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मरना सिर्फ हम भूखे नंगे को है माई बाप!

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संजय सिंह की पांच कविताएं


1.
उनकी अफरातफरी में
शामिल हैं हिरनों की कुलाचे
नील गायों की
कुचल डालने वाली निगाहें
और चट्टानी खुर

उनके उन्माद में
शामिल हैं हाथों में हाथ डाले
गलबहियाँ किये
सब के आक्रोश

दण्डकारण्य में
दण्ड भोगते लोग
जो न इधर हैं
जो न उधर हैं

जंगल, जमीन और जल
आदिवासियों की नींद से निकाल
सपना उगाते
इधर के लोग
उधर के लोग

गोली और बोली से खूनाखून आदिवासी।।

2.
भागना
सिर्फ भागना
अपनी ही जमीन से
जंगल से
नियति को ”शिशनाग्र पर रखने वाले
भोले भाले

आदिवासी -एक प्रजाति

रेती जा रही कंठों की आवाज से
न ईश्वर काँपते हैं
और न ही उनकी रूह

साँवले घोटूलों पर काबिज
उधार के सपने
कोलेस्ट्राल घटाने वालों की चिंता में
विलुप्ति का कगार
और दया, करूणा, सरकारी मदद

मुखारी, चार और तेंदूपत्ता के खेल में
उनके खून से
अपने जूते
बूट चमकाते लोग।।

3.
उनकी चीखें
सपने को चिंदी करती

सिर्फ कल्पना ही
त्वचा में खूँटा उखाड़ देती है

मान लो किसी पुलिस कैम्प में
कोई आधी रात
बाँस को आपके शरीर के अवांछित जगह में घुसेड़ रहा हो

मान लो किसी अलसुबह
आप रास्ते पर
अपना ही सिर कटा धड़ देखें

तुम मारो
या
वो मारे

मरना
सिर्फ हम भूखे नंगे आदिवासियों को है माई बाप।।

4.
धरती के नीचे
लोहा, बाक्साइट, हीरा
ऊपर हम आदिवासी
और जंगल

त्वचा के नीचे
लालच
इच्छा के नीचे
धोखा

तुम्हारे सपने के लिए
मारे जाते लोग
सरकार और लाल सपने की ठोकरों के बीच
हमारी पूरी प्रजाति
दौड़ती-भागती-हाँफती

गोलियों से भून दी गयी
माँदर की थाप
पैरों की ताल

आदिम ख़ुशी की लाशों  पर
पैर रखकर मुस्कुराता एक देश ।

5.
देश  के नखरे
उठाती पथरीली पीठों
कंधे की गाँठ में बदल गयी सिसकियों
और
नाबालिग इच्छा नुचवाती माँओं
चुप रहने के द्रोह से बेहतर होगा
पूछो
कि हमारा
चीखो
चिल्लाओ

(कवि-परिचय:
जन्म: 28 दिसंबर, 1970 को रायगढ़, छत्तीसगढ़ में
शिक्षा: विज्ञान में स्नातक,  स्नातकोत्तर ग्राम विकास में. साथ स्पेनिश भाषा का डिप्लोमा
सृजन: कथादेश, साक्षात्कार, परिकथा, कथा क्रम, माध्यम,  मधुमती, पक्षधर  आदि में कथा-कविताएं प्रकाशित
सम्मान:विपाशा  कहानी प्रतियोगिता 2008  में प्रथम।  कथादेश कहानी प्रतियोगिता 2007 का सांत्वना पुरस्कार 
संप्रति: महात्मा गांधी अंतर राष्ट्रिय हिंदी विवि, वर्धा से सम्बद्ध
ब्लॉग: कोशिश
संपर्क: perjs@rediffmail.com )      
           

मुल्क की पहली पसमांदा मुस्लिम महिला राज्य सभा में

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 कहकशां परवीन के रांची स्थित घर  में जुमा मुबारक  ही बनकर आया

हाजी जैनुल हक  रांची के  पहले डिप्टी मेयर बने तो उनके  विजयी जुलूस में एक नन्ही सी बच्ची इठला-इठलाकर खूब नारे लगा रही थी। तब उसके  अब्बू मो. सगीर उद्दीन ने पूछा, बेटा क्या तुम भी ऐसा बनना चाहती हो। कक्षा छह में पढऩे वाली बच्ची का  चेहरा लाल हो गया। वह जोर से बोली, 'जी! अब्बू।'  रिसालदार नगर, डोरंडा की  यह बच्ची कहकशां परवीन आज जदयू के  टिकट पर बिहार से राज्यसभा सांसद निर्वाचित हुई हैं। वह राज्य सभा में पहुँचने वाली प[पहली पसमांदा मुस्लिम महिला हैं.  वहीं नानी के घर पर रहकर पढ़ाई कर रही उनकी बेटियां स्कूल से खिलखिलाती हुई घर में दाखिल होती हैं.  बड़ी बेटी अक्सा नसीम छठवीं में पढ़ती हैं उसकी  आइएस बनने की  तमन्ना है।  वहीं तीसरी की छात्रा छोटी बेटी तूबा नसीम आइपीएस बनना चाहती हैं।
सगीर के घर  फातिमा मंजिल में शुक्रवार सच में जुमा मुबारक  बनकर आया। मोहल्ले से लेकर खानदान के लोग यहां जुटे हैं। मिठाइयों को खाने व खिलाने का  कमपटीशन है मानो। पप्पू गद्दी, बिलाल नईम, शादाब, नादिया, अफीफा सभी उत्साहित हैं। वहीं कहकशां की अम्मी हबीबा की खुशी उनके  आंचल से बार-बार लिपट जाने को बेताब है। कहती हैं, कहकशां बचपन से ही पढऩे में तेज थी। दो बेटे और दो बेटियों को तालीम देने में हमने कोई कोताही नही बरती। न ही किसी तरह का भेदभाव किया। बड़ी बेटी होने के  कारण कहकशां लाडली जरूर रही, पर उसने उसका गलत फायदा नही उठाया। रांची में उसे 1988 में तालीमी अवार्ड से नवाजा गया। वहीं रांची वीमेंस कालेज से उसने उर्दू में अव्वल नंबरों से ऑनर्स किया। शादी के बाद वह भागलपुर, बिहार चली गई। पर उसके शौहर डॉ. नसीम उद्दीन ने उसकी सामाजिक  रुचियों को पंख ही दिया। कहंकशां भागलपुर की मेयर बनी। फिर बिहार महिला आयोग की अध्यक्ष। बीच में कहलगांव उपचुनाव में जदयू के  टिकट पर उसने चुनाव भी लड़ा। बहुत ही कम मतों से जीत का खिताब उससे दूर रहा। लेकिन अब तो उनकी  बेटी संसद में बोलेगी, यह सुनकर उनके  ललाट पर रेखाएं बन खुशियां बिखर जाती हैं।
आसमान में सितारे जड़ सकती हैं लडकियां
फोन पर बात करते हुए कहकशां के  आत्मविश्वास को  महसूस किया जा सकता है। कहती हैं कि तालीम से ही उजियारा आता है। क़ौम , राज्य, देश का  विकास होता है। लड़कियों को  मौक़ा  मिले तो वह कल्पना चावला जैसे आसमान में सितारे जड़ सकती हैं। अपने इस सफ़र के लिए वो अपने शौहर के साथ और उनकी हौसला अफ़ज़ाई को नहीं भूलती हैं. वहीँ माँ-बाप के साथ सुसराल से मिले सहयोग को भी याद करती हैं. कहती हैं कि कभी किये नेक कामों का असर या दुआएं आपकी कामयाबी का सबब ज़रूर बनती हैं. उन्होंने बिहार के सीएम नीतीश कुमार की खूब प्रशंसा की. रांची का जिक्र आने पर चहकती हैं, बहुत याद आता है अपना शहर।

दैनिक भास्कर के पहली फ़रवरी 2014 के अंक में प्रकाशित 



केशव तिवारी की कविताएँ

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डर

डर कहीं और था
मैं कहीं और डर रहा था
डर उस जर्जर खड़े
पेड़ की छाँव में था
और मैं धूप से  डर रहा था
दुनिया भर की तमाम
पवित्र किताबें
भय और आतंक से
भरी पडी थीं
और मैं

अपने सबसे डरे समय में
उन्ही को पढ़ रहा था।

 
 मैं इन ठंडी किताबों में क्या कर रहा हूँ


अगर मुझे बाज की उड़ान पसंद है
तो मुझे अपनें पठारी मैदानों में होना चाहिए

तब मैं इस तंग काफी हाउस में
क्या कर  रहा  हूं

अगर मैंने पिछली सर्दी में
आलू बोना सीखा है
तो मुझे ठंडी में अपने
खेत और क्यारियों को
तैयार करना था।

मैं इन ठंडी किताबों में क्या कर रहा हूं

अगर मैंने अभी हाल में
कविता लिखना सीखा है
तो मुझे सबसे पहले
अपने गांव के उस
अलमस्त गडरिये को सुनना चाहिए था

मैं इन वातानूकूलित सभागारों में
क्या कर रहा हूँ।

मुझे वहां होना चाहिए
जहां कहीं नए मकान को
बनाने के बुनियादी प्रयत्न किए जा रहे हैं
इन हवाई किलों में
मेरा दम घुटता है।


जौ  भर नहीं जुमका

 पक कर तैयार है धान की फसल
दूज का चाँद पंहट कर अपनी हंसिया
फसल कटाई की शुरुआत कर रहा है

 मैं फटे कपड़ों में खुद को समेटे
खेत काटती औरतों को देख रहा हूँ
इन्हें इसी हालत में मेरे पुरखों
के पुरखों ने भी देखा था

कब से डटी हैं ये भूख के खिलाफ
इनके हिस्से है इस धरती की भूख
पर इनके समय का धंसा पहिया 
लाख कोशिशों के बाद भी

जौ भर नहीं जुमका
इनका वक्त दुनियां की घड़ियों
के बाहर है
ये धान सटक रही है
इनकी घरों की मुंडेरों पर
बैठा चांद
सुन रहा है इनकी बोलचालभर
मेरा मन समय के उस
धंसे पहिये में ही फंसा है।


 खेत जगाए जा रहें हैं

 दिवाली है
खेत जगाए जा रहे हैं
मेड़ों पर जलाए जा रहे है दिए
न धान को जड़ों भर पानी
न खेतों को कम्पोस्ट और डी .ए.पी .
भूखे प्यासे खड़े हैं खेत
मैं उनको भी जानता हूं
जो इन खेतों के साथ साथ जाग रहे हैं
और उनको भी जो लगातार
सड़ते हुए अनाज पर
गलत बयानी करते जा रहे हैं

 मैं पूछना चाहता हूं
इनकी सजा कौन तय करेगा
ये खेतों के साथ जागते लोग
या फिर एक और तीसरा आयोग

  कराहती क्यों हैं

 रात के पास क्या कोई बीन है
जो घने अंधेरे में भी
बजती है धीमे धीमे

फूल सुंघनी क्या गा गई
सुर्ख अड़हुल के कान में
कि मुंह खोले है अवाक
समुद्र के पास क्या कोई मृदंग है
जो शाम ढलते  ही
देने लगता है ताल
पेड़ों के पास तो
पत्तों की करतल धुने हैं

 सुरों में डूबी धरती
फिर कराहती क्यों है

क्या धरती के हृदय  में
कोई कांटा गड़ा हुआ है।

 मुराद अली

 मशक बीन के उस्ताद मुराद अली
गलगल हो गई शरीर पकी ढाढी
बिना दांत का मुंह
बात-बात में फूलती सांस

ऐसे  ही नहीं थे मुराद अली
जिसने देखा हो उन्हें जवानी में
मशकबीन कांख में दबाए
पैंतरा बदल बदल कर  बजाते

वही जाने क्या थे
गरीब गुरबा सेठ जमींदार
किसके कार परोजन में
नहीं गूंजी उनकी मशक  बीन

मैंने पहली बार इन्ही धुनों  पर
नाचते देखा था नइका को
नयी नयी आई थी ब्याहकर
नाम मिल गया था नइका
कुछ दिन बाद किसी और के
साथ उढर गई
उसके तोड़ की नाचने वाली

फिर नहीं देखी
आज भी याद करते हैं मुराद अली
सूना सूना कर गई गड़रियान
कुछ दिन ही टिकी पर नाम कर गई
 नाचते ही आई थे और
नाचते ही चली गई
चढी दुपरिया जब बाग़ में
टिकाई जाती बारात
सन्नाटे और घमस के बीच
गूंज उठती उनकी मशक बीन
बराती समझ जाते
रंग में मुराद अली
सुर मन में ही नहीं गदराये  आमों में

धीरे धीरे
मिठास की तरह उतर रहे होते
समय के लम्बे दौर  में वो
सक्रिय रहे अपनी मशक बीन
के सुरों के साथ
पूरे के पूरे  पवस्त में कहाँ कहाँ नहीं
उनके सुरों की छाप
हम जैसे कितने जवान हुए
उनके सुरों के साथ
बँसवारी के कितने बांस
कैची से आकाश छूने लगे
भले ही आज भोंडे शोर में
कहीं दब गए  मुराद अली
के मशक बीन के सुर
पर खूंटी पर टंगी लगभग फट चुकी
मशक बीन

यह हिलती डुलती काया
बता रही है अपने समय में
किस तरह हस्तक्षेप किया उसने।

 मोमिना

खटिया बिनती है मोमिना
गाँव- गाँव जाकर
साईकिल मिस्त्री पति नहीं रहा
सयाने होने को दो बच्चे
खटिया बीनना सीख लिया
घुरुहू गडरिया से

यूँ तो दूसरे निकाह की भी
सलाह दी  मायके वालों ने
पर लड़के बेटी का मुंह देख
उधर सोचा भी नहीं

रकम रकम के फूल काढती है
वे अपनी बिनाई  में
आप ने धूप में स्वेटर बुनती
महिलाएं देखी होंगी
नीम के नीचे खटिया बिनते
मोमिना को देखिए

सधे हाथों में बिनाई  का बाध
मछली सी चलती चपल उँगलियाँ
हाथ और चेहरे की तनी नसें
एक थकी थकी फीकी सी मुस्कान

खटिया बिनती मोमिना
मेरे गाँव की
सबसे जागती कविता है

ये जानती भी नहीं कब में
आगे बढ़कर निकल आई
परदे के बाहर
मौलवियों की तिरछी नजर से
बा खबर

गांव -गांव घूमती
जिन्दगी के चिकारे का
तना तार है मोमिना।


(कवि-परिचय:

जन्म:  4 नवम्बर 1963, प्रतापगढ़, अवध के छोटे से गाँव में
शिक्षा:  वाणिज्य स्नातक
सृजन :    देश की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में कविता, समीक्षा और आलेख। ‘इस मिट्टी से बना’, ‘आसान नहीं बिदा कहना’ कविता-संग्रह प्रकाशित
सम्मान:  सूत्र सम्मान से अलंकृत
संप्रति: एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अधिकारी 
संपर्क : keshav_bnd@yahoo.co.in  )

दुपट्टे को बांध दूंगी बरगद की ऊंची शाख पर परचम की तरह

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ब्लॉगर्स की कविताओं की रंगत बेशुमार @ शब्द संवाद

सैयद शहरोज क़मर
की क़लम से

'अपने दुपट्टे को  बांध दूंगी
उस पक्की  सडक़ के  कि नारे वाले
बरगद की  ऊंची शाख पर परचम की  तरह।'

 इसे पढ़ते हुए तुरंत ही मशहूर शायर मजाज का शेर जेहन में उतर आता है,
'तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इससे परचम बना लेती तो अच्छा था।'
बरसों बाद युवा कवयित्री रश्मि शर्मा दुपट्टे को परचम बना लेने की बात कहती हैं। उनके साहस को  सलाम! वर्ना अब ऐसे बदलाव तो कविताओं से भी लुप्त होते जा रहे हैं। उनकी कविता अंतिम गांठ की यह पंक्ति है। ऐसी कई कविताएं वीना श्रीवास्तव के संपादन में प्रकाशित कविता संकलन 'शब्द संवाद'में संगृहित हैं। रश्मि की  रचनाओं में मौन का  जंगल पसरा है, जिसमें हवाओं की  अलगनी पर झूलते कई सवाल पूछते हैं कि हम इंसान हैं या जानवर। मौजूदा हिंसक  वातावरण में स्त्री पूछती है, 'क्या एक  औरत कर पाएगी / कभी किसी पर विश्वास/ कौन देगा/ इन अनगिनत प्रश्नों का  जवाब।'

इस संकलन में ब्लॉग पर सक्रिय  22 कवियों की रचनाएं शामिल हैं। इनमें 70 वर्षीय अशोक  सलूजा 'अकेला'से लेकर बीस साल के  टटका कवि मंटू कुमार भी हैं। पुस्तक  आधी दुनिया के पूरे सपने के  नाम समर्पित तो जरूर है। लेकिन इनमें महज 9 कवयित्रियों को  ही जगह मिली है। बकौल संपादक  हिंदी में 20 हजार ब्लॅागर हैं। इनमें नियमित लिखने वाले बहुत कम हैं। पर उन्होंने प्रतिनिधि रचनाकारों को सम्मिलित करने का  दावा किया है। कोई शक  नहीं कि कुछ नाम बहुत ही लोकप्रिय हैं। इनकी लोकप्रियता का  कारण भी उनकी रचनाधर्मिता है। पर बाकी  कवियों की रचनाएं अपेक्षाकृत कमजोर हैं, प्रतिनिधि तो क़तई नहीं कह सकते। लेकिन इनमें जिंदगी के  प्रति उत्कट लगाव है। विडंबनाओं को लेकर क्षोभ है।

छायावादी स्तंभों में रहे सुमित्रानंदन पंत की मानस-पुत्री सरस्वती की कवयित्री बिटिया रश्मि प्रभा 'कड़ी धूप में निकल गए समय से'  आंचल में कुछ छांह बांधकर बच्चों को वसीयत में देती हैं। इनके यहां चिडिय़ों की चोंच में उठा लिए गए और बादलों की  पालकी  पर उड़ते शब्द हैं। जो 'शब्द कभी विलीन नहीं होते / प्रेम हो / इंतजार हो / दुआ हो, मनुहार हो / वियोग हो, त्योहार हो।'  इनकी  कविताओं में 'शब्द साथ-साथ चलते हैं / कभी सिर्फ खिलखिलाते हैं / कभी बालों में घूमती मां की  उंगलियों से निकलते हैं, शब्द।'  कलावंती की पंक्तियां, 'स्त्रियां सुख का हाथ छोडक़र / दुख को पार करा देती हैं सडक़'या 'पिता जब तक थे जीवित / कितनी बड़ी आश्वस्ति थे।'  अनमोल वचन की भांति स्मरण में रह जाती हैं। रीता प्रसाद उर्फ ऋता शेखर मधु 'वाणी और क़लम'के  बल पर कहती हैं, 'उम्मीदों के  चिराग जलाके रखो'  क्योंकि  'जीवन के  कुरुक्षेत्र में...../ कोई भी होता नहीं / ज्ञान कोई देता नहीं।'  शारदा अरोड़ा भी 'सोच के दीप जलाकर'  देखने की बात कहती हैं।

'इंसान अब रहा नहीं तेरी दुनिया में ऐ खुदा
कोई यहां हिंदू, कोई मुसलमान रह गया।'
युवा कवि अमित कुमार अपने इसे शेर के  साथ संग्रह में सबसे पहले अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हैं। वहीं मदन मोहन सक्सेना की पंक्तियां भी असर छोड़ती हैं,
'भरोसा है हमें यारो कि कल तस्वीर बदलेगी
गलतफहमी जो अपनी है, वो सब दूर हो जाएं
लहू से फिर रंगा दामन ना हमको  देखना होगा
 जो करते रहनुमाई है, वो सब मजदूर हो जाएं।'

वहीं युवा चितेरे मंटू की  रचनाओं का खिच्चापन आकर्षित करता है। इस संकलन में शामिल दस कवियों ने दामिनी के बहाने पुरुष के  दुरंगेपन का बखूबी पोस्टमार्टम किया है। इनमें अशोक  कुमार सलूजा, मनोरमा शर्मा, मंटू, निहार रंजन, राजेश सिंह, रश्मि प्रभा, डॉ. शिखा कौशिक  'नूतन', वीना श्रीवास्तव और बिधू शामिल हैं। संकलन में आशु अग्रवाल, किशोर खोरेंद्र, नीरज बहादुर पाल, प्रकाश जैन, प्रतुल वशिष्ठ, रजनीश तिवारी, शशांक  भारद्वाज की भी कविताएं हैं।

पुस्तक : शब्द संवाद (कविता)
संपादक : बीना श्रीवास्तव
पृष्ठ: 228
मूल्य: 399 रु.
प्रकाशक : ज्योतिपर्व, दिल्ली

भास्कर झारखण्ड के 25 फ़रवरी 2014 के  अंक में प्रकाशित

चुनावी बुखार की गुलेल गोली

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अभिषेक तिवारी का कार्टून साभार

 शहरोज़  की दो अख़बारी फूलझड़ी
 कहीं सच तुम बदल तो नहीं जाओगे
भैया की धडक़नें इनदिनों शहर के  मौसम की तरह  बदल रही हैं। दरअसल उनकी प्रेयसी पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। इसके  लिए भाप तो बहुत पहले से ही उठने लगे थे। जब अंगीठी जलाई गई थी। इसके  ताप को बढ़ाने के  लिए खंड-खंड होते या  किए जा रहे झार-झंखाड़ से कोयले मंगाए जाने लगे थे। भैया को  यूं तो मुंशी-गुमाश्ते  कमी न रही, पर उनके  झक्क  सफेद कुरते पर पता नहीं कैसे कालिख लग गई। हालांकि  इसको  छुड़ाने के  जतन इतना  किये कि  राजधानी एक्सप्रेस हो गए। लेकिन उनके  चेहरे की  हवाई जहाज भी नहीं उड़ा सका । मठ से दरगाह तक  की  जियारत-परिक्रमा कर डाली। पर कमबख्त फिल्म 'दाग'  थी कि परदे से उतरने का नाम नहीं ले रही थी। असर यह हुआ कि सियासी ताप अफवाह सा बढऩे ही लगा। इसके  गुबार से दिल्ली तक  छींक  गई। जाहिर है, ताप बढ़ा, तो वाष्पीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई। अब यही वाष्प बादल बनकर उनके  ईर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा है। कभी वह ऐसा ही चक्कर इसी प्रेयसी को हासिल करने के लिए लगाया करते थे। खैर! अब बादल है कि  घुमड़ते-घुमड़ते बरस जाने को बावरा हुआ जा रहा है।


ई कइसा लहरिया बाबू
होशियार ! खबरदार!! बड़का भोंपू से ई बात सुनकर मंगरू चा अपनी गठरी पोटली में बाँधने लगे. हम जब तक उनके पास पहुँचते उन्होंने वहाँ से लत्ती ले ली. हम भी उनके पीछे ऐसा भागे मानो पेट  खराब हो, और कहीं जाकर जल्दी ही निर्वृत हो लूं. हमरे पुकारने पर चच्चा बोले, तुम काहे हमरा पीछा कर रहे हो. तुमको भी का कोई लाल कपड़ा दिखा दिया है.  ऊ कौने फेके वा है जिसको कजरारे वाला नचवा लाल कपड़ा सा बुझा रहा है. और रह-रह के ऊ इधर-उधर बौखलाहट में का-का अनाप-शनाप बोल रहा है. टीविया मा इहो सुने हैं कि उसका कुर्सी बनाने में बड़का-बड़का लोग मदद कर रहा है. अभियो पंडित जी बतात रहींन।  ऊ अभी कासी से ही आये हैं सुनकर!   हम बोले, न मंगरू चा! हम तो आपके भागे के देख दौड़ लगा दिए. आप काहे खिसक लिए ई जगह से? 'लो सुन आउ  देख नहीं रहे हो. होशियार!खबरदार!!'  पता न का आफत है.'अरे कोनो आफत-वाफत न है चच्चा। इ कोई खेल हॉवे वाला है. पर खिलाड़ी चुनबे  न किये कप्तान का घोषणा कर दिए. आउ बोल रहे हैं कि ई बार तो कप्वा हमहीं जीतेंगे! अरे भैया कौन मना  कर रहा है, पर खिलाड़ी चूने मा काहे देरी कर रह हो। जबकि दुसरका टीम का खिलाडी सब प्रेक्टीसो करने लगा है, अपना- अपना मैदान में. औउ ई कप्तनवा सोच रहा है कि सभे मैदान का मैच अकेलिये खेल लेंगे। हमरी बात को सुन अभी -अभी पहुंचे  पंडित जी मुस्कुराए, 'बाबू ई कप्तनवा तो अपना ही मैदान छोड़ कर दुस्सर मैदान देख रहा है. अब भला भांग के आगे कासी में ढोकला चलिहें का.'  

