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क़लम की मजदूरी करने वाला निपनिया का किसान उर्फ़ अरुण प्रकाश

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हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया....







 




















सैयद शहरोज़ क़मरकी क़लम से

सितम्बर की कोई तारीख. साल २००८.रायपुर को मैं अलविदा कर चुका था. देशबंधु के प्रबंधन से ऊब थी, वहीँ दिल्ली आकर कुछ अलग कर गुजरने का ज्वार रह-रह कर उबल रहा था. 'भासा' के राजेश व उसके साथियो की तरह दिल्ली अपन भी फतह करना चाहते थे. दोपहर ढल आई थी. पंडित जी (कथादेश के संपादक हरिनारायण जी) कनाट प्लेस के दफ्तर गए थे. उनके एक अफसर मित्र की पत्नी ज्योतिष की पत्रिका निकालती थीं. जिसका दफ्तर एक बड़ी इमारत में था. वहीँ कथादेश को एक कोना नसीब हो गया था. दोपहर बाद पंडित जी वहीँ चले जाते. पन्त जी (लक्ष्मी प्रसाद पन्त , सम्प्रति भास्कर जयपुर में सम्पादक) ने कथादेश को बाय कर दिया था. विश्वनाथ त्रिपाठी की बदौलत मार्फ़त विष्णु चन्द्र शर्मा  जी उनकी जगह मैंने ले ली थी. खैर! दस्तक हुई दरवाज़े पर!  दिलशाद गार्डेन का सूना पहर. मैंने झांकर देखा. लहीम शहीम एक शख्स  बाहर खडा है. सरों पर हलकी सुफैदी ..बदन पर लंबा सा कुर्ता और पाजामा. भदेस सज्जन जान मैंने दरवाज़ा खोला. नमस्कार किया. शाइस्तगी  से लबरेज़ जवाब पाकर मेरी झुर-झुरी कम हुई.
आप नए आये हैं..
जी.....
कहाँ के हैं...
बिहार..
वहाँ कहाँ के..
..गया.
..अरे वाह! मैं बेगुसराय का एक किसान हूँ. कलम की मजदूरी करता हूँ.
 इस मासूमियत पर कौन न मर मिटे! हिचकते हुए नाम पूछ बैठा...अरुण प्रकाश! सुनते ही मैं खिल उठा. उनकी कुछ कहानियां,  उन जैसे ही किरदारों का कोलाज़ झिलमिलाने लगा. इस अनूठे लेखक से यह हमारा पहला साबका था. बाद में लोगों से उनके आत्मकेंद्रित रहने, बहुत कम खुलने.. की बात मैं आज तक नहीं हज़म कर पाया..उनकी अपनी सी लगती कहानियों का मैं दीवाना तो पहले से ही था. पहली मुलाक़ात ने लव इन फर्स्ट साईट सा जादुई असर किया था. जिसका यथार्थ मेरे लिए कभी कटु न रहा.

पहले अरुण जी, फिर भाई साहब उन्हें कहने लगा.वो कब मेरे भैया बन गए मुझे पता ही न चला. दिल्ली के इस दूसरे प्रवास में करीब दस बारह सालों तक कंक्रीट के जंगलों में मुझे बेतहाशा गुज़ारने पड़े. कभी कहीं ठौर मिली. कहीं चाँद गोद में भी आया. इस अवधि में अरुण जी से मिलना कई बार हुआ. महेश दर्पण जी के बाद मैंने उन्हें सबसे ज्यादा श्रम करते देखा. मुझे लगता है कि वह संभवत चार से पांच घंटे ही विश्राम ले पाते होंगे. सुबह उठ कर टहलने निकल जाते. इस प्रात:भ्रमण में उनके साथ रहते विश्वनाथ त्रिपाठी जी. युवा व्यंग्यकार रवींद्र पाण्डेय, उन्हीं की तरह दूसरे मसिजीवी रमेश आज़ाद आदि. सूरज के ज़रा परदे से निकल आते ही उनका घर आना होता. फिर हलके नाश्ते के बाद जो अपनी स्टडी( तब बालकोनी को ही घेर कर उन्होंने अपना अध्ययन कक्ष बना लिया था) में जाते. फिर लिखना,  लिखना और लिखना. कागजों पर जो उतरता जाता. उसमें किसी अहम किताब का अनुवाद होता. किसी सीरयल की पटकथा होती. संवाद होता..या नई कहानी का पुनर्लेखन.

ग़ज़ल का तगज्जुल

ग़ज़ल गो रामनारायण स्वामी( तब वो अन्क़ा नहीं हुए थे) के पहले ग़ज़ल संग्रह रौशनी की धुंध की चर्चा के लिए सादतपुर में महफ़िल जमी.  वीरेंद्र जी (जैन) के यहाँ हुई उस दोपहरी गोष्ठी में  स्वामी जी की गजलों पर आधार आलेख मैंने ही पढ़ा. सादतपुर के लेखकों के अलावा अरूण जी, जानकी प्रसाद जी, इंडिया टुडे वाले अशोक जी, विश्वनाथ जी, रमेश आज़ाद, कुबेर जी आदि ढेरों लोग थे. लेकिन अरुण जी के बोलने की बारी आई तो उन्होंने कहा, ग़ज़ल पर यदि शहरोज़ जी न कहते तो उसकी तगज्जुल न रहती. या खुदा! इतने बड़े बड़े दक्काक के रहते इन्हें क्या हुआ..जबकि हिंदी समाज में उर्दू के प्रमाणिक शख्स जानकी जी मौजूद हैं. अरूण जी ने जिस सहजता से मेरी बातों को सराहा, असहमति भी जतलाई. ऐसे लोग मुझे दिल्ली में कम ही मिले. बमुश्किल दो-चार नाम ऐसे स्मरण में हैं. सर्दी की एक दोपहर हम सभी कृषक जी की छत पर जमा हुए. यहाँ भी दिलशाद से अरूण जी, विश्वनाथ जी, रमेश आज़ाद पहुंचे.  मेरी 'अकाल और बच्ची' कविता उन्होंने दो बार सुनी. इस कविता में अकाल के इलाके से रोज़गार की तलाश में परिवार दिल्ली आया है. उस परिवार की बच्ची के बचपन को मैंने शब्द देने की कोशिश  की है. ये अकारण नहीं हुआ होगा. दिल्ली हो, कोलकता या मुंबई उनके साथ उनका गाँव निपनिया हर दम साथ रहा. उनकी कहानियों में भी यह ज़मीनी सोंधापन मिलता है. हिंदी में ऐसे कथाकार आज़ादी के बाद कम हुए,  जिन्होंने हाशिये के लोगों को अपना केंद्र बनाया हो. उनकी अधिकाँश कथाओं में घर से बेघर नयी जगह में आसरा तलाश करते लोगों की ज़िंदगी को उन्वान मिला है. भैया एक्सप्रेस हो, या मझदार,विषम राग हो या नहान, भासा आदि कहानियां गौरतलब हैं.

शेरघाटी पर उपन्यास लिखो
कथादेश के पहले युवांक में मेरी पहली कहानी 'पेंडोलम' छपी. मैं राजकमल में था. उनका फोन आया.
यार! कहानी भी लिखते हो..बताया ही नहीं कभी! 
जी..भैया ..
दूसरी लिखो तो बताना. यूँ इस कहानी को विस्तार दो. आप (तुम कहते कहते वो आप बोल जाते..) अपने घर- कस्बे शेरघाटी को केंद्र में रख कर एक उपन्यास प्लान कीजिये. मुस्लिम जीवन अब हिन्दी में न के बराबर आ रहे हैं. आपसे उम्मीदें हैं.
जी! कोशिश करूँगा..
लेकिन ग़म-ए-रोज़गार ने इतनी मोहलत ही न दी कि मैं उपन्यास कलम बंद करता. यूँ उन्होंने एक-दो बार याद भी कराया, 'शहरोज़ जी क्या हुआ..कुछ बात बनी.' मेरे नफी में सर हिलाने पर थोडा तुनक भी जाते..'पहचान सिर्फ एक कहानी से नहीं बनती..'

गया गया मिल गया
प्रेमचंद जी की जयन्ती पर हंस द्वारा सामयिक विषय पर कई सालों से गंभीर विमर्श का आयोजन होता आया है. राजेन्द्र जी जिसके कर्ताधर्ता हों, उस मजमे में भीड़ न जुटे. मैं उन दिनों रमणिका जी की पत्रिका युद्धरत आम आदमी से जुड़ा हुआ था. वहाँ से निकलते निकलते थोड़ा विलम्ब हो गया. जैसे ही राजेन्द्र भवन पहुंचा. संजय सहाय पर नज़र पडी तो मैं उधर ही लपक गया. उन्होंने दोनों हाथ फैला दिए. और हम यूँ मिले जैसे बिछुड़े हुए हों. मुद्दत बाद मिलना भी हो रहा था.
'गया गया मिल गया!' जानी पहचानी आवाज़ से हम अलग हुए. अरुण जी पास मुस्कुरा रहे थे. उनकी यही मुस्कान दूसरों की ज़िंदगी बख्शती रही. उनकी जीवटता से हम उर्जस्वित होते रहे. बाद में उनसे बहुत कम मिलना हुआ. दिनों बाद फोन पर बात हुई. लेकिन उन्होंने एहसास ही न होने दिया की वो बेहद अस्वस्थ हैं. जबकि गौरीनाथ से उनकी दिनों दिन बदतर होती तबियत का मुझे इल्म हो गया था.आज ढेरों कह रहे हैं कि काश  सिगरेट छूट जाती तो शायद उनकी उम्र ....




रांची फिल्म फेस्टिवल में झारखंडी फिल्मों से सौतेलापन!

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झारखंड के लिए नहीं है सुहाना सफ़र 






 










 कुंदन कुमार चौधरी की कलम से

झारखंड बनने के 11 साल बाद पहली बार फिल्म फेस्टिवल 'सुहाना सफर का  आयोजन 12 से 15 सितंबर तक  रांची में किया जा रहा है। इस बात से झारखंड ·े फिल्मकार खुश थे और लंबे जद्दोजहद के बाद झारखंड और यहां की  क्षेत्रीय फिल्मों के लिए इसे सुनहरा अवसर मान रहे थे। तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी यहां के फिल्मकारों ने बगैर किसी सहायता के अपने बूते तीन राष्ट्रीय और दर्जनों राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते। लेकिन इस फिल्म फेस्टिवल में ठेठ झारखंडी मिटटी के सोंधेपन को  पूरी तरह नजरअंदाज किया गया. झारखंड की प्रतिनिधि फिल्में शामिल ही नहीं की गयी हैं. । 21 फिल्मों में मात्र तीन झारखंडी फिल्मों एक नागपुरी, एक  संथाली और एक खोरठा का प्रदर्शन हो रहा है, वह भी मॉर्निंग शो में.  20-25 सालों से यहां काम कर रहे फिल्मकार अपने को उपेक्षित मान रहे हैं।

नागपुरी फिल्मों को उपेक्षित किया गया
झारखंड में सबसे ज्यादा नागपुरी फिल्में बनती हैं। 1992 से अब तक सौ के करीब नागपुरी फिल्में बन चुकी हैं। यहां के तमाम बड़े सिनेमाघर इन फिल्मों को अपने यहां नहीं दिखाते, इसके बावजूद कई फिल्मों ने खूब मुनाफा कमाया। श्रीप्रकाश की नागपुरी फिल्म 'बाहा को बर्लिन में ब्लैक इंटरनेशनल अवार्ड मिला। लेकिन इस फिल्म फेस्टिवल में मात्र एक नागपुरी फिल्म 'सजना अनाड़ी दिखाई जा रही है। फिल्म का समय भी मॉर्निंग शो रखा गया है, जब अमूमन ·म लोग फिल्म देखने घर से आते हैं। रांची में नागपुरी फिल्मों का  बड़ा दर्शक वर्ग है। हिंदी फिल्मों का 1000 सीट वाले सुजाता हॉल में प्रदर्शन हो रहा है, वहीं तीनों क्षेत्रीय फिल्मों का मिनीप्लेक्स में, जिसमें 100 के करीब सीट हैं। नागपुरी फिल्म निर्देशक श्रीप्रकाश कहते हैं,झारखंड की प्रतिनिधि फिल्में इस फिल्म समारोह में दिखाई जानी चाहिए। फीचर फिल्म के साथ डॉक्यूमेंट्री फिल्में भी दिखानी चाहिए। तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद यहां के फिल्मकारों ने तीन राष्ट्रीय पुरस्कार जीते। दर्जनों नेशनल-इंटरनेशनल अवार्डों पर कब्जा जमाया, लेकिन इस फिल्म फेस्टिवल में एक भी ऐसी फिल्में नहीं दिखाई जा रही है, इससे यहां के फिल्मकार अपने को छला महसूस कर रहे हैं।

तमिल-ओडिय़ा की जगह यहां की फिल्में दिखाई जानी चाहिए
झॉलीवुड में लंबे समय से जुड़े मनोज चंचल कहते हैं कि झारखंड में फिल्म फेस्टिवल हो रहा है, तो यहां की प्रतिनिधि फिल्मों पर फोकस करना चाहिए। तमिल, ओडिय़ा, बंगाली, पंजाबी आदि फिल्में पहले से ही अपने प्रदेशों में अच्छी स्थिति में हैं, उन्हें यहां दिखाकर या बढ़ावा देकर क्या फायदा। आज झॉलीवुड कठिन परिस्थिति से गुजर रहा है। यहां की फिल्मों से जुड़े लोग पलायन कर रहे हैं, इस फेस्टिवल में यहां की फिल्मों को ज्यादा से ज्यादा दिखाकर यहां के फिल्मकारों में सकारात्मक संदेश दिया जा सकता था। 

डॉक्यूमेंट्री की अहमियत समझनी चाहिए
झारखंड के फिल्मकारों द्वारा बनाई गई डॉक्यूमेंट्री फिल्में नेशनल-इंटरनेशनल स्तर पर न सिर्फ सराही गईं, बल्कि दर्जनों अवार्डों पर भी कब्जा जमाया। प्रसिद्ध फिल्मकार मेघनाथ कहते हैं कि अब लोगों को  डॉक्यूमेंट्री की अहमियत समझनी चाहिए। जितने भी बड़े फिल्म फेस्टिवल होते हैं, सभी में फीचर फिल्मों के साथ डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का प्रदर्शन भी होता है। यहां दर्जनों ऐसी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का  निर्माण हुआ है, जिसमें झारखंड की सोंधी खुशबू नजर आती है। इनका प्रदर्शन फिल्म फेस्टिवल में किया जाना चाहिए।


लेखक-परिचय:
जन्म : 13 फरवरी, 1977
शिक्षा : बीएससी, बीजे
करीब 12 वर्षों से हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय.
सम्प्रति: दैनिक  भास्कर, रांची  में फीचर एडिटर
संपर्क: kundankcc @gmail .com

बदलती रहेगी तो बहती रहेगी हिंदी

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हिंदी के संवेदनशील जानकार चाहिए


 
 



















सैयद शहरोज़ क़मरकी कलम से


समय के साथ संस्कृति, समाज और भाषा में बदलाव आता है। परंपरा यही है। लेकिन कुछ लोगों की जिद इन परिवर्तनों पर नाहक  नाक  भौं सिकोड़ लेती है। अपने अनूठे संस्मरणों के लिए मशहूर लेखक  कांति कुमार जैन का लेख -इधर हिंदी नई चाल में ढल रही है- पढ़ा जाना चाहिए। लेख का अंत वह इस पक्ति से करते हैं,हमें आज हिंदी के शुद्धतावादी दीवाने नहीं, हिंदी के संवेदनशील जानकार चाहिए। वह लिखते हैं, अंग्रेजी में हर दस साल बाद शब्द कोशों के  नये संस्करण प्रकाशित करने की परंपरा है। वैयाकरणों, समाजशास्त्रियों, मीडिया विशेषज्ञों, पत्रकारों, मनोवैज्ञानिंको का  एक दल निरंतर अंग्रेजी में प्रयुक्त होने वाले नये शब्दों की टोह लेता रहता है। यही कारण है कि  पंडित, आत्मा, कच्छा, झुग्गी, समोसा, दोसा, योग जैसे शब्द अंग्रेजी के  शब्द कोशों की शोभा बढ़ा रहे हैं। अंग्रेजी में कोई शुद्ध अंग्रेजी की बात नहीं करता। संप्रेषणीय अंग्रेजी की, अच्छी अंग्रेजी की बात करता है। अंग्रेजी भाषा की विश्व व्यापी ग्राह्यता का यही कारण है कि वह निरंतर नये शब्दों का स्वागत करने में संकोच नहीं करती। हाल ही में आक्सफोड एडवांस्ड लर्न्र्स डिक्शनरी का नया संस्करण जारी हुआ है। इसमें विश्व की विभिन्न भाषाओं के  करीब तीन हजार शब्द शामिल ·िकये गये हैं। बंदोबस्त, बनिया, जंगली, गोदाम जैसे ठेठ भारतीय भाषाओं के शब्द हैं, पर वे अंग्रेजी के शब्दकोश में हैं क्योंिक  अंग्रेजी भाषी उनका प्रयोग करते हैं।

