतों को सामने रखते हैं.उन्हीं यह बखूबी ज़ेहन में रखना चाहिए कि इस्लाम से पूर्व समाज में लड़कियों को जिंदा ही ज़मीन में दफन करने की गलत परम्परा थी.मुफलिसी के कारण भी लोग संतानों को मार दिया करते थे.यह आयतें उस गलत चलन के विरोध में है.इस सिलसिले में अपन आगे और स्पष्ट करेंगे.लेकिन परिवार कल्याण के विरोधी जन इस बात को स्वीकार करते हैं कि अज़्ल या गर्भ निरोध यानी गर्भ धारण रोकने के विरुद्ध कुरआन में कोई स्पष्ट प्रतिबंध का ज़िक्र नहीं है. इसमें कोई संदेह नहीं कि पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद के समय अज़्ल का चलन था.और मुसलमान इस से अछूते न थे.और कुछ सहाबियों पैग़म्बर के समकालीन उनके शिष्यों ने ऐसा परिवार कल्याण यानी गर्भ रोकने के ध्येय से भी किया.इसकी जानकारी पैग़म्बर को भी थी लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना नहीं किया.जबकि उस समय कुरआन नाजिल हो रही थी बावजूद इसके प्रतिबंध का प्रश्न खड़ा नहीं हुआ.
कुछ हदीसों से:
एक सहाबी जाबिर बिन अब्दुल्लाह ने कहा कि रसूल अल्लाह के समय हम अज़्ल किया करते थे और कुरआन नाजिल हो रहा था.
[मुस्लिम,तिरमिज़ी,इब्न माजा]

आप आगे कहते हैं हवाला मुस्लिम हदीस कि रसूल अल्लाह को इस बात का पता चला तो उन्होंने हमें इस से मना नहीं फरमाया.
एक हदीस के सूत्रधार हज़रत सुफियान कहते हैं कि [जब कुरआन नाजिल हो रहा था ]यदि यह प्रतिबंधित होता तो कुरआन हमें रोक देता .

ताबायीन [सहाबियों के शिष्यों को कहा जाता है.] के समय भी अज़्ल का चलन रहा.और गर्भ धारण रोकने के लिए ऐसा किया जाता रहा.पैग़म्बर के देहावसान के काफी बाद तक ऐसी परम्परा रही.मुसलामानों के चार प्रमुख इमामों में से एक इमाम हज़रत मालिक ने भी अज़्ल को जायज़ क़रार दिया है.हाँ ! यह सही है कि पहले खलीफा हज़रत अबू बकर, हज़रत उम्र,हज़रत उस्मान बिन अफ्फान, हज़रत अब्दुल्लाह बिन उम्र आदी सहबियों और खलीफाओं ने अज़्ल को नापसंद ज़रूर किया है.लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं कि अज़्ल हराम है.
कईयों को शंका हो सकती है किअज्ल के बाद भी तो गर्भ जिसे ठहरना हो , आप रोक नहीं सकते.इस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है जैसा कि मशहूर हदीस है कि पहले ऊँट को बाँध दो फिर अल्लाह पर भरोसा करो.यानी अपनी तरफ से बचाओ के उपाय अवश्य करो , नियति में जो लिखा है वो तो होंकर रहेगा,चिंता मत करें.लेकिन इसका मतलब यह नहीं हो जाता कि सुरक्षा न की जाय! अबू सईद से रिवायत है ,आपने कहा रसूल अल्लाह से पुछा गया तो आपने फरमाया : हर पानी से बच्चा पैदा नहीं होता और जब अल्लाह किसी चीज़ को पैदा करना चाहता है तो उसे ऐसा करने से कोई रोक नहीं सकता .[मुस्लिम]
मुस्लिम,इब्न माजा,इब्न हम्बल. दारमी और इब्न शेबा जैसे हदीसों के जानकारों ने हवाले से लिखा है कि पैगम्बर हज़रत मोहम्मद ने गर्भ रोकने के लिए अज़्ल को बताया.
कशानी ने रसूल अल्लाह के हवाले से कहा कि आपने फरमाया औरतों से अज़्ल करो या न करो जब अल्लाह किसी को पैदा करना चाहता है तो वह उसे पैदा करेगा.

कुरआन की सूरत बक़रा की एक आयत का हवाला खूब दिया जाता है.
और स्त्री-विरोध के नाते.लेकिन इसका अर्थ इधर खुला.आयत है:
तुम्हारी बीवियां तुम्हारी खेतियाँ हैं बस अपने खेतों में जैसे चाहो, आओ.

इस आयत का अर्थ इमाम अबू हनीफा के हवाले अहकामुल कुरआन में इस तरह है :चाहो तो अज़्ल करो , चाहो तो अज़्ल न करो.
और हाँ इस सम्बन्ध में पत्नी की रज़ामंदी को वरीयता दी गयी है.अबू हुरैरा से रिवायत है कि रसूल ने फरमाया पत्नी की सहमती से ही अज़्ल किया जाय.
[अबू दाऊद, अबन माजा और हम्बल ]
एक और हदीस में आया है कि जब स्त्री स्तन पान करा रही हो यानी अपने बच्चे को यानी उसका बच्चा छोटा हो तब भी अज़्ल किया जाय.

गर्भ-निरोध उपाय के सम्बन्ध में अक्सर लोग तर्क देते हैं कि ऐसा करना हत्या के बराबर है.इस सम्बन्ध में कई हदीसें हैं.सिर्फ एकाध की मिसाल ही फिलवक्त पर्याप्त है.
हज़रत अबू हुरैरा ने कहा कि रसूल अल्लाह से सहाबियों ने पूछा कि यहूदी तो अज़्ल को छोटा क़त्ल कहते हैं.तो अल्लाह के रसूल ने कहा ,वह झूठ बोलते हैं. [बेहक़ी,अबू दूद,इब्न हम्बल]

बेहक़ी और निसाई में भी दर्ज है कि हज़रत अली ने भी इसे हत्या मानने से इनकार कियाहै.जब तक कि यह सात मंजिल तय न कर ले.हज़रत अली ने सूरत अल मोमीनून का भी ज़िक्र किया.

मैं इस्लाम का मान्य विश्लेषक या विद्वान् नहीं हूँ.बस जो अध्ययन में सामने आया उसी के हवाले से अपनी बात रखने की कोशिश की है,कहाँ तक सफल रहा हूँ..यह निर्णय पाठक कर सकते हैं.वैचारिक मतभेद भी संभव है, लेकिन इतनी गुजारिश ज़रूर है कि तर्कों के साथ आप अपनी बात रखें.कुतर्क से बात का बतनगड़ तो हो सकता है कोई सार्थक संवाद कतई नहीं.

और हाँ यह भी सूचना बता देना अहम समझता हूँ कि तुर्की, मिश्र,इराक,पाकिस्तान, बँगला देश,इंडोनेशिया समेत सोवियत रूस से विभक्त आधा दर्जन मुल्कों सहित ढेरों मुस्लिम देशों में परिवार कल्याण योजना को स्वीकृति हासिल है.
और अपने मुल्क में भी पढ़ा लिखा मुस्लिम तबक़ा इसका पालन करता है.जैसे जैसे शिक्षा का उजास फैलेगा लोग कुरआन,हदीस और विज्ञान के प्रकाश में दीन और दुनिया को देखेंगे .

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यह लेख हमने अपने ब्लॉग पर 6 जुलाई 2010 को पोस्ट किया था. तब अमर्यादित टिप्पणियों को छोड़ आई यह कुछ प्रतिक्रियाएं।
वॉयस ऑफ द पीपुल :इस्लाम मैं अज्ल रिजक के खौफ से मना है, क्योंकि रिजक देने वाला अल्लाह है. इसमें बीवी की रजामंदी ज़रूरी है. इस्लाम मैं मुस्तकिल तौर पे (नसबंदी) औलाद का होना रोकना मना है. 7 जुलाई 2010 को 12:37 am

टीएम ज़ियाउल हक़ :हम आपको कई बार कह चुके की मज़हबी मामले में ज़रा सूझ बूझ कर लिखा करें। 7 जुलाई 2010 को 2:02 am

शहनवाज़ सिद्दीक़ी: किसी भी मुद्दे पर कोई फतवा तो केवल आलिम ही दे सकता है....... बात अगर विचार की जाए तो मेरे विचार से बच्चों को पालने की चिंता से परिवार नियोजन के तरीके इस्तेमाल करना बेहद गलत है. अल्लाह कुरआन में फरमाता है कि (अर्थ की व्याख्या) "रोज़ी का ज़िम्मेदार तो वह है". हाँ किसी परेशानी अथवा बच्चों की उम्र में अंतर के लिए परिवार नियोजन के तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है. 7 जुलाई 2010 2:24 am
सहसपुरिया: आपने अपने नज़रिए से बात कही है,मेरे ख़याल से इस मुद्दे पर आलिमो की राय भी ली जाए तो अच्छा होगा. इस बारे में कई बार बहस भी हो चुकी है. अज़हर यूनिवर्सिटी के आलिमो ने इस बारे में बहुत खोज बीन की है.सभी से गुज़ारिश है इस मसले पर तर्क से बात करें. शहरोज़ साहब की बात को समझ कर ही कॉमेंट दें.
7 जुलाई 2010 3:14 am

राकेश पाठक: bhaiya Isalam par kuch bhi likhne se pahle himmat honi chahiye....aapne wo himmat dikhayi.dhanyad..Par bhaiya agar aapne ye himat naam kamane ke liye dikhayi hai to mai ise thik nahi manta....lekin agar aap ise ek budhjiwi ki tarah dharm ka darpan dikhya hai to thik hai .... aapke samrthan me kitne haath uthte hai ab ye dekhna hai . 7 जुलाई 2010 5:54 am


ख़ालिद ए अहमद : saroj ji ne is mude par ke behesh ki surwat ki hai aur is aap aur baat honi chahiye ......kuch islamik jankaro ki bhi raye ki jarurat hai
7 जुलाई 2010 7 :26   am
डॉ अनवर जमाल ख़ान: शहरोज़ भाई ने अच्छी जानकारी दी . ये बात सही है कि इस्लाम में नसबंदी करना हरम है और परिवार कल्याण वाजिब है . परिवार का कल्याण होता है कुरआन पाक कि तालीम पर चलने से . वक्ती ज़रूरत के तहत आदमी अज़ल कर सकता है . लेकिन आजकल तो ज़िनाकारी / व्यभिचार के लिए बिक रहे है कंडोम . लोग ज़कात देने लगें तो फिर परिवार का पूरा ही कल्याण हो जायेगा। कन्या भ्रूण-हत्या आज गूगल में देख रहा था कि हिंदी दुनिया में क्या चल रहा है ? इसी दरमियान इस लेख पर नज़र पड़ गयी और मैं इसे उठा लाया आपके लिए, http://vedquran.blogspot.com/2010/07/islam-is-saviour-of-girlchild.html 
7 जुलाई 2010 7 :29  am

अविनाश वाचस्पति : मानवहितकारी विषयों पर सार्थक विमर्श सदैव होते रहने चाहिएं। इस प्रकार के विमर्श के उपरांत ही सही नतीजे प्राप्‍त होते हैं। इन्‍हें जाति इत्‍यादि के बंधनों में बांधकर गरीब नहीं बनाना चाहिए।7 जुलाई 2010 6:32 am
रंजना ठाकुर: आपका यह पुनीत प्रयास सराहनीय वन्दनीय है....शत प्रतिशत सहमत हूँ आपके विचारों से..दिग्भ्रमिता की यह स्थिति सभी धर्मो पंथों के अनुयायियों बीच है...और इसका समाधान निस्संदेह शिक्षा तथा जागरूकता ही है... 31 जुलाई 2010 3:13 am
नदीम अख्तर : शहरोज जी ने जो बात रखी है, उसका सीधा का संदेश है कि क्या मुसलमान परिवार नियोजन कर सकता है या नहीं। इसमें मिर्चई लगने का मतलब समझ में नहीं आता है। इतने सरल से विषय को पगलैती करके दूसरा मोड़ दे देना जहालत ही है।13 जुलाई 2012 12:35 am 

हिंदी साहित्य में कहाँ हैं मुसलमान

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संदर्भ मुस्लिम परिवेश और हिंदी उपन्‍यास