मां उबालती रही पत्थर तमाम रात, बच्चे फ़रेब खाकर चटाई पे सो गए

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अमित राजा की क़लम से

कहानी: बारह साल का बुड्ढा


 हालांकि देश के बीसियों मनभावन जगहों की मैंने सैर की है।  मगर जमशेदपुर का महज़  चार दिनों का प्रवास स्मृति में अजीब तरह से चस्पां हो गया है। जमशेदपुर की सैर से जुड़ी यादें एक उन्माद और बुखार की तरह आती हैं और मैं कई बार जागी आंखों से बुरे सपने देखने लगता हूं।
       ००० ००० ०००
‘‘साहेब सिगरेट...’’ मेरे पीछे-पीछे दौड़ते हुए एक बच्चा  पास आ गया। एक पूरा ‘सिगरेट, माचिस, तंबाकू और पान मसाला’ भंडार उसके  बेजान गर्दन पर लटका हुआ था।
‘‘हां... लेंगे, एक डब्बा सिगरेट और एक माचिस दे दो. ’’ जमशेदपुर रेलवे प्लेटफार्म पर उतरते ही मुझे सिगरेट की तलब महसूस हुई।
सिगरेट के गोल-गोल छल्ले और लंबे धुंए निकालते हुए मैं जमशेदपुर रेलवे स्टेशन से निकला और अपने अजीज दोस्त अभिजीत के घर होकर जाने वाली  लोकल बस पर बैठ गया। धीरे-धीरे सुलगते हुए सिगरेट को देखते हुए  बेतरह उस बच्चे का गुमसुम चेहरा मेरी आंखों में ताक-झांक करने लगा।
‘‘बमुश्किल वह दस-बारह बरस का होगा।  सिगरेट बेच रहा है। ओह! कैसा देश, कैसा शहर है! कैसे मां-बाप...?’’ ऐसी अनेकों बातें मुझे परेशान किए जा रही थी।
दिल को बहलाने के लिए थकान के वक्त अमूमन मैं ख्वाब में अपनी प्रतिबंधित प्रेमिका की जुल्फें अपने चेहरे पर गिरा लेता हूं। थकान एकदम जाती हुई प्रतीत होती है। शायद ये मेरे दिल को बहलाने का गालिब तर्ज़ ख्याल अच्छा लगता है। मगर उस रोज कमबख्त इस ख्वाब ने धोखा दे दिया। उस रोज अपने चहेरे पर प्रतिबंधित प्रेमिका की गिरी हुई जुल्फों को ख्वाब में महसूसने की तमाम कोशिशें नाकाम साबित हुई। मेरे दिलो-दिमाग में सिगरेट बेचने वाला वह बच्चा था।
  ००० ००० ०००
‘‘ये हुआ तुम्हारा कमरा। पहले फ्रेश हो लो।’’ अभिजीत ने मेरे हाथ से बैग लेकर एक कोने में रख दिया।
‘‘हां-हां, बिल्कुल...! जो आदेश!’’ मैंने इशारे में कहा।
‘‘फिर कहीं घूमने-उमने चलेंगे।’’ अभिजीत ने कनखी मारी।
‘‘नहीं यार आज काफी थक गया हूं, शाम भी हो चुकी है... कहीं निकलूंगा-उकलूंगा नहीं।’’ मैंने दोनों बाहें उठाकर लंबी सांस ली।
‘‘ठीक है जैसी मर्जी...मैं तुम्हारे लिए चाय-नाश्ते के लिए बोल देता हूं।’’ अभिजीत दूसरी मंजिल के मेरे कमरे से निकला।
फ्रेश होने के बाद अभिजीत ने मेरे और अपने सोने का इंतजाम ऊपर वाले कमरे में कर दिया। जब तक मैं वहां रहा वह मेरे ही साथ सोया। इससे उसकी पत्नी पर क्या गुजरी,  मैं गाफिल रहा।
जमशेदपुर की वह रात बड़ी खामोश थी। इसे कोई करे या न करे  मैंने महसूस किया और फिर वहां की रात में बहने वाली नींद ने मुझसे दुश्मनी नहीं की, उसे मनाते-मनाते मेरा उससे झगड़ा भी नहीं हुआ। यह पहला मौका था जब नींद मेरे पास बैठकर मुझ पर झुक गई, फिर मुझे बांहों में भर लिया। आगे मुझे कुछ याद नहीं।
सुबह लंबे-लंबे दरख्तों को छूती सर्द हवा खिड़की से मेरे कमरे में घुस रही थी। पलाश  के फूलों से छनकर लाल-लाल धूप मेरे कमरे की दीवारों पर ठिठक रही थी। वह धूप जब मेरी देह और मेरे कपड़ों पर गिरती तो मेरा कपड़ा व मेरी देह लाल रंग से रंग जाती। बासंती हवा, धूप, सुबह और वातावरण से मैं पुलक रहा था। मगर, प्रकृति के इस सान्निध्य में मैंने जो नवमिजाज पाया उसकी एक दृश्य ने चिंदी-चिंदी उड़ा दी। खिड़की के पास मैं खड़ा हो गया। फिर बाहें डालकर अंगड़ाई ली। तो खिड़की से दिखने वाले मैदान में मुझे दिखा कि अलग-अलग समूह में बंटकर बारह से बीस और 25 की उम्र के बच्चे-लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। तो वहीं फटा-सुथन्ना पहने एक दस-बारह साल का बच्चा मूंगफली बेच रहा था।
‘‘अरे यह तो वही बच्चा है, जिसने मुझे कल सिगरेट पिलाई थी... मेरी आंखों के सामने रेलवे प्लेटफार्म पर सिगरेट बेचने वाले उस बच्चे का चेहरा घूम गया।
‘‘नहीं भई मूंगफली बेच रहा यह बच्चा वह नहीं है जो तुम समझ रहे हो। गौर से देखो सिगरेट बेचने वाले बच्चे के बाल काफी बड़े-बड़े थे, मगर मूंगफली बेचने वाले इस बच्चे के बाल छोटे हैं।’’ अचानक जोर से किसी ने मुझे झकझोरा। मगर मैंने देखा तो आसपास कोई नहीं था।
‘‘एक तरफ बचपन में खेलने कूदने का मजा 20-25 की उम्र में लेने वाले ये बच्चे हैं। दूसरी तरफ एक यह बच्चा है जो खेलने की उम्र में अन्न की जुगाड़ में खट रहा है। मैं गंभीर सोच में डूबकर चुपचाप और बेसाख्ता पलंग पर बैठ गया।
००० ००० ०००
पांच बजकर दस मिनट। महकी हुई सांझ। पानी का फव्वारा। दूर तक जहां-तहां बैठी स्त्री-पुरुषों की युवा जोडि़यां। दृश्य है जमशेदपुर के जुबली पार्क का। इसे जमशेदजी टाटा ने बनवाया था। लोग सच ही कहते हैं कि अगर पार्क यहां नहीं बनाया जाता तो यहां जुए का अड्डा, शराबखाना, बीयरबार होता। ऐसे में यहां निश्चित तौर पर बदमाश, चोर, उचक्कों, गुंडे, पुलिस, नेता, व्यवसायियों, अफसरों और पत्रकारों का जमावड़ा लगा रहता। फिर इस जगह का नाम जुबली पार्क नहीं रेगिस्तान, मर्डरिस्तान, चोर पाड़ा, डाकू टोला, मनचला नगर या अलकापुरी होता। लेकिन खैरियत है यहां जुबली पार्क है।
‘‘अबे चुतिया दार्शनिक की औलाद! आसमान क्या झांकता है उधर देखो।’’ अभिजीत ने मेरे कान के नीचे ऊंगली गड़ाई और दाहिने तरफ देखने का इशारा किया।
मैंने देखा एक नौजवान औरत दो युवा मर्दों के साथ जा रही है। औरत बीच में थी और दोनों पुरुष औरत का हाथ थामे आजू-बाजू। वे तीनों कुछ दूर जाकर घास पर बैठ गए। अभिजीत की इच्छा पर उन तीनों से थोड़ी दूरी बनाकर हम दोनों भी घास पर बैठ गए। हम दोनों ने देखा कि कुछ देर आपस में बात करने के बाद उस औरत के साथ वाला पहला आदमी उस औरत को अपनी बांहों में भरकर बैठा हुआ था तो दूसरा आदमी उस औरत की गोद में सर रखकर उसे निहार रहा था। मोटे तौर पर देर तक दोनों आदामी का उस औरत के साथ का व्यवहार यही साबित कर रहा था कि वह दोनों की पत्नी हो।
‘‘जरूर ये औरत आधुनिक समाज की द्रौपदी है, जिसके पांच नहीं दो पति हैं।’’ मैंने खुद से कहा।
तभी उन तीनों का अभिवादन करने के अंदाज में हाथ उठाता हुआ मेरी बगल से एक आदमी गुजरा और कहा ‘‘हाय डार्लिंग सोमा, हाय रोहित, हाय साबिर।’’
इस तीसरे आदमी ने उस औरत की ओर हाथ बढ़ाया और उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए उसे पहले अपनी बांहों में भर लिया फिर उसे चूम लिया। ये सब देखकर अभिजीत और मैं अवाक् था। अब मैं उस औरत से इन तीनों पुरुषों के रिश्ते के बारे में सोचता ही कि एक बच्चे ने मेरी सोच के रास्ते में एक अवरोध-सा खड़ा कर दिया।
‘डेली न्यूज लीजिए, डेली न्यूज पढि़ए’ की आवाज मेरे कानों में देर से आ रही थी। पर, यह आवाज लगाकर सांध्य दैनिक बेचने वाला बच्चा अब मेरे बेहद करीब था।
‘‘साहब, ‘डेली न्यूज’ ले लो’’। मेरी ओर देखकर बोल रहे उस बच्चे  की आवाज में आग्रह घुला हुआ था।
उस बच्चे की ओर मैं बोक्का की तरह देखता रह गया। डेढ़ रुपए लेकर मुझे सांध्य दैनिक ‘डेली न्यूज’ देने वाला यह बच्चा वही था, जिससे रेलवे स्टेशन में मैंने सिगरेट ली थी और जो मुझे खिड़की के पार मैदान में खेलते लड़कों के बीच मूंगफली बेचते हुए दिखा था।
‘‘आखिर यह कौन बच्चा है इतना क्यों खटता है? क्या इसे अपनी बेटी या बहन की शादी करनी है (?) जो दो दिनों के भीतर बेतहाशा कभी सिगरेट, बीड़ी, पान-मसाला कभी मूंगफली तो कभी सांध्य दैनिक बेच रहा है।’’ मैं जोर-जोर से सोच रहा था।
मेरे जोर-जोर से सोचने को सुनकर किसी ने मेरे कान में धीरे से कहा- ‘‘अरे नहीं दोस्त ये वह बच्चा नहीं है जो तुम सोच रहे हो। सिगरेट बेचने वाले, मूंगफली बेचने वाले और ये अखबार बेचने वाले तीनों बच्चे अलग-अलग हैं। सिगरेट बेचने वाला बच्चा बिल्कुल काला था। इसे देखो ये तो गोरा है।’’ मैंने बाजू देखा तो कोई नहीं था, मगर हां चारेक फूल गाछी की पत्तियों की सरसराहट बिल्कुल आदमी की तरह बोल रही थी।
‘‘ओह...’’ मैं अपने दुःखते हुए सर को दबा रहा था। मैं उस बच्चे के ही बारे में सोच रहा था। मैं जानना चाहता था कि आखिर ये बच्चा कौन है और क्यों इस कदर हाड़-तोड़ मेहनत करता है। हालांकि उस बच्चे से ये सब जानने के मैंने दो मौके खो दिए। एक तो उस वक्त जब वह बच्चा मूंगफली बेच रहा था- मैं अगर चाहता तो दो रुपए की मूंगफली खरीदकर उससे पूछ सकता था कि ‘‘बेटे तुम इतना काम क्यों करते हो?’’ मगर मैं इस संकोच से नहीं पूछ सका कि अभिजीत और दूसरे लोग क्या कहेंगे।
दूसरा मौका तब आया जब वह बच्चा सांध्य दैनिक बेच रहा था। उस वक्त मैं पूछ सकता था कि - ‘‘बेटे तुम्हारा घर कहा है - तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं? तुम इतना काम क्यों करते हो?’’ मगर मैं नहीं पूछ सका, क्योंकि मन में झिझक थी कि जुबली पार्क में मौज-मस्ती कर रहे लोग क्या कहेंगे? यही न कि ‘‘साला पागल है’’।
‘‘ओह...’’मैं धीरे-धीरे निःस्संगता में खोता जा रहा था।
‘‘क्या हुआ चलो’’, अभिजीत ने मेरी पीठ पर हाथ रखकर मुझसे कुछ इस अंदाज में कहा। जैसे मुझे वह गहरी नींद से जगा रहा हो और मैं बिना ऊंह-आंह किए कुछ इस तरह से उठा कि मुझे नींद से जागना ही न आता हो।
००० ००० ०००

‘‘आज क्वाइल लाना भूल गया। बहुत मच्छर है।’’ मेरे बगल में सोया अभिजीत अपनी ही देह में चट-चट कर मच्छर मार रहा था।
‘‘हां मच्छर है।’’ मेरे मुंह से निकला, मगर मैं गहरी नींद सो रहा था।
‘‘सो रहे हो क्या।’’ दस मिनट की खामोशी तोड़ते हुए अभिजीत ने कहा।
‘‘हां सो रहा हूं, गहरी नींद में सो रहा हूं।’’ मैंने कहा।
फिर कुछ देर खामोशी रही! बाद में पलंग से उतरकर अभिजीत ने बल्व जलाया और अलगनी से मच्छरदानी लेकर मेरे पास खड़ा हो गया। ‘‘चलो हटो, उठो, थोड़ा मसहरी लगा दूं, बहुत मच्छर है।’’
‘‘नहीं मैं नहीं उठूंगा, मैं बहुत गहरी नींद में सो रहा हूं। नींद टूट जाएगी। मुझे मच्छर नहीं काट रहा, मैं गहरी नींद में सो रहा हूं।’’ मैं कह रहा था।
‘‘अजीब आदमी है, आंखें खुली है, बातें कर रहा है और कहता है गहरी नींद में सो रहा हूं’’ अभिजीत मच्छरदानी लगाते हुए बुदबुदा रहा था।
एक घंटे के बाद नींद में मैंने कहा ‘‘अभिजीत सो रहे हो क्या?’’ अभिजीत इस कदर बेसुध सो रहा था कि मेरी बात का जवाब भी नहीं दिया। तभी किसी बच्चे की जोर-जोर से रोने-चिल्लाने की आवाज से मेरी नींद टूट गई। फिर कुछ देर ठहरकर मैं बालकनी गया और वहां रखी कुर्सी पर बैठ गया। यूं ही वहां बहुत देर बैठे-बैठे मैंने देखा आसमान बादलों से घिर गया। पहले बिजली चमकी, बाद में बारिश की पतली-पतली, छोटी-छोटी फिर मोटी-मोटी, बड़ी-बड़ी बूंदे टपकने लगी। इतने मैं मैंने देखा कि बालकनी के सामने वाले मकान के बरामदे पर एक बच्चा पानी से बचने के लिए दौड़ते हुए आया और बरामदे पर लगी ग्रील के पास छज्जे के नीचे खड़ा हो गया। वहां खड़ा-खड़ा वह थोड़ा भींग रहा था, थोड़ा बच रहा था। तभी टॉर्च की लाइट की तरह बिजली की चमक इस बच्चे के चेहरे पर गिरी। बाद में एक झलक में मुझे वह बच्चा वही दिखने लगा, जो पहले मुझे सिगरेट, मूंगफली और सांध्य दैनिक बेचते हुए दिखा था। उस रात मैं उस बच्चे के बारे में जानने के लिए मिले मौके को खोना नहीं चाहता था।
‘‘ऐ बच्चा तू कौन है? क्या तुम्हारा कोई घर नहीं है? जो इस बारिश की रात में तुम भींग रहे हो...! या कि तुम सांध्य दैनिक बेचने के बाद घर जाते हुए बारिश में फंस गए हो?...बच्चा क्या तुम मेरी बात नहीं समझ रहे हो या नहीं सुन रहे हो...! देखो मुझे देखो...।’’ मैं लगातार जोर-जोर से बोले जा रहा था, मगर शायद मेरी आवाज बारिश की बूंदों की आवाज और बिजली की कड़क में गुम हुए जा रही थी। लेकिन, मैंने हिम्मत नहीं हारी और उस बच्चे से चिल्ला-चिल्ला कर पूछता रहा।
‘‘क्या हो गया तुझे, ये सुबह-सुबह क्यों चिल्ला रहा है? आखिर लोग क्या कहेंग।’’ मेरी दोनों बाहें पकड़कर अभिजीत एकदम मुझे उस तरह से झकझोरने लगा जैसे मैं कोई पागल होऊं और वह पागलों का डॉक्टर।
‘‘य...यार...अ...अभिजीत, बा...बारिश, बिज्जली, बबब बच्चा।’’ मैं अभिजीत की मजबूत पकड़ से अपनी बाहें छुड़ाने की कोशिश करता हुआ एकदम से हकला रहा था।
‘‘तुझे क्या हो गया दोस्त, न तो बारिश हो रही है, न ही बिजली गरज रही है और यहां कोई बच्चा भी नहीं है।’’
‘‘अरे तुझे तो बुखार भी है।’’ अभिजीत मेरे ललाट, गाल और गले को छू-छू कर मेरे बुखार का तापमान मापने की कोशिश करने लगा।
उस रोज अभिजीत ने मेरे नहाने, धोने, घर से निकलने और टहलने पर एकदम रोक लगा दी। उसने फौरन अपने फेमिली डॉक्टर को भी बुलवा लिया था।
‘‘कुछ नहीं बस उन्हें थोड़ी-सी हरारत है, अभी ये दो गोली खिलाकर इनको सो जाने कहिए फिर रात में दो गोली दे दीजिएगा।’’ डॉ ने अभिजीत को अपनी बैग से निकालकर कुछ दवाईयां दे दी।
००० ००० ०००

‘‘क्यों भाई साहब आप कल ही चले जाएंगे?’’ अंजू भाभी ने बेहद सलीके से मेरी ओर चाय का ट्रे बढ़ाते हुए पूछा।
‘‘हां भाभी हर हाल में कल सुबह ही निकल जाना होगा।’’ मैंने ट्रे से चाय का प्याला उठा लिया।
‘‘मगर इन्होंने तो कहा था कि आप आएंगे तो पूरे दस रोज ठहरेंगे।’’ भाभी मेरे बगल में सोफे पर बैठ गई।
‘‘क्या करूं भाभी बहुत काम बाकी है, अपने शहर लौटकर उसे पूरा करना है। हालांकि अगली बार आया तो जरूर दस दिन ठहरूंगा।’’ भाभी को मनाने के लिए मैंने बात बनाया।
‘‘हां-हां, आप दोनों दोस्त झूठ बोलना बहुत अच्छी तरह जानते हैं।’’ भाभी की आंखों में हंसी और जुबान पर गुस्सा था।
‘‘अच्छा-अच्छा बहस-वहस छोड़ो आज कुछ खास बनाकर खिलाओ। शादी के पहले तुम्हारे सात गुणों में तुम्हारे कुकिंग कोर्स की खूब चर्चा सुनी थी। मगर शादी के बाद इधर के तीन बरस में तुमने मुझे रोज दाल-भात, सब्जी और दाल, रोटी, चोखा ही खिलाया है।’’ अभिजीत तपाक से बोला।
‘‘मैं क्या कर सकती हंू, आपकी मां से जब भी पूछती हूं रोज-रोज वो दाल-भात सब्जी बनाने को कहती हैं। अब आज आप खास बनाने कह रहे हैं तो जरूर कुछ खास बनाने की कोशिश करूंगी।’’ भाभी का मुंह बंद था, मगर उनके भीतर से ये शब्द-वाक्य फूट रहे थे।
तुरंत बाद भाभी ने मुंह खोला ‘‘ठीक है आज कुछ खास बनाऊंगी।’’


कुछ देर तक अभिजीत मुझसे बातें करता रहा. फिर   अचानक किचन की ओर गया। ‘‘खाना बना कि नहीं जी’ (जोर से) क्या खास बनी रही हो। (धीरे से)।’’
‘‘जी ला रही हूं।’’ किचन की ओर से आवाज आई। कुछ देर बाद डाइनिंग हॉल से आवाज आई ‘‘आईए खाना लग गया है।’’
बाद में अभिजीत और मैंने डायनिंग टेबल पर बैठकर कुछ खास व्यंजन के बारे में सोचते हुए दाल, भात, सब्जी, रोटी, पापड़ आदि निकालकर खाने लगा। शायद रंजू भाभी ने भी कुछ खास व्यंजन बनाने की सोचते हुए दाल-भात, सब्जी, रोटी और पापड़ बना लाई हो।
००० ००० ०००

कुछ दिन और ठहरने के लिए मुझे मनाने की कोशिश में परास्त होने के बाद अभिजीत और अंजू भाभी को आखिरकार मुझे विदा करना ही पड़ा। फिर अभिजीत ने स्कूटर से मुझे रेलवे स्टेशन तक छोड़ दिया।
‘‘गाड़ी खुलने में अभी 40 मिनट देर है, चलो एक-एक चाय पीता हूं।’’ अभिजीत एक ढाबानुमा चाय दुकान की ओर बढ़ा।
‘‘ना-ना चाय नहीं, एक-एक सिगरेट पी जाए! क्या?’’ मुझे सिगरेट पीने की इच्छा हो रही थी।
‘‘ठीक है ‘सिगरेट’ भी साथ-साथ लेंगे।’’ अभिजीत मुस्कुराया।
मैंने चाय की घूंट ली। फिर, सिगरेट का कश भरा। धीरे-धीरे हलक से निकलता हुआ धुंआ मेरी आंखों के पास आकर जमा हो गया। धुंए को चीरती हुई मेरी आंखे इस चाय-नाश्ते की दुकान पर हुकूम ठोंकते साहबों की खिदमत में लगे एक दस-बारह साल के बच्चे पर ठहर गई।
‘‘ये तो संयोग है। मैंने तो सोचा भी नहीं था कि यह बच्चा मुझे इस चाय-नाश्ते की दुकान में मिल जाएगा। आज मैं इससे सब कुछ पूछ लूंगा-सब कुछ।’’ मैं खुशी से एकदम चहक उठा। गोया शायद मुझे इस बच्चे की वर्षों से तलाश हो।
लेकिन दूसरे ही क्षण मैं निराश और दुखी हो गया। क्योंकि जैसे ही मेरी आंखों के सामने जमा ‘धुंआ’ गायब, वह बच्चा भी गायब... मेरा मन भारी हो गया। टिकट काउंटर से टिकट खरीदकर अभिजीत ने मुझे दिया। ‘‘सोलह मिनट बाद तुम्हारी गाड़ी खुलेगी।’’
‘‘शुक्रिया अभिजीत अपनी और भाभी का ख्याल रखना, चिट्ठी लिखना, फोन करना और हां भाभी को लेकर आना। मैं भी दोबारा आऊंगा।’’ मैंने विदाई ली। दूर तक विदाई देते हुए अभिजीत मुझे इस कदर तक रहा था जैसे कुछ बोल रहा हो।
प्लेटफार्म नंबर-1 के प्रवेश द्वार पर मेरी नजर अपने जूते पर गई। जूते पर धूल जमी थी और वहीं पर बैठा एक बच्चा लोगों के जूते पॉलिश करता दिखा। जूता पॉलिश कराने के लिए मैं भी आगे बढ़ा कि मेरी नजर उसके चेहरे पर रूकी। मैं चौंक गया। मेरी बांछे खिल गई...। अरे यह तो वही बच्चा है, जिसकी मुझे तलाश थी। आज मैं इस बच्चे से खूब बातचीत करूंगा। पूछ लूंगा कि वह इतना काम क्यों करता है।’’
‘‘अबे ले इस जूते पर बरस मार।’’ एक आदमी ने उस बच्चे की ओर अपना बायां पैर बढ़ा दिया।
दूसरे आदमी ने एकदम रईसजादे की तरह उस बच्चे के आगे पांच रुपए का सिक्का उछाल दिया, गोया खैरात बांट रहा हो ‘‘ऐ लो जी पैसा लो।’’
अब मेरी बारी थी। बच्चा मेरे जूते पर पॉलिश कर रहा था। और मैं उस बच्चे से यह पूछने के लिए बेताब था कि वह इतना काम क्यों करता है। ऐसी क्या जरूरत है कि कभी वह सिगरेट, कभी मूंगफली, कभी अखबार बेचता है तो कभी मजदूरी तो कभी जूता पॉलिश करता है। लेकिन बूट पॉलिश के लिए बेचैन वहां खड़े शूट-टाई-पैंट पहने दो लोगों की ‘एलिटियाना हरकत’ देखकर मैं बच्चे से कुछ नहीं पूछ पाया। अब तक बच्चा मेरे दोनों जूते पॉलिश कर चुका था।
‘हां’ मैंने झुककर बच्चे की ओर पैसा बढ़ाया।
‘हां साहब!’ बच्चे ने हाथ बढ़ाया, उसकी आंखों में विस्मयजनित चमक थी। अब मैं आगे बढ़ने को ही था कि कुछ देखकर चौंकते हुए थोड़ी देर रूक गया। दरअसल, जहां बच्चे ने जूता पॉलिश की दुकान सजाई थी, वहीं मुझे एक बैसाखी और बच्चे का घुटने तक कटा एक पैर दिखा। बच्चा अपाहिज था। मगर मैंने बच्चे के अपाहिज होने के कारणों के बारे में उससे पूछ नहीं सका। क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि उस बच्चे से बात करने की जहमत के रूप में वहां खड़े एलिटों की हेय नजर मुझपर पड़े।
‘‘प्लेटफार्म पर सिगरेट या सड़क पर अखबार बेचते हुए जरूर किसी हादसे में इस बच्चे ने अपना एक पैर गवांया होगा।’’ मैंने गेस किया। तब तक गाड़ी लग चुकी थी। मैं बोगी के अंदर गया और फिर अपने बर्थ पर खिंच गया। बस मन में बच्चे से बात न कर पाने का मलाल रह गया।


(लेखक-परिचय:
 जन्म: 09 मार्च 1976
शिक्षा: बीए ऑनर्स,     
सृजन:   झारखंड की बेटी, रूप की मंडी ;शोध रिपोतार्ज का सह लेखन, आग में झरिया ;पुस्तक प्रकाशित। देश के कई नामी पत्र-पत्रिकाओं में  पुस्तक समीक्षा, कविता, कहानी आदि.     
 पेनोस साउथ एशिया से पर्यावरण, खनन और दलित महिलाओं के स्वास्थ्य व मानवाधिकार विषय पर फेलोशिप।  
 संप्रति: दैनिक भास्कर गिरिडीह में ब्योरो चीफ।
संपर्क: amitraja.jb@gmail.com, 9431169152 )

गूंजती है हथोड़े सी आवाज़, औरत भी शामिल है इंसानो में

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शहनाज़ इमरानीकी कविताएं
 

हथोड़े की आवाज़ गूंजती है

एक वक़्त ऐसा भी था
जब दरख्त लोगों का
सारा सच सुनते थे
दरख्तों के तनों में बने
लकड़ी के कानों में
सब कहा करते थे
दरख्तों के पास अनगिनत
राज़ जमा हो गए थे
और वो कुल्हाड़ियों से नहीं डरते थे
उनकी जड़ें लोगों के ख़्वाबों में
हुआ करती थीं
और ख़्वाबों की चाबी
किसी ख़ुदा या भगवान के
हाथ में नहीं थी.