दरअसल किसी भाषा का  विकास उसके बोलने या लिखने वालों पर निर्भर करता है। अगर उनका ध्यान रखा जाता है, तो निश्चय ही ऐसी भाषा सरल, सहज और बोधगम्य बनती है। अंग्रेजी में ग्रीक, लैटिन, फ्रांसीसी और अरबी के शब्द मौजूद हैं। अब उसके नए कोश में चीनी, जापानी और हिंदी आदि दूसरे भाषायी समाज के शब्द भी शामिल किए गए हैं। वहीं अरबी वालों ने तुर्की, यूनानी, फारसी और इबरानी आदि के शब्द लिए। ऐसा नहीं कि हिंदी को  दूसरी भाषा से बैर हो। हिंदी और उर्दू का जन्म ही समान स्थितियों और काल की देन है। जाहिर है, बाद में अलग अलग पहचानी गई इन जबानों में तुर्की, अरबी, अंग्रेजी, फारसी, अवधी, बुंदेली, बांग्ला, संस्कृत आदि देशी विदेशी शब्दों की भरमार है। लेकिन बाद में हिंदी के शुद्धतावादियों ने धीरे धीरे बाहरी शब्दों से परहेज करना शुरू किया। तत्सम का प्रयोग आम हुआ। न ही तत्सम और न ही अन्य भाषायी शब्दों का इस्तेमाल गलत है। गलत है, ऐसे शब्दों को प्रचलन में जबरदस्ती लाने की  कोशिश करना। हां! यदि चलन में शब्द हैं, तो उसे आत्मसात करना जरूरी है। लेखक, कवियों और अब टीवी चैनलों व फिल्मों में प्रयुक्त शब्दों को स्वीकार करने में हिंदी का विकास ही है। जैसे, प्रेमचंद ने गोधुली शब्द का इस्तेमाल किया तो लोगों ने सहज लिया। पंजाबी शब्द कुड़माई कहानी उसने कहा था के  कारण कितना खूबसूरत बना। संजय दत्त की  फिल्म मुन्ना भाई एमबीबीएस में आया गांधीगीरी शब्द हर की जबान पर चढ़ गया। अरुण कमल ने अपनी कविता में चुक्कू मुक्कू लिखा, तो उसका इस्तेमाल करने में किसी को  कोई गुरेज नहीं हुआ। सुधीश पचौरी जब न्यूज चैनलों के लिए खबरिया लिखने लगे, तो पहले परहेज किया गया। लेकिन बाद में उसकी सहर्ष स्वीकृति मिल गई।
हिंदी और उर्दू के शब्दों को परस्पर जबानों से अलग करने की बहुधा कोशिशें की गईं। लेकिन हुआ उल्टा ही। आम लोगों के बीच गजलों, गानों और फिल्मों से उसे दुगुनी चाल से बढ़त मिली। आदि लेखकों में शुमार भारतेंदु हरिश्चंद्र के बकौल हिंदी नई चाल में ढलती गई। उर्दू और अंग्रेजी के शब्द शर्बत में चीनी की तरह घुल चुके हैं। तभी तो मिठास है। हिंदी में करीब 1 लाख, 37 हजार शब्द दूसरी भाषा के हैं। यह अब हमारी विरासत है।
दूसरी भाषा से आए शब्दों की कुछ मिसालें देखिए:
फल, मिठाई संबंधी: अनार, अंगूर, अंजीर या इंजीर, आलूबुखारा, कद्दू, किशमिश, नाशपाती, खरबूजा, तरबूज, सेब, बादाम, पिस्ता, अखरोट, हलवा, रसगुल्ला, कलाकंद, बिरयानी और कबाब आदि।
शृंगार संबंधी: साबुन, आईना, शीशा, इत्र आदि।
पत्र संबंधी: पता, खत, लिफाफा, डाकिया, मुहर, कलमबंद, कलम, दवात, कागज, पोस्ट ऑफिस, डाक खाना, आदि।
व्यवसाय संबंधी: दुकान, कारोबार, कारीगर, बिजनेस, शेयर, मार्केट, दर्जी, बावर्ची, हलवाई आदि।
धर्म संबंधी: ईमान, बेईमान, कफऩ, जनाज़ा, खुदा, मज़ार आदि।
बीमार संबंधी: बीमार, डॉक्टर, अस्पताल, हॉस्पीटल, नर्स, दवा, हकीम, सर्दी ज़ुकाम, बुखार, पेचीश, हैज़ा आदि
परिधान: पोशाक, कमीज, शर्ट, पैंट, आस्तीन, जेब, दामन, पाजामा, शलवार, जींस, दस्ताना आदि।
कानून व शासन संबंधी: चपरासी, वकील, सरकार, सिपाही, जवान, दारोगा, चौकीदार, जमादार, अदालत, सज़ा, मुजरिम, कैद, जेल आदि।

वहीं हिंदी में आए उर्दू के उपसर्ग व प्रत्यय के कुछ नमूने:

हर, बदनाम, बदसूरत, बदबू, बदमाश, बदरंग, बदहवास। गैरवाजिब, गैरजिम्मेवार, गैरजिम्मेदार, गैर हाजिर। बिलानागा। दादागिरी, गांधीगिरी, उठाईगिरी। आदमख़ोर, घूसखोर, रिश्वतखोर। असरदार, उहदेदार, चौकीदार, थानेदार। घड़ीसाज़, रंगसाज़।
इसके अलावा अनगिनत उर्दू शब्दों ने हिंदी शब्दकोश को समृद्ध बनाया है। आनंद नारायण मुल्ला का शेर बरबस याद आता है:

उर्दू और हिंदी में फर्क सिर्फ़ है इतना
हम देखते हैं ख्वाब, वह देखते हैं सपना।

प्रेमचंद आज भी चाव से पढे जाते हैं। उन्हें क्लासिक का दर्जा हासिल है। वहीं बोधगम्यता की बात चली तो, राजेंद्र यादव का सारा आकाश, श्रीलाल शुक्ल का रागदरबारी, धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता, सुरेंद्र वर्मा का मुझे चांद चाहिए, शानी का कालाजल और अब्दुल बिस्मिल्लाह का झीनी झीनी बिनी चदरिया का तुरंत ही स्मरण होता है। इन उपन्यासों की लाखों प्रतियां अब तक बिक चुकीं। आज भी लोग इसे पढऩा पसंद करते हैं। इसलिए कि इसकी भाषा बहुत ही सहज व सरल है। वहीं नामवर सिंह की किताब दूसरी परंपरा की खोज आलोचना जैसे सूखे विषय के बावजूद भाषायी प्रवाह के  कारण पढ़ी जाती है। रवींद्र कालिया की संस्मरणात्मक  पुस्तक  गालिब छुटी शराब खूब पढ़ी गई। जबकि काशीनाथ सिंह की काशी का अस्सी कम नहीं पढ़ी गई। लेकिन अस्सी में तत्सम अधिक पढऩे को मिला। वहीं गालिब....में ठेठ हिंदुस्तानी का लहजा परवान चढ़ा। इस शब्द पर अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध याद आए। उन्होंने किसी के कहने पर उपन्यास लिखा था, ठेठ हिंदी का ठाट। जिसमें हिंदी के ठाठ को बरकरार रखने का प्रयास किया गया था। लेकिन हरिऔध जी खुद ही असमंजस में थे।  30-3-1899 में उपन्यास की भूमिका में वह लिखते हैं, लखनऊ के प्रसिद्ध कवि इंशा अल्लाह खां की बनाई कहानी ठेठ हिंदी है। जो मेरा यह विचार ठीक है, और मैं भूलता नहीं हूँ, तो कहा जा सकता है कि मेरा ठेठ हिंदी का ठाट नामक  यह उपन्यास ठेठ हिंदी का दूसरा ग्रन्थ है।.........
भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की बनाई हिंदी भाषा नाम की पुस्तिका है, उसमें जो उन्होंने नंबर 3 की शुद्ध हिंदी का नमूना दिया है, वही ठेठ हिंदी है। शुद्ध और ठेठ शब्द का अर्थ लगभग एक ही है। वह नमूना यह है:

पर मेरे प्रीतम अब तक घर न आये, क्या उस देश में बरसात नहीं होती, या किसी सौत के फंदे में पड़ गये, कि इधर की सुध ही भूल गये। कहां तो वह प्यार की बातें कहां एक संग ऐसा भूल जाना कि चिट्ठी  भी न भिजवाना, हा! मैं कहां जाऊं कैसी करूं, मेरी तो ऐसी कोई मुंहबोली, सहेली भी नहीं कि उससे दुखड़ा रो सुनाऊं, कुछ इधर-उधर की बातों ही से जी बहलाऊं ।

इन कतिपय पंक्तियों पर दृष्टि देने से जान पड़ता है कि जितने शब्द इन में आये हैं, वह सब प्राय: अपभ्रंश संस्कृत शब्द हैं, प्रीतम शब्द भी शुद्ध संस्कृत शब्द प्रियतम का अपभ्रंश है। विदेशी भाषा का कोई शब्द वाक्य भर में नहीं है, हां! कि शब्द फारसी है, जो इस वाक्य में आ गया है, पर यह किसी विवाद के सम्मुख न उपस्थित होने के कारण, असावधानी से प्रयुक्त हो गया है।

करीब डेढ़ सौ साल पहले भारतेंदु हरिश्चंद ने लेख लिखा था, हिंदी नई चाल में ढली । उसका चलना आज भी जारी है। रहना भी चाहिए।



हिंदी दिवस पर 14 सितम्बर 2012, भास्करके विशेष अंक में संपादित अंश प्रकाशित

अदालत भी उगलदान है....

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क़मर सादीपुरीकी कलम से 





 














 1.
ये निजाम क्या निजाम है।
न ज़मीन है, न मकान है।

झूठा, चोर, बेईमान है।
कोहराम है, कोहराम है।

सच को मिलती है सज़ा
अदालत भी  उगलदान  है।

दिल किस क़दर है बावफा
तुझे इल्म है, न गुमान है।

तेरा रुख हुआ,  बेसबब
अब रूह ही गुलदान है।

बोझ तो  है  यूँ क़मर
सजदे में हुआ इंसान है।

2.

ज़िंदगी में एक आया है।
लेकिन बेवक्त आया है।

हम उसे कह नहीं सकते,
जो मेरा ही हमसाया है।

रूह की बात लोग करते हैं,
जिस्म क्यों आड़े आया है।

उनके हंसने की अदा है मासूम,
हमें ये ज़ुल्म बहुत भाया है।

उन्हें  बारिश का पता हो शायद,
हमने तो छत भी नहीं ढाला है।

उसके सोने का गुमाँ हो जबकि
उसी ने नींद को चुराया है।

कौन उस्ताद ग़ज़ल कहता है,
ये तो तुकबंदी का सखियारा है।

( फ़ेसबुक पर कमेंट की शक्ल में चीज़ें उतरती गयी हैं।)

चित्र गूगल से साभार


रचनाकार परिचय






रंज से इस कदर याराना हुआ @ QUICK बंदी

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कमलेश सिंहकी कलम  से 

Fear, Oh Dear!

मैं तो बस आप ही से डरता हूँ.
मैं कहाँ कब किसी से डरता हूँ.

मेरी दुनिया है रोशनाई में,
इसलिए रौशनी से डरता हूँ  

बहर-ए-आंसू हूँ बदौलत तेरी,
तेरी दरियादिली से डरता हूँ.

जब तेरा अक्स याद आता है,
मैं बहुत सादगी से डरता हूँ.

रंज से इस कदर याराना हुआ,
मिले तो अब खुशी से डरता हूँ.

मौत से डर नहीं ज़रा भी मुझे,
हाँ, इस जिंदगी से डरता हूँ.

जाने पहचाने थे हाथ औ खंजर,
कहता था अजनबी से डरता हूँ!

वस्ल की बात पर ख़मोशी भली,
हाँ से भी, और नहीं से डरता हूँ!

वो इक रात की गफ़लत ही थी,
मैं क्यूँ फिर चांदनी से डरता हूँ!

ये क्या किया कि आसमां वाले,
मैं तुम्हारी ज़मीं से डरता हूँ!

ग़म का बारूद छुपा सीने में,
फिर इक शोलाजबीं से डरता हूँ!

तेरे रुखसार पे एक नई गज़ल,
जो लिखी है उसी से डरता हूँ!

साँस गिनती की ही बची है मगर,
घर में तेरी कमी से डरता हूँ.

तुम्हारी याद के सहराओं में,
हर घड़ी तिश्नगी से डरता हूँ!

दिल लगाने का शौक है तुमको,
और मैं दिल्लगी से डरता हूँ!

साक़िया चश्म-ए-करम कायम रख,
होश में भी तुम्हीं से डरता हूँ!

जब से सब हो गए ईमां वाले,
मैं हर एक आदमी से डरता हूँ.
का किसी से कहें, काकिसि खुद ही,
हूँ काकिसि और काकिसि से डरता हूँ! 
रोशनाई: Darkness बहर: Ocean अक्स: Countenance रंज: Sorrow सहरा: Desert तिश्नगी: Thirst ईमां: faith काकिसि: तखल्लुस | کاکسی: تخللس Pen name
| खिर्द: Samajh | तिश्नालबी: parched lips | चारागर: Doctor | आज़ुर्दगी: being unwell
——————————————

Cut it!

हमको तुमने दुश्मन जाना, छोड़ो यार!
तुमको कौनसा था याराना, छोड़ो यार!
हो सकता है होना ही इक सपना हो,
जो था वो था भी या था ना छोड़ो यार!
लाख कहा पर पाल लिया आस्तीनों में,
उन साँपों को दूध पिलाना छोड़ो यार!
किसने कहा था रह-ए-इश्क आसां होगी,
बीच रास्ते स्यापा पाना छोड़ो यार!
अहद-ए-मुहब्बत अहल-ए-वफ़ा की बाते हैं,
भैंस के आगे बीन बजाना छोड़ो यार!
खुद को तो तुम रत्ती भर ना बदल सके,
बदलेगा क्या खाक ज़माना, छोड़ो यार!
कतरे-कतरे से तुम हमरे वाकिफ़ हो,
महफ़िल में हमसे कतराना छोड़ो यार!
रौनक-ए-बज़्म-ए-रिन्दां थी चश्म-ए-साकी,
बिन उसके क्या है मयखाना, छोड़ो यार!
पैंसठ साल से राह तकत है इक बुढ़िया,
वादों से उसको बहलाना छोड़ो यार!
चाहें भी तो कैसे भूलें ज़ख़्म सभी,
तुम तो उनपर नमक लगाना छोड़ो यार!
आँख-लगे को रात जगाना छोड़ो यार,
सपनों में यूं आना जाना छोड़ो यार!
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Triveni & a postscript

हर एक बात मेरी जिंदगी की तुमसे है
वो एक रात मेरी ज़िंदगी की तुमसे है
बाकी सब दिन तो इंतज़ार के थे 

अब कोई रास्ता बचा ही नहीं
जिधर देखो बस पानी ही पानी
इस तलातुम में खुदा क्या नाखुदा भी नहीं 
तुम थे तो चट्टानों से भी लड़ जाता था
तुम थे तो तूफानों से भी लड़ जाता था
आज खुद से भी सामना नहीं होता 

फिर वही रात तो आने से रही
लगी ये आँख ज़माने से रही
शमा बुझा दो, हमको अब सो जाने दो
_____
अमेरिका में बवंडर आया तो बिजली चली गई,
हमारे गाँव में बिजली आये तो बवंडर आ जाए!
~~

Dussehra. Ten taunts

एक हम नहीं थे काबिल तुम्हारे,
उस पे इतने थे बिस्मिल तुम्हारे!
दो घड़ी और रुकते तो हम भी,
देख लेते हद्द-ए-कामिल तुम्हारे!
तीन हर्फों का जुमला बस सच्चा,
बाकी किस्से हैं बातिल तुम्हारे!
चार दिन की है ये जिंदगानी,
इसमें दो दिन हैं शामिल तुम्हारे!
पांच ऊँगलियाँ डूबी हों घी में,
मुंह में शक्कर हो कातिल तुम्हारे
छः हाथ की ज़मीं ही तो मांगूं,
बाकी सेहरा-ओ-साहिल तुम्हारे!
सात सुर से बनी मौसिकी भी,
कुछ नहीं है मुकाबिल तुम्हारे!
आठ पहरों में रहते हो तुम ही,
रात, दिन भी हैं माइल तुम्हारे!
नौ लखा हार ना दे सके हम,
कर दिया नाम ये दिल तुम्हारे!
दस ये गिनती के हैं मेरे मसले,
बन गए जो मसाइल तुम्हारे!

Raavan


पेट को रोटी,
तन को कपड़ा,
सिर को छत,
बच्चों की शिक्षा अनवरत,
वादे,
यही हैं जो ४७ में हुए,
जो १४ में होंगे!
सबको बिजली,
सबको पानी,
सबको गैस,
गरीबी, बेरोज़गारी हटाओ,
मलेरिया भगाओ,
विदेशी हाथ काटो,
मजदूरों में ज़मीन बांटो,
देश की अखंडता,
संविधान की संप्रभुता,
जय जवान, जय किसान,
और वही पाकिस्तान,
नारे,
यही हैं जो ४७ में लगे,
जो १४ में लगेंगे!
आरक्षण, सुशासन,
शोषण, कुपोषण,
मरता जवान,
मरते किसान,
भ्रष्टाचार, कदाचार,
पूँजीवाद, समाजवाद,
अपराध, उत्पीड़न,
सांप्रदायिक सद्भाव,
चीज़ों के बढ़ते भाव,
मुद्दे,
वही हैं जो ४७ में थे,
यही हैं जो १४ में होंगे
रावण,
४७ में जलाया था,
आज जल रहा है,
१४ में भी जलाएंगे,
रावण वही है,
रावण जलता नहीं है!

(परिचय :
वरिष्ठ पत्रकार . शौक़िया शायरी . हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में
जन्म : बिहार के भितिया, बांका में, 13 जनवरी को, साल 1973
शिक्षा : स्नातक व पत्रकारिता में डिप्लोमा
सृजन : प्रचुर लिखा, प्रकाशन व प्रसारण 
सम्प्रति: दैनिक भास्कर में स्टेट हेड
संपर्क:kamlesh.singh@gmail.com)

ग़ज़ल इस्मत बचाए फिर रही है.......

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एक भी  शे’र अगर हो जाए







 




विजेंद्र शर्माकी क़लम से 
इसमें कोई शक़ नहीं कि अदब की जितनी भी विधाएं हैं, उनमे सबसे मक़बूल ( प्रसिद्ध ) कोई विधा है, तो वो है ग़ज़ल ! दो मिसरों में पूरी सदी की दास्तान बयान करने की सिफ़त ख़ुदा ने सिर्फ़ और सिर्फ़ ग़ज़ल को अता की है! यही वज्ह है कि जिसे देखो वही ग़ज़ल पे अपने हुनर की आज़माइश कर रहा है ! ऐसा नहीं है कि ग़ज़ल कहने के लिए शाइर को उर्दू रस्मुल-ख़त (लिपि) आना ज़रूरी है मगर ग़ज़ल से सम्बंधित जो बुनियादी बातें है वे तो ग़ज़ल कहने वाले को पता होनी चाहिए ! ऐसे बहुत से शाइर है जो उर्दू रस्मुल-ख़त नहीं जानते पर उन्होंने बेहतरीन ग़ज़लें कही हैं और उनके क़लाम की उर्दू वालों ने भी पज़ीराई की है ! यहाँ एक बात ये भी कहना चाहूँगा कि अगर किसी ने ठान लिया है कि मैंने ग़ज़ल कहनी है तो उसे उर्दू रस्मुल-ख़त ज़रूर सीखना चाहिए क्यूंकि ग़ज़ल से मुतालिक बहुत सी ऐसी नाज़ुक चीज़ें हैं जिनके भीतर तक बिना उर्दू को जाने पहुंचना बड़ा दुश्वारतरीन है !

शाइरी ज़िंदगी जीने का एक सलीक़ा है और शे’र कहने की पहली शर्त है शाइर की तबीयत शाइराना होना ! कुछ ग़ज़लकार अदब के नक़्शे पे अपने होने का ज़बरदस्ती अहसास करवाना चाहते है उनकी ना तो तबीयत शाइराना है ना ही उनके मिज़ाज की सूरत किसी भी ज़ाविये (कोण) से  ग़ज़ल से मिलती है !

शाइरी की ज़ुबान में शे’र लिखे नहीं कहे जाते हैं ! इस तरह के नकली शाइरों की ज़बराना लिखी ग़ज़लें नए लोगों को ग़ज़ल से दूर कर रही है ! इन दिनों अदब के हर हलके में चाटुकारों की तादाद बढती जा रही है और ठीक उसी अनुपात में नए–नए ग़ज़लकार भी!

शकील जमाली की ताज़ा  ग़ज़ल का एक शे’र मुझे बरबस याद आ रहा है .. इस शे’र को सुनने के बाद ही ये मज़मून लिखने का मन हुआ :--

ग़ज़ल इस्मत बचाए फिर रही है

कई शाइर है बेचारी के पीछे ....