सुनील यादव की क़लम से

मुस्लिम परिवेश और हिंदी उपन्‍यास पर बात करने से पहले साहित्य और समाज विशेषकर उपन्यास और समाज और रिश्ते की पड़ताल इसलिए जरूरी हो जाती है कि ''साहित्‍य की जड़ें समाज में होती हैं । वह स्‍वयं एक सामाजिक उत्‍पादन है । वह अपनी सामाजिक भूमिका के कारण ही मानवीय परंपरा का अंग बन सका है । इसी कारण साहित्‍य में निहित स्थितियों की व्‍याख्‍या और मूल्‍यांकन केवल सौंदर्य रसानुभूति के क्षेत्र में सीमित नहीं होते, उनका सामाजिक अर्थ और प्रभाव बड़ा व्‍यापक होता है ।’’i साहित्य मनुष्‍य और उसके समाज को समझने का सूत्र मुहैया कराता है । ''समाज शास्‍त्र में मनुष्‍य की सामाजिकता की पहचान के अनेक रास्‍ते हैं । उनमें से जो रास्‍ता साहित्‍य संसार से होकर गुजरता है, वह सबसे सुगम और विश्‍वसनीय तब होता है जब वह उपन्‍यास के रचना संसार से गुजरता है, क्‍योंकि वहाँ न तो कविता की तरह आत्‍मपरकता की फिसलन होती है और न नाटक के यथार्थ का मायालोक होता है । उपन्‍यास की कला में मौजूद मनुष्‍य के समाज संबद्ध और इतिहास सापेक्ष रूप को आसानी से पहचाना जा सकता है ।’’ii आज के समय में सिनेमा को सर्वाधिक प्रतिनिधि कला रूप माना जाता है क्‍योंकि वह नए मानव की आवश्‍यकताओं को पूरा करता है, उसकी आशा, आकांक्षाओं को व्‍यक्‍त करता है, इस नए मनुष्‍य की तूफानी दुनिया को चित्रित करता है । लेकिन रैल्फ फॉक्स लिखते हैं कि ''इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि एक काफी बड़ी हद तक सिनेमा ऐसा करने में सफल हो सकता है किंतु मेरी समझ में वह पूर्णतया ऐसा नहीं कर सकता । कारण कि उपन्‍यास का पलड़ा इस मायने में सदा भारी रहेगा कि वह मानव का कहीं अधिक पूर्ण चित्र प्रस्‍तुत कर सकता है, तथा उस महत्त्वपूर्ण आंतरिक जीवन की झाँकी दिखा सकता है जो मानव के निरे नाटकीय क्रियाशील रूप से भिन्‍न होती है और जो सिनेमा की क्षमता से बाहर की चीज है ।’’iii इस तरह साहित्‍य एवं समाज के अंतर्संबंध पर बात करते हुए यह कहा जा सकता है कि उपन्‍यास मनुष्‍य के जीवन के सबसे नजदीक साहित्यिक विधा है ।
हिंदी उपन्‍यास अपने उदय के ऐय्यारी और तिलिस्‍म के दौर से चलकर एक लंबी यात्रा तय कर चुका है । उसने भारतीय समाज के विविध पहलुओं को छुआ है । अब उपन्‍यास के जनतंत्र में ऐसे लोग जगह पा रहे हैं जो कभी हाशिए पर ढकेल दिए गए थे । यह हिंदी उपन्‍यास की चौहद्दी का विकास ही है कि आज मुस्लिम, दलित एवं आदिवासियों के जीवन पर उपन्‍यास लिखे जा रहे हैं । हिंदी उपन्‍यास की सीमाओं को रेखांकित करते हुए श्‍यामाचरण दुबे ने लिखा कि ''हिंदी उपन्‍यास की उल्‍लेखनीय सफलताओं के बावजूद भारत सामाजिक यथार्थ के आकलन में उसकी सीमाएं और न्यूनताएँ चुभने वाली हैं ।...भूमिहीन खेतिहरों, बंधुआ मजदूरों और औद्योगिक श्रमिकों पर जो लिखा गया है । वह नाकाफी है और संतोष भी नहीं देता । आदिवासियों व दरिद्र समाज का दर्द भी अभिव्‍यक्ति नहीं पा सका है ।’’iv 1991 ई. में व्‍यक्‍त की जा रही डॉ. श्‍यामाचरण दुबे की इस चिंता को हिंदी उपन्‍यास ने आज कुछ हद तक अपने अंदर समेट लिया है और दलित, आदिवासी, खेतिहर मजदूर, किसान इत्‍यादि पर उपन्‍यास लिखे जा रहे हैं । डॉ. श्‍यामाचरण दुबे जैसे समाजशास्‍त्री ''देश विभाजन की त्रासदी पर सशक्‍त और हिला देने वाले''v उपन्‍यास की माँग तो करते हैं पर उनकी नजर से भी देश विभाजन के बाद का मुस्लिम जीवन का व्‍यापक परिवेश छूट जाता है ।
शानी ने सबसे पहले यह सवाल उठाया था कि हिंदी उपन्‍यास में मुसलमान कहाँ हैं? 'समकालीन भारतीय साहित्‍य'पत्रिका के 41 वें अंक में नामवर सिंह से बात करते हुए शानी ने सवाल उठाया था कि ''क्‍या किसी भी देश का भौगोलिक, सांस्‍कृतिक और साहित्यिक मानचित्र 12-15 करोड़ मुस्लिम वजूद को झुठलाकर पूरा हो सकता है?...नामवर जी कई वर्ष पहले आपने कहा था कि हिंदी साहित्‍य से मुस्लिम पात्र गायब हो रहे हैं । मुस्लिम पात्र जब थे ही नहीं तो गायब कहाँ हो रहे हैं । प्रेमचंद में नहीं थे, यशपाल में आंशिक रूप से थे । ...गोदान जो लगभग क्‍लासिकी पर जा सकता है और हमारे भारतीय गाँव का जीवंत दस्‍तावेज है, उसमें गाँव का कोई मुसलमान पात्र क्‍यों नहीं हैं? क्‍या अपने देश का कोई गाँव इनके बिना पूरा हो सकता है? प्रेमचंद फिर भी उदार हैं, जबकि यशपाल के 'झूठा सच’ में नाम मात्र के मुस्लिम पात्र नहीं हाड़-मांस के जीवंत लोग हैं । लेकिन उसके बाद? अज्ञेय, जैनेन्‍द्र, नागर जी या उनकी पीढ़ी के दूसरे लेखकों में क्‍यों नहीं? और उससे भी ज्‍यादा तकलीफ़देह यह है कि आजादी के बाद के मेरी पीढ़ी के कहानीकारों में और उसके बाद के कहानीकारों में भी नहीं हैं । ...हिंदी में ही क्‍यों नहीं हैं? जबकि तेलुगू में हैं, असमिया में हैं, बँगला में हैं ।’’vi
इस प्रकार हम देखते हैं कि शानी इस बात को गंभीरता से महसूस कर रहे थे कि हिंदी उपन्‍यास में मुस्लिम जीवन का चित्रण बहुत कम हुआ हैं । उनकी इसी चिंता का परिणाम था उपन्‍यास 'कालाजल' (1965), जिसमें उन्‍होंने बस्‍तर जैसे पिछड़े क्षेत्र की मुस्लिम मध्‍यवर्गीय जिन्‍दगी का प्रामाणिक चित्रण किया है । यह उपन्‍यास दो मुस्लिम परिवारों की तीन पीढ़ियों की कहानी कहता है । यह मुस्लिम परिवार एक अजीब से ठहराव के बीच जी रहा है, बिल्‍कुल मोतीतालाब के काला जल की तरह सब कुछ ठहरा हुआ है, हालांकि समय चल रहा है, समय कभी रुकता भी नहीं, इन्‍द्रा नदी के बहाव की तरह । बहाव और ठहराव को मिलाकर शानी एक ऐसा कन्‍ट्रास रचते हैं कि मुस्लिम जीवन का पूरा परिदृश्‍य हमारे सामने खुलने लगता है । 'कालाजल'का समाज, उसका आचार व्‍यवहार, रूढ़ियाँ, अंधविश्‍वास, आपसी रिश्‍ते बिल्‍कुल वही हैं जो दूसरे भारतीय क्षेत्रों के होंगे लेकिन वहाँ देश के स्‍वतंत्रता आंदोलन की हलचल न के बराबर है । ''प्रत्‍यक्षत: यह दो मुस्लिम परिवारों के लगातार टूटने और उनकी घुटन के सघनतर होते जाने की मार्मिक कहानी है । मध्‍यवर्गीय मुस्लिम परिवारों की त्रासदी तथा मुस्लिम मानसिकता और संस्‍कृति का उद्घाटन करने वाला यह अद्भुत उपन्‍यास है ।’’vii यह डॉ. श्‍यामाचरण दुबे की उस समाजशास्‍त्रीय माँग को भी पूरा करता है, जो उपन्‍यास विधा को मात्र 'साहित्यिक संरचना'तक ही सीमित न कर उसे 'सामाजिक संरचना'में पढ़े जाने की आग्रह करती है ।
'कालाजल'से पहले शानी का उपन्‍यास 'कस्‍तूरी' 1960 में प्रकाशित हुआ था, जो बाद में संशोधन-परिवर्द्धन के साथ 'साँप और सीढ़ी'नाम से प्रकाशित हुआ यह उपन्‍यास आजादी के बाद संक्रमण के दौर से गुजर रहे आदिवासी जीवन को लेकर लिखा गया है इसमें मुस्लिम परिवेश नहीं है । शानी का दूसरा उपन्‍यास 'पत्‍थरों में बंद आवाज' (1964) जो बाद में 'एक लड़की की डायरी'नाम से भी आया । इसमें बानू और अनीसबाजी नामक दो स्त्रियों की दास्‍तान है, जो अपनी जिन्‍दगी की जद्दोजहद से गुजरती हैं । इन दोनों का संबंध मुस्लिम परिवारों से है पर यह मुस्लिम परिवेश वाला उपन्‍यास नहीं है । दांपत्य संबंधों की त्रासदी पर आधारित शानी का उपन्‍यास 'नदी और सीपियाँ' (1970) मुस्लिम परिवेश का उपन्‍यास नहीं बल्कि स्‍त्री-पुरुष संबंधों को प्रश्‍नांकित करने वाला उपन्‍यास है ।
शानी के बाद मुस्लिम परिवेश को चित्रित करने वाले दूसरे महत्त्वपूर्ण उपन्‍यासकार राही मासूम रज़ा हैं। इस्‍लामी राष्‍ट्रवाद और भारतीय मुसलमान के रिश्‍ते की पड़ताल करते हुए विभाजन की समस्‍या के ऊपर राही मासूम रज़ा का पहला उपन्‍यास'आधा गाँव'सन्1966 में आया । 'आधागाँव'चलती हुई जिन्‍दगी की एक रील है जिसमें हर चीज़ जो घटने वाली है, उसका चित्रण साफ-साफ होता है । आजादी और विभाजन से पहले तथा उसके बाद के दौर में एक शिया मुस्लिम बहुल गाँव में हो रही हलचलों के साथ पूरी जिन्‍दगी के बहाव को कथाकार ने उठा लिया है । कहीं कुछ भी जोड़ा गया नहीं लगता, वे हाड़-मांस के लोग अपने गाँव में अपने तरीके से जिंदगी को जी रहे हैं, अपने तमाम दुर्गुणों के साथ, तत्‍कालीन राजनीति गाँव में कैसे घुसती है और उसके खिलाफ गाँव के लोगों के तर्क अपने हैं, ये घटनाक्रम, ये तर्क कथाकार के थोपे हुए तर्क नहीं हैं । इस प्रकार सामंतवाद तथा जमींदारी के विघटन के बाद भी सामंतवादी सोच और ठसक के साथ लोग जी रहे हैं, रखैलें रख रहे हैं क्‍योंकि उनके लिए स्‍त्री सिर्फ एक वस्‍तु है । उसका कोई नाम नहीं है । झंगटिया चमाइन, दुलरिया भंगिन के साथ मियाँ लोग सो सकते हैं, लड़के पैदा कर सकते हैं पर उनके हाथ का खाना नहीं खा सकते, उन्‍हें बीबी का दर्जा नहीं दे सकते । इस पितृसत्तात्‍मक सोच के साथ ‘आधागाँव’ में अशराफ एवं अजलाफ के विभाजन को भी साफ-साफ देखा जा सकता है । ''राही जहाँ अपने उपन्‍यास में मुस्लिम समुदाय की समरसता व भाईचारे के मिथक का भेदन करते हैं, वहीं अशराफ व सैय्यद वर्ग की नस्ली श्रेष्‍ठता व इस्‍लामी पवित्रता के छद्म को भी उघाड़ते हैं ।’’viii
‘आधा गाँव’ के बाद राही के 'टोपी शुक्‍ला' (1969) और ‘हिम्‍मत जौनपुरी’ (1969) उपन्‍यास आते हैं । राही ‘टोपी शुक्‍ला’ में हिंदू-मुस्लिम संबंधों को सही संदर्भ में देखने की कोशिश करते हैं और इस कोशिश में वे इन संबंधों की त्रासद परिणतियों तक भी जाते हैं । 'हिम्‍मत जौनपुरी'एक ऐसे मुसलमान की कहानी है जो जीवन भर जीने का हक माँगता रहा, सपने बुनता रहा परंतु आत्‍मा की तलाश में सपना और यथार्थ के संघर्ष में उलझकर रह गया । 'ओस की बूँद' (1971) राही का एक छोटा उपन्‍यास है जिसमें ''एक ऐसे अंतर्विरोध पूर्ण समय की कहानी है जब आदमी आदमी न रहकर निखालिस हिंदू या मुसलमान बन जाता है और मुल्‍लाओं-महंतों तथा राजनीतिज्ञों द्वारा फैलाए गए धार्मिक उन्‍माद और झूठ के फलस्‍वरूप सारी मानवीय संवेदनाओं को तिलांजित कर वहशी बन जाता है ।’’ix 'दिल एक सादा कागज' (1973) मूलत: मुसलमानों के मोहभंग की कहानी है । 'सीन 75' (1977) में मुंबई महानगर के उस चकाचौंध भरे जीवन को विविध कोणों से देखने और उभारने का प्रयत्न है, जिसका एक प्रमुख अंग फिल्मी संसार है । 1975 में इंदिरा गांधी के द्वारा देश में लगाए आपातकाल तथा उसके बाद के राजनीतिक वातावरण से प्रभावित हो रहे जन जीवन को राही मासूम रज़ा ने 'कटरा बी आर्जू'(1978) में दिखाया है । 'असंतोष के दिन' (1986) उपन्‍यास में राही मासूम रज़ा ने साम्‍प्रदायिकता के खूंखार चरित्र को उजागर किया है । हिंदू-सिक्‍ख, हिंदू-मुस्लिम साम्‍प्रदायिकताएं इस उपन्‍यास के केन्‍द्र में हैं । ‘नीम का पेड़’(2003) उनका अंतिम उपन्यास है, इसमें राही ने नीम के पेड़ के बहाने विभाजन तथा उसके बाद के हिंदुस्तान में तेजी से परिवर्तित होते राजनीतिक,सामाजिक समीकरणों के बीच मानवीय संबंधों की त्रासद स्थितियों को चित्रित किया है।
भीष्‍म साहनी का ‘तमस’ (1973) और उससे पहले यशपाल का ‘झूठासच’ मूलत: सांप्रदायिक विभीषिका का चित्रण करने वाले उपन्‍यास हैं । इन उपन्‍यासों में मुस्लिम परिवेश उभर कर नहीं आ पाता । ''यशपाल हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की ऊपरी सतह को खुरचकर उन कुरूप सच्‍चाइयों को उजागर करते हैं जिनके बिना विभाजन के आख्‍यान को नहीं समझा जा सकता ।’’x जबकि साहनी 'तमस'में सांप्रदायिकता की जड़ तलाशते हुए अंग्रेजों की 'फूट डालो, राज करो’ की नीति तथा मुस्लिम लीग के द्विराष्‍ट्रीयता के सिद्धांत तक जाते हैं । इसी विषय को अपने कथा-विन्‍यास में विन्‍यस्‍त करते हुए सांप्रदायिकता का आख्‍यान रचते हैं । ''तमस उस अंधकार का द्योतक है जो आदमी की आदमीयत और संवेदना को ढक लेता है और उसे हैवान बना देता है ।’’xi
मेहरून्निसा परवेज अपने उपन्‍यासों 'आँखों की दहलीज' (1969) और 'कोरजा' (1977) में मुस्लिम समाज का चित्रण करती हैं । इसमें चित्रित मुस्लिम समुदाय धार्मिक दृष्टि से उदार है पर उसमें पितृसत्तात्‍मक प्रवृत्ति गहरी धंसी हुई है । 'कारेजा'में मेहरून्निसा परवेज यह दिखाती हैं कि शोषण के तरीके हर धर्म में समान हैं, चाहे वह मुस्लिम औरत हो या हिंदू पितृसत्तात्‍मक तथा धार्मिक आडंबर की प्रताड़ना दोनों को झेलनी पड़ती है ।
मुस्लिम जीवन के चित्रण में शानी तथा राही मासूम रज़ा की परंपरा में एक महत्त्वपूर्ण नाम बदीउज्‍जमाँ का भी है । बिहार से पूर्वी पाकिस्‍तान गए मुसलमानों के मोहभंग तथा उनके जीवन से घटित होती विडंबनाओं का चित्रण बदीउज्‍ज़माँ ने 'छाको की वापसी'में किया है । ‘छाको की वापसी’ का एक पात्र कहता है कि ''...यह एक बहुत तकलीफदेह हकीकत है लेकिन है हकीकत कि बिहारी मुसलमानों की बंगाली मुसलमानों के साथ गुजर नहीं हो सकती । बड़ा ही जानलेवा एहसास है यह कि हम जिन आदर्शों को सीने से लगाए हुए थे और जिनसे हमारे दिल और रूह को ताजगी और सुकून मिलता था उन्‍होंने अचानक जहरीले साँपों की तरह डसना शुरू कर दिया है । मैं सच कहता हूँ कि बिहार के हिंदू इन बंगाली मुसलमानों से यकीनन बेहतर थे... । xii इस प्रकार 'छाको की वापसी', 'आधागाँव'का एक तरह से विकास है । बदीउज्‍ज़माँ के दूसरे उपन्‍यास 'सभापर्व' (1994) में मुस्लिम जीवन को इस्‍लामी संस्‍कृति के हजारों वर्षों के इतिहास के आइने में प्रस्‍तुत किया गया है ।

मंजूर एहतेशाम ने अपने उपन्‍यासों में ''भारत के सबसे बड़े अल्‍पसंख्‍यक समूह की पीड़ा, अंतर्द्वन्‍द्व व दुर्बलताओं को भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक परिदृश्‍य के साथ जिस तरह अंतरगुंफित किया है, वह गहरी रचनात्‍मक आत्‍मसंलग्‍नता के बिना संभव नहीं है ।’’xiii आजाद भारत के हिंदू मुस्लिम विमर्श की उपस्थिति के साथ उनका उपन्‍यास ‘सूखा बरगद’ (1986) स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज में मूल्‍यगत टकराहट का दस्‍तावेज भी है । भारत-विभाजन की पृष्‍ठभूमि में प्रेम और अस्मिता की कहानी ‘सूखा बरगद’ में केंद्रीय तत्‍व के रूप में उपस्थित है । उपन्‍यास का यह अंत पूरे औपन्‍यासिक वृत्तांत को एक लय प्रदान करता है- ''जमशेद पुर कर्बला बना हुआ है मुसलमानों का मार-मार नाश कर डाला है । वह जो एक राइटर था-हिंदू-मुसलमान भाई-भाई की थीम पर उर्दू में जिंदगी भर कहानियाँ लिखता रहा, उसे भी निपटा दिया गया है ।’’xiv लेखक अली अनवर की इस हत्या के माध्‍यम से उपन्‍यासकार ने मुस्लिम समुदाय की हताशा को दिखाया है साथ ही साझी-संस्‍कृति, धर्मनिरपेक्षता सभी कुछ प्रश्‍नों के घेरे में है । मंजूर एहतेशाम के उपन्‍यास 'दास्‍तान-ए लापता' (1995) और 'पहर ढलते' (2007) मुस्लिम जीवन की विडंबना को चित्रित करते हैं । 'बशारत मंजिल'उनका महत्त्वपूर्ण उपन्‍यास है । इसमें मंजूर एहतेशाम दो सगे भाईयों का मुस्लिम लीगी और राष्‍ट्रवादी मुसलमान के रूप में द्वि-विभाजन करते हुए इतिहास का एक नया विमर्श रचते हैं । यह उपन्‍यास स्‍वतंत्रता आंदोलन से लेकर बाबरी मस्जिद विध्‍वंस तक के काल-खंड को अपने अंदर समेटता है । इतने लंबे कालखंड में बदलते मुस्लिम प्रश्‍न इस उपन्‍यास के केंद्र में है साथ ही हिंदू-मुस्लिम संबंधों के टूटने की त्रासद स्थिति को भी यह उपन्‍यास केंद्रीयता प्रदान करता है ।
मुस्लिम परिवेश की प्रामाणिक अभिव्‍यक्ति अब्‍दुल विस्मिल्‍लाह के उपन्‍यासों में देखने को मिलती है । मुस्लिम बुनकरों के त्रासद जीवन को अभिव्‍यक्‍त करने वाला उनका उपन्‍यास 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया' (1986) काफी चर्चित हुआ । बुनकरों का शोषण, गरीबी, जहालत, मजबूरी की बेबाक प्रस्‍तुति करते हुए अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह उस सच्‍चाई का पर्दाफाश करते हैं जिसमें शोषक सिर्फ शोषक होता है वह हिंदू या मुसलमान कोई भी है, धर्म विशेष फर्क नहीं डालता । शोषित हिंदू या मुसलमान इससे शो‍षण में कोई अंतर नहीं पड़ता । यही वास्‍तविक वर्ग चरित्र है । इस शोषण से बुनकर त्रस्‍त हैं । ''यतीन को रात में नींद नहीं आती, सिर्फ विचार आते हैं- तरह-तरह के विचार जो उसे सोने नहीं देते । बीवी को टी.वी. है। उसे गिजा चाहिए । भिरस जो है, उन्‍हें साड़ी में ऐब-ही-ऐब दीखता है । सरकार जो है, वह दाम बढ़ाए जा रही है । यह जो गाड़ी है, जिंदगी की, कैसे चलेगी?''xv बुनकरों के जीवन के ताने-बाने को पूरी संश्लिष्‍टता में इस उपन्‍यास में बुना गया है । त्‍योहार, गीत, रस्‍मो-रिवाज इस उपन्‍यास के मुस्लिम जीवन को जीवंत बनाते हैं ।
अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह अपने उपन्‍यास 'मुखड़ा क्‍या देखें'में मुस्लिम समुदाय के उस वृहत निम्‍न जन को अपनी औपन्‍यासिकता का केंद्र बनाते हैं जिसकी पीड़ा के मूल में न तो पाकिस्‍तान है और न विभाजन की त्रासदी बल्कि ''सामंती ग्राम संबंधों की तार-तार होती बुनावट, परंपरागत पेशों की टूट, जाति-व्‍यवस्‍था की जकड़न, सांप्रदायिकता की अंतर्धारा, समाज के निम्‍न वर्गों में जनतांत्रिक चेतना का उभार, सामाजिक न्‍याय की अनुगूँज एवं गाँव के मुहाने पर बाजार की दस्‍तक का अत्‍यंत सहज चित्रण इस उपन्‍यास में किया गया है ।’’xvi बिस्मिल्‍लाह के अगले उपन्‍यासों 'जहरबाद'में मिर्जापुर अंचल के गाँव में रहने वाले निम्‍न मध्‍यवर्गीय मुस्लिम परिवार का चित्रण है तो 'अ‍पवित्र आख्‍यान'में मुस्लिम समाज के अंतर्द्वन्‍द्व के बहाने मौजूदा सामाजिक, राजनीतिक स्थितियों का चित्रण । 'अपवित्र आख्‍यान'में बिस्मिल्‍लाह, राही मासूम रज़ा के 'टोपी शुक्‍ला'की तरह भाषाई अस्मिता के सवाल को भी उठाते हैं और उस प्रचलित मिथ का क्रिटिक रचते हैं कि कोई मुस्लिम संस्‍कृत या हिंदी का या हिंदू उर्दू का विद्वान नहीं हो सकता ।
नासिरा शर्मा प्रगतिशील विचारों की लेखिका हैं । उनका पहला उपन्‍यास 'सात नदियाँ एक समुन्‍दर' (1984) आधुनिक ईरान की पृष्‍ठभूमि पर अयातुल्‍ला खुमैनी की रक्‍तरंजित इस्‍लामी क्रांति पर आधारित है । उनके उपन्‍यास 'शाल्‍मली'यदि हिंदू दाम्‍पत्‍य की विडम्‍बना को चित्रित करता है तो 'ठीकरे की मंगनी' (1989) मुस्लिम समाज की स्‍त्री का मर्मांतक दस्‍तावेज है । यह उपन्‍यास मुस्लिम समाज के एक रिवाज 'मंगनी'से जुड़ा हुआ है, जिसके अनुसार जन्‍म के साथ ही किसी लड़की की मंगनी कर दी जाती है फिर शुरू होता दर्द और दमन का लंबा सिलसिला । यह उपन्‍यास उस मुस्लिम स्‍त्री की कहानी कहता है जो तमाम रूढ़ियों और घुटन से निकलकर अपनी पहचान बनाने के लिए व्‍याकुल है । नासिरा शर्मा का उपन्‍यास 'जीरो रोड'मुस्लिम परिवेश पर आधारित उपन्‍यास न होकर इलाहाबाद से दुबई तक विस्‍तृत व्‍यापार के रफ्तार की कहानी है ।
'जिन्‍दा मुहावरे'नासिरा शर्मा का एक महत्त्वपूर्ण उपन्‍यास है । भारत विभाजन के दर्द को समेटता यह उपन्‍यास, उस मुस्लिम मन की कहानी कहता है जो विभाजन के बाद या तो पाकिस्‍तान चले गए या भारत में रह गए । दोनों तरफ के मुसलमानों की दर्द भरी जिन्‍दगी का प्रामाणिक दस्‍तावेज है 'जिन्‍दा मुहावरे'। 'जिन्‍दा मुहावरे'का एक पात्र कहता है कि ''यह तजुर्बा कितना तकलीफदेह होता है कि जहाँ आप पैदा हो, जिस जमीन को आप अपना वतन समझें, उसे बाकी लोग आपका गलत कब्‍जा बताएं । कदम-कदम पर यह अहसास दिलाएं कि तुम यहाँ के नहीं बाहर के हो ।’’xvii
आबिद सुरती ने अपने उपन्‍यास 'मुसलमान' (1995) में आत्‍मकथात्‍मक पद्धति से मुस्लिम समाज की त्रासदी का वर्णन किया है । इसी क्रम में इकबाल मजीद का 'तेरा और उसका सच' (1999) उपन्‍यास उल्‍लेखनीय है जिसमें भारतीय मुसलमान की हैसियत का लेखा- जोखा प्रस्‍तुत किया गया है । आज जिस तरह भारतीय मुसलमान सिर्फ वोट बनकर रह गया है, भारतीय मुसलमान की दहशत भरी जिंदगी का कोई खिदमतगार नहीं है । इन सभी मुद्दों को यह उपन्‍यास उठाता है ।
असगर वजाहत के उपन्‍यास 'सात आसमान'के संदर्भ में ज्‍योतिष जोशी ने लिखा है कि ''मुस्लिम समाज को उसकी पूरी संरचना में जानने के लिए 'सात आसमान'की कोई दूसरी मिसाल नहीं है । एक ही मुस्लिम परिवार के चार सौ वर्षों की कहानी कहता यह उपन्‍यास ऐसे चरित्रों के लिए जाना जाएगा जो अपनी संघर्षशीलता और जिजीविषा से किसी भी तरह का समझौता नहीं करते ।’’xviii इस उपन्‍यास में असगर वजाहत उस ठहरे हुए कुलीन वर्ग की व्‍यथा कथा कहते हैं जो नवाबी एवं जमींदारी के खात्‍मे से त्रस्‍त है । इनके दूसरे उपन्‍यास 'कैसी आग लगाई' (2007) में सांप्रदायिकता, छात्र जीवन, स्वातंत्र्योत्तर राजनीति, सामंतवाद, वामपंथी राजनीति, मुस्लिम समाज, छोटे शहरों का जीवन और महानगर की आपा-धापी के साथ-साथ सामाजिक अंतर्विरोधों से जन्में वैचारिक संघर्ष का चित्रण है ।
उपर्युक्‍त उपन्‍यासों के अतिरिक्‍त हिंदी में कुछ ऐसे उपन्‍यास भी लिखे गए जिसमें मुस्लिम जीवन तो पूरी तरह नहीं उभर कर आ पाता पर, हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक संदर्भ इन उपन्‍यासों में केंद्रीय तत्‍व के रूप में उपस्थित हैं जिसमें विभूति नारायण राय का 'शहर में कर्फ्यू' (1986), प्रियंवद का 'वे वहाँ कैद हैं' (1994) भगवानदास मोरवाल का 'कालापहाड़', भगवान सिंह का 'उन्‍माद', गीतांजलि श्री का 'हमारा शहर उस बरस', दूधनाथ सिंह का 'आखिरी कलाम', मो. आरिक का 'उपयात्रा', मुशर्रफ आलम जौकी का 'बयान', कमलेश्‍वर का 'कितने पाकिस्‍तान'प्रमुख हैं । इन उपन्‍यासों में सांप्रदायिक राजनीतिक ताकतों के खूंखार मंसूबों, धर्म के ठेकेदारों के साथ-साथ दंगों से प्रभावित होने वाली जनता का चित्रण मिलता है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में बाबरी मस्जिद विध्‍वंस के बाद की मुस्लिम समाज की मनोदशा को भी इन उपन्‍यासों ने चित्रित किया है ।
इस प्रकार मुस्लिम जीवन के संदर्भ में हिंदी उपन्‍यास की विकास यात्रा को रेखांकित करते हुए हम कह सकते हैं कि इन उपन्‍यासों में मुस्लिम समुदाय में विभाजन का दर्द, मुस्लिमों की भारतीय अस्मिता का प्रश्‍न, गरीबी, यातना भरी जिंदगी, व्‍यापक मुस्लिम समाज में स्‍त्री की नियति और सांप्रदायिकता के बढ़ते खूनी पंजों से नर्क में तब्‍दील होता जीवन, स्‍वतंत्र भारत में स्वार्थपूर्ण राजनीति और मुस्लिमों की उपेक्षा इत्‍यादि सवाल केंद्रीय तत्‍व के रूप में उपस्थित हैं ।