फिर समय ने कुछ रंग दिये 
दबे पाँव लोग मिट्टी से
बाहर निकल कर
अपनी पहचान में रंग भरने लगे
गाँव आदमी के तजुर्बों का
सबसे मुश्किल हिस्सा हो गया
लालसाओं के छुपे नाख़ून पंजों से बाहर निकले
सड़ते ज़हनों की बदबू फैलने लगी
चौराहों पर भ्रामक इश्तहारों की तरह
आश्वासनों से भरी
पीढ़ी गुज़रती गयी क़तार से
विकल्प की संभावना के हाथ कट गए
हर तरफ चेहरे ही चेहरे
दुखी, फ़ीके, उदास
भूखे, धूल खाये, बदहवास
ज़ख़्मी, गुस्साये, बौखलाए
बढ़ता गया अँधेरा और
परावर्तन के डर ने किरणों का प्रवेश बंद कर दिया
फासिस्टी कचरे और उन्माद की गंध से 
पूँजीवादी बिलों से निकले बेशुमार कीड़े
और दरख्तों के कानों में घुस कर
उनको बहरा कर दिया
कुछ दिन बाद दरख्तों ने
बिना मिलावट के सच उगल दिये
और एक-एक करके सारे दरख्त मरने लगे
कई ख्वाब टूटे कुछ पर लगा कर उड़ गये
कई हिस्सों में बंटा विरोध।

अब जुर्म कैसे साबित हो
लोग कीड़ों के साम्राज्य से डरते है
मिट्टी में रेडियोएक्टिव किटाणु अब भी
दरख्तों का बदन कुतरते रहते है
सन्नाटे में हथोड़े की आवाज़ें गूंजती है
लोग अभी भी कीड़ों को मार रहे हैं।

मोहबब्त फेयरीटेल्स नहीं है

पार्क  तो वही है
गहरी शाम ओढ़े हुये
कई लोग हैं सभी की आँखों की
इबारत अलग है
बेंच पर बूढा आदमी चेहरे पर
आखरी इंतज़ार लिए सो रहा है
एक बच्चा बॉल से खेल रहा है
सब कुछ भूल कर एक कोने में
एक लड़का और एक लड़की हाथ पकड़े बैठे हैं
पार्क में सब कुछ कल जैसा ही है
बदलाव भी अजीब होता है
शायद चीज़ें नहीं बदलतीं हैं
देखने का नज़रिया बदलता जाता है
मोहबब्त फेयरीटेल्स नहीं होती है
रिश्तों को एक ही पैटर्न पर चलते हुए पाते हैं
शुरुआती थ्रिल, ऊब, उपेक्षा और
तनाव फिर सब ख़त्म
मोहबब्त अनकंडीशनल क्यों नहीं होती !

चुनाव का माहोल

बदल जाता है सच
परिस्थतियों के साथ 
किस लफ्ज़ ने किस लफ्ज़ से
क्या कहा
सब अनसुना सा हो जाता है
फुल स्टाप के बाद
दिन मांगते हैं न्याय
अटकलों, संदेहों, और अंदेशों पर
लटका समय गुजरने के बाद
शुरू हो गई है खोखली बहस
जिसकी धार मर गयी है
देखने का नज़रिया कैसे बदले
नेता माँ बाप नहीं
जनता के नौकर हैं
जनता हाथ जोड़े खड़ी रहती है
लाठी किसी के भी हुक्म से चले
सहना जनता को पड़ता है
योजनाये बहुत हैं, करोड़ों का बजट है
पर सरकार खुशहाली का निवाला
कुबेरों को खिलाती है
बेशर्मी की चर्बी बढ़ती जाती है
बढ़ती जाती स्लम बस्तियाँ
खत्म हो रहा मध्यवर्ग
धर्म एक हथियार बना है
उन्माद से भरे हैं लोग
पुलिस बनी शिकारी कुत्ता
और जनता को दौड़ाती है
हविस, हिंसा, होड़
सारे विकल्पों को खुला रख कर
चुनाव का माहोल बना है।


एक लड़की है शबाना

सड़क किनारे खड़ी  होती है
वो लड़की शबाना
कस्टमर के इंतज़ार में
सुना है अपना घर और ज़मीन गाँव में
गिरवी रख कर आई है.

तुम्हे यहाँ नहीं आना चाहिए था
उसने मुझसे कहा
एक कमरा मटमैले अँधेरे से घिरा हुआ
जिसकी दीवारों का रंग उड़ा हुआ था
आख़री बार पता नहीं पुताई कब हुई थी
दीवार में एक छोटा सा रोशनदान
जिससे धुँधली फ़ीकी
धूप गिर रही थी
एक पलंग पर सिलवटों से भरी
चादर बिछी थी और दो तकिये रखे थे
शराब की खाली बोतल पड़ी थी पलंग के नीचे
कोने में जल रही अगर बत्तियों में से
कुछ राख में बदल चुकी थीं.

सुना था तुम नज़रों का जाल बुनकर
लोगों को फँसाती हो
जो कुछ सुना था
उसके विपरीत हो तुम
निचोड़े गये नीबू जैसा जिस्म
उम्र की सारी बरसातें
बर्फ़ में बदल गयी हो जैसे
एक बेरंग दुनियाँ
लोग भी तो काली रातों के होगें
जिनके चेरहे दिन में पहचानना
बहुत मुश्किल है
तुम्हारी आवाज़ से मैं
चौंक गई तुम कह रही थी
यहाँ से चली जाओ
तुम्हे मेरे बारे में जानने की
इत्ती क्या पड़ी है
एक फ़ायदा भी हुआ है तुम्हारे आने से
मोहल्ले के लोग कुछ दिन मुझे
शरीफ़ लोगों में शामिल कर लेंगे
और जब पता चलेगा तो 
हमेंशा की तरह फिर जगह बदलना पड़ेगा
तुम्हारी बैचेनी का गवाह तुम्हारा चेहरा
भूख, बेरोज़गारी, ग़रीबी का आत्मविलाप
सोच रही थी सरकार ने
कई योजनायें बनायीं हैं
और एन.जी.ओ.वाले
कंडोम बाँट कर
मदद करते हैं तुम्हारी
तुम्हे एक नाम भी मिला है
सेक्स वरकर्स
आख़िर समाज की
सभ्यता बनाए रखने के लिए
तुम्हारी ज़रूरत है
कब तक खड़ी रहोगी तुम
सड़क के मोड़ों पर
पुलिस खदेड़ देगी या
और लड़कियों के साथ
भेड़ों की तरह पुलिस वैगन में
भर कर ले जायेगी 
और फिर हवालात।
 
गरीब की झोपड़ी में
साँप, बिच्छू या कोई भी
जानवर के आने पर पाबंदी नहीं होती
यह सब में तुमसे कहना चाहती थी
मगर पीली थकी बीमार हाँपती हुई
तुम्हारी आँखों में देख कर
खुद से नफरत की
आज शुरूआत हुई।



अब डर लगता है

जायज़ या नाजायज़ हालात
समय की पैदाइश हैं
ग़ायब हो चुके पार्क में
वो झूले याद आते है
तेज़ झूले का डर
छिपकलियों और कॉकरोचों से डर
परीक्षा में फ़ेल होने का डर
भूत, चुड़ैलों का डर.

डर भी कितने छोटे होते थे
शरारत और डांटों के बीच
डर अँधेरे के साथ ही रोज़ रात आता
डराता और सुबह होते चला जाता
साल-दर साल मेरे साथ-साथ
डर भी बड़े हुए
में तो एक हूँ यह अनन्त हुए.

अब डर लगता है
लोगों की चालाक मुस्कानो से
दोस्ती में छुपी चालों से
शतरंज की बिसातों से
नफरतों से चाहतों से
आतंक, विस्फोट, और इंसानी जिस्मों के टुकड़ों से
दंगाइयों से, आग से, लाठीचार्ज से
पुलिस, नेताओं, चुनाव और फसाद से
मस्जिद में अल्लाहो अकबर और
मंदिर में हर हर महादेव के नारों से
भीड़ में और बस में पास बैठे अजनबी के स्पर्श से
रास्ता चलते हुए जिस्म का जायज़ा लेती नज़रों से !


कानों में तेल डालने से पहले

कितना आसान होता है आगे बढ़ना
अगर सामने रास्ते होते है
मगर रास्ते सब के लिये कहाँ होते हैं
कुछ लोग चुनौती को स्वीकारते है
कभी -कभी शुरुआत मंज़िल से
पहले ही हार जाती है
फिर भी लोग
रास्ता तलाशने में लगे हैं
खेतों, कारखानों में कई करोड़
किसान और मज़दूर
कई करोड़ बेरोज़गार युवा
जिनकी कोशिश जारी है
एक सम्पादक लिखता है
विद्रोह न्यायसंगत है
अन्याय के ख़िलाफ़
एक चित्रकार चित्रित करता है
किसान की खुदकशी
एक कवि लिखता है
धर्म के ठेकेदारों के षड्यंत्रों के विरुद्ध
कुछ लोग ढूँढ़ते हैं मसीहा
विचारहीन सम्मोहित भीड़ चल पड़ती है
उसके पीछे-पीछे
क्या तानशाह का ह्रदय परिवर्तन हुआ है.

तुम्हारे कानों में तेल डालने से
पहले की बात है यह
गोधरा के बाद सत्ता द्वारा आयोजित नरसंहार
विधर्मियों को आग में झोंक कर
गुजरात में नरमेंघ यज्ञ
धर्म के ठेकेदारों के पास तुम्हारी
तकलीफों से रिहाई की कोई राह नहीं
और तुम्हारे पास ज़ंजीरों के
सिवा खोने को कुछ नहीं*।

* कॉल मार्क्स

वो आदमी

जिसे सब पागल कहते हैं।
पत्थर तो पहले से थे
पत्थरों से आग पैदा हुई
और फिर आग को बेचने वाले
वक़्त जितना गुज़र गया है
उतना ही ठहरा हुआ है
लोग बना रहे है अपना
आज, कल और परसों
उनकी तकलीफें
दूसरों का मनोरंजन
बुझे अलाव की मद्धिम सी आँच में
बूढ़े बरगद के नीचे
सड़क के कुत्तों के साथ
वो आदमी फिर सो गया है
उसे सब पागल कहते हैं।

 चटोरी गली
शाम को सूरज डूबने के बाद
चटोरी गली की रौनक़ बढ़ जाती है
यह एक अलग दुनियाँ है
उन्हें पता नहीं फाइव स्टार होटल और हाइजीनिक फ़ूड
उधड़ी सड़क, काला धुआँ दीवारों और चेहरो पर
टूटी-फूटी टेबल कुर्सियां और उन पर रखे मटमैले गिलास
सूरज तो सही वक़्त पर निकला था
और अँधेरा जब हुआ भूख की आवाज़ ऊँची होने लगी
रात ने कहा अगर सन्नाटे न टूटे तो
जमाई आती है
67 साल लम्बी उम्र होती है
एक आदमी बनियान में कमज़ोर सा , काला रंग
पसीने से शराबोर भट्टी पर
बड़ी-बड़ी रोटियां पकाता है
पान चबाता हुआ पीले-पीले बल्ब की उदास रौशनी
बड़े-बड़े काले तवों पर सिकते परांठे, शामी कबाब, मछली
मसाला लगे मुर्गे लटके हुए
नानवेज में सब कुछ मिलता है चटोरी गली में
जो अंदर बैठे है और जो बाहर खड़े हैं उनमें
आधे लोगों से ज़यादा पढ़ना नहीं जानते होंगे
किसी के मुहँ में पान है किसी के हाथ में बीड़ी है
मटमैले कपड़ों में होटल का मालिक गल्ले पर बैठा
हिसाब किताब में उलझा है 
दो लड़के बातें कर रहे है
अरे खां वो अपने धोनी की तो फिलिम उलझ गयी
क्या केरिये हो मियाँ
सच केरिया हूँ फिक्सिंग में नाम आ गिया है
लम्बे बालों वाला लड़का दूसरे से
अबे भूरे फिर क्या हुआ
जब साले अरशद ने तेरी सब्ज़ परी (पतंग का नाम )
पर लंगर डाल दिया था
अबे मैंने कोई कच्ची गोलियाँ थोड़ी खेली है
मैने भी छत पर ग़टटे (पत्थर) जमा कर लिए हैं
मिला-मिला के दिये साला चप्प्लें (चप्पल) छोड़कर भाग गिया
कुछ उम्र दराज़ लोग जो इस दुनियां से बहुत परेशान लगते है
उन्हें क्या खाना है किसी की दाढ़ में दर्द है
किसी का पेट खराब किसी के मुँह में छाले हैं
अरे मियाँ पीर सलीम मियाँ क्या पोह्ची हुई हस्ती है
दर्द से तड़प रिया था मेरा पोता
मियाँ ने ऊँगली पकड़ली और जो पड़ना शुरू किया
तो पिशाब करा दिया हाथ जोड़ने लगा
इमली वाला था बच्चे पे आ गिया था
क्यों खां तुम्हारी औरत घर आ गई
उन्ही में से एक शातिर सा दिखने वाला आदमी
सर में तेल और आँखों में सुरमा
हाथों में मेहँदी थोड़े साफ़ कपडे पहने हुए
एक मरियल बूढ़े से आदमी ने पीले दाँत निकाल कर पूछा
आएगी नहीं तो जायेगी कहाँ तुक (सीधा) कर दिया है
जब से भूत उतारा है (मारना बेहरहमी से)
इस इस्तेमे (इज्तिमा) में लड़की का निकाह करवा रिया हूँ
वो भी अपनी माँ की तरह लल्लो (ज़ुबान) चलाती है.

एक और मेज़ पर बिरयानी खाते हुए कुछ लोग
कुछ गालियां बक रहे है एक दूसरे को
ज़ोर-ज़ोर से हँसते हैं गंदे लतीफों पर
एक आदमी कहता है
भाई मियाँ शहर क़ाज़ी ने अच्छा किया
औरतो के बज़ार (बाज़ार) जाने पर पाबंदी लगा दी
रमज़ान के महीने में क्या धक्का-मुक्की होती है
उनमें से एक बोला
हमारी बीवी हर साल पैसे जोड़ती
और सब लूटा देती थी कपड़ों पर
अब ले लो सब हँसते हैं

एक आदमी साईकिल घसीटता हुआ
टूटी चप्पल जगह-जगह से फटे कपड़े 
एक कट (आधी ) चा (चाय) ला और दो तोस (टोस्ट) देना
यहाँ कोई टिप नहीं मिलता 
रात को कुछ औरतें बुर्क़ा ओढ़े
कुपोषित बच्चो को लिये आ जाती है
अल्लाह के नाम पर दे दो तुम्हारे बच्चों का सदक़ा
रात बढ़ती जाती है कुछ लोग इन औरतों को गाली देते है
कहते हैं इस तरह माँग कर मुसलमानों
का नाम ख़राब कर रही है
बाहर कुत्ते सूंघ-सूंघ कर खा रहे हैं
कुछ गुर्रा रहे हैं
रात और गहराने लगी है।
_________________

हम भी भारत वासी है

हम भी जीना चाहते है
हमें भी चाहिये
हमारे हिस्से की हवा
हमारे हिस्से की ज़मीन
हमारे हिस्से का आसमान
हमारे हिस्से का सब कुछ
ओ मेंरे वक़्त तुम सुनों
की ज़िन्दगी में
इन्सान मोहब्ब्तों के लिये
और चीज़ें इस्तमाल के लिये थीं
लेकिन हवस ने हमारी आत्मा
कि गठरी बना कर
एक गहरे काले समन्दर में
पत्थरों से बाँध कर फ़ेंक दिया
अब हम चीज़ों से मोहबब्त करते हैं
और इन्सानो का इस्तमाल करते हैं
अपनी तमाम अमानवीय क्रूरताओं के साथ
हर जगह क़ब्ज़ा करती जा रही है
बढ़ती ज़रूरतें और लालसायें।

 लकड़ी को जलने और जलाने में
मासूम चेहरा धुला-धुला सा तन-मन
आज दुनियाँ में जब चाँद पर घर और
अंतरिक्ष में फसल उगा रहे है
सब कुछ बदल रहा है
पर गाँव अब भी वैसा ही है
सुबह से लट्टू की तरह घूमती है
मोमबत्ती सी गलती लड़की
आँखों को जिंदगी दिखेगी कैसे
अगर आँखों में खारा पानी हो
भीगा चूल्हा गीली लकड़ी
कितनी तकलीफ है
लकड़ी को जलने और जलाने में
जैसे बुखार से भरी हुई नसें
आदिवासी स्त्रियों का शोक गीत
भूख की चमक का चढ़ता पारा
वो बतिया रही थी आग से
जल जा न कहे परेसान करती है।

औरत भी शामिल है इंसानो में

आज लोग ज़िन्दगी के बड़े से बड़े हादसे को
सोशल साइट के स्टेटस की तरह देखते हैं
हमारी बिगड़ती जा रही मानसिकता
या ख़त्म होती जा रही इन्सानियत
सतीत्व, शिष्टता, सौन्दर्य
इन शब्दों से नारी का चेहरा उभरता है
पुरुष का नहीं, और पुरुष शिष्ट नहीं हुआ तो क्या
हमारा समाज भी तो पुरूष प्रधान है
नारी को सम्पति मानने वाला पुरुष
नारी जब पूरे कपड़ों में ढँकी रहती हैं
फिर भी कई पुरूषों को नग्न नज़र आती हैं
नारी को उसके अंगों से हटकर सोचने की आदत
बहुत कम पुरूषों में होती है
बहुत छोटी उम्र में 
जब बीमार मानसिकता का पुरूष छूता है
स्कूल में जब शिक्षक महोदय
पीठ पर अजीब तरह से हाथ फेरते हैं
भीड़ भरे रास्ते, बस, ट्रेन
पड़ोस,  मुहल्‍ले, परिवार, रिश्तेदार
हर कहीं कुछ घटता है
और डरी हुई नारी जो
सामना, करना, लड़ना नहीं सीखती
इस भेद-भाव की क्रूरता और
समाज का असली चेहरा नहीं दिखाती
डरती हैं, पति से परिवार से समाज से
लड़की को डरा कर उसे दोषी ठहरती है
तुम्हारे कपड़े, तुम्हारा मेकअप
तुम्हारा हँसना, तुम्हारी दोस्त  
तुम कितनी देर तक बाहर रहती हो
उसके मन में अँधेरा भर देती है
उसे अपने ही जिस्म से डर लगने लगता है
और फिर सीख जाती है बलात्कृत होने के बाद
मुंह बंद रखने का सबक़
माँ ने लड़की को अपने जिस्म को पाकीज़ा
रखने और लड़की होने के कई सबक़ दिये
मगर लड़के को बलात्कार न करने का
और औरत को इंसान मानने का
कोई सबक़ नहीं दिया
संघर्ष से जूझती हुई हालात को टक्कर देती
खुद की तलाश गहरे अँधेरे में
बैचेनी छटपटाहट और कई
सवालिया निशान ?


वजहें बहुत सारी हैं

ख़याल बहुत खूबसूरत होते हैं
भूली नज़्म का न जाने कौन सा हिस्सा
इन ख्यालों की दुनिया भी अजीब होती है
कभी चाहकर भी कुछ नहीं
और कभी न चाहते हुए भी दिल के दरवाज़े पर
एक भीड़ सी लग जाती है
ख्यालों की दुनिया में दिमाग का कोई काम नहीं है
खयालो की एक तवील महक है
रोज सुबह कई मुखोटे डाल कर सब निकलते है
ओर दिन पर सच का मुलम्मा चढ़ाकर
रात की ओर धकेल देते है
और फिर खुद से नज़रे बचा कर उस पर
"दुनियादारी 'का बोर्ड लगा देते है
ख़यालों में जीना ऐसा ही है शायद
जैसे हादसों से भरे वक्त की चादर ओढ़े
आगे बढ़ते जाना
जो बिछड़ गए उनका इंतज़ार और जो साथ हैं
उनकी चहरे की चमक से आँखों की नमी तक  
एक उम्मीद सबसे खूबसुरत है
दुखों के गहरे कुंए में या रास्तों के जंगल में
खो गए लम्हों की यादें
एक दिन जिस्म के साथ ही बुझ जायेंगी
और इन सब के बीच ज़िन्दगी का
शुक्रिया अदा करने की वजहें बहुत सारी हैं।



( रचनाकार-परिचय :

जन्म: भोपाल में
शिक्षा:  पुरातत्व विज्ञान (अर्कोलॉजी ) में स्नातकोत्तर
सृजन: पहली बार कवितायेँ  "कृति ओर "के जनवरी अंक में छपी है।
संप्रति: भोपाल में  अध्यापिका
संपर्क: shahnaz.imrani@gmail.com )
साहित्यकार पिता मक़सूद इमरानी  स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य थे। )

हमज़बान में उनकी कुछ और कविताएं

यह महज़ लघु कथा भर नहीं है

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चित्र : साभार गूगल



लघु कथा : दोस्तों की मेहरबानी चाहिए!