ग़ज़ल का अपना एक अरूज़ (व्याकरण/छंद-शास्त्र  ) होता है ! अरूज़ वो कसौटी है जिस पे ग़ज़ल परखी जाती है ! यहाँ मेरा मक़सद ग़ज़ल का अरूज़ सिखाना नहीं है मगर कुछ बुनियादी चीज़ें है जो ये तथाकथित सुख़नवर ना तो जानते हैं और ना ही जानना चाहतें हैं ! अल्लाह करे ये छोटी–छोटी बाते तो कम से कम शाइरी के साथ खिलवाड़ करने वालों के ज़हन में आ जाए !

ग़ज़ल के पैकर (स्वरुप) को देखें तो ग़ज़ल और नज़्म (कविता ) में बड़ा फर्क ये है कि ग़ज़ल का हर शे’र अपना अलग मफ़हूम (अर्थ) रखता है जबकि कविता शुरू से लेकर हर्फ़े आख़िर (अंतिम शब्द )  तक एक उन्वान (शीर्षक ) के इर्द-गिर्द ही रहती है !

ग़ज़ल कुछ शे’रों के समूह से बनती है ! शे’रलफ़्ज़ का मतलब है जानना  या किसी शै (चीज़ ) से वाकिफ़ होना ! एक शे’र में दो पंक्तियाँ होती हैं ! एक पंक्ति को मिसराकहते है और  दो मिसरे मिलकर एक शे’र की तामीर (निर्माण )  करते हैं ! किसी शे’र के पहले मिसरे को मिसरा-ए -उलाऔर दूसरे मिसरे को मिसरा ए सानी कहते हैं !किसी भी शे’र के दोनों मिसरों में रब्त (सम्बन्ध ) होना बहुत ज़रूरी है इसके बिना शे’र खारिज माना जाता है !

बहर वो तराज़ू है जिसपे ग़ज़ल का वज़न तौला जाता है इसे वज़न भी कहते हैं ! बहर में शे’र कहना उतना आसान नहीं है जितना आजकल के कुछ फोटोस्टेट  शाइर समझते हैं ! मोटे तौर पे उन्नीस बहरें प्रचलन में हैं ! बहर को कुछ लोग मीटर भी कहते है ! जो शाइर बहर में शे’र नहीं कहते उन्हें बे-बहरा शाइर कहा जाता है और हमारे अहद का अलमिया (विडंबना ) ये है कि रोज़ ब रोज़ ऐसे शाइर बढ़ते जा रहें हैं ! बहर को समझना एक दिन का काम नहीं है और ना ही सिर्फ़ किताबें पढ़कर बहर की पटरी पे शाइरी की रेल चलाई जा सकती है ! बहर का मुआमला या तो शाइरी के प्रति जुनून से समझ में आता है या फिर बहर की समझ  कुछ शाइरों को ख़ुदा ने बतौर तोहफ़ा अता की है !

रदीफ़ :--शाइरी में हुस्न और ख़यालात में फैलाव के लिए ग़ज़ल में रदीफ़ रखा जाता है ! ग़ज़ल को लय में सजाने में रदीफ़ का अहम् रोल होता है ! मिसाल के तौर पे  मलिकज़ादा “जावेद” साहब का ये मतला और शे’र देखें :--

मुझे सच्चाई की आदत बहुत है !

मगर इस राह में दिक्कत बहुत है !!

किसी फूटपाथ से मुझको ख़रीदो !

मेरी शो रूम में क़ीमत बहुत है !!

इस ग़ज़ल में बहुत हैरदीफ़ है जो बाद में ग़ज़ल के हर शे’र के दूसरे मिसरे यानी मिसरा ए सानी में बार – बार आता है

क़ाफ़िया :--क़ाफ़िया ग़ज़ल का मत्वपूर्ण हिस्सा है बिना क़ाफ़िए के ग़ज़ल मुकम्मल नहीं हो सकती ! शे’र कहने से पहले शाइर के ज़हन में ख़याल आता है और  फिर वो उसे शाइरी बनाने के लिए  रदीफ़,क़ाफ़िए तलाश करता है ! क़ाफ़िए का इंतेखाब (चुनाव )शाइर को बड़ा सोच–समझ कर करना चाहिए ! ग़लत क़ाफ़िए का इस्तेमाल शाइर की मखौल उड़वा देता हैं ! राहत इन्दौरी का ये मतला और  शे’र देखें :--

अपने अहसास को पतवार भी कर सकता है !

हौसला हो तो नदी पार भी कर सकता है !!

जागते रहिये,  की  आवाज़ लगाने वाला !

लूटने वाले को होशियार भी कर सकता है !!

इसमें पतवार,पार,होशियारक़ाफ़िए हैं और “ भी कर सकता है”

रदीफ़ है !जिस शे’र में दोनों मिसरों में क़ाफ़िया आता हो उसे मतलाकहते हैं ! किसी ग़ज़ल की आगे की राह मतला ही तय करता है ! मतले में शाइर जो क़ाफ़िए बाँध देता है  फिर उसी के अनुसार उसे आगे के शे’रों में क़ाफ़िए रखने पड़ते हैं ! जैसे किसी शाइर ने मतले में किनारों , बहारों का क़ाफ़िया बांधा है तो वह शाइर पाबन्द हो गया है कि आगे के शे’रों में आरों का ही क़ाफ़िया लगाए ना कि ओ का क़ाफ़िया  जैसे पहाड़ों , ख़यालों का क़ाफ़िया ! हिंदी ग़ज़ल के बड़े शाइर  दुष्यंत कुमार ने भी अपनी ग़ज़लात में ग़लत क़ाफ़िए बांधे और तनक़ीद कारों को बोलने का मौका दिया ! दुष्यंत कुमार की एक बड़ी मशहूर ग़ज़ल है :----

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए !

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए !!

वे मुतमईन है कि पत्थर पिघल नहीं सकता !

मैं बेक़रार हूँ आवाज़  में  असर  के लिए !!

इस ग़ज़ल के मतले में “घर” के साथ “शहर” का क़ाफ़िया जायज़ नहीं है ,दुष्यंत साहब जैसे शाइर ने फिर अगले शे’र में “असर” का क़ाफ़िया लगाया उसके बाद इसी ग़ज़ल में उन्होंने “नज़र” ,”बहर” ,”गुलमोहर” और “सफ़र” के क़ाफ़िए बांधे ! इस पूरी ग़ज़ल में शहर और बहर के क़ाफ़िए का इस्तेमाल दोषपूर्ण है ! दुष्यंत कुमार की इसके लिए बड़ी आलोचना भी हुई !

ग़लत क़ाफ़िए को शे’र में बरतना शाइर की मुआफ नहीं करने वाली ग़लती है ! ये सब बातें यूँ ही नहीं आती हैं इसके लिए अच्छा मुताला (अध्ययन) होना ज़रूरी है मगर लोगों को पढ़ने का तो वक़्त ही नहीं है बस क़लम और काग़ज़ पर कहर बरपा के सिर्फ़ छपने का शौक़ है ! स्वयंभू ग़ज़लकारों के अख़बारात और रिसालों में छपने की  इस हवस ने सबसे ज़ियादा नुक़सान शाइरी का किया है !

वापिस ग़ज़ल  पे आता हूँ .. शाइर अपने जिस उपनाम से जाना जाता है उसे ”तख़ल्लुस” कहते हैं और अपने तख़ल्लुस का जिस शे’र में शाइर इस्तेमाल करता  है वो शे’र  “मक़ता”कहलाता है !

मासूम परिंदों को आता ही नहीं “निकहत” !

आगाज़ से घबराना ,अंजाम से डर जाना !!

ये मक़ता डॉ.नसीम “निकहत” साहिबा का है, शाइरा ने इस शे’र में अपने तख़ल्लुस का इस्तेमाल किया है सो ये मक़ता हुआ !

ग़ज़ल से त-अल्लुक़  रखने वाली  जिन बातों का मैंने ज़िक्र किया, अपने ख़यालात को ग़ज़ल बनाने के लिए सिर्फ इतना जान लेना ही काफ़ी नहीं है ! ग़ज़ल कहने के लायक बनने  के लिए और भी बहुत से क़ायदे-क़ानून /ऐब - हुनर हैं जिन्हें एक शाइर को सीखना चाहिए !

शाइरी में कुछ ऐब है जिन्हें  शुरू – शुरू में हर शाइर नज़रंदाज़ करता है !ये ऐब अच्छे –भले शे’र और शाइर  को तनक़ीद वालों (आलोचकों ) के कटघरे में खड़ा कर देतें हैं !

शतुरगुरबाऐब ..शतुर माने ऊंट और गुरबा माने बिल्ली यानी ऊंट –बिल्ली को एक साथ ले आना इस ऐब को जन्म देता है! ग़फ़लत में शाइर ये ग़लती कर जाता है ! जैसे पहले मिसरे में “आप” का इस्तेमाल हो और दूसरे में “तुम” का प्रयोग करे या यूँ कहें कि संबोधन में समानता ना हो तो शतुरगुरबा ऐब हो जाता है !

ग़ज़ल में कभी “ना” लफ़्ज़ का इस्तेमाल नहीं होता इसकी जगह सिर्फ़ “न” का ही प्रयोग किया जाता है ,”ना” का इस्तेमाल सिर्फ़ उस जगह किया जाता है जहां “ना“हाँ की सूरत में हो जैसे भाई पवन दीक्षित का ये शे’र :-

पारसाई न काम आई ना !

और कर ले शराब से तौबा !!

ज़म :-- कई बार शाइर ऐसा मिसरा लगा देते है जिसका अर्थ बहुत बेहूदा निकलता है ,या शाइर से  ऐसे लफ़्ज़ का अनजाने में इस्तेमाल हो जाता है  जिसके  मआनी फिर शाइरी की तहज़ीब से  मेल नहीं खाते ! ज़म के ऐब से शाइर को बचना चाहिए !

कई बार शाइर बहर के चक्कर में अब, ये, तो,भी,वो आदि लफ़्ज़ बिना वज्ह शे’र में डाल देता है जबकि कहन में उस लफ़्ज़ की कोई ज़रूरत नहीं होती ! शाइर को भर्ती के लफ़्ज़ों के इस्तेमाल से भी बचना चाहिए ! जहां तक शाइरी में ऐब का सवाल है और भी बहुत से ऐब है जिन्हें एक शाइर अध्ययन और मश्क़ कर- कर के अपने कहन से दूर कर सकता है !

शाइरी में ऐब इतने ढूंढें जा सकते है कि जिनकी गिनती करना मुश्किल है मगर जहां तक हुनर का सवाल है वो सिर्फ़ एक ही है और वो है “बात कहने का सलीक़ा” ! अपने ख़याल को काग़ज़ पे सलीक़े से उतारना आ जाए तो समझो उस शाइर को शाइरी का सबसे बड़ा हुनर आ गया है ! एक सलीक़ामंद शाइर बेजानमफ़हूम और गिरे पड़े लफ़्ज़ों को भी अपने इसी हुनर से ख़ूबसूरत शे’र में तब्दील कर सकता है ! ज़ोया साहब के ये मिसरे मेरी इस बात की पुरज़ोर वकालत कर सकते हैं :-

कट रही है ज़िंदगी रोते हुए !

और वो भी आपके होते हुए !!

इसी तरह शमीम बीकानेरी साहब का एक मतला और शे’र बतौर मिसाल अपनी बात को और पुख्ता करने के लिए पेश करता हूँ :--

रातों  के  सूनेपन  से  घबरायें क्या !

ख़्वाब आँखों से पूछते हैं, हम आयें क्या !!

बेवा का सा हुस्न है दुनिया का यारों !

मांग इसकी सिन्दूर से हम भर जायें क्या !!


मामूली से नज़र आने वाले लफ़्ज़ों को इस तरह के मेयारी  शे’रों की माला में मोती सा पिरो देने का कमाल एक दिन में नहीं आता इसके लिए बहुत तपस्या करनी पड़ती है,शाइरी की इबादत करनी पड़ती है और अपने बुज़ुर्गों के पाँव दबाने पड़ते हैं ! मुनव्वर राना ने यूँ ही थोड़ी कहा है :-

ख़ुद से चलकर नहीं ये तर्ज़े-सुख़न आया है !

पाँव दाबे हैं बुज़ुर्गों के तो फ़न आया है !!

ग़ज़ल कहने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है आपके पास एक ख़ूबसूरत ख़याल का होना ! उसके बाद उस ख़याल को मिसरों में ढालने के लिए उसी मेयार के लफ़्ज़ भी होंने चाहिए ! लफ़्ज़ अकेले शाइरी में नहीं ढल सकते इसके लिए एक शाइर के पास अहसासात की दौलत होना बहुत ज़रूरी है !एक शाइर के पास अल्फ़ाज़ का ख़ज़ाना भी  इतना समृद्ध होना चाहिए कि उसके ज़हन में अगर कोई ख़याल आये तो उसे लफ़्ज़ों के अकाल के चलते मायूस ना लौटना पड़े !

ग़ज़ल का एक-एक शे’र शाइर से मश्क़ (मेहनत) माँगता है ! किसी शाइर का सिर्फ़ एक मिसरा सुनकर इस बात को बा-आसानी कहा जा सकता है कि इन साहब को शे’र कहने की सलाहियत है या नहीं !

एक और अहम् चीज़ शाइरी को संवारती है वो है इस्ल्लाह (सलाह-मशविरा ) ! कुछ ऐसे ग़ज़लकार हैं जो अपनी तख़लीक़ को ही सब कुछ समझते हैं ! किसी जानकार से सलाह लेना उन्हें अपनी अना के क़द को छोटा करने जैसा लगता है !  शाइरी में इन दिनों उस्ताद–शागिर्द की रिवायत का कम हो जाना भी शाइरी के मेयार के गिरने की एक बड़ी वज्ह है !

जिस शाइर में आईना देखने का हौसला है ,अपने क़लाम पे  हुई सच्ची तनक़ीद (समीक्षा ) को सुनने का मादा है तो उस शाइर का मुस्तक़बिल यक़ीनन सुनहरा है ! जो तथाकथित शाइर बिना मशकक़त किये बस छपने के फितूर में क़लम घिसे जा रहे हैं वे ग़ज़ल और पाठकों के साथ – साथ ख़ुद को भी धोखा दे रहें हैं !

छपास के शौक़ीनों ने ग़ज़लों के साथ–साथ दोहों पर भी कोई कम ज़ुल्म नहीं ढायें हैं ! दोहे का अरूज़ भी ग़ज़ल जैसा ही है ,ग़ज़ल उन्नीस बहरों में कही जाती है दोहे की बस एक ही बहर होती है ! सरगम सरगम सारगम,सरगम सरगम सार!

 ग़ज़ल कहने के लिए कम से कम आठ – दस क़ाफ़िए आपके ज़हन में होने चाहियें मगर दोहे में तो सिर्फ़ दो ही क़ाफ़ियों की ज़रूरत होती है तो भी अपने आप को मंझा हुआ दोहाकार कहने वाले ऐसे –ऐसे दोहे लिख रहें है जिनके बरते हुए क़ाफ़िए आपस में ही झगड़ते रहते हैं ! ऐसे दोहों से त्रस्त होकर मैंने एक दोहा लिखा था :---

दोहे में दो क़ाफ़िए , दोनों ही बे-मेल !

ना आवे जो खेलना ,क्यूँ खेलो वो खेल !!

ग़ज़ल के शे’र और दोहे छंद की मर्यादा में कहे जाते है! बिना बहर और छंद के इल्म के इन दोनों विधाओं पे हाथ आज़माना सिर्फ़ अपनी हंसी उड़वाना है ! ग़ज़ल के सर से दुपट्टा उतारने वाले ये क्यूँ नहीं समझते कि पाठक इतने बेवकूफ़ नहीं है जितना वे समझते हैं ! एक अलमिया ये भी है कि बहुत से जानकार लोग सब कुछ जानते हुए भी इनकी ग़ज़लों की तारीफ़ कर देते हैं जिससे इन नक़ली सुख़नवरों का हौसला और बढ़ जाता है ! अपने ज़ाती मरासिम (सम्बन्ध) बनाए रखने के लिए कुछ मोतबर शाइर भी ग़ज़ल के श्रंगार से छेड़- छाड़ करने वालों की शान में जब कसीदे पढ़ते है तो ऐसे अदीब (साहित्यकार) भी मुझे  ग़ज़ल के दुश्मन नज़र आते है !

मैं जानता हूँ ये मज़मून बहुत से लोगों के सीने पे सांप की तरह रेंगेगा मगर ये कड़वी बातें मैंने शाइरी के हित में ही लिखी हैं ! ग़ज़ल से बे-इन्तेहा मुहब्बत ने मुझे ये सब लिखने की हिम्मत दी है ! मैं जानता हूँ ज़ाती तौर पे मुझे इसका नुक़सान भी होगा , कुछ अदब के मुहाफ़िज़ नाराज़ भी हो जायेंगे खैर ये सच बोलने के इनआम हैं ! जब पहली मरतबा ये पुरस्कार मुझे मिला तो ये पंक्तियाँ  ख़ुद ब ख़ुद हो गयी थी  :--

इक सच बोला और फिर , देखा ऐसा हाल !

कुछ ने नज़रें फेर लीं , कुछ की आँखें लाल !!

ग़ज़ल का ये बड़प्पन है कि वो उनको भी अपना समझ लेती है जो उसके साथ चलने की तो छोडिये साथ खड़े होने के भी क़ाबिल नहीं हैं ! अपने आपको शाइर समझने वाले ग़ज़ल के ख़िदमतगारों से मेरी गुज़ारिश है कि ग़ज़ल कहने से पहले इसे कहने का हक़ रखने के लायक बने ! ग़ज़ल कहने से पहले उसके तमाम पेचो-ख़म के बारे में जाने ! शाइरों का काम आबरू ए ग़ज़ल की हिफ़ाज़त करना है ना कि ग़ज़ल को बे-लिबास करना ! केवल तुक मिलाने से सुख़नवर होने का सुख नहीं मिलता  जहां तक तुकबंदी का सवाल है तुकबंदी तो लखनऊ ,दिल्ली और लाहौर के तांगे वाले भी इन शाइरों से अच्छी कर लेते है ! ग़ज़ल से बिना मुहब्बत किये उसकी मांग भरने की ख़्वाहिश रखने वाले इन अदीबों से एक और इसरार (निवेदन) कि छपने और झूठी शुहरत के चस्के में ऐसा कुछ ना लिखें  जिससे जन्नत में आराम फरमा रही  मीर ओ ग़ालिब की रूहों का चैन और सुकून छीन जाए और यहाँ ज़मीन पे ग़ज़ल का दामन उनके आंसुओं  से तर हो जाए !

परवरदिगार से ग़ज़ल के हक़ में यही दुआ करता हूँ  कि ख़ुद को शाइर समझने का वहम पालने वाले ग़ज़ल को बेवा ना समझें ,ग़ज़ल कहने से पहले उसे कहने की सलाहियत, अपने जुनून, अपनी मेहनत, अपनी साधना से हासिल करें ताकि ग़ज़ल भी अदब के बाज़ार में इठलाती हुई चल सके और ख़ाकसार को अपने दिल पे ग़ज़ल की पीड़ा का टनों बोझ लेकर किसी शाइर को जो तथाकथित ग़ज़लकार कहना पड़ता है वो फिर से ना कहना पड़े ! आख़िर में तश्ना कानपुरी के इसी मतले के साथ इजाज़त चाहता हूँ ...