i परंपरा इतिहास, बोध और संस्‍कृति- श्‍यामाचरण दुबे, पृ.159
ii साहित्‍य के समाजशास्‍त्र की भूमिका- मैनेजर पाण्‍डेय, पृ.227
iii उपन्‍यास और लोक जीवन- रैल्फ फॉक्‍स, पृ.32
iv परंपरा इतिहास, बोध और संस्‍कृति- श्‍यामाचरण दुबे, पृ.139
v वही, पृ.139
vi समकालीन भारतीय साहित्‍य, अंक-41 (जुलाई-सितंबर 90) (सं.) शानी, पृ.194-95
vii हिंदी उपन्‍यास का इतिहास- गोपाल राय, पृ. 290
viii उपन्‍यास और वर्चस्‍व की सत्ता- वीरेन्‍द्र यादव, पृ.82
ix हिंदी उपन्‍यास का इतिहास- गोपाल राय, पृष्‍ठ, 294
x उपन्‍यास और वर्चस्‍व की सत्ता-वीरेन्‍द्र यादव, पृ.55
xi हिंदी उपन्‍यास का इतिहास-गोपाल राय, पृ. 303
xii छाको की वापसी-बदीउज्‍ज़मा, पृ.155
xiii आधुनिक हिंदी उपन्‍यास-(सं.) नामवर सिंह, पृ.32
xiv सूखा बरगद-मंजूर एहतेशाम, पृ.231
xv झीनी-झीनी बीनी चदरिया- अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह, पृ. 17
xvi अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह का कथा साहित्‍य- (सं.) चंद्रदेव यादव, पृ.92
xvii जिंदा मुहावरे- नासिरा शर्मा, पृ.101
xviii उपन्‍यास की समकालीनता-ज्‍योतिष जोशी, पृ.109





(लेखक-परिचय:
जन्म: 29 दिसंबर 1984 को गाजीपुर (उ प्र ) में
शिक्षा: आदर्श इंटर कॉलेज गाजीपुर से अरभिक शिक्षा , इलाहाबाद
विशावविद्यालय इलाहाबाद से बीए और एम ए, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय
हिन्दी विश्वविद्यालय से पी-एच डी की उपाधि (2013)(कंप्लीट है पर उपाधि
अभी मिली नहीं है )
सृजन : पहल जैसी अहम पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित
संप्रति:  इलाहाबाद में रहते हुए स्वतंत्र रूप से मुस्लिम समाज और हिंदी साहित्य को लेकर वृहद शोध कार्य में सक्रिय
संपर्क: sunilrza@gmail.com)

 

तुमने बदले हम से गिन-गिन के लिए

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दो शाइर और एक ग़ज़ल 













रजनीश ‘साहिल’ की क़लम से

"दो जुदा शाइरों की अलग-अलग ग़ज़लों से शेर चुनकर बनी एक तीसरी मुकम्मल ग़ज़ल", अगर कोई ऐसा कहे तो क्या आप क्या कहेंगे? थोड़ा अटपटा लगता है सुनने में, पर जो है, सो है. यह सुनकर शायद और अटपटा लगे कि इसमें चोरी-वोरी का कोई मामला भी नहीं है. और यह भी नहीं है कि जिसके मार्फ़त तीसरी ग़ज़ल हम तक पहुंची उसने नादानी में ऐसा कर दिया होगा. क्योंकि न तो दोनों शाइर और न ही वह तीसरा शख्स, कोई भी ग़ज़ल की दुनिया का अनजाना नाम नहीं है. जो भी ग़ज़ल पढ़ने-सुनने का शौक रखता है वो तीनों को बखूबी जानता है. तो ग़ज़ल के रू-ब-रू होने से पहले ज़रा इन तीनों की ही बात कर लेते हैं. शुरुआत शाइरों से करते हैं. एक ही समय के दो अलग-अलग शायर. एक लखनऊ में पैदा हुए, दूसरे दिल्ली में. इंतकाल दोनों का एक ही जगह हुआ, हैदराबाद में.
पहले शाइर हैं 1828 में लखनऊ में जन्म लेने वाले अमीर अहमद मीनाई, जो ग़ज़ल की दुनिया में भी अमीर मीनाई के नाम से ही मशहूर हुए. इस्लामिक क़ानून और न्यायशास्त्र के ज्ञाता अमीर मीनाई 1856 में लखनऊ पर हुए ब्रिटिश हुकूमत के हमले के बाद बेघर-बेदर हुए और बरास्ता काकोरी रामपुर रियासत पहुंचे जहाँ वे तत्कालीन शासक नवाब युसूफ अली खान के उस्ताद हुए. सन 1900 की शुरुआत तक वे रामपुर ही रहे फिर अपनी ‘अमीर-उल-लुग़त’ के बाकी हिस्सों के शाया होने की हसरत लिए वे हैदराबाद कूच कर गए, जहाँ 13 अक्टूबर 1900 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा.
दूसरे शाइर हैं 25 मई 1831 को दिल्ली में जन्मे नवाब मिर्ज़ा खान, जिन्हें उर्दू अदब की दुनिया में दाग़ देहलवी के नाम से जाना जाता है. शेख मोहम्मद इब्राहीम ज़ौक़ और मिर्ज़ा ग़ालिब की शागिर्दी में रहे दाग़ 1956 में दिल्ली में हुई उथल-पुथल के बाद रामपुर रवाना हुए और नवाब युसूफ अली खान के शासनकाल में सरकारी मुलाज़िमत हासिल की. 1888 में दाग़ हैदराबाद पहुँचे और मुशाइरों की जान हो गए. 1891 में वे हैदराबाद दरबार के शाइर और छठवें निज़ाम के उस्ताद हुए.
यूँ तो शाइरी के मामले में दिल्ली और लखनऊ की अपनी-अपनी रवायत है और ऐसे कई किस्से हैं जब बाज़ दफ़ा दोनों ही रवायतों के शाइरों ने एक-दूजे के लिए अपनी नापसंदगी ज़ाहिर की और चुटकियाँ लीं. बावज़ूद इसके दाग़ देहलवी और अमीर मीनाई बहुत ही अच्छे दोस्त थे. ज़ाहिर बात है कि दोस्ती का यह पौधा रामपुर में पनपा होगा जो दोनों की आख़िरी साँस तक हैदराबाद की ज़मीं पर भी हरा रहा. 1900 में जब अमीर मीनाई हैदराबाद पहुँचे तो वे दाग़ के साथ ही रहे. बहुत मुमकिन है कि जिन शेरों के ज़िक्र से यह बात निकली है वह भी दोनों ने एक ही वक़्त पर एक ही कमरे मैं बैठकर कहे हों. दोनों ग़ज़लों को पढ़कर लगता भी ऐसा ही है. बहरहाल, अमीर के बाद 17 मार्च 1905 को दाग़ भी इस दुनिया को अलविदा कह गए.
अब बात करते हैं उस तीसरे शख्स़ की जिसने इन दोनों शाइरों को एक ही ग़ज़ल में साथ ला दिया. ग़ज़ल के सुनने वालों के बीच इस शख्स का नाम बड़ा ही मक़बूल है और वह है – जगजीत सिंह. 8 फ़रवरी 1941 को राजस्थान के श्री गंगानगर में जन्मे और 1965 में फिल्मोद्योग में अपनी जगह बनाने की ख़्वाहिश लिये मुंबई पहुँचे जगजीत सिंह ने 10 अक्टूबर 2011 को अपनी आख़िरी साँस लेने तक के वक़्त में ख़ुदा-ए-सुखन मीर तक़ी ‘मीर’ और ग़ालिब से लेकर निदा फ़ाज़ली, बशीर बद्र और इस दौर के न जाने कितने ही शाइरों को अपनी आवाज़ के ज़रिये हमारे सामने ला खड़ा किया है. ग़ज़ल, जो किसी वक़्त में मुश्किल समझी जाती थी उसे अपनी मौसिक़ी से आसान बनाने और हर दिल तक पहुँचाने में उन्हें जो कामयाबी मिली उसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जो ग़ज़ल और गीत का फ़र्क भी नहीं जानते वे भी उनकी गाई ग़ज़लों के दीवाने हैं. जवाँ दिल अपनी उदासी अक्सर उनकी ग़ज़लों से बाँटते हैं.
अब चुन-चुन कर एक से एक बेहतरीन शाइर की अच्छी ग़ज़ल गाने वाले जगजीत सिंह से यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती कि वे दाग़ देहलवी की शेरों को गाते-गाते यूँ ही बेख़याली में अमीर मीनाई के शेर गुनगुना गए होंगे, भले ही बहर एक है तो क्या! असल में सुरों में उतारने से पहले दाग़ और अमीर की ग़ज़लों के शेर बड़ी ही ख़ूबसूरती से चुने गए. एहतियात के साथ चुने गए कि सुनते वक़्त किसी को अहसास तक न हुआ कि कोई शेर किसी और शाइर का भी हो सकता है. हर शेर की एक-सी ज़बान, एक-सा अंदाज़-ए-बयां, एक-सा अहसास. इसीलिए तो हर सुनने वाले को यह अपने आप में एक मुकम्मल ग़ज़ल लगी. दो शाइरों के शेरों को चुनकर बनी तीसरी मुक़म्मल ग़ज़ल. जिसने जानने की कोशिश न की उसे कभी पता न चला कि इस ग़ज़ल का, इसके शेरों का ख़ालिक कोई एक नहीं दो जुदा शख्स हैं.
इतनी लम्बी तम्हीद जिस मक़सद से की, अब भी अगर उसका ज़िक्र न किया यानी अब भी अगर उस तीसरी ग़ज़ल पर न आए, तो ये नाइंसाफ़ी होगी. इसलिए रू-ब-रू होते हैं उस ग़ज़ल से, हर शेर के साथ उसके शाइर की मौजूदगी में...
 
तुमने बदले हम से गिन-गिन के लिए
हमने क्या चाहा था इस दिन के लिए
 
  ...(दाग़ देहलवी)

वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए
   ...(अमीर मीनाई)

वो नहीं सुनते हमारी क्या करें
माँगते हैं हम दुआ जिनके लिए 
   ... (दाग़ देहलवी)

चाहने वालों से गर मतलब नहीं
आप फिर पैदा हुए किन के लिए 
  ...(दाग़ देहलवी)

बागबाँ कलियाँ हों हल्के रंग की
भेजनी हैं एक कमसिन के लिए 
  ...(अमीर मीनाई)

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(लेखक-परिचयः
जन्मःमध्य प्रदेश के अशोकनगर ज़िले के ग्राम ओंडेर में 5 दिसंबर 1982 को।
शिक्षाः स्नातक।
सृजनः जनपथ, देषबंधु, दैनिक जनवाणी, कल्पतरु एक्सप्रेस व कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं, वेब पोर्टल्स में रचनाएँ प्रकाशित
संप्रतिःस्वतंत्र पत्रकार व ग्राफिक आर्टिस्ट
ब्लाॅगःख़लिश
संपर्कःsahil5603@gmail.com  09868571829)

हमज़बान पर रजनीश पहले भी

 

फ़ारसी न ही अरबी, कहाँ से आया नमाज़ शब्द

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संस्कृत शब्द है नमाज़















शहरोज़की क़लम से

इन दिनों रमज़ान या रमादान को लेकर चर्चा ख़ूब है. जबकि इसमें महज़ उच्चारण का फ़र्क़ है. शब्द एक ही है. दरसअल अरबी में इसे रमादान कहते हैं और उर्दू में रमज़ान। ऐसा इसलिए है कि फ़ारसी या अरबी लिपि में लिखे गए इस शब्द में एक अक्षर 'ज़्वाद'आता है. इसकी ध्वनि अंग्रेजी के ज़ेड या डी+एच की होती है. भारतीत उपमहाद्वीप में ज़ेड और अरब में डी+एच की तरह इसका तलफ़्फ़ुज़ होता रहा है. ख़ैर! मैंने जब डॉ तारीक़ अब्दुल्लाह से कुछ वर्षों पहले सुना कि नमाज़ ठेठ संस्कृत शब्द है, तो मेरा चौंकना लाज़िम था.
ढेरों मुल्ला उठ खड़े हो सकते हैं कि मैं क्या बकवास कर रहा हूँ.  लेकिन जनाब सच से कब तक मुंह चुराएँगे। 

अरबी में नमाज़ के लिए सलात या सलाः का इस्तेमाल होता है. कुर'आन में भी यही शब्द आया है.क्योंकि जब किसी मस्जिद में मुआज्ज़िन अज़ान पुकार रहा होता है तो कहता है: हय्या अलस्स  सलात!  यानी आओ नमाज़ की तरफ! आओ दुआ, प्रार्थना, उपासना, पूजा की ओर. इस्लाम के जानकारों यानी आलिमों, धार्मिक विद्वानों  से जब पूछा गया कि नमाज़ शब्द कहाँ से आया? उन्होंने बताया कि यह फ़ारसी का शब्द हो सकता है. लेकिन जब फ़ारसी की तरफ निगाह दौड़ाई तो जानकार हैरत हुई कि वहाँ इस शब्द का मूल ही नहीं है.यानी जिस तरह संस्कृत में हर शब्द की एक मूल धातु होती है, ऐसा ही फ़ारसी या अरबी में होती है. फ़ारसी में मूल को मसदर कहते हैं. अगर मान  लें कि नमाज़ का मसदर नम हो तो नम का अर्थ होता है गीला या भीगा हुआ. आपने मुहावरा सुना होगा नम आँखें. वहीं अंतिम में जुड़े अज़ का अर्थ से होता है।  इस तरह ज़ाहिर है नमाज़ का अर्थ नहीं निकलता.

