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Channel: Hamzabaan हमज़बान ھمز با ن
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सुकून का लम्‍हा कि जागती सी एक रात

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रश्‍मि शर्मा की  दस कविताएँ





अभि‍शप्‍त आत्‍माओं की नींद

फि‍र बीती एक रात
ध्रुव तारे से आंख मि‍लाते
चांद को बादलों तले
देखते ही देखते छुप जाते
तुम्‍हारी भेजी नींद को
देखा रूठ कर दूर जाते

और अब सुबह
आंखों की कालि‍मा में
ढूंढ रही हूं
एक सुकून का लम्‍हा
कि जागती सी एक रात
फि‍र गुजर गई जिंदगी से

इंतजार में हूं कि
देर से जागने के बाद
कहोगे तुम
बड़ी सुकून भरी नींद आई
बस..सपने में तुम न आई

मैं हंस पडूंगी और कहूंगी
दादी कहती थी
सोए इंसान की आत्‍मा
वि‍चरती है, पूरी करती है
अतृप्‍त कामनाएं, मगर

अभि‍शप्‍त आत्‍माओं को
नींद ही मयस्‍सर नहीं होती
कि‍सी के ख्‍वाब में उतर सके
ऐसी तक़दीर नहीं होती...

 मेरे पास कोई स्‍याहीसोख नहीं

ले आई थी
एक कोरी सी डायरी
जि‍समें
मोति‍यों से अक्षरों में
लि‍खना चाहा मैंने
खूबसूरत नर्म सी सुबह
और बारि‍श के बाद
क्षिति‍ज में फैले धुंध को
मुट़ठि‍यों में समेट लेने के
अहसास से भरे
हसीन हसरतों के कि‍स्‍से

तुम्‍हारे साथ और
तुम्‍हारे बगैर गुजरे, वक्‍त के चि‍थड़े
मगर
नामालूम कैसे
खूबसूरत हर्फों के उपर
उलट पड़ी स्‍याही, मि‍ट गया सब
अब फैले हैं
नीले-नीले धब्‍बे, और
मेरे पास कोई स्‍याहीसोख भी नहीं

 जिंदगी इतनी भी रहमदि‍ल नहीं

होकर बेइख्‍़ति‍यार
छू लि‍या तुम्‍हें
एक आवारा से पल में
मेरे अहसास ने
जबकि‍ तय हुआ था
आजन्‍म
एक मर्यादि‍त दूरी
हमारे दरमि‍यां

प्रेम दंश देता है
और फूलों सा
कोमल अहसास भी
बंदि‍शें जि‍स्‍म की होती है
रूह तो
आजाद उड़ान भरती है

तुम्‍हें हक है, सहस्रबाहु बनो
देह के स्‍पंदन को
मेरी तप्‍त सांसों को
अपनी सांस में भरो
प्रेम के लाल रंग से
जीवन-भीत रंग लो

मगर न भूलना ये
सारे सपने पूरे कर दे
जिंदगी इतनी भी
रहमदि‍ल नहीं होती
एक आवारा पल की शरारत
जिंदगी की दशा और दि‍शा
बदल दि‍या करती है.........

रात की झील पर

रात की झील पर
तैरती उदास कि‍श्‍ती
हर सुबह
आ लगती है कि‍नारे
मगर न जाने क्‍यों
ये जि‍या बहुत
होता है उदास .....

ऐ मेरे मौला
कहां ले जाउं
अब अपने
इश्‍क के सफ़ीने को
तेरी ही उठाई
आंधि‍यां हैं
है तेरे दि‍ए पतवार....

कहती हूं तुझसे अब
सुन ले हाल
जिंदगी की झील पर
उग आए हैं कमल बेशुमार
उठा एक भंवर
मुझको तो डूबा दे
या मेरे मौला
अब पार तू लगा दे......
 
 वक्‍त दो वक्‍त को

सच है
मन के तार की झंकार
बि‍ना साज भी
झंकृत करती है
समूचे अस्‍ति‍त्‍व को
और
वेदना के पलों में
नाजुक संवेदनाएं
और मुखरि‍त होती हैं

हां, मैं हूं अपराधि‍नी
अनजाने ही सही
अनसुनी की मैंने
वो आवाज
जब हृदय के हाहाकार से
दग्‍ध तुम पुकार रहे थे
तुम मेरा नाम

अब जबकि
प्रति‍उत्‍तर न पाकर
दि‍ग्‍भ्रमि‍त होकर वो
कातर आवाज
वि‍लीन हो गर्इ अनंत में
और जो मुझ तक आ रही है
वो तुम्‍हारी नरम और
प्‍यारी ध्‍वनि नहीं
एक ज्‍वालामुखी है

मत करो ध्‍वस्‍त सब कुछ
वक्‍त दो वक्‍त को
धीरज धरो
मन का मौसम भीगा सही
आज हम मीलों दूर कहीं
मगर
चलेगी बासंती पुरवाई
ये यकीन अभी एक
ताजी हवा है लेकर आई.....
 
अक्‍स तेरा ही  झलकता है


मेरे
मन के आंगन में
लगे
तुलसी के बि‍रवे को
प्रेम-जल से
सींचती रही हूं बरसों

संचि‍त कर सीने में
रखा है उस एक छुअन को
जो मेरे माथे पर
सिंदुरी होंठों से
रख दि‍या था तुमने

मेरे प्राण, मेरे श्रृंगार
आईने में
जब भी रूप मेरा
दमकता है
आंखों के काजल से ले
हाथों की मेंहदी तक
अक्‍स तेरा ही
झलकता है.....

फुर्सत के पल

आकाश के
दक्षि‍ण-पश्‍चिम कोने पर
टि‍मटि‍मा रहे
चमकीले तारे ने
पूछा मुझसे......
क्‍या मैं तुम्‍हारे लि‍ए
बस एक फुर्सत का
पल हूं ?
जब दुनि‍या भर के
कामों को
नि‍बटा लेती हो
अपनों को संतुष्‍ट
और परायों को
वि‍दा कर देती हो....
तब
मेरी ओर देखकर
इतनी लंबी सांसे
क्‍यों भरती हो ?
मैं भी चाहता हूं
तुम्‍हें भर आंख देखना
तुमसे कुछ बति‍याना
और तुम्‍हारी
खि‍लखि‍लाहट को सुनना
मगर तुम
तभी आती हो
जब मैं डूबने वाला होता हूं
तुम्‍हारा आना
और मेरा जाना....
क्‍या नि‍यत है हमारा वक्‍त ?
कभी सोचा है तुमने
कि‍ मैं
तुम्‍हारे फुर्सत का पल हूं
या फि‍र
यही एक पल है
जब तुम
तुम्‍हारे साथ होती हो
और मैं
तुम्‍हारे नि‍तांत अपने पल का
एकमात्र साक्षी बनता हूं.....
 
वि‍देह हो जाना चाहता है.

बनकर खुशी
कभी नहीं रहे तुम पास मेरे
जब भी महसूस कि‍या
उमस भरी दोपहरी की तरह ही
मि‍ले तुम
एक अबूझ बेचैनी लि‍ए
दर्द से अनवरत बहते हुए
आंखों में भर आए पानी जैसे
सर के दोनों तरफ की
तड़कती नसों में घुले दर्द के साथ
हरदम आए तुम

फि‍र भी

तुम्‍हारा पास न होना
इतना दर्द देता है जैसे
रेत रहा हो आरी से
एक हरेभरे पेड़ का
मजबूत तना कोई
और दूरी का अहसास
इस तरह पागल करता है
जैसे
शरीर छोड़ने को प्राण तड़पे
मगर मुक्‍ति नहीं मि‍ले

तुम हो न हो
तुम्‍हारा दर्द कसकता, टीसता है
हरदम
फि‍र भी ये नि‍स्‍पृह देह
वि‍देह हो जाना चाहता है
अंतरि‍क्ष में एक घर बनाना चाहता है
चाहे-अनचाहे मि‍ले
सारे दर्द को समेटकर
ध्रुव तारे की तरह हरदम
तेरे-मेरे नाम से 'एकनाम'बन
चमकना चाहता है.......

अनदेखी लि‍पि‍यां

कही तुमने मुझसे
बार-बार वो बातें
जि‍नका मेरे लि‍ए
न कोई अर्थ है
ना ही अस्‍ति‍त्‍व
जो मैं पढ़ना चाहूं
तुम्‍हारे आंखों की
अनदेखी लि‍पि‍यां
कहो कौन सी कूट का
इस्‍तेमाल करूं
मैं ढूंढती रहती हूं
कोई ऐसा स्रोत
ऐसी कि‍ताब
जो आंखों की भाषा को
शब्‍दों में बदलती हो
है ये ईसा पूर्व की या
सोलहवीं सदी
की सी बात
कि हमारे बीच से
शब्‍द अदृश्‍य ही रहे हैं

अब तुम पढ़ना
मेरा मौन, सहना
मेरी अनवरत प्रतीक्षा
और मैं कूट-लि‍पि‍क बन
पढूंगी, आंखों की अनदेखी लि‍पि‍यां
 
है कोई नापना.

कि‍तनी है
आकाश की उँचाई
और धरती की गहराई
ये हम कल्‍पना कर सकते हैं
मगर
नापना चाहकर भी
नाप नहीं सकते
फि‍र
मेरे अंतस में छुपे भावों की
तुम्‍हारे प्रति
छलकते प्‍यार को
और जुड़े रहने की चाह को
क्‍यों नापना चाहते हो
बार-बार
है कोई नापना जो तुम्‍हारे पास
तो दे दो मुझे
मैं बता दूं नापकर
कि कि‍तना प्‍यार है तुमसे.........


(परिचय:
जन्म:   2 अप्रैल 1974,  मेहसी थाना, मोतीहारी, बि‍हार
शिक्षा:   इति‍हास में स्‍नात्‍कोत्‍तर बैचलर ऑफ जर्नलिज्‍म लेखन
सृजन: पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कविताओं का प्रकाशन, शब्द-संवाद व स्त्री होकर सवाल करती है जैसे  कविता संकलनों में भी रचनाएं संगृहित
ब्लॉग: रूप-अरूप
सम्मान: सीएसडीएस का  नेशनल इंक्लूसिव मीडिया फ़ेलोशिप-२०१३
संप्रति:स्‍वतंत्र पत्रकारि‍ता एवं लेखन
संपर्क:rashmiarashmi@gmail.com)   









गीतकार पिता पर कवयित्री बिटिया का लिखना

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प्रेम शर्मा के गीतों की फुलवारी का खिल उठना























ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस की क़लम से

 प्रेम शर्मा कबीरपंथी गीतकार और पढ़ने-लिखने के बेहद शौक़ीन।  घर के माहौल का असर ही था कि विज्ञान की छात्रा होने के बावजूद साहित्य-पठन-पाठन में अभिरुचि रही। प्रेम शर्मा यानी मेरे पापू पर लिखना मेरे लिए सबसे कठिन कार्यों में से है क्योंकि उन पर लिखना यानी उन स्मृतियों को फिर से जीना है जो मुझमें बेहद बेचैनी, झटपटाहट भर देती हैं। उनकी बेहद लाडली 'ऋतु बेटा'को वह शामें कभी नहीं भूलती जब भारत भूषण, रमा नाथ अवस्थी और कुबेर दत्त के साथ कभी-कभी कैलाश वाजपेयी घर आते थे। उस शाम घर की छत पर गीतों की फुलवारी खिल उठती थी। भाषा का संस्कार और कविता का सौंदर्य मेरे मन में यहीं से उगा । उन गीतों को सुनना अविस्मरणीय, अवर्णनीय अनुभव था मेरे लिए।
 मुझे याद है कि उन शामों में जब पापा गाते थे तो मैं जीने में दुबक जाती थी। सूफ़ियाना, फक्कड़ मिजाज़ के उनके गीतों में शायद कबीर और अन्य सन्त कवियों के तेवर कहीं गहरे तक पैठे थे जिन्हें जब वह अनहद नाद की तरह ऊंचे स्वर में गाते थे तो लगता था मानों प्राण खिंचे जाते हों ... कहीं अनंत में। पापा को सुनना मुझे बेहद भावाकुल कर देता था।रुंधा गला और आँखों से बहता आवेग ... शेष रहता था। क्यों? उस समय नहीं समझ पाती थी लेकिन अब पापा के गीत पढ़ती हूँ तो समझ समझ सकी हूँ कि उनके गीतों में लोक-कथात्मकता और लोक-जीवन की सुगंध बिखरी है वहीँ दूसरी ओर उनके गीतों में जीवन संघर्ष और जुझारूपन के साथ-साथ आध्यात्मिकता और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद भी गुम्फित हुआ है। उन्होंने जो जिया, वही लिखा ... यही वजह है कि मन की बोली-बानी में लिखी ये रचनाएं मर्म तक पहुंचती हैं। उनकी ईमानदारी, सच्चाई, मूल्यनिष्ठा और उस समय की राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियां उदात्त रूप से उनके गीतों में प्रतिबिंबित हुई हैं।
उनकी अंतिम अधूरी रचना "पुलिया पर बैठा बूढ़ा"मेरी पसंदीदा रचनाओं में से है। इस कविता को मैं जब भी पढ़ती हूँ भावुक हो जाती हूँ. उनका अकेलापन उन्हें किस कदर सालता था, उसकी बानगी है यह कविता. माँ के जाने के बाद उन्होंने हमें तो संभाला पर भीतर-भीतर यह अकेलापन उन्हें पूरी तरह तोड़ चुका था.
कभी-कभी लगता है कि शायद माँ से उनका अत्याधिक लगाव ही था जिसने उन्हें माँ के आकस्मिक देहांत के सदमे से उबरने नहीं दिया. प्रेम की पराकाष्ठा में शक्ति और निरीहता दोनों छुपी रहती हैं, शायद...
यह कविता ज्ञानोदय के सितम्बर,2003 के अंक में उनकी मृत्युपरान्त प्रकाशित हुई थी. अपनी इस आखिरी कविता को वह अंतिम स्वरूप नहीं दे सके थे. इसके अलावा "घोड़ों का अर्ज़ीनामा "और "बयान-ए-बादाकश" - जाने-माने समालोचक सुरेश सलिल के अनुसार निराला की "कुकुरमुत्ता"और मजाज़ की "आवारा"के समकक्ष रखी जा सकती है। भारत भूषण जी के शब्दों में कहूं तो, "आज के व्यावसायिक गीतकार समाज के एक पागल मन की हूक-से ये गीत भी हैं, जिनपर कभी अज्ञेय और दिनकर भी मुग्ध हुए थे।
प्रेम शर्मा
जन्म 7 नवम्बर, 1934 मेरठ
शिक्षा:  मेरठ विश्विद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर
नौकरी: 1965 से गाज़ियाबाद के शम्भूदयाल इंटर कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन, 1989  से सेवानिवृत्ति तक उपरोक्त विद्यालय के प्रधानाचार्य पद पर आसीन
सृजन: 1962  से हिंदी की श्रेष्ठ पत्रिकाओं यथा ज्ञानोदय, धर्मयुग, कादम्बिनी एवं साप्ताहिक हिंदुस्तान आगि में गीति रचनाओं का प्रकाशन, आकाशवाणी तथा दूरदर्शन के साहित्यिक कार्यक्रमों में अनेक रचनाओं का प्रसारण
निधन: 7  जून, 2003  गाज़ियाबाद

पिता की कविताएँ बेटी के निकट



बयाने बादाकश !

इक दीदा-ए तर
इक क़तरा-ए नम,
इक हुस्ने-ज़मीं
इक ख्वाबे-फ़लक
इक जद्दोजहद
इक हक़ मुस्तहक़
मेरी ज़िन्दगी
मेरी ज़िन्दगी...
मेरा इश्क़ है
मेरी शायरी,
मेरी शायरी
शऊर है,
ज़मीर है,
गुमान है,
ग़ुरूर है,
किसी चाक गिरेबाँ
ग़रीब का,
किसी दौलते-दिल
फ़क़ीर का,
मैं जिया तो अपने ज़मीर में
मैं मिटा तो अपने ज़मीर में.
मैं कहूँ अगर
तो कहूँ भी क्या?
मैं तो बादाकश,
मैं तो बादाकश! 


घोड़ों का अर्ज़ीनामा

हुज़ूरे आला,
पेशे ख़िदमत है
दरबारे आम में
हमारा यह अर्जीनामा -

कि हम थे कभी
जंगल के आजाद बछेरे.
किस्मत की मार
कि एक दिन
काफ़िले का सौदागर
हमें जंगल से पकड़ लाया.
उसके तबेले में
बंधे पाँव
कुछ दिन
हम रहे बेहद उदास.


रह-रह कर
याद आये हमें
नदी-नाले
जंगल-टीले-पहाड़,
रंगीन महकती वादियाँ,
हरे-भरे खेत
औ 'मैदान
वे सुनहरे दिन
वे रुपहली रातें
जब मौजो-मस्ती में
बेफ़िक्र हम
मीलों निकल जाते थे,
जब
धरती और आसमान के बीच
ज़िन्दगी हमारी
आज़ादी का
दूसरा नाम थी.
*
तो हुज़ूर
कैदे आज़ादी के एहसास से
कुछ कम जो हुई
आँखों कि नमी
तो भूख-प्यास जगी
जो भूख-प्यास जगी
तो मजबूरन
हमने
अपना आबो-दाना कुबूल किया.
फिर
सधाया गया हमें
सौदागरी अंदाज़ में,
सिखाई गयी चालें
हुनर और करतब,
घोड़ों की जमात में
अब
हम थे नस्ले-अव्वल
बेहतरीन-जाबाज़ घोड़े.

फिर
एक दिन
किया गया पेश
हमें
निज़ामे-शाही के दरबार में.
पुरानी मिस्लों में
दर्ज़ हो शायद
हमारी वह दास्तान
कि जब
सूरज गुरूब होने तक
बीस शाही घुड़सवार
लौटे थे नाकाम
हमें पकड़ पाने में
तो अगले रोज़
आला-हुज़ूर ने
सौ दीनार के बदले
हमें ख़रीदा था,
थपथपाई थी
हमारी पीठ.

उसके बाद
तो हुज़ूर
राहे-रंगत ही
बदल गयी
हमारी ज़िन्दगी की.
अब हम
आला-हुज़ूर की
सवारी के
खासुल-खास
घोड़े थे.
सैर हो कि शिकार
या कि मैदाने जंग,
दिलो-जान से
अंजाम दी हमने
अपनी हर खिदमत.
आला हुज़ूर का
एक इशारा पाते ही
हम
दुश्मन के
तीर-तलवारों
तोप-बंदूकों
बर्छी-भालों की
परवाह किये बिना
आग और खून के
दरिया को चीरते हुए
साफ़-बेबाक
निकल जाते थे.
गुस्ताखी मुआफ,
आला हुज़ूर के
आसमानी इरादों को
कामयाबी
और फतह का
सेहरा पहनाने में
हमारा भी
एक किरदार था
तवारीख के
सुनहरे हाशियों से अलग.

हुज़ूर
कभी-कभी हमें
याद आते हैं
वे शाही जश्नों-जलूस,
लाव-लश्कर,
राव-राजे,
शहजादे
फर्जी और प्यादे,
राग-रंग की
वे महफिलें,
वो इन्दरसभा
वो जलवागाह
कि जिस पर
फरिश्तें भी करें रश्क़.
क्या ज़माना था, हुज़ूर,
क्या रातबदाना था.
***

हुज़ूर
दौरे-जहाँ में
देखा है ज़माना हमने
वतनपरस्तों की
सरफरोशी का.
फिर
देखा है मंज़र
उस
सियासी आज़ादी का
जो
बंटवारे की कीमत पर
सदियों पुराने भाईचारे
और इंसानियत के
खून में नहाकर
आई थी.

फिर
देखी है शहादत
उस बूढ़े फ़कीर की
जिसके सीने को
चाक कर गयीं थीं
तीन गोलियां
मौजूद है जो
हमारे
क़ौमी अजायबघर में.

हुज़ूर,
सुनी हैं तकरीरें
हमने
साल-दर-साल
रहनुमाओं की,
देखें हैं ख्वाब
अमनपसंदी
और खुशहाली के
एक जलावतन
बादशाह की
लाल महराबों से.

हुज़ूर,
अस्तबल से ख़ारिज
हादसे-दर-हादसे
ज़िन्दगी हमारी
कुछ इस तरह गुज़री
कि फिलवक्त हम
मीरगंज की रेहड़ी में
जुते घोड़े हैं
ज़िन्दगी से बेज़ार
पीठ पर
चाबुक की मार
जिन्स और असबाब
सवारियाँ बेहिसाब,
भागम-भाग,
सड़ाप!
सड़ाप!!

हुज़ूर,
ज़िन्दगी औ'  ज़िल्लत में,
जुर्म औ'सियासत में,
अब
ज्यादा फर्क
नहीं रहा.

आखिरत
ये इल्तिजा है  हमारी
कि हमें
गोली से
उड़ा दिया जाये
ताकि हमारी
जवान होती नस्लें
देख सकें हश्र
हमारी
बिकी हुई आज़ादी का,
खिदमत गुजारी का.

हुज़ूर
बाद सुपुर्दे ख़ाक
लिखवा दिया जाए
एक पत्थर पर
दफ़्न हैं यहाँ
वे घोड़े
जो हवा थे
आसमान थे
हयाते दरिया की
रवानी में
मौत ज़िन्दगी का
मुकाम सही
ज़िन्दगी
मौत की गुलाम नहीं. 

युग संध्या
(एक शोक गीत)

वही
कुहाँसा,
              वही अँधेरा,
वही
दिशाहारा-सा जीवन,
                     इतिहासों की
                     अंध शक्तियां,
जाने हमें
कहाँ ले जाएँ.
***
                     अट्टहास
                     करता समुद्र है
                     जमुहाई लेते पहाड़ हैं,
एक भयावह
जल-प्रवाह में
समाधिस्थ होते कगार हैं,
                      दुविधाग्रस्त,
                      मनास्थितियाँ हैं,
                      विपर्य्यस्त है जीवन-दर्शन,
एक घुमते
हुए वृत्त पर
ऊंघ रही अनथक यात्राएं .
***
चन्दन-केसर,
कमल-नारियल,
शायद अब निर्वश रहेंगे,
                      गूंगी होंगी
                      सभी ऋचाएं,
                      अधरों पर विष-दंश रहेंगे,
रोंदे हुए
भोजपत्रों पर
सिसक रहे सन्दर्भ पुरातन ,
                       बूढ़े
                       बोधिवृक्ष के नीचे
                       रूधिरासिक्त हैं परम्पराएं.
***
अन्धकार में
डूब चुकी हैं
सूर्य-वंशजा अभिलाषाएं,
                       हम सबके
                       शापित ललाट पर
                       खिंची हुई हैं मृत रेखाएं ,
मरणासन्न
किसी रोगी-सा
अस्तोन्मुख सांस्कृतिक  जागरण
                       ठहर गयी हैं
                       खुली पुतलियाँ
                       जड़ीभूत हैं रक्त-शिराएं.
('साप्ताहिक हिंदुस्तान', १८ अप्रैल, १९६५)

हम जाने या राम !

कैसे बीते
दिवस हमारे
हम जाने या राम!
*
                         सहती रही
                         सब कुछ काया,
                         मलिन हुआ
                         परिवेश,
                         सूख चला
                         नदिया का पानी,
                         सारा जीवन
                         रेत,
उगे काँस
मन के कूलों पर
उजड़ा रूप ललाम.
**
                        प्यार हमारा
                        ज्यों इकतारा ,
                        गूँज-गूँज
                        मर जाय,
                        जैसे निपट
                        बावला जोगी
                        रो-रो
                        चित उडाय ,
बात पीपल
घर-द्वार-सिवाने
सबको किया प्रणाम .
***
                        आँगन की
                        तुलसी मुरझाई,
                        क्षीण हुए
                        सब पात,
                        सायंकाल
                        डोलता सर पर,
                        बूढा नीम
                        उदास,
हाय रे! वह
बचपन का घरवा
बिना दिए  की शाम.
****
                       सुन रे जल
                       सुन री  ओ माटी
                       सुन रे
                       ओ आकाश,
                       सुन रे ओ
                       प्राणों के दियना,
                       सुन रे
                       ओ वातास,
दुःख की
इस तीरथ याश में
पल न मिला विश्राम.
('कादम्बिनी', फरवरी, १९९६)

तू न जिया न मरा !

तू न जिया
न मरा,
                       ज्यों कांटे
                       पर मछली,
प्राणों में
दर्द पिरा.
*
                       सहजन की
                       डाल  कटी ,
                       ताल पर
                       जमी काई,
                       कथा अब
                       नहीं कहता
                       मंदिर वाला
                       साईं,
दुःख में
सब एक वचन
कोई नहीं दूसरा.
**
                       औषधि
                       जल
                       तुलसीदल
                       सिरहाने
                       बिगलाया,
                       ईंधन कर दी
                       अपनी उत्फुल काया,
धरती पर
देह-धरम
आजीवन हुक-भरा.
***
                       माथे पर
                       गंगाराज,
                       हाथों में
                       इक्तारा,
                       बोला
                       चलती बिरियाँ
                       जनमजला
                       बंजारा,
वैष्णवजन
ही जाने
                       वैष्णवजन का
                       दुखड़ा!
 ('धर्मयुग', १५ फरवरी, १९७०)

सुन भाई हर्गुनिया, निर्गुनिया फाग

जल ही
जल नहीं रहा,
                     आग नहीं
                     आग.
सूरत बदले
चेहरे,
                     सीरत बदला
                     जहान,
पानी उतरा
दर्पण,
                     खिड़की-भर
                     आसमान,
ढलके
रतनार कंवल ,
                     पूरते
                     सुहाग.
जीते-
मरते शरीर,
                     दुनिया
                     आती-जाती,
जूझते हुए
कंधे,
                     छीजती हुई
                     छाती,
कल ही
कल नहीं रहा,
                     आज नहीं
                     आज,
सुन भाई
हर्गुनिया,
                     निर्गुनिया
                     फ़ाग.
 ('साप्ताहिक हिंदुस्तान', १३ फरवरी, १९७७)

 बापू के देश !

ऋण को
ऋण से भरते
मूंज हुए केश,
                   अपनी
                   तक़दीर रहन
                   उनके आदेश.

ग़ुरबत की
हथकड़ियाँ\
बचपन में पहना दीं,
                  हमको
                  बंधक  सपने
                  उनको दी आज़ादी,
उनको
सब राज-पाट
हम तो दरवेश.

                  राम भजो
                  रामराज
                  समतामूलक समाज,
पातुरिया
राजनीति
ऒखत सत्ताधिराज,
                  चिथड़ा
                  चिथड़ा सुराज
                  बापू के देश.
 ('कादम्बिनी', जनवरी, १९६२)

अग्नि प्रणाम

बूढा बरगद
छाँह घनेरी,
                   मंदिर
                   घाट
                   नदी के,
आसमान
धूसर पगडण्डी,
                   कब से तुझे
                   पुकारे,
लौट न आ रे
लौट न आ रे…
*
सौदागर
नगरी में जाकर,
                   क्या खोया
                   क्या पाया,
भोला मुखड़ा
सपन सजीले ,
                   हीरा
                   कहाँ गंवाया,
कहाँ गया
तेरा इकतारा,
                   राम
                   कहाँ बिसराया ,
कुछ तो कह
ओ राम बावरे
                   कुइच तो गा रे !
**
कंचन नगरी
छत्र बिराजै,
                   मंदिर बरन
                   मदिरा-सुख साजै,
कामिनी
निरत करे हमजोली ,
                   रंग अनंत
                  अनंत ठिठोली,
-ऐहिक
इंद्रजाल उरूझानी
                  हिवड़ा
                  हुडुक-हुडुक हलकानी,
माहुर-धार
कटार सरीखी,
                  तृष्णा
                  मृगतृष्णा रे,
मातुल
पितुल कहाँ रे !
***
प्राण-पुहुप
जननी हम तेरे,
                  पुनरपि जन्मम
                  हेरे-फेरे,
निपट अजोग,
ललाट लिखाने,
                  हम हीरा
                  अनमोल बिकाने,
टूटा
रुनक-झुनक
इकतारा,
                   ना हम जीते
                   ना जग हारा,
लीजो
अग्नि-प्रणाम हमारे,
                   कीजो
                   हमें क्षमा रे !
 ('साक्षात्कार', अगस्त, १९९८) 

जीव गान

नाहिन चाहिबे
नाहिन रहिबे
हंसा व्है उड़ि जइबे रे !
*
काया-माया
खेल रचाया
                 आपु अकेला
                 जग में आया
भीतर रोया
बाहिर गाया
नाहिन रोइबे
नाहिन गाइबे
तम्बूरा चुपि रहिबे रे !
**
सब सुख सूने
सब दुख दूने
                 पात पडंता
                 मरघट-धूने,
नेह बिहूने
गेह बिहूने
                 अगिन पंख
                 झरि जइबि रे,
नाहिन जीइबे
नाहिन मरिबे
मरन-कथा क्या कहिबे रे !
('गगाचांचल', जनवरी-मार्च, २०००)


पुलिया पर बैठा एक बूढ़ा

पुलिया पर
बैठा एक बूढ़ा
काँधे पर
मटमैला थैला,
थैले में
कुछ अटरम-सटरम
आलू-प्याज
हरी तरकारी
कुछ कदली फल
पानी की
एक बोतल भी है
मदिरा जिसमें मिली हुई है,
थैला भारी.