एक भी  शे’र अगर हो जाए !

अपने होने की ख़बर हो जाए !!

आमीन..!






(लेखक परिचय 
जन्म: 15 अगस्त 1972, हनुमान गढ़ (राजस्थान)
शिक्षा: विद्युत् इंजीनियरिंग में स्नातक एवं एमबीए
सृजन:
गत पंद्रह  वर्षों से शायरी पर लेखन. दोहा  लेखन भी ...
           विभिन्न अखबारात के लिए साप्ताहिक कॉलम
सम्प्रति:
सीमा सुरक्षा बल में सहायक कमांडेंट ( विद्युत् ), बीकानेर
संपर्क:  vijendra.vijen@gmail.com )



हुगली किनारे विवेक का आनंद

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फोटो:संदीप नाग
 
 
 
बेलुर मठ का रंग अजूबा 

सैयद शहरोज़ कमरकी क़लम से

हुगली में सूरज डूब रहा है। उसकी ज़र्दी  ने स्नेहा  चौधरी की सांवली  रंगत को और  सुनहरा बना  दिया है। स्नेहा स्वामी विवेकानंद के कमरे के सामने ध्यान मग्न है। यह ज़र्दी उनके बिस्तर की चादर पर भी पसरी है। सिरहाने तकिये के सहारे टिकी स्वामी की तस्वीर को टुक देखती स्नेहा की श्रद्धा और उल्लास को दायें-बांये गुलदान में सजे ताज़ा फूल मोअत्तर कर देते हैं। यह खुशबू दुनिया के सारे युवाओं को यहाँ खींच लाती है। स्नेहा गुहावटी से हैं। डॉ कविता और दिनेश वर्मा देहरादून से आये हैं। वहीँ एनिमेशन फ़िल्म बनाने वाले अबीर धनबाद से।

इस भवन में सदी के महापुरुष स्वामी विवेकानंद 1898 से अपनी अंतिम समाधि 4 जुलाई 1902 तक रहे। भवन के सामने आम्र-वृक्ष के नीचे आगंतुकों से मिलते थे।  महज़ एक खाट  ही उनका आसन  होता था। इस पेड़ को अभी ईंट के तीन स्तंभ ने संभाले रखा है। यह दरख्त तुरंत युवा नरेन के विशाल व्यक्तित्व की तरह  उभरता है। और विश्व के युवाओं को अच्छादित कर देता है। जबकि यह तीन पिलर स्वामी के परिवर्तन कारी  विचारों को रौशन। इसकी दमक बेल्लुर मठ द्वार खुलने के इंतज़ार में खड़ी नौजवानों की असंख्य भीड़ में साफ़ दीखती है। उठो, जागो और तब तक रुको नहीं, जब तक तुम्हीं मजिल न मिल जाए। उनके इसी त्रिदृष्टि ने देस-दुनिया के युवाओं के चेहरे-मोहरे बदल दिए।
 
स्नेहा दिल्ली विवि से मॉस कॉम कर रही हैं, उन्हें स्वामी जी का यह कथन हर समय प्रेरित करता है,अपने आप में विशवास करो, जो खुद को नहीं जानता वो ही नास्तिक है।
डॉ कविता दून में मेडिकल प्रैक्टिस करती हैं, कहती हैं, विवेकानंद कहते थे: असफलताओं की चिंता मत करो।यह होना है, लेकिन जीवन का सौन्दर्य यही तो है। स्वामी के हवाले से बोलती हैं, जीवन में संघर्ष नहीं तो बेकार है। कामयाबी तभी मिलती है। इसी सूत्र ने विपरीत हालातों में भी उन्हें हतोत्साहित नहीं किया। उनकी पढाई के सामने आर्थिक  अडचनें पार होती गयीं। वहीँ, धनबाद के अबीर कहते हैं, उन्होंने स्वामी की एक बात गांठ बाँध ली है। वो कभी कमजोरी की चिंता नहीं करते। हमेशा शक्ति का विचार करते हैं। 
उत्सव सेनगुप्ता खड़गपुर से आये हैं। रामकृष्ण परमहंस के प्राचीन मंदिर की सीढियां उतरते हुए, उनके पग में विश्वस्त तेज है। इस मंदिर में परमहंस ने 1899 तक पूजा की। यहीं शारदा देवी और विवेकानंद ने भी धुनी रमाई थी। उत्सव विवेकानंद को दोहराते हैं, स्नायु को मज़बूत बनाओ। अपने पैर पर खड़े होने में ही कल्याण है।
हुगली किनारे दो नाव आकर रूकती है। वहीँ मुख्य द्वार से फिर एक रेला अध्यात्म की चाह में मठ परिसर में प्रवेश करता है। यह लहर सिर्फ हुगली की नहीं है, न ही महज़ धर्म का प्रवाह है। यहाँ आने वाले गुरु-शिष्य परम्परा के एतिहासिक उदाहरण को नमन करने आये हैं।  मुख्य मठ में पूजा शुरू हो गयी है। सुबह पहली पूजा में स्थानीय भक्त होते हैं। लेकिन अब तो पंजाब, बिहार और केरल के लोग भी हैं। इससे पहले माँ शारदा और ओम के मंदिर में मत्था टेकना श्रद्धालु नहीं भूलते। 
मोनिशा मंडल, बीए को गिला है कि  युवाओ के आदर्श विवेकानंद को समुचित ढंग से न समझा गया, न ही प्रचारित किया गया। उन्होंने कहा कि स्वामी ने दलित संस्कृति-समाज को अहमियत दी। वे हर चीज़ को तर्क की कसौटी से परखते थे। मोनिशा भी मिथ्या आचरणों और आडम्बरों का विरोध करती हैं। आसनसोल की शर्मिष्ठा घोष बीकॉम में हैं। उनके लिए विवेकानंद रोल मोडल हैं। कहती हैं, करो अपने मन की। अपनी इच्छा की। शनिवार की सुबह यहाँ स्कूली बच्चों का जमावडा  होगा। परिसर के अन्दर सड़कों की मरम्मत की जा रही है। संग्रहालय के बाहर इसके सबब भीड़ है। रांची के ऋषभ को किसी तरह जगह मिल गयी है। वो हर वर्ष यहाँ आते हैं। उन्होंने विवेकानंद को पढ़ा ही नहीं, गुना भी है। इसका प्रभाव उनकी शिष्टता में साफ़ झिलमिलाता है। बी-टेक के छात्र ऋषभ आनंद को स्वामी का विदेश में दिया पहला व्याख्यान शब्दश: याद है। प्रियंका शाह भी बी-टेक कर रही हैं। सिलीगुड़ी में रहती हैं। उन्हें स्वामी जी की गुरु निष्ठा यहाँ खींच लाती है। उन्हीं के शहर के नावेशेंदु पाल ने कुछ साहित्य खरीदा है। कहते हैं कि देश को जानने के लिए ज़रूरी है। (बेलुर मठ से )

युवा दिवस पर दैनिक भास्कर के सभी संस्करणों में प्रकाशित 12.01.13


आओ! आज नई कविता लिखें

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 मानसी मिश्राकी क़लम से


1.
आओ!
आज नई कविता लिखें
सूरज चाँद की उपमाओं से परे
जो नाचे भूख की परिधि पर
गोलगोल घूमकर केंद्र पर आये
अर्धवृत्ताकार चेहरों को घूरे
उन्हें चिढाये, मुह बिचकाए।

एक रात जागी कविता नहीं
नींद में चलती कविता लिखें.

न हो लघु- दीर्घ संधियाँ तो क्या
अलंकारों को भरमाये, लजाये।

नदी संग बहती कविता नहीं
समंदर पर तैरती कविता लिखें
आओ!
आज नयी कविता लिखें.

2.


ज़िन्दगी
तू एक अदालत
मैं मुवक्किल
कितने बरस हो गए
एक मुक़दमा डाला था।
तू देती है
तारीख पर तारीख
नहीं होती सुनवाई
कब तक इन्साफ की बाट जोहूँ
तूने तराजू में लटका दिया है
एक तरफ मेरा दिल
दूसरे में दो आँखे
दिल भारी पड़ता है
तो आँखे भर आती हैं
आँखे रिसती हैं तो
दिल मचल पड़ता है.. और
तू कानून का हवाला देकर
फिर लौटा देती है खाली हाथ।

3.

तुम देखना एक दिन..
जब सारी रवायतें दम तोड़ देंगी
तो ! जी उठेगा प्यार
और जी उठेंगे हम-तुम
जी उठेंगे वो, जिन्हें
जबरन सुला दिया है।
न पत्थर मुंह चिढ़ायेंगे
न इंसान पथरायेंगे
न ज़िन्दगी सुनसान होगी
न मौत आसान होगी
बस आसान होगा सांस लेना
खुलकर हँसना, हँसते जाना
रूठना-मनाना, मुस्कराना
..और चलते जाना।

4.
तुम्हारी क़लम
मेरा नाम
न लिख सकी
तो क्या!!..
तुम्हारा नाम
शुरू मुझसे
ख़त्म
मुझसे है।

क्यूँ लगता है
तुम्हारे अल्फाजो में
ज़िक्र मेरा है
तुम्हारे लहजे में
रंग मेरा है..
तुम्हारे लफ्जों में
हैं मानी ज़िन्दगी के।

तुम जिंदा शायर हो
मेरे ज़ेहन में सही
ज़िंदा हो मुझमे.
मेरी ज़िन्दगी तक.

5.

मेरी लड़ाई किसके खिलाफ है
आधी रात के सन्नाटे
या मुर्दा सपनो से।
जिंदा चेहरों से है या
मेरे ही अपनों से।
फिर लगा शायद लड़ाई
ज़ंग लगी दीवार से है
धोखे या प्यार से है
या उन पहरों से है
जहां घुटी है मुस्कान
जैसे शीशे का मकान
लड़ाई, तुमसे भी तो है
इन आँखों की नमी से ...
तुम्हारी हरेक कमी से .
हाँ, मानती हूँ मैं कि..
बस खुद से लड़ नहीं पाई
तभी किसी मोर्चे पर
जमकर अड़ नहीं पाई।


6.

दफ़न आवाज़ और,
दिल की घुटन से पैदा शोर
मैं ही तो हूँ!
दिल, दिमाग और,
हर पल तुम्हारे चारों ओर,
मैं ही तो हूँ !
जगा ख्वाब और,
भीगी भीगी पलकों की कोर,
मैं ही तो हूँ!
घना जंगल और,
अपनी धुन में नाचता मोर,
मैं ही तो हूँ!
ये सुर्ख चेहरा और,
तुम्हारी रग-रग, पोर-पोर,
मैं ही तो हूँ!!

7.
..अकेला प्रेम।।
इन दिनों,
एक फुफकारते नाग सा
मणि तलाश रहा है
जिसे वो
एक अप्सरा के माथे पर
जड़कर भूला था,
आजकल
वो टटोलता है
हर माथा,
खोजता है वही
चमकदार
अनमोल मणि
कभी
ज्ञान के सम्मोहन से
कभी रूप
कभी बुद्धि से
कभी अनजान
कभी दीवाना बनके
लगाता है हज़ार बोलियाँ
पहुंचता है
औरतों के माथे तक
अफ़सोस....
ये वो अप्सरा नहीं
जो माथे पर
प्रेममणि मढ़कर
भाग रही है
खुद को बचाने के लिए
बाज़ार के जौहरियों से.....
औरत जात जो ठहरी।।।
(अकेला प्रेम।।। ....सौ बोलियाँ।।।। ...हज़ार तराजू ।।।)

अंदाज़ शायराना ज़रा-ज़रा

मैंने दर्द लिखना चाहा

सामने उबलती नदी आ गयी।
याद लिख्जने लगे, तो उसका पानी

आन्क्ल्हों में छल-छल करने लगा।
जबकि दिल सहरा ही रहा!
.....
मैं  ख्याल बनकर तेरे ज़ेहन में चस्पाँ हूँ

खुरदुरी सतह पे कभी इश्तहार नहीं लगते!
.....

रोज़ आते हो तुम यादों का तलातुम लेकर
आंसुओं के बाँध से टकराकर चले जाते हो!
साथ बैठो तो कभी, कि समझौता  करें
रोज़ के खेल से तुम कैसे बहल जाते हो!
.......



नैनों के बाँध बड़े कच्चे
दो पल में ढलने वाले हैं।
आओ पहलू में बैठो तुम
हम कुछ तो कहने  वाले हैं!
......
फिर रात की रानी महकी है।
कोई आग पुरानी दहकी है।
कुछ आज तो खुल कर बोलेंगे
जो गुमसुम रहने वाले हैं।
हर एक सलीक़ा छोडो भी
बातों का रुख मोड़ो भी
बस आंसू बहने वाले हैं!



(कवि-परिचय:
जन्म: 31 मार्च को कानपुर में।
शिक्षा: प्रारम्भिक पढ़ाई घाटमपुर कस्बे से। स्त्री-अध्ययन में स्नातकोत्तर, लखनऊ विवि से।
           मॉस कॉम भी।
सृजन: अखबारों के लिए प्रचुर लिखा। कई विशेष रपट के लिए मिली पहचान।
सम्प्रति: दैनिक हिन्दुस्तान के मेरठ संस्करण में। 
संपर्क:mansimeets@rediffmail.com)












खनकती हुई धूप में, जहाँ दिल है मेरा

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पंखुरीसिन्हाकी क़लम से

आख़िरी अट्टहास 


अबवहआगेबैठी,
टेलीविज़नके,
हँसरहीहै,
एकहँसी,
एकबेहदराजनीतिकहँसी,
करतीहुईदिनकाहिसाब,
जैसेलिखतीहुईउसपरअपनानाम,
हंसतीहुईदिनकाआखिरीअट्टहास,
दिनकीआखिरीहंसी,
हरदिनहोजैसेउठापटक,
हरदिनएकअभियान,
नहींहोकोईसम्मिलितहंसी,
कोईसचमुचसाथकाठहाका,
औरउसेइज़ाज़तनहींलेनीहो,
बैठकरटेलीविज़नकेआगेराजनीतीकरनेकेलिए,
किसीसे,
होंउसकेकुछबहुतपैत्रिकअधिकार,
उसपितृसत्तामें,
जिसमेकार्यरतवह,
जिसकाहिस्सावह,
इज़ाज़तनहींलेनीहोउसे,
किसीसे,
राजनीतीकरनेकेलिए,
टेलीविज़नकेआगे,
घरमेंकामकरनेवाली,
नौकरानीकीतरह,
जोबैठतीहैघंटों,
टेलीविज़नकेआगे,
औरउठनहींपाती,
नहींकहती,
मालिककेदिएखालीसमयको,
औरलोगभीनहींकहते,
लेनेवाले,
देनेवाले,
रिश्वतखानेवाले,
खिलानेवाले,
औरवोजिनसेलेलियाजाताहै,
बहुतकुछ,
दरकिनारकरहकउनका,
औरवोनहींकहपाते,
पताभीनहींहोताउन्हें,
उनकेहकदरकिनारकरदिएजाएहैं,
सिरकीएकहामीकेसाथ,
मीठीमुस्कुराहटोंकेसाथ,
बातोंकेबीच, ठहाकोंकेबीच।
 
 
चौराहा

उस
खनकतीहुईधूपमें,
जहाँदिलहैमेरा,
औरजख्मीभी,
इतनानिरंतरहैवारउनका,
सबका, हरकिसीका,
चौराहाइतनाखूबसूरत,
किजानदीजासकतीथी,
अबभीदीजासकतीहै,
अगरयहीमंज़ूरतुम्हे,
अगरजानहीमेरीचाहतेहोतुम,
तोउसचौराहेपेमारनामुझे,
मेरेघरसेनिकलकर,
पड़नेवालीपहलीलालबत्तीकाचौराहा,
सबकुछशुरूहोताहैवहांसे।

मेरी पश्तो

मुझे तो बिल्कुल नहीं आती पश्तो,
न डोगरी, न कुमाऊँनी,
न गढ़वाली,
मुझे तो बिल्कुल नहीं आता,
पहाड़ चढ़ना,
कोई इल्म नहीं मुझे ढलान का भी,
न गुफाओं का, न कन्दराओं का,
वो लोग जो पाठ्यक्रम से ज्यादा जानते हों,
हिन्दुकुश और काराकोरम का भूगोल,
वो बता सकते हैं, खैबर और गोलन के रास्ते,
ऊंचाई कंचनजंघा की, शिवालिक की तराईयाँ,
और बता सकते हैं, एक से दूसरी जगह पहुँचने के तरीके,
उस एक से दूसरी जगह,
जिनके बीच सरहद पड़ती हो।

सियासी एक आवाज़

सियासी एक आवाज़
अगर आपसे ऐसी कुछ मांगें करती हो,
कि क़त्ल करना पड़े,
आपको अपना हर प्रेमी,
हर प्रेम,
और प्रेमी के होने का हर मंसूबा,
कुछ ऐसे नामांकन हों,
आपका प्रेमी बनते ही,
गुप्तचर सेवा में उसका,
आप ही पर नज़र रखने के लिए,
बताने के लिए तमाम घरेलू आदतें आपकी,
तो कैसे मुखातिब हुआ जाये,
इस सियासत से?
कब और कहाँ?
कैसे पेश की जाये बात अपनी?