"भैय्या अब मैं आपके साथ नहीं रह सकता!'  लवलेश ने ज्यों ही कहा साशा पर मानो पहाड़ टूट पड़ा. नेज़े से उसके टुकड़े साशा  के बदन में चुभ रहे. साशा और लवलेश ऐसे नामी-गिरामी संस्थान में काम करते  हैं. जिसकी शाखाएं मुल्क में तेज़ी से बढ़ रही हैं. विकास और सामाजिक सरोकार के लिए संस्था काम करती है। लवलेश और साशा छोटे- बड़े भाई हैं. दरअसल एक के हिंदी और दूसरे के उर्दू नाम को देख लोगों को इनका भ्रातृत्व हज़म नहीं हो पाता। लेकिन दफ़तर में तुषार जैसे मित्र साशा की हिम्मत बढ़ाते रहे हैं. उसे किसी तरह की ठाकुर सुहाती कभी रास नहीं आयी भी नहीं।
लेकिन जब साशा ने लव से वजह जाननी चाही, तो पता चला कि तुषार और हरीश नहीं चाहते कि लव मुस्लिम बहुल मोहल्ले में रहे. साशा के आस्तीन से निकल सर्प फुंफकारने लगा.  लव और साशा के आसपास  गणेश शंकर विद्यार्थी, ज़की अनवर की रूह  बेचैन। समय बसंत का था. पलाश के फूल रक्तिम शोले से दहक रहे थे.  दरख्तों से पत्तियाँ झर-झर आँगन में ढेर हो गयीं।
"लव मैं भी तो  श्रीरामपुर में बरसों रहा हूँ और तुम भी मुस्तफाबाद में. ऐसा कुछ  नहीं।  अब समय नहीं रहा कि स्टेशन पर कोई चिल्लाये, हिन्दू पानी ले लो! मुस्लिम पानी ले लो!!"
''भैय्या सब वैसा ही है, जो नहीं दीखता वही खतरनाक होता।"
"अरे नहीं बाबू! तुषार मज़ाक़ कर रहे होंगे। कभी मैं भी उन्हें ठिठोली में संघी तो वो मुझको तालिबानी कह देते हैं. पर मस्त आदमी है तुषार! बिंदास!"
"नहीं भैया सिर्फ तुषार या हरीश जी की  बात नहीं है. सर ने कह दिया है कि मुझे आपके साथ नहीं रहना चाहिए।" 
"  बकवास है?"
"बकवास नहीं भैया सच है!"
"मुझे तो किसी ने नहीं कहा ?"
"आपको कहेंगे भी नहीं!"
दोनों के सामने बॉस के लक-दक लिबास से झांकता व्यक्ति अचानक दानव हो गया. अपने कुटिल मुस्कान से  क्रूरता को भयावह करता रहा.  
____ 

लवलेश ने कमरा ख़ाली कर दिया है. साशा ने  कपडे उतार फेंके हैं. बावजूद जिस्म जल रहा है. जैसा गुजरात की एक बेकरी में ज़िंदा लोग भून दिए गए थे.
 उधर क़ैसर बानो के गर्भ से चीरे गए अजन्मे शिशु की चीख़ नींद को बेदखल करती रही. नफ्ज़ डूबती, तो कभी सांस धावक हो जाती।
किसी तरह उठा और ग़ालिब, मीरा, तुलसी, रसखान, रहीम,  रसलीन, कबीर, सरहपा के सारे दीवानों को चिंदी-चिंदी करने लगा. बुल्लेशाह  चिनाब में कूद चुके थे. दकनी की मज़ार अहमदाबाद में मिस्मार .
इस बीच भगत सिंह कूद पड़े. बोले धर्म के ग्रंथों को फूँक डालो।
ईसा ने टोका, वह पीछे खड़े मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे. फिर जाति , क्षेत्र और भाषा की हिंसा से कैसे मुक्त हो पाओगे। 
ईसा कहीं गुम हो चुके थे. उनकी बात फ़िज़ा में थी, प्रभु इन्हें क्षमा करना यह नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं!
दूर बाम्बियान से बुद्ध की हंसी कानों में घुलती रही.
साशा बुदबुदाया, निदा तुम कित्ता सच कहते हो न ! "हिन्दू भी मज़े में हैं, मुसलमाँ भी मज़े में/ इंसान परेशाँ है, यहाँ भी है, वहाँ भी!"
तुम्हारी ताकीद भी नहीं भूलूंगा 'हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी/  जिसको भी देखना हो कई बार देखना! '
अचानक चीखा साशा,  गुस्ताखी मुआफ़ हो निदा मिआं । आदमी जंगल में खो गया. जानवर अब दफ्तरों और अपार्टमेंटों में हुंकार रहे हैं!




आदिवासियों से ज़रा पूछिए अकाल का होना

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रूखी-सुखी यानी पश्चिमी निमाड़ में अकाल: आदिवासियों का अनुभव
 


दीपाली शुक्ला की मेल से
 एकलव्य से प्रकाशित रूखी-सुखी  किताब पश्चिमी निमाड़ के आम लोगों के अकाल के अनुभवों का एक अनूठा दस्तावेज़ है। इसमें दी गई जानकारी जि़ला पश्चिमी निमाड़ के साकड़ गांव में बसे आधारशिला शिक्षण केन्द्र  में पढ़ने वाले विद्यार्थियों ने साकड़, चाटली, मोगरी व कुंजरी गांव के बड़े-बूढ़ों से पूछकर एकत्रित की है। इस किताब में अकाल के अलग-अलग हिस्सोंड पर चर्चा है। जैसे, अकाल क्यो पड़ा?
मोगरी के रामा भाई ने बताया कि एक बार उन्दडर काल पडा़ था। उस साल चूहे बहुत बढ़ गए थे। चूहों ने सारी फसल खा ली। अनाज भी चूहे खा गए। इसीलिए इसे उन्देर काल कहते हैं। इसी तरह एक साल बहुत बड़ी संख्यान में टिड्डे आ गए थे। टिड्डों ने पूरी फसल खा ली। इस कारण से भी अकाल पड़ा।
आदिवासियों का यह भी मानना है कि नमक को मटके में भर के गाड़ दें तो अकाल पड़ता है।

अकाल में लूटपाट
दूधखेड़ा के जगादार भाई ने बताया कि दिन में भी अनाज चोरी करने लोग आते थे। चोरियों के डर से, जिसके पास अनाज था वह ज़मीन में गाड़कर रखता था। थोड़ा-थोड़ा निकालकर खाते थे।

अकाल की किंवदन्तियां
एक लोककथा ऐसी है कि एक परिवार को एक मक्काा का दाना मिल गया। उस दाने को उबालकर उसका पानी पीते थे। दूसरे दिन फिर से उबालकर उसका पानी पीते थे। एक दिन एक बच्चेर को वह दाना मिल गया। उसने वह दाना खा लिया। तो सारे परिवार के लोग मर गए।












 





आधारशिला शिक्षण के बारे
लोगों की भागीदारी और पहल से इसकी शुरुआत 1998 में हुई। यह एक आवासीय स्कूल है जहां आदिवासी बच्चे पढ़ते हैं। कुछ करते हुए सीखना, अपने समाज की समस्याउओं के साथ जूझते हुए सीखना – यह आधारशिला की पढ़ाई की विशिष्टता है।


 

राम कहते रहे किसने क्या कर दिया

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5  नज़्म और 6 ग़ज़ल




 
















सलमान रिज़वीकी क़लम से
 

नज़में

राम कहते रहे किसने क्या कर दिया

राम आये नगर में तो ये हलचल देखी
जिस शक्ल को पढ़ा उसपे ख़ुशियाँ देखी

शोर नारों से बचकर वो चलते रहे
हर घड़ी कुछ सवालों को बुनते रहे

 क्या हुआ है मेरे घर में मजमा है क्यूँ
नज़रें जैसे पड़ी भीड़ पर उनकी ज्यूँ

देखा कुछ नौजवानों का शोरो फ़ुग़ाँ
थोड़ा आगे बढ़े जल रही थी दुकाँ

मुफ़लिसों और बेचारों के जलते मकाँ
उनकी प्यारी अयोध्या में हर सू धुआँ

तेज़ क़दमों से जब वो महल को चले
रास्ते में लगे जैसे वहशत पले

हर सिम्त में वहाँ पे थे मजमें लगे
उनके अपने महल में थे झंडे सजे
सबकी शक्लों पे ख़ुशियों की वहशत रजे
जैसे हर एक डगर पर थे बाजे बजे

सोचकर जैसे क़दमों से आगे बढ़े
कुछ अवाज़ें थी कानों में कैसे लड़े
फिर दुबारा महल की थे सीधी चढ़े
जिससे मजमें की शक्लों को फिर से पढ़ें

दूर नज़रों ने देखा कहीं पर धुआँ
जल्दी-जल्दी क़दम से वो पहुंचे वहाँ
एक मजमा था उनकी सदा दे रहा
और कहता गिरा दो ये ढाँचा यहाँ

नामे बाबर मिटा दो सदा के लिए
कह दो तैय्यार हैं वो सज़ा के लिए

माँ के माथे का कालिख गिराएंगे हम
राम के नाम को फिर सजायेंगे हम
नामे भगवन का डंका बजायेंगे हम
ए अयोध्या तेरे गीत गायेंगे हम

इतना कहके वो मस्जिद गिराने लगे
उनके क़ायद भी जल्दी से आने लगे
नाम भगवन के सब गीत गाने लगे
उसकी मिट्टी तिलक से सजाने लगे

ज़ोर से शोर उट्ठा फ़लक गिर गया
शर्म से सारे इन्सां का झुक सिर गया
राम कहते रहे किसने क्या कर दिया
मेरी आँखों को आंसू से क्यूँ भर दिया

कौन है ये वहाँ पर जो सब कर रहे
जिससे हर सिम्त इन्सां फ़क़त डर रहे

पाक मेरी ज़मीं पर लहू बह गया
क्यूँ सियासत में इन्सां ज़हर सह गया
सदियों पहले ज़माने से मैं कह गया
देखना था जो कलयुग में ये रह गया

देखते-देखते सारी धरती जली
और सियासत की गोदी में साज़िश पली

मुल्क जलता रहा लोग बढ़ते रहे
सीढ़ियां सब सियासत  की चढ़ते रहे
ख़ौफ़ सारी नज़र में वो गढ़ते रहे
सारे इंसान आपस में लड़ते रहे

सदियों-सदियों का रिश्ता कहाँ खो गया
बोले लक्ष्मण से भाई ये क्या हो गया
कौन रंजिश दिलों में यहाँ बो गया
सारे दिल से मुहब्बत को ख़ुद धो गया
पल में ख़ुशियों का अम्बर कहाँ सो गया
कुछ न बोले लबों से था दिल रो गया

कौन थे मुझसे ही साज़िशें कर गए
मेरी अपनी अयोध्या में लड़ मर गए


काशी गवाह रहना तेरे इम्तेहाँ की ख़ातिर
काशी गवाह रहना तेरे इम्तेहाँ की ख़ातिर
चेहरे बदलके फिर से कुछ लोग आ रहें हैं!
जो लोग तल्ख़ियों के बेताज रहनुमा थे!
गंगा तेरी लहर पे बंसी बजा रहे हैं!

जिनकी सियासतों ने अपनों का घर जलाया!
देवों की सरज़मीं पर एहसास गा रहे हैं!
जन्नत का रास्ता भी जाता हो जिस ज़मीं से!
कुछ लोग उस ज़मीं से इंसाफ़ खा रहें हैं!

गलियों से बुनकरों के करघों की ये सदा है!
कांधों पे लदके अरमाँ जलने को जा रहें हैं!
बहती हुयी लहर पर उपदेश के भिखारी!
सदियों सदी के रिश्ते ख़ुद से जला रहें हैं!

कुछ लोग फिर भी मिलके तूफ़ान के मुख़ालिफ़!
लहरों से लड़के फिर भी कश्ती बचा रहें हैं!
पाकीज़गी मुहब्बत रिश्तों की धड़कने हैं!
बुनकर की उँगलियों से सदियाँ सुना रहें हैं!

 आवाज़े अल्ला हू और ख़ुद शोर घंटियों  के!
अमनों अमाँ की ख़ातिर दिल को मिला रहें हैं!


रोकना है अँधेरे की उस रात को!

जिसने मज़लूम की ज़िन्दगी लूट ली!
हँसते चेहरों से ज़िंदा हँसी लूट ली!
ख़ौफ़ एक रस्म है हर ख़ुशी लूट ली!
दिल के कोनों से हर दिल्लगी लूट ली!

देखिये किस तरह से रिवाजों में है!
जिसका हर जश्न झूठी किताबों में है!
आज वो जेहल क़समें वफ़ा खा रहा!
और मज़लूम झूठे जफ़ा खा रहा!

रोकना है अँधेरे की उस रात को!
रौशनी के लिए ऐसी ख़ैरात को!
बदज़ुबानी लिए है जो बारात को!
कुंद ख़ंजर की मानिंद जज़्बात को!

क़ीमतें लग रहीं हैं ज़बानों की जब!
धज्जियाँ उड़ रहीं हैं ख़िताबों की तब!
गद्दियां बिक रहीं हैं बिसातों में अब!
क्यूँ ख़मोशा हुयी हैं निगाहें भी सब!

आबे गंगा की उस आबरू के लिए!
जिससे बहती है तहज़ीब सदियों सदी!
इज़ज़तें लग गयी हैं फ़क़त दांव पर!
जिसकी माटी में दिखती नहीं है बदी!

क़र्ज़ है आप पर आज मज़लूम का!
जिसकी आहों पे मसनद सजायी गयी!
ख़ुद क़ानूनों की आँखों के हर मोड़ पर!
जश्ने उम्मीद घर-घर जलायी गयी!


इसलिए उट्ठो हर एक ज़ुल्म के लिए!
अपनी मिट्टी की हर आबरू के लिए!
हक़ की हर राह में आरज़ू के लिए!
बेकसों के लिए एक सुकूँ के लिए!


भरोसा ही तो दरिया से मिलाता है मुझे!

लिखने वाले ने ख़ुदी नाम छुपा रख्खा है!
वर्ना बाज़ार में एहसास की क़ीमत क्या है!
एक भरोसा ही तो दरिया से मिलाता है मुझे!
भीड़ के बीच में एक बात की क़ीमत क्या है!
प्यार एक लफ्ज़ है उड़ते हुए परवानों सा!
डूबती फ़िक्र में जज़्बात की क़ीमत क्या है!
राज़ तो राज़ है अंधेर फ़िज़ाओं में मगर!
बिकती आवाज़ में एक रात की क़ीमत क्या है!
भीड़ तोहमत की हो इंसाफ़ भी ठोकर खाये!
झूठ की भीड़ में हर हाथ की क़ीमत क्या है!
आइना देख के मीज़ान पे न तौल ज़मीर!
शख्सियत बेच के इस ज़ात की क़ीमत क्या है!
 

झूठ से कह दो कि ख़बरदार रहे!

फ़सलें अफ़वाह की बोने का वचन चलता है!
मुल्क में ख़ौफ़ दिखाने का चलन पलता है!
कितना मगरूर वो रहबर है ज़माने वालो!
जिसकी नज़रों में यतीमो का वतन जलता है!

 शोर शोहरत का मचाने से नहीं हो सकता!
हक़ की आवाज़ दबाने से नहीं हो सकता!
बचपना लुट गया अब और नहीं खो सकता!
आपकी गन्दी सियासत पे नहीं रो सकता!

 मुल्क में शोर है गद्दी का तलबगार है वो!
ख़ूने मज़लूम बहा कर भी असरदार है वो!
जितने हमदर्द हैं अब ठंडी हवा के सुन लें!
ख़ामशी कहती है ज़ुल्मत में मददगार हैं वो!

 इसलिए खींच दो परदे को ज़माने वालों!
मुल्क की आबरू दुश्मन से बचाने वालों!
सुबह मिट्टी को अंधेरों से दिलानें वालों!
सूलियाँ ख़ुद को रहे हक़ में लगाने वालों!

गुल भी रोता है गुलिस्ताँ में अंधेरों के लिए!
रौशनी ख़ुद भी तरसती है सवेरों के लिए!
उसकी आवाज़ से लर्ज़िश दिले मासूम में है!
कितनी जल्दी है उसे अपने बसेरों के लिए!

 बस्तियाँ क्या थी उसे ख़ौफ़ मज़ारों से भी था!
आपके हस्ते गुलिस्ताँ के नज़ारों से भी था!
वक़्त शाहिद है कि हालात गवाही देंगे!
शामें रंगीन में डूबी सी बज़ारों से भी था!

पत्तियाँ शाख़ की हमदर्द नहीं हो सकती!
बूढ़ी अम्मा अब जवाँ ख़ून नहीं सह सकती!
बुद्ध सा कोई हमारा भी अलमदार रहे!
इसलिए झूठ से कह दो कि ख़बरदार रहे!



ग़ज़लें


1.

सादे कागज़ पे सजाया हुआ डर आपका है!
दिल में मज़लूम के बैठा जो सहर आपका है!

रोटियाँ शाम को चूल्हे पे पकेंगी कैसे!
जब मिला वक़्त बताया है कि घर आपका है!

रास्ते कितने है अंजान मेरी चौखट के!
साठ सालों ने दिखाया जो सफ़र आपका है!

पुश्तहा पुश्त सजाया था जिन्होंने गुलशन!
आज कुछ लोग ये कहते हैं समर आपका है!

कुछ भी हो जाये कहीं कोई भी धुआँ उट्ठे!
उंगलिया कहती हैं ये सारा ग़दर आपका है!


2.

लुट चुके जंगल नदी सूखी कहानी क्या करें!
मुल्क में हर रोज़ लुटती है जवानी क्या करें!

जब किसानों के घरों से आ गये गद्दी नशीं!
है ख़मोशाँ ख़ुद हुकूमत वो सयानी क्या करें!

पत्थरों को काटकर लूटा पहाड़ों को जहाँ!
सुन रही जनता फ़क़त कोरी बयानी क्या करें!

छप रहीं हैं झूठ  के बाज़ार में जब तोहमतें!
ख़ुद क़लम ख़ामोश है या फिर नदानी क्या करें!

जब सियासत की नदी काली में मोती आ गया!
गद्दियाँ ख़ामोश हैं बहती रवानी क्या करें!

है भरोसा मुफ़लिसों को न छिनेगी रोटियाँ!
मुल्क एक आवाज़ है टाटा, अदानी क्या करें!


3.

भूख के एहसास की क़ीमत लगायी जाएगी!
बस इसी के वास्ते बस्ती जलायी जायेगी!

मुल्क में कुछ लोग क्यूँ मायूस दिखते हैं रक़ीब!
इन सवालों के लिए संसद बिठाई जायेगी!

क़ातिलों नें खादियों से ज़ुल्म का पर्दा किया!
झूठ के सरदार को गद्दी दिलायी जायेगी!

शोहरतों की प्यास में इंसान ख़ुद नापाक है!
घोलकर मज़हब उसे मय में पिलायी जायेगी!

सैकड़ों बरसों के रिश्ते को कफ़न में बांधकर!
देखिएगा किस तरह दिल्ली घुमायी जायेगी!

4.

बुज़ुर्ग बोले थे एक अंजुमन में रुक जाना
सुरीले गीत किसी भी दहन में रुक जाना

बताना फूल को शाख़ों से तल्ख़ियाँ क्या हैं
हज़ार आँधियाँ आये चमन में रुक जाना

जहाँ भी जाओगे ख़ुशबू बदन से महकेगी
उरूज कितना भी पाओ वतन में रुक जाना

हमारे मुल्क में बातों की क़ीमतें न रहीं
ज़बान खोलो तो सबके ज़ेहन में रुक जाना

छत कभी आँगन से तोहमतें निकलें
हर एक रंज भुला के सहन में रुक जाना

सियासतें जो कभी प्यार से सिला बख्शें
वतन की याद समेटे कफ़न में रुक जाना

ये पूछना तो सही किस लिए जला गुलशन
जवाब न भी मिले तो हवन में रुक जाना

5.

गद्दियाँ जब उठ के ख़ुद दरबार से घर में गयीं
यूँ समझ लो पैर की थी जूतियाँ सर में गयीं

जब लुटी थी मुफ़लिसों की रोटियों की आबरू
देख लो हालात वो सब ख़ुद बख़ुद डर में गयीं

रहज़नों ने मुल्क में क़ानून को उरियाँ किया
बेगुनाहों की सदा जब रहबरी शर में गयीं

खेत थे खलियान था इज़ज़त और शोहरत पास थी
जल के वो सब नेमतें ख़ुद दूर पल- भर में गयीं

आपकी आवाज़ तो क़ायद ने तन्हा बेच दी
जो बची थी देख लो वो दर बदर- दर में गयी

6.

अलग वजूद की ज़िंदा मिसाल रख देंगे
मिटाने वाले तेरा ख़ुद ज़वाल रख देंगे

नमी लिए हुए सीने में याद ज़िंदा है
ज़माना देखेगा हम फिर कमाल रख देंगे

ये कैसा फ़ख्र है लिपटा हुआ लहू से फ़रेब
तेरे सुकूँ के लिए फिर से लाल रख देंगे

ख़मोश हो गयी मस्जिद की सारी मेहराबें
ज़मीं-जहाँ पे मिले फिर से गाल रख देंगे

जलाया क्यूँ था सियासत की  आग में गुलशन
हज़ार ज़ख्म लिए दिल पे ढाल रख देंगे

अजब सी आस मिटानें की  आरज़ू क्यूँ है
बुझे दिलों में नया सा गुलाल रख देंगे



(लेखक-परिचय:
पूरा नाम:   सलमान रिज़वी आज़मी
जन्म: 15 फ़रवरी 1984 को उत्तर प्रदेश के  आज़मगढ़ में
शिक्षा: शिब्ली महाविद्यालय,  आज़मगढ़ से स्नातक करने के बाद  मुम्बई यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता में मास्टर्स
सृजन: सोशल मीडिया में सक्रिय लेखन
संप्रति:  कुछ दिनों पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद फ़िलहाल खाड़ी देश में नौकरी
संपर्क : ssayyedrizvi@gmail.com)

चुनाव में कवि का बोलना

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ज़ाकिर हुसैनकी क़लम से

तीन कविता एक ग़ज़लनुमा



 1.

सुनो!
मन
व्यथित है
इन दिनों।
वे
हिन्दी फिल्मों की तरह
धीरे-धीरे
'सब्जैक्ट की डिमांड'के नाम पर
'लोकतांत्रिक स्क्रीन'में
'राजनीतिक नग्नता'
परोसते जा रहे हैं
और
इसी क्रम में
अब उन्होंने
भाषणों के झीने वस्त्र पहन
अपनी-अपनी
जुबानों के
'धमकियाते कर्व्स'
और 'नफरती क्लीवेज'
पूरी 'क्लासिकता'के साथ
दिखाने शुरू कर दिये हैं।
अपनी
जन स्वीकार्यता के लिए
वे
पहले ही
एक ऐसा
'विशेष वर्ग'
तैयार कर चुके हैं
जो
उनके इस 'मादक'
प्रदर्शन की डोज से
'उत्तेजनाओं'की 'लहर'पर सवार
'कामुक'दरिन्दा-सा
निकल पडा है
गलियों और सड़कों  पर
कालिजों और दफ्तरों में
गांवों और शहरों की तरफ।
देखना
अब फिर
किसी शहर में डोलती
'सामाजिक एकता'से
'गैंग रेप'किया जाएगा।
देखना
अब फिर
किसी गांव में रहने वाले
'भाई-चारे'की
लाश गिरायी जाएगी।

2.

डरो मत!
कुछ नहीं होगा।
न तुम्हारी दिवाली
मेरे बिना मनेगी
न मेरी ईद
तुम्हारे बिना।
कुछ नहीं होगा।
चुनावों का मौसम है।
इस मौसम में
कुछ लोग
अपनी-अपनी
देह के
कीचड से बाहर
आ ही जाते हैं।
कुछ
तुम्हारे घर की नाली से
निकलेंगे
कुछ
मेरे घर की नाली से।
टर्रायेंगे।
गुर्रायेंगे।
गन्धायेंगे।
फिर
उसी कीचड में चले जायेंगे।
फिर भी
आदत डाल लो इनकी।
जब-जब चुनाव आयेंगे
ये भी पैदा हो जायेंगे।
तुम्हारे ही आजू-बाजू से।
चुपचाप।
अचानक।
अप्रत्याशित।
इतने चुपचाप
कि
तुम इन की पैदाइश न रोक सको।
इतने अचानक
कि
तुम इनकी पैमाइश न कर सको।
इतने अप्रत्याशित
कि
तुम इन्हें सामाजिक न बना सको।
ये
लोकतंत्र की नाजायज संताने हैं।
अविकसित।
असामाजिक।
मानवीय विकास में
पिछडी हुई।
और
इन्सान बनने से
ठीक उसी तरह डरती हैं
जिस तरह
तुम
जानवर बनने से।

3. 