बूढ़ा बैठा
सोच रहा है
बाहर-भीतर
खोज रहा है,
सदियों  से
ग़ुरबत के मारे
शोषण-दमन
ज़ुल्म सब सहते
कोटि-कोटि
जन के अभाव को
उसने भी
भोगा जाना है
उसने भी
संघर्ष किया है
आहत लहुलुहान हुआ है
सच और हक के
समर-क्षेत्र  में
वह भी
ग़ुरबत का बेटा है.


मन ही मन
बातें करता है
गुमसुम गुमसुम
बैठा बूढ़ा
बातों-बातों में  अनजाने
सहसा  उसके
क्षितिज कोर से
खारा सा कुछ बह जाता है
चिलक दुपहरी
तृष्णा गहरी,
थैले से बोतल निकलकर
बूढ़ा फिर
पीने लगता है
अपना कडुवा
राम-रसायन
पीना भी आसान नहीं है,
घूँट-घूँट
पीता जाता है
पुलिया पर
वह प्यासा बूढ़ा

उसकी
कुछ यादें जीवन की
शेष अभी भी
कुछ सपने हैं
जो उसके बेहद अपने हैं,
कुछ अपने थे
जो अब आकाशी सपने हैं,
उसकी भी
एक फुलबगिया थी,
प्राण-प्रिया थी
उसके संघर्षों की मीतुल
चन्दन-गंध सुवासित शीतल
अग्नि-अर्पिता है
दिवंगता है

रोया-रोया
खोया-खोया
काग़ज  पर
लिखता जाता है
कथा-अंश
दंश जीवन के
पुलिया पर
बैठा वह बूढ़ा
तभी अचानक
देखा उसने
झुग्गी का अधनंगा बालक
कौतुक मन से
देख  रहा है
सनकी बूढ़े को
बूढ़ा फिर
हँसने लगता है
बालक भी हँसने लगता है,
दोनों छगन-मगन हो जाते
थैले से
केला निकालकर
बूढ़ा बालक को देता है
उठकर फिर वह
चल देता है
उस  पुलिया से
राह अकेली
भरी दुपहरी.


(लेखिका-परिचय: 
जन्म: 27 दिसम्बर, 1973
शिक्षा: बी.एस.सी., एम.ए., बी.एड., पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा
सृजन: कई लेख, कविताएँ  और समीक्षा स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
ब्लॉग: ऋतु
संप्रति: दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन
संपर्क:  rituparna_rommel@yahoo.co.in)





विकास की अंधी दौड़ में आम छत्तीसगढ़िया ग़ायब

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ज़ुलेख़ा जबीं की क़लम से

आदिवासी और स्त्रियों के बहाने
तेजी से विकसित होते भारत में भौतिक विकास तो चरम की तरफ है मगर नागरिक विकास में भारत लगातार पिछड़ता जा रहा है। आज से 12 बरस पूर्व (लगभग 1करोड़ 55लाख 98 हजार की आबादी वाले छग में 66 लाख 36 हजार औरतें, और 67लाख 11 हजार मर्द ) जब एक राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ का उदय हुआ, तो उसकी बड़ी वजह भूगर्भीय खनिज संपदा के साथ ही इस क्षेत्र की विशेष सामाजिक, सांस्कृतिक पहचान के साथ ही यहां की आदिवासी बहुलता भी थी। छत्तीसगढ़ की 32 फीसद आबादी आदिवासियों की है। विकास के नाम पर राज्य में आदिवासियों/आम जनता खासकर औरतों की जमात को जिस तरह लाठी, गोली और फौज से दबाया जा रहा है, जिस तरह से औरतों/बच्चियों पर किए जा रहे उत्पीड़न, शोषण, हिंसा व अत्याचारों में नित नए आपराधिक (नौकरशाही, राजनीतिज्ञों) आयाम जुड़ रहे हैं, सरकारी हिंसा के खिलाफ़ उठने वाली हर आवाज को देशद्रोह के नाम पर जिस तरह खामोश किया जा रहा है, राज्य में जिस तरह भू-गर्भीय संसाधनों की लूट खसोट मची है, और खूनी अ-सामाजिक तत्वों की जो नस्ल पैदा की जा रही है उसे देखकर यही लगता है कि आने वाले कई दशक आदिवासियों के खात्मे और अगली पीढ़ीयों के लिए संकट भरे होंगे।

प्रदेश के लिए कृषि तीन चैथाई आबादी का जीवनआधार है। यह अकल्पनीय लगता है कि राज्य की नदियों का पानी खेती को सींचने के बजाए उद्योगों के लिए मुनाफा पैदा कर रहा है और इसके लिए खनिजों की अंधाधुंध खुदाई करके जंगलों की जैव विविधता का खात्मा किया जा रहा है।  राज्य में करीब 70,000 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए एमओयू किए जा चुके हैं, ताप विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं।  (जबकि 2012 की केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण की रिपोर्ट के मुताबिक 2022 में पीक लोड 5800 मेगावाट अनुमानित है.) इसके लिए 70,000 एकड़ जमीन, 33करोड़टन कोयला, खनन के लिए 1.5 हेक्टेयर वनभूमि,  और 2669 घनमिलियन पानी प्रतिवर्ष खर्च होगा जिससे राज्य मंे 5.33 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हो सकती है (कमेटी आन इन्टीग्रेटेड इंफ्रास्ट्रक्चर डेव्हलपमेंट रिपोर्ट-छग सरकार) यहां विकास का मतलब बड़े बड़े विद्युत प्लांट, इनके अफसरों के लिए आलीशान रिहाइशी कांप्लेक्स,चमचमाती चैड़ी सड़कें, आलीशान शापिंग माल, हर समय उपलब्ध रहने वाली बिजली, उससे चलने वाले उपकरण, सभी चीजें आसानी से मुहैया कराई जा रही है. ताकि अमीरों को मुनाफा कमाने के रास्ते फराहम किए जा सकें। इसके लिए थोक में लोगों को जबरदस्ती उनकी जमीन, जंगल, जल से उन्हें बेदखल किया जा रहा है, जो विरोध कर रहे हैं उन्हें नक्सली, राजद्रोही बताकर खामोश करने की कोशिशें की जा रही हैं, जो इससे भी नहीं डरते उन्हें फर्जी मुठभेड़ों में मार गिराया जा रहा है। इन परिवारों की औरतों से निपटने के लिए उनपे शारीरिक, मानसिक उत्पीड़न, यौन शोषण, बलात्कार, हत्या जैसे औज़ार इस्तेमाल किए जा रहे हैं.

आइये देखें छग में जन विकास का सच दिखाती सरकारी रिपोर्टस क्या कहती हैं
जीडीपी में पिछड़ापन-छत्तीसगढ़ का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 2012 में 46.743 था जबकि इसके साथ ही वजूद में आए उत्तराखंड का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 79.940रुपए है। तमाम दावों के बावजूद हकीकत ये है कि 2000 में नए बने 3 राज्यों में छत्तीसगढ़ दूसरे नंबर पर है, जबकि देश का औसत प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पादन 61,564 रु है। ये और बात है कि छग के सकल घरेलू उत्पादन की विकासदर अच्छी है लेकिन अर्थशास्त्रियों के मुताबिक अगर हम पिछडे हुए हैं तो केवल विकासदर (18.36)अधिक होने से कुछ नहीं होगा।
सर्वाधिक मदद पाने के बावजूद गरीबों का बढ़ना-  रिजर्व बैंक के मुताबिक देश में सर्वाधिक आर्थिक मदद (1,540रु) पाने वाले राज्यों में छत्तीसगढ़ भी शामिल है लेकिन राज्य में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली जनसंख्या बढ़ती ही जा रही है।  रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़ों के मुताबिक केंद्र से झारखंड (1,556) और उड़िसा(1,688) के साथ ही छग (1,540) को भी प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति यह अनुदान मिलता है। उक्त तीनों राज्यों को प्रति व्यक्ति औसत अनुदान सबसे अधिक दिया जाता है, मगर छग में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली आबादी का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है। वर्तमान में छग की 40.1 फीसदी जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे वास कर रही है जबकि राज्य में वनसंपदा तथा प्राकृतिक संसाधन भरपूर हैं. राज्य में  38,200मिलियनटन कोयला है। 30,500मिलियनटन लौह अयस्क है। 30,500 मिलियनटन चूना पत्थर है,  600 मिलियनटन डोलोमाइट है। 96 मिलियनटन बाक्साइट है। इन सबके अलावा राज्य में हीरा, एलेक्जेंड्राइट, सोना और कोरंडम भी प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है। छग सरकार का दावा है कि सरकारी राजस्व का सिर्फ 32 फीसदी प्रशासन पे खर्च किया जाता है। बाक़ी का 68फीसदी विकास पे खर्च किया जाता है। लेकिन हकीकत में सरकार का ये दावा छग की (40.01फीसदी) गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की लगातार बढ़ती जनसंख्या के सामने कोरा झूठ साबित हो रहा है. (जबकि इस समय देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली आबादी महज 27.5फीसद है).
पीडीएस की स्थिति-एनएसएस के आंकड़ों के मुताबिक जहां 2004-05 में केवल आधे गरीब परिवारों से पास ही बीपीएल कार्ड था।  वहीं इस बरस के दौरान छग में आधा अनाज ही लोगों तक ही पहुंचता था. जिस राज्य की कम से कम दो तिहाई आबादी गरीबी में जी रही हो उस राज्य की विधानसभा में 23 करोड़पति विराजमान हों और 37 लाख गरीब परिवारों के लिए सस्ते अनाज की योजना राज्य में गरीबी की व्यापकता को व्यक्त करती है।
वित्तीय समावेशन में पिछड़ापन- वित्तीय सेवाओं के मामलें में छत्तीसगढ़ अच्छी हालत में नही है अर्थशास्त्र की भाषा में कहें तो वित्तीय समावेशन के नजरिए से छग राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे है। हकीकत ये है कि राज्य के रहवासियों की बैंक, बीमा, पेंशन तक में पहुंच औसत से काफी कम है.(अंतिम पांच में) देश के सभी राज्यों में छग की रेटिंग 32 वीं है और सूचकांक 27 है. यानि राज्य में प्रति 100 लोगों में 27 लोगों की ही पहुंच वित्तीय सेवाओं तक है. विशेषज्ञों का मानना है कि छग में वित्तीय संस्थाओं तक मात्र 27फीसदी लोगों की पहुंच है तो सरकारी योजनाओं को उन तक कैसे पहंचाया जा सकता है? मतलब साफ है छग वर्तमान विकास के माडल के साथ अपना सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा है।


बाल अपराध में देश का पांचवां राज्य
देखा जाए तो राज्य में हो रहे विकास की लहर बच्चों तक नहीं पहुंची है और वे इस विकसित समाज में अमानवीय अत्याचार के शिकार हैं।  जिसमें राजधानी रायपुर का नाम देश में आठवें नबर पे लिया जा सकता है। और छ.ग बाल अपराधों में देश में पांचवे नंबर पर है। केंद्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरों की रिपोर्ट पे नजर डालें तो 2012 में बच्चों के खिलाफ विभिन्न थानों में दर्ज अपराधों की संख्या 1881 हैं। (जिसमें शिशु हत्याएं, बलात्कार, हत्या, अपहरण, आत्महत्या के लिए उकसाना, परित्याग करना, देह व्यापार के लिए बच्चियों की खरीद-फरोख्त और भू्रण हत्या शामिल है- इनमें अकेले राजधानी रायपुर में 204 अपराध और एजुकेशन हब कहलाने वाले दुर्ग में 268 अपराध दर्ज हुए हैं) राज्य में हो रहे इन बाल अपराधों के 10.2 फीसदी मामलों की जांच अभी तक बाकी है।
 बेटियों की क़त्लगाह  बनता छग
यूनाइटेड नेशंस के मुताबिक दुनिया में औरतों के साथ की जाने वाली हिंसा में भारत 5वें नंबर पे है। पाकिस्तान जैसे देश से भी पीछे है. छग में बलात्कार की बढ़ती हिंसा पर नजर डालें तो 2010 में 1012 बलात्कार के प्रकरण विभिन्न थानों में दर्ज किए गए (बावजूद इसके कि एफआईआर करवाना कितना मुश्किल है) जहां पीड़िताएं गुमनाम हो चुकी हैं या मौत को गले लगा चुकी है और उनके अपराधी आजाद घूम रहे हैं, ऐसे आंकड़े सरकार के पास नहीं हैं। ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब एक होनहार महिला खिलाड़ी को उसके ही कोच की बदनीयती का शिकार बनना पड़ा। बात खुलने पर कोच पर अपराध दर्ज होना तो दूर उसे बचाने की सरकारी स्तर पर सरगर्मियां किसी से छुपी नहीं है। उच्च शिक्षा में महिलाओं के शोषण का आलम ये है कि इकलौती सेंटरल यूनिवर्सिटी में एक महिला व्याख्याता कुलपति द्वारा शारीरिक, मानसिक शोषण किए जाने की गुहार पिछले दो वर्षों से लगातार लगा रही है मगर आज तक संबंधित थाने ने उनकी एफआईआर नहीं लिखी और न ही किसी तरह की जांच शुरू की गई। राष्ट्रपति तक मामला सुबूतों और गवाहों सहित पहुंचाया गया मगर राज्य के मुख्यमंत्री के प्रिय और केंद्र सरकार के चहेते कुलपति आज भी अपने पद में रौब के साथ बने हुए हैं। शोधार्थी छात्राओं के साथ होने वाले यौन शोषण में जिस तरह बढ़ोतरी हो रही है उससे तो लगता है कि बहुत जल्द राज्य महिला शिक्षार्थियों के यौन शोषण में भी अव्वल नंबर की श्रेणी में गिना जाने लगेगा।

2011 की जनगणना के मुताबिक जहां देश में औरतों का अनुपात प्रति 1000मर्दा की तुलना में 940 है।  वहीं छग का औसत 991 लेकिन राज्य के बड़े शहरों में यह जसं 956 हैं. तो 0-6बरस की उम्र का लिंगानुपात यहां 964 और 932 है. (रायपुर,बिलासपुर,दुर्ग कोरबा,रायगढ़ ). जबकि ग्रामीण इलाकों में 1000 पे 1004 औरतें हैं. तो वहीं 0-6 बरस उम्र की बच्चियों की संख्या आज भी 972 है.(बस्तर, दंतेवाड़ा, महासमुंद, राजनांदगांव, धमतरी, कांकेर, जशपुर) मतलब साफ है राज्य के बड़े शहरों में तथाकथित विकास का उन्माद बेटियों का खात्मा करने पे उतारू है. यानि आदिवासी (विकास की नजर में असभ्य)आज भी अपनी बेटियां को जिन्दा रखने में गर्व महसूसते हैं। ताजा आंकड़े यही दिखा रहे हैं कि राज्य के बड़े शहरों की तुलना में छोटे शहरों में बेटियों का अनुपात ज्यादा है। बेटियों को भ्रूण  में मार डालने का सभ्य धंधा इन बड़े शहरों में पिछले एक दशक से खूब फलफूल रहा है यहां बंगाल और उड़िसा की बेटियां के भ्रूण  भी चिंहाकित करके मार दिए जाते हैं। नालियों में मिलने वाले स्वस्थ्य मादा भ्रूण  की तादाद भी कुछ कम नहीं, .(सुबूतों के साथ शिकायतों के बावजूद)मजाल है जो सरकार ने ऐसे किसी भी सेंटर पे आज तक कोई कड़ी कार्रवाई की हो।

बलात्कार -नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो की 2012 की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में हर दिन तीन औरतें बलात्कार का शिकार होती हैं। औरतों के साथ बलात्कार की घटनाओं की अपराधदर 8.41 फीसद से राज्य देश में सातवें स्थान पे चमक रहा है। 2013 के ताज़ा आंकड़ों पे नजर डालें तो राज्य 2012 में कुल 1034 औरतें बलात्कार की शिकार हुई हैं (350 औरतों के अपहरण के मामले और 980 घरेलू हिंसा में पति/रिश्तेदारों द्वारा प्रताड़ना के मामले दर्ज किए गए) जबकि 2011 में 1053 औरतें बलात्कार की शिकार दर्ज की गई। यहां भी एजुकेशन हब कहलाने वाले दुर्ग जिले (शहरी)में बलात्कार का क्राइम रेट 13.50 है तो राजधानी रायपुर में ये दर 11.76 है. शीलभंग की कोशिश में पिछले बरस 1601दर्ज मामलों के साथ यह राज्य देश में सातवें नंबर पे हैं. और इसका दुर्ग शहर पांचवे नंबर पे दर्ज है।
हत्या-राज्य में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा का ये आलम है कि सालभर(2012) में हत्या के 320 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए जिसमें महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा है अकेले रायपुर में 97 मामले थानों में दर्ज हुए जिसमें 34 महिलाओं का कत्लेआम किया गया।
आदिवासी बालाओं के साथ हिंसा- चूंकि छग मातृपधान सत्ता वाला आदिवासी बहुल राज्य है यहां आदिवासी महिलाओं के साथ चिंहाकित अलग तरह की हिंसा चिंतित करने वाली है जैसे- छग के बस्तर संभाग (संपूर्ण आदिवासी )का कांकेर जिला के नरहरपुर ब्लाक के झालियामारी गांव के एक प्राइमरी आदिवावी कन्या आश्रम जहां 46 छात्राएं ( 5से 12 वर्ष की)रहती हैं- पिछले 2 बरस से यहां की 11 बच्चियांे के साथ वहीं के शिक्षाकर्मी और चैकीदार बलात्कार, यौन शोषण करते हुए, मारपीट कर किसी से न बताने के लिए उन्हें धमकाते रहे हैं। औचक निरीक्षण में पहुंची स्थानीय कलेक्टर से आश्रम की पीड़ित बच्चियों ने अपने साथ की जा रही घिनौने अपराध की जानकारी दी तब मामला बाहर आया और आनन फानन में सिर्फ चैकीदर की गिरफतारी की गई और शिक्षा कर्मी फरार घोषित हो गया. अधिकारी स्तर पर कोई जवाबदेही, जिम्मेदारी या कार्रवाई अब तक निल है। इसके साथ ही आदिवासी औरतों के साथ यहां तैनात राज्य एवं केंद्र सरकार के सेना बल द्वारा विभत्स यौन हिंसा व उत्पीड़न की घटनाएं अंजाम दी जाती है. साथ ही हिरासत में इन औरतों के साथ बलात्कार यौन उत्पीड़न, शोषण राज्य में कोई मुददा ही नहीं है. पुलिस हिरासत में, एसपी की मौजूदगी में सोनी सोरी के गुप्तांगों में पत्थर घुसेड़े गए जिसपर न महिला आयोग और न अदालतें सुनवाई करने को तैयार हैं।

2008-2009 के आंकड़ों के मुताबिक 20 हजार आदिवासी लड़कियां सरगुजा और जशपुर जिलों से गायब हो चुकी हैं। राज्य से 3000 लड़कियां की गुमशुदगी का इकरार खुद सरकार 2 बरस पहले ही विधानसभा में कर चुकी है लेकिन अभी तक इनमें से ज्यादातर अपने परिजनों तक नहीं पहुच पाई हैं। राज्य से मानव तस्करी व्यवस्थित तरीके से जारी है जिसमें बड़ी तादाद औरतों और नाबालिग बच्चियों की है मगऱ इन्हें रोकना तो दूर पिछले नौ बरसों में सरकार इनके ठेकेदारों और दलालों पर भी हाथ नहीं डाल पाई है क्योंकि इन गिरोंहों के सरगना छग और दिल्ली में बैठे रसूख वाले (गैर आदिवासी)मंत्री और राजनीतिज्ञ हैं।

 38.47फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार

कुपोषण के मामले में देश के पूर्वाेत्तर राज्यों के हालात छग से बेहतर है। बच्चों में खून की कमी का आंकड़ा 2012 में 70 फीसदी था।  केंद्र सरकार के आंकड़े देखें तो छग में 38.47फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. जबकि देश में सबसे कम 2फीसद कुपोषण अरूणाचल प्रदेश में दर्ज की गई है.(जबकि इन राज्यों को गरीब/पिछड़ा माना जाता है) लेकिन कुपोषण और एनीमिया के मामलों छग उनसे पिछड़ा हुआ है।
स्वास्थ्य- एओआई की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं की बड़ी कमी है.. रिपोर्ट में साफ लिखा है कि ग्रामीण इलाकों के वंचित तबकों में भी औरतों और बच्चियों के स्वास्थ्य के लिए सरकारी सुविधाओं की बड़ी कमी सामने आई है। दंतेवाड़ा जिले के सिर्फ 59 गांवों में ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं।  सरकारी अस्पतालों में बढती अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, डाक्टरों की लापरवाही, स्वास्थ्य सुविधाओं और संसाधनों की कमी के चलते मरीजों की मौत के मामले बढ़े हैं. रायपुर के गरियाबंद में 36 मरीजों की मौत जिसमें आधी संख्या औरतों की है चिंता करने लायक है।
सरकारी नेत्र शिविरों में आए दिन गरीब बूढ़ों के अंधे होने की खबर अब किसी को नहीं चैंकाती हैं। पिछले बरस करीब 70 लोग अंधे हो गए और 4 की मौत हो गई।
 नेशनल इंस्टीटयूट आफ न्यूट्रीशन के मुताबिक 18से 29 वर्ष के भारतीयों को 2,320 कैलोरी भोजन की रोज जरूरत पड़ती है, लेकिन छग में 1900 कैलोरी भोजन भी एक छत्तीसगढ़िया को मयस्सर नहीं है। यहां राज्य सरकार अपने नागरिकों को पर्याप्त कैलोरी युक्त भोजन भी नहीं दे पा रही है। जबकि मंत्रियों के बाहर निकलते हुए पेट फट पड़ने को बेताब हैं. ऐसे में पति को परमेश्वर मानने वाले समाज में जहां 80 फीसदी गरीबी है उस राज्य में औरतों को कितना कैलोरी में भोजन मिलता होगा इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।
गए बरस राज्य के बस्तर जैसे (धुर आदिवासी) इलाकों में रेडक्रास जैसी संस्था पे सरकार ने रोक लगा दी है। इन इलाकों में सरकारी सुविधाओं की बेहद कमी की वजह से कुपोषण, एनीमिया, औरतों की स्वास्थ्य समस्याओं के कारण मौतों की संख्या बढ़ी है। यह इलाका माओवाद से प्रभावित है और सरकार जहां एक तरफ आपरेशन ग्रीनहंट जैसे कार्यक्रम चला रही है वहीं सलवा जुड़ुम जैसी जन मिलेशिया द्वारा उद्योगपतियों के हित में आदिवासियों का सफाया कर रही है।  अतः पहले से ही यहां स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी रही है तब भी यहां काम कर रही संस्थाओं को भी भगाया जा रहा है. ’’डाक्टरर्स विदाउट बार्डर’’ और ’’रेडक्रास’’ पर 2011 पर माओवादियों का इलाज करने का आरोप लगाकर रोक लगा दी गई है।

शिक्षा-79फीसदी आदिवासी आबादी वाले दंतेवाड़ा जिले की साक्षरता दर देश में सबसे कम है वहीं जिले के 1220 में से 700 गांवों में विद्यालय नहीं हैं, यहां के 600 से भी अधिक गांवों के तीन लाख से भी ज्यादा लोग पिछले नौ बरसों में सशस्त्र संघर्ष की वजह से विस्थापित हो चुके है। राज्य में प्रायमरी स्तर की कक्षा में पढ़ने वाले आदिवासी बच्चों में से 16 हजार 386 बच्चे प्रतिवर्ष ड्राप आउट होते हैं, तो अनुसुचित जाति के 2हजार 582 बच्चे स्कूलों से बाहर हो जाते हैं। यही नहीं ओबीसी के 7हजार 60 बच्चे और सामान्य वर्ग के 2हजार 243 बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। मात्र प्राथमिक स्तर पर हमारे नौनिहाल इतनी बड़ी मात्रा में स्कूल से बाहर जा रहे हैं तो इनके कारणों की पड़ताल करना ही जरूरी नहीं है बल्कि उन विसंगतियों को दूर किया जाना भी जरूरी है जिनकी वजह से ये बच्चे बाहर का रास्ता नाप रहे हैं।  शिक्षा विकास का पहला कदम है और उस पहले कदम के लिए राज्य में मजबूत जमीन अब तक नहीं बन पा रही है।
रोजगार- रोजगार गारंटी योजना के तहत सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2012-13 में राज्य में 43 लाख 92 हजार 789 परिवारों के पास मनरेगा जाब कार्ड था। जिसमें से 27 लाख 26 हजार 377 परिवारों ने काम मांगा था। कुल26 लाख 26 हजार 54 परिवारों को काम मिल सका। उनमें से भी पूरे 100 दिनों का काम महज 2 लाख 39 हजार 43 परिवारों को ही मिल पाया। गौरतलब है कि इस कानून के सामाजिक और आर्थिक पहलू हैं। एक तरफ जहां इससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार बढ़ेगा जिसका सीधा फायदा उस परिवार को पहुंचेगा। जब घर में पैसा आएगा तो भोजन के साथ ही परिवार की मूल जरूरतें पूरी होंगी. कितनी हास्यास्पद बात है कि जिन कुल परिवारों के पास मनरेगा जाब कार्ड था (जबकि मजदूरी 155रू प्रति दिन थी) अगर सभी को 100 दिन की काम और मजदूरी मिलती तो उक्त परिवारों के पास (68,08,83,69.000)अड़सठ अरब रूपए आते।  अगर कार्य मांगने वाले सभी 27,26,377 परिवारों को 100दिनों का रोजगार दिया जाता तो छग में बयालीस अरब(42,25,43,500) रूपए आते.मगर सिर्फ 2,39,430 परिवारों को ही 100 दिनों का काम मिल पाया अतः सिर्फ तीन अरब रूप्ए (3,67,41,66,500)ही राज्य में आ पाए मगर भ्रष्ट नौकरशाही ने वो भी आज तक पूरी तरह मजदूरों तक नहीं पहूंचाए हैं।

कृषि- राज्य बनने के बाद कृषि रकबे में लगभग 10 लाख हेक्टेयर की कमी आई है और इतने ही किसान भूमिहीनों और सीमांत श्रेणी में शामिल हो कर गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में जा चुके हैं। धान का कटोरा कहलाने वाला छग आज देश के अठारह राज्यों की सूची में अठारहवें नंबर पे है। विकास करते देश भारत के लिए ये कम शर्मनाक बात है कि 2001की जनगणना में जहां छग में कुल कामकाजी लोगों में किसानों की जनसंख्या 44.54 फीसदी थी वह 2011 में घट कर 32.88 फीसदी रह गई. जबकि इसके विपरीत खेतीहर मजदूरों की जनसंख्या में आश्चर्य करने लायक बढोत्तरी हो गई।  2001 में जहां कुल कार्मिकों में 31.94 फीसद खेतिहर मजदूर थे लेकिन 2011 में इन्हीं खेतिहर मजदूरों की जनसंख्या बढकर 41.80 फीसद हो गई। जिससे लाखों किसान मजदूर बन गए. भारत सरकार की कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी)  की अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ की इस हालत की जिम्मेदार राज्य सरकार की नीतियां है।