(परिचय:
जन्म:18 जून 1975
शिक्षा:एमए, इतिहास, सनी बफैलो, पीजी डिप्लोमा, पत्रकारिता, पुणे, बीए, हानर्स, इतिहास,   इन्द्रप्रस्थ कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
अध्यवसाय:  कुछ वर्ष प्रिंट व टीवी पत्रकारिता
सृजन: हंस, वागर्थ, पहल, नया ज्ञानोदय, कथादेश, कथाक्रम, वसुधा, साक्षात्कार, आदि पत्र-पत्रिकाओं और वेब पोर्टल में रचनायें।
'कोई भी दिन' और 'क़िस्सा-ए-कोहिनूर', कहानी-संग्रह, ज्ञानपीठ से प्रकाशित। कविता-संग्रह 'ककहरा', शीघ्र प्रकाश्य,
सम्मान: 'कोई भी दिन', को 2007 का चित्रा कुमार शैलेश मटियानी सम्मान, 'कोबरा: गॉड ऐट मर्सी', डाक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लेखन, जिसे 1998-99 के यूजीसी, फिल्म महोत्सव में, सर्वश्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला। 'एक नया मौन, एक नया उद्घोष', कविता पर,1995 का गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार के अलावा 1993 में, कक्षा बारहवीं में, हिंदी में सर्वोच्च अंक पाने के लिए, भारत गौरव सम्मान.
सम्प्रति:‘डिअर सुज़ाना’ शीर्षक कविता-संग्रह के साथ, अंग्रेज़ी तथा हिंदी में, कई कविताओं पर काम, न्यू यॉर्क स्थित, व्हाइट पाइन प्रेस की 2013 कविता प्रतियोगिता के लिए, 'प्रिजन टॉकीज़',
शीर्षक पाण्डुलिपि प्रेषित, पत्रकारिता सम्बन्धी कई किताबों पर काम।
संपर्क:
sinhapankhuri412@yahoo.ca)




 
 
 

जगन्नाथ ने लिखा था पाक का पहला क़ौमी तराना

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जगन्नाथ आज़ाद (5दिसंबर 1918-24 जुलाई 2004)

 

 

 

 

 

 

 

जिन्ना की ख्वाहिश 

पर लिखा 

 

हुसैन कच्छीकी क़लम से

वर्ष 2004 में उर्दू के मशहूर शायर जगन्नाथ आज़ाद के इंतक़ाल के बाद हिंदुस्तान और पाकिस्तान के साहित्यिक जगत में एक नयी बहस का आगाज़  हुआ कि दिवंगत शायर ने पाकिस्तान का पहला क़ौमी  तराना (राष्ट्र गीत) लिखा था।  तराना उन्होंने क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना की ख्वाहिश पर लिखा था। 24 जुलाई, 2004 को जगन्नाथ आज़ाद  की मौत हुई। उसके  बाद उनकी जिंदगी में किया गया एक इंटरव्यू सामने आया, तो यह बात जाहिर हुई. उस वक्त तक बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी थी.
आजाद कहते हैं कि जब पूरा उपमहाद्वीप बंटवारे से पहले की फसाद की लपेट में था, मैं लाहौर में रहता था और एक साहित्यिक पत्रिका से जुड़ा था. मेरे तमाम रिश्तेदार हिंदुस्तान जा चुके थे, मेरे लिए लाहौर छोड़ना बहुत तकलीफ देनेवाली बात थी. लिहाजा, मैंने लाहौर में ही ठहरने का फैसला किया.
दोस्तों ने मेरी हिफाजत का जिम्मा लेते हुए मुझे पर लाहौर में ही रहने के लिए जोर दिया. नौ अगस्त,1947 की सुबह रेडियो लाहौर में काम करनेवाले मेरे एक दोस्त ने मुझे तक यह पैगाम पहुंचाया कि कायदे आजम चाहते हैं कि पाकिस्तान का कौमी तराना उर्दू का बड़ा जानकार कोई हिंदू लिखे और इसके लिए उन्होंने आपका नाम तय किया है.

मुझे इतनी जल्द यह काम करना मुश्किल लगा, तो मेरे दोस्त ने मुझे कायल रहने के लिए कहा कि यह प्रस्ताव मुल्क की सबसे बड़ी शख्सीयत की जानिब से है, इसलिए इनकार न करें.
मैंने हामी भर ली. हालांकि, मैंने यह भी कहा कि इस वक्त लाहौर में मौलाना ताजवर नजीबाबादी, सैयद आबिद अली आबिद, सूफी गुलाम मुस्तफा तबस्सुम, अब्दुल मजीद सालिक, हफीज जालंधरी जैसी बड़ी हस्तियों सहित फैज अहमद फैज जैसे मुझसे सीनियर शायर हजरात की मौजूदगी में यह तराना मुझसे ही क्यों लिखवाना चाहते हैं, तो उन्होंने बताया कि कायदे आजम की यही ख्वाहिश है.
खैर, मैंने कम वक्त में एक तराना लिख कर उनके हवाले करके जिन्ना साहब की खिदमत में रवाना कर दिया, जिन्होंने उसे पसंद करके अपनी मंजूरी दे दी. इसे पहली बार रेडियो पाकिस्तान कराची में गाया गया, जो उन दिनों देश की राजधानी थी.
मैं बंटवारे के दिनों में लाहौर में ही था कि पंजाब के दोनों हिस्सों में हालात हद से ज्यादा खराब होते चले गये. मेरे दोस्तों ने मन के साथ मुझसे दरख्वास्त की कि अब मुझे हिंदुस्तान हिजरत कर जाना चाहिए, क्योंकि इन हालात में मेरी हिफाजत में वे असमर्थ महसूस कर रहे हैं. दोस्तों के मशविरे पर मैंने अमल किया और हिंदुस्तान चला आया!
जो तराना आजाद ने तैयार किया था, वह डेढ़ बरस तक पाकिस्तान के कौमी तराने के तौर पर प्रसारित होता रहा. कुछ लोगों का कहना है कि यही तराना 1954 तक इस्तेमाल में रहा, बाद में हफीज जालंधरी का तराना मंजूर होकर पाकिस्तान का कौमी तराना बन गया.
जिन्ना के इंतकाल के बाद से ही एक नये तराने की तहरीक शुरू हुई और अनेक शायरों के तरानों को जांचने परखने के बाद आखिर 1954 में हफीज जालंधरी का तराना मंजूर किया गया, जो अब पाकिस्तान का कौमी तराना है. जगन्नाथ आजाद और उनके तराने के समर्थन में 13 अगस्त, 2006 को पाकिस्तान के अंगरेजी अखबार डान (DAWN) में यौमे आजादी के एक दिन पहले मेहरीन एफ अली का लेख A Tune to die for शीर्षक से छपा था.
अपने लेख में मेहरीन लिखती हैं कि आजादी के पांच दिन पहले कायदे आजम ने लाहौर में रह रहे जगन्नाथ आजाद नाम के हिंदू जो उर्दू के शायर थे, को पाकिस्तान का कौमी तराना लिखने का प्रस्ताव दिया था और जो कायदे आजम की मंजूरी के बाद रेडियो पाकिस्तान से प्रसारित होता रहा.
तीन मई, 2009 को पाकिस्तान के एक दानिश्वर जहीर किदवई ने Wind mills नामी अपनी वेबसाइट में दर्ज किया कि आजादी के वक्त उनकी उम्र सात बरस की थी और उन्हें रेडियो पाकिस्तान से जगन्नाथ आजाद का लिखा तराना सुना जाना याद है. जहीर किदवई को तराने में शुरू की लाइनें ही याद हैं.
पांच जून को आदिल अंजुम ने अपनी वेबसाइट pakistaniat.comपर ब्लॉग कर इस विषय पर तफसील से लिखा है. आदिल अंजुम ने जगन्नाथ की जिंदगी पर रोशनी डाली है. ब्लॉग में जगन्नाथ की आवाज की रिकॉर्डिंग को शामिल करने से आदिल अंजुम की वेबसाइट को बहुत शोहरत मिली और फिर पाकिस्तान की सरकारी एयरलाइन पीआइए की मैगजान (पत्रिका) ‘हमसफर’ - (जुलाई-अगस्त 2009) में खुशबू अजीज का एक रिपोर्टनुमा लेख pride of pakistan छपा, जिसमें खुशबू ने इतिहास में कहीं गुम हो रहे इस वाकया को उजागर किया है.
हमसफर का यह अंक लाहौर-कराची उड़ान के दौरान जानी-मानी महिला पत्रकार बीना सरवर की नजर से गुजरा, जिन्होंने अखबार डान सहित दूसरी वेबसाइटों पर अपने ब्लॉग में आजाद के तराने को पाकिस्तान का पहला कौमी तराना बताया. अखबार डान में Archive में जाकर 19 सितंबर, 2009 को छपे उनके लेख Another Time Another Anthem को देख लीजिए.


ऐ सर ज़मीन-ए-पाक  

ज़र्रे-ज़र्रे  हैं आज सितारे से ताबनाक 

रौशन है कहकशां से कहीं आज तेरी ख़ाक 

तुन्दीये हासिदां पे है ग़ालिब तेरा सिवाक
दामन वो सिलगया हैं जो था मुद्दतों से चाक

ऐ सर ज़मीन-ए-पाक  
अब अपने अज्म को है नया रास्ता पसंद
अपना वतन हैं आज जमाने में सरबुलंद
पहुंचा सकेगा इसको न कोई भी अब गजंद
अब हमको देखते हैं अतारो यो या समाक

ऐ सर ज़मीन-ए-पाक  
उतरा है इम्तिहां में वतन आज, कामयाब
अब हुर्रियत की जुल्फ नहीं महवे पेचो ताब
दौलत है अपने मुल्क की बेहद्दों बेहिसाब
मगरिब से हमको खौफ न मशरिक से हमको बाक

ऐ सर ज़मीन-ए-पाक  
अपने वतन का आज बदलने लगा निजाम
अपने वतन में आज नहीं है कोई गुलाम
अपना वतन है राहे तरक्की पे तेजगाम
अब इत्र बेज हैं हवाएं थीं जहरनाक

((प्रभात ख़बर  के लिए लिखा गया))

(लेखक-परिचय:
जन्म: 19 जुलाई 1949, झारखंड के रांची में
ज्ञान: उर्दू, हिंदी, अरबी, फ़ारसी और अंग्रेजी ज़बानों के अलावा अदब इतिहास, संस्कृति के जानकार
सृजन: पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर कविता, व्यंग्य प्रकाशित। साथ ही खोजी रपट
संपर्क: +919334420618 )
 

 

 

 


आँखों में कोई अश्क न मुझमे लहू बचा .....

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अजय पांडेय 'सहाब'की क़लम से 

1.


कुछ चीखती उदास सी शामों को छोड़कर 
वो चल दिया कहीं सभी रिश्तों को तोड़कर 

सब कुछ बिखर गया मेरा उसके फ़िराक में 
वो जो चला गया मुझे रखता था जोड़कर 

मिल भी गया तो देखिये ,चेहरा घुमा लिया 
इक वक़्त था कि वो मुझे मिलता था दौड़कर 

आँखों में कोई अश्क न मुझमे लहू बचा 
रक्खा है तेरे दर्द ने ऐसा  निचोड़ कर 

ले दे के उसका खाब ही मेरा था पर 'सहाब '
दुनिया ने क्यूँ जगा  दिया  मुझको  झिंझोड़  कर 

2.

जिसे लिखता है तू वो ही तेरा किस्सा नहीं होता 
जो अपना है वही अक्सर यहाँ अपना नहीं होता 

कहीं चेहरा तो मिलता है मगर शीशा नहीं होता 
कहीं आइना होता है मगर  चेहरा नहीं होता 

मुहब्बत की न हो बुनियाद  तो रिश्ते  बनाएं क्यूँ 
फ़क़त बरगद उगा लेने ही से साया नहीं होता 

फ़क़त इंसान ही इन्सां  नहीं बनता ज़माने में 
वगरना आज की दुनिया में देखो क्या नहीं होता 

करे तश्हीर वो जितनी  मचाले शोरो गुल जितना 
कोई क़तरा कभी फैलाव में दरिया नहीं होता

कई आंसू यहाँ चुपचाप  बह  जाते हैं  अनदेखे
हरिक आंसू की ख़ातिर  दोस्त  का कन्धा नहीं होता

वो सब कुछ देख कर और सोचकर कुछ फैसला करता 
अगर मज़हब न होता तो बशर  अँधा नहीं होता 

3.

 मुझे मौजू'अ ग़ज़लों का, गमे  दुनिया से मिलता है
ये है वो आब जो मुझको इसी सहरा से मिलता है 

जहाँ का दर्द मिल जाता है मेरे शेर में जैसे 
फ़ना होकर कोई कतरा किसी दरिया से मिलता है 

जहाँ के तजरुबे ही हैं  हमारे इल्म के मकतब 
कहाँ ये इल्म हमको सोह्बते दाना  से मिलता है 

ज़मीं  पर हिन्दू ओ मुस्लिम झिझकते होंगे मिलने से
मगर जन्नत में मेरा राम तो  अल्ला से मिलता है 

वही गद्दार मेरे मुल्क का रहबर न बन जाए 
जो हर इक रोज़ जाकर लश्करे आदा से मिलता है ..

वो तो यादें तुम्हारी हैं जो मिलने आ ही जाती हैं 
वगरना कौन अब मेरे दिले तनहा से मिलता है 

मिरे  नज़दीक क्यूँ हो फर्क भी हिन्दू में मुस्लिम में ?
मिरे  मंदिर का हर रस्ता,रहे काबा से मिलता है 

अगर अशआर  अच्छे हैं तो है तनक़ीद भी उतनी 
कहाँ एजाज़  ऐसे पुर हसद उदबा  से मिलता है

(मौजू'अ=विषय, मकतब=पाठशाला 
सोह्बते दाना=विद्वानों की संगत,.लश्करेआदा=दुश्मनसेना 
एजाज़=सम्मान, पुरहसद=इर्ष्यासे भरे, उदबा=विद्वान समूह)

4.

ज़ात के नाम पे बंटना नहीं देखा जाता 

हमसे नफरत का ये धंदा नहीं देखा जाता 


जिनकी हर सोच ही जुगनू में सिमट आई है 

उनसे सूरज का उजाला नहीं देखा जाता 


जिसको कुत्ते भी न खाएं उसी रोटी के लिए 

भूके बच्चे का बिलकना नहीं देखा जाता 


मेरे मौला मिरी आँखों को तू पत्थर कर दे 

मुझसे ये खून ये दंगा नहीं देखा जाता 


हमने बस प्यास में काटे हैं ज़माने लेकिन 


हमसे इक शख्स भी प्यासा नहीं देखा जाता 


जो बदलना है बदल डाल तू रहबर लेकिन 

हमसे हर वक़्त का नारा नहीं देखा जाता 


दर्द इतना है दिया उसके बिछड़ने ने मुझे 

मुझसे कोई यहाँ बिछड़ा ,नहीं देखा जाता 


कितना धुन्दला है सियासत का ये दरपन यारो 

दिल में गैरत हो तो चेहरा नहीं देखा जाता 


थोड़ी आजादी तो इन्सां को दो मज़हब वालों 

अब ये हर बात पे फतवा नहीं देखा जाता 


तंग  
तशरीह   के खूँरेज़ अंधेरों में 'सहाब '

हमसे मज़हब का सिमटना नहीं देखा जाता





 (परिचय:
जन्म: रायगढ़( छत्तीसगढ़ ) में 23 अप्रेल 1972 को
शिक्षा: रसायन विज्ञानं में स्नातकोत्तर और मास कॉम
सृजन: पहला अल्बम, वन्स मोर . अंतिम अल्बम : रोमानियत
पंकज उदास, शिशिर, चन्दन दास,  सुदीप बनर्जी, गुलाम अब्बास खान और गुरमीत ने गजलों को स्वर दिया है। मरहूम जगजीत सिंह ने भी एक ग़ज़ल को अपनी धुन में पिरोया था लेकिन आकस्मिक निधन से वो अल्बम नहीं आ पाया।
उर्दू व हिंदी के कई पत्र-पत्रिकाओं  में प्रकाशन, उर्दू में मज्मुआ कहकशाँ शीघ्र प्रकाश्य 
कुछ फिल्म के लिए गीत। फिल्म स्केपगोट  का लिखा गाना वाह रे दुन्या, शिकागो फिल्म फेस्ट के नामांकित।
सम्प्रति:मुंबई में स्पेशल एक्साइज़ कमिश्नर
सम्मान: साहित्य के लिए नेशनल स्माइल अवार्ड, उर्दू अदब के लिए 2013 का साहिर लुधियानवी अवार्ड
संपर्क: ajay.spandan@gmail.com )






हवा में उड़ते खुश्क ज़र्द पत्ते की तरह

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ख़ालिद ए ख़ान  की क़लम से 

यूँ ही आई तुम
हमेशा की तरह
हवा में उड़ते
खुश्क ज़र्द पत्ते की  तरह
अनायास !

ओठों पर वही
बेतरतीब सी ठहरी हंसी
कुछ दरकी हुई 
नामालूम सी उलझी आँखे !
 
तुम्हारे आने ने
चौकाया
मुझे
पहले की तरह !
 
आते ही उलझ जाना
तुम्हारा कमरे से
और बासी फूल
में खुशबु ढूंढने की
नाकाम सी कोशिश
कितनी खीज
पैदा करती है !
 
एक सिरे से छूती हुई
मुक्तिबोध,,नरूदा   अलोक धन्‍वा,शमशेर
पाश,ग़ालिब,
मीर,पर रूकी
तुम्हारी उंगलियां !
ना जाने कितना वक़्त
बह गया
अब तक
मैं पकड़ न सका !
 
और फिर
हौले से बैठ
जाना पायताने
तुम्हारा !
 
तुम्हारी
गहरी उजली बेबाक
आँखों के किनारे
बैठा मैं !

देख रहा हूँ
लहरों की
सूरज को डुबोने  की
जिद को
खामोशी से !
 
 
 मैं
गुमनाम सफ़ीने सा
भटक जाता हूँ
तुममे ही  कही !
 
तुमने रेत पर लिखा
कुछ
अपनी उंगलियों से
लहरों ने आगोश में ले लिया
मैं पढ़ न सका !
 
कुछ कहा भी
पर हवा ने
चुरा लिया कि
एक हर्फ़ भी ना
आया हाथ
 
हमारे बीच की ज़मीं सिमट गई खुद में
और रात ने लपेट लिया  एक ही चादर में हमें !

उफ़ ये
तुम्हरी साँसों
की तपिश में
 
मेरा जिस्म
बर्फ की  मानिंद 
पिघल रहा  है
 
 
तुम्हारी लहरें
किनारों की तरह
काट रही है मुझे
मैं रेत की  तरह
घुल रहा हूँ तुममे !
 
तुम्हारी
ठहरी साफ़ आँखें
जहां छोड़ आया था
अपना गाँव
अपने खेत
अपने जंगल

और
वो काली पंतग
जो लटकी है अभी भी
उस बरगद की टहनी पर 
जहाँ  अब भी 
नहीं पहुचते मेरे हाथ !
 
क्या
खेत वही है
अब भी
जहा
धान की रुपाई करती
आधी भीगी हुई
 औरतें  गीत गाती थी
जो समझ में
ना आने पर भी
कितना  मीठा
लगता था !
 
क्या
दीखते है  जंगल
पहली बारिश में नहाये हुये
तुम्हारी आँखों में
वैसे अब भी हैं !
 
ये दम तोडती
ख़ामोशी तुम्‍हारी
ये तुम्‍हारा
अजनबीपन
और बेवजह छोड़कर जाना
कितने सवाल छोड़ जाता है
पीछे
और छोड़ जाता
घना निर्वात !


उनके खाली बजते पेटो को
 भर दिया गया
दुनिया के सबसे  महगे लोहे से 
उनका रक्त बहा दिया गया
उस जमीन पर 
जिसे उन्होंने  
प्यार किया था

उन्होंने  
प्यार किया था

जंगल को जंगल की  तरह 
पड़ों को पड़ों की  तरह
नदियों को नदियों की  तरह
पहाड़ों को पहाड़ों की तरह
उन्होंने  प्यार किया था
जिसे खुद से भी ज़्यादा
जब सरकारी बूट
जंगल को नंगा करके
कर रहे थे उसका बलत्कार
तो तुमने भी
अपने कपडे उतर दिए
तुम ऐसे  चीखी
जैसे उस रात चीखी थी
जब एक थुथला बुढा शरीर
खुरच रहा था
किसी गाव से खरीदी
गयी बच्ची का शरीर !
थकी हुई रात
सड़क के किनारे
अधेरे में लिपटी देह
 उनकी  सांस के सहारे
उतर जाना तुम्हारा
पक्की ,दुर्गन्ध ,जलते
हुए रक्त की सडन
कारखानों के  धुएं
से भरी  घुप अधेरी  सड़कें पर !