सुनो!
मैं जानता हूं
तुम्हारी
मुझसे कोई दुश्मनी नहीं
दोस्ती भी नहीं
कोई रिश्ता भी नहीं
फ़क़त इसके
कि
हम दोनों
एक ही देश के वासी हैं
समझो तो अर्थ बडा-सा है
न समझो
तो बात जरा-सी है
और
तुम मानो चाहे न मानो
इस बात को तुम भी जान गये
''मैं भारत भाग्य विधाता हूं
मैं कुरसी तक पहुंचाता हूं
बदकिस्मत हूं, मतदाता हूं''

4.

लोग मिलते हैं मिलते रहते हैं
सिलसिले यूं ही चलते रहते हैं.

लाख मुश्किल हो पेट का पलना
ख्वाब आंखों में पलते रहतें हैं.

प्यास से होंट सूख जायें भले
अश्क हैं कि उबलते रहते हैं.

ये हौसला है कुछ दुआओं का
हम जो गिर के सम्भलते रहते हैं.

और क्या खाक इन्तेहां होगी
दिल चरागों से जलते रहते हैं.

जिन्दगी तू भी सोच ले कुछ तो
वक्त सबके बदलते रहते हैं।



(कवि -परिचय:
ज़ाकिर हुसैन 'जवाहर'  नाम से भी लेखन
जन्म:  19 फरवरी 1978 मुराद नगर  ग़ाज़ियाबाद (यूपी)
शिक्षा: हिंदी से स्नातकोत्तर और जामिया मिल्लिया इस्लामिया से मॉस मीडिया में पीजी डिप्लोमा
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख, रपट व कहानी-कविताएं प्रकाशित
संप्रति: जयपुर में एक विज्ञापन कंपनी में हिंदी कॉपी राइटर
ब्लॉग: ख़ामोश बोल (जो पांच सालों से खामोश है)
संपर्क: anjum.zakir@gmail.com)  

हमज़बान पर ज़ाकिर की एक कविता पहले भी आ चुकी है

न रह ख़ामोश ऐ औरत तू कुछ कहती तो अच्छा था

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कल्याणी कबीरकी क़लम से

क़लम  पहले  तो  मेरी  ही  ज़ुबानी  लिखना

क़लम  पहले  तो  मेरी  ही  ज़ुबानी  लिखना
फिर कभी और ज़माने  की  कहानी लिखना

जलन सीने  में अगर हो तो  आग लिख  देना
सुकून  दिल को मयस्सर हो तो पानी लिखना
.
जिसकी अस्मत को किया दाग़दार दुनिया ने
कफ़न मज़लूम का जैसा भी था धानी लिखना

आजमाईश में  मेरे ज़ब्त के चलेँ  खंज़र  
आज इसको भी वफ़ाओं की निशानी लिखना

 जिन्हें  रोटी की  तलब  थी, बारूद ले आये
राह भटकी कहाँ  जंगल में जवानी लिखना

बेबसी में जहाँ दम तोड़ रही उम्मीदें 
वहीं  आँखों में उजालों  की रवानी लिखना



2. 


मेरे अंदर की औरत डर न जाए कहीं
हौसलों से लिखा मज़मूं बदल न जाए कहीं 

परदे से सही पर बोलती तो हैं इस सरज़मीं की बुतें
राहों पे चीखता कारवाँ ठहर न जाए कहीं

कहाँ रुकते हैं रावण अब बड़ी होने तक सीता के
नन्हीं परियों के कानों तक खबर न जाये कहीं

ख्वाब देखना पर नींद से तुम प्यार मत करना
पहुँच के पाँव मंज़िल पर फिसल न जाए कहीं

बर्फ की सिल्लियों से हैं मेरे माँझी के गहरे ज़ख़्म
छुपा के रक्खा है एक दर्द , पिघल न जाए कहीं


3.

न रह खामोश ऐ औरत तू कुछ कहती तो अच्छा था
वतन के आधे नक़शे पे तू भी रहती तो अच्छा था

नहीं उम्मीद रख गैरों से तेरे अश्क़ पोछेंगे
तू अपने दर्द का मरहम खुद ही बनती तो अच्छा था

नज़र आती नहीं फ़सलें ज़मीं पे अब मुहब्बत की
तू बन के पावनी गंगा , यहाँ बहती तो अच्छा था

जो देते हैं सज़ा तुझको तेरे मासूम होने की
उनके शातिर गुनाहों को नहीं सहती तो अच्छा था

तुम्हें बाज़ार में बिकता खिलौना मानते हैं जो
ऐसे बीमार लोगों से नहीं डरती तो अच्छा था

अगर महफूज़ रखना है तुम्हें नामों-निशां अपना
थके-हारे हुए कदमों से भी चलती तो अच्छा था

4.

मेरी चूड़ी, मेरी बिंदी मेरी पहचान है साहिब
रहे आँचल सदा सर पे यही अरमान है साहिब

ना कह जंजीर तू इसको, ये है चाँदी की एक डोरी
मेरे पायल की रुनझुन पे, मुझे गुमान है साहिब

हमीं से जन्म लेते हैं जमीन पे रिश्तों के सरगम
मेरी ममता के आँचल मॆं शिशु का गान है साहिब

मिटा पाना नहीं आसां विदा कर के भी यादों को
अपने बाबुल की बगिया की हम ऐसी शान हैं साहिब

सभी सर को झुकाते हैं , सभी माता बुलाते हैं
वही दुर्गा , वही काली की हम संतान हैं साहिब

मेरे हाथों में है चाबी तुम्हारे दिल के ताले की
तुम्हारी नींद भी हम हैं , तुम्हारी जान हैं साहिब


5. मेरे हिस्से की थोड़ी सी ज़मीं

कब तक नहीं सीखोगे मेरे रुतबे का एहतराम करना
कब तक मेरी पहचान पर अपने नाम का मुहर लगाकर
लेते रहोगे मालिकाना हक़ सिरफिरे ज़मींदार की तरह

मत रौंदों हमारे ख्वाबों को अड़ियल घोड़े बनकर
कि दुखते हैं लब मेरे दर्द का बोझ ढ़ोते-ढ़ोते
मत भटको महज़ बदन की तंग गलियों के भूगोल में
मेरे ज़ज्बात के गणित को भी जरा गुनगुनाओ तुम
निकलो अब हवस की गंध युक्त झाड़ियों के जंगल से

लगाओ एक तुलसी इंसानियत के महक वाली
ताकि बदनाम न हो आदम और हव्वा का ये आदिम रिश्ता
मत मानो तुम हमें अपना मुकम्मल आसमाँ
पर दे दो मुझे मेरे हिस्से की थोड़ी सी ज़मीं
कि अब एक महफूज़ वतन में जीने को जी चाहता है


6. औरत का दिल पीर की कुटिया

धूप की बूँदें चुनकर-चुनकर
मैं चलती हूँ रूककर-गिरकर
ये जीवन है नदी की लहरें
बहती रहती छलछल-कलकल
औरत का दिल पीर की कुटिया
फेंको न तुम कंकड़-पत्थर
देते धोखा बनकर अपने
चलना उनसे बचकर-बचकर
उड़ने के हैं अपने खतरे
ज़मीं पे रहना डटकर-डटकर
जिन पन्नों में छिपे हैं आँसू
उनकी बातें मतकर, बंदकर

7. मेरा अस्त्तित्व


महज कुछ शब्दों की गठरी नहीं है
मेरा अस्त्तित्व
न ही ये हो हल्ला मचाने का एक जरिया भर है
ये है मेरी सोच का हस्ताक्षर
मेरे होने का प्रमाण -पत्र
मेरी जीवन राह् है ये, जो हलचल से नहीं डरती
न ही घबराती है अनवरत जगती रातों से
ये एक रोशनी है
जिसकी छांव मॆं सांस ले रही है सृष्टि सारी
मेरा वजूद मेरे गर्भ मॆं पल रहे शिशु की तरह है
जो पहचान है मेरे स्त्रीत्व की
और
जिसका जीवित रहना
मेरे जीवित रहने से भी ज्यादा जरूरी है

8. औरत ही नहीं गंगा भी हूँ

मैं तुम्हारे हिस्से की औरत ही नहीं गंगा भी हूँ
बैठो किनारे
बतियाओ मेरी छलछलाती लहरों से
रख दो मेरी सीप में अपने सारे ज़ख़्म
बदल दूँगी मैं जिन्हें मुस्कान की मोती में
पाओगे एक अहसास सुकून भरा
डूबोगे पूरे ईमान के साथ मेरे वजूद में


+++++++++++++++++++++

कवयित्री की और रचनाएं हमज़बान पर
       




(रचनाकार परिचय:
 जन्म: बिहार  के  मोकामा, बिहार में  ५ जनवरी  को जन्म
शिक्षा: रांची विश्विद्यालय से स्नातकोत्तर 
सृजन:   हिन्दुस्तान,  दैनिक जागरण,  दैनिक  भास्कऱ, प्रभात  खबर,  इस्पात मेल  आदि  में  रचनाएं। काव्य-संग्रह  गीली धूप  प्रकाशित 
संप्रति:  जमशेदपुर के एक स्कूल में  अध्यापिका के अलावा आकाशवाणी  में  आकस्मिक उद्घोषिका
ब्लॉग: kalyani@kabir
संपर्क: kalyani.kabir@gmail.com)


जंगल से शहर पहुंचा जानवर

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कार्टून इरफ़ान जनसत्ता से साभार





 शहरोज़ की दो अख़बारी फुलझड़ी  


गिरगिट भी हुआ पानी-पानी
जंगल से शहर पहुंचा कोई भी जानवर कहते हैं कि बौखलाहट में और भी खूंख्वहार हो जाता है। दरअसल उसको  संसार की चालाकियां और धूर्त्तताएं भी आ जाती हैं। और जब जंगल का राजा शेर ही अपनी मांद से निकलकर आ जाए। तो कहानी यही है कि अपने इलाक़े  के  कुत्तों को खा और चबा  जाने के बाद महाराज अब नगर-नगर भ्रमण कर रहे हैं। हालांकि  उन्होंने अपने जंगल में गाय, बकरी और भैंसों का सीधे-सीधे कोई अहित नहीं किया। बल्कि  कुत्ते के पिल्लों को  मरवाने में इन्हीं की मदद ली। अब प्रचार भी कर रहे हैं कि उनके राज में बकरी और शेर एक ही घाट पर पानी पीते हैं। लेकिन उन्हें क्या पता था कि  इस संसार में भांति-भांति के जीव-जंतु सदियों से समरसता से रहते आ रहे हैं। वे वसुधैव कुटुंबकम का पालन करते हैं। पर यह शेर इस सूत्र वाक्य को  मानते हुए भी नेता की तरह अपने-अपने ही राज बल का राग गुर्रा रहा है। वह दक्षिण गया तो बोल दिया, हम शेर-वेर नहीं हैं। आप ही के  जैसे पिछड़े वर्ग के हैं। हां राजा बनना चाहते हैं, पर हम पिछड़ो को कोई आगे बढऩे ही नहीं देता। इनकी गुर्राहट कभी झूठ होती नहीं। फिर भी लोग हुआं-हुआं करने लग जाते हैं। यह तो गुस्से में उसकी चमड़े की जबान फिसल जाती है। अब देखिए, दक्षिण में जो बोले, उसे पूरब में आकर बदल दिए। उनके अंदर की  महत्वकांक्षा ने उबाल मार दिया। गुर्राए, साथियो! अब चारा खा व चबा जाने वाली गायें और भैसें भी राजा बनना चाह रही हैं। लेकिन अब जब यही चारा गुट की एक भैंस उनकी  मंडली में शामिल हो गई। तो एक सिंह ने बैर-भाव भुलाकर  एक नेता की तरह उनका फूलमालाओं से स्वागत कर डाला। मालापहनाने वालों को गोबर भर गरियाने वाली भैंस भी तुरंत ही सब कुछ भूल बैठी। इन दोनों का बदलता रंग देखकर गिरगिट भी पानी-पानी हो गया।

श्वान उवाच
शहर में इनदिनों भौकने की आवाज़ हर रात और दोपहर के सन्नाटे को तोड़ती है. जब आप गौर से सुनें, तो इसके कर्कश स्वर विदेशी पॉप सा भान कराएंगे। दरअसल इस वसंत में कुत्ते भी दीवाने हो रहे हैं. हर मजनूँ की तरह यह कुत्ते अपनी लैला की खोज में गली-गली टहलते मिलेंगे। गर लैला न मिली तो उनका कंठ ऐसा फूटता है कि  समझ लीजिये बैजू ही बावरा हुआ जाता है।  वहीँ इनके साथियों का कोरस चौकीदारों की सीटी में अद्भुत मीठास पैदा कर देता है. लेकिन शहर के निगम को कौन समझाए। ख्वाह मख्वाह एंटी रेबीज टीम कुत्तों को पकड़ने में लगी है. जबकि उनकी गर्दन में जैसे ही लोहे की ज़ंजीर पड़ती है, उनका रुदन ढेरों रागों को तुरंता पेश कर देता है. अखबारों में मोटे अक्षरों में खबर छप रही है कि शहर में कुत्तों का आतंक। कई लोगों को काटा! मैं कला प्रिय व्यक्ति यह खबर पढ़ कर परेशान हो गया. मुझे तो उस फलां राँचवी नाम के उस शायर की आवाज़ से अच्छी इन श्वानों के स्वर में कविता लगती है. खैर सोचा कि उनके साथियों से पता किया जाए कि आखिर माजरा क्या है. देर रात जब आवारा गर्दी के बाद घर लौटा तो मेरी बाइक के आगे-पीछे कई श्वानों ने धमाचौकड़ी शुरू कर दी. सभी बेहद उदास थे. मैंने सख्त लहजे में पूछा, तुम सभी आजकल इंसानों को क्यों काटने  लगे हो. किसी नेता की तरह थुलथुल एक श्वान आगे आया. बोला, मौसम का असर हम जानवरों पर भी पड़ता है. लेकिन हैम सिर्फ इसी मौसम में किसी को काट लेते हैं. वो भी जब कोई हमें छेड़ता है तब. लेकिन अभी के चुनावी मौसम में राजनीतिक दलों के लोग हर घर जाकर मिश्री घोलते हैं. आप सभी उनकी बातों से ऐसा मोहित हैं मानों अबकी बार यह नेता जी जीत कर आपकी सारी समस्याओं का समाधान कर देंगे। आप उनका जाप करने लगते हैं. लेकिन जब चुनाव बाद यही नेता पांच वर्षों तक आपको किसी न किसी बहाने काटना शुरू कर देते हैं, तो आपकी बोलती क्यों बंद हो जाती है? बोलिये!  

  

जबर और धनतंत्र के सम्मुख हांफता लोकतंत्र

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लोकसभा चुनाव में टूटते भ्रम 



 



















रजनीश  ‘साहिल’की क़लम से 
 
 

16 मई को जो अद्भुत नजारा पेश  होने जा रहा है.  वह ऐतिहासिक साबित होगा या नहीं यह तो उसी दिन पता चलेगा, लेकिन इस नज़ारे के तैयार होने के पीछे की कहानी ज़रूर आने वाले वक़्त में याद की जाएगी। एक नहीं कई वजहों से। इस बार के लोकसभा चुनाव में कई भ्रम चुनाव ख़त्म होने से पहले ही टूट चुके हैं, फिर चाहे वह मुद्दों में पैदा किया गया हो, चुनावी समीकरणों में बदलाव का भ्रम हो, या मीडिया की निष्पक्षता का भ्रम हो। यह ऐसे भ्रम हैं जिनका गुब्बारा चुनाव शुरू होने के बहुत पहले से ही फुला लिया गया था। इसके अलावा यह चुनाव राजनीतिक दाँव-पेंचों के स्तर में गंभीर गिरावट के लिए भी याद किया जाएगा।
इस बात में कोई दो राय नहीं है इस बार का चुनाव मुख्यतः भाजपा और कांग्रेस के बीच के चुनाव की तरह दिखाया गया है। चर्चा के काबिल जिस तीसरी पार्टी को माना गया वह आआपा है। इसलिए जाहिर है कि बात के केन्द्र में यही तीन पार्टियां मुख्य रूप से आएंगी। अगर चुनाव की शुरुआत से लेकर अब तक के भाषणों पर गौर करें तो कोई भी समझ सकता है कि जिन वादों और सपनों से शुरुआत की गई थी, वह हाथी के दाँत थे, सिर्फ़ दिखाने भर के। चुनाव का अंतिम चरण आते-आते वह वादे, वह सपने कहाँ ग़ायब हो गए और उसकी जगह कैसे एक-दूसरे पर आरोप लगाना, जाति, धर्म, सम्प्रदाय और अहं आ गए इस तरफ कम ही लोगों का ध्यान गया। उनका तो ध्यान न के बराबर जाते हुए दिखा जो शुरुआती वादों की वजह से किसी के समर्थन में उतरे थे। चाहे चुनावी रैलियों में दिये गये भाषण हों या न्यूज़ चैनलों में दिखाई गई बहसें एक-दूसरे पर आक्षेप लगाने और खुद को सही साबित करने के अलावा मूल मुद्दों पर बहस न के बराबर ही दिखाई दी है। यहाँ तक कि किस पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र में क्या है, इस तक पर कोई गंभीर बहस सामने नहीं आई। आई होती तो संभवतः लोगों को समझ आता कि कांग्रेस की जिन नीतियों को कोसती हुई भाजपा खड़ी है, उसकी अपनी नीतियाँ भी एक अलग कलेवर में वैसी ही हैं। तीसरी चर्चित पार्टी के रूप में उभरी आआपा ने भी कांग्रेस और भाजपा के तौर-तरीकों, कार्यप्रणाली के दोष तो गिनाए पर उनकी अपनी क्या नीति है वे भी यह स्पष्ट नहीं कर पाए।
यह बहुत स्पष्ट है कि अधिकांष मतदाताओं की नज़र से लिखित घोषणा-पत्र नहीं गुज़रता। वे उम्मीदवारों के भाषणों और वादों में ही नीतियाँ तलाषते हैं और उन्हीं से मुतासिर होकर अपना समर्थन देते हैं। टीवी पर या समाचार-पत्रों में इन समर्थकों के विचारो और जानकारी पर चर्चा का स्थान बहुत कम है। इस कमी को इस बार सोशल-मीडिया ने दूर किया। फेसबुक जैसा सोशल मीडिया इन दिनों अलग-अलग पार्टी के समर्थकों और उनकी समर्थन पोस्टों से भरा पड़ा है। लेकिन जैसे ही आप इनसे संबंधित पार्टी की भविष्य की योजना, नीतियों या घोषणा-पत्र में शामिल किये गए मुद्दों पर बात करने की कोशिश  करते हैं तो 100 में से कोई एक-दो होते हैं जो इस पर बात करते हैं, जिन्हें इसके बारे में पता है। बाकी समर्थक या तो बगलें झांकने लगते हैं या फिर इधर-उधर से कोई दूसरा बिंदु उठाकर बहस शुरू कर देते हैं। यह समर्थन असल में एक व्यक्ति विशैष में आस्था की तरह है। भाजपा समर्थकों को लगता है कि मोदी सब कुछ ठीक कर देंगे, आआपा समर्थकों को लगता है कि केजरीवाल सब कुछ ठीक कर देंगे। पर कैसे? इसका जवाब उनके पास नहीं है। इस मामले में कहना पड़ेगा कि कांग्रेस और उसके समर्थकों का एक बड़ा वर्ग इस पचड़े से सुरक्षात्मक दूरी बनाए रहा है। उन्होंने सोशल मीडिया पर भाजपा या आआपा की तरह बेलगाम कैम्पेनिंग नहीं की। फिर भी अगर कल्पना की जाए कि सोशल मीडिया पर मौजूद समर्थक एक सरकार चुनेंगे तो जो तस्वीर सामने आती है वह यह है कि ऐसे लोगों का बड़ा वर्ग सरकार चुनेगा जिसे यह भी नहीं पता कि किस पार्टी की क्या नीति और मुद्दे हैं। 

सोशल मीडिया से निकलकर जब प्रिंट या इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की तरफ झांकते हैं तो और भी गंभीर तस्वीर दिखाई देती है। बिना किसी गंभीर विश्लेषण के भी समझा जा सकता है कि यह इलेक्ट्राॅनिक मीडिया का वह दौर है जिसमें राजनीतिक ख़बरों के मामले में तो कम से कम उसने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। अगर यह न भी कहा जाए कि वह बिक गया है तब भी यह तो साफ दिखता है कि उसने संतुलन नहीं बनाया है। अपने समय का 80 प्रतिषत से भी ज्यादा हिस्सा उसने भाजपा को दिया है। बाकी समय में कांग्रेस और आआपा की गतिविधियाँ दिखाई हैं। सपा, बसपा, आरजेडी, जेडीयू, टीएमसी जैसे बड़े दलों का तो जैसे कोई अस्तित्व ही नहीं था उसके लिए। जब तक इन दलों से संबंधित प्रदेशों में मतदान की तारीख नहीं आ गई टीवी पर इनकी गतिविधियां नदारद ही रहीं। वामपंथी दलों के साथ-साथ दक्षिण भारत के राज्यों और वहाँ मौजूद दलों से तो लगभग अस्पृश्य जैसा व्यवहार किया गया है। वहाँ क्या चल रहा है उसके बारे में आज तक टीवी पर कोई ठीक-ठाक ख़बर दिखाई नहीं दी है। नरेन्द्र मोदी की रैलियों, भाषणों के कई-कई रिपीट टेलीकास्ट और अन्य दलों की गतिविधियों को आधा-एक घंटे में निपटा देने के रवैये और मोदी लहर के गुब्बारे में हवा भरने ने इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की छवि पर जो बट्टा लगाया है, उसने उस नींव को हिला दिया है जिसके बूते कहा जाता था कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है।

जहाँ तक मुद्दों की राजनीति और राजनीतिक गंभीरता की बात है तो वह न सिर्फ समर्थकों में बल्कि प्रमुख राजनीतिक दलों में भी नदारद नज़र आती है। अपनी नीतियों या योजनाओं को जनता के सामने रखने की जिम्मेदारी संबंधित दलों और उनके प्रत्याशियों /नेताओं की होती है, पर वे तो एक-दूसरे की टोपी उछालने में लगे हैं। शुरुआत से ही इसे नरेन्द्र मोदी और राहुल गाँधी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के चुनाव के रूप में प्रस्तुत किया गया, बावजूद इसके कि कांग्रेस ने कभी राहुल गाँधी के प्रधानमंत्री होने का हवाला नहीं दिया। यहीं से यह चुनाव लोकसभा चुनाव कम भाजपा और कांग्रेस के बीच खानदानी दुश्मनी की तरह अधिक हो गया। ऐसे युद्ध की तरह हो गया जिसे जीतने के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है। एक राजनीतिक दल द्वारा दूसरे दल पर आरोप लगाना, उसकी आलोचना करना और उसकी नीतियों/कार्यप्रणाली की खामियों पर टिप्पणी करना चुनाव में कोई नयी बात नहीं है, लेकिन इस बार इन सबके बहाने व्यक्तिगत हमले किये जा रहे हैं। जो चुनाव जनता की समस्याओं, जनता के मुद्दों पर लड़ा जाना था वह ‘युवराज’, ‘माँ-बेटे की सरकार’, ‘दामाद जी’, ‘हिटलर’, ‘मौत का सौदागर’, ‘नीच राजनीति’, ‘नीच जाति’ जैसे जुमलों की भेंट चढ़ गया। वाड्रा, अंबानी, अडानी, स्नूपगेट के मुद्दे उठे, वे भी इन जुमलों की गर्द में दब गए। कुल मिला कर इस चुनाव का अंत भी ढाक के तीन पात जैसा रहा। इस बात पर बड़ा जोर दिया गया था कि यह चुनाव मुख्यतः विकास और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केन्द्रित होगा लेकिन हुआ क्या, अंत तक आते-आते विकास और भ्रष्टाचार का मुद्दा कहीं पीछे रह गया और व्यक्तिगत चरित्र पर आकर टिक गया। पिछले चुनावों की तरह साम्प्रदायिकता, जाति समीकरण भी आ ही गए। हालांकि आआपा शुरुआत से अंत तक भ्रष्टाचार के मुद्दे पर टिकी हुई है, वह अब भी व्यवस्था में सुधार की बात करती है और उसे व्यापक जन समर्थन भी हासिल है लेकिन सीटों के अनुपात के मद्देनज़र कांग्रेस, भाजपा को केन्द्र की राजनीति में बराबर की टक्कर देने और इस तस्वीर से बाहर करने में उसे अभी काफी वक्त की दरकार है।
इस बात की भी काफी हवा थी कि यह चुनाव जाति, धर्म, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 