विश्व की एक मात्र भाषा है संस्कृत जहां से नमाज़ का अर्थ निकलता है. नम संस्कृत में सर झुकाने को कहते हैं. जबकि अज का अर्थ है अजन्मा यानी जिसने दूसरे को जन्म दिया किन्तु स्वयं अजन्मा है. इस प्रकार नम+अज के संधि से नमाज बना जिसका अर्थ हुआ अजन्मे को नमन. इस तरह इस शब्द की उत्पत्ति हुई. बाद में यह इरान जाकर फ़ारसी में नमाज़ हो गया.

ध्यान रहे कि इस्लाम का परिचय भारत में पैगम्बर हज़रत मोहम्मद के जीवनकाल में ही हो गया था.अरब के मुस्लिम कारोबारियों का दक्षिण भारत में आना-जाना शुरू हो गया था.जबकि इरान में इस्लाम बहुत बाद में ख़लीफ़ा उमर के समय पहुंचा था.
भारत के शुरुआती  नव-मुस्लिमों ने सलात को नमाज कहना शुरू कर दिया .यह सातवीं सदी का समय है. भारत यानी तब के अखंड भारत से मेरा आशय है. क्योंकि सिर्फ पाकिस्तान, बँगला देश, नेपाल या श्रीलंका में ही इस शब्द का चलन नहीं है. बल्कि पश्चिम में अफगानिस्तान, इरान, मध्य एशियाई मुल्कों तज़ाकिस्तान. कज़ाकिस्तान आदि और पूर्व में म्यांमार , इंडोनेशिया,मलेशिया,थाईलैंड और कोरिया वगैरह  में भी सलात की बजाय नमाज़ का प्रचलन है.
इन सभी देशों का सम्बन्ध भारत से होना बताया जाता है. इस प्रकार नमाज़ से भी अखंड भारत का प्रमाण साबित हो जाता है.

यहाँ भी पढ़ें

ख़ामोश लब की सदाएं

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अनवर सुहैल की कविताएं


एक 
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मुझे
गाली और गोली से
लगता नहीं डर
क्योंकि
मेरे पास है
एक क़लम
एक सोच
एक स्वप्न
एक उम्मीद
और लाखों-लाख लोगों के
ख़ामोश लब की सदाएं ....

तुम्हारी
गालियाँ और गोलियां
मेरा कुछ भी बिगाड़ नही सकतीं....


दो
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जुर्म है
खून बहाने के लिए
धर्म-ग्रंथों की आड़ लेना

तुम पवित्र किताबों की
किन पंक्तियों के सहारे
करते हो मार-काट
बहाते हो नदियाँ खून की

मैं जानता हूँ
मेरी कविता में
ताक़त नही इतनी
कि रोक सके तुम्हें
क्योंकि मेरी कविता से भी
दर्दनाक हैं,
तुम्हारे हथियारों से हलाल होती आवाज़ें

इंसानियत को शर्मसार करने वालों
फिर भी तुम्हे यक़ीन है
कि जन्नत की खुशबूदार हवाएं
तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं....
अफ़सोस
सद-अफ़सोस....



स्त्री-देह
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कुछ चीज़ें ऐसी हैं
जो हमारे लिए
जी का जंजाल हैं
जिन्हें एक मुद्दत से
ख्वाह-म-ख्वाह ढो रहे हम
एक सलीब की तरह
अपने कमज़ोर कांधों पर
धरे-धरे घूम रहे हम...
और वही चीज़ें
तुम्हारे लिए हैं
हसरत, चाहत, हैरत का सबब
बोलो न क्या करें अब...!


चार
----
अपने दुःख
अपने कष्टों को
रक्खो अपने पास
ख्वाह-म-ख्वाह, हमें न करो परेशान
अभी हमें करने हैं
तुम्हारी बेहतरी के लिए हज़ारों काम

तुम क्या सोचते हो
कि दुःख सिर्फ़ तुम्हारी जागीर है
ऐसा नही है भाइयों-बहनों
तुम्हारे दुःख तुच्छ हैं, शाश्वत हैं
लेकिन हमारी चिंताएं हैं विराट

सब्र करो....क्योंकि तुम्हे सब्र करना चाहिए...

[कवि-परिचय:
जन्म: 9 अक्टूबर, 1964 को नैला जांजगीर, छत्तीसगढ़ में
शिक्षा: डिप्लोमा इन माइनिंग इंजीनियरिंग
सृजन: कहानियों और कविताओं का प्रकाशन देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में ।
कुंजड़-कसाई, ग्यारह सितम्बर के बाद,चहल्लुम (कहानी संग्रह), और थोड़ी सी शर्म दे मौला! (कविता संग्रह), पहचान, दो पाटन के बीच (उपन्यास) इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
सम्प्रति: बहेराबांध भूमिगत खदान में सहायक खान प्रबंधक साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘संकेत’ का सम्पादन ।
संपर्क: anwarsuhail_09@yahoo.co.in ]

हमज़बान पर अनवर सुहैल की कहानी गहरी जड़ें  

पूरे-पूरे आधे-अधूरे

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सईद अय्यूब की कहानी


मैं उनकी हरकतें देखकर दरवाजे पर ही ठिठक कर रुक गया था. कमरे में कोई कश्मीरी लोक गीत गूँज रहा था जिसके बोल समझना मेरे लिए मुश्किल था. पर गायिका शमीमा आज़ाद की आवाज़ मैं पहचान सकता था, जो इतनी मधुर थी कि किसी कबाड़ से खरीद कर और मरम्मत करवा कर इस्तेमाल किये जा रहे टेपरिकार्डर की खर-खर के बावजूद अपने में डुबो रही थी. सामने की दीवार पर एक पेंटिंग टंगी हुई थी, जिसमें सर-सब्ज़ पहाड़ियों में चरती हुई भेड़ों के झुण्ड, गड़रिये को पानी पिलाती हुई एक महिला और एक शिशु को अपने वक्ष से दूध पिलाती एक दूसरी महिला दिखाई दे रही थीं. फर्श पर एक पुराना, सस्ता कश्मीरी कालीन, किनारे पर करीने से समेत कर रखे गए चाय के कुछ बर्तन और उनके पीछे कुछ छोटे-मोटे गट्ठर. “उनमें ज़रूर कबाड़ भरा होगा.”

मैंने सोचा और अपने में मस्त दोनों भाइयों की ओर देखने लगा. दोनों एक-दूसरे से इस तरह चिपके हुए थे कि अगर कोई अनजाना व्यक्ति देखता तो यही समझता कि एक जिस्म है, जिसके दो सर हो गए हैं. दोनों सरों के नीचे एक-एक चेहरा, कुल जमा चार जोड़ी आँखें, दो नाक, दो मुँह, दोनों ही चेहरों पर हलकी दाढ़ी, बस फ़र्क इतना कि एक दाढ़ी मेंहदी में रँगी हुई और एक काली. दोनों एक-दूसरे से लिपटे हुए, गाने की धुन पर नाचने के प्रयास में मगन थे. दोनों की बैसाखियाँ उनके दाएँ और बाएँ झूल रही थीं. परवेज़ रसूल को तो बैसाखियों की मश्क थी, पर ग़ुलाम रसूल को अभी आदत नहीं पड़ी थी. वह बीच-बीच में लड़खड़ा जा रहा था. मैंने अपना कैमरा हाथ में ले लिया और अगली बार ग़ुलाम जैसे ही लड़खड़ाया कि ‘क्लिक’....

कैमरे की क्लिक और फ्लैश ने उन्हें वापस इस दुनिया में पहुँचा दिया. मुझे कैमरे से लैस देख वे इस क़द्र बदहवास हुए कि दोनों की बैसाखियाँ उनके कंधों से अलग हो गयीं और दोनों एक साथ धड़ाम से ज़मीन पर आ रहे. शुक्र था, क़ालीन कुछ मोटा था और शायद उन्हें ऐसे गिरने की आदत थी, कोई अप्रिय दृश्य पैदा नहीं हुआ. मैं हँसते हुए कमरे में दाखिल हुआ और सामने पड़ी तीन टांग की एक पुरानी कुर्सी पर बैठ गया. मैंने उन्हें उठाने की कोई कोशिश नहीं की क्योंकि गिरने के बाद दोनों हँसी से लोट-पोट हो रहे थे. उनके इस मज़ाकिया स्वभाव से मैं परिचित था. वे ऐसे ही थे, एकदम मस्त. हँसी खत्म कर वे एक-दूसरे का सहारा लेकर उठे. परवेज़ कमरे के एक किनारे स्थित छोटे से किचन की ओर बढ़ गया. मैं उसका इरादा समझ चुका था. वह मेरे लिए नून चाय बनाने जा रहा था. ग़ुलाम, क़ालीन के कोनों को, जो उनके नाचने की वजह से थोड़े थोड़े मुड़ गए थे, ठीक करने लगा. मैं उन दोनों को मना नहीं कर सकता था क्योंकि दोनों को ही मेरी इस तरह की कोई दखलंदाज़ी पसंद नहीं थी और वे इसे अपनी मेहमाननवाज़ी के खिलाफ़ भी मानते थे.

अजीब मज़ाक हुआ था उनके साथ. एक का कमर के नीचे का पूरा दायाँ हिस्सा बेकार था तो दूसरे का पूरा बायाँ. जबसे मैं उनसे मिला था उनकी कहानी जानने की हज़ार कोशिश कर चुका था. वे बहुत खुश-अस्लूबी से पेश आते. बढ़िया नून चाय पिलाते, कभी-कभी खुद की बनाई हुई कश्मीरी गोश्त खिलाते पर जैसे ही मैं उनकी ज़िंदगी के बारे में कोई सवाल करता, वे मुझे ऐसी डरी और निश्छल निगाह से देखते कि उसके आगे के सारे प्रश्न मेरे दिमाग में ही कहीं उलझ कर रह जाते. पिछले लगभग दो सालों की अपनी मुलाक़ात में मैंने उनके दिलों में कुछ जगह बना ली थी और इसलिए आज फ़ैसला करके आया था कि बिना उनकी ज़िंदगी के बारे में जाने मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा.

“परवेज़...” मैंने नून चाय की तैयारी कर रहे परवेज़ को बहुत आहिस्ते से आवाज़ दी.
“जी भाईजान” पता नहीं दोनों भाई मुझे भाईजान क्यों कहते थे जबकि मैं उनसे उम्र में छोटा था.
“आज मैं तुम्हारी बनाई हुई चाय नहीं पियूँगा.”
“क्यों? बंदे से क्या गुस्ताखी हो गयी? मैंने अपना यह हाथ ठीक से धो लिया है.” उसने मुस्कराते हुए अपना दायाँ हाथ दिखाया.
“मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि तुमने हाथ धोया है या नहीं?”
“फिर?”
“बस कह दिया ना कि नहीं पीनी.” मैंने अपनी योजना पर अमल करते हुए कुछ गुस्से से कहा.
“चलो कोई बात नहीं.” उसने ग़ुलाम को आवाज़ देते हुए कहा- “ओए गुलामे, तू बना दे. मेरे हाथ की चाय न पीने की कसम खा रखी है भाईजान ने.”
उसके लहजे में इतना भोलापन और नाटकीयता थी कि मैं और ग़ुलाम हँसे बिना न रह सके.
“देखो, चाय चाहे तुम बनाओ या ग़ुलाम , मैंने फ़ैसला किया है कि मैं अब तुम दोनों के यहाँ कुछ भी नहीं खाऊं-पियूँगा क्योंकि...” मैंने जानबूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी.
“क्यों?” दोनों भाइयों ने बेक वक़्त सवाल किया था.
“क्योंकि तुम दोनों मुझे अपना तो मानते नहीं हो?” मैंने पासा फेंका यद्यपि मैं डर भी रहा था कि शायद वे मेरे पासे में न आएँ. कश्मीरियों के बारे में आम राय तो यही है कि वे जितने भोले दिखते हैं उतने होते नहीं.
“ऐसा आपको क्यों लगता है भाईजान?” ग़ुलाम ने पूछा.
“क्योंकि मैं जब भी तुमसे कोई सवाल पूछता हूँ तुम दोनों चुप हो जाते हो?”
“आप यही जानना चाहते हो न कि हम दोनों की यह हालत कैसे हुई?”
“यही नहीं बल्कि तुम्हारी पूरी ज़िंदगी की दास्तान सुनना चाहता हूँ.”
“ज़िंदगी की दास्तान तो बहुत छोटी सी है भाईजान पर यह जो हमारी हालत हुई है, इसकी दास्तान बहुत बड़ी है. इतनी बड़ी और इतनी दर्दनाक कि कई ज़िंदगियाँ ख़त्म हो जाएँगी पर न यह दास्तान मुकम्मल होगी, न वह दर्द ख़त्म होगा.”
परवेज़ की आवाज़ कहीं बहुत दूर से आती लग रही थी.
“आपको लगता होगा कि हम अपनी कहानी आपको नहीं बताना चाहते पर असल में हम उस दर्द से फिर से गुज़रना नहीं चाहते. हम दोनों ने फ़ैसला किया है कि हम अपनी बाक़ी ज़िंदगी हँसते-गाते ही बिताएँगे. माज़ी का कोई मातम नहीं, किसी दर्द को फिर से दुहराना नहीं, सिर्फ़ मुस्तक़बिल को किसी तरह से काट देना है.”
“परवेज़, दर्द को बाँटना और दर्द को याद करना दो अलग-अलग चीज़ें होती हैं. मैं तुम लोगों से दर्द बाँटने के लिए कह रहा हूँ, दर्द को याद करने के लिए नहीं.”
“आप नहीं भी कहते तो भी हम महसूस कर रहे हैं कि किसी न किसी दिन यह दर्द आपसे बाँटना ही पड़ेगा. तो आज ही सही. पर पहले आपको हमारी चाय पीनी पड़ेगी.” पता नहीं परवेज़ की मुस्कुराहट में क्या था? मैं अंदर तक लरज़ गया.


कश्मीर की खूबसूरत वादियों में बारामूला के नज़दीक एक छोटा सा, खूबसूरत सा गाँव.साधारण से लोग. अपने में मस्त. दुनिया से कटे हुए पर दीन से नहीं. अपनी खेतों और बगीचों में काम करते हैं, जंगल से लकड़ियाँ लाते हैं, छोटी सी, बे-छत की मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं और जब दुआ के लिए हाथ उठाते हैं तो सीधे अल्लाह मियाँ से जुड़ जाते हैं क्योंकि मस्जिद की छत तो है नहीं.  ज़मीन से आसमान तक कोई रोक-टोक नहीं. औरतें और लड़कियाँ अपने-अपने घरों और घर के मर्दों का ख्याल रखती हैं, खेतों और बगीचों में उन्हें खाना पहुँचाती हैं, गाँव की तलहटी में जाकर वहाँ बहने वाले ताज़े पानी के नाले से पानी भर कर लाती हैं, मवेशियों को दाना-पानी देती हैं और जब ज़्यादा खुश होती हैं तो आपस में मिलकर नाचती-गाती हैं. कुल मिलाकर एक खुशहाल ज़िंदगी है पर इंसानों की खुशहाली उसके खुदा को कब मंज़ूर होने लगी? और जब खुदा को मंज़ूर नहीं तो ज़मीनों पर उसकी नुमाइंदगी कर रही सरकारों और दूसरे लोगों को कैसे मंज़ूर होगी? खुदा तो कहता है कि मैं तुम्हें मुसीबतों में इसलिए डालता हूँ कि तुम्हारा इम्तेहान ले सकूँ. और ये तो खुदा के नुमाइंदे हैं. इम्तेहान लेने का तो उनको हक़ है ही.

तो कई बातों की एक बात यह है कि इस खुशहाल गाँव में एक खुशहाल परिवार रहता था. पेशे से किसान और पैसे से गरीब इस परिवार को जी तोड़ मेहनत के बाद जो भी मिलता उसे अल्लाह का शुक्र अदा कर खाते, पहनते और खा-पहन कर मर्द बिना छत वाली मस्जिद में नमाज़ अदा करता, औरत घर के अंदर मुसल्ला बिछा कर अपने रब का शुक्र अदा करती और बच्चे घर से मस्जिद तक अपने खेल में मस्त रहते. मर्द का नाम था मुश्ताक़ मुहम्मद, औरत थी इसरा और तीनों बच्चे, सबसे बड़ी रुकैया, फिर जुड़वाँ ग़ुलाम रसूल और परवेज़ रसूल. जुड़वा होने के बावजूद ग़ुलाम परवेज़ से पंद्रह मिनट बड़ा था. तो बात तबकी है जबकि रुकैय्या आठ साल की थी और ग़ुलाम और परवेज़ पाँच-पाँच साल के.
सर्दियों के बाद का मौसम-ए-बहार था. बादाम के पेड़ जामुनी और किरमिजी रंग के फूलों से लद चुके थे और चारों ओर जन्नत का नज़ारा पेश कर रहे थे. घाटियों को रंग-बिरंगे फूलों ने अपने रंगों से ढक लिया था. पूरे कश्मीर में सैलानी इस तरह से फैले हुए थे जैसे वही यहाँ के मूल निवासी हों. ऐसे में एक दिन का सूरज न सिर्फ़ इस परिवार के लिए, बल्कि पूरे गाँव के लिए आफ़त की तरह नमूदार हुआ.   

जब बूटों की आवाज़ घाटी से ऊपर आकर गाँव के चारों ओर फैलने लगी, उस वक्त दूसरे गाँव वालों की तरह मुश्ताक़ अपने बगीचे में जाने की तैय्यारी कर रहा था. इसरा घर के अंदर, दो दिन बाद आने वाले अपने भाई और भाभी से मिलने की खुशी में कोई गीत गा रही थी और घर की साफ़-सफ़ाई में जुटी हुई थी. स्कूल बंद था सो तीनों बच्चे अपने-अपने खेलों में मस्त थे. बूटों से उठने वाली आवाज़ ने अचानक ही पूरे गाँव को चारों तरफ़ से घेर लिया. गाँव वालों के लिए यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी. वे इसके आदी थे. ये बूट  दुश्मनों की टोह लेने के बहाने गाहे-बगाहे गाँव में घुस ही आते थे और जब दुश्मन के नाम पर कुछ नहीं मिलता था तो गाँव के कुछ लोगों के यहाँ दावत-वावत करके चले जाते थे. कभी-कभी किसी को पकड़ कर भी ले जाते और अक्सर तो वे दो-चार दिन में लौट ही आते थे पर एक-दो बार ऐसा भी हुआ कि गया हुआ व्यक्ति कभी वापस नहीं आया.