मशीनों,ह्थोड़ो
का बहरा करता शोर
यहां ख्वाब नहीं मिलते
लाख ढूंढने पर भी
बस यंत्र की तरह
लगते हैं
यह जिस्म
जाने कब बदल गए 
हथौडे, बेलचे, मशीन में !

अंधी, बहरी, अभिशिप्त
गलियों में
तुम अषाढ के पानी
की तरह घुसी
और जर्जर दीवारों
पर सीलन की तरह
उभर आई

जहा एक थकी देह
दरवाजा खुलने और बंद
होने के बीच में
कर रही अपनी साँसो को 
व्यवस्थित


उसे देह पर पड़ने
वाले घाव, धक्के
तुम खुद पर झेलती रही 
अनवरत....
देर से लौटी तुम
उजड़ी, बोराई आँखे लिए
कुछ  बडबडाते हुवे 
आई और कुर्सी
पर उकडूँ  बैठ गई
तुम्हारी बड़बड़ाहट
कमरे को हिलाती
इन ऊंची  इमारतो को नचाती
गाव जगलो को बेसुरा करते
खदानों में
बासुरी की तरह
लौट रही थी
अनुतरित
नहीं नहीं
ये कविता नहीं है
ये कविता की भाषा नहीं है
ये भाषा राख की  है
जले हुए  घरौंदों की।
ये भाषा रक्त की  है
खेत में फैले हुये रक्त की।
ये भाषा

हल की भाषा है
जिनकी फसले पकने से पहले
गोदामों में पहुँचा  दी जाती है
ये भाषा थके हुवे हाथो  की  है
जब जाने कब से खाली है
ये भाषा पेटों की है
जिनकी रोटियाँ
हवा में उछाल देते हो
और देखते हो तमाशा
ये भाषा उन अनाम मासूम
बच्चो की है
जिन्हें  तुम गाँव से खरीद
लाते हो और
अजीब-अजीब नामो से
पुकारते हो 
ये भाषा उनकी है
जिसे  तुम्हरे सभ्य समाज
ने  बनाया 
फिर कर दिया बहिष्कृत
ये भाषा उनकी है
जिनके कपडे उतार कर
सजा देते हो महलो की दीवारों पर
ये भाषा उनकी भी है
जिनकी फ़रियाद दब जाती है
मंदिर की घंटियों
मस्जिद की अजानो के शोर में 
ये भाषा उनकी तो है ही
जिनकी चीखो को
फाइलओ में दबा कर
फेक देतो हो
अधेरे  गोदाम में
ये भाषा न
किसी देश
किसी जाति
किसी कौम की है
जानता हूँ
तुम इस भाषा से
डरे और काँपे हुए हो
तुम इस को गुंगा बना देना
चाहते  हो या 
ख़त्म  कर  देना चाहेते हो
पर
ये भाषा
दूब की भाषा है 
जो तुम्हारी
हर तबाही के बाद
बचा लेती है
अपने अन्दर
थोड़ी सी हरितमा
तुम इस भाषा को
मिटा नहीं सकते हो
देख सकते हो
तो देखो
तुम्हारे
महलो, कगुरे.बुर्जो
की दरारों में
ये अब अकार ले रही है

देख सकते हो तो देखो
फैली दूब के नीचे
न जाने  कितने तख़्त
कितने ताज दफन है
देख सकते हो
तो देखो
तुम !

(कवि-परिचय:
जन्म: 13 दिसम्बर 1983 को सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में।
शिक्षा: लखनऊ से वाणिज्य स्नातक। उसके बाद कंप्यूटर डिजाइनिंग का कोर्स किया।
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन
            हमज़बान पर उनकी एक और कविता के लिए क्लिक करें 
सम्प्रति: डाटा गोल्ड में वेब डिजाइनर
संपर्क: khalida.khan2@gmail.com)


कहीं सिर पर सींग तो न उग आए

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आशीष मिश्रा की क़लम से 


हादसों की गूँज में इंसान का मातम


इन हाथों का काम ही क्या है? सुबह उठकर अखबार की पोथी थाम लेते हैं। चश्मा आगे पीछे खिसका कर देखते हैं। कसमसाते हुए पढ़ते हैं,   दिल्ली में बस में रेप कर दिया। दारू के नशे में कहीं नीम की छांहों में पड़ा पुलिसकर्मी भी एक फोटो कैपशन के साथ है। मामा मंत्री ने भांजे को करोड़ की घूस दिला दी। सरकार ने किसी चिट्ठी में व्हाइटनर घिस डाला। मंत्री का बच्चा गुंडागर्दी करते पकड़ा गया। मां के कड़ों के लिए बेटे ने पैर काट डाले। पति ने प्रेमिका के साथ मिलकर बीवी की हत्या कर दी। 55 साल के बुजुर्ग ने बच्ची को फुसलाया। फिर ताली पीटने लगते हैं ये हाथ, ओत्तेरी, गेल ने छक्कों की झड़ी लगा दी? मॉडल ने टॉपलैस शूट कराया? अचानक कुछ होने लगता है। भीतर कुछ बेचैनी सा। विचलित होकर यहां वहां ताकने लगता हूं। घर में सब ठीक है। ऑफिस ठीक चल रहा है। तनख्वाह सही समय पर मिल रही है। किसी का उधार नहीं है। फिर? कुछ तो है कहीं।
अपने सिर, पंजों और पैरों की उंगलियों के पोरे सहलाकर देखता हूं। डर लगा रहता है। इंसान ही हूं ना अभी। कहीं सिर पर सींग तो न उग आए हैं। कहीं उंगलियों के नाखून नुकीले और गोल तो नहीं हो गए हैं। कहीं पैरों की जगह खुर तो नहीं निकल आए हैं। कहीं पशुत्व का कोई बीज तो मुझमें नहीं आ रहा है। कभी कभी सीने पर हाथ रखकर सहलाता हूं। आवाज देता हूं अपने ही भीतर झांक कर-’ओ दिल, ज़िन्दा है ना, ये धड़कन नकली तो नहीं।’ धड़कन का अपना उतार चढाव होता है। डरता हूं ये समतल न हो जाए। कहीं ऐसा न हो कचरे के ढेर पर थैली में लिपटी नवजात बच्ची देखूं और धड़कन की रफ्तार को कोई फर्क ही न पड़े। चार दिन मां से बात न हो और ये उतरे ही ना। किसी गरीब को चिटफंड में लुटता देखकर ये पसीजना तो बंद न कर देगा। कभी कभी दांत भी टटोलता हूं। गौर से देखता हूं। ये सामान्य से ज्यादा तो नहीं बढ़ आए हैं। कहीं इनकी भूख अन्न और जल से ज्यादा तो नहीं हो गई है। कहीं ये लहू तो न मांग बैठेंगे। कहीं किसी स्त्री की देह तो न मांग बैठेंगे। क्या पता। आजकल हम खुदको कहां टटोलते हैं। मोटरसाईकिल पर पीछे बंधे बैग की तरफ बार बार ध्यान जाता है। कहीं रास्ते में गिर न जाए। पर अपने ही तरफ...? कहीं कुछ गिर न जाए। चरित्र या सोच। कहां सोचते हैं हम? सोचने का वक्त भी कहां है। बस, एक निर्मम दौड़ में शामिल हैं। थकना मना है। युवराज ने कहा था। युवराज थका तो सलमान ने कहना आरंभ किया। दौड़ बराबर करनी है। दौड़ नहीं थकनी है। ऐसे में क्या पता। कब अवसर मिले और हम गिर पड़ें। अपने आप में। कब अचानक से मालूम हो कि सिर पर सींग उगे हैं, उंगलियों के आगे गोल और नुकीले नाखून निकले हैं और पैर खुर हो गए हैं। हम तब शायद ये समझें कि ये सब अचानक हुआ। लेकिन अचानक तो कुछ नहीं होता। अच्छा है कुछ होने की नब्ज ली जाए। टटोला जाए। हर वक्त, हर घड़ी। अपने आप को टटोलना अच्छा है।
वरना किसी दिन अखबार में कोई पढ रहा होगा, चिटफंड का फर्जीवाड़ा कर भागी कंपनी, और हम अपना फोन स्विच ऑफ कर कहीं छुपे होंगे। छपा होगा बस में छेड़छाड़ के आरोपी को धरा, और हम भीड़ को सफाई दे रहे होंगे कि गलती से हाथ लग गया। लिखा होगा रिश्वत लेते कर्मचारी रंगे हाथ गिरफ्तार, और हम कह रहे होंगे ये पैसे तो उसने रिश्तेदार के इलाज के लिए दिए थे। जाने क्या क्या लिखा होगा और हम हथकड़ियों, कोर्ट परिसर, थाने या भीड़ न जाने कहां होंगे। अगर अखबार में हमारा जिक्र नहीं, या हम इनमें से किसी जगह नहीं, इसका ये मतलब तो नहीं कि हममें पशुत्व नहीं। हम हंस न रहे हों कि ’मैं पकड़ा नहीं गया।’

(लेखक-परिचय:
जन्म : 10 नवंबर 1982 को राजस्थान में
शिक्षा: एमए हिन्दी एवं राजनीति विज्ञान, बीजेएमसी
सृजन: वर्चुअल संसार में छिटपुट। किसी ब्लॉग पर पहली बार 

सम्प्रति:  पिंकसिटी डॉट कॉम में कंटेंट राइटर
संपर्क: vinaysagar.mishra@gmail.com)

ज्यों मिली आह, वैसे 'वाह' मिले

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धीरेन्द्र सिंह की क़लम से 



मेरी बात की बात कुछ भी नहीं है
कहूँ क्या सवालात कुछ भी नहीं है

तुम्हारी नज़र में ये दुनिया है सब कुछ
हमारे ये हालात कुछ भी नहीं है?

गमे- ज़िन्दगी में अगर तुम जो हो तो
सितारों की सौगात कुछ भी नहीं है

ख़ुशी हो कि गम हो यहाँ एक ही सब
लिखूं क्या ख़यालात कुछ भी नहीं है

सदा खिस्त जैसे हो तुम पेश आये
दिलों के ये जज़्बात कुछ भी नहीं है

कहें भी तो क्या क्या कि क्या हार आये
मिली है जो ये मात कुछ भी नहीं है

गमे- हिज्र इक ज़िन्दगी भर जिया है
जुदाई की ये रात कुछ भी नहीं है


2

सुना है बहुत ये कि मशहूर हो तुम
हो मशहूर तब ही तो मगरूर हो तुम
नहीं आये फिर तुम बुलाने पे मिलने
वही फिर वजह है कि मजबूर हो तुम

मिरे पास आओ ठहर जाओ कुछ पल
बहुत दिन हुए कि बहुत दूर हो तुम

कभी चाँद जैसी कभी फूल जैसी
बहुत ख़ूबसूरत कोई हूर हो तुम

भले दिल भी टूटे भले जां भी जाए
हो कुछ भी, मुझे फिर भी मंजूर हो तुम

3

धीरे- धीरे हो रहा बर्बाद सब कुछ ऐ ख़ुदा.
आ रहा है हमको अब तो याद सब कुछ ऐ ख़ुदा
.
याद पंछी को नहीं है घोसले वाला शजर,
भूल बैठा शाम के वो बाद सब कुछ ऐ ख़ुदा.

मैं कहूँ की, तुम कहोगे मामला- ऐ- बेख़ुदी,
मेरे मरने पर हुआ आबाद सब कुछ ऐ ख़ुदा

अब तो अपनों को भी अपने भूलते से जा रहे,
हो गया है बे- तरह आज़ाद सब कुछ ऐ ख़ुदा.

आजकल के शायरों से क्या कोई उम्मीद हो?
हो गयी जिनके लिए 'दाद' सब कुछ ऐ ख़ुदा.

4

जरा सी बात हो जाए तो शायद दिल बहल जाए
है मुमकिन कि  हों बातें और ये मौसम बदल जाए

बहुत बेहाल हैं हम अब, तुम्ही बतलाओ कुछ ग़ालिब
तुम्हें पढ़ ले तो हो शायद, ये शायर कुछ संभल जाए

नशे भी अब मुसीबत मारने का दम नहीं रखते
कोई तरक़ीब है जिससे कि मेरा दम निकल जाए?

तुम्हारी बात भी कुछ- कुछ मिज़ाजे- वक़्त जैसी है
कब आये, और कब आकर रुके, ठहरे, निकल जाए

सभी हो जाएँ गर अंधे कहो क्या ख़ूब हो जाये
खरे सिक्कों में मिल जाए तो ये खोटा भी चल जाए

5

कम से कम अब तो कोई राह मिले.
ज्यों मिली आह, वैसे 'वाह' मिले.

हर ख़ता की उसे सज़ा दूंगा,
उसको पकडूँगा बस गवाह मिले.

कुछ नही ना सही मगर उससे,
मशविरा और कुछ सलाह मिले
.
मैं भी बह लूँगा बर्फ़ की तरह,
उसकी बाहों में जब पनाह मिले.

उजली रंगत पे रंग तेरे चढ़े,
आरज़ू और थोड़ी चाह मिले.


(परिचय:

जन्म:  १० जुलाई १९८७ को क़स्बा चंदला, जिला छतरपुर (मध्य प्रदेश) में

शिक्षा: इंजीयरिंग की पढाई  अधूरी
सृजन: 'स्पंदन', कविता_संग्रह '  और अमेरिका के एक प्रकाशन  'पब्लिश अमेरिका' से  प्रकाशित उपन्यास 'वुंडेड मुंबई' जो काफी चर्चित हुआ।

शीघ्र प्रकाश्य: कविता_संग्रह  'रूहानी' और अंग्रेजी में उपन्यास   'नीडलेस नाइट्स'
सम्प्रति: प्रबंध निदेशक, इन्वेलप  ग्रुप
संपर्क: dheerendrasingh@live.com, यहाँ- वहाँभी )



  

कारखानों की प्यास बुझाते सूख गयीं जलथल नदियाँ

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रश्‍मि शर्मा की क़लम से 


संदर्भ झारखंड उर्फ़ गाँव की गलियाँ 


नदि‍यां जीवनदायि‍नी हैं। हमारे अस्‍ति‍त्‍व की पहचान भी। सरकार कभी नदि‍यों को जोड़ने के फि‍राक में रहती है तो कभी बांटने के। नदि‍यों के बारे में मैं हाल का एक अपना नि‍जी अनुभव आप सबों को बताना चाहूंगी। परीक्षा के बाद हुई बच्‍चों की छ़ुटटि‍यां में मैं उन्‍हें अपने गांव लेकर गई....इस वादे के साथ कि‍ इस बार उन्‍हें अपने गांव की उस नदी में नहाने दूंगी, जि‍समें बचपन में मैं नहाया करती थी और उससे जुड़े सैकड़ों कि‍स्‍से उन्‍हें सुनाती थी। बच्‍चे उत्‍साहि‍त थे कि‍ कम से कम इस बार तो उन्‍हें गांव में नहाने का मौका मि‍लेगा। वादे के मुताबि‍क गांव पहुंचने के बाद मैं उन्‍हें अगले ही दि‍न नदी पर ले गई। यह क्‍या........जि‍स नदी से जुड़े अंतहीन कि‍स्‍से मेरी जेहन में कुलबुलाया करते थे...उसका तो कहीं अस्‍ति‍त्‍व ही नहीं बचा। मेरे गांव में फूलों से भरे-भरे पेड़ों के बीच छोटी-पतली सी, रम्‍य और साफ नदी बहती थी, जि‍से हम दोमुहानी नदी के नाम से जानते थे...उसका वजूद ही खत्‍म हो गया। उस नदी को बांध दि‍या गया है। और ऐसा बांधा गया कि‍  नदी अब नदी न लगकर ठहरे पानी की तरह हो गया था। जहां कलकल बहती साफ-स्‍वच्‍छ पानी  हुआ करता था....वह इतना गंदा नजर आ रहा था कि‍ मैंने बच्‍चों को उसे छूने की इजाजत भी नहीं दी। वह नदी जि‍सके पानी में मैं बचपन में घंटों छपाछप करती थी....खो गई।

बच्‍चे कहने लगे.....यही वो नदी है न मां..जहां तुम नहाया करती थी अपनी सहेलि‍यों के साथ....और छोटी-छोटी मछलि‍यां भी पकड़ा करती थी। कहां है कोई मछली...और छि:..इतने गंदे पानी से नहाती थी तुम...मैं नि‍रूतर हो गई। बड़ी मुश्‍कि‍ल से बच्‍चों को यकीन दि‍लाया कि.....हां ये वही नदी है, जि‍समें मैं तैरा करती थी....शाम को सखि‍यों संग ठंढी हवा का आनंद लेने के लि‍ए इसके कि‍नारे बैठा करती थी। अब तो...सब खत्‍म हो गया। बस उसका कि‍नारा वही है....जहां हम स्‍वच्‍छ हवा का आनंद ले सकते हैं क्‍योंकि‍ गांव का वातावरण उतना दूषि‍त नहीं हुआ है।
वाकई बहुत मलाल हुआ.....लगा..बचपन की खूबसूरत अनुभवों की कड़ी से एक कड़ी खत्‍म हो गई। उसे आज से जोड़कर देख पाना मुश्‍कि‍ल है। ऐसा नहीं कि‍ यह मेरे गांव के नदी की बात है। अब तो झारखंड की सभी नदि‍यां जहरीली होती जा रही है। स्वर्णरेखा, दामोदर, बराकर, करकरी, कोयल,अजय, कनहर, शंख  जैसी नदियां मृत होने की राह पर हैं। गर्मियों में तो यहां का पानी सूखने लगा है। लोग त्राहि‍माम करने लगते हैं। कई मील दूर जाकर पानी ढो कर लाना पड़ता है।  ऊपर से स्टील, पावर प्लांट और अन्य कारखानों की गंदगी को नदियों में छोड़ा जा रहा है। फलतः राज्य की सभी नदियां मृतप्राय होने पर हैं। नदियों के किनारे बालू निकालने के कारोबार ने तो नदियों की हालत और भी खराब कर दी है। लोग अंधाधुंध नदि‍यों को दोहन कर रहे हैं। कोई मात्रा तय नहीं कि‍ कि‍स नदी के कि‍नारे से कि‍तनी बालू ि‍नकाली जाए। फलस्‍वरूप नदि‍यां कटतीं जा रही है। जब पानी को रोककर, अपने अंदर समेटकर रखने वाले बालू ही नहीं बच रहे तो पानी का संचय कैसे होगा। उपर से जंगल का अस्‍ति‍त्‍व भी खतरे में हैं। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। यहां तक ि‍क फोरलेन के नाम पर  अब तक प्राप्त सूचना के अनुसार 80,000 से ज्यादा पेड़ काटे जा चुके हैं। और कभी कटेंगे। बदले में पौधों का रोपण भी नहीं कि‍या जा रहा। बारि‍श के पानी के संचय की भी व्‍यवस्‍था सरकार नहीं कर पाई है अब तक।