प्रधानमंत्री पद के दावेदार द्वारा कई तरह की टोपियां पहनने के बाद कहना कि ‘अपीज़मेंट पाॅलिटिक्स नहीं करता’, मंच पर राम की तस्वीर का इस्तेमाल करने, अपनी नीच जात का हवाला देने और उनके दल के अन्य प्रत्याशियों द्वारा कहे गये ‘बदला लेंगे’, ‘विरोधी पाकिस्तान भेजे जाएंगे’, ‘आतंकवादियों का गढ़’ जैसे जुमलों के निहितार्थ क्या हैं ये कोई भी दिमागदार व्यक्ति समझ सकता है। साफ़-साफ़ साम्प्रदायिक नज़रिया झलकता है। जहाँ तक जाति समीकरण की बात है तो अलग-अलग राज्यों से आई ऐसी कई ख़बरें हैं जो प्रिंट या इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में कहीं दर्ज नहीं हुईं लेकिन जो स्पष्ट करती हैं कि इस चुनाव में जाति एक महत्वपूर्ण कारक की भूमिका निभा रही है। बिहार में लालू प्रसाद यादव के दोबारा मजबूती हासिल करने, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती को हासिल होने वाली सीटों के कयास, मुख़्तार अंसारी की मौजूदगी में बनारस के मुसलिम वोटों को लेकर लगाए जा रहे कयास ही यह साबित करते हैं कि जाति आधारित वोटों की राजनीति कहीं नहीं गई। जब प्रधानमंत्री पद का घोषित दावेदार ‘नीच राजनीति’ का उल्लेख करते जुमले को अपनी नीच जाति पर हमले में बदल सकता है तो स्थानीय स्तर पर जाति की राजनीति का क्या स्तर होगा और सभी दल उसमें किस हद तक लिप्त होंगे इसकी बस कल्पना भर की जा सकती है।

कुल मिला कर यह चुनाव पिछले चुनावों से किसी कदर अलग नहीं है। न ही यहाँ मुद्दों की राजनीति हो रही है और न ही वोटर को जाति, धर्म से अलग करके देखा जा रहा है। जिन भी बिंदुओं को लेकर इस चुनाव के पिछले चुनावों से अलग होने की बात की जा रही थी, वे बिंदु वास्तविक धरातल पर कहीं नज़र नहीं आ रहे। चुनाव की शुरुआत के वक़्त जिन गुब्बारों में हवा भरी गई थी, उनकी हवा परिणाम आने के पहले ही निकलती जा रही है। एक-एक कर भ्रम टूटते जा रहे हैं।

 

(परिचयः
जन्मःमध्य प्रदेश के अशोकनगर ज़िले के ग्राम ओंडेर में 5 दिसंबर 1982 को।
शिक्षाः स्नातक।
सृजनःजनपथ, देषबंधु, दैनिक जनवाणी, कल्पतरु एक्सप्रेस व कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं, वेब पोर्टल्स में रचनाएँ प्रकाशित
संप्रतिःस्वतंत्र पत्रकार व ग्राफिक आर्टिस्ट
ब्लाॅगःख़लिश
संपर्कःsahil5603@gmail.com  09868571829)

  

अंत तक आते-आते भ्रष्ट आचरण ने गोल-गप्पा कर दिया विकास @ चुनाव

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वैमनस्य,  नफरत व घृणा के सबसे अहम  प्रतीक
सबसे बड़े पद के सबसे बड़े दावेदार



















मनोरमा सिंहकी क़लम से

 2014 लोकसभा चुनाव खत्म हो गए अब 16 मई का इंतजार है जब मतगणना शुरू होगी और नतीजे सामने आएंगे। वैसे चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों, ओपेनियन पोल और चैबीसों घंटे समाचार चैनलों पर चल रहे बहसों पर यकीन करें तो नरेन्द्र मोदी नतीजों से पहले ही प््रधानमंत्री बन चुके हैं और भाजपा-एनडीए की सरकार के शपथ लेने की औपचारिकता ही बस बाकी है। कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर में चल रही है और बाकी दलों का अकेले अपने दम पर कोई दावा बनता ही नहीं है, वाम दल खुद अपने आप को किनारे ढ़केल चुके हैं, तीसरा मोर्चा अगर एक संभावना हो भी तो ये चुनावी नतीजों के बाद ही सामने आएगा। पूरा चुनाव गुजर गया लेकिन भाजपा और कांग्रेस के बरक्स तीसरे मोर्चे की बात हवा-हवाई ही रही ना कि एक ठोस हकीकत। सच कहा जाए तो तीसरा मोर्चा चुनावी नतीजों के बाद अलग-अलग क्षेत्रिय दलों और उनके क्षत्रपों के हितों और उनकी निजी महत्वकांक्षाओं को साधने का जरिया से ज्यादा कुछ नहीं है इसलिए जनता भानुमति के इस कुनबे के बजाए एनडीए या यूपीए पर ज्यादा भरोसा करेगी। बहरहाल, इस चुनाव में अरविंद केजरीवाल और उनकी उनकी आम आदमी पार्टी ने जरूर एक विकल्प के तौर पर दस्तक दिया है पर ये अरविंद और उनके समर्थकों को भी पता है कि अगली संसद में उनकी मौजूदगी प््रतिरोध के तौर पर होगी जिसकी ताकत उन्हें मिलने वाली सीटों पर निर्भर करेगी, जो फिलहाल बहुत ज्यादा तो नहीं ही नजर आ रही हैं।
बहरहाल, इस चुनाव के परिप्रेक्ष्य में ज्यादा गंभीर सवाल कुछ और ही हैं और उसकी चर्चा ज्यादा जरूरी है। ये सच है कि चुनाव की आहट के साथ देश के राजनीतिक माहौल और घटनाक्रमों ने अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों को आतंकित किया है। चुनाव अभियान के दौरान की कई बयानबाजियां भी सौहार्द पैदा करने वाली कतई नहीं रहीं। सबसे बड़ी बात मौजूदा भारतीय राजनीति में वैमनस्य,  नफरत व घृणा के सबसे अह्म प््रतीकों में से एक  फिलहाल प््रधानमंत्री पद के सबसे बड़े दावेदार हैं।

मुसलमान 2002 गुजरात भुले नहीं हैं, उनका डर सही साबित हुआ जब भाजपा की ओर से गुजरात दंगों की पटकथा लिखनेवाले नामों में से एक अमित शाह को उत्तर प््रदेश का चुनाव प््रभारी बनाने के साथ पश्चिमी उत्तर प््रदेश दंगों की आग में जल उठा। और अभी हफ्ता भर पहले ही उत्तरपूर्व के इलाकों में बयानों और राजनीतिक विरोध की परिणति अल्पसंख्यकों की हत्या के रूप में हुई। जाहिर है इस डर को हम कितना भी समझने का दावा करें लेकिन इस अनुभव की चपेट में आए और आ सकने वाले लोगों की तरह नहीं समझ सकते। नहीं तो अभी बात होनी चाहिए थी हाशिये  पर रखे लोगों को मुख्यधारा में लाने की, उनकी भागीदारी की। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट के मुताबिक मुसलमानों की बड़ी आबादी अभी भी बहुत पिछड़ी हुई है, शिक्षा और रोजगार उन्हें उपर लाने के लिए बहुत जरूरी है, हालांकि दलितों  के मुकाबले वो बेहतर हैं पर ओबीसी से पिछड़े हुए हैं। कुल आबादी में मुसलमान 13 फीसद से ज्यादा हैं पर उनकी राजनीतिक भागीदारी केवल 5 फीसद के करीब है। ऐसे में राजनीतिक दलों की प््राथमिकता मुसलमानों समेत विकास की दौड़ में पीछे छूट गयी सभी जातियां और समुदाय होने चाहिए थे, उनके लिए नीतियों, योजनाओं को चुनावी घोषणापत्रों और चुनावी बहसों में जगह मिलनी चाहिए थी पर ऐसा हुआ नहीं। सबसे बढ़िया उदाहरण बिहार के लालू प््रसाद यादव का है जो भ्रष्टाचार के आरोपों और जेल जाने के बाद भी और अपने कार्यकाल में बिहार को विकास के हर मापदंड पर सबसे पिछले पायदान पर रखने के बावजूद धर्मनिरपेक्षता की गोटी खेलकर अपनी राजनीतिक जमीन पाने जा रहे हैं और शायद उन्हें कामयाबी भी मिल जाएं।       


दरअसल, नरेन्द्र मोदी के प््रधानमंत्री बनने का सोचकर ही देश की एक बड़ी आबादी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के सवालों को लेकर इस कदर आशंकित है कि कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार और घोटालों की तमाम कहानियों को नजरअंदाज करने को मजबूर है। नरेन्द्र मोदी और भाजपा को रोकना है , पर विकल्प कोई नहीं है, जबकि राहुल गांधी की जमीनी स्तर पर राजनीति करने की तमाम कोशिशें और उनके लिए प्रियंका गांधी के पूरे दम-खम के साथ मैदान में कूद पड़ने से भी यूपीए सरकार की छवि पर से घोटालों की कालिख साफ नहीं होने वाली और ये भी कैसे भूलना चाहिए कि इसमें एक बड़ा नाम तो खुद प्रियंका के पति राबर्ट वाड्रा का भी है? लेकिन जब राष्ट्रीय राजनीति में अपनी मौजूदगी के बावजूद वामदल, तीसरा मोर्चा खुद किनारे होते जा रहे हों और आम आदमी पार्टी इस चुनाव में सरकार बनाने के दावों के साथ उतरी ही नहीं थी। ऐसे में विकल्प नरेन्द्र मोदी बरक्स राहुल गांधी, सोनिया गांधी ही हैं, जाहिर है तब मोदी का ही पलड़ा भारी है।

यहां ये भी विमर्श योग्य है कि  पूरी आबादी में 13 फीसद से ज्यादा होने के बावजूद और आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी खुद मुसलमानों में से अपना कोई मजबूत नेतृत्व उभर कर सामने क्यों नहीं आया, जिस तरह से दलितों में से कांशीराम और मायावती आए और क्षेत्रिय राजनीति में अन्य पिछड़ी  जातियों के प््रभावशाली नेता। मुसलमानों के नुमाइंदे लगातार इन्हीं दलों के साथ कभी राष्ट्रविरोधी तो कभी तुष्टिकरण के आरोपों के बीच में अपनी राजनीति करते रहे हैं। अलग से नेतृत्व देने के नाम पर धार्मिक नेता हैं,  जो अपने समीकरणों व निजी संबंधों की आड़ में कभी भाजपा को वोट देने का फतवा जारी करते हैं तो कभी कांग्रेस को।
इस चुनाव ने सांप््रदायिकता और दो अलग धार्मिक समुदाय के बीच सौहार्द के सवाल को इतना बड़ा कर दिया गया है कि मंहगाई, शिक्षा, रोजगार और भ्रष्टाचार व घोटालों पर चर्चा और बहस सिरे से गायब है। ये अजरज की बात नहीं कि जिस भ्रष्टाचार और लोकपाल के मसले को लेकर अरविंद केजरीवाल की राजनीति शुरू हुई थी और जिसके बल-बूते वो दिल्ली की राजनीति में शिखर तक पहुंचे, चुनाव का अंतिम चरण आते-आते उनकी बातचीत और बहस के केन्द्र में भी केवल भ्रष्टाचार का मसला नहीं रह गया, वो भी बार-बार ये साबित करने की कोशिश में दिखें कि उनकी राजनीति भी धर्मनिरपेक्ष राजनीति है। इसमें कोई दो राय नहीं कि  सांप्रदायिकता बहुत अहम सवाल है और अल्पसंख्यकों के लिए सबसे जरूरी मसला है पर यहां सवाल ये भी है कि आखिर क्यों सांप््रदायिकता फिर एक बड़ा खतरा है और धर्मनिरपेक्ष मूल्य संकट में?
औसत भारतीय अपने स्वभाव से धर्मनिरपेक्ष हैं,  लेकिन इस चुनाव ने धीरे-धीरे जिस तरह के राष्ट्रवाद की जमीन तैयार की है वो जरूर चिंता का विषय है.  खासतौर पर पढ़े-लिखे खाते-पीते मध्यमवर्ग के बीच। इसलिए लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखनेवाले बहुसंख्य लोग इस बात को सहजता से नहीं ले पा रहे। हालांकि एक तर्क ये भी है कि भारत में लोकतंत्र की जड़ंे बहुत मजबूत हैं.  यहां बड़े-बड़े तानाशाहों को भी जम्हुरी तौर-तरीके अपनाने ही पड़ते हैं, इंदिरा गांधी और आपातकाल और उसके बाद का दौर इतिहास में ज्यादा पुरानी बात नहीं है। इसलिए मोदी से भी नहीं डरना चाहिए, अगर उन्हें बहुमत मिलता है, तो उसका सम्मान किया जाना चाहिए और अपने लोकतंत्र पर भरोसा रखना चाहिए। पर दूसरी ओर ये भी दिख रहा है कि एक नरेन्द्र मोदी के लिए भाजपा खुद उनके आगे कितना झुक गयी है। मोदी के कद के आगे भाजपा का कद बौना हो चुका है, साथ ही पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं को भी किनारे कर दिया गया जो कि नहीं होना चाहिए था। इससे मोदी के काम करने के तरीकों के बारे में संकेत तो मिल ही जाता है। हांलाकि ये भी सच है कि कौन पार्टी सांप््रादायिक नहीं है? कांग्रेस चैरासी और भागलपुर  के दंगों की गुनहगार है, तो गुजरात के 2002 के दंगों के लिए भाजपा और नरेन्द्र मोदी। और मुसलमानों के सबसे बड़े नेता कहलाने वाले समाजवादियों के राज में हाल ही में मुज़फ़्फ़र नगर में दंगे हुए हैं। वैसे कहने वाले ये भी कहेंगे कि जहां तक कांग्रेस पर लगे भ्रष्टाचार  के आरोपों और घोटालों की बात है तो इस मामले में दूसरे दलों का रिपोर्ट कार्ड भी कांग्रेस जैसा ही है। दूसरी ओर कांग्रेस की बात करें तो 2014 लोकसभा चुनाव की एक और खास बात, नौ साल से ज्यादा प्रधानमंत्री रहने के बावजूद मनमोहन सिंह का चुनाव अभियान से लगभग किनारे रहना और सार्वजनिक मंचों पर कुछ बोलने के लिए कहीं नजर नहीं आना भी है। प््रधानमंत्री जैसी शख्सियत को चुनाव अभियान में हाशिये पर कर दिया जाना क्योंकि वो नेहरू-गांधी खानदान से नहीं हैं, कंाग्रेस की संस्कृति पर टिप्पणी है।


(रचनाकार परिचय:
 जन्म: 11 जनवरी 1974 को बेगुसराय (बिहार) में
शिक्षा: स्नातक, भूगोल, बीएचयू,  स्नातकोत्तर हिन्दी, दिल्ली  विश्वविद्यालय, जनसंचार और पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा  इग्नू  से 
सृजन: ढेरों पत्र- पत्रिकाओं में लेख, रपट प्रकाशित 
संप्रति: सात-आठ साल दिल्ली में प्रिंट और एक टीवी प्रोडक्शन हॉउस की नौकरी करने के बाद फिलहाल बंगलूरु में रह कर   पब्लिक एजेंडा के लिये दक्षिण के चारों राज्यों की रिपोर्टिंग
संपर्क: manorma74@gmail.com) 



असग़र अली इंजीनियर के बिन एक बरस

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गैर बराबरी के खिलाफ एकजुट होकर लड़ना होगा





 
















ज़ुलेख़ा जबींकी क़लम से


हमारा संघर्ष यही होना चाहिए कि दुनिया में सामाजिक न्याय हो, भेदभाव खत्म हो, सबके साथ इंसाफ हो, सबकी जरूरतें पूरी हों. और हमें इस लड़ााई को लड़ते रहना है, सभी के साथ मिलकर, लगातार. ऐसा नहीं कि मैं सिर्फ इस्लाम के नाम पर लडूं, आप सिर्फ हिंदू धर्म के नाम पर लडें़, कोई बौद्ध धर्म के नाम पर लड़े, नहीं।  हम सबको साथ आना चाहिए. क्योंकि हम, आप और बाक़ी बहुत सारे यही कह रहे हैं कि सामाजिक न्याय हो, बराबरी हो, गैर बराबरी खत्म हो, जो इस गैर बराबरी को बढ़ावा देने वाले हैं उन सभी के खिलाफ हमें एकजुट होकर लड़ना होगा. यही देश भक्ति है और सबसे बड़ी इबादत भी.
                                                                                     डॉ. असग़र अली इंजीनियर

दुनिया में कट््टरपन के खिलाफ सदभावना के लिए, मजहबी नफरत के खिलाफ अमन के लिए, सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ बहनापे और भाईचारे के लिए, सामाजिक अन्याय के खिलाफ इंसाफ के लिए आजीवन संघर्षरत डॉ. असग़र अली इंजीनियर को गुज़रे 14 मई को एक बरस हो गए . मगर इंसानी समाज में इंसानियत की स्थापना के लिए, मोहब्बत की जो मशाल उन्होंने जलाई है,  वो रहती दुनिया तक क़ायम और रौशन रहेगी. हर तरह के कटटरपन और सामंतवाद के खिलाफ  उन्होंने अपनी आवाज बुलंद की है. अपनी कलम के जरिए, शिक्षण और प्रशिक्षण के जरिए, सभाओं, गोष्ठियों, सेमीनार, कार्यशालाओं के जरिए, आम जनता के नजदीक पहुंचने के हर संभव तरीकों और माध्यमों का इस्तेमाल वे अपने आखिरी दम तक करते रहे हैं.

जातिवादी नफरत के खिलाफ उनकी कलम की धार पीड़ितों के पक्ष में हमेशा तेज रही. डॉ. असग़र  हिंदोस्तानी गंगा-जमनी तहज़ीब, संप्रभुता और विविधता में एकता के जबरदस्त हामी रहे हैं. वे हमेशा कहा करते थे “बेशक आस्था जरूरी है मगर जब आस्था अंध विश्वास की शक्ल ओढ़ लेती है तब वह इंसानी समाज के लिए खतरनाक हो जाती है.” और यहीं से शुरू होती है वो जंग जिसका रास्ता और तरीक़ा असगर अली इंजीनियर ने हम सबको दिखाया  है.

सेंटर फार स्टडी आफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के अध्यक्ष और इस्लामिक विषयों के प्रख्यात विदवान डॉ. असग़र अली इंजीनियर की पहचान मजहबी कटटरवाद के खिलाफ लगातार लड़ने वाले योद्धा के तौर पे मानी जाती रहेगी. उनका मानना था कि दुनियां में जहां पर भी इस्लाम के मानने वालों पर जुल्म हुआ है, वहां के लोग लड़ाई के लिए उठ खडे हुए हैं. वे मानते हैं कि
'कट्टरपंथ मजहब से नहीं सोसायटी से पैदा होता है'.  उनकी राय में 'भारतीय मुसलमान इसीलिए अतीतजीवी हैंे क्योंकि यहां के 90 फीसदी से ज्यादा मुसलमान पिछड़े हुए हैं और उनका सारा संघर्ष दो जून की रोटी के लिए है. इसलिए उनके भीतर भविष्य को लेकर कोई ललक नहीं है’. यही नहीं, हिंदू कट्टरपंथ की वजह बताते हुए वे कहते है कि 'जब दलितों, पिछड़ों व आदिवासियों ने अपने हक मांगने शुरू किए तो ब्राहमणों को अपना पावर खतरे में नजर आया और उन्होंने मजहब का सहारा लिया, ताकि धर्म के नाम पर सबको साथ जोड़ लें, लेकिन ये सोच कामयाब होती नजर नहीं आ रही है.  इसलिए उनका कटटरपंथ और तेजी से बढता जा रहा है. ताकि वह जरूरी मुददों से लोगों का ध्यान हटाएं और हिंदू धर्म के नाम पर सबको एक करने की कोशिश करें. और यही इसकी बुनियादी वजह है’.
जब दुनिया में इस्लामी आतंकवाद का प्रोपेगंडा अपने चरम पे था, हमारे मुल्क के अंदर भी मुसलमानों को लेकर शक-ओ-शुबहा बढ़ने से बेगुनाहों पर सरकारी जुल्म बढने लगे और सांप्रदायिक दंगों में जानो माल का इकतरफा नुकसान, बेकुसूर नौजवानों की गिरफतारी, झूठे मुकदमे, फर्जी एनकाउंटर बढ़ने लगे, समाज में आपसी नफरत बढ़ने लगी और मुस्लिम समाज दहशत की वजह से खुद अपने में सिमटने लगा, और कुछ स्वार्थी राजनैतिक तत्वों के जरिए, सुनियोजित तरीके से फैलाई जा रही नफरत से निपटने के लिए, शिक्षण प्रशिक्षण के ज़रिए, समाज मेें समरसता, बहनापा, भाईचारा क़ायम करने डॉ. इंजीनियर ने आल इंडिया सेक्युलर फोरम (प्ैथ्) की शुरूआत की. जिसमें उनके अलावा देश की कई जानी पहचानी सेक्यूलर हस्तियां शामिल हुईं. इसके साथ ही देश में किए जा रहे सांप्रदायिक दंगों के पीछे की असलियत जानने के लिए उन्होंने खुद ही जांच दल गठित कर, घटनास्थलों में जाकर तफतीश की, रिपोर्ट तैयार की और संबंधित विभागों, राज्यपालों व केंद्र और राज्य सरकारों को सौंपी.

मुल्क में बढ़ती जा रही मजहबी कटटरता पे उनका स्पष्ट मानना रहा है कि कटटरपंथ मजहब से पैदा नहीं होता वह मौजूदा समाज से पैदा होता है. बडी बेतकल्लुफ़ी से वे बताते, आज से क़़़़रीब 70 बरस पहले देश में मुस्लिम लीग की मज़़़बूती के पीछे भी यही वजहें थीं. क्योंकि उस वक्त जो मुस्लिम एलीट वर्ग यूपी, बिहार वगैरह का था, उसको लगा कि आज़़़़़़़़़़ाद हिंदोस्तान में उसके हाथ से सत्ता निकल जाएगी . इसलिए वे मुस्लिम लीग में गए उन्हें लगा कि लीग उन्हें और उनके प्रभुत्व को बचा लेगी. और लीग ने पाकिस्तान बनवा डाला और यहां का एलीट क्लास ये सोचकर पाकिस्तान चला गया कि वहां उनका भविष्य महफूज़़़़ रहेगा. मगर वहां की हक़़़ीक़़त आज हमारे सामने है कि धार्मिक कटटरपंथ के एवज़ बने किसी देश का भविष्य कितना अंधकारमय होता है. यही हिंदू कटटरपंथियों के साथ हो रहा है. वे सोचते हैं कि अगर वे हिंदू धर्म का सहारा नहीं लेंगे तो ये दलित, पिछड़े, आदिवासी सब सत्ता में आ जाएंगे और इसीलिए इन सबको सत्ता के पावर से दूर रखने के लिए हिंदू धर्म की बात करते हैं. वे कटटरपंथ की बात मजहब का नाम लेकर करते हैं ताकि बहुसंख्यक जन उनके साथ जुड़ जाए.
डॉ. इंजीनियर लोकतंत्र में अटूट विश्वास रखने वालों में रहे हैं. वे कहते हैं 'चूंकि यहां लोकतंत्र है और दलित, पिछड़े भी इसे समझ रहे हैं कि वे लोकतांत्रिक तरीके से ही इसका मुकाबला कर सकते हैं. अगर आज लोकतंत्र न रहे और इस तरह की राजनीति बेखौफ बढती रहे तो वे सबको जेल में डाल देंगे, फांसी चढा देंगे, गोली मार देंगे, और फिर सब चुप हो जाएंगे तब तक के लिए, जबतक फिर से लोकतंत्र नहीं आ जाता..'
डॉ. इंजीनियर ने औरतों खासकर मुस्लिम औरतों के आर्थिक सामाजिक हालात सुधारने के लिए बहुत काम किया है. उन्होंने अपनी क़लम से मजहब के उन स्वयंभू ठेकेदारों के खिलाफ आवाज बुलंद की है जिन्होंने मुस्लिम औरतों के कुदरती, इंसानी हक़ मजहब के नाम पर दबा रखे हैं. इसके लिए उन्होंने  'क़ुरआन में औरतों के हक़’ नाम से एक किताब भी लिखी।  साथ ही इस विषय पे बाकायदा प्रशिक्षण शिविरों का भी आयोजन पूरे मुल्क में किया. डॉ. साहब चाहते थे कि मुस्लिम समुदाय में से ही उच्च शिक्षित खातून आगे बढ़ें और अरबी का ज्ञान हासिल करें ताकि क़ुरआन में दिए गए अपने हक़ूक़ मर्दवादी समाज से हासिल कर सकें. बतौर भाषा अरबी सीखने और सिखाने के लिए अंग्रेजी, उर्दूू और हिंदी का प्राइमर भी तैयार कर चुके थे और इसका इंतेजाम उन्होंने बांबे स्थित अपने आफिस में कर भी रखा था. ताकि बाहर से आई हुई कुछ चुनिंदा खातून इसमें महारत हासिल कर सकें. लेखिका को भी आपने अपनी मंशा से न सिर्फ अवगत कराया था बल्कि उनके पास रहकर अरबी की पढ़ाई पूरी करने का आफर भी दिया था. उनका ख्वाब था कि कुछ हिंदोस्तानी ख्वातीन सामाजिक न्याय, बराबरी और औरतों के हक़ुक़ से संबंधित कुरआन के रौशन पहलू को तर्जुमे के साथ आमजन तक पहुंचाने का जिम्मा उठाएं..