ये बूट जब भी गाँव में आते गाँव वालों की साँसे अधर में टंग जाती कि न जाने कब किसकी शामत आ जाए. पर इस बार के बूटों को देखकर गाँव वाले सिहर उठे थे. उनकी थप-थप बता रही थी कि आज कुछ अनहोनी होगी. ये बूट इस से पहले इतनी संख्या में कभी नहीं आए थे. बूटों की कारवाई शुरू हुई. एक-एक को घर से बाहर निकाल कर एक गोल घेरे में संगीनों के साए में इकठ्ठा कर दिया गया. संगीने तनी हुई थीं, लोग सिकुड़े हुए थे. एक-एक घर की पूरी तसल्ली से तलाशी ली गयी और फिर मर्दों और छोटे बच्चों को घेरे से निकाल कुछ बूटों के साथ नीचे सड़क पर और फिर वहाँ से एक ट्रक में भरकर छावनी के अंदर पहुँचा दिया गया. मर्द चिल्लाते रहे, बच्चे बिलखते रहे, औरतें दुहाई देती रहीं पर सब बे-असर. ले जाते वक्त रुकैया किसी तरह से एक बूट के हाथों से छूट कर इसरा से लिपट गयी थी. वह बूट उसको पकड़ने के लिए जब दुबारा उसकी ओर लपका तो एक ऑफिसर से लगने वाले बूट ने उसे मना कर दिया. उस ऑफिसरनुमा बूट की आँखों में रुकैया को देखकर कुछ अजीब सा उभर आया था और फिर...
...और फिर तीन दिन बाद जब मर्द और बच्चे भूखे-प्यासे अपने-अपने घरों को लौटे तो सब कुछ लुट चका था. घरों का सारा सामान बिखरा पड़ा था. औरतें जहाँ-तहाँ निढ़ाल पड़ी हुई थीं, चुप...बिल्कुल चुप.
 ग़ुलाम और परवेज़ ने जब मुश्ताक़ के साथ घर में प्रवेश किया तो दौड़ कर अपनी माँ से लिपट नहीं सके. वे अपनी बहन रुकैया को भी आवाज़ नहीं दे सके. वे बस चुप-चाप अपनी माँ को देखे जा रहे थे. मुश्ताक़ भी चुपचाप बस अपने घर की दीवारों को घूर रहा था. इसरा लगभग अधनंगी हालत में, एक टूटी हुई चारपाई पर लेटी हुई थी और चुपचाप शून्य में घूरे जा रही थी. उसके कपड़े जगह-जगह से फटे हुए थे. हाथ और पैरों पर खरोंच के निशान साफ़ दिखाई पड़ रहे थे जिनसे खून बह-बह कर काले निशान के रूप में जमा हो गया था. अचानक वह उठी और ग़ुलाम और परवेज़ को लगभग भींचते हुए ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी. और ठीक उसी वक़्त, सारे गावँ की औरतों ने, जैसे वे इसरा के रोने का इंतेज़ार कर रही हों, एक साथ अपने-अपने बच्चों, पतियों और घर के दूसरे मर्दों से लिपट कर रोना शुरू कर दिया. उनके रोने की आवाज़ ने पूरे गाँव को शोक की एक चादर से ढक दिया. बादाम के पेड़ों से सारे जामुनी और किरमजी रंगों के फूल झर गए और उदासी रंग के फूलों ने उनकी जगह ले ली. गिलहरियाँ जो पेड़ों पर बादाम की फ़सलों का इंतेज़ार करते हुए खुशी से नाच रही थीं, न जाने कहाँ छुप गयीं.

कुछ देर बाद इसरा का रोना जब सुबकियों में बदल गया तो मुश्ताक़ को रुकैया का ख्याल आया. वह पिछले तीन दिनों से सबसे ज़्यादा रुकैया के बारे में सोच रहा था. घाटियों में उगने वाले फूलों से भी कोमल, अपनी बेटी रुकैया के बारे में. गाँव के और मर्दों के साथ उसको भी अंदाज़ा हो चुका था कि ये बूट अब क्या करने वाले हैं. पर वह मजबूर था. वह मर का भी अपने गाँव नहीं पहुँच सकता था. चाहकर भी रुकैया और इसरा को उन ज़ालिमों के चंगुल से नहीं बचा सकता था. वह खुद उन ज़ालिम बूटों के सख्त पहरे में था. उसने अपने बे-छत वाले अल्लाह को याद किया और मन ही मन मन्नत भी माँगी कि उसके रुकैया और इसरा को कुछ न हो. वह वापस जाकर चाहे जैसे भी हो, मस्जिद की छत तैयार कराएगा. पर न जाने क्यों, उसको अपनी ही मन्नत पर यक़ीन नहीं हो रहा था. उसे न जाने क्यों ऐसा लगने लगा था कि उसने अल्लाह को उन बूटों के साथ ही देखा था और जब वह ऑफिसरनुमा बूट उसकी बेटी को घूर रहा था तो अल्लाह कहीं आस-पास ही मुस्कुरा रहा था.
और तीन दिनों के बाद जब बूटों ने उनको घर जाने की आज़ादी दी थी, गाँव के सब मर्दों के साथ-साथ मुश्ताक़ भी तीर की तरह अपने गाँव की ओर भागा, गरचे ग़ुलाम और परवेज़ की उँगलियाँ पकड़े होने और तीन दिन से लगभग कुछ न खा पाने की वजह से वह दौड़ नहीं सकता था. और वही क्या, सारे गाँव वालों की हालत ऐसी ही थी. फिर भी जितनी तेज़ी से हो सका, वे पहाड़ों पर चढ़े, तंग घाटियों में उतरे, पत्थरों से टकराये, झाड़ियों में उलझे और अपने गाँव की सीमा पर आकर चुप-चाप खड़े हो गए. सामने गाँव की एक दूसरे से दूर खड़े हुए मकान दिखायी दे रहे थे. बादाम के पेड़ भी दिख रहे थे. घरों के सामने फूलों की क्यारियाँ भी दिख रही थीं. मकानों से लगी हुई वे सीढियाँ भी दिख रही थीं जिनपर जब वे अपने खेतों और बगीचों से लौटते थे तो उनकी औरतें उनका इंतेज़ार करते हुए खड़ी रहती थीं. पर अब सब के सब उसी गाँव की सीमा पर खड़े थे...चुपचाप. गाँव का उजाड़पन और ख़ामोशी उन्हें डरा रही थी. वे गाँव में जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे. ऐसे में मुश्ताक़ को बे-छत वाली मस्जिद की सफ़ेद दीवार दिखाई दी और साथ ही अल्लाह का मुस्कुराता हुआ चेहरा भी याद आया. उसने तेज़ आवाज़ में न जाने किसे एक गंदी गाली दी और ग़ुलाम और परवेज़ का हाथ पकड़े तेज़ी से अपने घर की ओर दौड़ पड़ा.      
घर और इसरा की हालत और फिर इसरा के रोने ने उसे और बदहवास कर दिया था पर जब इसरा की हिचकियाँ सुबकियों में बदल गयीं तो उसे रुकैया का ख्याल फिर से आया.

“रुकैया...?” वह ठीक से बोल भी नहीं पा रहा था.
इसरा अब भी अपने दोनों बच्चों को अपने से चिमटाये हुए रोये जा रही थी. उसने बहुत मुश्किल से सामने वाले कमरे की तरफ़ इशारा किया. मुश्ताक़ तड़प कर सामने वाले कमरे की ओर बढ़ा. रुकैया ज़मीन पर पड़ी हुई थी. जिस्म पर कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा भी नहीं था. पूरे जिस्म पर जगह-जगह लगी हुई मिट्टी पर खून बह-बह कर जम गया था. आँखे दर्द और खौफ़ से बाहर की तरफ़ फटी पड़ी थीं. ज़मीन की पोली मिटटी कई जगह से उखड़ गयी थी. कई सालों बाद, एक दिन रोते हुए इसरा ने बताया था कि वह मरने से पहले बहुत तड़पी थी. इसरा ने जब उसको गोद में उठाने की कोशिश की थी तो वह तड़प कर गोद से बाहर चली गयी थी. उसके तड़पने से ही ज़मीन की मिट्टी अपनी जगह से उखड़-उखड़ गयी थी.
मुश्ताक़ ने कुछ नहीं किया. न रोया, न चिल्लाया. उसने एक नज़र रुकैया के बेजान जिस्म पर डाली, घर के कोने में रखा अपना बेलचा और कुदाल उठाया और बे-छत वाली मस्जिद के आँगन में पहुँच उसे खोदने लगा. गाँव के कुछ लोगों ने उसे ऐसा करते हुए देखा पर किसी ने उसे रोकने की कोशिश नहीं की. गाँव के पाँच घरों में मौत हुई थी. उसमें आठ साल की रुकैया से लेकर साठ साल की आमिना बी तक थीं और पाँचों को गाँव वालों ने उस बे-छत की मस्जिद में दफ़न कर दिया. न कोई नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ी गयी, न कोई फातेहा. मुश्ताक़ को लगा था कि उसने रुकैया को नहीं बल्कि मुस्कुराते हुए अल्लाह को उस बे-छत वाली मस्जिद में हमेशा-हमेशा के लिए दफ़न कर दिया है.


“अब भी रुक्का याद आती है कभी-कभी. हम दोनों को गोद में बैठा कहानियाँ सुनाती हुई पर अब उसका चेहरा याद नहीं आता.” परवेज़ की आँखों के आँसू ने पूरे कमरे को नम कर दिया था. उसने जल्दी से अपनी आँखें दूसरी तरफ़ कर ली थी और हम सबके कपों में चाय डालने लगा था.
“वह ज़रूर माँ की तरह रही होगी.” ग़ुलाम की आवाज़ किसी दूसरी दुनिया से आती लग रही थी. 
मैंने अपना एक हाथ ग़ुलाम के कंधे पर रख दिया. एक शर्मिदंगी से भरा हाथ. यह कहानी सुनने के बाद भी ज़िंदा रह जाने की शर्मिंदगी से भरा हाथ. मुझमें आगे सुनने की हिम्मत नहीं थी पर यह डर भी था कि अगर आज नहीं सुन सका तो शायद फिर कभी नहीं सुन पाऊँगा. दोंनो भाइयों को यादों की इस भयानक कोठरी में धकेलने के लिए बार-बार हिम्मत भी नहीं कर सकता. पर अब बात को आगे बढ़ाने के लिए कहने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी. लगा, ग़ुलाम ने मेरे मन की बात पढ़ ली थी. वह बोला,
“भाईजान, चाय खतम कीजिए तो हम आगे बढ़ें. अब बात निकल आयी है तो आप सुन ही लीजिए. यूँ आधा दर्द बाँट कर क्या होगा?.”
और हम कपों में बची हुई आधी चाय खतम करने लगे.


उस भयानक घटना की लोकल राजनीति में क्या प्रतिक्रिया हुई, यह दोनों भाइयों को नहीं मालूम. पाँच साल की मासूम उम्र. वे तो ठीक से समझ भी नहीं पाए थे कि आखिर हुआ क्या था? रुकैया को दफ़ना कर जब मुश्ताक़ वापस आया तो दोनों ने बेक वक़्त पूछा था,
“रुक्का कहाँ है अब्बा?”
और तब पहली बार मुश्ताक़ रोया था. दोनों को अपने अगल-बगल में समेट कर और इसरा के कंधे पर अपना सर रख कर मुश्ताक़ ‘रुक्का, मेरी रुक्का’ कहकर और फूट-फूट कर रोता रहा. यहाँ तक कि उसके रोने की ताब न लाकर सूरज ढल गया और आसमान पर सितारे उग-उग कर उसके शोक में शामिल होने लगे. पर उसको दिलासा देने वाला भी कौन था? जो थे, उन सबके लिए उस रात आसमान में बहुत तारे उगे.
और ठीक तीसरे दिन, कुछ सामानों की पोटली बना मुश्ताक़, इसरा और दोनों बच्चे उस गाँव से निकल आए थे. कई दिनों के सफ़र के बाद वे श्रीनगर पहुँचे थे. इसरा के कुछ रिश्तेदार वहाँ थे. उनकी मदद से मुश्ताक़ को एक जगह खलासी की नौकरी मिल गयी. मुश्ताक़ और इसरा जब तक जीते रहे, अपनी फूल सी नाज़ुक रुक्का को याद कर रोते रहे और दोनों बच्चों के बेहतर मुस्तक़बिल के सपने देखते रहे. पर मुश्ताक़ उसके बाद किसी मस्जिद में नहीं गया. यहाँ तक कि ईद-बकरीद के दिन भी नहीं.

दोनों बच्चे होनहार थे. बड़ा ग़ुलाम दस साल का होते न होते कालीन बनाने की कारीगरी में माहिर होने लगा था और उसकी महारत को देखकर कालीनों के एक ताजिर ने उसे अपनी फैक्ट्री में जगह दे दी थी जहाँ वह नए-नए डिजाइन बनाना सीखता भी था और खुद नए-नए डिजाईन बनाता भी था. पंद्रह का होते न होते वह इस काम में अच्छा-खासा मशहूर हो गया था और हालत यह हो गई कि बाहर से उसके काम की डिमांड होने लगी. ग़ुलाम सिर्फ़ अपने काम में ही माहिर नहीं था, बिजनेस में भी होशियार था और उसकी इसी होशियारी और कारीगरी को देखकर और इस डर से कि ग़ुलाम कहीं और न चला जाए, फैक्ट्री मालिक ने उसे अपना पार्टनर भी बना लिया था. दिन बीतते रहे, ग़ुलाम मेहनत से अपना काम करता रहा, फैक्ट्री दिन-ब-दिन तरक्की करती रही और मुश्ताक़ और इसरा अपने ग़म भूल कर उसकी शादी के मंसूबे बनाने लगे. दोनों को रुकैया अब बेहद याद आने लगी थी और दोनों को लगता था कि शायद बहू की शक्ल में उन्हें रुकैया वापस मिल जाए.

छोटे परवेज़ को महीन कामों से कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसको पढ़ने का शौक़ था और एक प्रोफ़ेसर के बेटे से उसकी दोस्ती हो गई थी, जिसके ज़रिये वह अपने शौक़ को परवान चढ़ा रहा था. उसको अपने दोस्त से तालीम हासिल करने के नए-नए ज़रिये पता चल रहे थे और एक सबसे खूबसूरत ज़रिये का नाम था दिल्ली. वह दिल्ली आकर खूब पढ़ना चाहता था और पढ़-लिख कर अपने दोस्त के अब्बू की तरह एक बड़ा प्रोफ़ेसर बनना चाहता था. वह अपनी क्लास में हमेशा अव्वल आता था और उसकी कामयाबी को देखकर मुश्ताक़, इसरा और ग़ुलाम फूले नहीं समाते थे. और परवेज़ भी ग़ुलाम की कामयाबी को देखकर खुश होता रहता और मन ही मन दुआ करता कि गुलाम को खूब अच्छी दुलहन मिले जो उसे प्यार से खूब सारा खाना खिलाये. बेचारा, दिन भर खटता रहता है और सूखकर काँटा हुआ जा रहा है. ज़िंदगी ठीक-ठाक गुजरने लगी थी, दुःख कुछ कम होने लगे थे. मुश्ताक़ और इसरा अपने पुराने ग़म भूल फिर से खुश होने लगे थे और बहुत दिनों के बाद मुश्ताक़ फिर से ठहाके लगा कर हँसने लगा था.

फिर वही मौसम-ए-बहार के दिन थे. घाटियाँ फूलों से गुलरंग हो चुकी थी. बादाम के पेड़ों पर जामुनी और किरमजी रंग के फूल निकल आए थे, गिलहरियाँ बादाम की नई फ़सल का इंतज़ार करते हुए खुशी से फुदक रही थीं कि अचानक बूटों की आवाज़ ने फिर से उनके घर को घेर लिया. पर इस बार के बूटों के रंग और आवाज़ में फ़र्क था. मुश्ताक़ अपनी नौकरी पर, ग़ुलाम अपनी फैक्ट्री और परवेज़ अपने दोस्त के प्रोफ़ेसर बाप से मिलने जाने की तैयारी में थे. इसरा दो दिन बाद अपने घर आने वाले एक मेहमान जिनकी बेटी के बारे में उसे पता चला था कि वह बला की खूबसूरत है और शादी की उम्र की है, की खुशी में घर की साफ़-सफ़ाई कर रही थी और साथ ही बहुत दिनों के बाद एक गीत गुनगुना रही थी. बूटों की आवाज़ से चारों सिहर उठे. इससे पहले कि मुश्ताक़ उन बूटों से कुछ कह पाता, इससे पहले कि ग़ुलाम बेहोश होकर गिरती हुई इसरा को संभाल पाता, इससे पहले कि परवेज़ कुछ समझ पाता, बूटों ने परवेज़ को पकड़ा और बाहर खड़ी जीप में डाल कर वहाँ से किसी जिन्न की तरह गायब हो गए.
ग़ुलाम को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. अपनी बेहोश होकर गिरती हुई माँ को संभाले, जीप के पीछे बदहवाश होकर भागते अपने बाप को पुकारे, परवेज़ को कौन लोग कहाँ ले गए, यह पता करे या और क्या करे? थोड़ी देर में उसे होश आया. उसने अपनी माँ को नीचे लिटाया. बाहर भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी और उसमें से कुछ औरतें निकल कर इसरा के पास आ चुकी थीं. ग़ुलाम ने इसरा को उनके हवाले किया और बाप के पीछे तेज़ी से भागा.

इसरा तो उसी दिन दिल के दौरे में खतम हो गई. मुश्ताक़ को जैसे लकवा मार गया था. पर गुलाम ने किसी तरह से अपनी हिम्मत बचाए रखी और आखिर एक महीने की दौड़-धूप के बाद उसे पता चला कि परवेज़ पुलिस की क़ैद में है. परवेज़ के दोस्त के प्रोफ़ेसर बाप को भी पुलिस उठा ले गयी थी. उसके घर से कुछ संदिग्ध लिटरेचर मिला था और पुलिस को यक़ीन था कि उस प्रोफ़ेसर के घर से मुल्क के खिलाफ़ एक बड़ी साजिश रची जा रही थी जिसमें उस प्रोफ़ेसर के कुछ छात्र भी शामिल थे.
गुलाम अपनी सारी हिम्मत यकजा करके परवेज़ को पुलिस की गिरफ़्त से बाहर निकालने के जुगत में लगा हुआ था पर लगभग तीन महीनों तक जब वह परवेज़ से मिल भी नहीं सका तो उसकी हिम्मत टूटने लगी. वह कभी अपने गुमसुम बाप को देखता और  कभी चूड़ियों के उन टुकड़ों को जो हार्ट अटैक से गिरते वक़्त इसरा के हाथों से टूट कर बिखर गए थे और जिन्हें गुलाम ने फेंकने के बजाए, सामने एक तिपाई पर रख छोड़ा था. उन टुकड़ों को देखते-देखते उसे रुक्का की याद आने लगती और कुछ देर बाद माँ और रुक्का के चेहरे आपस में गडमड्ड होने लगते और थोड़ी देर बाद वे लंबे-लंबे बूटों में बदल जाते और तब वह बेहद डर जाता और ‘परवेज़-परवेज़’ चिल्ला कर रोने लगता और तब उसका गुमसुम बाप एक नज़र उठा कर उसकी ओर देखता और फिर आसमान की ओर मुँह उठाकर गाली जैसा कुछ बुदबुदाने लगता.