 नदि‍यों में इतना प्रदूषण है कि‍ जि‍न नदि‍यों से पहले लोग पीने का पानी भी लाते थे.....अब नहाना भी कठि‍न हो गया है। और इसके कारण केवल हम है...हमारा स्‍वार्थ है। हमने नदि‍यों का उपयोग, उपभोग तो पूरा कि‍या..मगर न तो स्‍वच्‍छता का ख्‍याल रखा और न ही प्रदूषि‍त करने वाले हाथों को रोका। नदि‍यों में हर तरह के कूड़े-कचरे फेके जाते हैं। यहां तक कि‍ हम हिंदू लोग पूजा की वस्‍तुओं को भी नदी में प्रवाहि‍त करते हैं। यह भी तो गंदगी का ही रूप है। कल-कारखानों का कचरा सीधे नदी में गि‍रता है। 

जमशेदपुर इलाके के पानी का महत्वपूर्ण स्रोत सीतारामपुर बांध भी मिल के बिना उपचारित जल के बांध में जाने से प्रदूषित होता जा रहा है। झारखंड की उषा मार्टिन की स्टील निर्माण इकाई से फैलते प्रदूषण ने न केवल आसपास के निवासियों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाला है बल्कि समीपवर्ती कृषि भूमि को भी बंजर बना दिया है। उपर से कई जगह तो नदी के कि‍नारे ही बसेरा बनाकर उनका अस्‍ति‍त्‍व खत्‍म कि‍या जा रहा है। झारखंड की प्रमुख नदि‍यों...दामोदर और स्‍वर्णरेखा समेत छोटे-बड़े सभी तरह के नदी-नाले जहरीले हो गए हैं। उनमें आक्‍सीजन का स्‍तर शून्‍य हो चुका है।  फलत: जलजीवों का अस्‍ति‍त्‍व भी संकट में है। यहां तक कि‍ मछलि‍यां भी जहरीली हो रही हैं। इससे अप्रत्‍यक्ष रूप से मछुआरों की जीवि‍का पर भी असर पड़ रहा है और इसका सेवन काने वाले लोगों के स्‍वास्‍थ्‍य पर भी। नदि‍यां भी अतिक्रमि‍त हो रही हैं। उन्‍हें कूड़ा-कचरा डालकर भरा जा रहा है। ऐसे तो कुछ वर्षों पश्‍चात उनकी पहचान ही गुम हो जाएगी। हालांकि‍ नदि‍यों को बचाने के लि‍ए स्‍थानीय स्‍तर पर प्रयास चल रहे हैं। मगर ये नाकाफी हैं। सरकार को और गंभीरता से इस पर वि‍चार करना चाहिए। झारखंड सरकार की प्रस्‍तावित जल नीति‍ में नदि‍यों के जल के इसतेमाल को लेकर मानक तय कि‍ए गए हैं। परंतु इसका सख्‍ती से अनुपालन नहीं कि‍या गया तो कोई खास परि‍णाम और सुधार  नजर नहीं आएंगे। और नदि‍यां इसी तरह मैली..जहरीली होती गई तो मानव अस्‍ति‍त्‍व को भी संकट में डाल सकती है।

ज्ञात रहे कि‍ नदि‍यां ही सभ्‍यता की पहचान होती है। इसलि‍ए हमारा दायि‍त्‍व है कि‍ हम नदि‍यों को प्रदूषि‍त होने से बचाएं। कारखानों के
कचरे के नि‍स्‍तारण के अन्‍य उपाय कि‍ए जाए न कि‍ उन्‍हें नदि‍यों में प्रवाहि‍त कि‍या जाए। जल संरक्षण कि‍या जाए। भूजल क्षरण और वनों की कटाई को रोकने का त्‍वरि‍त उपाय हो। ताकि‍ नदि‍यों का अस्‍ति‍त्‍व बरकरार और और आने वाली पीढ़ी सभी नदि‍यों का नाम सि‍र्फ पाठयपुस्‍तको में न देखे......वरन मौका मि‍लने पर उन्‍हें अपने आंखों से भी देखे।


(परिचय:
जन्म:2 अप्रैल, मेहसी थाना, मोतीहारी, बि‍हार में 

शिक्षा रांची वीमेंस कॉलेज से स्नातक, इतिहास में स्नातकोत्तर और पत्रकारिता में स्नातक उपाधि  

लेखन की शुरूआत छात्र जीवन से ही। पत्रकारि‍ता  की तरफ रूझान स्‍नातक के दौरान । यह यात्रा प्रभात खबर से शुरू होते हुए कई पत्र-पत्रि‍काओं तक पहुंची डेढ़  दशक के दौरान नौकरी भी और स्‍वतंत्र पत्रकारि‍ता भी। साहि‍त्‍यि‍क पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों के लि‍ए लि‍खने-पढ़ने का सि‍लसि‍ला जारी ,अध्‍ययन और शोध में संलग्‍न। साथ ही इसी बीच रेडि‍यो व दूरदर्शन में सक्रि‍य भागेदारी, अति‍थि एवं उद़घोषि‍का दोनों रूपों में। 

सृजन: कवि‍ता संग आलेख का प्रकाशन देश के वि‍भि‍न्‍न अखबारों और पत्रि‍काओं  में।  समय-समय पर कवि‍ताओं का प्रसारण 
संप्रति:स्‍वतंत्र पत्रकारि‍ता एवं लेखन कार्य 
ब्लॉगजनवरी 2008 में रूप-अरूप  नाम से शुरू कि‍या 
संपर्कrashmiarashmi@gmail.com  ) 




"आई डोंट बीलिव इन गॉड"

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शिखा वार्ष्णेयकी क़लम से 





संदर्भ लंदन की आतंकी घटना 


अपने देश से लगातार , भीषण गर्मी की खबरें मिल रही हैं, यहाँ बैठ कर उन पर उफ़ , ओह , हाय करने के अलावा हम कुछ नहीं करते, कर भी क्या सकते हैं. यहाँ भी तो मौसम इस बार अपनी पर उतर आया है. तापमान ८ डिग्री से १२ डिग्री के बीच झूलता रहता है. घर की हीटिंग बंद किये महीना हो गया, अब काम करते उँगलियाँ ठण्ड से ठिठुरती हैं तब भी हीटिंग ऑन करने का मन नहीं करता, मई का महीना है। आखिर महीने के हिसाब से सर्दी , गर्मी को महसूस करने की मानसिकता से उबर पाना इतना भी आसान नहीं. बचपन की आदतें, मानसिकता और विचार विरले ही पूरी तरह बदल पाते हैं. फिर न जाने कैसे कुछ लोग इस हद्द तक बदल जाते हैं कि आपा ही खो बैठते हैं.
लन्दन में पिछले दिनों हुए एक सैनिक की जघन्य हत्या ने जैसे और खून को जमा दिया है।सुना है उन दो कातिलों में से एक मूलरूप से इसाई था, जो 2003 में औपचारिक रूप से मुस्लिम बना , और पंद्रह साल की उम्र में उसके व्यवहार में बदलाव आना शुरू हुआ, उससे पहले वह एक सामन्य और अच्छा इंसान था, उसके स्कूल के साथी उसे एक अच्छे साथी के रूप में ही जानते हैं। आखिर क्या हो सकती है वह बजह कि वह इस हद्द तक बदल गया, ह्त्या करने के बाद उसे खून से रंगे हाथों और हथियारों के साथ नफरत भरे शब्द बोलते हुए पाया गया, यहाँ तक कि वह भागा भी नहीं, इंतज़ार करता रहा पुलिस के आने का।
कहीं कुछ तो कमी परवरिश या शिक्षा या व्यवस्था में ही रही होगी जो एक सामान्य छात्र एक कोल्ड ब्लडेड मर्डरर में तब्दील हो गया।
सोचते सोचते सिहरन सी होने लगी शिराओं में। ख्याल रखना होगा बच्चों का, न जाने दोस्तों की कौन सी बात कब क्या असर कर जाए, और कब उनकी विचार धारा गलत मोड़ ले ले और हमें पता भी न चले।
ऐसे में जब बेटी किसी बात पर कहती है "आई डोंट बीलिव इन गॉड" तो गुस्से की जगह सुकून सा आता है। बेशक न माने वो अपना धर्म, पर किसी धर्म को अति तक भी न अपनाए, ईश्वर को माने या न माने, इंसान बने रहें इतना काफी है। 
ऐसे हालातों में जमती रगों में कुछ गर्मी का अहसास होता है तो वो सिर्फ उन महिलाओं के उदाहरण देखकर। जिन्होंने इस घटना स्थल पर साहस का परिचय देकर स्थिति को संभाले रखने की कोशिश की। आये दिन स्त्रियों पर होते अत्याचार की कहानियों के बीच यह कल्पना से बाहर की बात लगती है कि कोई महिला सामने रक्त रंजित हथियारों के साथ खड़े खूनी और पास पड़ी लाश को देखने के बाद भी उस जगह जाकर उस खूनी से बात करने की हिम्मत करती है। महिलाओं और स्कूली बच्चों से भरी उस चलती फिरती सड़क पर वो किसी और को निशाना न बनाए, इसलिए वह उसे बातों में लगाए रखती है.,तो कोई सड़क पर पड़े खून से लथपथ व्यक्ति को बचाने के प्रयास करती है। बिना यह परवाह किये कि उस व्यक्ति का कहर खुद उस पर भी टूट सकता है।

क्या यह हमारे समाज में संभव था ? हालाँकि रानी झाँसी और दुर्गाबाई के किस्से हमारे ही इतिहास से आते हैं। परन्तु वर्तमान सामाजिक व्यवस्था और हालातों में सिर्फ किस्से ही जान पड़ते हैं। अपने मूल अधिकारों तक के लिए लड़ती स्त्री, जिसके बोलने , चलने , पहनने तक के तरीके, समाज के ठेकेदार निर्धारित करते हों , क्या उसमें इतना आत्म विश्वास और इतनी हिम्मत होती कि वह इतने साहस का यह कदम उठा पाती ? क्या अगर मैं वहां होती तो ऐसा कर पाती ?
सवाल और बहुत से दिल दिमाग पर धावा बोलने लगते हैं, जिनका जबाब मिलता तो है पर हम अनसुना कर देना चाहते हैं। वर्षों से बैठा डर और असुरक्षा,व्यक्तित्व पर हावी रहती है, हमारे लिए शायद उससे उबरपाना मुश्किल हो , परन्तु अपनी अगली पीढी को तो उन हीन भावनाओं से हम मुक्त रख ही सकते हैं। बेशक आज समाज की स्थिति चिंताजनक हो , पर आने वाला कल तो बेहतर हो ही सकता है।
इन्हीं ख्यालों ने ठंडी पड़ी उँगलियों में फिर गर्माहट सी भर दी है, और चल पड़ी हैं वे फिर से कीबोर्ड पर, अपने हिस्से का कुछ योगदान देने के लिए।

(परिचय:
जन्म: 20 दिसंबर को नई दिल्ली में 
शिक्षा: शुरआती रानीखेत में। बाद में मास्को स्टेट यूनिवरसिटी से टीवी जर्नलिज्म में एमए गोल्ड मेडल हासिल 
सृजन: लेख, कविता, संस्मरण प्रचुर लिखा, प्रसारण व प्रकाशन भी। 'स्मृतियों में रूस' संस्मरणात्मक किताब 

ब्लॉग: स्पंदन 

संप्रति: लंदन में रहकर स्वतंत्र लेखन 
संपर्क: shikha.v20@gmail.com )   

       

सुकमा के बहाने नक्सलियों की पड़ताल

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ध्रुव गुप्ताकी क़लम से 

छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं पर नक्सली हमले के बाद कुछ मित्रों के फ़ेसबुक स्टेटस देखकर ऐसा लगता है कि  नक्सलियों के बारे में उनका ज्ञान किताबों पर ज्यादा आधारित है जो उन्होंने महाश्वेता देवी और अरुन्धती राय जैसे आतंकवाद के समर्थक लेखकों से प्राप्त किया है। बिहार के कई नक्सल प्रभावित जिलों में अपने व्यक्तिगत अनुभव और कई नक्सली नेताओं से पूछताछ के आधार पर नक्सलियों के बारे में कुछ बहुप्रचलित भ्रमों का मैं बिन्दुवार निवारण करना चाहूंगा। मुझे पता है कि बहुत से मानवाधिकारवादी और वामपंथी मित्रों को यह नागवार गुज़रेगा, लेकिन सच तो सच ही होता है !

लुटेरों का है समूह 

यह आम धारणा है कि नक्सलवादी शोषक सामंती और पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध युद्धरत हैं। हकीकत यह है कि यह वर्गसंघर्ष की आड़ में यहां अपराधियों और लूटेरों का एक समूह कार्यरत है जो पहले स्थानीय आदिवासियों और दलितों की मदद से पहले जंगलों, पहाड़ों और खेती के लिए उर्वर जमीनों पर अपना वर्चस्व स्थापित करता है, जिसके बाद आरंभ होता है वन पदाधिकारियों, कीमती लकड़ी और बीड़ी पत्ते के ठेकेदारों, सड़क या भवन निर्माण में लगी कंपनियों, बालू तथा पत्थर के ठेकेदारों और इलाके के किसानों से रंगदारी उगाहने का अंतहीन सिलसिला। लूटपाट की सुविधा के लिए उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र को एरिया और जोन में बांट रखा है। एक एक नक्सली जोन की कमाई करोड़ों में है। यह मत सोचिए कि यह कमाई क्षेत्र के आदिवासियों और दलितों की शिक्षा, रोजगार और कल्याण पर खर्च होता है । इसका आधा हिस्सा आंध्र प्रदेश और बंगाल में बैठे नक्सलवाद के आकाओं को भेजा जाता है और आधा स्थानीय नक्सलियों के हिस्से आता है। लगभग तमाम नक्सली नेताओं के पास महानगरों में आलीशान फ्लैट्स और भारी बैंक बैलेंस है। यक़ीन मानिए, इस लूट का कोई हिस्सा आदिवासियों या दलितों के पास नहीं जाता।

स्थानीय दलित-आदिवासियों के शोषक  
 
यह आम धारणा है कि नक्सलवाद के बैनर तले समाज का वंचित तबका - आदिवासी और दलित अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे है। शायद लोगों को पता नहीं कि किसी भी जोन का नेतृत्व आंध्र या बंगाल में बैठे आक़ा तय करते हैं। किसी जोन में नेता और हमलावर दस्ते के लोग आमतौर पर स्थानीय नहीं होते, बाहर से भेजे जाते हैं। हर जोन में ऐसे 10 से 20 लोग बाहर से पोस्ट किये जाते हैं जिनपर निर्णय और कार्रवाई की ज़िम्मेदारी होती है। स्थानीय लोगों की भूमिका महज़ हमलों के वक़्त संख्या बढ़ाने, नक्सलियों के हथियार ढोने और छुपाने, दस्तों के लिए आसपास के गावों से भोजन जुटाने और उनकी हवस के लिए अपने गांव-टोलों से लडकियां भेजने तक सीमित है। इतनी सेवा के बदले उन्हें सौ-पचास रूपये और कभी-कभी किसी किसान की जमीन पर कब्ज़ा कर खेतीबारी का आदेश मिलता है। किसी ऑपरेशन के बाद नक्सली नेता तो कुछ समय के लिए बड़े शहरों में छुपकर एय्याशी करते हैं, पुलिस के दमन का शिकार स्थानीय आदिवासियों और दलितों को होना पड़ता है। 

क्या निशाने पर पूंजीपति और सामंत भी!

ज्यादातर लोगों का मानना है कि नक्सलवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिंसा का सहारा लेती है। मित्रों, आप भ्रम में हैं। यदि इनका कोई विचार है तो वह कागजों में होगा। पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक हर चुनाव के पहले ये लोग पहले चुनावी वहिष्कार का नारा और कुछ छिटपुट घटनाओं को अंजाम देकर अपनी क़ीमत बढ़ाते हैं और फिर सबसे ज्यादा कीमत देने वाले किसी उम्मीदवार, चाहे वह कितना बड़ा शोषक और अनाचारी क्यों न हो, के पक्ष में फतवे ज़ारी करते है। आंकड़े एकत्र कर के देख लीजिये कि कितने सामंतों और पूंजीपतियों के विरुद्ध नक्सलियों ने हिंसात्मक कारवाई की है। आपको निराशा हाथ लगेगी। इनकी नृशंसहिंसा के शिकार हमेशा से निहत्थे ग्रामीण, गरीब सिपाही तथा छोटे और सीमांत किसान ही होते रहे हैं और होते रहेंगे !

(परिचय:
जन्म:पहली सितंबर 19 50 
शिक्षा: गोपालगंज से स्नातक और मुजफ्फरपुर से स्नातकोत्तरकिया 

भारतीय पुलिस सेवा में बड़े पदों पर रहे.  खगड़िया, सुपौल, बांका, मुंगेर, समस्तीपुर, मोतिहारी और सीतामढ़ी आदि के सीआईडी और पुलिस मुख्यालयों में रहे।  बाद में रिटायरमेंट ले लिया।  

सृजन: कविता और सामयिक आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित 
संप्रति: दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन 
संपर्क:dhruva.n.gupta@gmail.com )  

   

राब्ता रखना ज़िंदगी के हर चेहरे से

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कल्याणी कबीर की क़लम से

वो क़लम
जो उगलती है आग कागजों पे .
दिलाती है ये उम्मीद कि बाकी है इंसानियत
आतंक बोने वाले लकड़बग्घों पे चीखती है जो ,
देती है जवाब रज़िया के बदन पर फिसलती ओछी नज़र को .

वो कलम जो भूखी रहकर भी दूसरों की रोटी के लिए शोर करती है ,
वो कलम जो जंगलों में छिपी जिंदगियों में भोर करती है ,
जो घंटो जगा करती है , चला करती है
किसी पहरुए की तरह
उस कलम से
 प्यार है मुझे .


2. 

सोचती हूँ
और डरती हूँ
जब हौसलों के चेहरे पर पड़ जायेंगी झुर्रियाँ
मुझे रोटी के लिए तेरे दर की  तरफ देखना होगा
जब बुढापा रुलाएगा कदम दर कदम पे
तब महफूज़ छत की जरुरत होगी मेरी बूढी नींद को
गर दूंगी तेरे हाथों में दवाओं की कोई लिस्ट
तू भूल तो न जाएगा उन दवाओं को खरीदना
अभी तो चूमता है मुझको बेसबब घड़ी -घड़ी 
कहीं तरसेंगे तो नहीं हम तेरे हाथों की छुअन को
जाने कल के आईने में कैसे दिखेंगे हमारे रिश्ते
फिलवक्त तो यही सच है हमारे दरम्यान मेरे बच्चे.
'' मेरे जिस्म का टुकड़ा तू मेरी जान रहेगा
मेरे लिए हमेशा तू नादान रहेगा

 3. 