वे कहते हैं कि 'जब समाज हमेशा एक सा नहीं रह सकता बदल जाता है, तो उसके क़वानीन (क़ानून) एक से कैसे रहेंगे ? उन्हें भी समाज में होने वाले बदलाव के साथ बदलना ही होगा’. बेशक डॉ. इंजीनियर आज हमारे बीच नहीं रहे मगर इंसानी दुनिया से नफरत, गैर बराबरी और बेइंसाफी मिटाने के लिए, किए गए उनके तमाम काम और काविशों का बोलबाला कायम रखने के लिए, उनके छेडे़ गए जिहाद के बिगुल को सांस देेने की जरूरत है. यही डॉ.असग़र अली इंजीनियर को सच्ची ख़िराजे अक़ीदत (श्रद्धांजलि )होगी.



(लेखिका-परिचय:

जन्म:9 अगस्त 1977, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में

शिक्षा: अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर तथा पत्रकारिता व जनसंचार में उपाधि

सृजन: मानवाधिकार पर प्रचुर लेखन-प्रकाशन, देशबंधु में कुछ वर्षों नियमित रिपोर्टिंग, कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित 

संप्रति: कई प्रमुख महिला संगठनों में सक्रिय और स्वतंत्र लेखन

संपर्क:Jabi.Zulaikha@gmail.com)



लेखिका का छत्तीसगढ़ पर लेख  हमज़बान पर ही

उत्तर प्रदेश में लहर के मायने

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सपा, बसपा और हमारी भूमिका















कॅंवल भारती की क़लम से

 उत्तर प्रदेश में लोकसभा-2014 के चुनाव-परिणाम इसलिये नहीं चैंकाते हैं कि भाजपा की इतनी बड़ी जीत अप्रत्याशित थी, बल्कि इसलिये चैंकाते हैं कि इसने बसपा का सूपड़ा साफ कर दिया है और सपा को पाॅंच सीटों पर समेट दिया है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा-बसपा की इस शर्मनाक पराजय के दूरगामी अर्थ हैं। कुछ चिन्तकों का कहना है कि मोदी की लहर ने जाति और धर्म की राजनीति को खत्म का दिया है। किन्तु यदि ऐसा सचमुच होता, तो भाजपा को इतनी बड़ी जीत कभी हासिल नहीं हो सकती थी। जाति-धर्म से मुक्त राजनीति की जीत तब तो मानी जा सकती थी, जब यदि आम आदमी पार्टी को यह सफलता हासिल हुई होती। पर भाजपा की इस जीत का अर्थ ही यह है कि जनता ने जाति और धर्म के नाम पर भाजपा के पक्ष में मतदान किया है। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि संघ परिवार और मोदी की टीम ने मिलकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणवाद का पुनरुद्धार किया है? किन्तु इस पुनरुद्धार के लिये अगर कोई जिम्मेदार है, तो वह है सपा-बसपा का नेतृत्व, जिसके पास भाजपा से लड़ने के लिये कोई कारगर राजनीतिक हथियार नहीं था। मुलायमसिंह यादव ने मोदी को मुस्लिम-विरोधी बताकर राजनीति की, तो मायावती ने उन्हें दलित-विरोधी बताकर, और इसी राजनीति ने हिन्दू मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकृत करने का काम किया। सवाल यह नहीं है कि भाजपा और मोदी मुस्लिम-दलित-विरोधी नहीं हैं, सचमुच वे हैं। पर बात सिर्फ इतनी भर नहीं है। यह बहुत ही छोटा नजरिया है, उन्हें देखने का। भाजपा, मोदी और संघपरिवार को इससे बड़े नजरिये से देखा जाना चाहिए था। यह नजरिया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का होना चाहिए था, जो एक फासीवादी अवधारणा है। दलित और मुस्लिम-विरोध तो इस राष्ट्रवाद का छोटा-सा हिस्सा भर है। यदि इस नजरिये से मायावती और मुलायम सिंह ने भाजपा, मोदी और संघपरिवार के विरुद्ध जनता में एक वैचारिकी विकसित की होती, तो शायद भाजपा के लिये दिल्ली अभी आसान नहीं होती। लेकिन यह काम वे इसलिये नहीं कर सके, क्योंकि इसके लिये जिस पढ़ाई-लिखाई की जरूरत है, वह न सपा-मुखिया मुलायमसिंह यादव के पास है और न बसपा-सुप्रीमों मायावती के पास है। दोंनों पार्टियों के नेता जब रैलियों और अन्य मंचों पर बोलते हैं, तो वे कहीं से भी पढ़े-लिखे नजर नहीं आते। वैचारिकी तो एकदम सपा नेताओं के पास नहीं है। वे सिर्फ नाम के समाजवादी हैं, उसकी ए, बी, सी तो दूर, ‘ए’ भी ठीक से नहीं जानते हैैं। उन्हें सुनकर लगता ही नहीं कि वे समाज और राजनीति में कोई बदलाव चाहते हैं।
जिस निर्भया के बहाने बलात्कार के विरुद्ध कड़े कानून बनाने के लिये देश-व्यापी जनान्दोलन हुआ, वहाॅं मुलायमसिंह यादव अपनी चुनावी रैलियों में यह कह रहे थे कि ‘बच्चे हैं, गलती हो जाती है, तो क्या उन्हें फाॅंसी दे दी जाय?’ पूरे देश की महिलाओं ने मुलायमसिंह के इस बेहूदे और शर्मनाक बयान को स्त्री-विरोधी बयान के रूप में लिया और उन्हें एक सम्वेदनहीन अयोग्य शासक के रूप में देखा। इसी तरह जब सपा नेता आजम खाॅं ने कारगिल की जीत को मुस्लिम सैनिकों की जीत कहकर इस इरादे से अपनी पीठ ठोकी कि मुसलमान  खुश होकर उन्हें अपने कन्धों पर बैठा लेंगे, तो वहाॅं उनकी ‘तालीमी जहालत’ ही ज्यादा नजर आ रही थी, जो यह नहीं समझ सकती थी कि उन्होंने अपनी समाजवादी राजनीति की ही कब्र नहीं खोद दी है, बल्कि मुसलमानों को भी मुख्यधारा से दूर कर दिया है। यह इसी का परिणाम हुआ कि न सिर्फ मुसलमानों में इसकी अच्छी प्रतिक्रिया नहीं हुई, बल्कि सपा-समर्थक हिन्दू मतदाता भी सपा के खिलाफ ध्रुवीकृत हो गये। 
इतना ही नहीं, प्रदेश की जनता यह भी देख रही थी कि सपा-बसपा के नेता संसद में काॅंग्रेस की जन-विरोधी नीतियों में काॅंगे्रस का खुलकर समर्थन कर रहे थे और संसद के बाहर काॅंगे्रस का विरोध करके जनता की आॅंखों में धूल झोंक रहे थे। वे उस काॅंगे्रस सरकार के संकट-मोचक बने हुए थे, जिसने आम आदमी को जीने-लायक हालात में भी नहीं छोड़ा था। इन सपा-बसपा नेताओं की आॅंखों पर अज्ञानता की इतनी मोटी पट्टी चढ़ी हुई है कि उन्हें यह तक दिखाई नहीं दे रहा है कि कम्प्यूटर युग की जनता न सिर्फ सब जानती है, बल्कि उनके खेल को समझती भी है। इस जनता ने यह जान लिया था कि सपा-बसपा के ये मुखिया केन्द्र में अपनी राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल सिर्फ अपने निजी हित में सौदेबाजी करने के लिये करते हैं।

                वे लोकतन्त्र की दुहाई जरूर देते हैं, पर खुद फासीवादी चरित्र से मुक्त नहीं हैं। यही कारण है कि वे भाजपा और संघपरिवार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को समझने का वैचारिक स्तर नहीं रखते। याद कीजिए, नोएडा में एक मस्जिद का अवैध निर्माण गिराने के आरोप में सपा-सरकार ने एक आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को निलम्बित कर दिया था, पर जब वही गलत काम आजम खाॅं ने रमजान के महीने में मदरसा गिराकर रामपुर में किया, तो फेसबुक पर उसका विरोध करने पर उसी सरकार ने मुझे गिरफ्तार करा लिया। इस घटना के विरोध में देश-व्यापी प्रदर्शनों के बावजूद सरकार ने मेरे विरुद्ध दायर मुकदमा वापिस नहीं लिया। क्या यह सपा का फासीवादी चरित्र नहीं है? यही नहीं, जब मायावती ने भी इस सम्बन्ध में मौन रहकर सपा सरकार का समर्थन किया और लोकतन्त्र का गला घोंटने वाली सपा सरकार की तानाशाही के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठायी, तो उत्तर प्रदेश की जागरूक जनता ने यह समझने में जरा जरा भी देर नहीं लगायी कि मायावती भी सांस्कृतिक फासीवाद को ही पसन्द करती हंै और लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सवाल उनके लिये बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं है।

                बहुत से दलित विचारक और राजनीतिक विश्लेषक 2007 में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार के लिये मायावती की सोशल इंजीनियरिंग को श्रेय देते हैं। पर मैंने उस समय भी इसका खण्डन करते हुए लिखा था कि यह सोशल इंजीनियरिंग नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक लम्बे समय से हाशिए पर बैठे ब्राह्मणों ने सत्ता में आने के लिये मायावती का साथ पकड़ा था, क्योंकि यह वह समय था, जब उनकी प्रिय पार्टियों--काॅंगे्रस और भाजपा--का पतन हो चुका था और सपा को वे पसन्द नहीं करते थे। इस तरह मायावती उनके डूबते जहाज के लिये तिनके का सहारा भर थीं। अतः, कहना न होगा कि ब्राह्मण स्वार्थवश बसपा से जुड़ा थे, न कि दलितों के प्रति उनका हृदय-परिवर्तन हुआ था। इसलिये जैसे ही मोदी ने भाजपा का रास्ता साफ किया, ब्राह्मणों ने अपनी घर-वापसी करने में तनिक भी देर नहीं लगायी। अगर सच में कोई सोशल इंजीनियरिंग होती, तो क्या बसपा का सूपड़ा साफ होता?

                मैं लगभग 1996 से ही डा. आंबेडकर की जातिविहीन और वर्गविहीन वैचारिकी के सन्दर्भ में कांशीराम और मायावती की राजनीति को कटघरे में खड़ा करता आ रहा हॅंू, जिसके लिये मैं दलित चिन्तकों और बुद्धिजीवियों की निन्दा का पात्र भी हूॅं। पर, मैं जातिवादी तरीके से नहीं सोच सकता। मेरे लिये दलित-विमर्श सामाजिक परिवर्तन का विमर्श है। इस नजरिये से मैं जब भी मायावती की राजनीति को देखता हूॅं, तो वह मुझे उनकी जाति को भुनाने वाली राजनीति ही दिखायी देती है। वह मुझे कहीं से भी परिवर्तन की राजनीति नजर नहीं आती है। इसलिये वर्तमान लोकसभा में बसपा की शर्मनाक ‘अनुपस्थिति’ पर हमारे दलित चिन्तक मायावती के पक्ष में चाहे कितने ही ‘किन्तु-परन्तु’ करके बात करें, पर मेरा आज भी यही मानना है कि उन्होंने डा. आंबेडकर के आन्दोलन को गर्त में ढकेल दिया है। उनकी राजनीति का सबसे बड़ा विद्रूप यह है कि उसका कोई सांस्कृतिक आन्दोलन नहीं है। अगर होता, जिस दलित वोट पर मायावती सबसे ज्यादा आत्ममुग्ध होती हैं और जिसकी पूरी कीमत वसूल कर वे सवर्णों को टिकट देती हैं, वह वोट आज उनसे खिसका नहीं होता। यह जानकर तो उनको जरूर तगड़ा झटका लगा होगा कि उनके चमार और जाटव वोटर ने इस बार मोदी के पक्ष में भाजपा को वोट दिया है। शायद मायावती इस अनहोनी को नहीं समझ सकंेगी, क्योंकि एक तो जनता के साथ उनका संवाद न के बराबर है और दूसरे वे दलित बुद्धिजीवियों को नापसन्द करती हैं। शायद ‘बसपा’ भारत की एकमात्र पार्टी है, जिसकी अपनी कोई बौद्धिक सम्पदा नहीं है। दलित बुद्धिजीवी केवल जाति के आधार पर ही इस पार्टी से सहानुभूति रखते हैं। इसलिये इस तथ्य को समझना जरूरी है कि बसपा-सुप्रीमो, जो किंगमेकर ही नहीं, सौदेबाजी करके प्रधानमन्त्री बनने का भी सपना देख रही थीं, धड़ाम से नीचे कैसे गिर गयीं? इसका एक बड़ा कारण है नयी पीढ़ी के मध्यवर्गीय दलित युवकों का हिन्दू चेतना से जुड़ाव। इस पीढ़ी के साथ लगातार सम्पर्क और संवाद करने के बाद यह तथ्य सामने आया कि वे अपने दिन-भर का अधिकांश समय अपने हिन्दू दोस्तों के साथ व्यतीत करते हैं, जो उनके सहपाठी और सहकर्मी दोनों हैं। उनके साथ उनका उठना-बैठना, घूमना-फिरना और खाना-पीना सब होता है। वे एक-दूसरे के घरों में आते-जाते हैं, सुख-दुख में शरीक होते हैं। इस बीच जाति के सामाजिक तनाव उनके बीच नहीं होते। ये सम्बन्ध यहाॅं तक विकसित हुए हैं कि दलित युवक अपने हिन्दू दोस्तों के साथ मन्दिर भी जाते हैं और उनके देवी-जागरण जैसे धार्मिक कार्यों में भी भाग लेते हैं। इस दोस्ती ने दलित युवकों को सिर्फ हिन्दू चेतना से ही नहीं जोड़ा, बल्कि उन्हें हिन्दू राजनीति से भी जोड़ दिया। लेकिन इसी हिन्दू राजनीति ने उन्हें मुस्लिम-विरोधी भी बना दिया, जिसमें उनके कुछ कटु सामाजिक अनुभवों ने भी अपनी भूमिका निभायी है। चूॅंकि इन दलित युवकों के घरों में भी कोई सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं हुआ है, इसलिये उनका मोदी के पक्ष में भाजपा के साथ जाना बिल्कुल भी आश्चर्यजनक नहीं है। मायावती चाहें तो अपने दलित वोट बैंक का सर्वे करा सकती हैं और देख सकती हैं कि जिस जमीन पर वे खड़ी हैं वह किस कदर दरक गयी है।

                सवाल यह है कि ऐसा क्यों हुआ? हमेशा हाथी पर बटन दबाने वाले कुछ दलितों का तर्क है कि जब मायावती हाथी से गणेश तक जा सकती हैं, तो वे सीधे गणेश को वोट क्यों नहीं दे सकते? जब मायावती परशुराम का गुणगान कर सकती हंै, तो वे मोदी का समर्थन क्यों नहीं कर सकते? जब मायावती को भाजपा मुख्यमन्त्री बना सकती हैं, तो वे मोदी को प्रधानमन्त्री क्यों नहीं बना सकते? ये वे तर्क हैं, जिनका कोई जवाब मायावती के पास नहीं है। कुछ दलितों का तो यहाॅं तक कहना है कि अगर बसपा की पिछली सीटें बरकरार रहतीं और भाजपा की सीटें बहुमत से कुछ कम आतीं, तो मायावती को भाजपा को ही समर्थन देकर अपना उल्लू सीधा करना था।

                दरअसल, जाति और वर्गविहीन समाज की दिशा में डा. आंबेडकर की जो रेडिकल वैचारिकी थी, मायावती न केवल उससे दूर हैं, बल्कि उसे जानना भी नही चाहती हैं। यही कारण है कि उन्होंने सत्ता में आने के लिये जातियों को मजबूत करने का ‘शार्टकट’ रास्ता अपनाया। इसके सिवाय उन्होंने दलितों में कोई रेडिकल सांस्कृतिक आन्दोलन पैदा करने की कोशिश कभी नहीं की। सत्ता के ‘शार्टकट’ रास्तों की परिणति हमेशा लाभकारी नहीं होती है, वह धूल भी चटा देती है।

                बहरहाल, देश की जनता ने यह जानते हुए भी कि मोदी घोर साम्प्रदायिक और मुस्लिम-विरोधी हैं, यह जानते हुए भी कि उनका राजनीतिक एजेण्डा लोकतन्त्र का नहीं, हिन्दू राष्ट्रवाद का है और यह जानते हुए भी कि वे बड़े पूॅंजीपतियों के हित में सामाजिक न्याय, सुरक्षा और परिवर्तन की संवैधानिक व्यवस्थाओं को बदल सकते हैं, उन्हें भारी बहुमत से जिताया है। मैं तो कहुॅंगा कि देश की निकम्मी वाम-सेकुलर शक्तियों ने थाल में सजाकर मोदी को सत्ता सौंप दी है। इसलिये अब प्रगतिशील चिन्तकों, लेखकों, पत्रकारों और कलाकारों की भूमिका और भी बढ़ गयी है, जिसे हमें अब पूरी निर्भीकता और जिम्मेदारी से निभाना होगा।

(17 मई 2014)

(लेखक-परिचय:
प्रगतिशील -अम्बेडकरवादी विचारक, कवि, आलोचक और पत्रकार
जन्म: 4 फ़रवरी 1953 को उत्तर प्रदेश के रामपुर  में
शिक्षा: स्नात कोत्तर
सृजन: पंद्रह वर्ष की उम्र से  ही कविताई। दलित इतिहास, साहित्य,  राजनीति और पत्रकारिता पर हिंदी में अब तक 40 पुस्तकें प्रकाशित.
ब्लॉग:  कँवल भारती के शब्द 
संप्रति: स्वतंत्र लेखक व पत्रकार
संपर्क: kbharti53@gmail.com

घोड़े को जब हुआ नमोनिया

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रवींद्र पांडेय का दो व्यंग्य

सब कुछ मोदियाइन-मोदियाइन हो गेलउ भइयवा

अइसनो लोकप्रिय हुआ जाता है कहीं! संसद से लेके नली-गली तक जने देखो तने खाली मोदियाइन-मोदियाइन टाइप के हो गया है। ईंटा तो ईंटा, भाई लोग बालुओ पर नमो-नमो लिखवा दिया है। गांवे से गोला पांड़े फोन किए थे। फोन का किए थे..., मिसकॉल मारे थे।
गोला पांड़े के मिसकॉल के जवाब न देबे के जुर्रत के करेगा भाई! उनका मिसकॉल तो मोदियो जी इगनोर नहीं करते हैं। एतना सीटवा अइसहीं थोड़े न जीत गए हैं। मोदियो जी को पता है कि बढिय़ा-बढिय़ा भाषण देबे और रैली में पसीना बहावे से कोई चुनाव नहीं जीत जाता।
उ तो गोला पांड़े के मेहनत, पुरुषार्थ अउर तपस्या के प्रभाव है कि मोदीजी आज पीएम बन गए। पिछला आठ महीना में एको दिन अइसा नहीं गुजरा होगा, जिस दिन गोला पांड़े सुबहे चार बजे उठ के गांव के शिवाला में न पहुंचे हों। रोज भोरहरिए में मंदिर में धो-पोंछ के एके प्रार्थना करते थे, 'हे अवघड़दानी भोलेनाथ! अबकी बार मोदी सरकार!'भोले बाबा भी का करते, सुननी ही पड़ी भक्त की पुकार।
भोले बाबा से फरियाद के बाद गोला पांड़े 'हर-हर मोदी'करते मंदिर से निकलते अउर 'नमो-नमो'करते पूरे गांव के राउंड पर जुट जाते। जिस-जिस गली से गुजरते कुत्ते उनके पीछे लग जाते। कुत्ते 'भौं-भौं'करते तो, उन्हें जोर से हड़काते, 'भाग ससुर! भौं-भौं कइले है।...नमो-नमो काहे नहीं करता है बे?'अउर मजे के बात इ कि चुनाव आवते-आवते ढेरे कुकुर 'भौं-भौं'छोड़ के 'नौं-नौं'करे लगा था।
गांव भर के चक्कर मारे के बाद गोला पांड़े नुक्कड़ के चाह दुकान पर पहुंचते। मोदी चाह बनवाते। पीते। फिर हर आवे-जाए वाला के समझाते, 'चिंता-फिकिर के जरूरत नय है। अच्छे दिन आनेवाले हैं। महंगाई के तो नामो निशान खत्म हो जाएगा। भ्रष्टाचार को लालटेन लेके खोजे पर भी नय मिलेगा। रोजगार के तो अइसा भरमार होएगा कि इंडिया के अमेरिका के लोग एने नोकरी करे वास्ते आएगा।... जे-जे बढिय़ा सोच सकते हैं, सब होने वाले हैं। आखिरकार अच्छे दिन आने वाले हैं. '
रिजल्टवा निकला, तो गोला पांड़े चहक उठे, 'देख लिए न! कांग्रेस के हाल देख के बराक ओबामा के भी चिंता बढ़ गइल है। सोच रहल हैं कि गुजरात वाला सुनमिया अभी दिल्ली पहुंचल है। उहां से कहीं अमेरिका की ओर बढ़ गवा तो का होवेगा?'