लेकिन परवेज़ को पुलिस से छुड़ाने के लिए गुलाम को ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. एक सुबह, जब उसने अपने फैक्ट्री मालिक से इस सिलसिले में बात करने जाने के लिए दरवाज़ा खोला तो एक गठरी जैसी चीज़ को अपने घर के सामने पाकर वह सन्न रह गया. शहर में होने वाली इस तरह की तमाम घटनाओं ने उसे बता दिया था कि वह गठरी नुमा चीज़ क्या हो सकती है पर फिर भी, वह मन ही मन यह बुदबुदाते हुए उस गठरी तक पहुँचा कि ‘वह न हो...वह न हो’... पर वही था. परवेज़ एक ज़िंदा लाश की तरह सामने पड़ा हुआ था. वह बेहोश था. इस क़दर बेहोश कि दर्द से कराह भी नहीं सकता था. गुलाम ने बेहोश पड़े हुए परवेज़ को अपने दामन में धीरे से उठाया जैसे वह उसकी माँ हो और परवेज़ कोई नवजात बच्चा और फिर वह जितनी तेज़ी से हो सकता था, लोकल अस्पताल की ओर दौड़ पड़ा.


“मैं कुछ और चाय बनाता हूँ.” गुलाम बहुत मुश्किल से बोला. गीली हो चुकी उसकी आँखों में कोई चीज़ तैर रही थी-बेबसी, गुस्सा या कोई और चीज़, अंदाज़ा लगाना मुश्किल  था. शायद वह आगे की उस दास्तान को दुहराना नहीं चाहता था कि कैसे उसने परवेज़ की ज़िंदगी बचायी और इसके लिए उसे क्या-क्या सहन करना पड़ा.
कमरे में एक नमी सी फ़ैल गयी थी. कोई बोलना नहीं चाहता था. मैंने सर की जुंबिश से चाय के लिए हामी भर दी.
गुलाम चाय बनाने लगा. परवेज़ इस बीच चुपचाप बैठा, खला में घूरता रहा जैसे अपनी माँ और रुक्का को वहाँ देख रहा हो. इस बीच में मुझे मुश्ताक़ की याद आयी.
‘और तुम्हारे अब्बू परवेज़...?” मैंने बहुत धीरे से पूछा.
“अब्बू...वे अब वहाँ हैं.” परवेज़ ने खला में घूरते हुए ही ऊपर की तरफ़ इशारा किया.
“ओह...”
“मुझे तो पता भी नहीं चला. नमाज़-ए-जनाजा भी मुझे नसीब नहीं हुई. मैं तो तब अस्पताल में बेहोश पड़ा था. सब कुछ गुलामे को ही झेलना पड़ा था.” उसकी आवाज़ उसी ख़ला से आती लग रही थी.
“उनके साथ कुछ हुआ था क्या?”
“क्यों, अब तक जो हुआ था वह कम था क्या भाईजान?” यह चाय बनाते हुए गुलाम की आवाज़ थी.
मैं शर्म से कट सा गया. 
    “रुक्का की मौत ने ही उन्हें मार दिया था पर मेरे और परवेज़ की वजह से वे ज़िंदा बने हुए थे. जब ज़िंदगी ढंग की होने लगी थी, उनके अंदर फिर से जीने की ख्वाहिश भी जागने लगी थी. पर परवेज़ की गिरफ़्तारी और फिर अम्मी की मौत ने उन्हें बदहवास कर दिया. फिर भी किसी तरह वे ज़िंदा रहे लेकिन परवेज़ की हालत ने उन्हें एकदम से खत्म कर दिया.” वह साँस लेने के लिए रुका.
    “मैं परवेज़ को लेकर सीधे अस्पताल भागा था. उन्हें खबर नहीं दी थी. होश भी कहाँ था. न जाने उन्हें कैसे खबर हुई? न जाने वे कैसे अस्पताल पहुँचे? बस मैंने उन्हें वहाँ देखा. उन्होंने एक नज़र मेरी ओर देखा और उनकी दूसरी नज़र परवेज़ पर पड़ी और वही उनकी आखिरी नज़र थी.”
मेरी नज़रें गुलाम के हाथों में थमे हुए कप पर जम सी गयी थीं. मैं कोशिश करके भी उसकी तरफ़ नहीं देख सका. हम तीनों धीरे-धीरे नून-चाय सुड़कने लगे. मैंने परवेज़ की आँखों से कुछ बहकर उसके कप में मिलते हुए देखा. मैंने मन ही मन न जाने किसको एक गाली दी. एक भयंकर गाली.


परवेज़ को ठीक होने में सात महीने लग गए. पूछताछ के दौरान उसके जिस्म पर जिस तरह से जुल्म हुए थे उसके बदले में कमर के नीचे का उसका पूरा बायाँ हिस्सा बेकार हो गया था. डाक्टरों का कहना था कि वह बच गया है यही बहुत बड़ा करिश्मा है. इस बीच, हालाँकि डाक्टर्स और गुलाम ने बहुत छुपाने की कोशिश की थी, फिर भी न जाने कैसे उसे अपनी माँ और बाप के मौत की खबर मिल चुकी थी. पर उसने देखा कि गुलामे किस तरह, सिर्फ़ उसे सदमा न पहुँचे इस बात को ध्यान में रख कर, माँ-बाप के मौत की खबर उससे छुपाने की कोशिश कर रहा था. उसने अपने आंसुओं को अंदर ही अंदर रोक लिया और गुलाम को यह एहसास नहीं होने दिया कि उसे माँ-बाप की मौत की मनहूस खबर मिल चुकी है. उसे जल्द ही यह भी पता चल गया कि उसके कमर के नीचे का पूरा बाँया हिस्सा अब काम नहीं करेगा. उसने तब भी अपने आँसुओं को बहुत ज़ब्त करके रोक लिया था पर ठीक सात महीने तीन दिन बाद, जब उसको पहली बार बेड से नीचे उतारा गया और डॉक्टर और नर्सों ने उसे बैसाखी के सहारे चलाने की कोशिश की तो वह गुलाम के कंधे पर सर रख कर  फूट-फूट कर रो पड़ा और तब गुलाम भी अपने आँसुओं पर लगाम नहीं सका. दोनों भाई एक-दूसरे से बहुत देर तक लिपटे रहे और ग़मों का एक सैलाब उनकी आँखों से निकल-निकल वहाँ मौजूद सभी गैर-मुर्दा और मुर्दा चीज़ों को अपनी आगोश में लेता रहा.   

अब गुलाम का मन कारीगरी और व्यापार में नहीं लग रहा था. उसे हर पल परवेज़ की फ़िक्र खाए जा रही थी. परवेज़ को हर वक़्त उसकी ज़रूरत थी. घर में कोई और था नहीं. बिजनेस से कमाया हुआ जो कुछ भी गुलाम के पास बचा था, उससे कहीं ज़्यादा परवेज़ के इलाज पर खर्च हो चुका था और गुलाम को परवेज़ की पढ़ाई की भी फ़िक्र थी. उसे पता था कि परवेज़ दिल्ली जाकर खूब ऊँची पढ़ाई करना चाहता था इलसिए एक दिन गुलाम ने चुप-चाप एक फ़ैसला कर लिया. परवेज़ को जब बैसाखियों की कुछ मश्क हो गयी और वह कुछ और ठीक हो गया, उसने उसे अपने फ़ैसले के बारे में बताया और बिना उसके जवाब का इंतेज़ार किए, अपना घर जिसे इसरा ने बहुत मेहनत से सजाया-संवारा था, अपने फैक्ट्री मालिक को सौंप, कुछ ज़रुरी सामान और परवेज़ को लेकर दिल्ली के लिए रवाना हो गया.

   
अस्पताल में दाखिल होते ही मैंने एक स्ट्रेचर देखा जिस पर एक दुबला-पतला नौजवान पड़ा हुआ था. खून से लथपथ, लगभग अचेत. कपड़ों के चिथड़े उड़े हुए, लंबे-लंबे बिखरे हुए बाल. पर सबसे पहले जिस चीज़ ने मेरा ध्यान खींचा, वह थी उसकी खून से सनी दाढ़ी.
“...दाढ़ी???” मैं धीरे से बुदबुदाया था.
“तो क्या मुसलमान भी...? पर मुसलमान कैसे घायल...?”
“देखने में तो कश्मीरी लगता है. कहीं यह बम तो नहीं फिट कर रहा था?” एक ख़ास तरह से ट्रेंड मेरे दिमाग ने काम करना शुरू कर दिया था.
मैंने कैमरा टीम को इशारा किया और स्ट्रेचर की ओर दौड़ पड़ा. बाईट शुरू हो चुकी थी. मेरे दिमाग में और चैनलों से आगे रहने की एक पूरी कहानी आकार ले चुकी थी और थोड़ी ही देर में पूरा देश सुन और देख रहा था कि राजधानी में हुए बम ब्लास्ट में एक कश्मीरी युवक घायल हुआ है और पुलिस उसे संदिग्ध आतंकवादी मान कर अपनी जाँच आगे बढ़ा रही है.
पर कुछ दिनों में यह स्पष्ट हो गया कि वह युवक आतंकवादी नहीं था. पुलिस से पता चला कि उसका नाम गुलाम रसूल है और वह दिल्ली में अपने भाई के साथ रहकर कबाड़ी का काम करता है और बम-विस्फोट वाली जगह पर वह किसी से कबाड़ के बारे में कुछ बात करने के लिए आया था.

मैंने कई बार झूठ को सच और सच को झूठ बना कर दिखाया था और कभी पछतावा नहीं हुआ था पर पहली बार न जाने क्यों, अपनी गलत रिपोर्टिंग पर पछतावा हो रहा था. मैं कई बार अस्पताल गया पर हर बार उस नौजवान के मासूम चेहरे पर नज़र पड़ते ही, एक अजीब से एहसास और डर से भर कर मैं वापस आ जाता. एक हफ़्ते हो चुके थे. वह अब ठीक होने लगा था और उसे जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया था. जनरल वार्ड में शिफ्ट होने के बाद मैंने एक लड़के को देखा जो बैसाखियों के सहारे चल रहा था और उस घायल लड़के की तीमारदारी में लगा हुआ था. पता चला कि उसका नाम परवेज़ रसूल है और वह उसका छोटा भाई है. मैं एक अजीब सी आत्म-ग्लानि से भरा हुआ था जिसे परवेज़ की बैसाखियाँ और गुलाम के मासूम चेहरे और मेंहदी रंग की दाढ़ी और घनीभूत कर रही थीं. मैंने कोशिश की पर अपने चैनल पर यह खबर चलवा पाने में असमर्थ रहा कि जिस कश्मीरी युवक के बारे में खबर चलाई गयी थी कि वह संदिग्ध आतंकवादी है, वास्तव में वह आतंकवादी नहीं बल्कि एक भोला-भाला कश्मीरी युवक है जिसकी दाढ़ी मेंहदी से रँगी हुई है और जिसका एक भाई है जिसके कमर के नीचे का पूरा बायाँ हिस्सा बेकार है और जो बैसाखियों के सहारे चल कर बम-ब्लास्ट में घायल अपने बड़े भाई की हिम्मत बढ़ाता रहता है और अकेले में न जाने किसे एक भयानक गाली देता रहता है और जिसकी बैसाखियाँ बम ब्लास्ट की शिकार एक ईमारत की खिड़कियों के बिखरे हुए शीशों की शक्ल अख्तियार कर लगातार मेरी आँखों में चुभती रहती हैं. 
और तब मैंने परवेज़ से दोस्ती करने का और दोनों भाइयों के बारे में ठीक से जानने का फ़ैसला किया. परवेज़ की तरफ़ बढ़ाया गया दोस्ती का हाथ तो आसानी से थाम लिया गया पर उनकी कहानी जानने के लिए मुझे महीनों इंतज़ार करना पड़ा.

परवेज़ को अपने पैरों पर खड़ा होने में सात महीने तीन दिन लगे थे, गुलामे ने एक महीने कम वक़्त लिया. इस दौरान वह लगातार अपने बिस्तर पर मौजूद, अपने छोटे भाई को बैसाखियों के सहारे दौड़-भाग कर अपनी खिदमत करते हुए देखता रहा. बार-बार उसकी आँखों में आँसू आते, पर वह उन्हें बहुत मुश्किल से ज़ब्त कर लेता. इस बीच उसे और परवेज़ को पता चल गया था कि उसके कमर के नीचे का पूरा दायाँ हिस्सा अब बेकार हो चुका है और परवेज़ की ही तरह उसे भी अपनी बाक़ी ज़िंदगी बैसाखियों के सहारे गुज़ारनी होगी. परवेज़ यह खबर सुनकर शून्य सा हो गया था पर गुलाम ने यह खबर बड़ी हिम्मत के साथ सुनी और खबर सुनाने वाले डॉक्टर की तरफ़ देखकर हौले से मुस्कुरा दिया पर ठीक छः महीने तीन दिन बाद जब डॉक्टर और नर्सों ने उसे बैसाखी के सहारे चलाने की कोशिश की तो वह परवेज़ के कंधे पर सर रख कर फूट-फूट कर रो पड़ा और तब परवेज़ भी अपने आँसुओं पर लगाम नहीं सका. दोनों भाई एक-दूसरे से बहुत देर तक लिपटे रहे और ग़मों का एक सैलाब उनकी आँखों से निकल-निकल वहाँ मौजूद सभी गैर-मुर्दा और मुर्दा चीज़ों को अपनी आगोश में लेता रहा.

मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरा पूरा वजूद ही नकारा हो गया हो. मैं बस चुपचाप उन्हें रोते हुए देखता रहा. मेरे अंदर इतनी हिम्मत भी नहीं बची थी कि उनमें से किसी एक के भी कंधे पर हाथ रखकर थोड़ी सी दिलासा दे दूँ.

गुलाम ने जब टेपरिकार्डर की आवाज़ बहुत तेज़ कर दी और शमीमा आज़ाद की आवाज़ घर्र-घर्र करते हुए अचानक ही बहुत तेज़ हो गयी तो मैंने चौंक कर देखा. परवेज़ मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुरा रहा था. एक भीगी हुई मुस्कुराहट.
“लगता है आप कहीं दूर जाकर खो गए थे.” उसकी आवाज़ अब भी नम थी.

मैंने उसे बताना चाहा कि मैं कहाँ खो गया था पर कुछ कह नहीं पाया. मैं देख रहा था कि मेरे चैनल ने मुझे राजधानी में होने वाले गणतंत्र दिवस की कवरेज की ज़िम्मेदारी सौंपी है. मैं अपनी कमेंट्री तिरंगे को कैमरे में फोकस करवाते हुए शुरू करता हूँ. लहराता हुआ तिरंगा कभी पूरी तरह कैमरे की गिरफ़्त में आ जाता है और कभी आधा-अधूरा ही. फिर कैमरा भारत के मानचित्र को दिखाता है. पर अजीब बात है. मानचित्र भी कभी पूरी तरह कैमरे के फोकस में होता है और कभी आधा-अधूरा ही. अब कैमरा भारत के अलग-अलग राज्यों से होता हुआ कश्मीर तक पहुँच चुका है. पर कश्मीर भी कभी पूरा दिखता है और कभी आधा-अधूरा. 

उस कभी-कभी पूरा और कभी-कभी आधे-अधूरे दिखते कश्मीर के पीछे सेना और पुलिस के जवान अपने-अपने करतब दिखाते चले जा रहे हैं...एक बच्ची कश्मीर के मानचित्र से बाहर निकल आयी है...उसके हाथों में कई तरह के साज़ हैं जिन्हें वह बहुत ही जोश व खरोश के साथ बजा रही है और उसके होंठों से एक सुरीला नग़मा फूटकर फज़ा में मुन्तशिर (बिखर)  हो रहा है...रुकैया...नहीं...हाँ...शायद...उसके पीछे-पीछे कुछ अजीब से लोग हैं...उनके हाथों में एक फ़तवा है...साज़ हराम हैं, मौसिक़ी हराम है, रक़्स हराम है... टेपरिकार्डर से निकलने वाली मौसिक़ी तेज़ हो गयी है....गुलाम और परवेज़ उठकर नाचने लगे हैं...नाचते-नाचते वे एक दूसरे से लिपट जाते हैं...मैं उनकी ओर देखता हूँ...वे कभी पूरे-पूरे दिखाई देते हैं, कभी आधे-अधूरे.
  
      

(लेखक-परिचय:
जन्म: 1 जनवरी, 1978 को कुशीनगर (उत्तर-प्रदेश) में
शिक्षा: जे.एन.यू., नई दिल्ली से उच्च शिक्षा
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ व कविताएँ प्रकाशित, आकाशवाणी व दूरदर्शन पर कविता पाठ
अन्य : ‘खुले में रचना’ व अन्य साहित्यिक कार्यक्रमों का अनवरत आयोजन 
संप्रति: हिंदी व उर्दू भाषा के विकास से संबंधित विश्व स्तर के कई कार्यक्रमों से संबद्ध और स्वतंत्र लेखन
संपर्क:  sayeedayub@gmail.com


इजराइल की बेशर्म हठ खुद उसकी ज़ुबानी

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 तुम मेरा कुछ भी न बिगाड़ पाओगे 




 
फोटो गूगल साभार













 शहरोज़की क़लम से


मेरे बच्चों को तपती भट्ठियों में डाल दिया गया. उसकी मुस्कान अचानक चीखों में बदल जाती हैं, मैं चलते-चलते रुक जाता हूँ. मेरी बेटियों और बहनों की लुटी इस्मत। हमारे लाखों भाइयों को गैस चैंबर में बिलबिलाने को छोड़ दिया गया. आख़िर हम अपने ही घर-आँगन से धकिया दिए गए. यह बाबा आदम का ही वसीला रहा कि तुमने मुझे मेरे लाव-लश्कर के साथ अपनाया। अपने घर-आँगन में शरण दी. मेरे खिलखिलाते बच्चों को उड़ान भरने को खुला आसमान दिया। यह 29 नवम्बर 1947 की बात है. लेकिन पता नहीं,  तुम्हारे बच्चे का हंसना-खिलखिलाना मुझे अचानक बुरा लगने लगा. 5 मई 1948 को हमने अपने इजराइल राष्ट्र की घोषणा कर दी. हमने धीरे-धीरे तुम्हारी धरती फ़िलस्तीन पर अपना आशियाना फैलाना शुरू कर दिया। तुम्हें  पैर सिकोड़ने पर मजबूर कर दिया। तुम्हारी हालत इस शेर की शिनाख्त हुई:
 

ख़ुदा ने  क़ब्र में भी इतनी कम दी है  जगह
पावं फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है!   