ज़िन्दगी के इशारों पर .
जब बजते हैं सितार दर्द के
तभी गुनगुनाती है ज़िन्दगी
खिलती है तभी वो एक गुलाब के मानिंद
जब घेरते हैं हालात नुकीले ख़ार की तरहI
आफताब बनकर चमकने से पहले ये ज़िन्दगी
हताशा की काली रात से गुजराती जरुर हैI
यह जलती है, तपती है धूप के झरने में हर रोज़
ताकि मुफलिसी में भी मुस्कुराती रहे किसी फ़क़ीर की तरह I
तभी तो ,,
राब्ता रखना ज़िन्दगी के हर चेहरे से मगर
मत झांकना कभी इसकी जादुई आँखों में I
मानकर इसे इस वक्त का सबसे बड़ा खुदा
जी लेना अपनी साँसें ज़िन्दगी के इशारों परI


(परिचय:
जन्म: ५ जनवरी को मोकामा ,बिहार में .
शिक्षा: स्नातकोत्तर रांची विश्वविद्यालय से, शोधार्थी - महाकाव्य विषय पर .
सृजन: स्थानीय साहित्यिक पत्रिकाओं और समाचारपत्रों में रचनाएं प्रकाशित .
सम्प्रति: शिक्षिका .( जमशेदपुर )
जमशेदपुर आकाशवाणी में आकस्मिक उद्घोषिका
संपर्क:  kalyani.kabir@gmail.­com)



मलयाली सिनेमा की पहली अभिनेत्री रोज़ी के दलित दामन पर दबंग दाग

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उपेक्षित हैं मलयाली सिनेमा के ओबीसी पिता जेसी डेनियल



अश्विनी कुमार पंकजकी क़लम से

क्या भारतीय सिनेमा के सौ साल में पीके रोजी को याद किया जाएगा? सिनेमा का जो इतिहास अब तक पेश किया जा रहा है उसके मुताबिक तो नहीं. सुनहले और जादूई पर्दे के इस चमकीले इतिहास में निःसंदेह भारत के उन दलित कलाकारों को कोई फिल्मी इतिहासकार नहीं याद कर रहा है जिन्होंने सिनेमा को इस मुकाम तक लाने में अविश्वसनीय यातनाएं सहीं. थिकाडु (त्रिवेन्द्रम) के पौलुस एवं कुंजी के दलित क्रिश्चियन परिवार में जन्मी रोजम्मा उर्फ पीके रोजी (1903-1975) उनमें से एक है जिसे मलयालम सिनेमा की पहली अभिनेत्री होने का श्रेय है. यह भी दर्ज कीजिए कि रोजी अभिनीत ‘विगाथाकुमरन’ (खोया हुआ बच्चा) मलयालम सिनेमा की पहली फिल्म है. 1928 में प्रदर्शित इस मूक फिल्म को लिखा, कैमरे पर उतारा, संपादित और निर्देशित किया था ओबीसी कम्युनिटी ‘नाडर’ से आने वाले क्रिश्चियन जेसी डेनियल ने. 

रोजी के पिता पौलुस पलयम के एलएमएस चर्च में रेव. फादर पारकेन के नौकर थे. जबकि वह और उसकी मां कुंजी घर का खर्च चलाने के लिए दिहाड़ी मजदूरी किया करते थे. परंपरागत दलित नृत्य-नाट्य में रोजी की रुचि थी और वह उनमें भाग भी लेती थी. लेकिन पेशेवर कलाकार या अभिनेत्री बनने के बारे में उसने कभी सोचा नहीं था. उस जमाने में दरअसल वह क्या, कोई भी औरत फिल्मों में काम करने के बारे में नहीं सोचती थी. सामाजिक रूप से फिल्मों में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था. पर जब उसे जेसी डेनियल का प्रस्ताव मिला तो उसने प्रभु वर्ग के सामाजिक भय को ठेंगे पर रखते हुए पूरी बहादुरी के साथ स्वीकार कर लिया. 

मात्र 25 वर्ष की उम्र में जोसेफ चेलैया डेनियल नाडर (28 नवंबर 1900-29 अप्रैल 1975) के मन में फिल्म बनाने का ख्याल आया. नाडर ओबीसी के अंतर्गत आते हैं और आर्थिक रूप से मजबूत होते हैं. डेनियल का परिवार भी एक समृद्ध क्रिश्चियन नाडर परिवार था और अच्छी खासी संपत्ति का मालिक था.  डेनियल त्रावणकोर (तमिलनाडु) के अगस्तीवरम तालुका के बासिंदे थे और त्रिवेन्दरम के महाराजा कॉलेज से उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की थी. मार्शल आर्ट ‘कलारीपट्टू’ में उन्हें काफी दिलचस्पी थी और उसमें उन्होंने विशेषज्ञता भी हासिल की थी. कलारी के पीछे वे इस हद तक पागल थे कि महज 22 वर्ष की उम्र में उस पर ‘इंडियन आर्ट ऑफ फेंसिंग एंड स्वोर्ड प्ले’ (1915 में प्रकाशित) किताब लिख डाली थी. कलारी मार्शल आर्ट को ही और लोकप्रिय बनाने की दृष्टि से उन्होंने फिल्म के बारे में सोचा.  फिल्म निर्माण के उस शुरुआती दौर में बहुत कम लोग फिल्मों के बारे में सोचते थे. लेकिन पेशे से डेंटिस्ट डेनियल को फिल्म के प्रभाव का अंदाजा लग चुका था और उन्होंने तय कर लिया कि वे फिल्म बनाएंगे.

फिल्म निर्माण के मजबूत इरादे के साथ तकनीक सीखने व उपकरण आदि खरीदने के ख्याल से डेनियल चेन्नई जा पहुंचे. 1918 में तमिल भाषा में पहली मूक फिल्म (कीचका वधम) बन चुकी थी और स्थायी सिनेमा हॉल ‘गेइटी’ (1917) व अनेक फिल्म स्टूडियो की स्थापना के साथ ही चेन्नई दक्षिण भारत के फिल्म निर्माण केन्द्र के रूप में उभर चुका था. परंतु चेन्नई में डेनियल को कोई सहयोग नहीं मिला. कई स्टूडियो में तो उन्हें प्रवेश भी नहीं करने दिया गया. दक्षिण भारत का फिल्मी इतिहास इस बात का खुलासा नहीं करता कि डेनियल को स्टूडियो में नहीं घुसने देने की वजह क्या थी. इसके बारे में हम अंदाजा ही लगा सकते हैं कि शायद उसकी वजह उनका पिछड़े वर्ग (ओबीसी) से होना हो. 

बहरहाल, चेन्नई से निराश डेनियल मुंबई चले गए. मुंबई में अपना परिचय उन्होंने एक शिक्षक के रूप में दिया और कहा कि उनके छात्र सिनेमा के बारे में जानना चाहते हैं इसीलिए वे मुंबई आए हैं. इस छद्म परिचय के सहारे डेनियल को स्टूडियो में प्रवेश करने, फिल्म तकनीक आदि सीखने-जानने का अवसर मिला. इसके बाद उन्होंने फिल्म निर्माण के उपकरण खरीदे और केरल लौट आए.

1926 में डेनियल ने केरल के पहले फिल्म स्टूडियो ‘द त्रावणकोर नेशनल पिक्चर्स’ की नींव डाली और फिल्म निर्माण में जुट गए. फिल्म उपकरण खरीदने और निर्माण के लिए डेनियल ने अपनी जमीन-संपत्ति का बड़ा हिस्सा बेच डाला. उपलब्ध जानकारी के अनुसार डेनियल की पहली और आखिरी फिल्म की लागत उस समय करीब चार लाख रुपये आई थी. आखिरी इसलिए क्योंकि उनकी फिल्म ‘विगाथाकुमरन’ को उच्च जातियों और प्रभु वर्गों के जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा. फिल्म को सिनेमा घरों में चलने नहीं दिया गया और व्यावसायिक रूप से फिल्म सफल नहीं हो सकी. इस कारण डेनियल भयानक कर्ज में डूब गए और इससे उबरने के लिए उन्हें स्टूडियो सहित अपनी बची-खुची संपत्ति भी बेच देनी पड़ी. हालांकि उन्होंने कलारी पर इसके बाद एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनाई, लेकिन तब तक वे पूरी तरह से कंगाल हो चुके थे. 

फिल्म निर्माण के दौर में डेनियल के सामने सबसे बड़ी समस्या स्त्री कलाकार की थी. सामंती परिवेश और उसकी दबंगता के कारण दक्षिण भारत में उन्हें कोई स्त्री मिल नहीं रही थी. थक-हार कर उन्होंने मुंबई की एक अभिनेत्री ‘लाना’ से अनुबंध किया. पर किसी कारण उसने काम नहीं किया. तब उन्हें रोजी दिखी और बिना आगे-पीछे सोचे उन्होंने उससे फिल्म के लिए हां करवा ली. रोजी ने दैनिक मजदूरी पर ‘विगाथाकुमरन’ फिल्म में काम किया. फिल्म में उसका चरित्र उच्च जाति की एक नायर लड़की ‘सरोजम’ का था. मलयालम की इस पहली फिल्म ने जहां इसके लेखक, अभिनेता, संपादक और निर्देशक डेनियल को बरबाद किया, वहीं रोजी को भी इसकी भयानक कीमत चुकानी पड़ी. दबंगों के हमले में बाल-बाल बची रोजी को आजीवन अपनी पहचान छुपाकर गुमनामी में जीना पड़ा.

त्रिवेन्दरम के कैपिटल थिएटर में 7 नवंबर 1928 को जब ‘विगाथाकुमरन’ प्रदर्शित हुई तो फिल्म को उच्च जातियों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा. उच्च जाति और प्रभु वर्ग के लोग इस बात से बेहद नाराज थे कि दलित क्रिश्चियन रोजी ने फिल्म में उच्च हिंदू जाति नायर की भूमिका की है. हॉल में पत्थर फेंके गए, पर्दे फाड़ डाले. रोजी के घर को घेर कर समूचे परिवार की बेइज्जती की गई. फिल्म प्रदर्शन की तीसरी रात त्रावणकोर के राजा द्वारा सुरक्षा प्रदान किए जाने के बावजूद रोजी के घर पर हमला हुआ और दबंगों ने उसकी झोपड़ी को जला डाला. चौथे दिन भारी विरोध के कारण फिल्म का प्रदर्शन रोक दिया गया. 

दक्षिण भारत के जानेमाने फिल्म इतिहासकार चेलंगट गोपालकृष्णन के अनुसार जिस रात रोजी के घर पर हमला हुआ और उसे व उसके पूरे परिवार को जला कर मार डालने की कोशिश की गई, वह किसी तरह से बच कर निकल भागने में कामयाब रही. लगभग अधमरी अवस्था में उसे सड़क पर एक लॉरी मिली. जिसके ड्राईवर ने उसे सहारा दिया और हमलावरों से बचाते हुए उनकी पकड़ से दूर ले गया. उसे बचाने वाले ड्राईवर का नाम केशव पिल्लई था जिसकी पत्नी बन कर रोजी ने अपनी शेष जिंदगी गुमनामी में, अपनी वास्तविक पहचान छुपा कर गुजारी. 

रोजी की यह कहानी फिल्मों में सभ्रांत परिवारों से आई उन स्त्री अभिनेत्रियों से बिल्कुल उलट है, जिनकी जिंदगियां सुनहले फिल्म इंडस्ट्री ने बदल डाली. फिल्मों ने उन्हें शोहरत, धन और अपार सम्मान दिया. लेकिन रोजी को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी. उसे लांछन, अपमान व हमले का सामना करना पड़ा. दृश्य माध्यम से प्रेम की कीमत आजीवन अदृश्य रहकर चुकानी पड़ी. 

जेसी डेनियल को तो अंत-अंत तक उपेक्षा झेलनी पड़ी. बेहद गरीबी में जीवन जी रहे डेनियल को केरल सरकार मलयाली मानने से ही इंकार करती रही. आर्थिक तंगी झेल रहे कलाकारों को वित्तीय सहायता देने हेतु जब सरकार ने पेंशन देने की योजना बनाई, तो यह कह कर डेनियल का आवेदन खारिज कर दिया गया कि वे मूलतः तमिलनाडु के हैं. डेनियल और रोजी के जीवन पर बायोग्राफिकल फीचर फिल्म ‘सेल्युलाइड’ (2013) के निर्माता-निर्देशक कमल ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि केरल के पूर्व मुख्यमंत्री करूणाकरन और ब्यूरोक्रेट मलयाट्टूर रामकृष्णन नहीं चाहते थे कि नाडर जाति के फिल्ममेकर को ‘मलयालम सिनेमा का पिता’ होने का श्रेय मिले. हालांकि बाद में, 1992 में केरल सरकार ने डेनियल के नाम पर एक अवार्ड घोषित किया जो मलयाली सिनेमा में लाइफटाईम एचिवमेंट के लिए दिया जाता है. 

रोजी और जेसी डेनियल के साहस, रचनात्मकता और बलिदान की यह कहानी न सिर्फ मलयालम सिनेमा बल्कि भारतीय फिल्मोद्योग व फिल्मी इतिहासकारों के भी सामंती चेहरे को उधेड़ती है. रोजी और डेनियल हमें सुनहले पर्दे के पीछे उस सड़ी दुनिया में ले जाते हैं जहां क्रूर सामंती मूंछे अभी भी ताव दे रही हैं. सिनेमा में वंचित समाजों के अभूतपूर्व योगदान को स्वीकार करने से हिचक रही है. यदि चेलंगट गोपालकृष्णन, वीनू अब्राहम और कुन्नुकुजी एस मनी ने डेनियल व रोजी के बारे में नहीं लिखा होता तो हम मलयालम सिनेमा के इन नींव के पत्थरों के बारे में जान भी नहीं पाते. न ही जेनी रोविना यह सवाल कर पाती कि क्या आज भी शिक्षा व प्रगतिशीलता का पर्याय बने केरल के मलयाली फिल्मों कोई दलित अभिनेत्री नायर स्त्री की भूमिका अदा कर सकती है? 


(परिचय: वरिष्‍ठ पत्रकार। झारखंड के विभिन्‍न जनांदोलनों से जुड़ाव।
सृजन: साहित्य, कला , संस्कृति पर प्रचुर लेखन-प्रकाशन। कई किताबें प्रकाशित। आदिवासी सौन्दर्य शास्त्रपर केन्द्रित पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य।
संप्रति: संताली पत्रिका जोहार सहियाऔर रंगकर्म त्रिमासिक रंगवार्ता का सम्पादन. इंटरनेट पत्रिका अखड़ाकी टीम के सदस्‍य।
संपर्क:akpankaj@gmail.com )         


शाम की मुंडेर पर कुछ सवाल बैठे हैं

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कुलदीप अंजुम की क़लम से 


 
1.शांति 

 इतिहास में अहिंसा अपंगो का उपक्रम रही !
अमन बुजदिलों का हथियार 
तभी तो कबूतर जैसे
मासूम और अपेक्षाकृत कम होशियार 
परिंदे को बनाया गया शांति का प्रतीक !!

 2.जंग 
 
 इन्सान और जिंदगी 
के बीच की जंग 
शाश्वत और ऐतिहासिक है |
यदि केवल कर्म ही 
इस प्रतिस्पर्धा का 
आधार होता 
तो सुनिश्चित सी थी
इन्सान की जीत ,
मगर इस जंग के 
अपने कुछ एकतरफा 
उसूल हैं ,
भूख , परिवार ,परम्पराएं 
मजबूरी ,समाज, जिम्मेदारियां 
खेंच देती हैं
हौसलों के सामने 
इक लक्छ्मन रेखा 
और फिर कर्म 
का फल भी तो 
हमेशा नहीं मिलता ,
लटकती रहती है 
भाग्य की तलवार |
दमतोड़ देते हैं हौसले
और घट जाती है
जीवटता के जीतने की 
प्रत्याशा ||


 3. अष्टावक्र

आज फिर उसी दरबार पँहुचे अष्टावक्र  
फिर  हो हो कर हंस पड़े उदंड दरबारी
फिर लज्जित हो गए हैं जनक 
अष्टावक्र इस बार नहीं दुत्कारते किसी को
नीचा कर लिया है सर 
शायद समझ गए हैं
दरबारियों की ताकत 
जनक की मजबूरी  
चमड़े की अहमियत 
और ज्ञान की मौजूदा कीमत !

 4.जबाब

शाम की मुंडेर पर
कुछ सवाल बैठे हैं
हाल पूछते हैं वो

हाल क्या बताऊ में
दिल की इस तबाही का
ख्वाब ख्वाब सेहरा है
जार जार बीनाई
एक ही तो किस्सा है
फूल की जवानी का
तुमने भी तो देखा है
अंत इस कहानी का

फिर भी उनसे कह देना
मैं अभी भी जिंदा हूँ
खूब सोचता हूँ मैं 
ख्वाब देखता हूँ मैं !!
हाल क्या बताऊ में
5. मैंने ईश्वर को देखा है 

 मैंने ईश्वर को देखा है !
जाड़े कि निष्ठुर रातों में !
गहरी काली बरसातों में !
कंपकपी छोडती काया में !
पेड़ों कि धुंधली छाया में !
ज़र्ज़र कम्बल से लड़ते !
मैंने ईश्वर को देखा है !!

फुटपाथों पे जीते मरते !
सांसों की गिनती करते !
भूख मिटाने की खातिर !
मजबूरी में जो हुए शातिर !
खुद से ही धोखा करते ?
मैंने ईश्वर को देखा है !!

कुछ टूटी सी झोपड़ियों में !
भूखी सूखी अंतड़ियों में !
बेबस से ठन्डे चूल्हों में !
ताज़े मुरझाये फूलों में !
कुछ आखिर मद्धम साँसों में !
ठंडी पड़ती सी लाशों में !
इंसानियत खोजते दुनिया में !
मैंने ईश्वर को देखा है !!

 6.गेहूं बनाम गुलाब 
 निजाम के बदलने के साथ ही
रवायतें बदलने की रस्म में
सब कुछ तेज़ी से बदला
पिछली बार की तरह ....
खेत खेत जाके
ढूंढा गया गेंहू
उखाड़ फेंकने के लिए
रोपा गया कृपापात्र गुलाब.....
अधमरे गेहूं के लिए
कोई और जगह न थी
सिवाए एक
कविता के छोटे से ज़मीन के टुकड़े पर  
जहाँ वह जिंदा तो रह  सकता है 
सब्ज़ हाल  नहीं ......!!


7. अगस्त्य 


टिटहरियां आज भी चीखती हैं ...
मजबूर हैं अगस्त्य 
घट गयी है उनकी कूबत 
नहीं पी सकते समुद्र .......!!


8.हुनर

तुम्हे मालूम है 
मैंने पा ली है ऊंचाई 
और हो गया हूँ आलोचना से परे 
इसलिए नहीं कि 
मैंने उसूलों को सींचा है उम्रभर 
वरन  इसलिए 
कि मुझे आता है हुनर 
पलटने का 
आंच के रुख के मुताबिक .........!



(:परिचय
जन्म: पच्चीस नवम्बर १९८८ उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में
शिक्षा: बी टेक (कंप्यूटर साइंस )
सृजन : कविता और ग़ज़ल
सम्प्रति : इंफ़ोसिस में एनालिस्ट
संपर्क: kuldeeps.hcst@gmail.­com)




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