घोड़ों को तो बचा लीजिए

प्यारे बाबू का टेंशनियाया हुआ चेहरा देखते ही बुझा गया कि गाड़ी पटरी पर नहीं है। कुछ पूछने से पहले ही बोल बैठे, भइया जी, इस झारखंड का कभी भला नहीं होनेवाला। आदमी तो आदमी, अब यहां जानवर भी सुखी नहीं रहे। बताइए भला, बेजुबान घोड़ों पर तोहमत लगा दी। उन्हें बिकाऊ बता दिया। कहते हैं, बड़की एजेंसी से जांच कराएंगे। तो कराइए न, के मना कर रहा है। इहां काम-धाम थोड़े न कुछ होना है! खाली जांचे तो होनी है! आगे से काम चलता है, पीछे से जांच। न कामे पूरा होता है, न जांच। एतना दिन में केतना तो जांच कराए। कौन सी बड़की क्रांति कर लिए। बारह साल में अढ़ाइयो कोस तो नहीं चल पाए। जांच से पहिलहीं तो पूरी घोड़ा मंडी को बदनाम करके रख दिए। रेस का रिजल्ट रोक दिए। बेचारे घोड़ों की कितनी फजीहत हो रही है। कितना बढिय़ा तो ऊंट की तरह गर्दन ऊंची करके घूम रहे थे। अब मुंह छुपाने की जगह ढूंढ़ रहे हैं। उनके हाल पर गधे भी रूमाल में मुंह छुपाकर हंस रहे हैं। जैसे पूछ रहे हों, क्यों बड़े भाई, खाया-पीया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना।... भइया, हम तो इंसान हैं। एक-दूसरे से बतिया कर अपना मन हल्का कर लेते हैं। मगर ये घोड़े तो एक-दूसरे से सउंजा-सलाह भी नहीं कर सकते। दूरभाष पर दूर से बतियाएं, तो संकट। फोनवे टेप हो जा रहा है। कोई बीमार पड़ जाए और हाल-चाल पूछने नजदीक पहुंच जाएं, तो देश भर में हल्ला मच जाता है। सवाल पर सवाल। कहां गए थे? का करे गए थे? का बतियाए? कवनो नया समीकरण बन रहा है का? सरकार-उरकार तो नहीं न गिराइएगा? पांच मिनट किसी से मिले नहीं कि पचहत्तर गो सवाल फन काढ़ के डंसे ला तइयार है।... बड़ी आफत है। मुड़ी गड़ले-गड़ले गर्दन टेढ़ुआ गइल है। ऊपरे मुंह करते हैं, तो लोग कहता है कि सरकार बचावे ला भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं। पछिम मुंह करें, तो लोग कहेगा, हां, अब तो दिल्लिए के असरा है। उत्तर मुंह करते हैं तो लोग को लगता है कि लालू यादव से मदद मांग रहे हैं।... सच्ची कहता हूं भइया, हमसे तो इन घोड़ों का दर्द नहीं देखा जाता। आंख तो आंख, दिल भी आंसू बहा रहा है। सच में अगर इन घोड़ों को न्याय नहीं मिला, तो बड़की कयामत आ जाएगी। जैसे भी हो, इन घोड़ों को दर्द से उबारिए भइया जी। हम इंसान हैं। दर्द सहना हमारी आदत में शामिल है। ये घोड़े हैं। इनके बर्दाश्त की हद बहुत छोटी होती है। इनसे नहीं तो कम से कम इनकी दुलत्ती से तो डरिए।

(लेखक -परिचय :

जन्म: 4 फ़रवरी 1971 को  रोहतास(बिहार) के कोथुआं गाँव में
शिक्षा: स्नातक की पढाई आरा से की
सृजन: ढेरों व्यंग्य देश के  प्रमुख पत्र -पत्रिकाओं में। व्यंग्य संग्रह 'सावधान कार्य प्रगति पर है'  प्रकाशित
संप्रति: दैनिक भास्कर  रांची संस्करण में मुख्य उप संपादक
संपर्क:ravindrarenu1@gmail.com)

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले अब तक कहां छुपे थे भाई: फ़हमीदा

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चित्र गूगल से साभार


लड़कियों को इंजॉय करने की समाज इजाज़त नहीं देता

फ़हमीदा रियाज़ @ डॉ. शाहनवाज़ आलम

पहली नज़्म पंद्रह साल में, मजमुआ छपा जब 22 की हुई 
जब मैं पंद्रह साल की थी, तभी कालेज के दिनों में एक नज़्म लिखी थी. जिसको मेरे दोस्तों ने बहुत सराहा. दोस्तों की ही जिद़ पर मैंने यह नज़्म पाकिस्तान के उस ज़माने के मशहूर रिसाला ‘फूनून’ में छपने के लिए भेजा. जिसके संपादक मशहूर अफ़साना निगार व शायर अहमद नदीम क़ासमी थे. पहला संग्रह ‘पत्थर की ज़बान’ 1968 ईं. में छपा, तब मैं 22 साल की थी. मेरे शादी को सिर्फ दो महीने हुए थे.

28 जुलाई 1946 को मेरठ में जन्म
मैं 28 जुलाई 1946 को उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में पैदा हुई. मेरे वालिद रियाजुद्दीन अहमद जदीद दौर के माहिरे तालीम थे. उन्होंने सिंध पाकिस्तान में इस सिलसिले में ज़बरदस्त काम किया. वह वहां जदीद तालीम के बानी माने जाते हैं. जब मैं चार साल की हुई तो वालिद साहब का इंतेक़ाल हो गया. वालिदा हुस्ना बेगम ने परवरिश की. उन्होंने बड़ी ही जद्दोजहद से हम लोगों को पढ़ाया. सिंधी और उर्दू मीडियम से मैंने पढ़ायी की और इन दोनों ज़बानों में शायरी भी. बाद में मैंने फ़ारसी और अंग्रेजी भी सीखी. कालेज के दिनों में ही मैं पाकिस्तान रेडियो मंे न्यूज कास्टर की हैसियत से काम करने लगी.

शुरुआती एक नज़्म
मेरी चमेली की नर्म खुश्बू
हवा के धारे पर बह रही है
हवा के हाथों में खेलती है
तेरा बदन ढूंढने चली है
मेरी चमेली की नर्म खुश्बू
मुझे तो ज़ंज़ीर कर चुकी है
उलझ गयी कलाईयों में
मेरे गले से लिपट गयी है
वह याद की कुहर में छुपी है
सियाह खुन्की में रच गयी है
घनेरे पत्तों में सरसराते
तेरा बदन ढूंढने चली है।

जामिया और जेनयु में  विज़िटिंग प्रोफ़ेसर
ग्रेजुएशन के बाद मेरी शादी हुई. एक बेटी हुई, कुछ सालों बाद तलाक़ हो गया. उस वक्त मैं बीबीसी उर्दू प्रोग्र्राम से मुंसलिक हो गयी थी. इसी दौरान मैंने फिल्म मेंकिग में डिग्री हासिल की. कराची में एक एडवरटाइजिंग एजेंसी खोली और एक उर्दू प्रकाशन ‘आवाज़’ नाम से शुरू किया. उन्हीं दिनों जफ़र अली उज़ान से मुलाक़ात हुई. वह एक लेफ्टिस्ट पॉलिटीकल कार्यकर्ता थे. हम लोगों ने एक दूसरे को पसंद किया और शादी कर लिया. इनसे दो बच्चे हुए वीरला अली उज़ान, कबीर अली उज़ान (मरहूम). हमारे पब्लिकेशन ‘आवाज़’ में लिबरल और राजनैतिक किताबों की खबर लोगों तक पहुंची. लोगों ने खूब बवाल मचाया और कई तरह के मुकदमे हम पर डाल दिए गए थे. मुक़दमे जफ़र पर भी थे. ब्रिटिश ऐक्ट 124ए के तहत मुकदमें चले. मैं आवाज़ की एडिटर और पब्लिशर थी. ज़फर जेल चले गये. हमें हमारे चाहने वालों ने जेल जाने से पहले ही जमानत पर रिहा करवाया और मैं अपने दो छोटे बच्चों और बहन के साथ हिन्दोस्तान आ गयी. बाद में जेल से छूटकर ज़फ़र भी हिन्दोस्तान आ गये. मैंने यहां सात साल गुज़ारे. इस दौरान जामिया मिल्लिया इस्लामिया और जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर  की हैसियत से काम किया.

पीएम बनते बेनज़ीर ने बुलवा लिया
फिर बेनज़ीर भुट्टों के शादी के मौके से हम लोग पाकिस्तान गए. जब बेनज़ीर भुट्टों पहली बार प्रधानमंत्री बनीं तो हमें नेशनल बुक फाउंडेशन का मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया गया. नवाज़ शरीफ सरकार ने हमें हिन्दोस्तानी एजेंट और बहुत सारे इल्जाम से नवाज़ा. जब बेनजीर भुट्टों दूसरी बार वज़ीरे आज़म बनी तो मुझे क़ायदे आज़म एकेडमी का चार्ज दिया गया. इसी दौरान मेरा बेटा कबीर अक्टूबर 2007 ई. में अपने दोस्तों के साथ पिकनिक मनाने गया और स्विमिंग के दौरान हादसे का शिकार हुआ. 2008 में मैंने मौलाना रोमी की पचास नज़्मों का तर्जुमा फ़ारसी  से उर्दू में किया. यह मसनवी मौलाना जलालुद्दीन रोमी ने अपने शेख शम्स तबरेज़ को डेडीकेट किया है. मैं 2000 से 2011ई. तक उर्दू शब्दकोश बोर्ड की मैनेजिंग डायरेक्टर भी रही. मैंने सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में भी काम किया. मैंने सिंध यूनिवर्सिटी में एम.ए के दौरान छात्र राजनीति में हिस्सा लिया. मैंने यूनिवर्सिटी संविधान के खिलाफ खूब लिखा. जनरल अयूब खां के जमाने में छात्र राजनीति पर पाबंदी लगा दी गई. जनरल ज़िया उल हक़ के ज़माने में हमें बहुत ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ा.

पत्थर की ज़बान से हम रिकाब तक लम्बा सफ़र
जो मन में आता है लिख देती हूं. बाद में कई बार लोग बुरा-भला भी कहते हैं जिससे तकलीफ़ होती है. एक लड़की होना हमारे समाज में एक ऐसी चीज़ है जो समझ से परे है. लड़कियों को इंजॉय करने की समाज इजाज़त नहीं देता. मैं तो कुछ लिख भी देती हूं, लेकिन समाज अभी भी दकियानूसी दौर में जी रहा है. कई  किताबें शाया हुईं . ‘बदन दरीदा’, पत्थर की जब़ान, ख़ते मरमूज़, गोदावरी नावेल, क्या तुम पूरा चांद न देखोगे, कराची, गुलाबी कबूतर, धूप, आदमी की ज़िन्दगी, खुले दरीचे से, हलक़ा मेरी जंजीरों का, अधूरा आदमी, पाकिस्तानी लिट्रेचर और सोसायटी, क़ाफिला परिंदो का, ये खाना-ए-आबो-गिल, दरीचा-ए-निगारिश, हम रिकाब आदि. इसमें शेरी मजमुए, नाविल, सफरनामे और तर्जुमें वग़ैरा शामिल है.

तब दंगों का बाज़ार गर्म था, आडवानी थे रथ यात्रा पर
परेशानी ही परेशानी थी, लेकिन यहां मेरे दोस्तों ने संभाला. खासतौर से जनवादियों ने डी.पी.त्रिपाठी साहब ने उस वक्त मेरी बहुत मदद की. पहले वह कम्यूनिस्ट पार्टी में थे. अब शायद पार्टी बदल ली है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक दंगों का बाज़ार गर्म था. आडवानी साहब रथ यात्रा निकाल रहे थे. गुलाम ख्बानी ताबां, डी.पी.त्रिपाठी और मैं पश्चिम उ.प्र. के दौरे पर गए. जिस तरह के खून खराबे से हम सिंधी मजबूर थे. उसी तरह के हालात पैदा हो गये थे.

ज़िन्दगी का सबसे मुश्किल दौर
 मैं हिन्दोस्तान इसलिए आयी थी कि यह एक सेक्युलर मुल्क है, लेकिन यह सब ख्वाब था. मैंने यहां के सांप्रदायिक माहौल पर एक नज़्म ‘नया भारत’  लिखी।  इस पर इतना बड़ा हंगामा हुआ कि पूछिये मत. दो दिन बाद मेरी फ्लाइट थी. मैं सोच नहीं पा रही थी कि क्या करूं. फिर मैं पाकिस्तान वापस चली गयी. वह नज़्म हमें कुछ कुछ याद आ रही है.
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहां छुपे थे भाई।
वह मुरखता वह घामड़पन,
जिसमें हमने सदियां गंवायी।
आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे,
अरे बधाई, बहुत बधाई।
प्रेत धर्म का नाच रहा है,
कायम हिन्दू राज करोगे।
सारे उलटे काज करोगे,
अपना चमन ताराज़ करोगे।
तुम भी बैठे राज करोगे,
सोचा कौन है हिन्दू, कौन नहीं है।
तुम भी करोगे फ़तवा जारी,
अरे बधाई बहुत बधाई।
एक जाप सा करते जाओ,
बारम-बार यही दुहराओ।
कितना वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था भारत।
प्रेत धर्म का नाच रहा है
अरे बधाई बहुत बधाई

इस नज़्म को मेरे दोस्त खुशवंत सिंह जो एक सीनियर सहाफ़ी भी हैं (अब दिवंगत ) ने अंग्रेजी में तर्जुमा करके अंग्रेजी अख़बारात में प्रकाशित कराया.

पाकिस्तान में साहित्य ज़्यादा, पर कुछ कर रहे मज़हबी सियासत 
पाकिस्तान में अदब में बहुत कुछ लिखा जा रहा है. मैं समझती हूं कि हिन्दोस्तान से ज़्यादा, क्योंकि वहां की ज़रूरत है. हिन्दोस्तान में जितनी आज़ादी औरतों को हासिल है, पाकिस्तान में नहीं है. मैंने समाजी, सियासी नाइंसाफी के खिलाफ़ खुलकर आवाज़ उठायी और बहुत कुछ लिखा. पाकिस्तान में मजहबी ग्रुप बहुत ज़्यादा हावी है. बार-बार फौज़ी हूकूमतें आ रही हैं, मार्शल ला लग रहा है, जम़हूरियत की धज्जियां बिखेरी जा रही है? हां! यह बात कुछ हद तक सही हो सकती है. कुछ लोग है जिन्हें असल मज़हब के मायने नहीं पता है. इन लोगों को कौन बताये कि मज़हब लोगों को अलम करने के लिए नहीं है, बल्कि लोगों को जोड़ने के लिए आया है. यही सोच मार्क्स का भी है सांप्रदायिक सदभाव और मार्क्सवाद असल में एक ही चीज़ है. दोनों इन्सान को इन्सान बनाना सिखाता है और समाजी बराबरी की सीख देता है.


मज़हबी शायर की किताब का तर्जुमा
मार्कसी होने का मतलब नाज़ी के सारे फ़साने का ठुकराना हो ऐसा नहीं होना चाहिये. सज्जाद ज़हीर जब जेल में रखे गये तो उन्होंने ‘हाफ़िज़’ पर किताब लिखी, सरदार ने इक़बाल पर मैंने मौलाना रूमी पर लिखी तो कौन सी बुरी बात हुयी.

अदीबों की अमनो, अमान के लिए कोशिशें

अफगानिस्तान के हालात दूसरे हैं, अभी तो पाकिस्तान की ही हालत ठीक नहीं है. मजहबी ग्रुप हावी है. अफगानिस्तान में तालिबान की ज़ालिमाना हरक़त को पूरी दुनिया जानती है. उन्होंने वहां के तारीख को मिटाना चाहा. ‘बुद्ध’ जो शान्ति की अलामह है, उनकी मूर्ति को खाक में मिला दिया. इस पर मैंने एक नज़्म लिखी थी.
मोजस्सेमा गिरा
मगर ये दास्तां अभी तमाम तो नहीं हुयी
दिया कई बरस तैय हुये
लिखेगा दिन को आदमी
बरंगे आबो जुस्तजू
वह हुस्न की तलाश में
वह मुन्सफ़ी की आस में
खुली है सड़क खुल गयी दुकां में कितना माल है
दुकां में दिलबरी नहीं
मकां में मुन्सिफ़ी नहीं
अभी तो हर बला नयी
अभी है काफ़ले रवां
गुलों मेें नस्ब है निशा।
मुजस्सेमा गिरा मगरजमीं पे
ज़िन्दगी दुकां के नाम पर नहीं हुई
हमारी दास्तान अभी तमाम पर नहीं हुयी.

 हिन्दोस्तान और पाकिस्तान के रिश्ते
दोनों तरफ की अवाम अमन चाहती है. दोनों मुल्कों को चाहिये कि  आसानी पैदा करें. कश्मीर तनाज़े का शांतिपूर्ण हल निकाला जाये. दोनों मुल्क अपने सैन्य वजह में कमी करके आम जनजीवन के लिए काम करें. दोनों मुल्कों को एक दूसरे की टेक्नोलाजी से फायदा उठाना चाहिये. अंतरराष्टीय अमन और एलाक़ाई अमन के लिए सार्क मुल्कों की आपसी मशविरे और गुफ़्तगू करके एक बड़़ा मजबूत ‘नो वार पैकेट एग्रीमेंट’ करें. तक़सीने हिन्द के बाद इलाके में रहने वाले लोगों के रिश्ते सरहद के उस पर बंट गये, उसकी बहाली की कोशिश करनी चाहिये.

( यह बातचीत नवंबर 2013 में हुई थी, जब फ़हमीदा दूसरी बार इलाहाबाद आयी थीं)

गुफ़्तगू से साभार

  

क्यों लिखूं मैं क्रांति भला?

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सुचितकी क़लम से 



  मेरा प्रेम, मेरी भावनाएं, मेरी अभिव्यक्ति

1.

क्यों लिखूं मैं क्रांति भला?
अपनी नर्म गर्म रजाई में प्रेम के कुनकुने स्वप्नों के बीच
मेरी दुनिया तो झील सी आँखों से नर्म होठों तक है

फुटपाथ वालों की ठण्ड मुझ तक नहीं पहुँचती
मेरे पास होता है मतलब भर पैसा हर पहली तारीख
मेरी दुनिया पीवीआर की फिल्मों और डोमिनोज के पिज़्ज़ा तक है
मैंने किसी का कुछ नहीं छीना
मुझे सड़क पर कूड़ा बीनते बच्चे नहीं दिखते
मेरी दुनिया मेरे बच्चों के मंहगे स्कूलों तक है.

क्यों लिखूं मैं क्रांति भला?

मेरी जिदगी हाई वे पर है.
मेरा प्रेम, मेरी भावनाएं, मेरी अभिव्यक्ति

 क्यूँ लिखूं मैं क्रांति भला ??

2.

उन प्यासे पलों में गूंजती तुम्हारी साँसों की सरगम..
मेरी रूह..क़तरा -क़तरा पीती है
ह्रदय और आत्मा के साथ.
जब सम्पूर्ण देह प्रेम की भाषा बोलने लगती है
बहुत पास आ कर हम
प्रेम में बहुत दूर निकल जाते हैं
‘मैं’ और ‘तुम’ हटा कर
सिर्फ ‘हम’ बचते हैं
लयबद्ध..निर्वाण को प्राप्त करते हम
धीरे-धीरे किसी और आयाम में चले जाते हैं
जीवन अपनी तीव्रतम गति में आ कर ही ठहर जाता है
उफ़..
उलझी साँसों में सब कितना उलझा उलझा है.
भाव भी,शब्द भी..शायद जीवन भी..
लेकिन यही उलझन सब सुलझा देगी.
शायद..

3.

वर्ण माला ..
उन्हें ‘क’ से ‘कलम’ पढने दो,
कहीं उन्होंने ’क’ से ‘क्रांति’ पढ़ ली..
तो वो ‘ख’ से ‘खरगोश’, ‘ख’ से ‘खतरा’ बन जायेंगे..
उनके ‘ग’ से ‘गर्दिश’ रहने दो..
कहीं वो ‘ग’ से ‘गरिमा’ पढ़ बैठे तो..
फरियादों के ‘घ’ से ‘घंटे’..जन चेतना के ‘घोष’ में न बदल जाएँ..

‘च’ से ‘चंचल’ रहने दो,कहीं ‘च’ से ‘चयन’ सीख लिया तो..
कहीं ‘छ’ की ‘छतरी’ तुम्हारी मान्यतायों को ‘छल’ न ले..
‘ज’ से ‘जड़’ रहने दो..
कहीं ‘ज’ से ‘जलना’ सीख लिया तो..
तुम्हारे ‘झ’ से ‘झूठ’..
हिल न जाएँ उनके ‘झंझावात’ से..

‘ट’ से ‘टलते’ रहने दो उन्हें..
कहीं ‘ट’ से ‘टक्कर’ सीख ली तो..
कहीं ‘ठ’ से तुम्हारे ‘ठहाके’,’ठ’ से ‘’ठहर’ न जाएँ..

बदलने मत देना यह वर्ण माला..
कहीं यह बदल गयी तो सब बदल न जाये..

4.

ऐसे थोड़े होता है..
प्यार कोई फेसबुकिया बहस थोड़े है..
मूड मौका देख कर..
हुयी हुयी न हुयी..
मैं, किसी प्रियजन द्वारा जबरदस्ती tag की तस्वीर नहीं..
जिसे खीझे मन से like करो..
न मैं बहुमत समर्थित पोस्ट पर असहमति का comment..
जिसे लोकतान्त्रिक मूल्यों के नाम पर..
अनमने भाव से appreciate करना पड़े तुम्हे..
मैं नहीं तुम्हारी profile pic या cover photo..
जो वक़्त के साथ बदल जाये..
मैं तो बस रहना चाहता हूँ..
तुम्हारे फेसबुक login का email..
छुपा..और अपरिहार्य..
तुम्हारे लिए..जब तुम्हे जरूरत हो मेरी..
बस इतना करना..log in id change मत करना ..

                      
5.

प्रेम..
मैंने कब रचा था तुम्हें..
इस स्थूल में सूक्ष्म का संचार तो तुम ही कर गए थे..
मेरी प्राण प्रतिष्ठा तुमने ही की थी..

मैंने नहीं दिए कभी कोई शब्द विन्यास..
नहीं रची कभी कोई कविता तुम पर..
अनुभूतियों के वाहक..
सब भावों के प्रणेता तुम ही तो तो थे..
सब शब्द तुम्हारे ही थे..

अपूर्ण स्वप्नों और अतृप्त इच्छायों के बीच..
अकल्पनीय,मधुरतम क्षणों के बीच..
तुम ही तो ..
यत्र तत्र सर्वत्र..

मैं हूँ ही कहाँ ..प्रेम..
संभवतः एक वाहक मात्र..
आभार तुम्हारा..
मेरे अस्तित्व में जीवन के संचार के लिए..

6.

एक टुकड़ा चांद..एक टुकड़ा नदी..
और कुछ चांदनी की बात..
एक टुकड़ा ख़ुशी..एक टुकड़ा गम..
और कुछ जिन्दगी की बात..
एक टुकड़ा मैं..एक टुकड़ा तुम..
और कुछ आशिकी की बात..
एक टुकड़ा वक़्त..एक टुकड़ा तकदीर..
और कुछ आवारगी की बात..
एक टुकड़ा वफ़ा..एक टुकड़ा तन्हाई..
और कुछ दीवानगी की बात..
एक टुकड़ा जमीं..एक टुकड़ा आसमाँ..
और कुछ तिश्नगी की बात..

7.

हाँ,दर्द होता है मुझे अभी भी..
और मानने में कोई शर्म भी नहीं..
दिल करता है तो थोडा रो लेता हूँ..
अधूरे सपनों में खो लेता हूँ..

मुझे इस दर्द को बहलाना नहीं है..
न सिद्धांतों के पीछे छुपाना है..
न दिव्य प्रेम का आवरण देना है..
न ही मैं इसे रचना की शक्ति बनाना चाहता हूँ..

मैं चाहता हूँ इसको स्वीकार करना..
इस से गुजरना ही सही लगता है..
मैं साधारण मानव हूँ और..
साधारण प्रेम करना चाहता हूँ..

अलौकिक प्रेम की चाह नहीं है मुझे..
मैं तुम्हे चाहता हूँ..
तुम्हारा साथ चाहता हूँ..
तुम्हारा स्पर्श भी..

तुम्हारी बातें सुननी हैं मुझे..
तुम्हारे हाथों को हाथ में लेना है..
तुम्हारी गोद में सर रख कर सोना भी चाहता हूँ..
तुम्हें बार बार परेशान करती उस एक लट को..
बार बार हटाना है मुझे..

मुझे चाहिए तुम्हारी हर रोक टोक..
तुम्हारा गुस्सा तुम्हारा रूठना..
और तुम्हे मनाना भी चाहता हूँ मैं..
चाहे बेसुरा गाना गा कर ही सही..

मुझे नहीं करना है कोई त्याग..
मुझे नहीं बनना है महान..
मैं साधारण मानव हूँ..
साधारण प्रेम चाहता हूँ..

8.

आओ कुछ बदलाव लाये
सूरज की तपिश कुछ कम करें

चाँद की चांदनी कुछ बढ़ाएं
आओ..कुछ बदलाव लायें.


हाथ बढ़ाएं तो पहुँच में हो

आसमां को इतना नजदीक लायें
हर आंसू पोंछ दें..हर चेहरे पे मुस्कान सजाएँ
आओ कुछ बदलाव लायें.


हर खेत में हरियाली हो

हर मेहनत में बरकत हो
छोटी छोटी खुशियों से हर जिन्दगी सजाएँ
आओ कुछ बदलाव लायें.


अन्याय का नाम मिटा दें

एक नयी दुनिया बनायें
फूलों के रंग संवारें ..चिड़ियों के साथ गायें
आओ कुछ बदलाव लायें


कुछ कुछ बचपना करें

कुछ कुछ बड़प्पन भुलाएँ
इन्सान से इन्सान के बीच का भेद मिटायें
आओ कुछ बदलाव लायें..







(कवि-परिचय:
जन्म: 7 दिसंबर 1981  को इलाहाबाद में
शिक्षा: 'आंग्ल भाषा'और 'राजनीती शास्त्र 'से कला स्नातक, रूहेलखंड विश्विद्यालय से
सृजन : 'स्त्री मुक्ति'की पत्रिका में दो कवितायेँ प्रकाशित
संप्रति :  इलाहाबाद में ही एक फार्मास्यूटिकल कम्पनी में रीजनल मैनेजर
अन्य: 'स्त्री मुक्ति संगठन'के सदस्य के रूप में विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय
संपर्क:suchhitkapoor@gmail.com )






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