अब मुझे तुम्हारे बच्चों के साथ रक्तिम-होली में बड़ा मज़ा आता है. तुम्हारी युवा बेटियों के वक्ष को हबकने और चूसने के बाद उसकी हत्या करना हम नहीं भूलते। अब तुम क्या करोगे? तुमने विरोध करना शुरू कर दिया, कुछ अरब मुल्कों ने तुम्हारा नाम-निहादी साथ दिया तो ज़रूर, लेकिन चौधरी जी के किचेन-कैबिनेट तक मेरी पहुँच का लाभ तो मिलना ही था. 1967 में महज़ तीन दिन के  हिंसक-श्रम से हमने गाज़ा पट्टी, पश्चिमी किनारा और सिनाई पेनिसुला पर क़ब्ज़ा कर लिया। हमने तुम्हें आतंकवादी घोषित कर दिया।
दरअसल विश्व के मेधा पर हमारा अधिपत्य हो चुका था. वहीँ दुनिया को हमने ढेरों वस्तुएं उपभोग के लिए दी. सभी शक्तिशाली मुल्कों के अहम निर्णय में हमारी दख़ल हो गयी. इसके लिए हमने वही तरीक़े अपनाने आरम्भ कर दिए जिसका इस्तेमाल हिटलर ने हमें बहिष्कृत करने के लिए किया था. हम चाहते थे और हैं भी कि तुम उस बड़े भाई की तरह सारी जागीर मुझे सौप दो. मेरी डांट-डपट को स्नेहिल छोटे भाई के समान सहन करो. आखिर इब्राहिम हम दोनों के अब्बा हैं. टोपी। दाढ़ी। ख़तना। हमारी साझी परंपरा है. एक रात जब बाबा आदम ने ख्वाब में कहा तो 1 अप्रेल 1992 को सिनाई पट्टी से हम सुबह हट गए. अगले वर्ष 30 अगस्त 1993 को तुम्हें सीमित फ़िलिस्तीनी स्वशासन की इजाज़त दे दी. वादा भी सियासी कर दिया, गाज़ा और वेस्ट भी तुम्हें दूंगा।

तुमने इसे सच ही समझ लिया। तुम आज़ाद देश का सपना देखने लगे. 1996 में हमारा दक्षिण पंथी नेतानयाहु  सत्ता में आया तो गरज पड़ा, अलग फ़िलिस्तीन देश कभी स्वीकार नहीं। अब क्या है कि तुम्हारा सर उठाकार चलना मुझे तनिक भी सुहाता नहीं। हमने अपने ही खलनायक से यह सीखा है कि झूठ को सौ बार बोलो तो सच हो जाएगा। हमने चौधरी जी को भी यही टिप्स दी है. देखो उन्होने कहा, इराक़ में रासायनिक हथियार है, दुनिया ने मान लिया। ताज़ा मामला इराक़ का ही, अहले हदीस के ख़रीदे लड़ाकुओं को सुन्नी आतंकवादी कहा, सब ने माना। वरना बिना चौधरी जी की मदद के यह क़रीब दो हज़ार लड़ाकू इराक़ की तीन लाख सेना के आगे टिक पाते। 

खैर! मैं मुद्दे पर आऊं अब नयी नस्ल नहीं जानती कि  तुमने मुझे शरण दी थी. यह जानती है कि तुम आतंकवादी हो. मेरे महान देश के लोकतंत्र और शांति व्यवस्था के लिए बहुत बड़ा ख़तरा हो! इसलिए हम पौधे को ही जला-भून कर ख़त्म करना चाहते हैं. तुम्हें अपने अय्याश अरबों से उम्मीद है, जिनकी फुलझड़ी रह-रह कर तुम छोड़ते रहते हो. हम उसे स्कड बताकर संसार को बताते हैं। घबराओ नहीं ! इराक़ के तीन टुकड़े होने तक हम तुम्हारे नाक में दम करते रहेंगे। कोई भी ताक़त तुम्हारे ख़िलाफ हिंसक कार्रवाई करने से हमें नहीं रोक सकती।

अब क्या है कि विश्व में बड़े-बड़े विचारक हमने ही दिए हैं, सो उनका मान भी ज़रूरी है. तुम्हारे बच्चों के लिए रोटियां देता रहूँगा, कुछ दिनों तक अमन की रैलियां अपुन साथ-साथ निकलंेगे। यह भूल जाओ कि वेस्ट बैंक, गाज़ा पट्टी से जेरुसलम तक तुम्हारा राज्य होगा ! मानवाधिकार की रट मत लगाओ। दुनिया अंधी और बहरी हो चुकी है. चौधरी जी का यह कमाल है. और तुम्हारे अरब उन्हीं के रहमो-करम पर सांस लेते हैं.   

दुनिया चाहे तो मेरे उत्पाद का बहिष्कार कर मेरी आर्थिक कमर लुंज कर सकती है. लेकिन बिना जॉनसन एंड जॉनसन के तुम्हारे बच्चे गोरे तो हो सकते नहीं। हग्गीज़ नहीं लाओगे बच्चे तुम्हारी पत्नी के  कपडे रोज़ ही नापाक करेंगे और उनका बर्थ डे किट-कैट के अधूरा ही माना जाएगा।जैसे बिना कोको कोला के तुम्हारा इफ़्तार और बिना नेस्ले के तुम्हारी सेहरी ना-मुकम्मल है. क्या आज बिना मैक डोनाल्ड के तुम बड़े शहर की कल्पना कर सकते हो!  ऐसी ढेरों चीज़ें हैं जो बनाते तो हम हैं, लेकिन उसे खरीद ती सारी दुनिया है। हालाँकि एक शायर तुम्हें कहता है: 

ये बात कहने की ऐ लोगों! एहतियाज नहीं
की बे-हिसी के मर्ज़ का कोई इलाज नहीं
जबीं-ऐ-वक्त प लिखा है साफ़ लफ्जों में
वो लोग मुर्दा हैं करते जो एहतिजाज नहीं 

अभाव में दम तोड़ता नन्हा फुटबॉलर जागो

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झारखंड के सिंहभूम में फुटबॉल की बन सकती है नर्सरी  

फोटो: मुन्ना झा










मुन्ना कुमार झा की क़लम से 

जोगो उन बेशकीमती प्रतिभावान बच्चों में से है, जो गरीबी की मार झेलते हुए भी फुटबॉल दम लगा कर खेलता है। बिना किसी जूते के नंगे पैर. उसकी करिश्माई दौड़ के आगे शायद ब्राजील के पेले और अर्जेंटीना के माराडोना भी परास्त हो जाएं। सात साल का जोगो बिना किसी ख़ास डाइट के चट्टान की तरह फुटबॉल से जुगलबंदी करता है और जीत भी जाता है। जोगो को पानी, भात,  नमक के साथ हरा मिर्च खाना पसंद है। उसने सेब भले कभी नहीं चखा, पर जंगल के मौसमी फल उसके लिए उससे कम क़तई नहीं। जामुन,  जंगली आम,  तुंत,  महुआ जोगों की ताकत का राज है।      


सात साल का जोगो अपने घर के पास वाले मुरूम मिटटी के मैदान में अपने तीस और दोस्तों के साथ फुटबॉल खेल रहा है। बिना किसी फुटबॉली कायदे-कानून के सरपट बॉल लेकर भागता जोगो उन अरबों की आबादी वाले देश में से एक है, जो फुटबॉल में जीता है। अपनी उम्र से ज्यादा भारी वजनी फुटबॉल को लेकर भागते जोगो को आप देख कर शायद चौंक जाएंगे,  हो सकता है थोड़ी देर के लिए स्तब्ध भी जाएंगे और फिर अपने देश के नेताओं को कोस भी देंगे। इसलिए कि जोगो जैसे प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के होते हुए भी भारत फुटबॉल में आज भी निचले पायदानों में कहीं खड़ा है। बिना किसी सुविधा प्रशिक्षण, बिना किसी न्यूट्रेशन और ख़ास डाइट के उसकी तेजी और मूवमेंट करिश्माई है।

झारखण्ड उन ऐसे गिने चुने राज्यों में से एक है जहाँ फुटबॉल और हॉकी ही खेला जाता है. यहां के ग्रामीण इलाके में आज भी क्रिकेट के राजा धोनी का राज नहीं चलता बल्कि हज़ारों मील  दूर बैठे माराडोना और पेले राज करते हैं। संसाधनहीन इन आदिवासी बच्चों की फुटबॉल को लेकर दीवानगी देखते बनती है। झुण्ड में इकठ्ठा होकर खड़े ये बच्चे 2 रूपया 5 रुपया  जमा करके पास के हाट से 150 का फुटबॉल खरीद लाये हैं। पुराना फूटबाल का ब्लाडर बार-बार खेल में दुविधा उत्पन्न कर रहा था। फुटबॉल से हवा निकलने की बीमारी से निजात पाने के लिए इन बच्चों ने फुटबॉल खरीदा है।

ग़रीबी बनी बाधा, कैसे बनें पेले या भूटिया
झुण्ड में खड़े उन तीस पैंतीस बच्चों में से एक बच्चा कहता है कि हम जंगल से आम और जामुन तोड़े हैं. तोड़ने के बाद घाटी में गाड़ी से आने-जाने वाले लोगों को बेचे हैं. उसी से पैसा आया तो माँ-बाबा को दिए थे। फिर माँ- बाबा ने 5 रूपया फुटबॉल खरीदने के लिए दिया है.  इनमें से 99 फीसदी बच्चे बीपीएल यानी अति गरीब रेखा के नीचे गुजर बसर करने वाले परिवार से ताल्लुक़ रखते है। इनके परिवार और इनकी आजीविका जंगल पर टिकी हुई है. जंगल के मौसमी फलों और पत्तों के भरोसे जीवन चलाने वाले इन साधारण आदिवासी परिवार के पास ऐसा कुछ नहीं है, जिसकी बदौलत वो अपने बच्चों को ऐसी सुविधा दे सकें ताकि  वे भी बन सकें पेले या भूटिया। 


धीरे-धीरे ख़त्म होते हॉकी और फुटबॉल
आदिवासियों के फुटबॉल और हॉकी का राज्य पिछले एक दशक में धोनी और क्रिकेट का राज्य बन गया है। शहर से लेकर गांव तक में क्रिकेट का दबाव बढ़ गया है। पैसे और राजनीतिक गठजोड़ की जुगलबंदी ने यहाँ के प्राकृतिक खेल को ही खतरे में डाल दिया है. यहाँ उन ग्रामीण इलाकों में पनपने वाले खेल जो बिना पैड, ग्लूबस, बैट, और बॉल के खेला जाता था, अब हाशिये पर है. धीरे-धीरे फुटबॉल और हॉकी ख़त्म होते जा रहे है.


बदल रहा मिज़ाज, क्रिकेट का होता क़ायम राज  
सालाना जोड़ा खस्सी फुटबॉल टूर्नामेंट का आयोजन कराने वाले जेराइ बताते हैं कि, पिछले कुछ सालों में फुटबाल और हॉकी दोनों कम हुआ है. पहले तो पूरा गांव फुटबाल और हॉकी ही खेलता था. लेकिन पिछले सालों में अब गांव के आसपास में क्रिकेट का भी चलन बढ़ा है. शहर में ज्यादा खेल का मैदान नहीं होने की वजह से गांव से सटे शहरी लोगों का झुण्ड आजकल यहाँ के मैदानों में क्रिकेट का आयोजन करने लगा है. जिसकी वजह से भी हमलोग के गांव के लड़के भी क्रिकेट के पीछे भाग रहे हैं. फुटबॉल काम हो रहा है. लोग कहते हैं कि क्रिकेट से पैसा ज्यादा बनता है और नौकरी भी बहुत आसानी से मिल जाती है. आजकल रेलवे भी तो क्रिकेट से ज्यादे लोग को नौकरी में लेता है.  छोटी से छोटी कंपनी की भी क्रिकेट टीम है. इसलिए भी बच्चे नौकरी की वजह से क्रिकेट की तरफ भाग रहे हैं. आजकल यहाँ के नेता लोग भी क्रिकेट का टूर्नामेंट ज्यादा कराते हैं.
 क्रिकेट को ज्यादा सपोर्ट मिलता है. पहले वाली बात अब नहीं रही.


(लेखक-परिचय:
जन्म: 17 सितम्बर , 1987 को चाईबासा (झारखण्ड) में
शिक्षा: कोल्हान विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में जल-जंगल-जमीन एवं पर्यावरण के मुद्दे पर लेखन
संप्रति: पर्यावरण से जुड़े मुद्दे पर शोध कार्य एवं देश भर के आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी।
सम्पर्क: jhamunna@gmail.com)

वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश पानी

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नई पौध












 सरोध्या यादव की क़लम से

काश ये दुनिया मेरा कैनवास होता

मैं एक पेन्टर हूँ
अपनी कल्पना को कैनवास पर उतारती हूँ
मन के भाव कुछ टेढ़ी-मेढ़ी लाइनों और रंगो से
कोरे कागज़ पर सपना सवारती हूँ

काश ये दुनिया मेरा कैनवास होता
मेरा ब्रश उसमें भी कोई नई कलाकारी करता
रंग-बिरंगे प्यादों को एक खूबसूरत से दृश्य में ढालता
सुंदर रंगो को चुन उसे और  बनाता मनमोहक
फ़िर उस पेंटिंग को फ्रेम में क़ैद कर अपनी वॉल पर मैं सजाती

2.
लहू अब जम  सा गया है
वक्त भी थम सा गया है
ज़िंदगी  से है मौत सस्ती
डराती है ये वीरान बस्ती

दोबारा बचपन चाहिए

बस थोड़ा सा खुलापन चाहिए
दोबारा मुझे अपना बचपन चाहिए

वो सुख में हंसी तो,  आँसू दुःख चाहिए
वो बेफिक्री का आलम चाहिए
वो गुड्डा- गुड्डी का खेल
वो छुक- छुक करती थी रेल
वो कागज़ की नाव
वो पानी ही ठांव
तितलियों को देख उछलना
आइसक्रीम को मन मचलना
वो रंग-बिरंगे गुब्बारे फुलाना
चंदा मामा का संग सुहाना

वो दादी- नानी की कहानी
वो छन से बरस्ता पानी
वो खिलखिलाता चेहरा
तुतलाहट का घन बसेरा
लाड़ को झूठ- मुठ का रोना
माँ की गोद में सोना
रोज़ अपना घर बनाना
दीदी को आने न देना

AB से बढ़ कर बीए में है जा पहुंचे
अब आसमान छूता मकान चाहिए
तब सखियों का रोना था कितना अपना
अब हरेक को अपना मक़ाम चाहिए

नहीां चाहिए हमको नहीं चाहिए
दौलत और  शौहरत नहीं चाहिए
बस थोड़ा सा खुलापन चाहिए
दोबारा मुझे अपना बचपन चाहिए



(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 12 नवंबर 1990 को
शिक्षा: प्रारंभिक शिक्षा सिकंदराबाद के केन्द्रीय विद्यालय तिरुमालागिरी से| उसके बाद लोयला अकादमी डिग्री व पीजी.  कॉलेज से बीए. मास कम्यूनिकेशन डिग्री|
सृजन: बड़ी बहन संध्या यादव के साथ मिल कर लिखा गया उपन्यास  "आसमान को और फेलाने दो"प्रकशित
संप्रति: हैदराबाद में रहकर कनेक्शनस (Konnections) नामक PR एजेंसी में वरिष्ठ अकाउंट ऐज़ेक्यूटिव/ Sr. Account  Executive
संपर्क: sarodhya.u.d12@gmail.com)

 

पंच को राहत देती फ़िलस्तीन में गूंजती मासूमों की चीख़

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फ़राह शकेब की क़लम से

अपने ही देश में और अपनी ही मातृभूमि पर अजनबी और बेगानों की तरह रहने की तकलीफ आप शायद तब तक नहीं समझ सकते जब तक स्वयं आप दर्द की उन गलियों से गुज़रे न हों. अगर इस दर्द का जीवंत रूप देखना हो तो फ़िलस्तीन की तरफ एक बार नज़र उठाइये. छह दशकों से अधिक का समय बीत चुका है. 1948 में ब्रिटेन अमेरिका और कुछ अन्य यूरोपीय देशों की साम्राज्यवादी पूंजीवादी शक्तियों ने सत्ता और दौलत अहंकार के नशे में चूर हो कर अरब शहंशाहों की खामोश हिमायत के साथ ज्यूश ( यहूद ) को जबरन पूरी दुनिया से जमा कर के अरब की सरज़मीं पर अवैध रूप से क़ब्ज़ा कर बसा दिया. उस भू भाग को इस्राईल का नाम दिया गया.उस समय फ़िलस्तीन की कुल जनसंख्या नौ दस लाख के आसपास थी. इनमें से सात लाख से अधिक फ़िलस्तीनियों को उनके घर ज़मीन से बेदखल किया गया. आज भी उस समय के तक़रीबन पचास हज़ार लोग फ़िलस्तीन में मौजूद हैं. उसके बाद विगत 65 सालों से अधिक समय से अपनी ही धरती पर अत्याचार और ज़ुल्म का शिकार हो रहे हैं. जिसका सबसे बड़ा कारण शहर येरूशलम पर इस्राइलियों का कब्ज़ा है. येरूशलम यहूदी और ईसाई धर्मावलम्बियों का भी आस्था का केंद्र है. फ़िलस्तीनियों के द्वारा न केवल स्वतंत्र फ़िलस्तीन का अस्तित्व मायने रखता है बल्कि येरुशलम में मस्जिद-ए-अक़सा की हिफाज़त भी वो अपना दायित्व समझते हैं.

आज फ़िलस्तीन पर अवैध इस्राईली क़ब्ज़े के बाद वहां की तीसरी चौथी पीढ़ियां आसमान से बरसती मौत की छत्रछाया में ज़िन्दगी के कई बसंतों को देखते हुए जवान हो रही हैं. आज हर माँ अपने बच्चे को सबसे पहला सबक यही देती है की तू फ़िलस्तीनी है. फ़िलस्तीन तेरा वतन है. तुझे इसकी की इस्राइलियों से मुक्ति के नाम पर अपनी जान क़ुर्बान करनी है. माँ के पढ़ाये इस सबक का ही असर है कि तमाम विपरीत परिस्तिथियों के बाद भी फ़िलस्तीन के नागरिकों के लिए हर रात के बाद सुबह होती है और वो सुबह अपने उद्देश्य की दिशा में उन्हें एक नयी ऊर्जा और हौसला दिया करती है.