केंद्र सरकार द्वारा आबंटित बजट- केंद्र सरकार, सुरक्षा संबंधी व्यय योजना के तहत नक्सल उन्मूलन अभियानों पर राज्य सरकारों(वर्तमान में वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित 9 राज्यों अर्थात आंध्र प्रदेश, बिहार, छग झारखंड मप्र महाराष्ट उड़िसा) द्वारा किए गए व्यय की प्रतिपूर्ति करती है।  पिछले दस वर्षा के दौरान सुरक्षा संबंधी व्यय योजनांतर्गत उक्त राज्यों को 2002.03 से लेकर 2011.12 तक 811.09 करोड़ रूपए जारी किए गए हैं। इसके अलावा इस अभियान के लिए मुहैया कराई गई हवाई उड़ानों पर साल 2010-11 में 16.10 करोड  और 2011-12 में 13.30 करोड रूपए खर्च किए गए हैं।  इसके साथ ही पुलिस थानों के निर्माण और सुदृढीकरण ( ‘Construction/fortification of Police Stations’  )स्कीम के तहत नक्सल प्रभावित उक्त राज्यों को साल 2010-11 में 10 करोड और साल 2011-12 में 210 करोड रूप्ए खर्च किए गए हैं। इन्हीं 9 राज्यों में Special Infrastructure Scheme    के तहत साल 2008-09 में 9999.92 लाख, साल 2009-10 मे 3000 लाख , साल 2010-11 में 13000 लाख तथा 2011-12 में 18582.01 लाख रूपए दिए गए हैं. यानि  नक्सल प्रभावित 9 राज्यों में विगत 4 बरसों में Special Infrastructure Scheme   के तहत 445.81 करोड़ रूप्ए खर्च किए जा चुके हैं।
इसके अलावा केंद्र सरकार द्वारा शत प्रतिशत वित पोषण से नक्सल प्रभावित राज्यों लिए विशेष अवसंरचना योजना शुरू की गई है जिसके तहत 11वीं पंचवर्षीय योजना अवधि के दौरान इस योजना में 500 करोड़ रूपए आबंटित किए गए हैं. 2008-09 में 100 करोड़,2009-10 मे 300 करोड़, और 2010-11 में 100 करोड़ रूप्ए जारी किए जा चुके हैं।
इसके यही नहीं नक्सलवाद से निपटने के लिए गृह मंत्रालय का नक्सल प्रबंधन प्रभाग लोगों को हिंसा छोड़ने के जारी विज्ञापन में पिछले दो बरसों में 10 करोड़ 80 लाख रू. जारी कर चुका है।  (2010-11 मंे 570 लाख और 2011-12 में 510.19लाख रू.)गौरतलब है कि 1 अपे्रल 2008 को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने आतंकी और सांप्रदायिक हिंसा में मारे जाने वाल लोगों के परिजनों को मुआवजा देने के लिए एक योजना शरू की जिसके तहत आतंकी घटना या सांप्रदायिक हिंसा में मारे जाने वाले एवं गंभीर रूप से घायल होने वाले लोगों के परिजनों को 3 लाख रूप्ए राहत राशि देने का प्रावधान है। (केंद्र सरकार की यह योजना 22 जून 2006से नक्सली हिंसा में मारे जाने वाले लागों के परिजनों पर भी लागू है.) मगर जमीनी हकीकत ये है कि छग में किसी भी आदिवासी परिवार (महिला/पुरूष)को इस मद से कोई राशि नहीं दी गई है।

राज्य बनने के पहले से ही आदिवासियों के खात्मे की साजिश-
गौरतलब है कि छग में आदिवासियों की जनसंख्या कम करने की साजिश राज्य बनने से पहले केंद्र की एनडीए सरकार ने शुरू कर दी थी। 2001 की जनगणना में बस्तर के 564 गांव और जशपुर के 300 गांवों को वीरान बता कर उनकी गणना ही नहीं की गई थी। आज फिर 2011 की जगणना के आंकड़ों पे सवाल उठ रहे हैं।  शुरूआती आंकड़ों के मुताबिक़ छग राज्य की जनसंख्या में 22.59फीसदी वृद्धि हुई है। जहां एक तरफ कबीरधाम(मुख्यमंत्री की कांस्ट्वेंसी) की जसं में 40.06 फीसद,(रायपुर 34.59,बिलासपुर 33.02 फीसद) की वृद्धि हुई है वहीं धुर आदिवासी बस्तर के सुकमा में जसं वृद्धिदर 8.09 फीसदी,दंतेवाड़ा 11.09, बीजापुर 8.76, जशपुर14.65, कांकेर 15.01फीसदी वृद्धि दिखाई गई है. यानि आदिवासी बहुल सुकमा की तुलना में कबीरधाम की जनसंख्या 5 गुना बढ़ी है। जनगणना के इन आंकड़ों ने राज्य सरकार के विकास कार्यक्रमों पे भी सवालिया निशान लगा दिया है।
राजनीति में भागीदारी- छग देश के उन चुनिंदा राज्यों में है जहां औरतें श्रम में बराबर की भागीदार होने की वजह से निर्णयों में उनकी भागीदारी है. साथ ही चूड़ी प्रथा जैसी सशक्त सांस्कृतिक परंपरा भी छग की धरती में मौजूद है जो यहां की औरतों को मर्दा की हिंसक श्रेष्ठता और खराब शादीशुदा जिंदगी से निजात दिलाने में सहायक है।  ये और बात है कि बाहर से आए गैर छत्तीसगढ़िया सवर्ण धनाडय व्यापारी वर्ग की अय्याश प्रवृत्ति की वजह से यह स्वस्थ्य परंपरा भी औरत विरोधी दिखाई पड़ने लगी है। महिला प्रधान आदिवासी संस्कृति का द्योतक होने के बावजूद छग की राजनीति में औरतों की मौजूदगी उतनी सशक्त नहीं है जितनी होनी चाहिए। यहां महिला नेतृत्व पर पुरूषिया प्रभुत्व की वजह से नेतृत्व में  औरतों की तादाद नगण्य हैं। जबकि बहुसंख्यक आदिवासी नेतृत्व को महज चुनाव जिताने का जरिया मान लिया गया है लेकिन जीतने के बाद भी इन औरतों को वो जगह नहीं दी जा रही है. जिसकी वे हकदार हैं. महिला नौकरशाहों के साथ दुव्र्यवहार यहां आम बात है.( 32फीसदी आदिवासी बहुत राज्य में एकमात्र आदिवासी महिला मंत्री है जो अपना दूसरा कार्यकाल पूरा करेंगी.)
चंद अमीरों की अय्याशी के लिए जब सारे वंचित तबक़े समाज सुनियोजित तरीके से हाशिए में ढ़केले जा रहो हैं,  तब उनकी औरतों के हालात बेहतर कैसे हो सकते हैं? राज्य में औरतें मर्दो के कांधों से कांधा मिलाकर देश विकास में कृषि, खेल (अंतर्राष्ट्रीय) जगत में शिक्षा से लेकर भारतीय सीमा पर अपनी भागीदारी दर्ज करा चुकी है। ऐसे में तेजी से विकास की ढ़लान उतरते देश, धनाडय समाज और सरकारों को-औरत होने के गुणों सहित, उनकी संपूर्ण इंसानी/संवैधानिक हक़ों की हिफ़ाज़त, संरक्षित और सुरक्षित करने की जिम्मेदारी उठानी ही पडे़गी. वर्ना वर्तमान से भी तेजी से आगामी पीढ़ियों का लहू राज्य की धरती सिंचित करेगा और सरकारें माओवादी हिंसा की आड़ में अपनी जनसंहारक अमानवीय नीतियों की पर्दादारी नहीं कर पाएंगी।
राज्य में बढ़ाई जा रही नौकरशाहों, व्यापारियों, सवर्ण राजनीतिज्ञों और सरकारी हिंसा के तौर तरीकों से आदिवासी, दलित, महिला विहीन छग की कल्पना भी रोंगटे खड़े कर देती है। इसके अलावा राज्य में एक तरफ दक्षिण पंथियों की नफरत की राजनीति के तहत धर्मान्तरण के झूठे प्रचार और चर्च वर्सेस आरएसएस के राजनैतिक विद्वेष की आड़ में झूठे प्रचार द्वारा हिंसक हमलों का बढ़ाया जा रहा है,(इसाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ) दूसरी तरफ मुस्लिम अल्पसंख्कों के खिलाफ कुत्सित पूर्वाग्रह आधारित मानसिकता से सरकारी स्कीमों से उन्हें दूर रखते हुए उनके नागरिक अधिकारों का हनन पिछले 12 बरसों से बदस्तूर जारी है।  रहे उनके बच्चे तो वे किसी गिनती में ही नहीं है।  राज्य की विधानसभा (पिछले दो टर्म से) में इकलौते मुस्लिम विधायक (कांग्रेस) हैं। छत्तीसगढ में विकास के इस चरित्र को देखते हुए बक़ौल जनकवि गोरख पांडेय के मुताबिक़ अब यहां आमजन का भविष्यगान होगा--
सुनो कि हम दबे हुओं की आह इन्क़लाब है.
खुलो कि मुक्ति की खुली निगाह इन्क़लाब है.
उठो कि हर गिरे हुओं की राह इन्कलाब है.
हमारी ख़्वाहिशों का नाम इन्क़लाब है.
हमारी ख़्वाहिशों का सर्वनाम इन्क़लाब है.
हमारी कोशिशों का इक नाम इन्क़लाब है.
हमारा आज एकमात्र काम इन्क़लाब है.

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
(लेखिका-परिचय:
जन्म:9 अगस्त 1977, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में
शिक्षा: अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर तथा पत्रकारिता व जनसंचार में उपाधि
सृजन: मानवाधिकार पर प्रचुर लेखन-प्रकाशन, देशबंधु में कुछ वर्षों नियमित रिपोर्टिंग, कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित  
संप्रति: कई प्रमुख महिला संगठनों में सक्रिय और स्वतंत्र लेखन
संपर्क:Jabi.Zulaikha@gmail.com)
 

दंतेवाड़ा के दौर में

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अदनान कफ़ील की क़लम से


 दूर क्षितिज के पार

उदित हुआ है अंतर्मन में सहसा एक विचार
सोच रहा हूँ कुछ तो होगा, दूर क्षितिज के पार
निर्मम धागों से अब तक है, गुथी हुई यह काया
भाग रहा हूँ कब से जाने, फिर भी हूँ भरमाया
समय पाश से बच न पाया, घोर अँधेरा छाया
चिंतन करता,मंथन करता,क्या खोया क्या पाया
अनुत्तरित प्रश्नों को तुझसे अब भी है दरकार
सोच रहा हूँ कुछ तो होगा दूर क्षितिज के पार.
छवि तो तेरी अब भी है, अंतर्मन की गहराई में
मसल गयीं हैं खिलने से पहले कलियाँ अमराई में
दुनिया से बेग़ाने बच्चे खेल रहे मैदानों में
ख़ुद भी यूँ ही दिख जाता हूँ चेहरे से अनजानों में
जीवन मदिरा जिसने पी ली, क्यूँ जाता मैख़ानों में
टीस मारती अब भी बातें, मन के विस्तृत वीरानों में
नहीं कोई है सच्चा प्रेमी, नहीं कोई है यार
सोच रहा हूँ कुछ तो होगा, दूर क्षितिज के पार.
 
 स्मृतियाँ

इक भींनी ख़ुश्बू यादों की, अंतर में घुसती जाती है
उषा की मोहक लाली-सी, मन-नभ पे छिटती जाती है.
इक शून्य व्याप्त हो जाता है, मन मानों पर पा जाता है
गुज़रे लम्हों के जंगल में, मानो खोता-सा जाता है.
मन विकल-विकल हो जाता है, वह क्षण ज्वलंत हो जाता है
स्मृतियाँ कोमल स्वप्नों-सी, नयनों में बंधती जाती हैं.
अम्मा! अम्मा! चिल्लाता है, लय टूट-टूट भर्राता है
वह स्वर अनंत तक जाता है,'औ फिर थक के गिर जाता है.


 मेरी उदासी

तुम फुर्सत के क्षणों में मेरे आस-पास हो
मैं जब भी यादों के फूल चुनता हूँ
तुम ख़ुश्बू बन कर घुल जाती हो.
जब भी कोहरे से ढकी राहों पर
अकेला चलता हूँ
तुम्हें अपनी लड़खड़ाहटों में
महसूस करता हूँ.
जब भी किसी पत्थर पर बैठ कर
अपनी धड़कनों को सुनता हूँ
तुम कानों में कोई
निराशा का गीत
गुनगुना जाती हो.
मैं हमेशा तुमसे दूर भागता हूँ
पर तुम सामने प्रकट हो
मानो
मेरी खिल्ली उड़ाती हो.
आखिर तुम मुझसे
इतनी आसक्त क्यूँ हो ?
जो तुम मेरी
कलम की स्याही तक में घुल गयी ?
ऐ मेरी उदासी-
जवाब दो !

बर्बरता और ईसा

प्रिये !
आज ये हृदय
अति व्याकुल है
'औ सदियों से खड़ी
ये हांड-मांस की प्रतिमा
जर्जर हो चुकी है
संसृति की इस
बर्बरता से.
प्रिय ! मेरा रक्त
जो शायद अब भी लाल है
रिस रहा है
संभवतः
मुक्ति की अभिलाषा में .
पैबंद लगे मेरे वस्त्रों से
सड़े मांस की
बू आती है
और नीच भेड़िये
मेरा रक्त पी रहे हैं.
क्या इस दंतेवाड़ा के दौर में
मेरा अस्तित्व संभव है?
और कितनी सदियों तक
मैं आहार बनता रहूँगा
इन वहशी दरिंदों का ?
और आख़िर कब तक
मरियम जनती रहेगी
एक नए ईसा को ?
कब तब
कील ठोंके जायेंगे
मेरे इस वजूद में ?
कब तक ?
आखिर कब तक ?
लेकिन शायद
ये इस बात से अनभिज्ञ हैं
कि मेरी
उत्कट जिजीविषा
और मेरे
बाग़ी तेवर
कभी ठन्डे नहीं पड़ सकते.
यूँ ही ईसा
पैदा होता रहेगा
चाहे हर बार उसे
सूली ही क्यूँ न चढ़ना पड़े.

आवाज़
  
मैं तो आवाज़ था,
गूंजता ही रहा,
तुम दबाते रहे ,
हर घड़ी टेटुआ,
तुम सताते रहे ,
पर मिटा न सके,
मैं निकलता रहा ,
इक अमिट स्रोत से,
तेरी हर चोट पे.
तुम कुचलते रहे ,
मैं उभरता रहा,
तुम सितम पे सितम ,
मुझपे ढाते रहे,
लब को सिलते रहे,
अश्क ढलते रहे.
मैं बदलता रहा ,
हर घड़ी रूप को,
तुम तो अनपढ़ रहे ,
मुझको पढ़ न सके,
मेरी चुप्पी में भी ,
एक हुंकार थी ,
मुझमें वो आग थी ,
जो जला देती है,
नींव ऊँचे महल की ,
हिला देती है,
मुझमें वो राग है ,
मुझमें वो साज़ है,
जो जगा देती है ,
इक नया हौसला,
और बना देती है,
इक बड़ा क़ाफ़िला,
एक स्वर ही तो हूँ ,
देखने में मगर,
पर अजब चीज़ हूँ ,
तुम समझ न सके.

माफ़ करना
  
ऐ उर्वशी !!
आज तुम मेरी आँखों में
न देखो
और न मुझसे अपनी मासूम
स्वप्नों की दुनिया में
प्रविष्ट होने का आग्रह
करो.
और न मुझसे
किसी गीत की आशा रखो.

तुम सोच रही होगी
आज मुझे ये क्या हो गया ?
हाँ, मुझे कुछ हो-सा गया है
आज मेरे सुर खो गए हैं
मेरे साज़ भग्न हैं
जहाँ मेरे स्वप्नों की बस्ती थी
वहां अब बस राख
और धुआं है.
मेरी आँखों में विभीषिका के
मंज़र हैं
मत देखो मेरी तरफ
शायद डर जाओगी
इन स्थिर नयनों में
डरावने दृश्य अंकित हैं-
कोई स्त्री चीत्कार और
रोदन कर रही है
तो कोई बच्चा भूख से व्याकुल
स्थिर तर नयनों से
न जाने क्या सोच रहा है ?
जहाँ कोई तथाकथित रक्षक
भक्षक का नंगा भेस लिए
अपने शिकार की टोह में
घूम  रहा है.
तुम इन आँखों में
निरीह बेचारों को भी
देख सकती हो
जो एक मकड़-जाल में
उलझे
सहायता की गुहार
लगा रहे हैं.
यहाँ तुम उन मासूमों को भी
पाओगी जिन्हें
हक के बदले गोली देकर
हमेशा के लिए
सुला दिया गया
या कारे की तारीकियों में
फेंक दिया गया
असभ्य और जंगली कह कर.
तुम यहाँ उन बेबस माओं
को भी देख सकती हो
जिनके बेक़सूर चिरागों को
दहशतगर्द कह कर
हमेशा के लिए बुझा दिया गया.
तुम कुछ ऐसे भी दृश्य
देख सकती हो जो
अत्यंत धुधले हो चुके हैं
शायद उनपर समय की
गर्द बैठ गयी है.
क्या गीता,कुरान और
गुरु-ग्रन्थ की आयतें
नष्ट हो गयीं ?
क्या बुद्ध की शिक्षाएं
अपने अर्थ खो चुकीं ?
मालूम होता है उन्हें
दीमकों ने चाट लिया है
फिर बचा ही क्या है
यहाँ ?
मैं नहीं जानता
कहो प्रिये !
मैं कैसे इस कड़वे यथार्थ को
भूल कर
स्वप्नों में विचरण करूँ ?
कैसे प्रणय के गीत रचूं ?

अंतिम फैसला

हमारी मेहनत हमारे गहने हैं,
हम अपना श्रम बेचते हैं,
अपनी आत्मा नहीं,
और तुम क्या लगा पाओगे हमारी कीमत?
तुम हमें अपना हक़ नहीं देते,
क्योंकि तुम डरते हो,
तुम डरते हो हम निहत्थों से,
तुम मुफ्त खाने वाले हो,
तुम हमें लाठी और,
बन्दूक की नोक पे,
रखते हो-
लेकिन याद रक्खो,
हम अगर असलहे उठायें,
तो हम दमन नहीं,
फैसला करेंगे.
  
अँधेरा और चिंगारी

मैं कुछ भी नहीं था
हाँ,शायद कुछ भी नहीं
मेरी बातें साफ़ और
सपाट थीं
बिलकुल बारिश से धुले
आकाश की तरह
जिन्हें तुम अतिबौद्धिक
दार्शनिक,उन्मादी,सनकी
न जाने क्या क्या नाम देते थे.
मेरा आक्रोश कोई
क्षणिक उत्तेजना,कत्तई नहीं थी
मैं तो उन वर्षों तक की
दबी,कुचली भावनाओं की
एक प्रतिध्वनि मात्र था
मैं तो भोर की ठंडी हवा
के एक झोंके की तरह था
एक नई सुबह की
एक हलकी-सी लकीर भर था
हाँ,मैं कोई रौशनी का चिराग
नहीं था
मैं तो एक चिंगारी मात्र था
जिसे अँधेरा हर वक़्त
खा जाने की जुगत में
लगा रहता है
लेकिन मुझे अपने तुच्छ
होने का
ज़रा भी दुःख नहीं था
क्योंकि मैं फिर भी
अँधेरे से लाख गुना
बेहतर था.
  

मौत के सौदागर
 

ऐ मौत के सौदागरों !
मैं तुम्हें खूब पहचानता हूँ
वो जो तुम्हारे तोपों,बमों और मिसाइलों
को देख कर
तालियाँ पीटते हैं उन्हें भी
खूब जानता हूँ
तुम्हारा ये घिनौना प्रदर्शन
मुझे अखरता है
क्योंकि मैं तुम्हारी खेंची लकीरों को
नहीं मानता
तुम्हारे बटवारे को नहीं मानता
तुम्हारे ओछे और निकृष्ट
राष्ट्रवाद को नहीं मानता
क्योंकि वो इंसानियत के खिलाफ है
सारी खराबियों की जड़ है
वो विध्वंसकारी है
हमें उनकी कोई दरकार नहीं
तुम रक्षक की खाल में
छिपे भेड़िये हो
वक़्त आने दो जनरल !
हम अपने परचम
तुम्हारे सीनों में गाड़ेंगे
और
तुम्हारे ये हथियार,गोले, बारूद
तुम्हारी कब्र में......



(कवि-परिचय:
 जन्म: ज़िला-बलिया, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में जुलाई  30, 1994
संप्रति: अभी दिल्ली विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस आनर्स में स्नातक की पढाई कर रहे
सृजन: बचपन से ही शायरी और कविता का शौक़, छिटपुट प्रकाशन 
संपर्क: thisadnan@gmail.com)

हिंदी साहित्य को जाति व धर्म से निकलना होगा

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फ्रैंक हुज़ूर@ शहरोज़




रांची के सेंट जेवियर कॉलेज के छात्र रहे मनोज कुमार  अब फ्रैंक हुज़ूर बन चुके हैं। लंदन में इनके लेखन के दीवानों की कमी नहीं हैं। क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान खान पर लिखी उनकी किताब 'इमरान वर्सेस इमरान: द अनटोल्ड स्टोरी'बेस्टसेलर हो चुकी है। पिछले वर्ष आई 'इमरान खान द फाइटर'भी अंग्रेजी जगत में खूब चर्चा में रही। यह युवा लेखक कभी 'हिटलर इन लव विद मडोना'नाटक के कारण विवादों में आया था। इन दिनों पोर्न सिनेमा पर केंद्रित अंग्रेजी व हिंदी में हिंदी युग्म  से आई उनकी औपन्यासिक कृति 'सोहो : जिस्म से रूह तक का सफर'ने शोहरत की नई बुलंदी तय की है। इधर फोन पर उनसे लंबी बातचीत हुई। कहा कि रांची शहर उन्हें खूब याद आता है। सेंट जेवियर जैसा कॉलेज कैंपस उन्होंने कहीं नहीं देखा।

छह महीने के थे कि मां गुजर गईं: मां की गोद महज छह माह नसीब हुई। उसके बाद उनका देहांत हो गया। मां के ममत्व से छुटपन से ही वंचित रहा। इमरान वाली पहली किताब मां को ही समर्पित की है। पटना में रह रहे पिता से सालों साल मुलाकात नहीं हो पाती है। इधर के पांच वर्षों में मैं मुंबई, दिल्ली, लाहौर व लंदन में डोलता रहा हूं। पिता लेखक बनने के फैसले से असंतुष्ट थे। वह मुझे आईएस या आईपीएस देखना चाहते थे। लेकिन अब मेरे लेखन की अहमियत को समझने लगे हैं।

रांची में हुआ मैच्योर: 92 में पहली बार कविता लिखी, उसे याद करते हुए। शुरुआत से ही अभिव्यक्ति का माध्यम अंग्रेजी रहा।मनोज खान के नाम से इंग्लिश में कविताएँ  पत्र-पत्रिकाओं में शाया हुई। लेकिन मुझे लगा कि अंदर में एक लेखक सांस ले रहा है, उसे तवज्जो देना चाहिए। जेवियर की रिच लाइब्रेरी ने मेरे मानस को गहरे तक प्रभावित किया। मैंने जमकर यहां की दुर्लभ किताबों का फायदा उठाया। सच कहूं, तो मेरा स्टंडर्ड यहीं मैच्योर हुआ।

हिटलर इन लव विद मैडोना पर मिली धमकियां: मेरे नाटक 'हिटलर इन लव विद मैडोना'को काफी पसंद किया गया। पर उसपर विवाद भी  हुआ। मेरे पुतले जलाए गए।  पुस्तक तीन वर्षों के लिए प्रतिबंधित कर दी गयी।  दरअसल मैंने देश में मौजूद धार्मिक कट्टरता को दिखाने की कोशिश की थी। इस कट्टरता के पीछे एक राजनीतिक दल का हाथ रहा है। न सिर्फ मुझे बल्कि नाटक के कलाकारों को भी उस दल के कार्यकर्ताओं ने धमकियां दीं।

इमरान ही क्यों:  बचपन से क्रिकेट का दीवाना रहा हूं। इमरान की जिंदगी ने प्रभावित किया। सियासत में आने के बाद भी आम जन के प्रति उनके सरोकारों को देख मैं चकित हुआ। दर्जनों बार इमरान व जेमिना से मिलने के लिए लंदन और पाकिस्तान के चक्कर लगाए। चार सौ पेज की फाल्कन एंड फाल्कन, लंदन से छपी 'इमरान वर्सेस इमरान'में इमरान की जिंदगी के बहाने पाक की वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक स्थितियों का भी चित्रण है। इसके उर्दू संस्करण की रिकार्ड बिक्री हुई। हिंदी में जल्द ही आने वाली है।

झारखंड पर भी लिखेंगे: सपा प्रमुख मुलायम सिंह पर लिखने का मन बना चुके हैं फ्रैंक। बिहार व झारखंड पर कहते हैं कि यहां विकास का जितना प्रचार है, हकीकत उतना नहीं। हां! बदलाव जरूर आया है। लेकिन विकास की सही तस्वीर बननी बाकी है। झारखंड व बिहार की बदहाली पर खूब ध्यान जाता है। बेचैनी भी होती है। कल के दिनों में इनपर भी जरूर लिखूंगा।

हिंदी के वाल्तेयर राजेंद्र यादव: उर्दू शायर फैज अहमद फैज बेहद पसंद हैं। हिंदी लेखकों में राजेंद्र यादव का लेखन खूब भाता है। राजेंद्र जी हिंदी के वाल्तेयर हैं। लेकिन अंग्रेजी साहित्य में गालिब की वुस्अत यानी विस्तार और फैलाव है। इंद्रधनुषी रंग है उसमें। ऑस्कर वाइल्ड और मार्कोज जैसा कल्पनाशील और धाकड़ रचनाकार हिंदी में नहीं हुआ। हिंदी समाज धर्म और जाति जैसे फिजुल बातों में बंटकर लेखन का बंटाधार कर रहा है। कुछ अपवाद सभी जगह हैं, उनमें एक हैं, राजेंद्र यादव।

खुशवंत का हास्य पसंद: मिड नाइट चिल्ड्रेन में सलमान रुश्दी की प्रतिभा तो दिखती है, पर सटैनिक वर्सेस में आकर वह डगमगा जाते हैं। अरुंधति राय निसंदेह गंभीर लेखक हैं। उनके लेखन व संघर्ष दोनों का मैं कायल और प्रशंसक हूं। खुशवंत सिंह भारतीय अंग्रेजी लेखन के अहम स्तंभ हैं। उनके हास्य-व्यंग्य  का जवाब नहीं। चेतन भगत चमकते हुए भारत की तस्वीर दिखा रहे हैं। कैफे और कॉल सेंटर की जमात उनके पाठकों में है। जबकि समूचा देश इंडिया और भारत में बंटा हुआ है। महज दो फीसदी लोग उस चमकते चेहरे में शामिल हैं।



 फ्रैंक हुजूर : परिचय
जन्म: 21 जनवरी 1977 को बक्सर (बिहार) में
शिक्षा: सेंट जेवियर कॉलेज रांची व दिल्ली से
सृजन : नाटक 'हिटलर इन लव विद मडोना, बायोग्राफी 'इमरान वर्सेस इमरान: द अनटोल्ड स्टोरी, 'इमरान खान द फाइटर और औपन्यासिक कृति 'सोहा:जिस्म से रूह तक का सफर
संप्रति: स्वतंत्र लेखन
संपर्क:  frankhuzur@gmail.com 

(चर्चित युवा लेखक फ्रैंक हुज़ूर  से शहरोज़ की बातचीत भास्कर के झारखंड संस्करणों में 23 अक्टूबर 2013 के अंक में प्रकाशित )   







अज़ीज़ नाज़ां की क़व्वाली आपने सुनी ही है, पढ़िए उनकी संगिनी की ग़ज़लें

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मुमताज़ नाज़ांकी आठ ग़ज़ल


1.
हवा ए सर्द से चिंगारियां अक्सर निकाली हैं
 मेरे महबूब की यारो अदाएं भी निराली हैं

चलो देखें हक़ीक़त रंग इन में कैसे भरती है
तसव्वर में हज़ारों हम ने तस्वीरें बना ली हैं

मोहब्बत का दफीना जाने किस जानिब है पोशीदा
 हज़ारों बार हम ने दिल की जागीरें खंगाली हैं

कहाँ रक्खें इन्हें इस चोर क़िस्मत से बचा कर अब
गुज़रते वक़्त से दो चार जो ख़ुशियाँ चुरा ली हैं

परस्तिश आँधियों की अब हर इक सूरत ज़रूरी है
 तमन्नाओं की फिर इक बार जो शम'एं जला ली हैं

हवा भी आ न पाए अब कभी इस ओर माज़ी की
 कि अपने दिल के चारों सिम्त दीवारें उठा ली हैं

बड़ा चर्चा है रहमत का तो देखें अब अता क्या हो
 मुक़द्दर साज़ के दर पर तमन्नाएं सवाली हैं

ज़रा सा चूक जाते हम तो ये हस्ती बिखर जाती
 बड़े मोहतात हो कर हम ने ये किरचें संभाली हैं

उम्मीदें हम को बहलाती रहीं लेकिन यही सच है
 अभी तक तार है दामन अभी तक हाथ खाली हैं

गिला 'मुमताज़ 'अब क्यूँ है कि फ़ितने सर उठाते हैं
 जहाँ में हम ने ही नफरत की बुनियादें भी डाली हैं

2.

हवस हर लम्हा बढती जाती है अब ग़म फनाओं की
 बहारों के लहू से प्यास बुझती है खिज़ाओं की

मेरी गुफ़्तार की क़ीमत चुकानी तो पड़ी मुझ को
 खमोशी भी तो तेरी मुस्तहक़ ठहरी सज़ाओं की

कोई आवाज़ अब कानों में दाख़िल ही नहीं होती
 समा 'अत अब तलक तालिब है तेरी ही सदाओं की

मुक़द्दर की ये तारीकी सफ़र ये तेरी यादों का
 चमक उठती हैं राहें रौशनी से ज़ख़्मी पाओं की

मरज़ ये लादवा है, अब क़ज़ा के साथ जाएगा
मरीज़~ए~जिंदगी को अब ज़रुरत है दुआओं की

मैं हूँ मायूस राहों से तो राहें सर~ब~सजदा हैं
 के मंजिल चूमती है धूल बढ़ के मेरे पाओं की

कड़कती धूप को हम ने किया है सायबाँ अपना
किसे होगी ज़रुरत ऐ शजर अब तेरी छाओं की

हमें 'मुमताज़ 'अब रास आ गई आखिर ये महरूमी
 नज़र अब हम उतारा करते हैं अपनी बलाओं की

3.

मैं जीने का बहाना चाहती हूँ
तुम्हें तुम से चुराना चाहती हूँ

ज़रा यादो मुझे तनहा भी छोडो
 मैं दो पल मुस्कराना चाहती हूँ

ये गर्दिश ही निभा पाई न मुझ से
 मैं इस से भी निभाना चाहती हूँ

ये दौलत ज़िन्दगी की रायगाँ है
 मैं अब इस को लुटाना चाहती हूँ

तराशी जाती है क़िस्मत मुझे
और मैं वो पैकर पुराना चाहती हूँ

बसा है काबा-ए-दिल में जो अब भी
 वो बुत मैं अब गिराना चाहती हूँ

ज़रा कुछ ख्वाब तो तामीर कर लूं
 मैं इक बस्ती बसाना चाहती हूँ

घडी भर की भी राहत के लिए मैं
 हर इक क़ीमत चुकाना चाहती हूँ

हूँ वाकिफ तो सभी चालों से लेकिन
 मैं तुम से मात खाना चाहती हूँ

मिटाती है मुझे क़िस्मत की रेखा
 और इस को मैं मिटाना चाहती हूँ

जो बिखरी है अभी 'मुमताज़ 'हर सू
 उसे महवर पे लाना चाहती हूँ

4.

मेरे महबूब, मेरे दोस्त, मेरी जान-ए-ग़ज़ल
दो क़दम राह-ए-मोहब्बत में मेरे साथ भी चल

दो घड़ी बैठ मेरे पास, कि मैं पढ़ लूँ ज़रा
तेरी पेशानी प् लिक्खा है मेरी ज़ीस्त का हल

एक उम्मीद प् उलझे हैं हर इक पेच से हम
 हौसला खोल ही देगा कभी तक़दीर के बल

वक़्त की गर्द छुपा देती है हर एक निशाँ
संग पर खींची लकीरें रहें कितनी भी अटल

टूटे ख़्वाबों की ख़लिश जान भी ले लेती है
ख़्वाब दिखला के मुझे ऐ दिल-ए-बेताब न छल

जी नहीं पाता है इंसान कभी बरसों में
ज़िन्दगी करने को काफ़ी है कभी एक ही पल

नूर और नार का मैं रोज़ तमाशा देखूं
खूँ चकां शम्स को तारीक फ़िज़ा जाए निगल

मार डाले न कहीं तुझ को ये तन्हाई का ज़हर
 दिल के वीरान अंधेरों से कभी यार निकल

नौहा ख्वाँ क्यूँ हुए "मुमताज़"सभी मुर्दा ख़याल
 मदफन-ए-दिल में अजब कैसा ये हंगाम था कल

5.

एक गुनह बस छोटा सा, इक लगज़िश नीम गुलाबी
दिल पर दस्तक देती है इक ख़्वाहिश नीम गुलाबी

लम्हा-लम्हा पिघली जाती है हसरत आवारा
 दहके दो अंगारों की वो ताबिश नीम गुलाबी

पल भर में पैवस्त हुई है दिल के निहाँ ख़ानों में
बोझल-बोझल पलकों की इक जुम्बिश नीम गुलाबी

लूट लिया बहका कर मेरी राहत का सरमाया
दिल ने नज़रों से मि कर की साज़िश नीम गुलाबी

सुलगा जाए जिस्म का संदल, महके फ़ज़ा बातिन की
 जलती है अब रूह तलक इक आतिश नीम गुलाबी

भीग गया जज़्बात का जंगल, फूट पड़ी हरियाली
बरसों बाद गिरी दिल पर ये बारिश नीम गुलाबी

रोग है या आसेब है ये, कोई तो बताए मुझ को
रह-रह के होती है क्यूँ इक लर्ज़िश नीम गुलाबी

हम भी दौलतमंद हुए, दिल ने भी ख़ज़ाना पाया
 वो दे कर "मुमताज़"गया इक बख़शिश नीम गुलाबी

6.

गुनाहों से मुकरता जा रहा है
ज़मीर इंसाँ का मरता जा रहा है

ये मुझ में कौन है जो चुपके-चुपके
 जुनूँ के पर कतरता जा रहा है

ये अच्छा है, जिसे देखो, हमीं पर
हर इक इल्ज़ाम धरता जा रहा है

जुनूँ की हद ये कैसी है कि अब ये
हर इक हद से गुज़रता जा रहा है

उतरता शम्स भी फ़नकार है क्या
 उफ़क़ पर रंग भरता जा रहा है

तो अब "मुमताज़"भी है मसलेहतख़्वाँ
 ये दरिया अब उतरता जा रहा है

7.

फ़र्श से अफ़लाक तक पहुंची है रुसवाई मेरी
 जाने क्यूँ बेचैन रक्खे सब को दानाई मेरी

कोई साया भी पड़े मुझ पर तो दम घुटता है
अब मुझ को तन्हा एक पल छोड़े न तनहाई मेरी

जिस जगह मैं हूँ, वहाँ कोई नज़र आता नहीं
 क़ैद मुझ को रात दिन रखती है यकताई मेरी

कोई क्या समझे मेरे दिल की तहों के ज़ाविए
ख़ुद मुझे कब नापनी आई है गहराई मेरी

वक़्त आया तो किसी दीवार का साया न था
 हाँ, यही दुनिया रही बरसों, तमाशाई मेरी

उस का वादा था दुआ मक़बूल करने का मगर
 मांगती हूँ, तो नहीं होती है सुनवाई मेरी

रास्ता लंबा है, मंज़िल का निशां कोई नहीं
 चलने दे लेकिन न मुझ को आबलापाई मेरी

आज भी "मुमताज़"मुझ को वो ज़माना याद है
 जब हुआ करती थी अंजुम से शनासाई मेरी

8.

है एक सा सब का लहू फिर क्या है ये मेरा-तेरा
हिन्दू तेरे, मुस्लिम तेरे, काशी तेरी, काबा तेरा

बैठे हुए हैं आज तक, तू ने जहाँ छोड़ा हमें
हम पर रहे इल्ज़ाम क्यूँ, रस्ता नहीं देखा तेरा

जीने का फ़न, मरने की ख़ू, सौ हसरतें टूटी हुईं
 क्या-क्या हमें तू ने दिया, एहसान है क्या-क्या तेरा

फिर इम्तेहाँ का वक़्त है, साइल है तू दर पर मेरे
 उलफ़त का फिर रख लूँ भरम, ला तोड़ दूँ कासा तेरा

ये रब्त भी अक्सर रहा तेरे-मेरे जज़्बात में
 आँखें नहीं भीगीं मेरी, दामन नहीं सूखा तेरा

जलती हुई बाद-ए-सबा, भीगी हुईं परछाइयाँ
 ऐ सुबह-ए-ग़म, कुछ तो बता, क्यूँ रंग है काला तेरा

शोला-सा इक लपका था कल शब की सियाही में कहीं
 "कुछ ने कहा ये चाँद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा "

तन्हा रही 'मुमताज़'कब मैं ज़िन्दगी की राह में
 अब तक मेरे हमराह है, तेरी महक, साया तेरा

(रचनाकार -परिचय :
जन्म: 11 अप्रेल सन 1964 को कानपुर के  एक ब्राह्मण खानदान में हुई
शिक्षा:  बीएससी, अदीब कामिल और मोअल्लिम का तरबियती कोर्स
सृजन:   उर्दू -हिंदी के कई पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़लें । एक संकलन भी प्रकाशित।  ग़ज़लों का एक एल्बम भी आ  चुका है।  दो फिल्मों में भी गीत लिखे, जिस में एक कुवैत में बनी और रिलीज़ हुई, और एक रिलीज़ न हो सकी।
ब्लॉग:   परवाज़
संप्रति:  कुछ अरसा तक लखनऊ दूरदर्शन में  एनाउंसर और  मुंबई में  अमरीकन फ़र्म में प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर रहीं। फिलवक्त  स्वतंत्र लेखन 
संपर्क: naza.mumtaz@yahoo.com)
    

ब्लास्ट का दोषी साबित होने पर कर दूंगा भाई का क़त्ल

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फ़ोटो : मीर वसीम

एक विचारधारा  ने कैसे बदल दिया रंग-रोगन करने वाले मज़दूर का रंग

पटना ब्लास्ट के चार आरोपियों के गाँव हेड कोचा सिठियो से

धुर्वा से लोदमा जानेवाली सड़क सोमवार को बेहद खामोश थी। जगह-जगह समूह में युवा व बुजुर्ग जरूर खड़े मिले। पर किसी भी अनजान चेहरे को देख वह आपस में सिमट जाते। आंखों में बेचारगी और खौफ। उनकी आंखें इम्तियाज, तौफीक, तारीक और नुमान के प्रति उनके आक्रोश को बयां कर रही थी। लोदमा-कर्रा सड़क से दक्षिण की ओर कच्ची सड़क पर हेटकोचा है। आम लोग इसे नीचा मोहल्ला कहते हैं। सड़क के अंत में बने टी प्वाइंट के बायीं ओर सौ साल पुरानी मस्जिद है। यहां के इमाम हाफिज शौकत अली कहते हैं, 'इन लड़कों ने मजहब के साथ हमारे गांव को भी बदनाम कर दिया। खुदा जाने उन्हें रास्ते से भटकाने वाले कौन सा इस्लाम पढ़ाते हैं।'  दरअसल उनका इशारा एक कट्टरवादी विचारधारा की ओर था। जिसकी पुष्टि सरना स्थल के पास पान गुमटी पर खड़े युवाओं ने भी की।
एचईसी में मजदूर नसीम कहते हैं, चार सालों से इन लड़कों का मिलना-जुलना अहले हदीस के लोगों से था। वे अक्सर हमारी धार्मिक परंपरा-व्यवहार के विरोध में बातें करते। गांव में दो मस्जिद है, इनमें अधिकतर लोग देवबंदी स्कूल को मानने वाले हैं। कुछ लोग  बरेलवी विचारधारा के हैं। लेकिन इन लड़कों को कोई तीसरी विचारधारा के लोग प्रभावित करने में लगे थे। करीब तीन साल पहले जब गांव में बड़ा जलसा हुआ, तो मुख्य वक्ता मौलाना ताहिर गयावी से इन लोगों का वाद-विवाद भी हुआ था। जिसपर गांव के लोगों ने इम्तियाज की पिटाई भी की थी।
इन चारों लड़कों से गांववालों ने बातचीत बंद कर दी थी। वहीं उनके घरवाले भी उनसे कटे-कटे से रहने लगे। यहां तक के, जब सड़क दुघर्टना मे मारे गए संझले बेटे के इंश्योरेंस और दूसरे बेटों के पैसे से एचईसी से रिटायर्ड मो. कमालउद्दीन ने दो मंजिला मकान बनवाया, तो इम्तियाज को अलग कमरा दे दिया गया। कम उम्र का लड़का तौफिक इम्तियाज का ही सगा भतीजा है। गांव के स्कूल में ही आठवीं में पढ़ रहा है। अतीउलाह का कम उम्र बेटा तारीक और सुल्तान अंसारी का लड़का नुमान भी इनके गिरोह में शामिल हो गया।
कहने को इनमें से कुछ मकानों में रंग-रोगन, तो कुछ बिजली मिस्त्री का काम करते। लेकिन इनके दिलों-दिमाग को कोई और ही रंग रहा था। लेकिन घर व गांववाले समझते रहे कि यह लड़के उनकी अपेक्षा अरबी व उर्दू अधिक जानते हैं। इसलिए संभव है, धर्म की अधिक जानकारी रखते हों। कुछ लोगों ने उस कट्टरवादी विचारधारा के लोगों पर मासिक ढाई हजार रुपए देकर इन लड़कों को बिगाडऩे का आरोप भी लगाया। गांव के ज्यादातर लोगों से हुई बातचीत के बाद इस आशंका को बल मिलता हैं कि कहीं ये विचारधारा रांची में जिहाद के नाम पर युवाओं की एक नई बेल तो तैयार नहीं कर रही?

ग्राम प्रधान शंकर कच्छप कहते हैं कि उनके गांव में आदिवासी व मुसलमानों की लगभग बराबर आबादी है। लेकिन आज तक इनके बीच कभी कोई विवाद नहीं हुआ। फरार तारीक के बड़े भाई मौलाना तौफीक आलम मस्जिद कमेटी के सेके्रट्री हैं। वह कुछ भले न बोले। पर उनके ही भाई तौहीद आलम ने कहा, अगर सच में उनका भाई दोषी निकला, तो वे लोग उसे मार डालेगे। सदर हाजी हसन अली की चुप्पी भी इन लड़कों के कारण हुई गांव व कौम की शर्मिंदगी बता रही थी जबकि इम्तियाज के घर पर मातमी सन्नाटा था। समाजिक कार्यकर्ता साजिद अंसारी का कहना है कि गांव के लोग अब उस विचाधारा के लोगों को गांव में घुसने ही नहीं देंगे। उनकी बात का खुर्शीद अंसारी ने भी समर्थन किया।

भास्कर के लिए लिखा गया 29 अक्टूबर 2013 के अंक में सम्पादित अंश प्रकाशित   

गुजरात नरसंहार के बहाने

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हिंसा  के तर्क और तर्कों की हिंसा: एक आलोचनात्मक  प्रयास
   
















 हिलाल अहमद की क़लम से

हिंसा, विशेषकर 'सामूहिक हिंसा’ को समझने के दो संभव तरीके हो सकते हैं। पहला तरीका घटनाओं और व्यक्तियों के सिलसिलेवार ब्यौरों को केंद्र मे रख कर पर ‘हिंसा कैसे हुई?’  जैसा सवाल ज्यादा उठता है. विश्लेषण का यह नजरिया घटना के वर्णन पर ज्यादा जोर देता है और परिणामस्वरुप घटनाओं की गतिशीलता में व्यक्तियों और समूहों के द्वारा किये गए ‘अमल’ हिंसा को परिभाषित करने के स्रोत्र बन जाते हैं। आमतौर पर साम्प्रदायिक दंगों पर लिखी जाने वाली रिपोर्ट्स ‘हिंसा’ को इसी स्तर पर परिभाषित करती है।

परन्तु ‘हिंसा’ को एक अलग तरीके से भी समझा जा सकता है। यह तरीका प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष है। ‘हिंसा’ के विचार को केन्द्र में रखकर एक घटना विशेष के संबंध में दिए गए विभिन्न तर्कों का विश्लेषण हमें इस तथ्य से परिचित करा सकता है कि क्यों एक ही घटना एक समूह के लिए ‘हिंसा’ हो सकती है और दूसरे समूह के लिए ‘संघर्ष’? हिंसा के विश्लेषण का यह तरीका ‘तर्को’, ‘आस्थाओं’ और विचारों के उस विमर्श से संबंधित है जिसे कुछ वर्षों पूर्व तक समाज विज्ञान की दुनिया में ‘विचारधारा’ कहा जाता था।
प्रस्तुत लेख ‘हिंसा’ के वैचारिक क्षेत्र की चर्चा पर केन्द्रित है। मेरा उद्देश्य ‘हिंसा’ के विचार को समस्याप्रद बनाकर उन तर्कों की खोज करना है, जिनके द्वारा ‘हिंसा’ को या तो न्यायोचीत करार दिया जाता है या फिर अमानवीय बताकर नैतिकता के विमर्श में बदल दिया जाता है। इस तरह की वैचारिक कोशिश, मेरा मत है, हमें हिंसा और प्रति हिंसा के विमर्श की जटिलताओं को समझने मे सहायक सिद्ध हो सकती है.
‘हिंसा’ का विचार सभ्य कहे जाने के वाले समाज से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। ऐसे में हिंसा को नकारात्मक बताने से पहले जरुरी  है कि उन ‘सभ्य’ कही जाने वाली सामाजिक संरचनाओं की परख की जाए, जिन के बीच ‘हिंसा’ का विचार निर्मित होता है। दूसरे शब्दों में, किसी भी हिंसक घटना की समग्रता को समझने के लिए जरुरी है कि हिंसा करने वाले और हिंसा का शिकार व्यक्ति/समूहों के वैचारिक स्तरों को उन के अपने तर्कों के दृष्टिकोण से समझने की कोशिश की जाए। हिंसा के इन्हीं अस्पष्ट से दिखने वाले पक्षों की पहचान करने के लिए मैं दो उदाहरणों से लेख के व्यापक उद्देश्य को स्पष्ट करने की कोशिश करुंगा।

पहला उदाहरण 2002 के गुजरात दंगों से है।मैं एक घटना विशेष की वैकल्पिक समझ से इस बात की जांच करने का प्रयास करुंगा कि हिंसा करने वाला समूह किन संभव तर्कों और वैचारिक आस्थाओं का सहारा लेता है. यहां यह स्पष्ट कर देना जरुरी है कि घटना की यह समझ अत्यंत व्यक्तिगत हैं। मैं केवल ‘संभावनाओं’ के जरिये हिंसक समूह को समझने की कोशिश कर रहा हूं। वास्तव मे समूह ने ऐसा सोचा होगा या नहीं, मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता। समूह का व्यवहार मेरे लिए एक ऐसा स्रोत है जिसके जरिये इस घटना के कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीकों को चिन्हित किया जा सकता है।

मेरा दूसरा उदाहरण पिछले तीन दशकों से चल रहे बाबरी मस्जिद-राममंदिर विवाद से है।मैं बाबरी मस्जिद की ऐतिहासिकता और राम मंदिर की आस्था जैसे कभी हल न किये जाने वाले प्रश्नों के जाल में नहीं उलझना चाहता। मेरा मकसद है उन तर्कों को जानना जिनके जरिये राममंदिर की राजनीति को अमल में लाया गया। विषय को केन्द्रित करने के लिए मैं गुजरात के उदाहरण की विस्तार से चर्चा करुंगा, विशेषकर राम मंदिर आन्दोलन के सम्बन्ध मे. यह चर्चा न केवल गुजरात मे पनपे प्रयोगात्मक हिंदुत्व कही जाने वाली राजनितिक विशेषताओ को स्पष्ट करने मे मदद कर सकती है बल्कि इस विश्लेषण के माध्यम से हम हिंदुत्व राजनीती के विभिन्न आयामों, प्रकारों और विविधताओ को भी उजागर कर करके यह साबित कर सकते है कि दक्षिण पंथी हिंदुत्व अपने आप मे एक जटिल राजनितिक और वैचारिक परिघटना का नाम है.    

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हाल के कुछ वर्षो मे साम्प्रदाकिता की तथाकथित सेकुलर आलोचना मे काफी बदलाव आया है. एक समय था जब हमें यह बताया जाता था कि साम्प्रदायिकता वर्ग संघर्ष का दूसरा नाम है. हिन्दू इलीट  और मुस्लिम इलीट के हित समान है, इसलिए दोनों इलीट सम्प्रदियाकता का राजनीती खेल-खेल कर आम हिन्दू और मुसलमान को एक दुसरे से लड़ने के लिए प्रेरित करते है.

यह सेकुलर जवाब, कई मायनों मे, अब एक अन्य सेकुलर तर्क मे बदल गया है. अब मुस्लिम इलीट आलोचना के घेरे से बाहर है. हमें बताया जा रहा है कि मुस्लिम समुदाय एक वर्ग के तौर पर पिछड़ा है, कमज़ोर है, लचर है. इसलिए उसका संपन्न कहे जाने वाला तबका भी पिछड़ा है और हिंदुत्व जैसी राजनितिक ताकत का सामना करने मे असमर्थ है. इसलिए मुस्लिम पिछड़ापन और सांप्रदायिक हिंसा को जोड़ना ज़रूरी है ताकि हिन्दू साम्प्रदायिकता का समग्र विरोध हो सके. सच्चर कमीशन रिपोर्ट आने के बाद से इस तरह का सेकुलरवाद मजबूत होता सा दीखता है.  

मेरा मत है कि ये दोनों ही सेकुलर तर्क सतही है. ये तर्क समुदायों को कभी न बदलने वाली संरचना मान कर राजनीतिक तौर पर सही  होने के पूर्वाग्रहों ग्ह्रासित है. येही कारण है कि धार्मिक साम्प्रदायिकता की बात करते समय, विशेष कर गुजरात के संबंध में, मुसलमानों की बदलती सामाजिक-आर्थिक स्थिति को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है. यह मान लिया जाता है मुस्लिम समाज स्थिर है और उसकी धार्मिकता अपरिवर्तनशील.     

इस तरह के प्रचलित और स्थापित सेकुलर जवाबों से आगे जाने के लिए ज़रूरी है कि हम सामाजिक बदलावों को हिंसा के विमर्श की परिधि में लायें. ऐसा विश्लेषण हमें मुस्लिम पिछड़ापन और साम्प्रदायिकता के जटिल संबधों को दिखा सकेगा. साथ ही तब शायद हम यह भी समझ सके क़ि किन कारणों से २००२ के दंगो मे मुस्लिम संपन्न वर्ग भी हिंसा का शिकार बना.      

इस लेख मे मैं गुजरात के मुसलमानों की बदलती सामाजिक आर्थिक-स्थिति और इस्लामी आस्थाओं के भावनात्मक एवं छवि-उन्मुख आयामों को उजागर करने का प्रयास करुंगा। मेरा मत है कि इस तरह गुजरात के मुसलमानों की स्थापित छवि का विश्लेषण हो सकेगा और हिंदुत्व के तर्कों को एक खास संधर्भ मे समझने मे सहूलियत होगी. 

मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मेरा मूल उद्देश्य उस ‘हिंदुत्व आक्रोश’ को समझने का है जिसे भाजपा और विहिप ने २००२ मे प्रतिहिंसा, प्रतिक्रिया और स्वाभाविक रिएक्शन कहकर ज़ायज़ ठहराया था।  मेरा प्रयास भी हिंदुत्व राजनीति  की आलोचना खड़ी करना है पर मेरी कोशिश  ‘राजनीतिक तौर पर सही’ होने के पूर्वाग्रहों से बचने  की  है. इसलिए में इस प्रयास को सेकुलर बनाम सांप्रदायिक  फ्रेमवर्क  से बाहर रखना चाहता हूँ.  