 9/11 के हमलों के बाद से अमेरिका स्वयं संस्कृतियों के टकराव और वार ओन टेरर के नाम मुस्लिम देशों से सलेबी जंग में व्यस्त है, तो इस्राईल अपने अमेरिका के संरक्षण में ग्रेटर इस्राईल  के अपने नापाक मंसूबों को अमली जामा पहनाने की कोशिश में लगा है. लेकिन गाज़ा पट्टी इस दिशा में सबसे बड़ी रुकावट है. फ़िलस्तीन की तीन चौथाई भूमि पर क़ब्ज़ा करने के बाद बाकी के हिस्सों पर भी उसका अधिपत्य किसी प्रकार हो जाए अब उसकी यही कोशिश है. अलग बात है कि विगत कुछ वर्षों से दुनिया भर में फ़िलस्तीनियों के प्रति सहानुभूति बढ़ रही है. हर वर्ष फ़िलस्तीन की स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना के लिए पिछले तीस साल से 30 मार्च को आयोजित होने वाले अर्ज़ दिवस का दायरा अब लेबनान शाम मिस्र की सीमाओं से निकल कर योरोपीय और एशियाई देशों तक भी पहुँच चुका है. यह इस बात की ज़मानत है कि दुनिया भर में इस्राईल और उसकी गुंडागर्दी के विरुद्ध जनसमर्थन और असंतोष लगातार बढ़ता जा रहा है.
 शेरे फ़िलस्तीन की संज्ञा पाने वाले यासिर अराफ़ात की संदिग्ध मौत के बाद स्वतंत्रता का परचम उनके द्वारा स्थापित संगठन अलफ़तह के हाथों से निकल कर खालिद मशअल और इस्माईल हानिया के नेतृत्व में 1987 में शेख अहमद यासीन द्वारा स्थापित संगठन हमास के हाथों में आ गया है. हमास ने स्थानीय चुनाव में अपनी कुशल रणनीति की बदौलत सबसे बड़ी कामयाबी सन 2006 में हासिल की थी लेकिन कुछ स्थानीय मुद्दों पर अलफ़तह और अन्य स्थाई संगठनों के साथ उसका मतभेद हो गया. जिस कारण फ़िलस्तीन में कुछ समय के लिए गृहयुद्ध हो गया था. इनके आपसी टकराव का इस्राईल ने पूरा पूरा फायदा उठाने का प्रयास किया. ग्रेटर इस्राईल एवं मस्जिद -ए-अक़सा पर हैकल सुलैमानी ( यहूदियों का पूजा स्थल ) निर्माण की दिशा में प्रयास तेज़ कर दिया.
दुनिया के सबसे बड़े स्वयंभू दादा अमेरिका के संरक्षण में हमास को उकसाने के लिए बमबारी की. 6 August 2006 को फ़िलस्तीन लेजिस्लेटिव काउन्सिल के स्पीकर डॉक्टर अज़ीज़ विवेक को इस्राईल के द्वारा उस बमबारी के विरुद्ध एक निंदनीय प्रस्ताव पारित करने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया और वास्तव में उसे गिरफ्तारी नहीं अपहरण कहा जा सकता है क्यूंकि वो बिलकुल ग़ैर कानूनी और नाजायज़ थी. इस्राईल को आशा थी की हमास की तरफ से हिंसक जवाबी कार्रवाई होगी और दुनिया के सामने उसे स्वयं को रक्षात्मक कार्रवाई करने का मौक़ा मिलेगा लेकिन उसकी उमीदों के विपरीत फ़िलस्तीन ने वैश्विक स्तर पर अपनी कुशल विदेशनीति और कूटनीति के साथ अपने लिए जनसमर्थन को व्यापक करने की दिशा में क़दम बढ़ाये. अपनी मंशा के विपरीत फ़िलस्तीनियों की खामोशी से इस्राइलियों को किसी ऐसी स्तिथि की आशंका होने लगी, जो उसके लिए नकारात्मक होती जा रही थी और अपने उसी झुंझलाहट में 2008 2009 में उसने फ़िलस्तीनियों की ज़मीन को जीव विज्ञान की प्रयोगशाला समझ कर एक ज़हरीले रसायन का परीक्षण किया. जिसके परिणामस्वरूप हज़ारों फ़िलस्तीनी हलाक हुए. 

 दुनिया में फ़िलस्तीनियों के हिमायतियों का दायरा बढ़ रहा है. संयुक्त राष्ट्र संघ में अमेरिका और इस्राईल कोशिशों के बावजूद उसके समर्थक देशों की संख्या बढ़ रही है. इस्राईल से संबंधित किसी मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ में वोटिंग होने पर फ़िलस्तीन को मिलने वाली वोटों की संख्या सैकड़ों में होती है तो इस्राईल को मिले मत तीस चालीस से अधिक नहीं होते. पूरी दुनिया में अमेरिका और इस्राईल की साम्राज्यवादी और पूंजीवादी नीतियों के विरुद्ध विरोध के स्वर मुखर हो रहे हैं और अब तक स्तिथि यहाँ तक हो चुकी है की खुद अमेरिका और इस्राईल की धरती पर फ़िलस्तीन समर्थकों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है. वहाँ अपने ही शासकों के विरुद्ध जनमानस में असंतोष पनप रहा है. दो वर्ष पहले CIA की ख़ुफ़िया रिपोर्ट में ये रहस्योद्घाटन हो चुका है कि इस्राईल का अवैध अस्तित्व अब और अधिक दिनों तक टिकने वाला नहीं है. इस रिपोर्ट पर खुद अमेरिका के पूर्व राजनायिक कार हेनरी कसेंजर ने भी विश्वसनीयता की मुहर लगाईं है और उसी रिपोर्ट के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय राजनितिक विश्लेषक क्यूंन पार्ट ने भी प्रेस टीवी की आधिकारिक वेबसाइट पर ऐसी ही लिखित टिप्पणी की है कि जिस रफ़्तार के साथ अमेरिका में यहूदियों के विरुद्ध वातवरण तैयार हो रहा है और अमेरिकियों के अधिकारों की यहूदी हितों की रक्षा नाम पर अनदेखी की जा रही है. उससे जो असंतोष अमेरिका वासियों के मन में घर कर रहा है वो अमेरिका के अंदर यहूदी लॉबी को और अधिक दिनों तक बर्दाश्त नहीं करेंगे.

अपने विरुद्ध बनते हुए इस नकारात्मक वातवरण से इस्राईल बौखलाया हुआ है. दुनिया के सामने खुद को पीड़ित और मज़लूम साबित करने के लिए मक्कारी और फरेब के साथ नित नई नई साज़िशें और हरकतों के साथ फ़िलस्तीन को हिंसात्मक कार्रवाई के लिए उकसाता रहता है. नवम्बर 2012 में भी इस्राईल ने ऐसे ही छेड़खानी कर हमास को कार्रवाई के लिए मजबूर किया और तब हमास ने ईरान द्वारा उपलब्ध करवाये गए अलफज्ऱ -5 रॉकेट के साथ इस्राइलियों को खदेड़ा था. उसके बाद से इस्राइलियों द्वारा कई अवसरों पर हमास को उकसाने के लिए हरकत की गयी कभी गाज़ा पट्टी में किसी फ़िलस्तीनी नौजवान को गाडी चेक पॉइंट के करीब गलत जगह खड़ी करने के लिए गोली मार दी गयी कभी फ़िदा मजीद नाम के नौजवान को तेज़ रफ़्तार गाडी चलाने के लिए मार दिया गया. जब इन घटनाओं के विरुद्ध लेबनान और शाम में प्रदर्शन हुए तो प्रतिशोधात्मक कार्रवाई में हमास के ठिकानों पर मिसाइल दागे गए. कभी रोम सागर में फ़िलस्तीनियों के जहाज़ को रोक कर उसकी तलाशी ली गयी और कारण ये बताया गया कि इन जहाज़ों में ईरान द्वारा फ़िलस्तीन को हथियार और गोला बारूद भिजवाये जा रहे हैं.

आज इस वक़्त इस्राईल की बौखलाहट केवल इसलिए चरम सीमा पर है कि अब फ़िलस्तीन के दो विभिन्न ग्रुपों  हमास एवं अलफ़तह ने हाथ मिला लिया है. इसी से घबराकर इस्राईल ने अपने तीन नागरिकों के हमास द्वारा अपहरण का इलज़ाम लगा कर फ़िलस्तीन पर हमला कर दिया है. पहले तो उसने सर्च ऑपरेशन चला कर हज़ारों फ़िलस्तीनियों को गिरफ्तार किया। औरतों के साथ घर में घुस कर इस्राईली फौजियों ने बदसुलूकी की और पांच नौजवानों को गोली मार दी और उसके बाद फिर गाज़ा पट्टी पर मिसाईली हमले शुरू कर दिए।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस अपहरण के सिलसिले में इस्राईल से प्रमाण मांगे हैं लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ के आदेश को नकारते हुए फलस्तीन पर मौत बरसाने के अपने अतिप्रिय काम में सह्यूनियों नरपिशाच लश्कर मग्न हो चूका है न तो उसे 2012 में मिस्र के सालसि में होने वाले शान्ति समझौते का लिहाज़ है और न ही वैश्विक कानून का. इस्राईल अपनी हठधर्मी के साथ वैश्विक समुदाय संयुक्त राष्ट्र संघ और सुरक्षा परिषद को खुले आम चुनौती दे रहा है.

अब तक 4 सौ से अधीक फ़िलस्तीनी नागरिक मारे जा चुके हैं. हज़ारों घर तबाह हो चुके हैं और पूरी दुनिया खामोश तमाशाई बनी बैठी है. इस वक़्त सबसे अधिक उदासीनता संयुक्त राष्ट्र संघ ने दिखाई है. संघ अब अप्रत्यक्ष रूप से पूंजीवादी साम्राज्य वादी शक्तियों के हितों की पूर्ति के लिए काम कर रहा है.लेकिन मानवाधिकार का परचम उठाने वालों के कानों में अब तक क्या उन मासूम फ़िलस्तीनी बच्चों की चीखें नहीं पहुंची. क्या इराक़ लेबनान मिस्र सीरिया यमन तेनवीस इत्यादि जैसे देशों में बर्बादी के किस्से नहीं पहुँच रहे हैं? क्या अरब देशों के शहंशाहों और सऊदी हुक्मरानों को अपनी ऐय्याशी से फुर्सत नहीं कि वो लहू होती सरज़मीं पर चीखती हुई इंसानियत के नज़ारे देख सकें ?? जब बच्चों औरतों बूढ़ों पर इस्राईल की मिसाइल गरज रही हैं तो उसी वक़्त मिस्र के राष्ट्रपति के साथ विशेष विमान में सऊदी बादशाह कौन सी बातचीत कर रहे हैं ये भी दुनिया जानना चाहती है...???

(लेखक परिचय:
 जन्म: 1 जनवरी 1981 को  मुंगेर ( बिहार ) में
 शिक्षा: मगध यूनिवर्सिटी बोधगया से एमबीए ( जारी )
 सृजन: कुछ ब्लॉग और पोर्टल पर समसामयिक मुद्दों पर नियमित लेखन
 संप्रति: अनहद से संबद्ध
 संपर्क: mfshakeb@gmail.com)


हवा में लहू की गंध है

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शायक आलोककी कविताएं

1.

एक पेड़ जो बूढा हो गया है
आँधियों में जिसके उखड़ जाने का खतरा है
जो हवाओं में चिंयारता है काठ कठोर आवाज़ में
उस पेड़ के लिए लिखता हूँ मैं कविता
मेरी चिड़िया बेटी गुनगुनाती है उसे.

2.

विचारधारा को तुमने खून की तरह रखा
खून खौलता था
ठंडा होता था
जम जाता था खून
खून पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता था

जबकि यह सब बस कहने की बातें थीं

तुम्हें रखना था विचारधारा को पानी की तरह
खौला सकते थे पानी
ठंडा कर सकते थे
जमा कर बना सकते थे बर्फ
काम के जरुरी रंग भी मिला सकते थे. 

3.

तुम्हारे समय का घाव
मेरे समय पर बचा हुआ दाग है
दाग में है तुम्हारे घाव की स्मृति

तुम्हारी स्मृति बचाऊं या कुरेद
लौटा लाऊं तुम्हारा समय
तय करो पिता !

4.

मेरी चाय को तुम्हारी फूंक चाहिए सादिया हसन
ये चाय इतनी गर्म कभी न थी
इसकी मिठास इतनी कम कभी न थी.

मैं सूंघता हूँ मुल्क की हवा में लहू की गंध है
कल मेरे कमरे पर आये लड़के ने पूछा मुझसे
कि क्रिया की प्रतिक्रिया में पेट फाड़ अजन्मे शिशु को मार देंगे क्या
बलात्कार के बाद लाशें फूंक जला देंगे क्या
हम दोनों फिर चुप रहे सादिया हसन
हमारी चाय रखी हुई ठंडी हो गई.

हम फूलों तितलियों शहद की बातें करते थे
हम हमारे दो अजनबी शहर की बातें करते थे
हम चाय पर जब भी मिलते थे
बदल लेते थे नजर चुरा हमारे चाय की ग्लास
पहली बार तुम्हारी जूठी चाय पी
तो तुमने हे राम कहा था
मेरा खुदा तुम्हारे हे राम पर मर मिटा था.

पर उस सुबह की चाय पर सबकुछ बदल गया सादिया हसन
एक और बार अपने असली रंग में दिखी
ये कौमें ..नस्लें .. यह मेरा तुम्हारा मादरे वतन
टी वी पर आग थी खून था लाशें थीं
उस दिन खरखराहट थी तुम्हारे फोन में आवाज़ में
तुमने चाय बनाने का बहाना कर फोन रख दिया.

मैं जानता हूँ उस दिन तुमने देर तक उबाली होगी चाय
मैंने कई दिन तक चाय नहीं पी सादिया हसन.

मैं तुम्हारे बदले से डरने लगा
क्रिया की प्रतिक्रिया पर अब क्या दोगी प्रतिक्रिया
इस गुजार में रोज मरने लगा
जब भी कभी हिम्मत से तुम्हें कॉल किया
बताया गया तुम चाय बनाने में व्यस्त हो
मैंने जब भी चाय पी आधी ग्लास तुम्हारे लिए छोड़ दी.

गुजरात ने हम दोनों को बदल दिया था सादिया हसन.

ठंडी हो गई ख़बरों के बीच तुम्हारी चिट्ठी मिली थी-
‘’ गुजरात बहुत दूर है यहाँ से
और वे मुझे मारने आये तो तुम्हारा नाम ले लूँगी
तुम्हें मारने आयें तो मेरे नाम के साथ कलमा पढ़ लेना
और मैं याद करुँगी तुम्हें शाम सुबह की चाय के वक़्त
तुम्हारे राम से डरती रहूंगी ताउम्र
मेरे अल्लाह पर ही मुझे अब कहाँ रहा यकीन ‘’

तुम्हारे निकाह की ख़बरों के बीच
फिर तुम गायब हो गई सादिया हसन
मैंने तुम्हारा नाम उसी लापता लिस्ट में जोड़ दिया
जिस लिस्ट में गुजरात की हजारों लापता सादियाओं समीनाओं के नाम थे
नाम थे दोसाला चार साल बारहसाला अब्दुलों अनवरों के.

हजारों चाय के ग्लास के साथ यह वक़्त गुजर गया.

मैं चाय के साथ अभी अखबार पढ़ रहा हूँ सादिया हसन
खबर है कि गुजरात अब दूर नहीं रहा
वह मुल्क के हर कोने तक पहुँच गया है
मेरे हाथ की चाय गर्म हो गई है
ये चाय इतनी गर्म कभी न थी
इसकी मिठास इतनी कम कभी न थी
सादिया हसन, मेरी चाय को तुम्हारी फूंक चाहिए.

5.

प्रार्थना से हम करते हैं
तुम्हारे प्रति हमारे अविश्वास की संस्तुति
और रखते हैं आँखें बंद कि
हमारे समक्ष होने में प्रकट
तुम्हें खुली आँखों से भय न हो ईश्वर !

और हम हाथ इसलिए जोड़े रखते हैं कि
तुम हो नहीं
जो होते तो थामते हाथ
कि हमारे एक हाथ को देता है ढाढस
हमारा ही हाथ दूसरा.

6.

आर्मेनिया में गुलाब को क्या कहते हैं अना अनाहित
और क्या कहते हैं फूल पत्ती चाँद तितली चिड़िया को
छोड़ो कहो प्यार को क्या कहते हैं
और क्या कहते हैं लाल ताशअमल को.

सबसे पुराने चमड़े के जूते को क्या कहते हैं
क्या कहते हैं स्कर्ट को
अना अनाहित, क्या तुम स्कर्ट पहनती हो.

अपने उनतालीस वर्णक्रम से
मेरे बावन अक्षरों के संवाद को जवाब दो
कहो अना अनाहित
आर्मेनिया की लड़की को ब्याह के लिए कैसा वर चाहिए.

7.

तुम मेरी बात सुनो
मैं मेरा समय तुम्हें सौंपना चाहता हूँ
मेरे समय के कई मुंह हैं
इसने हर मुंह से काटना सीख लिया है
दुनिया के किसी रसायन शाला में नहीं बना अभी
इसकी काट का जहर
इसलिए तुम्हें इसे पालना सीखना होगा
सहलाने पुचकारने की कला आजमानी होगी.

मेरे पूर्वजों ने मुझे अपना समय सौंपा था
मैं तुम्हें मेरा समय सौंपना चाहता हूँ
सुनो मेरी बात.

सुनो सुनो
या एक और इंतजाम करो
हथियार तलाश करो
मेरे समय का मुंह कुचल मार दो इसे.

8.

चींटियों को यकीन है आएगी बारिश
कौवे को यकीन आएगा आने वाला
लड़की को यकीन है पत्थर देवता ढूंढ लायेंगे अच्छा घर वर
पंडित को यकीन कि मरेगी बिल्ली और बरसेगा सोना.

मछलियों को यकीन है कि तालाब में रहेगा साल भर पानी
बगुले को यकीन एक रोज चुग लूँगा मन भर मछलियाँ
केकड़े को यकीन वह बचेगा हर सूरत में

घर को यकीन है लौट आएगा प्रवासी
सिपाही को यकीन है जल्द ही बुला लेगा घर. 

सब यकीन में जी रहे हैं. 

मुझे यकीन है कि अब बदल गया है समय 
पुरानी बात रही नहीं 
यकीन पर भरोसे लायक रही नहीं दुनिया. 


(रचनाकार-परिचय:
जन्म : 11.01.1983 बेगूसराय, बिहार में
शिक्षा : इतिहास और मनोविज्ञान में स्नातक, स्नातकोत्तर (हिंदी साहित्य)
सृजन: कुछ कविताएं समावर्तन रेखांकित, जनसत्ता, कथादेश, शुक्रवार वार्षिकी आदि में छपीं
पहली कहानी निकट पत्रिका में.
संप्रति : सन्मार्ग अखबार, पटना में पोलिटिकल फीचर एडिटर के रूप में कार्य. आलेख और कॉलम लिखे. कस्बाई न्यूज़ चैनल सिटी न्यूज़ में कुछ दिनों पत्रकारिता बाद फ़िलहाल दिल्ली में रहकर स्वतंत्र  लेखन और जीविका के लिए अनुवाद करते हैं.
संपर्क: shayak.alok.journo@gmail.com)   
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