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One woman, Kauser Bano, who was nine-months pregnant, had her belly cut open and her foetus wrenched out, then swung on the edge of a sword before being dashed to the ground and flung into the fire.
(Concerned Citizens Tribunal - Gujarat 2002. An inquiry into the carnage in Gujarat)

 

आइये एक ‘रोचक’ परन्तु अत्यंत अमानवीय उदाहरण से इस बात की शुरुआत करें। 2002 के गुजरात दंगों में एक घटना विशेष रूप से चर्चा में आई। बड़ौदा के पास की एक मुस्लिम बस्ती में हिंदू दंगाइयों ने एक गर्भवती महिला का सामूहिक बलात्कार किया। परन्तु हिंसा की यह प्रक्रिया महज़ बलात्कार तक ही नहीं रुकी, दंगाइयों ने चाकू से गर्भवती महिला के पेट को चीरा और उसके अजन्मे गर्भ को बाहर निकाल लिया। इसी दौरान बस्ती में आग लगा दी गई। दंगाइयों ने महिला और तब तक मर चुके शिशु को भाले की नोक पर रखकर जलती आग में फेंक दिया।

यह घटना अत्यंत निदंनीय है। न केवल इसलिए कि इस पूरे प्रकरण में यौन हिंसा और हत्या जैसे घृणित कृत्य बिल्कुल अलग तरीके से अंजाम दिये गए बल्कि इसलिए भी कि इस घटना ने सामाजिक सरोकारों के अत्यंत संवेदनशील पक्ष मातृत्व और जन्म को पूरी तरह रौंद दिया।

जैसा कि होना ही था - घटना के बाद बहुत से फैक्ट-फाइंडिंग दलों और मानवाधिकार संगठनों ने इस बस्ती का दौरा किसा और तथ्यों, साक्ष्यों और जिन्दा बचे लोगों की स्मृतियों के आधार पर घटना को दोबारा जिंदा कर दिया। इस हादसे को कई नाम दिये गए - हिंदु फासीवादी, सेक्यूलरवाद का अंत, साम्प्रदायिकता की पुरुष प्रधानता आदि।

ये तर्क यक़ीनी तौर पर महत्वपूर्ण थे और हैं। हमें मानवाधिकार संगठनों का शुक्रगुज़ार होना चाहिये कि उन्होंने दंगों के शिकार लोगों के दर्द को एक राष्ट्ीय प्रश्न में बदल दिया। परन्तु ‘भर्त्सना के इस विमर्श’ में कई ऐसे मुद्दे नजरअंदाज होते चले गए जो हिंसा के अन्य संभव पक्षों से हमें परिचित करा सकते थे।मेरा मानना है कि अगर हम इस घटना को एक सामाजिक परिघटना के तौर पर लेकर विश्लेषण की परिधि में लाने की कोशिश करें तो कई नयी तरह के सवालों को उठाया जा सकता है।

आइये हिंसक समूह को केन्द्र में रखकर इस घटना को पुनः पढ़े। सोचिये कि एक समूह यह फैसला करता है कि उसे एक बस्ती को जलाना है, समूह के सदस्य हथियार इकट्ठे करते हैं, उन्हें धारदार बनाने की कवायद करते हैं और फिर समय निश्चित होता है। सभी सदस्य हथियारों से लैस होकर बस्ती पहुंचते हैं। बस्ती को घेरा जाता है और वह महिला जोकि गर्भवती है दंगाइयों की नजर में आती है।

यहां से कहानी एक दूसरा रुख ले लेती है। महिला के साथ सामूहिक तौर पर बलात्कार होता है। पर कैसे? बलात्कार करने के लिए दोनों पक्षों (महिला और समूह) का निर्वस्त्र होना लाज़िमी है। महिला को निर्वस्त्र करना आसान है क्योंकि समूह महिला से ज्यादा शक्तिशाली है। परन्तु समूह के सदस्यों को तो स्वयं ही अपने कपड़े या कुछ विशेष कपड़े उतारने होंगे ताकि इस कृत्य को अंजाम दिया जा सके। समूह के सदस्य सामूहिक तौर पर अपने शरीर के सबसे निजि कहे जाने वाले अंगों को सार्वजनिक करते हैं। ऐसा करते समय वे न केवल शिकार महिला के आत्मसम्मान पर हमला करते हैं बल्कि समूह के सदस्य होने के नाते अपने व्यक्तिगत आत्मसम्मान को भी खो देते हैं।

बलात्कार जैसी घटनाओं का अपना एक मनोविज्ञान है। आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि बलात्कार का संबंध यौन-सुख से है। परन्तु यह एक सतही जवाब है क्योंकि यौन-सुख का अर्थ दोनों पक्षों की भागीदारी से जुड़ा है। इसके बरअक्स बलात्कार एक ऐसी मानसिकता है जिसमें पारस्पारिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। सामूहिक बलात्कार इस मानसिकता का चरमोत्कर्ष कहा जा सकता है।

परन्तु यह घटना बलात्कार और सामूहिक बलात्कार कही जाने वाली हिंसक वारदातों से थोड़ा भिन्न है। यहां व्यक्तिगत या सामूहिक यौन-तृप्ति का अर्थ केवल स्त्री-पुरुष दैहिकता के विमर्श से नहीं जुड़ा है। महिला का शरीर न केवल नारी देह है बल्कि उसका एक प्रतीकात्मक मूल्य भी है। इस प्रतीकात्मकता के चलते इस शरीर का यौन-उत्पीड़न न केवल महिला को आहत कर सकता है बल्कि उस महिला के परिवार, उसकी बस्ती, उसका समुदाय और यहां तक कि उसके धर्म को भी हिंसा की लपेट में लाया जा सकता है। हिंसक समूह इस तथ्य से परिचित है और शायद यही कारण है कि इस कृत्य को अंजाम देने के लिए, समूह के सदस्य सार्वजनिक तौर पर नंगे होने से भी गुरेज़ नहीं करते।

इस प्रक्रिया का नया अध्याय तब शुरू होता है, जब समूह महिला का पेट चीरता है। पेट चीरता और चाकू से हत्या करना दो अलग-अलग बातें हैं। चाकू से हत्या करते समय शरीर के आन्तरिक अंगों को नहीं देखा जाता। चाकू से सिर्फ नाजु़क जिस्मानी हिस्सों को गोदा जाता है जोकि अपेक्षाकृत आसान है। परन्तु एक जिंदा महिला के पेट चीरने का अर्थ है खून का एक फौव्वारा जो वार करने वाले के पूरे शरीर, चेहरे और हाथों को खून से रंग सकता है। खून, और विशेषकर इंसानी खून, की दुर्गंध अत्यंत असहनीय होती है। समूह इसे बर्दाश्त करता है और फिर गर्भ को निकाला जाता है।

गर्भ का निकालना कोई आसान काम नहीं है। चिकित्सा विज्ञान के लोग यह जानते हैं कि गर्भ शरीर में मौजूद द्रवो, अवयवों और अंगों के बीच मौजूद एक संरचना का नाम है। जिस समय गर्भ को शरीर से निकाला जाता है, तब सिर्फ खून नहीं निकलता। कई अन्य द्रव्य और रसायन भी निकलते हैं, जिनकी गंध रक्त की गंध से कहीं ज्यादा असहनीय होती है।

परन्तु हमारा हिंसक समूह चिकित्सक नहीं है। उसका काम महिला और शिशु को बचाना नहीं है। उसे तो इन दोनों की हत्या करनी है। तो क्या हिंसक समूह के रवैये को कसाई का रवैया कहना चाहिए?

जो लोग कसाईखाना से परिचित हैं, वे जानते हैं कि भैंस, बकरी और यहां तक की मुर्गी को मारना कितना मुश्किल काम है. भैंस और बकरी को काटने के लिए रस्सी का इस्तेमाल होता है, कई लोग भैंस/बकरी के पांव पकड़ते हैं और फिर एक व्यक्ति छुरी से गर्दन की मूल रक्तवाहिनी को काटता है, ताकि जानवर तड़पे नहीं और जल्द ‘‘ठंडा’ हो जाए। उसके बाद उसके शरीर के अंगों को अलग किया जाता है। इस बात पर विशेष ध्यान रखा जाता है कि उसके अमाशय पर कोई काट न लगे क्योंकि अमाशय के फटने से कई अवांछनीय द्रव्य निकल सकते हैं।

हमारे हिंसक समूह का काम भैंस/बकरी काटने से ज्यादा मेहनत का है। उसे गर्भ को निकालना है, जिस प्रक्रिया में यह संभव है कि शिकार महिला का अमाश्य और आंते दोनों पर काट लग जाए। समूह इस बात की भी परवाह नहीं करता। उसके लिए रक्त, पीप, अमाश्य से निकलने वाला अपच मल आंते सभी कुछ ‘सामान्य’ बन जाता है। इस तरह समूह, कसाई की श्रेणी से निकलकर दरिन्दें की श्रेणी में आ जाता है जिसका मकसद महज़ गोश्त काटना है और खून से खेलना है। अंततः समूह पेट चीर ही लेता है और शिशु को बाहर निकालने में उसे कामयाबी हासिल होती है।

घटना का अगला हिस्सा आगजनी का है। आमतौर पर बस्तियों में आग लगाने जैसी कार्रवाई में आग लगाने वाले समूह वहां रुकते नहीं है। इसके दो संभव कारण हैं - पकड़े जाने का डर एवं आग जैसी अनियंत्रित चीज़ की लपटों से बचने की चेष्टा। पर हमारा यह समूह ऐसा नहीं करता। चाकू और तलवारों से लोगों को मारता है, घायल करता है, बलात्कार करता है और फिर आग लगा दी जाती है। आग लगाना व्यावहारिक भी और प्रतीकात्मक भी। व्यावहारिक तौर पर आग में झुलसी बस्ती और आहत लाशें हिंसा के सारे प्रमाण मिटा देती हैं। व्यापक अर्थों में कहें तो आग लगाकर न केवल हिंसक अमल को मिटाया जाता है बल्कि हिंसा के शिकार व्यक्ति/समूहों का सम्पूर्ण अस्तित्व समाप्त कर दिया जाता है।
 ‘अस्तित्व का अंत’ वास्तव में एक प्रतीकात्मक कृत्य है। इसके दो संभव पहलू हैं। एक अर्थ में यह धार्मिक कुठाराघात से जुड़ा है जिसका निशाना इस्लामिक विश्वास हैं. उल्लेखनीय है कि इस्लामिक दर्शन मुर्दा जिस्म को अत्यतं सवेदनशील वस्तु (ऑब्जेक्ट) मानता है. इसी कारण मृत शरीर को अंतिम संस्कार के लिए बेहद सावधानी से तैयार किया जाता है. यहां तक कि कफन भी इस तरह सिला जाता है, ताकि मृत शरीर के हाथ, गर्दन और पैर दफन की प्रक्रिया में हिल-डुल न सकें। साथ ही साथ इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि मृत शरीर पर किसी भी तरह का दबाव न डाला जाए।

कब्र का विचार भी यहाँ महत्वपूर्ण है. इस्लामिक दर्शन कब्र को कयामत से पहले का ठिकाना करार देता है. इसीलिए जो लोग अच्छे अमल करके मरते है उनके लिए कब्र एक रेस्ट-हाउस बन जाती है और जो लोग गुनाहगार होते है उनके लिए सजा देने का मुकाम. इस्लामिक दर्शन मे सजा देने का अर्थ आग मे जलने से है. कुरान मे जहन्नुम का जो तफसीर दिया गया है उसमे आग मे झुलसना सबे बड़ी सजाओं के मे से एक है. इस तरह मुस्लिम अस्तिव के लिए आग के व्यापक धार्मिक अर्थ मौजूद है.     

इस घटना में मौजूद हिंसक समूह इन तथ्यों से परिचित लगता है। वे न केवल मुर्दा मुसलमानों के शरीरों को आग में डाल देते हैं, बल्कि जिं़दा और अधमरे मुसलमान भी जला दिये जाते हैं। इस तरह इस्लामी दफन प्रक्रिया का एक आक्रामक हिंदुकरण किया जाता है और मुसलमानों को एक ऐसी मौत दी जाती है जो जहनुम से ज्यादा इबरतनाक हो सके.   

आगजनी का दूसरा प्रतीकात्मक पक्ष अजन्मे गर्भ को जलाने से जुड़ा है। महिला का बलात्कार और शिशु की हत्या का एक व्यापक अर्थ भी है। वास्तव में दंगाई ‘इतिहास’ और ‘भविष्य’ जैसे विचारों को अमली जामा पहनाते दिखते हैं। बच्चे का शरीर, मां के शरीर की तरह ही एक प्रतीक बन जाता है। परन्तु यह प्रतीक मुसलमानों के ‘आज’ के संदर्भ से परिभाषित होता नहीं दिखता। हिंसक समूह बच्चे के शरीर को मुसलमानों की आने वाली पीढ़ी के तौर पर परिभाषित करता दिखता है। इसीलिए उसे न सिर्फ पैदा होने से रोका जाता है, बल्कि उसे पैदा होने से पहले ही ‘जला’ दिया जाता है।

मैं इस घटना के प्रतीकात्मक पाठ को एक आलोचना से समाप्त करना चाहता हूँ. यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त विवरण Concerned Citizens' Tribunal Report (2002) का एक अतथ्यपूर्ण और काल्पनिक बयान है, जिसे शब्दों की खिलवाड़ मात्र ही कहा जाना चाहिए। यह आलोचना कुछ हद तक सही भी है। घटना को पेश करने का यह तरीका विवादास्पद कहा जा सकता है और कुछ हद तक काल्पनिक भी.

परन्तु यहाँ सामाजिक घटनाओ, विशेषकर हिंसक घटनाओ को समझने की वय्कापिक पदति का सवाल भी निहित है. सामूहिक हिंसा पर माजूद साहित्य बताता है की घटनाओं के विवरण करने का तरीका घटनाओं को पुनः जिंदा होने का मौका देता है। ऐसे मे हमारे शब्द भंडार ऐसे माध्यम बन जाते है जिनसे  सामाजिक सरोकारों की कहानियों को रचा जाता है. घटनाओं के विवरण भी ऐसी ही कहानियों का नाम है। यही कारण है कि ‘तथ्य’ और ‘प्रमाण’ जैसे कारक विवरण करने की विशुद्ध गति के लिए महज़ एक वैचारिक धक्के से अधिक नहीं होते। जो लोग प्रमाणिक होने का दावा करते हैं वे भी ‘तर्कों’ और ‘तथ्यों’ को अपने विवरण के अनुसार चुनते हैं, समायोजित करते हैं और अंत में एक ‘प्रमाणिक’ कहानी को रचते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हर प्रमाण, एक कहानी है और हर प्रस्तुति एक निरुपण।

इसलिए मैं इस आलोचना से सहमत होते हुए भी यह तर्क देना चाहता हूं कि इस घटना की वैकल्पिक समझ के लिए यह जरुरी है कि वीभत्स ही सही, ऐसा कुछ जरुर सोचा-लिखा जाए जिससे हम हिंसा जैसे विचारों की समग्रता और विविधता को महसूस कर सकें।

परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि घटना को केवल अपने ‘विवरण’ और अपनी ‘समझ’ कह कर उत्तर आधुनिक होने के फै़शन में खो जाया जाए। मेरा मत है कि ऐसी तामम घटनाओं को हिंसा करने वाले समूह के दृष्टिकोण से समझना ज़्यादा ज़रुरी है। जिसके लिए सामाजिक मानवशास्त्र के अध्ययन में इस्तेमाल होने वाली पद्धतियां, इंटरव्यू और समूहचर्चा का इस्तेमाल हो सकता है। क्योंकि गुजरात 2002 के दंगों पर ऐसा कोई काम नहीं है इसलिए हमें दंगों के शिकार लोगों के विवरणों को ही स्रोत मानना होगा।

मेरा उद्देश्य यहां केवल घटना के वर्णन तक सीमित नहीं है। जैसा कि मैंने शुरुआत में कहा था कि घटना के विभिन्न पाठ हमें हिंसा के वैचारिक स्तर पर पहुंचने में मदद कर सकते हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है इस घटना में ‘वैचारिक’ क्या था?

हमारा पिछला ब्यौरा हमें बताता है कि समूह के कृत्य आक्रोश से प्रेरित है। पर इस आक्रोश के पीछे कौन से विचार थे, तर्क थे जिनके आधार पर हिंसक समूह अपने को न्यायोचित मानता रहा? इस घटना को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर ही, मेरा मत है हम इस प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं।


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 2002 गुजरात के दंगे तीन मायनों में विशिष्ट कहे  जा सकते हैं। दंगों का निश्चित प्रभाव क्षेत्र इस दंगे की पहली विशिष्टता है। साम्प्रदायिक होने के बावजूद यह दंगे गुजरात में शुरु हुए और गुजरात में ही खत्म हो गए। इस दंगे ने किसी ‘धारा’ का रूप नहीं लिया। राज्य-तंत्र के सीधे हस्तक्षेप को इस दंगे के सीमित प्रभाव क्षेत्र का एक प्रमुख कारण बताया जाता रहा है। मेरा मानना है कि यह तर्क काफी हद तक सही भी है। मोदी के नेतृत्व में राज्य सरकार ने दंगे को तकरीबन एक तरफ़ा कर दिया था. हिंसा के कारणों के निर्माण से लेकर हिंसा अंजाम देने और फिर शिकार समुदाय को अन्य अप्रत्यक्ष तरीको से प्रताड़ित करने तक राज्य सरकार की भूमिका संधिग्ध बनी रही. ऐसे मे इस हिंसा को प्रायोजित हिंसा कहा जाना चाहिए. 

असग़र अली इंजिनियर का शोध बताता है कि आजाद भारत मे हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक हिंसा के इतिहास को तीन हिस्सों मे रख कर देखा जा सकता है: (अ) 1950 से 1986 तक के दंगे, जब  समुदायों के स्थानीय द्वंद हिंसा को धारावाहिक बनाते रहे;

(ब) 1986 के बाद बाबरी मस्जिद दंगे मे जब साम्प्रदायिकता को एक मूर्त रूप मिल गया. इस दौर मे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की हर लड़ाई ‘सभ्यताओं’ की लड़ाई में बदल दी गई, जिसका निर्णय राम-मंदिर और बाबरी मस्जिद के अस्तित्व पर टिक गया।

(स) 1993  के बाद के दंगे जब अयोध्या विवाद सिर्फ एक संधर्भ बिंदु बन कर रह गया.

गुजरात दंगे इस तीसरी श्रेणी मे आते है. वास्तव मे यह बिंदु हमें इस दंगे की दूसरी विशिष्टता से परिचित कराता है। हमें याद रखना चाहिए मे 2002 के दंगे मेगोधरा की घटना से भड़के। यह घटना सीधे तौर पर राम-मंदिर की मांग से जुड़ी हुई थी। जो कारसेवक मंदिर बनाने का संकल्प लेकर अयोध्या गए थे, वे गुजरात वापस लौट रहे थे। जब गाड़ी गोधरा  में रुकी तो उसमें आग लगा दी गई जिसके चलते डिब्बे में मौजूद सभी कारसेवक जल कर मर गए। हिंदुत्ववादी संगठनों का दावा था कि कारसेवकों को मुसलमानों ने मारा जबकि सेक्यूलरवादियों का तर्क था कि यह घटना एक तरह की साजिश थी ताकि मुसलमानों को निशाना बनाया जा सके। बहरहाल इस मुद्दे पर पहले से बहुत कुछ लिखा जा चुका है, इसलिए मैं इस बहस से बचते हुए एक अन्य पहलू को उजागर करना चाहता हूं। राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद से जुड़े होने के बावजूद गुजरात दंगा ‘राममंदिर आंदोलन’ नहीं माना गया। पर क्यों ? 

1990 की स्थिति की तुलना में 2002 के हालात भिन्न थे। भाजपा केन्द्र में एनडीए गठबंधन चला रही थी जिसके कई घटक राम मंदिर आंदोलन जैसे साम्प्रदायिक मुद्दों के प्रबल विरोधी थे। ऐसे में राम मंदिर टाइप आन्दोलन एनडीए की स्थिरता के लिए राजनितिक संकट बन सकता था। दूसरी ओर अयोध्या विवाद का चरित्र भी बदल चुका था। अयोध्या में व्यावहारिक तौर पर बाबरी मस्जिद के स्थान पर राममंदिर अस्तित्व में आ चुका था।  मंदिर बनाने की मांग का अर्थ सिर्फ और सिर्फ ‘भव्य मंदिर’ बनाने से था, न कि मस्जिद ढहाने से। ऐसे में ‘गोधरा की घटना’ महज़ हिंसा-प्रतिहिंसा ही बन कर रह गई और उसका कोई व्यापक ‘रामकरण’ नहीं हुआ।

अगर दंगे के बाद हुई घटना-प्रकिया पर नजर डाले तो ऐसा लगता है कि दंगा पूरी तरह से ‘हिंसा और उसके विरोध’ पर केन्द्रित रहा। यही कारण था कि कुछ ही सालों में ‘विकास’ गुजरात की राजनीती का नया विमर्श बन गया. यहां तक कि कुछ मुस्लिम संगठनों ने मोदी को समर्थन देना शुरू कर दिया। दंगे के विमर्श का विकास के विमर्श में बदलना और वह भी बिना किसी सत्ता परिवर्तन के इस दंगे की तीसरी विशेषता है।

लेकिन तब सवाल उठता है कि 2002 के इस दंगे की तीन विशेषताओं - सीमित प्रभाव क्षेत्र, दंगे का राम मंदिर आंदोलन में न परिवर्तित होना व दंगे के विमर्श का विकास के विमर्श में बदलना - का हिंसा और हिंसा के विचार से क्या संबंध है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें राममंदिर आंदोलन के तर्कों को समझने की कोशिश करनी होगी।

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मैं यहां यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि राम मंदिर बाबरी मस्जिद विवाद का नया इतिहास लिखने का मेरा कोई इरादा नहीं है। मेरा उद्देश्य है, तर्कों की हिंसा का अध्ययन। इसके लिए ज़रुरी है कि हिंदुत्व और राम मंदिर के तर्कों को जोड़ कर देखा जाए। अयोध्या में राम मंदिर बनाने की मांग कभी एक सी नहीं रही। 1885 में राम मंदिर का अर्थ राम चबूतरा था; 1949 में जब मस्जिद पर कब्जा कर लिया गया, तब मंदिर का अर्थ सम्पूर्ण मस्जिद क्षेत्र था; और 1992-93 में मंदिर का अर्थ २.77 एकड़ भूमि से था जो सरकार ने अधिग्रहित की थी. यही स्थिति तर्कों की भी रही। 1885 में राम चबूतरे  पर पक्का मंदिर बनाने के पीछे तर्क था पूजा आदि में आने वाले व्यवधान; 1949 की घटना के बाद तर्क था कब्जा की गयी मस्जिद में पूजा करने की आजादी; 1993 में तर्क था हिंदुओं की आस्थाएं!

इस तरह न तो राम मंदिर आंदोलन एक सा रहा न राम मंदिर के समर्थन में दिये जाने वाले तर्क। ऐसे में इन तर्कों के परिवर्तित होने की प्रक्रिया कुछ अवधारणात्मक बिंदुओं को उजागर करती है। जिसके ज़रिये हम ‘हिंदुत्व की राजनीति की संरचना को तोड़कर देख सकते हैं।

हिंदुत्व राजनीति के विमर्श की तीन परते है, जो एक व्यापक तर्क का निर्माण करती है. इस संरचना की सबसे आन्तरिक परत आस्था की है. 1990 में आडवाणी ने रथ यात्रा के दौरान दिये गए इंटरव्यू में कहा था -‘‘हिंदुओं की आस्था है कि वहां राम का जन्म हुआ है....क्या इसके लिए किसी प्रमाण की जरुरत है? क्या किसी ने ईसा मसीह से जन्म प्रमाणपत्र मांगा है जो भगवान राम से मांगा जाए’’?

यह तर्क केवल राजनीतिक भाषण नहीं है। यह बताता है कि ‘‘आस्था’’ का सशक्त होना कैसे अन्य तर्कों को बौना साबित कर देता है। तब ‘प्रमाण’ या साक्ष्य अनुपयोगी हो जाते हैं और ‘विश्वास’ स्वयं एक ऐसी अवधारणा का रूप ले लेता है जिससे सामाजिक-राजनीतिक सरोकार व्याख्यित किये जा सके।

परन्तु ‘‘आस्था’’ के तर्क की अपनी एक सीमा होती है. इस तर्क को राजनीतिक भाषा, विशेषकर आधुनिक चुनावी भाषा में बदलने के लिए ज़रुरी है, कि 'आस्था'को किसी अन्य तर्क से जोड़ कर प्रस्तुत किया जाय. यह संभावना हमें हिंदुत्व राजनितिक विमर्श की दूसरी परत की और ले जाती है, जो पूरी तरह इतिहास की एक विशेष समझ से सम्बंधित है.     

1980 के अंतिम वर्षो मे मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दू मंदिरों का विध्वंस, हिंदुत्व राजनीति का दूसरा सबसे शक्तिशाली तर्क बन गया. यूँ तो हिन्दू मंदिर विध्वंस औपनिवेशिक काल से ही हिन्दू मुस्लिम द्वन्द का एक विशेष मुद्दा रहा है, पर अयोध्या आन्दोलन के समय मे इस तर्क ने एक नया स्वरुप ले लिया. यह कहा जाने लगा कि  मुसलमानों  द्वारा तोड़े गए हिन्दू मंदिर एक ऐतिहासिक अन्याय का प्रतिक है. इस तर्क को मुखर करने के लिए कई पुस्तकें, कई उपन्यास, कहानियां और यहां तक की कविताएं भी लिखी गई।  प्रफुल गुदारिया की पुस्तक हिंदू मस्जिदऔर सीता राम गोयल द्वारा संपादित पुस्तकहिंदू मंदिरःव्हवाट हैपेन टू देम?इस तरह के लेखने के उदाहरण हैं।

हिंद्त्व विमर्श की संरचनाओं की सबसे बाहरी परत ‘‘न्याय’’ की थी. हिंदुत्व राजनीति ने कुछ विशिष्ट मुद्दे जैसे गौ रक्षा, विवाह कानून (हिन्दू कोड बिल विवाद) और राम मंदिर को हिंदुओं के साथ हो रहे अन्याय के तौर पर प्रस्तुत किया. यह दलील दी गई कि राम मंदिर की आज़ादी सामाजिक न्याय का प्रश्न है। अगर व्यापक अर्थो मे देखे तो न्याय की इस राजनीति ने बहुसंख्यकवाद  की राजनीति को एक नया आयाम दिया. राम मदिर की मांग हिन्दुओं के बहुसंख्यक होने से नहीं जोड़ी गयी. अपितु हिन्दुओं को एक  राजनीतिक  समुदाय के तौर परिभाषित करने के लिए उनके साथ अनवरत चल रहे अन्याय का सहारा लिया गया. इस तरह हिन्दू समुदाय की एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत की गयी जो पूर्णता एक प्रताड़ित और लाचार समूह की थी. 'गर्व से कहो हम हिन्दू है'जैसे नारे इस प्रस्तुति का अभिन अंग थे. शायद यही कारण था कि 1991  मे भाजपा का नारा था-- राम आस्था रोटी जीवन.    

‘आस्था’’ की अंदरूनी परत हिन्दुत्व की राजनीतिक मुहिम के लिए आम लोगो को प्रतिबद्ध बनाने का सबसे मजबूत आधार रहा है। उल्लेखनीय है कि  भाजपा जैसे संगठनों को राम के अस्तित्व और उनके जन्म की व्याख्याओं का सहारा नहीं लेना पड़ा। इसके बरअक्स आम धार्मिक हिंदू की मान्यताओं को निरुपित किया गया और परिणाम स्वरुप राम में आस्था रखने वाले राममंदिर में आस्था रखने लगे। भाजपा-विहिप ने इस आस्थावान समूह को ‘कारसेवक’ का नाम दे दिया।
परन्तु ‘‘आस्था’’ धर्म से जुड़ी थी और धर्म का विमर्श विशुद्ध कल्पना से नहीं चलता। इस कमी को पूरा करने के लिए ‘इस्लामी दमन’ की स्मृति को प्रचारित किया गया। ‘‘दमन की स्मृति और राम में आस्था’’ को न्याय-अन्याय के रूप में परिभाषित कर दिया गया और परिणामस्वरुप हिंदुओं के राजनीतिक ‘समुदाय’ बनने की प्रक्रिया शुरू हुई।

सवाल उठता है कि क्या आस्था, स्मृति और न्याय पर टिके इस हिंदुत्व तर्क का 2002 की उस घटना से कोई रिश्ता है जिसका वर्णन हमने लेख के प्रारम्भ में किया था? यह सवाल और भी ज़्यादा पेचीदा हो जाता है जब हम पाते हैं कि गुजरात का दंगा, न तो राम मंदिर आंदोलन को रूप ले सका और न ही इस दंगे ने हिंसा की किसी नई धारा को जन्म दिया?

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इस सवाल के दो संभव जवाब दिये जा सकते हैं। पहला जवाब सैद्धान्तिक है। हमारी चर्चा बताती है कि हिंदुत्व राजनीति के तर्क लगातार बदलते रहें। इन तर्कों के बदलाव को आमतौर पर नेताओं की साजिश और हिंदुत्व बुद्धिजीवियों के षडयंत्र के तौर पर देखा जाता है। विशेषकर सेक्यूलर कहे जाने वाले लोग तर्क देते हैं कि ‘राममंदिर’ की मिथ्या को हिंदू साम्प्रदायिकता ने गढ़ा है ताकि आम हिंदू की आस्थाओं का लाभ उठाया जा सके। यह जवाब काफी हद तक वाजिब लगता है। परन्तु अगर तर्क को सिर्फ नेताओं और बुद्धिजीवियों तक सीमित कर दिया जाए तब उन बदलती परिस्थितियों का विश्लेषण नहीं किया जा सकता जिनकी वजह से तर्क बदले और उनकी ‘लोकप्रियता’ बढ़ती चली गई। 

यहां ‘‘मीडिया’’ की भूमिका अहम है। मीडिया से मेरा अर्थ अखबार, टी.वी. चैनल और रेडियो से कुछ ज्यादा है। ‘‘मीडिया’’ मोटे तौर पर उन सभी ज़रियों का नाम है जिनके माध्यम से सूचना निरुपित होकर प्रसारित होती है। इस तरह न्यायालय, नेताओं के वक्तव्य और आम प्रचलित अफवाहें भी मीडिया कही जा सकती हैं।

सूचना का प्रसार हमें एक अलग तरह की वास्तविकता से परिचित कराता है। अखबार में छपी हिंसा की खबरें हमें किसी समुदाय-समूह विशेष की छवि बनाने में मदद करती हैं। ये छवियां महज़ खबर से नहीं बनती, बल्कि हमारे व्यक्तिगत अनुभवों, समाज में प्रचलित धारणाओं और पूर्वाग्रहों से निर्मित होती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो छवियों का निर्माण और धारणाओं का विमर्श साथ-साथ चलते हैं। अखबार में छपी खबर, टी.वी. न्यूज में दिखाई गई बाइट आम-बातचीत में मौजूद प्रचलित मान्यताएं ;जो कभी मजाक के तौर पर आती हैं तो कभी गाली के तौर पर, एक खास तरह के सामाजिक सरोकारों का निर्माण करती हैं। ऐसे में यदि कोई घटना ‘विशेष’ इस तरह के सरोकारों की एक व्याख्या के तौर पर प्रस्तुत की जाए तब यह संभव हो जाता है कि पहले से मौजूद मान्यताएं सामाजिक ‘ आक्रोश’ का रूप ले लें और छवियों से पहुंचने वाली मानसिक हिंसा का बदला हमारी अपनी दुनिया में मौजूद समुदायों से लिया जाने लगे ।

गोधरा की घटना के बाद कार सेवकों की जली हुई लाशों को एक प्रतीक के तौर पर प्रस्तुत किया गया। भाजपा की राज्य सरकार ने जहां तक संभव हुआ गोधरा के ‘अवशेषों’ को प्रचारित-प्रसारित किया और पुरजोर कोशिश की कि प्रत्येक हिन्दू तक जली हुई लाशों की छवियां पहुंच सके। यही कारण था कि जली हुई लाशों और रेल के उस डिब्बे की कई वीडियो सी.डी. बनवाई गई। इन प्रसारित छवियों ने हिंदुत्व राजनीति के तर्क की संरचनाओं को नयी मजबूती दी। कार सेवकों पर हुए जानलेवा हमले से इतिहास में हुए मुस्लिम दमन के तर्क का एक नया स्पष्टीकारण मिला और कारसेवकों का बलिदान हिंदुओं पर होने वाले अन्याय की एक नई मिसाल बना दी गयी । यह स्पष्टीकरण बताता है कि कैसे हिंदुत्व के तर्कों को समय और काल की परिधियों से परे ले जाकर सर्वकालानीय बना दिया। परन्तु ऐसा सिर्फ गुजरात में ही क्यों हुआ?

इस तथ्य को और अधिक गहराई से जानने के लिए मै अपने दूसरे और काफी हद तक ‘‘गुजरात’’ केन्द्रित स्पष्टीकरण पर आता हूँ.  आंकड़े बताते हैं कि गुजरात का मुस्लिम समुदाय कई मायनों में देश के अन्य मुसलमान से आर्थिक-सामाजिक और शैक्षिणिक तौर पर काफी आगे है। जिस तरह गुजराती हिंदुओं ने अप्रवासी भारतीयों में सबसे शक्तिशाली समुदाय के तौर पर अपने आप को स्थापित किया है, बहुत कुछ वैसा ही गुजराती मुसलमानों के साथ भी है। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और ब्रिटेन में सक्रिय ‘भारतीय मुस्लिम’ नामक संस्थाओं को गुजराती मूल के मुसलमान संचालित करते हैं। ब्रिटेन की इंडियन मुस्लिम फेडेरेशन और कांउसिल ऑफ इंडियन मुस्लिमस, अमेरिका की इंडियन मुस्लिम एसोसिएशन और दक्षिण अफ्रीका की जमतियात उलेमा इसके सटीक उदाहरण हैं। ये एनआरआई मुसलमान न केवल गुजरात में मुस्लिम शैक्षणिक और सामाजिक संस्थाओं को चंदे में भारी रकम देते हैं बलिक गुजरात में इनके द्वारा संचालित कई आर्थिक संस्थान भी हैं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि गुजरात के व्यावसायिक तंत्र में हिंदु और मुस्लिम अप्रवासी भारतीयों की भागीदारी महत्वपूर्ण है। परन्तु यह मानना कि इस तरह की आर्थिक भागीदारी में द्वन्द नहीं होगा, सर्वथा गलत होगा। हिंदु और मुस्लिम व्यवसायी वर्गों में कई स्तरों पर आर्थिक विरोधाभास भी हैं। इस तरह वर्ग और आर्थिक द्वंद के प्रश्न गुजरात के विशेष संबंध में अप्रवासी गुजरातियों से जुड़े हुए हैं।2002 के दंगों की समझ के लिए इन प्रश्नों को व्यापक स्तरों पर देखना होगा, विशेषकर ‘मुस्लिम छवि’ के दृष्टिकोण से।

गुजरात का सम्पन्न मुसलमान, हमें याद रखना होगा ‘सेक्यूलर मुसलमान’ जैसा नहीं है। सेक्यूलर मुसलमान से मेरा आशय 1950 के बाद जन्मे उस विशिष्ट मुस्लिम इलीट  से है, जिसने अपने आप को सांस्कृतिक मुसलमान कहलवाना शुरू किया। इस मुस्लिम इलीट  ने ‘‘धर्म का विरोध’’ कुछ इस तरह किया  ताकि अपने को और अधिक प्रगतिशील और जनवादी दिखा सके। इस प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप अंग्रेजी पढ़ा-लिखा एक ऐसा मुस्लिम तबका उदित हुआ जिसका आम मुसलमानों से कोई रिश्ता नहीं था. परन्तु सम्पन्न गुजराती मुसलमान इस तरह का ‘सेक्यूलर’ नहीं था। इस वर्ग की आधुनिकता में धर्म  का एक विशेष स्थान था।
पर कैसा धर्म? बदलते सामाजिक आर्थिक परिवेश मे गुजरात के संपन्न मुस्लमान नयी तरह की धार्मिकता की तलाश मे थे. उनके व्यवसायिक संबधों के लिए प्रचलित सूफी इस्लाम की धार्मिकता एक रुकावट बन रही थी. यही कारण था की 1950 के बाद गुजरात मे खास कर शहरों मे सूफी इस्लाम की लोकप्रियता लगातार घटने लगी. धार्मिकता  के इस रिक्त स्थान को तबलीगी जमात ने भरना शुरू किया. 

तबलीगी जमात की शुरुआत 1932 मे दिल्ली से हुई थी. यह एक मज़हबी आन्दोलन था जिसका उद्देश्य मुसलमानों को इस्लाम के मूल तत्व से परिचित करना था. तबलीग ने धार्मिक आडम्बरो का विरोध विनम्र तरीको से किया. सूफी इस्लाम को बुरा कहने की बजाय तबलीग ने लोगो को नमाज़ की दावत देना शुरू किया . इस  तरह न केवल मज़हबी लडाइयां दर किनार हो गयी बल्कि मुस्लिम व्यापारी वर्ग भी जमात की ओर आकर्षित होने लगा. जमात द्वारा स्थापित सिद्धांत   ‘‘अपना माल,अपना वक़्त और अपनी इबादत ’’ व्यवसायी वर्ग के लिए अनुकूल था. इस तरह के धर्म मे न तो आडंबर करने के खर्चे थे और न ही कोई राजनीतिक प्रोग्राम।

यही कारण था कि स्वंतत्रता के बाद के पहले दो दशकों में तब्लीगी जमात गुजराती  मुसलामानों की प्रमुख इस्लामिक धार्मिकता बन गई। हालांकि मुस्लिम धार्मिक विविधताएं बरकरार रहीं, परन्तु धीमी-प्रक्रिया के रूप में तब्लीगी जमात ने सूफी इस्लाम और अन्य मजहबी विश्वासों को किनारे कर दिया। रोचक बात यह है कि अप्रवासी भारतीय गुजराती मूल के मुस्लिम समूहों ने तब्लीगी जमात को न केवल भारत में पनपने में मदद की बल्कि पश्चिमी देशों में मौजूद मुसलमानों को भी जमात की धार्मिकता से परिचित कराया।

इस तरह गुजरात मे जो मुस्लिम छवि बनी वह देश में मौजूद अन्य मुस्लिम पहचान से थोड़ी अलग थी। जहां एक ओर गुजराती मुस्लिम छवि सम्पन्न होते ऐसे समुदाय की थी जिसके स्पष्ट अंतरराष्ट्ीय संबंध थे, वहीं तब्लीग की लोकप्रियता ने इस छवि में परम्परागत इस्लामी प्रतीक - दाढ़ी, टोपी, बुर्का, कुरान, मकतब, मदरसा जोड़ दिये।
हिंदुत्व की राजनीति की नजर से देखें तो गुजरात का मुसलमान एक ऐसा प्रतीक था जिसके जरिये से हिंदुत्व के तर्कों को साबित करना बहुत आसान हो गया। मुसलमानों की बढ़ती धार्मिकता को हिंदुत्व के लिए  खतरे के तौर पर  दिखाया जाने लगा. कुछ इसी तरह मुसलमानों की आर्थिक प्रगति  भी हिंदुओं के आर्थिक हितों की अनदेखी बताई जाने लगी। राम मंदिर आन्दोलन ने इन स्थापित जवाबो को नए अर्थ दिए, विशेष कर 1990 के बाद.

इस सम्बन्ध मे सोमनाथ मंदिर का ज़िक्र करना उल्लेखनीय है. 1950 मे सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण भी आस्था का तर्क दे गया था. इस प्रयोजन मे वहां पहले से मौजूद मंदिर के खंडहर तोड़े गए थे ताकि इतिहास का बदला लिया जा सके. उस पूरे प्रकरण मे सरदार पटेल की भूमिका अहम् थी.
परन्तु अडवाणी की 1990 की रथ यात्रा ने सोमनाथ के मंदिर को अयोध्या से जोड़ दिया. इस तरह गुजरात के हिन्दू-मुस्लिम द्वन्द जो आर्थिक और स्थानिये मुद्दों से परिभाषित हो रहे थे, एतिहासिक रंग मे रंग दिए गए. परिणाम स्पष्ट था. गुजरात का संपन्न मुसलमान जिसका महमूद गजनवी, सोमनाथ, ओर अयोध्या से कोई रिश्ता नहीं था, आम हिन्दू गुजरती का दुश्मन बना के पेश किया जाने लगा .
इस तरह हिंदुओं के साथ होने वाले ‘अन्याय का तर्क’ जो अब तर्क अमूर्त था इस नव स्थापित मुस्लिम छवि से मूर्त रूप लेता चला गया। इतिहास में मौजूद हिन्दू दमन की कहानियां जो सोमनाथ के मंदिर के विध्वंस से शुरू होती थी, अब गोधरा की छवि से जा मिलीं। इतिहास, वर्तमान से मिला और हिंदुत्व राजनीति आक्रोश की मनोभावना में बदल दी गई।

हमारा यह विश्लेषण दो बिन्दुओं को उठता है. पहला, छवियों का निर्माण, प्रसार और उनके स्वीकार करने की प्रक्रिया हिसा के तर्कों को मूर्त रूप देने अहम भूमिका निभाती है. दूसरा, गुजरात मे जिस विशिष्ट मुस्लिम छवि का निर्माण हुआ वह मुसलमानों की बदलती आर्थिक स्थिति सामाजिक  रुतबे  और परिवर्तित धार्मिकता पर आधारित थी. ऐसे मे मुसलमानों के खिलाफ़  हुई हिंसा का वैचैरिक  क्षेत्र  काफी हद तक गुजरात की आपनी विशिष्ट आधुनिकता के विमर्श मे निहित था.
यदि  इन  दोनों बिन्दुओं को मिलकर  देखा  जाये  तो  यह कहा  जा सकता है कि हिंसा के विमर्श को हिंसा के तर्कों से जोड़ कर देखना  चाहिए ताकि हिंसा जैसी अवधारना की विविधताओं से परिचित हुआ जा सके. मेरा मत है कि हिंसा के तर्कों की सही समझ हमें मूल्यों की राजनीति करने की सही समझ दे सकती है. 

(लेखक-परिचय:
जन्म: 17 मार्च 1971 को दिल्ली में
शिक्षा: दिल्ली और लंदन से राजनीतिशास्त्र की उच्च डिग्रियां
सृजन: समाज, राजीनीति और साम्प्रदायिकता पर प्रचुर लेखन इंग्लिश, हिंदी और उर्दू में
संप्रति: सीएसडीएस, दिल्ली में रिसर्च फ़ेलो
संपर्क: ahmed.hilal@)csds.in)
    

 




शमा-ए-हरम हो, या दीया सोमनाथ का

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       फोटो वसीम





छठ पर्व पर बिखरी  परस्पर प्रेम की खुश्बू   साफसफाई, सजावट सहित फल वितरण  में मुस्लिम  रहे अव्वल











सूर्य उपासना के महापर्व छठ के अवसर पर राजधानी के लेक रोड का दृश्य उर्दू शायर मीर के इस शेर को जीवंत करता है:
 उसके फरोगे हुस्न से झमके है सबमें नूर
शमा-ए-हरम हो, या दीया सोमनाथ का।

 संजय सोनी उर्दू लाइब्रेरी के सामने तोरण द्वार बनाने में लगे हैं। नीचे खड़े मो. मोइन जब उन्हें बल्ब की रंगबिरंगी लरियां हाथों से पकड़ाते हैं, तो दोनों की परस्पर मिलीं आंखों में उतरा सद्भाव का स्नेहिल उबाल देश की गंगा-यमुनी संस्कृति को मटियामेट करने की सारी साजिशों को बहा ले जाता है। संजय, मुन्ना जमाल, रवि और रब्बानी जैसे ढेरों युवा गुरुवार को लेक रोड को सजाने व संवारने में लगे रहे। संजय कहते हैं कि बिना मोईन के मैं छठ की कल्पना भी नहीं कर सकता। पास खड़ी उनकी मां की नजर दोनों पर ममत्व बरसाती रहीं। दरअसल वातावरण में ही छठ मइया की ममता झिलमिल है।

राइन स्कूल के पास नवशाही संघ सद्भावना समिति एक मंच बना रही है। यहां से व्रतियों का स्वागत किया जाएगा। वहीं राइन पंचायत की ओर से फल व अगरबती का वितरण होगा। पंचायत के सदर मो. एनामुल कहते हैं कि लेक रोड रांची का यह सबसे पुराना छठ तालाब का मार्ग है। बरसों से ही इसकी साफ-सफाई हिंदू-मुस्लिम मिलकर करते रहे हैं। समाजिक कार्यकर्ता हुसैन कच्छी की दृष्टि में यह देश का पहला पर्व है, जिसमें साफ-सफाई और शुद्धता का ध्यान रखा जाता है। इसमें महिलाओं की भागीदारी अधिक रहती है, इसलिए उन्हें विश्वास है कि इस पर्व की पाकीजगी हमेशा बरकरार रहेगी।

छता मस्जिद के पास मिले रब्बानी फूल की व्यवस्था में लगे हैं। कहते हैं कि व्रतियों की सुरक्षा व उनका सम्मान करना उनका धर्म है। हमलोग सड़क की सफाई के बाद इसे पूरी तरह धोते हैं, ताकि शुद्धता बनी रहे। वहीं व्रतियों की सुरक्षा व्यवस्था में भी सभी कार्यकर्ता तैनात रहते हैं। इधर लेक रोड से लगी हिंदपीढ़ी सेंकेंड स्ट्रीट के मुर्शिद अय्यूब और अनवर भी दिनभर गली की सफाई में लगे रहे। मो. मोईन के बकौल वे सार्वजनिक चंदी नहीं लेते। सभी दोस्त आपसी सहयोग से सब करते हैं। चाहे लाउडस्पीकर लगाना हो, या फूलों का स्वागत द्वार। छठ मार्ग के दोनों ओर सजी रंग बिरंगियां रोशनियां देश के परंपरागत सद्भाव को जगमग करती हैं। वहीं फूलों से उठती खुश्बू इस बात की परिचायक हैं कि देश की राजधानी दिल्ली की तरह हमारे राज्य की राजधानी रांची में भी फूलों की सैर होती है। ऐसी सैर जिसमें तुलसी, कबीर, बुल्लेशाह, रहीम और रसखान की आत्माएं गलबहियां करती हैं।

दैनिक भास्कर के 8 नवंबर 2013 के अंक में प्रकाशित


ईंट उठाने वाली मज़दूर बनी यूनिवर्सिटी टॉपर

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गोल्ड मेडल पाकर  कहा, नौकरी मिल जायेगी न!

पदक पाकर मुन्नावती रो पड़ी   चित्र: रमीज़ जावेद




शहरोज़
 @  मुन्नावती


बरसों रेजा मजदूरी करते बचपन से युवा होने तक जो सपना देखा था, उसके साकार होने में मात्र कुछ ही घंटे बचे थे। मन में अजब हलचल थी  कि आज मुझे ईंटें नहीं उठानी, बल्कि सोने का तमगा गले में पहनना है। मुझे यह पदक कोई और नहीं देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे स्वयं देंगे। आखिर क्यों नहीं? मैंने संस्कृत में यूनिवर्सिटी जो टॉप किया है। सूरज बाबा ने चहुं ओर अंजोर कर दिया है। सोमवार को दिन के 10 बजे हैं। मैं छोटे भैया हरख  के साथ रांची विवि पहुंची, तो अवाक् रह गई। सड़क की दोनों ओर गाडिय़ों का काफिला। फूल सी चहकती छात्राएं। छात्रों के झुंड का तेज भी जुदा-जुदा सा। दीक्षांत मंडप पहुंचते-पहुंचते मुझे गांव के आसपास लगने वाले मेले याद आने लगे। उस मेले में जाने का अवसर भी भला कहां नसीब हो पाता था। दिन-भर हाथ-गोड़ तोड़ू श्रम करने के बाद शाम को थकी-मांदी अपने गांव दोलैंचया पहुंचती थी। फिर रसोई निबटाकर पढऩे बैठ जाती। गालों पर लुढक आए आंसूओं को पोंछते मैंने मंडप में प्रवेश किया। काले-लाल गाउन में दमकती हमउम्र लड़कियों को पास देख खुशी दोहरी हुई। साथ ही ज्योतिमर्य डुंगडुंग, कुमारी अनुपमा, गुफराना फिरदौस, शमा परवीन, नुपुर , शहनवाज को करीब पाकर दिल ने जोर से कहा, जय हिंद!  हरख भैया मुझे बैठाकर इधर-उधर टहलने लगे। उनकी आंखें की पलकें भी उचक-उचक कर यहां उतर आए खुशरंग व खुशपल को निहारने लगीं। सीट पर बैठते ही पत्रकारों ने घेर लिया। हर कोई मेरी गरीबी को जानना चाहता है। लेकिन मैं हरेक से अपनी गरीबी दूर करने की विनती करती हूं। मुझे अब नौकरी मिल जाएगी न?

मेरे ठीक सामने बड़ा सा मंच है। लग रहा है कि लापुंग का खेल मैदान हो। मंच पर सजे रंगबिरंगे फूल मुझे गांव के फुटबाल(गेंदा)फूल का स्मरण कराते हैं। मंडप में भीड़ है। खुशियों का मेला है। इससे पहले इतनी भीड़ अपने गांव से चार-पांच किमी दूर डुरू जतरा में देखी थी। अचानक घोषण होती है कि अब शोभायात्रा आएगी। समय 11 बजे का है। मखमली गाउन में गुरुओं व अतिथियों का झुंड। मार्च की अगुवाई कर रहे हैं, रजिस्ट्रार डॉ. अमर कुमार चौधरी। उनके साथ राज्यपाल डॉ. सैयद अहमद, केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे, शिक्षा मंत्री गीताश्री उरांव, वीसी व प्रोवीसी, डीन, सिंडीकेट, सीनेट। उनके मंचासीन होने के बाद ही राष्ट्रगान के लिए सभी खड़े हो गए। समवेत स्वर में जन  गण मन से गाते ही रोम-रोम सिहर गया। उसके बाद जय-जय गुरुकुल जय रांची विवि के कुलगीत ने स्वाभिमान की ऊर्जा भर दी।

रजिस्ट्रार साहब के भाषण के बाद अतिथियों को सम्मानित किया गया। कुलपति ने अंग्रेजी में प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। उसके बाद गोल्ड मेडल पाने वाले छात्र-छात्राओं को सामने आने को कहा गया। मेरी धड़कनें धौकनी की तरह चलने लगीं। मंच की  बायीं ओर  हम सभी करीब लगगभ 29 विद्यार्थी पंक्तिबद्ध खड़े हो गए। इनमें 19 लड़कियां थीं। सबसे पहले मंच से संजय कुमार के नाम की घोषणा होते ही तालियों ने शोर का संग दिया। आठवें क्रम में मेरा नाम पुकारा गया। साहस बटोरते हुए मैं मंच पर पहुंची। केंद्रीय मंत्री के हाथों गोल्ड मेडल व प्रमाण पत्र पाते ही लगा कि मैं घोल जीत गई। बचपन में जतरा में अक्सर मैं घोल में हार जाती थी। मंच से उतरते ही दोनों भैया  हरख व गोवद्र्धन साहू का चरण छुआ। मेरी मजदूरी के साथ इनकी मेहनत व साथ के बल पर ही तो मेरे गले मे यह सोने का तमगा चमका है। पदक वितरण के बाद अतिथियों ने भाषण दिया। शिंदे जी की बात ने बहुत प्रेरित किया। उन्होंने भी अभाव को अपनी मेहनत व ईमानदारी से परास्त किया है। पदक को भैया बार-बार छू कर देखने लगे। मैंने किसी से पूछा, भैया यह सोना ही है ना या कि केवल पानी चढ़ा  हुआ है। यहां से मैं विभाग जाउंगी  गुरुओं का आशीष लेने। अस्पताल जाकर बीमार मां की चरणधूलि से माथे पर टीका लगाउंगी। बाबा देवीदयाल होते, तो किता खुश होते। तब इन आंखों का बादल सिर्फ हर्ष का ही होता।

भास्कर रांची के 26 नवंबर 2013 के अंक में प्रकाशित 

मोदी को बुलेट से नहीं बैलेट से दें जवाब: अहले हदीस मस्जिद के इमाम

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इमाम ज़ियाउल हक़ फ़ैज़ी ने कहा बम या गोली मसले का हल नहीं

मामला नाइंसाफी से जुड़ा हो या फौरी गुस्सा से उबली प्रतिक्रिया इस्लाम या अहले हदीस हिंसा की इजाजत नहीं देता। कुछ भटके हुए लोग जिहाद की गलत व्याख्या कर रहे हैं। जिहाद आतंकवाद नहीं होता। जिहाद तो अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करना है। बुराई से बचना है। आतंकवादी गतिविधियों में पकड़े गए लोग अपने बचाव में अहले हदीस का नाम लेकर उसे बदनाम कर रहे हैं। यह बातें रांची स्थित अहले हदीस की प्रमुख मस्जिद के इमाम व खतीब ज़ियाउल हक़ फ़ैज़ी  ने सैयद शहरोज कमर से खास बातचीत में कही है। पेश है उसके प्रमुख अंश:

कहा जा रहा है कि अहले हदीस मुसलमानों के बीच कट्टरता के बीज बो रहा है?
 नहीं। ऐसा हरगिज नहीं है। अहले हदीस सिर्फ कुरआन व हदीस की रोशनी में समाज की सलामती व ईमान की सुरक्षा का प्रचार--प्रसार करता है। इस्लाम अमनो-अमां की बात कहता है. हमारे नबी ने मस्जिद और बाज़ारों में हथियार ले जाने की  मनाही की  है.  
फिर दहशतपसंदी के आरोप में अहले हदीस के लड़के ही क्यों पकड़े जा रहे हैं?
यह इत्तिफाक है कि पकड़े गए लोग अहले हदीस का नाम ले रहे हैं। यह हमारी जमायत के खिलाफ कोई साजिश भी हो सकती है।
इसे महज इत्तिफाक कैसे कह सकते हैं। जबकि हिरासत में लिए गए या इल्जाम में पकड़े गए लोगों का संबंध बजाब्ता अहले हदीस से रहा है?
हो सकता है। उनका झुकाव मेरी जमायत से रहा हो। लेकिन हमलोग ऐसी शिक्षा नहीं देते हैं। ट्रेनिंग की बात ही जुदा है। वे भटके हुए लोग हैं। मुमकिन है , बेरोजगार युवकों का किसी ने अहले हदीस को बदनाम करने और मुल्क में अशांति फैलाने के लिए इस्तेमाल किया हो। इससे इंकार नहीं कर सकते। अगर ऐसा होता तो, लक्खीसराय या झरिया से पकड़े गए लड़के गैरमुस्लिम नहीं होते।
कहा जाता है कि अहले हदीस को सऊदी अरब से फंडिंग होती है?
मैं बच्चों को ट़्युशन पढ़ाता हूं ताकि अपने बच्चों की ठीक से परवरिश कर सकूं। क्योंकि मुझे महज छह हजार रुपए ही तनख्वाह मिलती है। वहीं मस्जिद के खर्च के लिए चंदा किया जाता है। अगर सऊदी से मदद मिलती तो फिर न चंदा की जरूरत पड़ी, ना ही मैं ट्युशन करता।
भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की जान अहले हदीस क्यों लेना चाहता है?
यह सरासर इल्जाम है।
जितनी खबरें आ रही हैं या पटना ब्लास्ट मिसाल है।
मैंने पहले ही कहा कि ऐसी इजाजत न इस्लाम, ना ही अहले हदीस देता है। अगर किसी को मोदी से शिकायत है, तो जम्हूरियत है, उनका विरोध करें। उन्हें वोट न करें। सेकुलर मिज़ाज के लोगों को जिताएं।
गुजरात या हालिया मुजफ्फरनगर दंगे की प्रतिक्रिया हो या अन्याय के खिलाफ हो सकता है कि इन लड़कों को बरगला दिया गया हो?
हुजूर बहुत पहले कह गए हैं कि वतन से मुहब्बत करना ईमान का ही अंग है। अगर नाइंसाफी है, तो कानूनन लड़ाई करें। बम या गोली किसी मसले का हल नहीं है। उनकी मुख़ालिफ़त के नाम पर बेक़सूर बच्चों, औरतों, बुज़ुर्गों और नौजवानों को हलाक करना गुनाह है. ऐसा करने वालों की  जगह इस्लाम में नरक ही है. 
भास्कर के झारखंड संस्करण में 30 नवंबर 20 13 के अंक  में प्रकाशित
  

पटना ब्लास्ट के एक महीने बाद कितनी बदल गयी ज़िंदगी

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 इस दुकान की बायीं तरफ़ पहले कैफे भी हुआ करता था, जिसे बंद कर अब निशा स्टोर को बढ़ा दिया गया है. फ़ोटो मीर वसीम  

दहशत ने बनाया अपनों को संदिग्ध: कई शहर, तो कुछ स्कूल छोड़ने को तैयार,   बच्चों के लैपटॉप तक की होने लगी मॉनिट्रिंग 



पटना सीरियल बम ब्लास्ट को एक महीने पूरे हो चुके हैं। लेकिन इसकी गूंज आज भी रांची में सुनाई पड़ रही है। इसमें दहशत, जिज्ञासा, चौकसी और अकारण उपजी परेशानी भी शामिल है। दरअसल इस मामले में एक के बाद कड़ी रांची से जुड़ती चली गयी है.
 पटना ब्लॉस्ट और उसके बाद की पुलिस और एनआईए की गतिविधियों रांची  के लोगों को झकझोर के रख दिया है। इस एक महीने में शहर के मुसलमानों को लेकर लोगों के नजरिये में, उनकी सोच में बदलाव देखने को मिल रहा है। यह बदलाव महसूस किए जाने वाले हैं। खुद मुस्लिम परिवार के लोग अपने बच्चों के कल को लेकर फिक्रमंद हैं। घर के किसी पीसी  लैपटॉप लेकर जब भी कोई लड़का बैठता है, तो घर के गार्जियन की नज़रें चौकन्नी हो जाती हैं. हंसी-ठिठोली में ही सही उनके मेल या सोशल साइट्स के अकाउंट की निगरानी इन बच्चों के लिए दहशत भरी होती हैं. कुछ परिवार तो मोबाइल तक की मॉनिट्रिंग करने लगे हैं. वहीँ शहर के कई इलाक़ों में नाम पूछकर स्टूडेंट्स को लॉज दिए जा रहे हैं.  दहशत और शक की सुई ने तालीम और कारोबार को भी बुरी तरह प्रभावित किया है.  वही एक खास विचारधारा  को लेकर भी लोगों में गुस्सा है. ब्लॉस्ट  के बाद रांची में आए बदलाव को हमने उनके बीच जाकर तलाशने का प्रयास किया है, ताकि उसकी बारीकियों को समझा जा सके।

कैफे बंद कर देना पड़ा
इरम लॉज से चंद दूरी पर निसा जनरल स्टोर है। यहां एक साइबर कैफे भी कुछ माह शुरू हुआ था। लेकिन अब उसे बंद कर दिया गया है। इसके संचालक मो. इरफान आलम ने बताया कि उन्होंने दहशत में कैफे को बंद करदेने का फैसला किया। हालांकि उससे उनकी आय पर भी असर पड़ा है। जबके मैं बिना पहचान पत्र के किसी को भी बैठने की अनुमति नहीं देता था। लेकिन कोई नेट का कैसा इस्तेमाल करेगा, इसकी मॉनिटरिंग मुश्किल है। साथ ही निजी आजादी पर हमला भी।

डर में जी रहा परिवार
बीते एक महीने में हमारी जिंदगी बदल गई है। पूरा परिवार डर में जी रहा है। घर के बाहर से कोई आवाज देता है, तो रूह कांप जाती है। किसी अनजाने नंबर से फोन आता है, तो लगता है कि एनआईए वालों का फोन होगा। यह कहना है मोजम्मिल के पिता मोइनुद्दीन अंसारी का। मोजम्मिल की बस गलती इतनी थी कि वह पांच लाख का इनामी आतंकी हैदर से ढ़ाई साल पहले मिला था। हैदर उस समय डोरंडा में ही रहा करता था। मोजम्मिल की अम्मी अल्लाह से दुआ करती हैं कि फिर दोबारा कहीं बम न फटे। वरना फिर से एक बार हमारा जीना दूभर हो जाएगा।

फीस नहीं भरी  तो बच्चों का स्कूल छूट जाएगा
उजैर की पत्नी फातिमा शानी ने बताया कि बीते महीने की 28 तारीख को पुलिस ने मेरे पति को फोन कर बुलाया। उसके बाद से वो कहां हैं मुझे पता नहीं बताया गया। न उनका फोन आया और न उनकी बाइक लौटाई गई। उजैर के साथ पुलिस ने मेरा भी पासपोर्ट जब्त कर लिया है। मेरे पास पैसे नहीं है। उधार के राशन से घर चल रहा है। इस महीने तो बच्चों की फीस तो किसी तरह भर दिया है, लेकिन दिसंबर में फीस के पैसे मेरे पास नहीं है। अगर फीस नहीं भरी,  तो बच्चों की पढ़ाई छूट जाएगी। फातिमा कहती हैं कि उनके पति आतंकी नहीं है। वो हमेशा जरूरतमंदों की मदद करते आए हैं। उन्हें खुदा पर भरोसा है, वो एक दिन बेगुनाह साबित होंगे।

पासपोर्ट बनाना हुआ मुश्किल
ब्लास्ट के बाद रांची में मुसलमानों के लिए पासपोर्ट बनवाना भी मुश्किल हो गया है। पहले आसानी से पुलिस और स्पेशल ब्रांच की वेरिफिकेशन हो जाया करती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। इन दोनों एजेंसी के जांच के बाद भी डीएसपी लेबल के अधिकारी खुद से आमने सामने पासपोर्ट बनाने वाले से पूछताछ करने लगे हैं। इस वजह से पासपोर्ट बनाने में समय तो लग ही रहा है, साथ ही उसे मानसिक तनाव से भी गुजरना पड़ रहा है। घटना के बाद पहले सीठिओ के लोगों को दुकानदारों ने सिम बेचना बंद कर दिया था। अब रांची शहर के आम दुकानदार भी उन्हीं मुस्लिम लोगों को सिम कार्ड बेच रहे हैं, जिनसे उनकी जान पहचान है।

दिल करता है रांची छोड़ दें
मेरे छोटे बेटे की सिर्फ जान पहचान उजैर से थी। उजैर के पकड़े जाने के बाद दूसरे दिन एनआईए मेरे बेटे को पूछताछ के लिए ले गई। रात 10 बजे छोड़ा। दूसरे दिन फिर 10 बजे सुबह उसे बुला लिया। बेटा रात में घर लौटा। यह सिलसिला लगातार 13 दिनों तक चलता रहा। इस दौरान हम हर पल जीते मरते रहे। यह कहना है डोरंडा फिरदौस नगर में रहने वाले रईस खान का। कहते हैं कि उनका पूरा परिवार दहशत में है। पत्नी सदमे में है। बेटे की जिंदगी बदल गई। उसका घर से निकलना कम हो गया। घर से बाहर निकलने पर मुहल्ले के लोग ऐसे देखते हैं कि लगता है कोई अजनबी जा रहा हो। मैं पत्नी से बात कर रहा था कि रांची छोड़कर बड़े बेटे के पास रहने चले जाए।

किरायेदार पर निगारी करने लगी हैं
इरम लाज के पड़ोस में रहनेवाली यास्मीन बानो आज भी उस शाम को याद कर कांप जाती हैं। जब उनके ही पड़ोस में रहने वाले स्टूडेंट्स के कमरे से बम बरामद किया गया था। कहती हैं कि आखिर आदमी किस पर भरोसा करे। लॉज में रहने वाले सभी लड़के पढऩेवाले रहते हैं। रमजान में वे रोजा-नमाज भी किया करते हैं। उनके बीच कोई दहशतगर्द भी है, इसकी किसी ने कल्पना भी न की थी। अपने एक किरायेदार छात्र पर वे हर समय निगारानी करने लगी हैं।

अब चौकन्ने हैं पड़ोसी
इरम लॉज के दूसरी ओर मोहम्मद सईद की टेलरिंग शॉप है। महिलाओं के कपडे वे सिलते हैं। कहते हैं कि लॉज में हिंदू-मुस्लिम सभी छात्र रहते रहे हैं। इनमें कभी मनमुटाव की भी शिकायत नहीं मिली। लेकिन उस दिन शाम जब वह नमाज पढ़कर दुकान लौटे, तो भीड़ देखकर भौंचक रह गए। कहा गया कि लॉज से बम बरामद किया गया है। तब उन्हें बेहद हैरत हुई। यकीन ही नहीं हुआ कि ये पढऩेवाले बच्चे ऐसा भी कर सकते हैं। अब चौकन्ने हो गए हैं।

आलिमों की राय
पुलिस को ऐसे गिरोहों को चिन्हित करना चाहिए: शहर काजी
रांची के शहर काजी कारी जान मोहम्मद रज्वी ने कहा है कि सरकार, पुलिस और अवाम को चाहिए कि वे उन तत्वों की निशानदेही करें, जो आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हैं। क्योंकि एक इतिफाक है कि एक खास विचारधारा से जुड़े लोगों का नाम इस मामले में सामने आ रहा है। लेकिन उससे समूची मुस्लिम कौम बदनाम हो रही है। आलिमों व दानिश्वरों को मिलबैठकर इस मुद्दे पर बैठक करनी चाहिए।

एक जमायत शक के घेरे में : नाजिम इदारे शरीया
इदार-ए-शरीया झारखंड के नाजिम आला मौलाना कुतुबुद्दीन रिजवी ने कहा है कि पटना ब्लास्ट के इल्जाम में जितने भी लड़के रांची से पकड़े गए, वे सभी एक खास विचारधारा से जुड़े हुए थे। यह अफसोसनाक है। इसकी ईमानदारी से जांच होनी चाहिए। इसकी भी जांच होनी चाहिए कि इस जमायत को कहां से फंडिंग होती है। रांची में महज पंद्रह साल के अंदर इस जमायत का बहुत तेजी से फैलाव हुआ है। अवाम को भी इसपर सोचना होगा।

(साथ मेंआदिल हसन)

भास्कर के झारखंड संस्करण में 29 नवंबर 2013 के अंक में प्रकाशित 









न रहा घर, न ही कोई आसरा, मां पहले ही गुज़र चुकी

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पाइलिन में पिता और छोटा भाई खो  चुके पवन की  कहानी

उसकी  आंखें लबालब हैं। मानो पाइलिन उतर आया हो। जबकि यह तूफ़ान तो अक्टूबर के  पहले सप्ताह आया था। मैं बात अरगोड़ा, रांची  के 22 साल के  पवन तिर्की की कर रहा हूं।  जिसके पिता और एक  छोटे भाई को  इस क़हर ने लील लिया।  अब वह  पंखे की तेज़ खड़-खड़ाहट  से भी कांप जाता है। घर तो रहा नहीं। अब उसका  पता है  , अशोक  नगर, रोड नंबर एक ।
पवन कहता है, दो दिन तक  तूफानी हवाओं के  साथ मुसलाधार बारिश होती रही । मज़दूरी कर तीन बच्चों को  पालने वाले बाबा गंदरू तिर्की  कभी इधर बाल्टी रखते, तो कभी उधर। हम तीनों भाई मैं  पवन, आकाश, पंकज बदन पर कथरी ओढ़े अपने बाबा की  मदद करते रहे। लेकिन खपरैल छत ने आसरा छोड़ दिया। दो अक्टूबर की  रात थकन ने हमें  दबोच लिया। जिसे जहां जगह मिली नींद के  आगोश में चला गया।  क्या पता था कि यह आखऱी नींद होगी।
पवन के  थरथराते होंठ से निकलता है, तब 12 बज रहा होगा। ज़ोर की  आवाज़ हुई। इतना शोर कभी न सुना था। मोहल्ले वाले बाबा का  नाम लेकर पुकार नहीं, मानो चीख रहे थे। मैं हड़बड़ा कर उठा।   वह कहते-कहते  चुप हो गया। खुद ही खामोशी तोड़ी। मैं जब उठा तो उसी स्थिति में रह गया अवाक । जैसे पूरे शरीर को  का ठ मार गया हो। हमारा मिटटी का घरोंदा हम सब पर मलबा बनकर सवार था। पड़ोसियों ने हम सभी को  बमुशकिल बाहर  निकाला। बाबा, आकाश और पंकज की हालत गंभीर थी। उनका कंठ  बंद था। सिर्फ आंखें उनकी  पीड़ा को  बयान कर रही थी। मोहल्ले वाले तीनों को  अस्पताल लेकर गए. जहां बाबा और आकाश ने दम तोड़ दिया।
अम्मा बहुत पहले ही गुजऱ गयी थी। बाबा से ही ममता और वात्सल्य मिलता था। घर भी तो न रहा। छोटे भाई पंकज को  लेकर मैं पड़ोसियों की भीख पर ज़िंदा हूं।  गरीबी ने पढऩे न दिया, लेकिन भाई को पढ़ाना चाहता हूं।  लेकिन  पडोसी कब तक  दया करते रहेंगे। मैं तो बस इतना चाहता हूं कि  सरकार वाजिब मुआवज़ा दे तो मैं कुछ कारोबार कर सकूं । घर बना सकूं । अब  पंकज का बाबा और अम्मा मैं हूं न!

यह है सरकार की  कहानी
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने 15 अक्टूबर को  बुलाई आपदा बैठक  में पाइलिन से प्रभावित लोगों को  सात दिनों के  अंदर मुआवज़ा देने का  निर्देश दिया था  पवन ने 21 अक्टूबर को  डीसी और शहर अंचल कार्यालय में मुआवज़े के  लिए आवेदन दिया। लेकिन आज तक  उस पर कार्रवाई नहीं हुई है। महीने भर दफ्तरों का  चक्कर लगाकर यह आदिवासी युवक  हताश हो चुका  है। भाजपा व्यापार प्रकोष्ठ के ज्ञानदेव झा कहते हैं कि आदिवासी राज्य, आदिवासी  सीएम के  रहते आदिवासी युवक  की  गुहार जब अनसुनी है, दूसरों के  हित का  सोचना ही गलत है. जबकि  पवन बीपीएल कार्ड धारी  भी है।   

भास्कर रांची के 3 दिसंबर 2013 के अंक में प्रकाशित



सिर्फ़ आप ही नहीं, कर सकते हो तुसी भी कमाल!

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फ़ोटो गूगल महाराज की कृपया से











हालिया चुनाव पर कुछ इस तरह भी तो सोच सकते हैं
तमाम तामझाम और बेशर्मी लांघती मीडिया रपटों के बावजूद लोकमानस को समझ पाने में हम लोग असमर्थ रहे. लेकिन ज़िद की लकीर का अहं अब भी मुंह नहीं चुरा  रहा है. दरअसल सेठों का पैसा दाव पर है. उसकी अपनी ज़रूरतें हैं. अपने निहितार्थ हैं. शहरों के मध्य-वित्त वर्ग को उसका चमकीला रैपर बहुत सुहाता है. और देश को इन्हीं के मार्फ़त चलाने की क़वायद रवां-दवाँ है. गांधी का गाँव कहीं  खो गया है. उसकी चिंता जभी होती है, जब सेठों को अपने उत्पाद की बिक्री करनी होती है. इसी बहाने सड़कें तो बन ही जाती हैं. लेकिन वहीँ तक बनती हैं जहां क्रय-शक्ति है. और उत्पाद छोटे पैक में भी बिक जाता  हो.  इधर व्यस्क होते  शहरी युवाओं की ऊर्जा और उत्साह का इस्तेमाल धर्म और जाति की सियासत करने वाले उन्हें वरगलाकर करते हैं. और अभी उसका फीसद अच्छा-खासा है. लेकिन क्या यह स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है कि हम गाँव में रहने वालों की अनदेखी कर दें.
लेकिन सच यह भी तो है कि जनता कार्पोरेट राजनीति और राजनीतिक कारोबार को कुछ-कुछ तो ज़रूर समझने लगी है. क्या ताज़ा चुनाव इसकी तस्दीक़ नहीं करता कि दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों से जन-मोह भंग हो रहा है. और इसकी शुरुआत तो बहुत पहले दक्षिण और पूर्वोत्तर में  हुई. बाद में उत्तर प्रदेश और बिहार-झारखंड  में उभरे इलाक़ाई दलों ने बखूबी महसूस  किया। तुरंता मिसाल दिल्ली की है. जहां आप  ने कमाल कर दिया। यदि दिल्ली की तरह ही राजस्थान,  छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कोई तीसरा विकल्प होता तो क्या परिणाम यही होते। गर पुण्य प्रसून  बाजपेयी जैसा पत्रकार यह कहता है कि   'कांग्रेस के खिलाफ गये चार राज्यों के जनादेश का सबसे बडा संकेत 2014 में एक नये विकल्प को खोजता देश है'तो गलत क्या है. यह विकल्प कांग्रेस या भाजपा से इतर तीसरी राह की और अग्रसर होगा।
समय है कि हर क्षेत्र की सियासी जमात अपनी खुन्नस त्याग कर  मज़बूत तीसरा मोर्चा तैयार करें तो इन बड़बोलों का गुब्बारा हवा हो जाए! तभी नमो जाप करने वाले नमो-नमो करने लगेंगे। क्योंकि वो सोच रहे हैं कि  कांग्रेस की नीतियों को लेकर बढ़ता आक्रोश उन्हें सत्तासीन कर देगा। यदि इन दोनों के अलावा तीसरा विकल्प सामने होगा तो जनता निसंदेह उसे ही तरजीह देगी। सच्चे लोकतंत्र की भी यही मांग है.  वर्ना तमाशा देखते रहिये।
 छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के खिलाफ लगभग 59 प्रतिशत मत पड़े लेकिन रमन सिंह महज़  41.4 प्रतिशत मत पाकर फिर ताज सम्भाल लेंगे ! जबकि सिर्फ एक प्रतिशत से भी कम मत लाने वाली कांग्रेस विपक्ष का स्वाद लेगी। हालांकि विकल्प न होने की स्थिति और नक्सली हिंसा में मारे गए नेताओं की हमदर्दी में ही उसे यह वोट मिल गया। तस्वीर तो यही है कि मतदाता देश में केंद्र सरकार से नाखुश थे. हर जगह कांग्रेस के विरोध में ही मत पड़े. गर कोई लहर रहती तो वोट का प्रतिशत भाजपा का दिल्ली और छत्तीसगढ़ में इतना कम न होता। हद तो यह है कि सरगुजा में जिस नक़ली लाल क़िले से नरेंद्र मोदी ने सभा संबोधित की थी, वहाँ ही कई विस से भाजपा का सूपड़ा साफ़ हो गया.    


      




मंज़िल ढूँढता एक मुसाफिर गुमनामी में जी रहा हिंदी का लेखक

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 सेहन में बैठे फणीन्द्र मांझी  डायरी से एक गीत सुनाते हुए

ज़िंदगी चलती नहीं प्यारे धकेली जाती है :फणीन्द्र  मांझी

चौक-चौराहे पर शहीद भगत सिंह या सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा देख  धरती  आबा का सुरक्षा कवच रहा डुमबारी पहाड़ भले दूर से ही लुकाछिपी खेले, पर खूंटी को इस बात पर कोई गिला नहीं कि यहाँ भगवान् बिरसा की एक भी प्रतिमा शहर में नहीं है. बावजूद इसके अपने पुरखों की विरासत को सम्भालने वाले का तेज ज़रा भी मद्धम नहीं है. खूँटी के शहीद भगत सिंह चौक पर मिले हिंदी लेखक मंगल सिंह मुंडा बताते हैं कि पांचवे दशक में इस जवार में सागू मुंडा जैसा क़िस्सागो भी हुआ. जो घूम-घूम कर अपने पुरखों की कहानियां सुनाया करता था. वहीँ सुखदेव बरदियार गाँव-गाँव मुंडारी में नाटक किया करते थे. सामाजिक बदलाव के अतिरिक्त उनके मंचन मुग़ल काल की ख्यात प्रेम-कथा अनारकली-सलीम पर भी केंद्रित होते। हिंदी के नामवर आलोचकों से अलक्षित मंगल मुंडा का खुद एक कहानी-संग्रह छैला सन्दु  राजकमल प्रकाशन से छप चुका है.
हमारे साथ झारखंडी साहित्य संस्कृति अखड़ा के अश्विनी पंकज और दिल्ली से आये पत्रकार रजनीश साहिल भी थे.  अब हम खूंटी  से महज़ छह किमी की दूरी पर स्थित हस्सा गाँव के अखरा पर पहुंच चुके थे. उसके सामने ही एक धूसर चौड़ी गली बड़े से बगीचा का पता देती है. हस्सा यानी मुंडारी में मिटटी। तो हम इसी हस्सा   के  पुराना घर की  डेवढ़ी में दाखिल हुए.  सामने फूल-पत्तों से लदे आँगन की छोर पर सेहन किनारे फर्श पर एक पाये से कमर टिकाये बैठे थे फणीन्द्र  मांझी। जन्म 21 मार्च 19 30. 

मुंडा संस्कृति की झलक समेत कई किताबें
यह वही फणीन्द्र  हैं जिनके लेखन की कभी तूती बोलती थी. राधाकृष्ण के संपादन में निकलने वाली पत्रिका आदिवासी के अंक की कल्पना तो उनके बिना अधूरी मानी  जाती थी. वहीँ उनके रिपोर्ताज, संस्मरण, गीत और कहानियां धर्मयुग, दिनमान, नवनीत, आर्यावर्त, जनसत्ता जैसे पत्र-पत्रिकाओं  की शोभा बढ़ाते थे. तब के प्रमुख हिंदी दैनिक रांची एक्सप्रेस और प्रभात खबर के तो यह स्थायी लेखक रहे. लेकिन इनके लेखन की चर्चा आपको हिंदी के इतिहास में नहीं मिलेगी। न ही राजधानी रांची के साहित्यिक गलियारे में इनकी कुछ जानकारी मिल पाती है. जबकि  कई पुस्तकें प्रकाशित हैं. तीन खण्डों में मंज़िल ढूँढता एक मुसाफिर, मुंडा संस्कृति की झलक  के अलावा उगता सूरज, ढलती शाम चर्चित रही है.

लिखने का जज़बा 87 साल की उम्र में भी जवां
लेकिन यह लेखक आज खुद ही  गुमनामी में 'मंज़िल ढूंढता एक मुसाफिर'में तब्दील हो गया है.  हालांकि 2002 की 13 जुलाई को नवजवान बेटे की असामयिक मौत ने उनकी लेखनी को विराम दे दिया। पोते-पोतियों को पढ़ाना  अपना ध्येय बना चुके फणिन्द्र का लेखक  अब भी कसमसाता है. कहते हैं, क्या आप अपने अखबार में मेरे लेख या कहानी को छापेंगे।  

भौतिकी में गोल्ड मेडल, पहली कहानी 1958 में छपी
 जानकर हैरत होती है कि मुरहू के मिशन एलपी स्कूल, फिर खूंटी से मैट्रिक कर चुके फणीन्द्र  ने वाया संत ज़ेवियर्स कॉलेज , रांची काशी हिन्दू विश्व विद्यालय से भौतिकी में एमएससी कर गोल्ड मेडल हासिल किया। लेकिन उनकी प्रतिभा  हिंदी साहित्य में आकर स्वर्णिम हुई. हालांकि शिक्षक विज्ञान के ही रहे. लेखन की ओर झुकाव  के लिए जगदीश त्रिगुणायत  को प्रेरक मानते हैं. कहते हैं, मैं हिंदी में हमेशा अव्वल आता था. वह हाईस्कूल में टीचर थे. एक दिन बोले, फणीन्द्र  तुम अपना अनुभव लिखो। अखड़ा के नृत्य पर कहानी लिखो। तब पहली बार एक कहानी लिखी 'बोलना गीत, चलना नृत्य'. यह सम्भवता सन 1958 में दैनिक आर्यावर्त के किसी अंक में छपी. उसके बाद एक लेख माघ मेले पर लिखा 'अनोखा'जिसे राधाकृष्ण जी ने आदिवासी में छापा।

मुंडारी व हिंदी में आंदोलनकारी गीत भी लिखे
 राधाकृष्ण को सरल ह्रदय बताते हुए लिखने को उकसाने वाले भी कहा. झारखंड के महत्वपूर्ण लेखक  प्यारे लाल केरकेट्टा को याद करते हुए  कहते हैं कि नाम के अनुरूप ही वह बेहद प्यारे थे. जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्त स्पष्टवादी। हंसमुख व्यक्ति।  मरांगगोमके की कम चर्चा होने पर कुपित होते हैं. बोले, तब मैं नौवीं में था. खूंटी हाईस्कूल के दक्षिण में एक मैदान था, वहां जय पाल सिंह मुंडा की सभा थी. हेड मास्टर ने हमलोगों की छुट्टी कर दी. यह जज़बा था आंदोलन का. हालांकि इसके असर ने मुझे मैट्रिक बाद घेरा। जय पाल मुंडारी और हिंदी दोनों में धरा प्रभाव बोलते थे. बिना माइक के भी उनकी आवाज़ दूर तक सुनी जाती थी. कहते हैं कि उनकी बातें बहुत बाद में समझ आयी तो मुंडारी और नागपुरी में आंदोलनकारी गीत लिखे।

अब फूलों संग पत्नी गीता का सहारा
फणीन्द्र  बिरसा, गांधी मार्क्स, माओ, लेनिन, फिदेल कास्त्रो, ओशो से प्रभावित फणिन्द्र  प्रेमचन्द, दिनकर,  शेली, गोर्की और टॉल्स्टॉय को रट-घोंट चुके हैं. हमलोगों को दुबारा चाय पीने को कहते हैं. आप लोग आ गये. अब तो कोई बात करने वाला भी नहीं मिलता।  अभी दिल्ली से बेटी ललितां आयी हुई है. वरना पत्नी गीता देवी ही उनकी सच्ची संगिनी हैं जीवन की. उनके साथ ही वो आँगन में आम, अमरुद, मेहंदी, कटहल, अलेवेरा, गुलाब, गेंदा, गुलदाउदी, उड़हुल, अटल और फुटबॉल फूल से बतियाते हैं. बोले जीवन का क्या पूछते हैं. वह  अपना ही मंचित नाटक बहादुर शाह ज़फर का संवाद दुहराते हैं,  'ज़िंदगी चलती नहीं प्यारे, धकेली जाती है'.    

दैनिक भास्कर, झारखंड के 11 दिसंबर 2013 के अंक में प्रकाशित 
   

    

विकल्पहीनता में देश यानी वाम-वाम समय

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 अमित राजा की क़लम से
दिल्ली और बाक़ी राज्यों के आम आदमी में फ़र्क़
जटिलताओं के देश भारत में राजनीति एक उलझी हुई डोर है। इस उलझी हुई डोर का एक सिरा दिल्ली में 'आप'नहीं-नहीं आम आदमी के हाथ लगा है। लेकिन डोर का दूसरा सिरा जबतक देश के बाक़ी  हिस्सों में आम आदमी के हाथ नहीं लगता है, अनबुझ पहेलियों में कैद सियासत मुक्त नहीं हो सकती। जो हो, दिल्ली के चुनाव परिणाम ने हाल के दिनों में विकसित हुई कुछ मान्यताओं की चिंदी उड़ा दी। ये जाहिर हो गया कि देश को कांग्रेस के साथ भाजपा का भी विकल्प चाहिए। दोनों दलों में एकरूपता है और वे एक-दूसरे के विकल्प नहीं हो सकते। आंकड़े भी इसे पुष्ट करते हैं।
मध्यप्रदेश में जहां मतदाताओ के 1.5 फ़ीसदी ने नोटा का सहारा लिया। वहीं राजस्थान में 1.8 फ़ीसदी और छत्तीसगढ़ में 3.4 फ़ीसदी ने नोटा पर बटन दबाया। जबकि दिल्ली में महज 0.6 फ़ीसदी मतदाता ही नोटा के साथ गए। मतलब साफ है कि मतदाताओ में दिल्ली के उम्मीदवारों को लेकर कन्फयूजन कम था।
जनता का जिन मुद्दों को लेकर रुझान केजरीवाल की पार्टी 'आप'की ओर गया, वे मुद्दे नए भी नहीं थे। वामपंथी दलों का मुद्दा भी यही था। माले विधायक रहे शहीद महेंद्र सिंह ने कई बार सदन में माननीयों को मिलने वाले उपहारों को लौटा दिया था । उनकी पार्टी के दूसरे  विधायकों ने भी यही किया। तीन बार विधायक और तीन बार सांसद रहे मार्क्सवादी समन्वय समिति केएके रॉय भी यही करते रहे। उन्होंने एक मुश्त 70 लाख पेंशन की राशि प्रधानमंत्री रहत कोष में जमा करा दी थी । क्योंकि इससे पहले उन्होंने कभी पेंशन को स्वीकारा ही नहीं था। सो पेंशन की राशि बढ़ते-बढ़ते 70 लाख हो गई थी। कई मार्क्सवादी बेवजह सुरक्षा लेने से भी इंकार करते रहे हैं। भाकपा के सांसद रहे भोगेन्द्र झा से लेकर सीपीएम के  नम्बूदरीपाद और वासुदेव आचार्य, देवाशीष दासगुप्ता तक मिसाल रहे हैं। वामपंथी माननीय राजधानी में मिले बंगलों में  नहीं रहकर भी मिसाल देते रहे हैं। ऐसे में वामपंथी दलों को भी चुनाव नतीजों ने अपनी रणनीतियों पर पुनर्विचार का मौका दिया है। क्योंकि  डेढ़ सालों की मेहनत और मुद्दों की राजनीति से उभरी 'आप'ने देश को कांग्रेस व भाजपा के साथ लेफ्ट पार्टियों का भी विकल्प पेश करने की स्थिति पैदा की है। हालांकि तात्कालिक मुद्दों से निकली और पिक तक पहुंची पार्टियों का इतिहास टूटन भरा रहा है। सोसलिस्ट पार्टी के बाद 1977 में जनता पार्टी, 1989 में बीपी सिंह की पार्टी भी इस लिस्ट में है। मगर इन पार्टियों में ऐसा टूटन आया कि 50 से अधिक छोटे-बड़े दल अस्तित्व में आये।
बहरहाल, देश की जनता ने बता दिया कि उनके लिए सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता कोई मुद्दा नहीं है। भ्रष्टाचार मुक्त भारत, सुशासन, जनता के सेवकों पर जनता की गाढ़ी कमाई खर्च नहीं करना ही मुद्दा है। इसलिए इन मुद्दों के साथ चली  'आप'को बिना कोई बड़े मैदान में रैली किये आम आदमी ने चुन लिया। जनता ने बता दिया कि विकल्पहीनता की स्थिति में ही जनता पैसे पर वोटिंग करती रही और आज विधानसभाओं व संसद में करोड़पति माननीय बहुसंख्यक हो गए है।
                                                                                                                                                                

(लेखक-परिचय
जन्म: 09 मार्च 1976  को दुमका (झारखंड) में 
शिक्षा: स्नातक प्रतिष्ठा।
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख -रपट
संप्रति: दैनिक भास्कर के  गिरिडीह ब्यूरो
संपर्क:amitraja.jb@gmail.com)  

  

बवंडर में एक उम्मीद का हिलना

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पंकज सावकी क़लम से

तेजपाल-प्रकरण से  उपजी युवा चिंता
अब से करीब 12 साल पहले ‘तहलका’ ने जिस शख्स के दम पर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का राजनैतिक करियर खत्म कर दिया था, कहीं आज वह शख्स खुद पतन के कगार पर तो  खड़ा नहीं  है। अपनी ही महिला सहकर्मी द्वारा तहलका के पूर्व संपादक तरुण तेजपाल पर लगाए गए यौन शोषण के आरोप कोर्ट में अगर सही साबित होते हैं,  तो उन्हें दस साल तक की क़ैद हो सकती है। सजा चाहे जो भी हो, पर इतना तो तय है कि भारत जैसा देश तेजपाल को दोबारा पत्रकार के रूप में कभी स्वीकार नहीं कर सकेगा। यहां का समाज में औरत की अस्मिता के साथ खेलना हत्या से भी बड़ा अपराध माना जाता है, भले ही कानून कुछ भी कहे। लेकिन क्या इससे तहलका की साख पर कुछ असर पड़ेगा। क्या  एक भद्दे दाग को धोकर तहलका की वही धवल विश्वसनीयता बेक़रार रह पायेगी। तुरंत कुछ भी कहना सरलीकरण होगा। पर गर्दिश में सवाल और जवाब दोनों हैं.  
देश के कई इलाकों में बारह बरस को एक युग माना जाता है। तहलका के संदर्भ में यह अवधि सचमुच में एक युग साबित होती दिख रही है। अपनी बेखौफ और जुझारू पत्रकारिता के साथ इतने सालों में आशा की किरण से बढ़ते हुए दिन का सूरज बन चुकी तहलका अब भरी दोपहरी में ही डूबती दिख रही है। मानो तेजपाल-प्रकरण अचानक दोपहर की आंधी बनकर आया हो और यह आंधी कब लौटेगी, किसी को पता नहीं। कहने में तो आसान लगता है कि व्यक्ति से संस्था नहीं चलती, पर व्यवहारिक सच्चाई यह है कि तहलका को तरुण तेजपाल से अलग कर कभी नहीं देखा जा सका।
अब से कुछ हफ्ते पहले तक, जब तक उनका ‘कन्फेशन’ सामने नहीं आया था, किसी भी अच्छी सोच वाले पत्रकार, पत्रकारिता के विद्यार्थी और जागरूक पाठकों के लिए तरुण किसी देवता से कम तो नहीं थे और तहलका, उस देवता की मूर्ति। इसलिए, इस प्रकरण से उठा दर्द सिर्फ पीड़िता का ही नहीं है, बल्कि उन लाखों-करोंड़ों लोगों का भी है।
जिन-जिन मुद्दों पर मुख्यधारा की मीडिया से जनता की उम्मीद खत्म हुई, वहां कुछ गिने-चुने संस्थानों के अलावा एक तहलका ही था, जिससे आस रहती थी। महिलाओं की बराबरी की न सिर्फ बात की बल्कि उसे अपने संस्थान में भी व्यवहार में उतार कर दिखाया। निष्पक्षता ऐसी की दक्षिणपंथियों को लताड़ा तो वामपंथियों को भी नहीं छोड़ा। शंकराचार्य से लेकर तोगड़िया-सिंघल को उसी तरह स्पेस दिया, जितना बिनायक सेन, वारवरा राव को। कांग्रेस से नजदीकियों के आरोप तो लगे, मगर खबरों में कहीं उसकी बू तक नहीं आई। अपने बूते जिसने अपनी ख्याति विदेशों तक में पाई। ब्रिटेन के प्रमुख अखबार द गार्जियन ने इस ‘भारत में खबरों के सबसे बेहतरीन स्रोतों में से एक’ कहा। लेकिन, अपने कंटेंट से किसी का मुंह बंद कर देने की ताकत अब कौन दिखाएगा?
यह आस इसलिए भी खत्म होती दिख रही है क्योंकि इसके संपादक ने पत्रिका की शुरूआत में ही स्थापित आदर्श के उसी मर्म को चोट पहुंचाई है, जो वहां सबसे सुरक्षित माना जा सकता था। आशंका तो यह भी जताई जा रही है कि इस प्रकरण के बहाने उन दक्षिणपंथी तत्वों को एक और तर्क मिल गया है लड़कियों को काम करने और खासकर पत्रकारिता में जाने से रोकने का। अदालत पर भी सबका भरोसा है।  पर, सवाल ये उठता है कि  जनता की अदालत में क्या ‘सच कहने का साहस और सलीका’ कायम रह पाएगा?


(लेखक-परिचय:
 जन्म: 8 अक्टूबर 1986 को हज़ारीबाग (झारखंड) में 
शिक्षा: संत कोलंबा कॉलेज, हजारीबाग से कला स्नातक तथा  माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि, भोपाल से MA in Mass Communication
सृजन: छिटपुट यत्र-तत्र लेख, रपट प्रकाशित
 2011 से पत्रकारिता की शुरुआत
संप्रति:   दैनिक भास्कर डॉट कॉम में सब एडिटर
संपर्क: pankajsaw86@gmail.com )

अदीब पिता की कवयित्री बिटिया

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शहनाज़ इमरानी की कविताएं
 
बूँद भर एक ख़्वाब

        बूँद भर एक ख़्वाब
        पलकों की रिहाइश छोड़ कर
        दरिया नहीं, नहर नहीं
        और न बंधता है किनारों में
        झरना होना चाहता है
        चट्टानें तोड़ कर
        पत्थरों के बीच फूट कर
        बहना चाहता है वो
        दुनियाँ को समेट कर।


हाशिये के बाहर

        वो जाते है
        नाक पर रूमाल रखकर
        मुसल्मानों के मोहल्ले में
        जब वोट बटोरना होता है
        खुली बदबूदार नालियाँ गड्डों में सड़ता पानी
        कचरे और गन्दगी का ढ़ेर
        मटमैले अँधेरे घर बकरियाँ,मुर्गियाँ, कुत्ते, बिल्लीयें
        काटे हुए मवेशियों कि दुर्गन्ध
        मुरझाए चहरे पतवारविहीन साँसे
        पंखविहीन सपने
        पेट की आग कुरेदती है
        तो भूख चाहती है
        झपटना चील कि तरह
        और झपटने में जब गिर गए हों
        चारो खाने चित्त
        कितनी शर्म आयी होगी उन्हें
        अब तकलीफें झेलने कि ताब है
        आसना और मुश्किल दिन एकसे हैं
        अब वे एक दूसरी दुनियाँ में हैं
        खिंच गयी एक लकीर हाशिये की
        जिस तरह भूल जाते हैं हम अमूमन
        कुछ-न-कुछ किसी बहाने
        भूलती गयीं सरकारें भी
        बेशक सरकार बनाने में
        यह अहम भूमिका निभाते आये है
        आज भी याद आ जाते है चुनाव के समय
        हाशिए से बारह के लोग।

   मेंरा शहर
       

        शहर में बहुत भीड़ है
        शहर  में खौलता शोर है
        शहर को खूबसूरत बनाया जा रहा है
        वो बारिश में भीगते है
        सर्दी में ठिठुरते हैं
        उनके सरों पर धूप है
        खुरदरी, पथरीली,नुकीली
        भूख की चुभन है
        बदहवास, हताश, परछाइयाँ हैं
        शहर में ज़िन्दा हैं तमाम जुर्म
        क़त्ल, बेईमानी, वारदात, नाइंसाफ़ी, भ्रष्टचार बलात्कार, खुली लूट
        बढ़ती जाती है रोज़-बा रोज़
        महँगाई, गरीबी, बेरोज़गारी और भूख 
        क़ानून उड़ने लगा है वर्कों से
        घुल रही हैं कड़वाहट हवाओं में
        मन में गहरा विषाद
        भूखे  आदमीयों के
        सवाल लगा रहे हैं ठहाके
        अँधेरे के नाख़ून खुरचते है
        बदसूरत ज़ख्मों को
        मर चुकी संवेदनाओं के साथ जी रहा है शहर
        अब बहुत तैज़ दौड़ने लगा है शहर।

      
ट्रैफिक सिंगनल

        ट्रैफिक सिंगनल  पर जब रूकती है कार
        उग आते हैं अनगिनत
        नन्हे-नन्हे हाथ
        किसी हाथ में अख़बार
        किसी में मेंहकता गजरा
        किसी में खिलौने
        किसी में भगवान
        कुछ हाथ खाली हैं
        जिनमें झाँकते हैं
        अनुत्तरित सवाल
        एक बच्चा
        क़मीज़ की आस्तीन से
        जल्दी-जल्दी कार के शीशे साफ़ करता है
        और नाक पोंछ कर कहता है
        कुछ दे दो न साब
        और साब का बच्चा कहता है
        पीछे हट तूने कार के ग्लास गंदे कर दिये।

  
एक ऊब

        घर इत्मीनान नींद और ख़्वाब
        सबके हिस्से में नहीं आते
        जैसे खाने की अच्छी चीज़ें
        सब को नसीब नहीं होतीं
        जीवन के अर्थ खोलने के लिए
        खुद पर चढ़ाई पर्तों को
        उतारना होता है
        पैदा होते ही एक पर्त चढ़ाई गई थी
        जो आसानी से नहीं उतरती है
        पर्त-दर-पर्त पर्तों का यह खोल
        उतरने में बहुत वक़्त लगता है
        बहुत कड़वा और कसेला सा एक तजुर्बा
        यह ऊब बाहर से अंदर नहीं आती है
        बल्कि अंदर से बाहर की तरफ़ गयी है
        कुछ बचा जाने की ख्वाहिश के टुकड़े
        कुछ यूँ कि उसे ठीक करने की कोशिश भी
        बेमानी लगती है.
        इसी अफरातफरी में इतना हो जाता है
        तयशुदा रास्ते पर चलते रहना
        मोहज़ब बने रहना बहुत मुश्किल है
        उम्र के दूसरे सिरे पर भी बचपन हँसता है
        गहरे जमीन में जाती जड़ें
        पानी का कतरा खोज कर शाख़ पर पहुँचाती हैं 
        शाख़ें अपनी खुशियाँ फूलों को सौंपती हैं
        फल सब कुछ खो देने के लिए पकता है
        जैसे जैसे पेड़ की उम्र होती जाती है
        इंसानी झुर्रियों जैसी पर्त-दर-पर्त उसका बाहरी हिस्सा बनता जाता है
        और फिर नाखूनों की तरह बेजान हो जाता है।


 ज़िंदा रहना एक फ़न है

        
        ज़िन्दगी में फिर लौट कर आना
        घने कोहरे को दरख्तों के बीच छटते देखना 
        धड़कन की रफ़्तार थोड़ी धीमी सही
        बेचैनी भी है
        पर लगातार जीने का माद्दा तो है
        कमरे में सारी किताबें क़रीने से लगी हैं
        किताबों कि क़तार देख कर सुकून मिलता है
        कितनी ज़िंदगियों का सच छुपा है इनमें
        इंसानों कि बनायीं हुई दुनियाँ में
        बहुत कुछ अच्छा और खूबसूरत बचा तो है
        पढ़ने को इतना कुछ, समझने को इतना कुछ
        जीने को इतना कुछ की एक पूरी ज़िन्दगी कम पढ़ती है
        कितने फलसफे हैं दुनियाँ में उन्हें समझने को
        पत्थर भी घिसे दीखते हैं 
        यूँ तो ख्वाहिशों का कोई आकार नहीं होता
        न उनकी कि गिनती
        अक्सर धुंध में ही तलाशती हूँ
        आखिर मुझे चाहिए क्या
        जैसे आर्टिस्ट खींचता है कैनवास पर पहली लकीर
        बस एक लम्हा ही तो मिलेगा उसे
        जैसे रौशनी ने ज़मीन का सफ़र किया हो
        जैसे भी हो
        ज़िंदा रहना एक फ़न है !




( रचनाकार-परिचय :

जन्म: भोपाल में
शिक्षा:  पुरातत्व विज्ञान (अर्कोलॉजी ) में स्नातकोत्तर
सृजन: पहली बार कवितायेँ "कृति ओर "के जनवरी अंक में छपी है।
संप्रति: भोपाल में  अध्यापिका
संपर्क: shahnaz.imrani@gmail.com )
साहित्यकार पिता मक़सूद इमरानी  स्वतंत्रता सैनानी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य थे।

 

भाजपा पर ज्यां द्रेज बोले, निरमा से नमो तक

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रांची में रविवार को विजय संकल्प रैली को भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने संबोधित किया. रैली में जानेमाने अर्थशास्त्री व सोशल एक्टिविस्ट ज्यां द्रेज भी मौजूद थे. उन्होंने जो देखा, सुना और महसूस किया, पेश है उन्हीं की जुबानी.

रांची में नरेंद्र मोदी उवाच 




 







ज्यां द्रेजकी क़लम से

नरेंद्र मोदी की रैलियों की हकीकत मीडिया में छपी रिपोर्टो से किस कदर अलग होती है, यह जानना रोचक हो सकता है. इस अंतर को खुद से समझने के लिए मैंने हाल ही में रांची में आयोजित उनकी रैली में शिरकत की. दस दिन पहले से ही रैली के लिए पूरे शहर में जोर-शोर से प्रचार अभियान चल रहा था. मोदी और उनकी पार्टी के अन्य सहयोगियों के बड़े-बड़े पोस्टर शहर के लगभग हर चौक - चौराहे पर लगे थे- कहीं कहीं तो एक जगह दस-दस, बारह-बारह पोस्टर! चाहे आप किसी दिशा में जा रहे हों, शहर की मुख्य सड़कों पर बिना मोदी से नजरें मिलाये निकलना लगभग असंभव था.

रैली बड़ी सुनियोजित थी और भीड़ जबरदस्त थी. इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का सांगठनिक कौशल उम्दा है और उसके पास बहुत पैसा है. किसी को यह पूछने की सहज रुचि हो सकती है कि आखिर यह पैसा आता कहां से है.लेकिन मुख्यधारा की अन्य पार्टियों की तरह, भाजपा भी वित्तीय पारदर्शिता के मान-मूल्यों का विरोध करती रही है. मोदी के आगमन से पहले पार्टी के कई दिग्गज नेता बोले, लेकिन भीड़ ने कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखायी. साफ था कि वे मुख्यत: बहुप्रचारित मोदी की एक झलक मात्र पाने के लिए आये थे. केवल अर्जुन मुंडा ही कुछ हद तक खुद को भीड़ से जोड़ पाने में कामयाब हो सके. मोदी का हेलीकॉप्टर फिल्मी अंदाज में उतरा, तो भीड़ ने जोरदार हर्ष ध्वनि की. पार्टी के कार्यकर्ता इसमें आगे रहे, लेकिन हर कोई अपने तारनहार के स्वागत में खड़ा हो गया. जोरदार साउंड एफेक्ट, वीडियो क्लिपों और ‘नमो-नमो’ की गूंज के साथ स्टेज पर मोदी की एंट्री की तैयारी बड़े नाटकीय ढंग से की गयी थी.

पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने श्रोताओं को संबोधित करते हुए मोदी की तुलना भगवान राम से कर डाली. मोदी बहुत नाटकीय स्वर और भाव-भंगिमाओं के साथ बोले. बेहतरीन प्रभाव पैदा करने के लिए उन्होंने अपनी आवाज में उतार-चढ़ाव का इस्तेमाल किया, कई जगह बिल्कुल सुविचारित अंतराल लिये.  लेकिन यह सारी भाषणबाजी किसी फिल्म के ऑडिशन का भान करा रही थी. विषय-वस्तु एकदम सपाट थी. शायद यही वजह थी कि उनके भाषण के शुरू होने के कुछ ही समय बाद लोग मैदान छोड़ते नजर आये. और जो रु के भी रहे, उनमें भी मोदी की बातों के प्रति कोई खास उत्साह नजर नहीं आया. पार्टी कार्यकर्ताओं के इशारे के बावजूद लोगों ने कभी-कभार ही हर्ष ध्वनि की या तालियां बजायीं. मुझे जान पड़ा कि मोदी श्रोताओं से संवाद कायम कर पाने में नाकामयाब रहे. इसकी शायद एक वजह यह रही हो कि वे यहां एक बाहरी व्यक्ति की तरह आये थे, उन्हें झारखंड के बारे में जल्दबाजी में कुछ-कुछ बताया गया होगा, खुद उन्हें झारखंड के प्रति कोई खास अहसास नहीं था.

दूसरी वजह यह भी रही कि वह वोट के लिए, दूसरे नेताओं द्वारा किये जानेवाले चुनावी वादों से परे नहीं जा पाये. उन्होंने लोगों को राज्य की दयनीय स्थिति की ही ज्यादा याद दिलायी, यह भूलते हुए कि सन 2000 में राज्य के बनने के बाद से 13 सालों में आठ साल से ज्यादा समय तक भाजपा ही सत्ता में रही है. इस रैली से मैंने एक चीज सीखी कि आज राजनीति और व्यवसाय के बीच का अंतर एकदम कम हो गया है. चुनाव अभियान जन-संपर्क उद्योग के एक अन्य क्षेत्र के तौर पर विकसित हो रहा है. कुछ लोग निरमा बेचते हैं, तो कुछ लोग नमो को बेचते हैं. दोनों को बेचने के लिए एक ही तरह की विज्ञापन एजेंसियां एक ही तरह के हथकंडे अपनाती हैं.

झारखंड के लोग इससे अधिक के हकदार हैं.

प्रचार का कोई भी हथकंडा इस तथ्य को झुठला नहीं सकता कि बीते 13 वर्षो में झारखंड की बदहाली के लिए भाजपा सबसे बड़ी दोषी है. कांग्रेस सहित मुख्यधारा की अन्य पार्टियां भी राज्य के संसाधनों की लूट में शामिल रही हैं. उम्मीद करनी चाहिए कि इन सबसे अलग विचारदृष्टि के साथ कोई सामने आये और लोगों के सामने बेहतर विकल्प प्रस्तुत करे, जैसा कि एक हद तक हाल ही में दिल्ली में हुआ.

प्रभात ख़बर से साभार

(लेखक-परिचय:
जन्म:  1959 बेल्जियम में
1979 से भारत में। 2002 में  भारत की नागरिकता मिली।
 शिक्षा:  इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टिच्यूट (नई दिल्ली) से पीएचडी किया।
सृजन: अर्थशास्‍त्र पर12 पुस्तकें प्रकाशित ।  नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के साथ मिलकर कई पुस्तकें लिखीं।
डेढ सौ से अधिक एकैडमिक पेपर्स, रिव्यू और अर्थशास्त्र पर लेख
संप्रति: दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स सहित दुनिया के कई ख्यात विश्वविद्यालयों में  विजिटिंग लेक्चरर रहे। अभी पंडित गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक अनुसंधान संस्थान में अध्यापन 
संपर्क:  jean@econdse.org)


   

बेबस समय की शहतीर सी चुभन

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नौ वर्षीय बड़े साहबजादे आएश लबीब की कंप्यूटर पेंटिंग्स, जब वो 6 साल के थे 



यह बहुत बाद का समय था। पोखरण में महात्मा बुद्ध के मुस्कुराने और अयोध्या से राम के दूसरे बनवास के भी बहुत बाद। विश्व महा पंचायत के कथित मुखिया की दबंगई के स्थानीय क्लोनों को बाज़ार ने नायक बनाने के लिए अपनी सारी ताक़त झोंक दी थी। उसके खल को बूझते हुए हम थे और नहीं भी थे। खून की होली के रास में मूर्छित हमारा वजूद उसके होने और न होने के द्वन्द में विचलित था। लेकिन रूह की यह बेचैनी दिमाग के सम्मुख घुटने टेक चुकी थी। दिमाग था कि जो मित्र की नौ साल की बिटिया को भी स्त्री समझ उसके मासूम उरोजों की गोलाईयों से तुष्ट होता था। वहीं हम थे कि कानून की शिथिलता का स्यापा कर रहे थे। मंदिरों और मस्जिदों की प्रार्थनाएं और इबादतें उत्पाद में ढलकर पैकेज हो चुकी थीं। धर्म पुरातत्व का विषय था। जिसकी क़ब्रों से निकला भूत हमारी नृशंसता से कांपता वापस चला जाता। धर्मांधता का आतंक उस नायक का पेशा था। दलाली को कमीशन कहने के इस दौर में झूठों की विवशता थी। यह रंगा सियार थे। जंगल से शहर की ओर भागे शेर को मुखिया बनाने की क़वायद में तल्लीन थे। यहां धर्म की नहीं जातीय सर्वनाश की गुर्राहट थी। रंगा सियार सच की बारिश से अनजान थे। दरअसल वो धीरे-धीरे रँगे गए थे। इतना कि अपने होने का भ्रम कभी-कभार शौचालय में पल भर को लोप होता। लेकिन चातुर्य की क्रूरता से पंगु थे। जातीय हिंसा उन्हें ऊर्जा देने लगी थी। ऐसा वे खुलेआम आम कहते। विरोधी समुदाय के होश ठिकाने लगाने के लिए नरसंहार से सहमत थे। सहमत उनकी ज़ुबान तेंदुए सा लपलपा रही थी। हिटलर का नया इतिहास हिमालय की गोद में अकार पा रहा था। उसके गुणगान में कवि-लेखक-पत्रकार की टोलियाँ इसे क्रांति कहने में छाती फुलाए भोंपू थीं। मनुष्य किसी अंध कूप मे धेकेल दिए गए थे। पर उनका तेज था कि जब कभी इन भोंपुओं को निर्वस्त्र कर देता। यह थे कि अंधकार को आवरण समझ बैठे थे। वो इतिहास को भूल चुके थे कि कोई भी नस्ल तमाम रक्तिम उबाल के बाद भी पूरी तरह ख़त्म नहीं हो गयी। ( रात कुछ सहयोगियों से हुए संवाद के बाद‡ परसों ही महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री की जयंती है )

पेड़ों को काटने की प्रतियोगिता दर असल धरा के गर्भ में छुपे अकूत भंडार को लूटने की थी। जबकि उसका प्रायश्चित गमलों में उगा बोनसाई कर पाने में असमर्थ था। जंगलों से सिर्फ परिंदे ही नहीं इंसान को भी शहरी शेरों ने निवाला बनाना शुरू कर दिया था। ज़बान क्रांतिकारियों की भी बंद थी या वे मूक बधिर होने का ढोंग कर रहे थे!Î

तब विश्व का एक धुर्व ख़त्म हो चुका था। उसके शिराज़े बिखेरने में दूसरे धुर्व की सशक्त दख़ल थी। उसकी यही कुटिलता अन्य क़द्दावर मुल्कों के लिए घातक बनती जा रही थी। उसने दुन्या को अमीर-ग़रीब की बजाय सभ्यताओं के संघर्ष में बदलने की कोशिश की। वो किंचित सफल रहा था। उसके झूठ और अन्याय के विरुद्ध बोलने वाले का अंत उसका लक्ष्य था। अपनी हिंसक फ़ितरत को वैध ठहराने के लिए वो लोकतंत्र और विश्व शांति का ढकोसला करता। सब अपनी बारी के इंतज़ार में थे। अनजान होने का दंभ उनकी कायर सहमति में था। दूध पिलाने के बाद दहशत का सांप जब डसने लगा तो सभ्यता संघर्ष का तर्क उसके हर दुष्कर्म को ढांपने में सक्षम रहा। इधर एक शहंशाही मुल्क तेल से छनती पकोड़ियों को खाने की अय्याशी में मस्त। सच तो यह था कि विश्वव्यापी डॉन हथियारों के साथ तेल का एकक्षत्र कारोबार चाहता था। उसे शाही मुल्क में लोकतंत्र की याद कभी न आती। और वो शाही मुल्क था कि अय्याशी को छुपाने के लिए धर्म के नाम पर हिंसा करने वालों को अर्थ देकर अपना आवरण तलाशता था।
विचारों के अंत की महज़ घोषणा नहीं, उसके खात्मे के साम, दाम, दंड व् भेद सारी तिकड़में थीं। खाओ पियो, मस्त रहो @ ईमानदारी पुस्तकों में अच्छी लगती हैं! खाने-पीने, सजने-संवरने और घूमने-टहलने के लिए तरह-तरह के साहित्य मौजूद थे। पत्र-पत्रिकाओं और दृश्य-भोपुओं में दरबारी गवैय्ये कवि बनकर इसका प्रचार करते। हर दिन किसी के नाम निश्चित था। संबंधों की शुचिता और उसकी आंतरिक तारतम्यता का ग्राफ बाज़ार तय करते। हर वर्ग और समाज के लिए नए-नए भगवान भी अवतरित हो चुके थे। यह साधु-संत अब कंदराओं में नहीं, रंगीन आलीशान पर्दों पर विराजमान रहते। इनमें से कुछ का कारोबार अरबों-खरबों का था। ज़माना वही है, जब ग़रीब मुल्कों की बेटियाँ अचानक विश्व सुन्दरी होने लगी थीं।
अब हर ओर सुंदरता का बोलबाला था। हॉट और सेक्सी होना सौन्दर्य का पर्याय हो चुका था। स्त्रियों की आज़ादी सिर्फ़ मनपसंद वाशिंग मशीन खरीदने में थी। आक़ा को हमारे गाँव-जवार की सड़कें जर्जर कर रही थीं। वो तुरंत दयालु हो गए! चौडी-लंबी सड़कों का जाल बिछ चुका था। इस जाल में हम समा चुके थे। अब हर पंचायत-अखड़ा में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद सहज उपलब्ध थे। अब पंचायतें आधुनिक हो चुकी थीं। वहीं पुरा कालीन भी उतना ही। प्रेमियों का धड़ सर से अलग करना उनका गर्व था। उनके फ़तवे किसी मदरसे से अधिक मारक थे। किसी के सामाजिक बहिष्कार करने के फ़ैसले आउट आफ़ फ़ैशन थे। सामुदायिक हिंसा से उनका तेज बढ़ता था। इधर, विश्व का कथित मुखिया व सबसे विकसित देश में लाखों सरकारी कर्मी नौकरी से हटा दिए गए थे।

दरअसल वो सशंकित था। पहले से ही। तमाम संधियों को दरकिनार कर उसे दूर देशों के नागरिकों की चिंता दुबला किये जा रही थी। सो उसने इंसानी धर्म का पालन करते हुए कई मुल्कों में जंग को प्रेरित करना शुरू किया। उससे पहले मिटटी के किलों को गिराकर पहाड़ी मुल्क में उसके बम वर्षक विमान रोटियाँ गिरा चुके थे। यह वो ठिकाना था जहां कभी उसके गुर्रिला ट्रेनिंग दिया करते थे। ऐसा इसलिए कि उसके पडोसी की लाल नाक उसे चिढ़ाती थी। आखिर उसकी नाक तोड़ दी गयी। लेकिन जिससे तुडवाई वो मित्र से अचानक शत्रु हो गया। इस कथित शत्रु को इल्हाम हो गया कि वो तो जन्नत से भेजा गया है। वो भेज गया तो था नहीं सो वहाँ के सहिफ़े लाना भूल गया था। उधर उस शाही मुल्क को भी जन्नत लुभाने लगा था। ( इल्हाम= आकाशवाणी, सहिफ़े =ईश्वरीय सन्देश)
और हम थे कि एक भ्रम पर जान लुटाये थे। हर संकट के लिए अतीत के पन्नों पर जाकर  रुक जाते। ज़र्द वर्क़ था कि हमें ज़र्दे के नशे में क़ैद कर लेता। इसका जूनून भी अपने अतिरेक में एक तरह की हिंसा को ही जन्म देता था।

(फ़ेसबुक उवाच 30 सितंबर से एक अक्टूबर के बीच)





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